कृषि विपणन (Agricultural Marketing)

कृषि विपणन (Agricultural Marketing)

अर्थ (Meaning) कृषि विपणन से अर्थ उन सभी क्रियाओं से लगाया जाता है जिनका सम्बन्ध कृषि उत्पादन को कृषक के यहाँ से अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचाने में किया जाता है। इसके अन्तर्गत बहुत-सी क्रियाएँ आतो हैं: जैसे-कृषि पदार्थों का एकत्रीकरण (Assembling), श्रेणी विभाजन (Grading), विधायन (Processing), संग्रहण (Storing), परिवहन (Transportation), विपणन के लिए विक्ष प्रदान करना (Financing), अन्तिम उपभोवताओं तक पहुँचाना (Retailing) तथा इन सम्पूर्ण क्रियाओं में निहित जोखिम उठाना (Risk bearing, आदि। इस प्रकार विपणन के अन्तर्गत उन समस्त क्रियाओं का समावेश किया जाता है, जिनका सम्बन्ध कृषि उत्पादन को कृषक के पास से अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाने से होता है।

कोहल्स के अनुसार, "विपणन में वस्तुओं एवं सेवाओं के कृषि उत्पादन के प्रारम्भिक स्थान से अन्तिम उपभोक्ताओं के हाथों तक पहुँचाने के प्रवाह दौरान होने वाले सभी व्यावसायिक कार्य सम्मिलित किये जाते हैं।"

विपणन योग्य आधिक्य (MarketableSurplus)- फार्म पर उत्पादित खाद्यान्न एवं अन्य फसलों की संपूर्ण मात्रा कृषकों द्वारा बेची नहीं जाती है। कृषक किसी भी वस्तु की उत्पादित मात्रा में से घरेलू आवश्यकता की मात्रा को रखने के बाद शेष बची हुई मात्रा का विक्रय करते हैं यह दो प्रकार का होता है.-

(A) विपणन योग्य आधिक्य (Marketable Surplus)- यह फार्म उत्पाद की उस संभावित मात्रा को बतलाता है जिसे कृषक बेच सकता है। यह कृषि के उत्पादन का वह भाग है जो कृषक के परिवार के उपभोग के लिए आवश्यक मात्रा, वस्तु तथा अनाज के रूप में मजदूरी के भुगतान की मात्रा बीज के लिए आवश्यक मात्रा, पशुओं के लिए दाना आदि की मात्रा को घटाने के बाद शेष बचता है।

MS =TQ-NQ

जहाँ:-

MS= Maketable Surplus

TQ=Total Quantity of Production

NQ= Necessary Quantity for Farmers

(B) कृषित अतिरेक (Marketed Surplus)- कृषित या विक्रीत अतिरेक वस्तुओं की वह मात्रा है जो कृषकों द्वारा उपभोक्ताओं को सीधे रूप में अथवा व्यापारियों को अथवा दोनों को वास्तव में विक्रय किया जाता है । उत्पादकों की दृष्टि से वस्तु की बिक्रीत अतिरेक की मात्रा महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि बिक्रीत अतिरेक की मात्रा ही उनकी आवश्यकता की पूर्ति हेतु धन उपलब्ध कराने में सक्षम होती है। यह विपणन योग्य अतिरेक की मात्रा से अधिक, कम अथवा बराबर हो सकती है। यह कृषकों की आर्थिक स्थिति एवं उनकी आवश्यकता पर निर्भर करता है।

कृषि विपणन से तात्पर्य उन सभी क्रियाओं से लगाया जाता है जिनकासंबंध कृषि उपज का कृषक के यहां से अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचने में किया जाता है। इन क्रियाओं में कृषि उपज को एकत्रित करना उनका श्रेणीकरण एवं प्रमापीकरण करना, पैकेजिंग, विज्ञापन करना तथा उन्हें बेचने के लिए मंडियों एवं बाजारों तक ले जाना और उनकी बिक्री करना आदि सम्मिलित है।

J.C.Abbott के अनुसार-"किसी कृषि विपणन के अंतर्गत उन समस्त कार्यों को सम्मिलित किया जाता है जिनके द्वारा खाद्य पदार्थ एवं कच्चा माल फार्म से उपभोक्ता तक पहुंचता है।"

R.L.Kohls एवं J.N.UHI के अनुसार- “खाद्य विपणन का अर्थ उन समस्त व्यापारिक क्रियाओं को संपन्न करने से हैं जिनकी द्वारा खाद्य उत्पादों एवं सेवाओं का प्रभाव कृषि उत्पादों के प्रारंभिक बिंदु से उपभोक्ताओं तक होता है"

सुव्यवस्थित कृषि विपणन पद्धति की विशेषताएँ (Features of well Organized Agricultural Marketing)

एक सुव्यवस्थित कृषि-विपणन पद्धति में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए -

1. मध्यस्थों की संख्या न्यूनतम होनी चाहिए।

2. कृषि और कृषि उपज के विक्रेता दोनों के हितों की सुरक्षा होनी चाहिए।

3. सस्ती व उत्तम परिवहन की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे माल मण्डियों तक आसानी से तथा कम लागत पर ले जाया जा सके।

4. वस्तु की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए उपज के श्रेणीकरण एवं प्रमापीकरण की उचित व्यवस्था।

5. उपज की किस्म सुधारने की दृष्टि से विभिन्न किस्मों की कीमतों में अन्तर होना चाहिए।

6. किसानों में माल रोकने की क्षमता होनी चाहिए, जिससे उचित समय पर उचित मूल्य प्राप्त किया जा सके।

7. कृषकों को विपणन सम्बन्धी सूचनाओं की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होनी चाहिए।

8. मण्डी स्थल पर माल भण्डारण करने के लिए पर्याप्त भण्डारण गृह होने चाहिए।

भारत में कृषि पदार्थों के विपणन की वर्तमान व्यवस्था (PRESENT SYSTEM OF AGRICULTURAL MARKETING IN INDIA)

भारत में किसान अपनी उपज को निम्नलिखित ढंग से बेचता है-

1. स्थानीय बाजार (Local Market)-भारत में किसान अपनी उपज का अधिकांश भाग ग्रामों में ही बेच देता है। ग्रामीण बाजार में फसलों की बिक्री मुख्यतः तीन रूपों में की जाती है-

(i) गाँव की विशिष्ट हाट (पैंठ) अथवा साप्ताहिक बाजारों में, (ii) गाँव के ठेकेदार, महाजन तथा साहूकार को, (iii) गाँव में घूमते-फिरते व्यापारियों तथा कमीशन एजेण्टों को।

प्राय: गाँव में बिकने वाली फसल की किसानों को उचित कीमत नहीं मिल पाती, परन्तु अनेक कारण किसानों को इस बात के लिए मजबूर कर देते हैं कि अपनी फसल गाँव में ही बेच दें। गाँव में फसल की बिक्री के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं-

(i) किसानों की ऋणग्रस्तता, (ii) किसानों की निर्धनता, (iii) भण्डारगृहों की सुविधाओं का अभाव, (iv) बाजार योग्य अतिरेक का कम होना, (v) यातायात व परिवहन के साधनों का अभाव।

2. मण्डियों में बिक्री (Sales in Markets) ये दो प्रकार के होते हैं-

(i) अनियमित मण्डियाँ (Unregulated Markets)—इन मण्डियों में क्रय-विक्रय प्रायः प्राचीन व्यवस्था के अनुसार होता है। इन मण्डियों में कोई निश्चित व्यापारिक नियम नहीं होते हैं। इनमें बहुत बड़ी संख्या में मध्यस्थ पाये जाते हैं। इन मण्डियों में कमीशन, दलाली, तौलाई, धर्मादा के रूप में बहुत कटौती होती है। वस्तुओं के मूल्य प्रायः दलाल और आढ़तिये तय करते हैं। इससे अनपढ़ किसान को कुछ पता नहीं चलता।

(ii) नियमित मण्डियाँ (Regulated Markets)—इन मण्डियों में नियमानुसार क्रय- -विक्रय होता है। इसका नियमन राज्य कृषि उपज (बाजार) अधिनियम के अन्तर्गत किया जाता है। इनमें कार्य करने वाले को लाइसेन्स लेना पड़ता है। इन मण्डियों में कमीशन तथा अन्य कटौतियाँ आदि निर्धारित की गयी हैं और सौदा खुली बोली के अनुसार होता है। भारत में गेहूँ, कपास, गन्ना, जूट आदि की नियमित मण्डियाँ पायी जाती हैं। इन मण्डियों में किसान के साथ कोई धोखा नहीं होता और उन्हें अपनी उपज का उचित मूल्य उपलब्ध हो जाता है।

31 मार्च, 2014 के दिन देश में 7,114 नियमित मण्डियाँ थीं। इन नियमित मण्डियों के अतिरिक्त देश में 22,759 ग्रामीण नियतकालिक (Periodic) बाजार है। बाजार का औसत क्षेत्र 114.45 वर्ग किलोमीटर है, जबकि विनियमित बाजार का औसत क्षेत्र 462.08 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें पंजाब में 118.78 वर्ग किलोमीटर से मेघालय में 11,214 वर्ग किलोमीटर की भिन्नता है। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने (2004) में 5 किलोमीटर (अथवा 80 वर्ग किलोमीटर) के दायरे के भीतर एक बाजार की सिफारिश की बाजार के कम प्रसार से बाजार से सम्पर्क की समस्या उत्पन्न होती है।

3. सहकारी विपणन समितियाँ (Co-operative Marketing Societies)—सहकारी समितियों ने कृषि वस्तुओं के विपणन में भाग लेना आरम्भ कर दिया है। ये समितियाँ अपने सदस्यों की उपज को इकट्ठा बेचकर पर्याप्त मूल्य प्राप्त करती हैं।

4. राज्य व्यापार (State Trading)—भारत में राज्यों द्वारा कृषि पदार्थों का विपणन भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किये हुए हैं। राज्य की एजेन्सियाँ, जैसे-भारतीय खाद्य निगम फसल तैयार होने के समय ग्रामीण क्षेत्रों या मण्डियों के निकट अपने विशेष केन्द्र स्थापित करता है जहाँ सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों पर उपज को खरीदा जाता है।

कृषि विपणन के दोष (DEFECTS OF AGRICULTURAL MARKETING)

1. विक्रय की बाध्यता (Forced Sales) प्राय: भारतीय कृषक स्वेच्छा से अपनी उपज को नहीं बेचता बल्कि दुर्बल आर्थिक स्थिति के कारण उसे अपनी उपज फसल काटने के तुरन्त बाद गाँव में ही बेचनी पड़ती है।

2. परिवहन के साधनों का अभाव (Lack of Means of Transport) देश में परिवहन के साधन अपर्याप्त, अविकसित एवं दोषपूर्ण हैं। हमारे अधिकांश ग्राम रेलों व सड़कों द्वारा मण्डियों के साथ सम्बन्धित नहीं हैं। इसलिए किसान अपनी उपज ग्राम में ही बेच देने के लिए बाध्य हो जाता है।

3. कृषि उपज की घटिया किस्म (Inferior Quality of Agriculture Produces)- भारत में कृषि उपज की किस्म प्राय : घटिया होती है जिसके कारण कृषकों को कम मूल्य मिलता है। कृषि उपज घटिया किस्म की होने के कई कारण हैं; जैसे-खराब बीजों का प्रयोग, फसलों के रोग, कीड़े मकोड़ों के आक्रमण, अनावृष्टि या अतिवृष्टि, फसलों की कटाई का दोषपूर्ण ढंग आदि। भारतीय किसान अत्यन्त निर्धन, अशिक्षित और अपनी उपज को ही बिक्री-व्यवस्था से अपरिचित है। इसीलिए वह अपनी उपज को किस्म की ओर ध्यान नहीं दे पाता।

4. संगठन का अभाव (Lack of Organisation)—कृषकों का स्वयं का कोई सुसंगठित बिक्री संगठन न होने से उन्हें कृषि उपज के संगठित क्रेताओं से प्रतियोगिता में सदैव हानि उठानी पड़ती है।

5. अपर्याप्त एवं अवैज्ञानिक संग्रहण व्यवस्था (Inadequate and Unscientific Storage Systern) कृषि उपज का वैज्ञानिक ढंग से संग्रहण करने के लिए गाँव में सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। प्रायः कृषि-उपज को विभिन्न प्रकार की मिट्टी के बनाये गये बर्तनों में रखा जाता है जिससे उसके सड़ने, गलने और चूहों एवं चींटियों द्वारा नष्ट होने की आशंका रहती है तथा ऐसी स्थिति में किसानों को अपनी पैदावार को शीघ्र ही बेचने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

6. श्रेणीकरण व प्रमापीकरण का अभाव (Lack of Grading and Standardisation) हमारे देश में अधिकांश किसान अपनी उपज का श्रेणीकरण व प्रमाणीकरण नहीं कर पाते। वे ऊंची व नीची दोनों किस्मों की उपज को मिलाकर बाजार में बेचते हैं। परिणामस्वरूप उन्हें घटिया उपज के दाम ही मिल पाते हैं।

7. मूल्य सूचना का अभाव (Lack of Information of Price)—भारतीय कृषकों को मण्डियों में प्रचलित एवं सम्भावित कीमतों का पर्याप्त ज्ञान नहीं रहता जिसके कारण किसान फसल का उचित मूल्य प्राप्त करने में असफल रहता है।

8. मध्यस्थों का बाहुल्य (Pre-daminance of Intermediaries) भारत में किसान तथा उनकी उपज के अन्तिम उपभोक्ताओं के बीच अनेक मध्यवर्ती लोग पाये जाते हैं। उदाहरण के लिए व्यापारी कच्चा आढ़तिया. पक्का आढ़तिया, दलाल, थोक व्यापारी, जुदरा व्यापारी इत्यादि । से सभी अपनी-अपनी सेवाओं के लिए कुछ-न-कुछ लेते हैं। अनुमान लगाया गया है कि मूल्य में से उत्पादकों को 50 प्रतिशत से 80 प्रतिशत भाग ही प्राप्त होता है और शेष मध्यस्थों द्वारा ही हड़प लिया जाता है।

9. कपटपूर्ण पद्धतियाँ (Fraudulent Process) शाही कृषि आयोग के अनुसार, "मण्डियों में प्रचलित ये कपटपूर्ण पद्धतियाँ किसी भी प्रकार चोरी से कम नहीं हैं।" भारत में जब कभी किसान अपना माल मण्डियों (विशेषकर जो अनियमित हैं) में ले जाता है तो वहाँ प्रचलित बहुत सी बुराइयों व धोखेबाजी के कारण कृषक विक्रेता को बहुत-सी हानियाँ सहनी पड़ती हैं। 'राष्ट्रीय नियोजन समिति' (National Planning Committee) ने मण्डियों में प्रचलित अनलिखित धोखेबाजियों की ओर संकेत किया है-

(i) उपज का एक अच्छा अंश नमूने या बानगी के रूप में निकाल लिया जाता है।

(ii) दलाल सदा ही क्रेता का पक्ष लेकर कार्य करता है।

(iii) यहाँ तराजू बाँटों में गड़बड़ी की जाती है।

(iv) मूल्य आढ़तिया व क्रेता का दलाल तय करता है। किसान को विश्वास में नहीं लिया जाता है।

(v) विवाद की स्थिति में किसान के हितों की रक्षा करने वाला गण्डियों में कोई नहीं होता।

10. वित्तीय सुविधाओं का अभाव (Lack of Financial Facilities) भारत में आज भी वित्तीय सुविधाओं का अभाव है। कृषि के लिए अल्पकालीन ब दीर्घकालोन साख के लिए एवं दैनिक खर्च के लिए धन का अभाव रहत है। छोटे किसानों को ऋण सुविधाएँ प्रदान करने में राष्ट्रीयकृत बैंक व सहकारी समितियों असफल रही हैं जिससे कृषक अपनी उपज को साहूकार की इच्छानुसार बेचता है। देश के लगभग 80 प्रतिशत कृषक इस श्रेणी में आते हैं।

कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार हेतु सरकारी प्रयास (GOVERNMENT MEASURES TO IMPROVE THE SYSTEM OF AGRICULTURAL MARKETING)

1. नियमित मण्डियों की स्थापना (Establishment of Regulated Markets) सरकार ने कृषि बिक्रो व्यवस्था में सुधार के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया है, वह है-नियमित मण्डियों की स्थापना। नियमित बाजारों की स्थापना का उद्देश्य कृषि पदार्थों की बिक्री को नियमित करना और कुशल बनाना है जिससे बाजारों में प्रचलित अनुचित रीतियाँ समाप्त हो जायें। इन बाजारों का प्रबन्ध बाजार समितियों की देख रेख में होता है जिनमें उत्पादकों, व्यापारियों व स्थानीय संस्थाओं के प्रतिनिधि होते हैं। इन बाजारों का मुख्य लक्ष्य बाजारी कटौतियों को कम करना और किसानों को उचित मूल्य का विश्वास दिलाना है।

31 मार्च, 2014 के दिन देश में 7,114 नियमित मण्डियाँ थीं। देश में 22,759 ग्रामीण नियमित (Periodic) बाजार हैं जिनमें से लगभग 15 प्रतिशत नियगों को दायरे में काग करते हैं।

2. गोदाम की सुविधाएँ (Facilities for Storage) सार्वजनिक एवं निजी दोनों क्षेत्रों में ही व्यापारिक दृष्टि से कृषि उपज के लिए संग्रह एवं गोदामों की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। अर्थव्यवस्था में संग्रह और गोदामों की सुविधाएँ उपलब्ध कराने वाली प्रमुख संस्थाएँ इस प्रकार हैं-केन्द्रीय एवं राज्य गोदाम निगम (C.S.W.C.), भारतीय खाद्य निगम तथा सहकारी भण्डार गृह।

3. सहकारी बिक्री समिति (Co-operative Marketing Society)—सरकार द्वारा कृषि उपज की बिक्रो सम्बन्धी दोषों को दूर करने के लिए सहकारी समितियों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में इन समितियों ने काफी उन्नति की है।

सन् 1963 में राष्ट्रीय सहकारी कृषि बिक्री संघ की स्थापना की गई है। जिसका मुख्य उद्देश्य सहकारी समितियों के बीच समन्वय स्थापित करना व अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहन देना है।

4. ग्राम्य गोदामों का निर्माण (Construction of Village Storage)-1979-80 में सरकार ने एक नयी योजना 'ग्रामीण गोदामों का राष्ट्रीय ग्रिड' आरम्भ की जिसमें सहकारी समितियाँ, बाजार समितियाँ तथा राज्य भण्डारागार निगम के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में 200 से 1,000 टन क्षमता वाले गोदामों का निर्माण कराने का कार्य किया गया। इन गोदानों के निर्माण के लिए कुल लागत को 50 प्रतिशत केन्द्र व राज्य के बीच बराबर बाँट लिया गया तथा 50 प्रतिशत वित्तीय संस्थानों से ऋण के रूप में प्राप्त किया गया था।

5. श्रेणीकरण व प्रमापीकरण की सुविधा (Facilities of Grading and Standardisation) कृषि उपज के श्रेणीकरण तथा प्रमापीकरण के लिए सरकार द्वारा अनेक व्यवस्थाएँ की गयी हैं। विपणन एवं जॉब निदेशालय से 41 कृषि वस्तुओं के सम्बन्ध में निर्यात करने से पूर्व किस्म जाँच करानी आवश्यक है। आन्तरिक उपभोग के लिए एगमार्क (AGMARK) के अन्तर्गत महत्वपूर्ण वस्तुओं का श्रेणीकरण किया जाता है। विपणन तथा निरीक्षण निदेशालय (Directorate of Marketing and Inspection) ने अब तक 200 कृषि वस्तुओं (व कृषि से सम्बद्ध वस्तुओं) के लिए मानक निर्धारित किये हैं।

6. माप विधि तथा बाँटों में सुधार (Improvement in Weight and Measurement Method) नियमित बाजारों की स्थापना हो जाने से माप और बाँटों की समस्या बहुत से उन बाजारों में बहुत हद तक दूर हो गयी है। 1 अप्रैल, 1962 से बाँटों और मापों में मौट्रिक पद्धति लागू करने से इस दिशा में बहुत सुधार हुआ है।

7. बेहतर यातायात की व्यवस्था (Beller Transport Arrangenerals) समन्वित सड़क विकास कार्यक्रम में ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों के विकास को उच्च प्राथमिकता प्रदान की गयी है, ताकि देश के लाखों गाँवों को शहरों की मण्डियों से जोड़ा जा सके।

8. मूल्य स्थिरीकरण (Price Stabilisation) कृषकों को उनको उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए कृषि तथा कृषि मूल्यों में स्थिरता लाने की दृष्टि से सन् 1966 से सरकार प्रति वर्ष खाद्यान्नों की न्यूनतम समर्थन कीमतों व वसूली कीमतों को घोषणा करती है।

9. विशेष बोडों की स्थापना (Establishment of Special Boards)-भारत सरकार ने रबड़, कॉफी, चाय, तम्बाकू, गर्म मसाले, नारियल, तिलहन और वनस्पति तेल आदि के बारे में विशिष्ट वस्तु-बोर्ड (Specialist Commodity Boards) स्थापित किये हैं। हाल ही के वार्षों में, राष्ट्रीय दुग्धशाला विकास बोर्ड ने न केवल 'ऑपरेशन प्लड' में सहायता दी है बल्कि यह तेल और अन्य कृषि वस्तुओं के विक्रय का भी कार्य कर रहा है।

10. सहकारी विपणन समितियों का संगठन (Organisation of Co-operative Marketing Societies) भारत सरकार ने बहु-उद्देशीय सहकारी समितियों के संगठन को प्रोत्साहन देने के लिए सक्रिय प्रोत्साहन दिया है और इस कार्य में विशेष बल उधार एवं विपणन पर ही रखा गया। प्राथमिक विपणन समितियों को केन्द्रीय विपणन समितियाँ और राज्यीय स्तर पर शिखर विपणन समितियाँ कायम करने के लिए प्रोत्साहन दिया गया।

सहकारी विपणन समितियों के संगठनात्मक ढाँचे को मजबूत करने के लिए भारतीय सहकारी कृषि विपणन संघ अर्थात् नैफेड (NAFED) की स्थापना 1956 में की गई। नैफेड की निम्नतम स्तर पर कार्य करने वाली इकाई प्राथमिक विपणन समितियाँ हैं। इसके कार्य का विवरण देखे तो नैफेड ने बहुत वर्षों से लाभ कमाते हुए एक व्यापारिक उपक्रम के रूप में कार्य किया है।

11. खाद्यान्नों का राजकीय व्यापार (State Trading in Food-grains)—खाद्यान्नों का राज्य व्यापार सबसे पहले केन्द्र एवं राज्य सरकारों के खाद्य विभागों ने आरम्भ किया। सन् 1965 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) की स्थापना की गयी। इस निगम को खाद्यान्नों को खरीद, संग्रह, यातायात, विपणन और विक्रय का कार्य सौंपा गया। 0)

12. ग्रामीण क्षेत्रों में वैज्ञानिक भण्डारण (Scientific Storage in Rural Areas)- ग्रामीण क्षेत्रों में वैज्ञानिक भण्डारण की व्यवस्था करने की दृष्टि से, सरकार ग्रामीण गोदामों के निर्माण हेतु एक केन्द्रीय क्षेत्र योजना को कार्यान्वित कर रही है। यह योजना जो मार्च 2001 से कार्यान्वित की जा रही है, निजी तथा सहकारी निकायों को भण्डारण परियोजना की पूँजी लागत पर सब्सिडी प्रदान करती है।

13. कृषि वस्तुओं में वायदा व्यापार (Fullure Trading in Agricultural Producl) भारत सरकार ने वर्ष 2003-04 में जिंसों में वायदा व्यापार को प्रारम्भ करने की दिशा में महत्व कदम उठाए जिनमें अधिसूचना के निर्गग द्वारा सभी जिंसों में वायदा व्यापार पर लगे प्रतिबन्ध को हटाना और राष्ट्रीय स्तर के जिंस विनिमय केन्द्रों की स्थापना करना शामिल है। राष्ट्रीय जिंस तथा व्युत्पन्न एक्सचेंज, मुम्बई ने गुजरात, मध्य प्रदेश तथा आन्ध्र प्रदेश में किसानों को फसल तैयार होने से पहले किसी एक्सचेंज के व्यापार प्लेटफार्म पर मूल्य जोखिम से बचाव की अवधारणा तथा लाभों को समझने में सहायता प्रदान करने हेतु प्रायोगिक परियोजनाएँ प्रारम्भ की हैं।

14. कृषि विपणन अनुसंधान और सूचना नेटवर्क [2002] (AGMARENET)—इसका उद्देश्य फार्म उत्पाद स्टोर करने और उनकी आपात बिक्रो रोकने के लिए किसानों को आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में वैज्ञानिक भण्डारण क्षमता का निर्माण करना है।

15. ट्राइफेड की स्थापना (Establishment of TRIFED) जनजातीय लोगों का शोषण करने वाले निजी व्यापारियों से छुटकारा दिलाने और उनके द्वारा तैयार की गयी वस्तुओं का अच्छा मूल्य दिलाने के उद्देश्य से सरकार ने अगस्त, 1987 में भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास परिसंघ (Tribal Co-operative Marketing Development Federation of India Ltd. : TRIFED) की स्थापना की थी। इसने अप्रैल, 1998 को कार्य करना प्रारम्भ कर दिया था।

16. कृषि विपणन का राष्ट्रीय संस्थान (National Institution of Agricultural Marketing) की स्थापना 1988 में की गई। इस संस्थान के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं

(i) शिक्षण अनुसन्धान व परामर्श के कार्यक्रमों द्वारा देश में कृषि विपणन ढाँचे का विकास करना।

(ii) विभिन्न उद्यमों व संस्थाओं में कार्यरत कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करना व उन्हें इन कार्यक्रमों के अनुसार प्रशिक्षित करना।

17. कृषि वस्तुओं के निर्यात को बढ़ाना-भारत सरकार की विदेश व्यापार नीति में कृषि निर्यात पर बल दिया गया है और एक नयी योजना विशेष कृषि उत्पाद योजना चालु की गयी है ताकि फलों, सब्जियों, फूलों और छोटे वन-उत्पाद को निर्यात प्रोन्नति हो सके। सरकार ने राज्यों के लिए कृषि-निर्यात क्षेत्रों (Agro Export Zones : AEZ) की स्थापना के लिए राशि भी निर्धारित कर दी है।

18. फल और सब्जी-विपणन (Fruit and Vegetable Marketing)–नौवीं पंचवर्षीय योजना में उत्तर-पूर्वी राज्यों में फलों व सब्जियों के एकीकृत विकास के लिए एक केन्द्रीय योजना की शुरुआत की गई जिसे दसवीं पंचवर्षीय योजना में हिमाचल प्रदेश में भी शुरू किया गया। जनवरी, 2006 में नगालैण्ड में सेण्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ हार्टिकल्चरल की स्थापना के लिए ₹ 20 करोड़ की राशि स्वीकृत की गई।

19. कृषि विपणन से सम्बन्धित मॉडल-कानून (Model Law on Agricultural Marketing)-इसके अन्तर्गत प्रमुख रूप से कृषि विपणन से सम्बन्धित मॉडल कानून बनाया गया है। जिसमें (i) निजी बाजार यार्ड, प्रत्यक्ष क्रय केन्द्र (Direct Purchase Centre), किसानों के लिए बाजार जिसमें वे सीधा उपभोक्ताओं को समान बेच सके आदि स्थापित करने हेतु प्रावधान बनाए गए हैं। (ii) कृषि बाजारों के विकास व प्रबन्ध में पब्लिक प्राइवेट साझेदारी को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक प्रावधान बनाए गए हैं।

20. कृषि विपणन अधो:संरचना को मजबूत बनाना (Strengthening Agricultural Markeling Infrastruclure) कृषि विपणन अधो:संरचना को सुदृढ़ करने के लिए सरकार ने निवेश सब्सिडी योजना शुरू की है इस योजना में कृषि विपणन अधी:संरचना परियोजना की पूंजी लागत का 25 प्रतिशत सब्सिडी के रूप में सरकार द्वारा दिया जाता है।

कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार हेतु सुझाव (SUGGESTIONS FOR IMPROVEMENT IN AGRICULTURAL MARKETING SYSTEM)

कृषि विपणन में सुधार की आवश्यकता पर बल 1928 में शाही कृषि आयोग (Royal Commission on Agriculture) ने दिया था। इसके बाद 1931 में केन्द्रीय जाँच समिति ने भी सुझाव दिये थे। काँग्रेस द्वारा नियुक्त राष्ट्रीय नियोजन समिति ने भी उपयोगी सुझाव दिये थे। यद्यपि योजना काल में सरकार ने कृषि विपणन में सुधार के लिए अनेक कदम उठाये हैं परन्तु अभी भी ये उपाय पर्याप्त नहीं कहे जा सकते हैं। कृषि विपणन में सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

1. दूरस्थ व पिछड़े क्षेत्रों में नियमित मण्डियों का विस्तार किया जाना चाहिए जहाँ पर किसान अपनी उपज को उचित मूल्य पर बेच सकें।

2. अधिकाधिक कृषि वस्तुओं के लिए प्रमाप स्थापित किये जाने चाहिए, ताकि किसानों को उचित मूल्य मिल सके और उपज की किस्म में सुधार हो सके।

3. किसानों को पर्याप्त वित्त उपलब्ध हो सके, इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय संस्थाएँ खोली जानी चाहिए जो किसानों को प्राथमिकता के आधार पर ऋण दे सकें।

4. प्रमापित बाँट व नाप तौल काम में लायो जाये जिससे कि कृषक के साथ धोखा न किया जा सके।

5. विपणन सूचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसार किया जाना चाहिए जिससे कि कृषक को कृषि पदार्थों के मूल्य व सम्बन्धित बातों की जानकारी हो सके और उसको धोखा न दिया जा सके।

6. फसल कटने से पूर्व उपयुक्त कीटनाशक दवाओं का प्रयोग किया जाय। उपज को तैयार करने के लिए औजारों व यन्त्रों का प्रयोग किया गया।

7. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रोसेसिंग अर्थात् कृषि उपज को और उपयोगी बनाने की सुविधाओं का विस्तार किया जाय। इसके लिए सरकारी केन्द्र खोले जायें।

8. सड़कों का विकास किया जाना चाहिए और सभी गाँवों को शहरी क्षेत्रों से सड़कों द्वारा जोड़ दिया जाना चाहिए जिससे कि किसानों को अपनी उपज को शहरों में बेचने में कोई दिक्कत न हो।

9. मध्यस्थों की संख्या को कम करने व उनके शोषण से बचाने के लिए सहकारी विपणन समितियाँ अधिकाधिक बनायी जानी चाहिए।

भारत में सहकारी विपणन (CO-OPERATIVE MARKETING IN INDIA)

अर्थ (Meaning)—जक कुछ उत्पादक अपने उत्पादन को व्यक्तिगत रूप से अलग अलग बेचने के स्थान पर सहकारी विपणन समितियाँ बनाकर उनके माध्यम से बेचते हैं तो उसे सहकारी विपणन कहा जाता है।

परिभाषाएँ (Definitions)—सहकारी विपणन को कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

1. फिलिप्स एवं इन्कन के अनुसार, "वे संगठन जो सहकारिता के आधार पर किसानों के समूहों द्वारा अपनी वस्तुओं को बेचने और सामान तथा अन्य वस्तुएँ खरीदने के लिए स्थापित हुए हैं, सहकारी विपणन संघ कहलाते हैं।"

2. ओ, बी, जेसनेस के अनुसार, “सहकारी विपणन का अर्थ पारस्परिक लाभ प्राप्त करने व विपणन समस्याओं को हल करने के लिए मिलकर कार्य करना है।"

संक्षेप में, सहकारी विपणन किसानों द्वारा पारस्परिक सहायता हेतु निर्मित वह संगठन है जिसके माध्यम से कृषि उत्पादों को सामूहिक रूप से बेचा जाता है।

सहकारी विपणन की विशेषताएँ (CHARACTERISTICS OF CO-OPERATIVE MARKETING)

उपर्युक्त परिभाषाओं से सहकारी विपणन की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार से स्पष्ट होती हैं-

1. सहकारी विपणन संगठन स्वेच्छा से विपणन सम्बन्धी कार्यों को पूरा करने के लिए बनाये जाते हैं।

2. पारस्परिक लाभ कमाने के लिए बनाये जाते हैं

3. इसको किसानों द्वारा अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए बनाया जाता है।

4. यह एक प्रकार को व्यापारिक संस्थाएँ हैं।

संक्षेप में, सहकारी विपणन स्वेच्छा से बनाया हुआ एक व्यापारिक उपक्रम है जिसका उद्देश्य पारस्परिक लाभ प्राप्त करना है।

सहकारी विपणन व्यवस्था के लाभ (ADVANTAGES OF CO-OPERATIVE MARKETING)

सहकारी विष्णन व्यवस्था के लाभों का हम निम्नलिखित दो शीर्षकों में अध्ययन कर सकते हैं-

I. कृषकों को लाभ (Benefits to Furrners)—सहकारी विपणन व्यवस्था से कृषकों को निम्न लाभ हैं-

1. भण्डार-गृहों का प्रबन्ध (Arrangement of Warehousings) सहकारी समिति अपने भण्डार-गृहों और गोदामों का प्रबन्ध करती है और इस प्रकार फसल को चूहों, चींटियों सीलन इत्यादि से कोई हानि नहीं पहुँचती।

2. उचित कीमत (Fair Pricc) विपणन समितियाँ कृषक को वितीय सुविधाएँ प्रदान कर उसे साहूकार के चंगुल से मुक्ति दिला देती हैं। वह उपज को रोककर उचित समय पर बिक्री कर सकत है। साथ ही समय-समय पर इन सहकारी समितियों द्वारा इनको बाजार भाव का ज्ञान प्राप्त होता रहता है।

3. उत्पादित माल का श्रेणीकरण और मानकीकरण (Grading and Standardisation of Produced Goods)—समिति किसानों को श्रेणीकृत और मानकीकृत माल के उत्पादन के लिए प्रोत्साहन देती है और उन्हें उपज में मिलावट करने से प्रतिबन्धित रखती है।

4. कृषक की सौदा क्षमता में सुधार (Improvement in Bargaining Capacity of Farmers)—ये समितियाँ भावना पैदा कर उनको सौदा करने की क्षमता बढ़ाने में सहायक होती हैं।

5. मूल्य निर्धारण में भूमिका (Role in Price Fixation) सहकारी समितियाँ उपज की पूर्ति की मात्रा का नियन्त्रण करती है और इस प्रकार कीमतों को प्रभावित करती है।

6. विज्ञापन एवं प्रचार (Advertisement and Publicity) सहकारी विपणन समितियाँ विज्ञापन और प्रचार के माध्यम से अपने सदस्यों को उपज में वृद्धि करती हैं तथा मण्डियों का विस्तार करती हैं।

7. मध्यस्थों का उन्मूलन (Elimination of Middleman)—सहकारी समितियों द्वारा माल सीधे मण्डियों में बेचा जाता है जिससे मध्यस्थों की आवश्यकता नहीं पड़ती। मध्यस्थों के अभाव के कारण समितियों को लाभ अधिक होता है जो कृषकों में विभक्त हो जाता है।

8. विपणन शिक्षा (Marketing Education) आत्म-सहायता सहकारिता का एक उद्देश्य होता है। सहकारी विपणन से सम्बन्धित सभी कार्य स्वयं सदस्यों द्वारा सम्पादित किये जाते हैं। इस प्रकार वे विपणन व्यवस्था से पूर्णतः परिचित हो जाते हैं।

9. वित्त की सुविधा (Financial Facilities)—सहकारी समितियों द्वारा कृषकों को वित्त सम्बन्धी सुविधाएँ भी प्राप्त होती हैं। कृषकों को अपनी उपज बिकने से पूर्व ही अग्रिम धनराशि प्राप्त हो जाती है।

10. कपटपूर्ण व्यवहार से बचाव (Protection from Fraudulent Practices) सहकारी समितियाँ कृषकों का उचित मार्ग प्रशस्त करके अनियमित मण्डियों की व्यवस्था व परेशानियों से मुक्त कराती हैं।

11. उपभोक्ताओं को लाभ (Henefit to Consumers)—सहकारी विपणन से एक लाभ यह है कि उपभोक्ता वर्ग को वर्ष भर कृषि वस्तुएँ उचित कीमत पर प्राप्त होती रहती हैं क्योंकि सहकारी समितियाँ पूँजीपति व्यापारियों की भाँति वस्तुएँ रोककर कृत्रिम अभाव की स्थिति उत्पन्न नहीं करती। ये कृषि वस्तुओं की पूर्ति निरन्तर बनाये रखती है जिससे बाजार की कीमतों की स्थिति डोंबाडोल नहीं होने पातो।

भारत में सहकारी विपणन की संरचना (STRUCTURE OF CO-OPERATIVE MARKETING IN INDIA)

इस समय देश में सहकारी विपणन की संरचना निम्न प्रकार हैं-

1. प्राथमिक सहकारी विपणन समितियाँ (Trimary Co-operative Marketing Societies) ये समितियाँ ग्राम स्तर पर कार्य करती हैं। ये दो तरह की होती हैं-प्रथम, सामान्य सहकारी विपणन समितियाँ, जिनका कार्य-क्षेत्र सामान्यतः पूरी तहसील होता है और वे सभी प्रकार की वस्तुओं का व्यापार करती हैं। द्वितीय, विशिष्ट वस्तु सहकारी समितियाँ, जो किसी विशिष्ट वस्तु का व्यापार करती हैं; जैसे-उत्तर प्रदेश वा बिहार की गन्ना समितियाँ, उत्तर प्रदेश की घी समितियाँ इनके अच्छे उदाहरण हैं।

2.जिला क्षेत्रीय विपणन समितियाँ (District. Regional Marketing Societies)—प्राथमिक समितियों के ऊपर जिला स्तर पर केन्द्रीय जिला विपणन संघ हैं। इन संघों के सदस्य व्यक्ति और प्राथमिक समितियाँ दोनों ही हो सकते हैं। ये स्वतन्त्र रूप से कृषि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते हैं और प्राथमिक समितियों को ऋण तथा अन्य प्रकार की सहायता भी देते हैं।

3. राज्य सहकारी विपणन संघ (State Co-operative Marketing Federation)—इनका कार्य-क्षेत्र सम्पूर्ण राज्य होता है। इसका कार्य क्रय-विक्रय करना तथा केन्द्रीय विपणन संघों और प्राथमिक विपणन समितियों को ऋण प्रदान करना है। राज्य विपणन संघ के सदस्य व्यक्ति तथा समितियाँ दोनों ही हो सकते हैं।

4. राष्ट्रीय सहकारी कृषि विपणन महासंघ (National Agricultural Co-operative Marketing Federation)—यह राष्ट्रीय स्तर पर सहकारी विपणन की शीर्ष संस्था है। इसका मुख्य उद्देश्य कृषि एवं अन्य वस्तुओं में अपने सदस्यों के विपणन, व्यापारिक कार्य-कलापों में समन्वय लाना और प्रोत्साहित करना, अन्तर्राष्ट्रीय तथा अन्तर्राज्यीय कृषि व्यापार को बढ़ावा देना तथा सदस्यों को कृषि के लिए आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति कराना है।

प्रगति (Progress) भारत में सहकारी बाजार संरचना में नण्डी स्तर पर 2,636 सामान्य उद्देश्यीय प्राथमिक सहकारी समितियाँ हैं जो सभी मुख्य मण्डियों में काम कर रही हैं। तिलहनों इत्यादि के लिए 3,290 विशिष्ट प्राथमिक सहकारी समितियाँ हैं। 172 जिला/केन्द्रीय समितियाँ 29 सामान्य उद्देश्यीय राज्य सहकारी विपणन फेडरेशन 16 राज्य स्तर पर विशेष वस्तु विपणन फेडरेशन तथा राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सहकारी विपणन फेडरेशन (National Agricultural Co-operative Marketing Federation of India Ltd. या VAFED) हैं।

सहकारी विपणन समितियों द्वारा की गयी कुल बिक्री में आठ राज्यों-गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र की सहकारी समितियों का हिस्सा 80 प्रतिशत से अधिक है।

सहकारी विपणन की धीमी प्रगति के कारण (REASONS FOR SLOW PROGRESS OF CO-OPERATIVE MARKETING)

1. प्रशिक्षित व कुशल पदाधिकारियों की न्यूनता (Shortage of Trained and Efficient Oficials)—भारतीय कृषक आज भी अशिक्षित व अकुशल हैं जिससे समितियों के कार्य संचालन के लिए कुशल व शिक्षित व्यक्ति नहीं मिल पाते हैं।

2. निष्ठा की कमी (Lack of Loyalty) कृषकों के लिए आवश्यक है कि वे समिति के प्रति निष्ठावान हों, तभी समिति सफलतापूर्वक कार्य करती है परन्तु भारत में निष्यवान सदस्यों का अभाव पाया जाता है।

3. विपणन लागत की अधिकता (Excessive Marketing Cost)–समिति के कर्मचारी चूँकि वेतन के आधार पर कार्य करते हैं इसलिए वे समिति के कार्य को अपना कार्य नहीं समझते हैं, साथ ही इनके पास यातायात के साधन भी । उपलब्ध नहीं होते हैं जिससे कृषि उपज के यातायात पर इन्हें अत्यधिक धन खर्च करना पड़ता है। फलतः विपणन लागत अधिक आती है जिससे व्यापारियों से प्रतिस्पर्धा नहीं हो पाती है।

4. वित्त की अपर्याप्तता (Shortage of Finance) सहकारी समितियों को धीमी प्रगति का एक कारण यह है कि इन समितियों के पास वित्तीय साधनों का अभाव है और इन्हें क्रम ब्याज-दर पर पर्याप्त ऋण नहीं मिल पाता है।

5. व्यापारियों से प्रतिस्पर्धा (Competition from Traders) व्यापारी वर्ग सहकारी समितियों को अपना प्रतिस्पर्धी नानता है और सहकारी विपणन समितियों को असफल करने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न करता है।

6. पर्याप्त विपणन कार्य का अभाव (Lack of Sufficient Murkeling Work) सहकारी समितियाँ कृषि वस्तुओं को वर्ष भर खरीद नहीं सकतीं क्योंकि इनके पास प्रायः भण्डार गृहों का अभाव

रहता है और वित्ताच साधन भी पर्याप्त नहीं होते, स्पष्टत: ये समिरियाँ व्यापारियों का स्थान लेने में असमर्थ रही हैं।

7. अन्य कारण (Other Causes) सहकारी विपणन समितियों की धीमी प्रगति के लिए उत्तरदायी कुछ अन्य कारण इस प्रकार हैं-(i) कृषक वर्ग की उदासीनता, (ii) गोदामों का अभाव,

(iii) विपणन समितियों एवं उपभोक्ता समितियों में सम्पर्क का अभाव, (iv) बाजार सम्बन्धी सूचनाओं का अभाव आदि।

सहकारी विपणन में सुधार हेतु सुझाव (SUGGESTIONS FOR IMPROVEMENT IN CO-OPERATIVE MARKETING) )

सहकारी विपणन समितियों से किसान को लाभ हुआ है परन्तु सम्पूर्ण देश के आकार तथा कृषि की आवश्यकताओं को देखते हुए इनकी प्रगति बहुत धीमी गति से हुई है। सहकारी विपणन के विकास के लिए कुछ सुझाव नीचे दिये जा रहे हैं-

1. सहकारिता के विभिन्न पहलुओं, जैसे-साख-विपणन एवं उन्नत कृषि में समन्वय स्थापित करना चाहिए और यह प्रयत्न किया जाना चाहिए कि एक ही समिति इन तीनों प्रकार की सेवाओं को प्रदान करे।

2. सामुदायिक विकास योजनाओं तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवाओं के क्षेत्रों में सहकारी-विक्रय पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए।

3. सहकारी विपणन समितियों को चाहिए कि जहाँ तक सम्भव हो, कृषि वस्तुएँ उपभोक्ताओं को प्रत्यक्ष रूप से बेचे, ताकि मध्यस्थों का व्यय बच सके।

4. सहकारी विक्रय समितियों का प्रबन्ध व संचालन शिक्षित व कुशल व्यक्तियों के हाथों में होना चाहिए। इसके लिए कर्मचारियों को प्रशिक्षण की सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए।

5. सरकार की ओर से इन संस्थाओं को कृषि-वस्तुओं के वर्गीकरण सुविधा प्राप्त होनी चाहिए।

6. ग्रामीण क्षेत्रों में निजी संग्रह एवं गोदाम सुविधाएँ विकसित करने के लिए सहकारी समितियों को आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए।

7. सरकार को चाहिए कि वह ग्रामों और बाजारों के बीच यातायात और संवाद वाहन के साधनों का विकास करे।

8. सरकार को चाहिए कि यथासम्भव विप अपने सहायता कार्यों, जैसे- उन्नत बीजों या उर्वरकों के वितरण आदि का माध्यम बनाए।

9. विपणन सहकारी समितियों को निजी क्षेत्र से प्रतियोगिता एवं वैमनस्य का खतरा बना रहता है। इसे दूर किये जाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

10. विपणन सहकारी समितियों के विकास के लिए नियोजित ढंग से प्रयत्न किया जाना चाहिए और उसमें उत्पादन, विधायन, विपणन एवं संग्रह आदि पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए।

डा0देवेंद्र प्रसाद

सहायक प्राध्यापक अर्थशास्त्र विभाग

संत कोलोम्बा महाविद्यालय, हजारीबाग

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