अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली का विकास (Evolution of the International Monetary System)

अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली का विकास (Evolution of the International Monetary System)

अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली का विकास (Evolution of the International Monetary System)

प्रश्न :- अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली का वर्णन करें? इसमे सुधार के सुक्षाव दे?

उत्तर :- अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली से आशय विश्व विदेशी मुद्रा बाजार में चालू उस प्रणाली से है जिसके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और पूजी गतियों को वित्त प्रदान किया जाता है और विनिमय दर निर्धारित की जाती है।

मार्च 1973 के प्रारम्भ में भारत, कनाडा, जापान, स्विट्जरलैण्ड, इग्लैंड और कई छोटे-छोटे देशों में तिरती विनिमय दरे चलती थी। परन्तु यूरोपीय देशों (EC) की संयुक्त तिरण मार्च 1973 के बाद भी जारी रही। अब इसे 'झील में सांप' नाम दिया गया, क्योंकि कोई ऐसी पट्टी नहीं थी जिसके भीतर अन्य करेसियों की सापेक्षता में EC करेसियां घट-बढ सकती थी। मार्च 1979 में यूरोपीय मुद्रा प्रणाली स्थापित की गई। इसने यूरोपीय करेंसी इकाई बनाई जो प्रमुख यूरोपीय मुद्राओं की बनी लेखा की इकाई की 'टोकरी' मुद्रा है। यूरोपीय मुद्रा प्रणाली (EMS) के अनुसार सदस्य देशों की आन्तरिक विनिमय दर के परिवर्तन पर यह प्रतिबन्ध रहता है कि वे 'केन्द्रीय दरों' से उनके 2.25% से अधिक न घट-बढ़े। इसमे केवल इटली के लीरा को 6% तक घटने-बढ़ने की छूट दी गई थी।

इस बीच जनवरी 1976 में जमैका समझौता हुआ। इस समझौते के परिणामस्वरूप IMF के तत्वाधान में तिरती विनिमय दरों की प्रणाली को मान्यता प्रदान की गई। IMF के अधिकांश सदस्य देशों को अनेक कारणों से विवश होकर अपनी करेसियां तिरती नानी पड़ी। अल्पकालीन पूँजी गतियाँ बहुत बढ़ गई और समायोज्य कीलनों की प्रणाली के दौरान केन्द्रीय बैंक करेसियो के सट्टे को रोकने में असमर्थ रहे। 1973 में जो तेल संकट उत्पन्न हुआ और 1974 में जो तेल की कीमतें बढ़ी उनके परिणामस्वरूप 1974-75 में विश्व के औद्योगिक देशों में भारी सुस्ती आई। इसका परिणाम यह हुआ कि डालर में तेजी से गिरावट आई और 1978 के अन्त में यह इतनी अधिक बढ़ गई कि संयुक्त राज्य अमरीका की सरकार ो व्यापक हस्तक्षेप की नीति अपनाने का निर्णय लेना पड़ा ताकि डालर की कीमत को आगे उस हद तक गिरने से रोका जा सके जहाँ वह यह वित्तीय आंतक न उत्पन्न कर दे। अन्त में 1978 तक लोचदार विनिमय दरों की प्रणाली टिक गई।

1978 के IMF चार्टर के दूसरे संशोधन के अनुसार सदस्य देशो के लिये जरूरी नहीं है कि वे स्वर्ण अथवा डालर मूल्य के बराबर मूल्य बनाए रखे और स्थापित करें। IMF का सदस्य देशों की विनिमय दर समायोजन नीतियो पर कोई नियंत्रण नहीं है परन्तु IMF अपने सदस्य देशों की विनिमय दर नीतियों पर अन्तर्राष्ट्रीय देख-रेख रखता है।

द्वितीय संशोधन ने विश्व मौद्रिक प्रणाली में स्वर्ण के महत्त्व को निम्न प्रकार से घटाया है

(i) IMF द्वारा निर्धारित स्वर्ण की कीमत को समाप्त करना

(ii) विनिमय व्यवस्थाओं में डॉलर के साथ इसके संबंध को तोड़ना

(iii) स्वर्ण प्राप्त करने या हस्तांतरण करने के लिए IMF की बाध्यताओं को समाप्त करना और

(iv) IMF के स्वर्ण धारणों के एक भाग की बिक्री

द्वितीय संशोधन ने SDR को विश्व मौद्रिक प्रणाली की मुख्य रिजर्व परिसंपत्तियों के रूप में महत्त्व दिया है, जिसका मूल्य स्वर्ण में नहीं, बल्कि मुद्राओं में व्यक्त किया जाता है। अब यह लेखा की एक इकाई, एक करेंसी कीलन और लेन-देन का एक माध्यम है। तिरती विनिमय दरों की वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली मुक्त लोचदार दरों की प्रणाली नहीं अपितु 'प्रबंधित तिरती' प्रणाली है। यह सरकारी हस्तक्षेप के बिना कभी नहीं चली। क्योंकि सरकारे समय-समय पर इसमे हस्तक्षेप करती रही है, इसलिए इसे 'प्रबंधित' अथवा 'गंदी' तिरती प्रणाली नाम दिया गया 1977 में जब हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया था, तो इसे मैली तिरती प्रणाली नाम दिया गया। जब सरकारे बिल्कुल हस्तक्षेप न करे तो यह 'स्वच्छ' प्रणाली कहलाती है। परन्तु स्वच्छ तिरती की सम्भावना बहुत कम है। इस प्रकार प्रबंधित तिरती विनिमय दरो की प्रणाली वहाँ विकसित हो रही है जहाँ केन्द्रीय बैंक यह प्रयत्न कर रहे है कि विनिमय दरो के उतार-चढ़ाव की किन्ही 'सामान्य' दरो के आस-पास बांधकर रखा जाए, भले ही कोष के दूसरे संशोधन में से सामान्य दरो का कोई उल्लेख नहीं है।

वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली ने कई महत्त्वपूर्ण तरीके प्रस्तुत किए है, जिसमें SDR का नया आवंटन, IMF में देश के कोटे में वृद्धि, IMF उधार के सामान्य समझौतो (GAB) का नवीनीकरण, IMF स्वर्ण कीमत का उन्मूलन और यूरोपीय मौद्रिक प्रणाली (EMS) और यूरो मुद्रा का निर्माण।

अमेरीका विश्व मौद्रिक प्रणाली को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख देश है। जब डॉलर का मून्य अत्यधिक ऊँचाइ‌यो या गिरावटों पर पहुंचता है तो इसने समय-समय पर हस्तक्षेपो के साथ अन्य मुद्राओं की तुलना में डॉलर को तिरणे की अनुमति दी है। जब डॉलर का मूल्य अत्यधिक ऊंचा (बढ़ रहा) था तो G-5 (अमरीका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, जापान और फ्रांस) देश सितम्बर 1985 में प्लाजा समझौता द्वारा डॉलर का मूल्य नीचे लाने के लिए हस्तक्षेप करने पर सहमत हो गए। परिणामस्वरूप, डॉलर का मूल्य पर्याप्त रुप से घटा, येन की तुलना में 50% से अधिक। 1987 के पूर्वार्द्ध तक डॉलर का अधोमूल्यन हो गया था और लुवरे समझौता से G-7 देश (G-5 के अतिरिक्त कनाडा और इटली) अपनी विनिमय दरो को उस समय के अपने चालू स्तरों के आस-पास रखने में सह‌योग देने के लिए सहमत हो गए। लुवरे समझौता विनिमय दरो को शेष बचे वर्ष के लिए स्थिर रखने में सफल था। तब से एक सर्वम्मति लगने लगी है कि विनिमय दरो को व्यापक रूप से स्थिर किया जाना चाहिए। परन्तु विभिन्न देशों के बीच प्रत्यक्ष सह‌योग बहुत कम है।

समस्याएँ

वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली विनिमय दरों में बड़े असंतुलन और अत्यधिक उतार-चढ़ाव की समस्या से जूझ रही है। प्रायः विकसित और विकासशील देश डॉलर की तुलना में अपनी मुद्राओं के अत्यधिक मूल्यवृद्धि या मूल्यह्मस का सामना कर रहे है, जबकि डॉलर विश्व मौद्रिक प्रणाली में सदैव प्रबल रहा है। यूरोपीय संघ (EU) द्वारा नव-निर्मित यूरो में भी इसके प्रारंभ से ही डॉलर के मुकाबले पर्याप्त रूप से मूल्यह्मस हो रहा है जबकि इसे एक मजबूत करेंसी माना जाता है। इससे विश्व व्यापार विपरीत रूप से प्रभावित हुआ है।

मौद्रिक प्रणाली में सुधार के सुझाव

मौद्रिक प्रणाली को सुधारने के लिए विनिमय दरो में बड़े असंतुलन और अत्यधिक उतार-चढ़ाव को दूर करने के कई उपाय सुझाए है जो निम्नलिखित है:

(1) नीतियों और समन्वय और सहयोग :- कुछ अर्थशास्त्री विशेषकर मैकिनन ने विनिमय दर स्थिरता के लिए प्रमुख विकसित देशों के बीच नीतियों के अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और समन्वय का सुझाव दिया। मैकिनन के अनुसार, अमेरीका, जर्मनी और जापान को क्रय शक्ति समता पर आधारित संतुलन स्तर पर अपने करेंसियों में विनिमय दरो के निर्धारण द्वारा विनिमय दर स्थिरता की इष्टतम कोटि रखनी चाहिए। इस प्रकार, इन्हें विनिमय दर स्थिरता के लिए अपनी मौद्रिक नीतियों में समन्वय लाना चाहिए।

(2) लक्ष्य क्षेत्रों को स्थापित करना :- विलियमसन ने लक्ष्य क्षेत्रों की स्थापना को आवश्यक बताया है जिसके अन्तर्गत प्रमुख करेंसियों की विनिमय दरो में उतार-चढ़ाव की अनु‌मति दी जा सकती है। उसके अनुसार, माँग और पूर्ति की शक्तियों को विनिमय दर संतुलन निर्धारित करना चाहिए। संतुलन दर के ऊपर 10% का एक ऊपरी लक्ष्य क्षेत्र और संतुलन विनिमय दर के नीचे 10% का एक निम्न लक्ष्य क्षेत्र होना चाहिए। विनिमय दर को सरकारी हस्तक्षेप द्वारा दोनों लक्ष्य क्षेत्रों के बाहर गति करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। फरवरी 1987 में प्रमुख पाँच विकसित देश लुवरे समझौते के अन्तर्गत अपनी मुद्राओं में विनिमय दरो की स्थिरता के लिए कुछ एक लक्ष्य क्षेत्र को रखने को सहमत हुए। इन देशो द्वारा सरकारी हस्तक्षेप के बावजूद, विनिमय दरों में, लुवरे समझौते में स्वीकृत हुई दरो की तुलना में व्यापक मार्जिनों के भीतर उतार-चढ़ाव होते रहे। इस प्रकार विनियमसन का प्रस्ताव अव्यावहारिक होने के कारण रद्द कर दिया गया।

(3) विश्व तरलता में सुधार करना :- वर्तमान विश्व मौद्रिक प्रणाली के सुधार पैकेज को विश्व तरलता में सुधार करना चाहिए। प्रथम, भुगतान शेष घाटा और अतिरेक वाले दोनों प्रकार के देशों को आंतरिक नीतिगत उपायों के माध्यम से विनिमय दर परिवर्तनों द्वारा निरंतर असंतुलन को घटाने के उपाय करने चाहिए।

द्वितीय, उन्हें गर्म मुद्रा के विस्तृत प्रवाहों को नियंत्रित करने में भी सहयोग देना चाहिए जो उनकी मुद्राओं को अस्थिर करती है। तृतीय, उन्हें भुगतान शेष असंतुलनों को रिजर्व परिसंपतियों के रूप में स्वर्ण या डालर की अपेक्षा SDR द्वारा ठीक करने के इच्छुक होना चाहिए। चतुर्थ, विकासशील देशों के लिए संसाधनों का बढ़ता प्रवाह होना चाहिए।

(4) हवा के विरुद्ध झुकाव :- विनिमय दरो में उतार-चढ़ाव घटाने हेतु IMF Guidelines for the Management of Floating Exchange Rates 1974 में हवा के विरुद्ध झुकाव के विचार का सुझाव दिया। इसका अर्थ है कि केन्द्रीय बैंकों को विनिमय दरो में अल्पकालीन उतार-चढ़ाव घटाने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए, परन्तु दीर्घकालीन उतार-चढ़ावों को बाजार शक्तियों द्वारा समायोजित होने के लिए छोड़ देना चाहिए।

(5) रिचर्ड कूपर :- रिचर्ड कूपर ने एक विश्व करेंसी वाला एक वीश्व केन्द्रीय बैंक का सुझाव दिया जिसे विश्व  के अंतिम ऋणदाता के रूप में कार्य करना चाहिए ।

(6) जाफरी साचसः- यह एक अन्तर्राष्ट्रीय दिवालिया कोर्ट के निर्माण का प्रस्ताव देता है जो इन देशों के विवादित मामलो को सुलझाए।

(7) जॉर्ज सोरोज:- इनके विचार में IMF को प्रत्येक देश के बाह्य वित्त के उच्चतम सीमाएँ निर्धारित करनी चाहिए जिसके पश्चात् निजी पूँजी की प्राप्ति का बीमा कराने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय ऋण बीमा निगम द्वारा अनिवार्य बीमा होना चाहिए।

(8) वस्तुनिष्ठ संकेतक :- विनिमय दर उतार चढ़ावों को दूर करने के लिए IMF अन्तरिम समिति ने स्फीति - बेरोजगारी मुद्रा पूर्ति की वृद्धि, GNP की वृद्धि, राजकोषीय शे, व्यापार शेष और अन्तर्राष्ट्रीय रिजर्व जैसे वस्तुनिष्ठ संकेतको को अपनाने का सुझाव दिया। इन संकेतकों में परिवर्तन के लिए विनिमय दरो में स्थिरता लाने हेतु प्रतिबंधित मौद्रिक राजकोषीय उपाय अपनाने की आवश्यकता होती है।

निष्कर्ष

मौद्रिक प्रणाली में सुधार के लिए दिए गए विभिन्न सुझाव निष्ठ रूप से एक दूसरे से जुड़े है। परन्तु उन देशों के बीच विभिन्न प्रस्तावों के ऊर सहमति का अभाव है। विकसित और विकासशील देशों के बीच भी विचारों का अन्तर दिए होने पर इसकी कोई आशा नहीं है कि विश्व मौद्रिक प्रणाली में सुधार के लिए कोई ठोस प्रस्ताव इन देशों को स्वीकार्य होगा। इसलिए प्रबंधित तिरती विनिमय दर की वर्तमान प्रणाली को ही कायम रहने की संभावना है।

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