सामान्य ज्ञान इतिहास-मौर्य वंश

सामान्य ज्ञान इतिहास-मौर्य वंश
सामान्य ज्ञान इतिहास-मौर्य वंश

मौर्य वंश

चन्द्रगुप्त मौर्य

मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था। इसने मगध के नन्द वंश के अंतिम शासक घनानन्द को युद्ध में परास्त कर मगध पर एक नये वंश के रूप में मौर्य वंश की स्थापना की थी।

जस्टिन ने चन्द्रगुप्त मौर्य को सेण्ड्रोकोट्‌स एवं प्लूटार्क ने एण्ड्रोकट्‌स से सम्बोधित किया है।

सर्वप्रथम विलियम जोन्स ने सेण्ड्रोकोट्‌स की पहचान चन्द्रगुप्त मौर्य के रूप में की।

चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 .पू. में हुआ था।

घनानन्द को परास्त करने में चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य की मदद की थी, जो बाद में चन्द्रगुप्त का प्रधानमन्त्री बना।

चन्द्रगुप्त 322 .पू. में मगध की राजगद्‌दी पर बैठा।

चन्द्रगुप्त जैन धर्म का अनुयायी था। उसने जैन धर्म गुरु भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ली थी।

चन्द्रगुप्त ने अपने जीवन का अंतिम समय कर्नाटक के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर बिताया।

305 .पू. में चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर को हराया।

सेल्यूकस निकेटर ने अपनी पुत्री कार्नेलिया की शादी चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ कर दी और युद्ध की संधि के शर्तों के अनुसार चार प्रांत- काबुल, कंधार, हेरात एवं मकरान चन्द्रगुप्त को दिये। चन्द्रगुप्त ने 500 हाथी उपहारस्वरूप सेल्यूकस को भेजे। इस उपहार का उल्लेख प्लूटार्क भी करता है।

मेगास्थनीज सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था, जो चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार मे रहता था।

मेगास्थनीज द्वारा लिखी गयी पुस्तक इंडिका में चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन, पाटलिपुत्र, इसकी प्रशासनिक व्यवस्था और अन्य विषयों का उल्लेख मिलता है।

चन्द्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस के बीच हुए युद्ध का वर्णन एप्पियस ने किया है।

चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु 298 .पू. में श्रवणबेलगोला में उपवास द्वारा हुई।

बिन्दुसार

➤ चन्द्रगुप्त मौर्य का उत्तराधिकारी बिन्दुसार हुआ, जो 298 ई.पू. में मगध के राजसिंहासन पर बैठा।

➤ बिन्दुसार अमित्रघात या अमित्रखाद (शत्रुओं का संहारक) के नाम से भी जाना जाता है।

➤ बिन्दुसार के अन्य नाम भी मिलते हैं - अमित्रकेटे, अल्लित्रोशेड्‌स, अमित्रचेत्स, सिंहसेन इत्यादि।

➤ पुराणों के अनुसार 24 वर्षों तक जबकि बौद्ध ग्रन्थ महावंश के अनुसार 27 वर्षों तक राज्य बिन्दुसार ने किया।

➤ वायुपुराण में बिन्दुसार को भद्रसार या वारिसार कहा गया है।

➤ तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ और बौद्ध ग्रन्थ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के अनुसार चन्द्रगुप्त के पश्चात्‌ भी कुछ समय तक चाणक्य बिन्दुसार का प्रधानमन्त्री बना रहा।

➤ स्ट्रैबो के अनुसार यूनानी शासक एण्टियोकस ने बिन्दुसार के दरबार में डाइमेकस नामक राजदूत भेजा। इसे ही मेगास्थनीज का उत्तराधिकारी माना जाता है।

➤ प्लिनी के अनुसार मिस्र का राजा फिलाडेल्फस (टॉलमी II) ने पाटलिपुत्र में डियानीसियस नाम का एक राजदूत भेजा था।

➤ जैन ग्रन्थों में बिन्दुसार को सिंहसेन कहा गया है।

➤ बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में हुए दो विद्रोहों का वर्णन मिलता है। इस विद्रोह को दबाने के लिए बिन्दुसार ने पहले अशोक को और बाद में सुसीम को भेजा।

➤ एथीनियस के अनुसार बिन्दुसार ने सीरिया के शासक एण्टियोकस I से मधुर मदिरा, सूखे अंजीर एवं एक दार्शनिक भेजने की प्रार्थना की थी। सीरिया के शासक ने बिन्दुसार की प्रथम दो माँगें मान ली, परन्तु दार्शनिक नहीं भेज सका।

➤ तिब्बती बौद्ध विद्वान तारानाथ ने बिन्दुसार को 16 राज्यों का विजेता बताया है।

➤ बिन्दुसार के शासन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने अपने पिता के साम्राज्य की निष्ठापूर्वक रक्षा की तथा इसे विरासत के रूप में अपने पुत्र अशोक के लिए सुरक्षित रखा। अशोक

➤ बिन्दुसार का उत्तराधिकारी अशोक महान हुआ जो 269 ई.पू. में मगध की राजगद्‌दी पर बैठा।

➤ राजगद्‌दी पर बैठने के समय अशोक अवंती का राज्यपाल था।

➤ मास्की एवं गुर्जरा अभिलेख में अशोक का नाम अशोक मिलता है।

➤ पुराणों में अशोक को अशोकवर्धन कहा गया है।

➤ अशोक ने अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष लगभग 261 ई.पू. में कलिंग पर आक्रमण किया और कलिंग की राजधानी तोसली पर अधिकार कर लिया।

➤ अशोक को उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु ने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी।

➤ अशोक ने आजीवकों को रहने हेतु बिहार राज्य के गया जिला के अन्तर्गत बराबर की पहाड़ियों में चार गुफाओं (वर्तमान में बराबर पहाड़ी की ये गुफाएं जहानाबाद में स्थित है) का निर्माण करवाया। इन गुफाओं के नाम क्रमश: हैं - कर्ण, चोपार, सुदामा तथा विश्व-झोपड़ी ।

➤ अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी था।

➤ अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा।

➤ भारत में शिलालेख का प्रचलन सर्वप्रथम अशोक ने किया।

➤ अशोक के शिलालेखों में ब्राह्मी, खरोष्ठी एवं अरामाइक लिपि का प्रयोग हुआ है।

➤ ग्रीक एवं अरामाइक लिपि का अभिलेख अफगानिस्तान में, खरोष्ठी लिपि का अभिलेख उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान में और शेष भारत से ब्राह्मी लिपि में अभिलेख प्राप्त हुए हैं।

➤ अफगानिस्तान के लगभग से प्राप्त पुलेदारूत शिलालेख आरामाइक लिपि में है।

➤ अशोक के अभिलेखों से उसकी गृह, विदेश नीति, साम्राज्य विस्तार एवं प्रशासन पर काफी प्रकाश पड़ता है।

➤ अशोक के अभिलेखों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

1. शिलालेख (Rock-edict)

2. स्तम्भ लेख (Pillar-edict)

3. गुहा लेख (Cave-inscriptions)

➤ अशोक के शिलालेख की खोज 1750 ई.पू. में टीफैनथेलर ने की थी। इनकी संख्या 14 है।

➤ सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप को 1837 में अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता मिली।

1. अशोक के शिलालेख (Rock-edicts)

➤ अशोक के शिलालेखों की संख्या 14 है, जो आठ अलग-अलग स्थानो से मिले हैं। इन 14 शिलालेखों में वर्णित बातें निम्न है- पहला शिलालेख- इसमें अशोक ने पशुबलि की निंदा की है।

➤ दूसरा शिलालेख- इसमें अशोक ने मनुष्य और पशु दोनों की चिकित्सा व्यवस्था का उल्लेख किया है।

➤ तीसरा शिलालेख- इसमें राजकीय अधिकारियों को यह आदेश दिया गया है कि वे प्रति पाँचवें वर्ष के उपरांत दौरों पर जायें। इस शिलालेख में कुछ धार्मिक नियमों का भी उल्लेख किया गया है।

➤ चतुर्थ शिलालेख- इसमें धर्म से सम्बन्धित शेष नियमों का उल्लेख किया गया है। साथ ही भेरीघोष की जगह धम्मघोष की घोषणा की गयी है।

➤ पंचम शिलालेख- इसमें धर्म महामात्रों की नियुक्ति के विषय में जानकारी मिलती है।

➤ छठा शिलालेख- इसमें आत्म-नियन्त्रण की शिक्षा दी गयी है।

➤ सातवाँ एवं आठवाँ शिलालेख- इसमें अशोक की तीर्थ यात्राओं का उल्लेख किया है।

नौवाँ शिलालेख- इसमें सच्ची भेंट एवं सच्चे शिशचार का उल्लेख है।

अशोक के शिलालेख

क्र. सं

शिलालेख

खोज का वर्ष

लिपि

1

शहबाजगढ़ी

1836

खरोष्ठी

2

मानसेहरा

1889

खरोष्ठी

3

गिरनार

1822

ब्राह्मी

4

धौली

1837

ब्राह्मी

5

कालसी

1837

ब्राह्मी

6

जौगड़

1850

ब्राह्मी

7

सोपारा

1882

ब्राह्मी

8

एर्रगुड़ी

1916 (लगभग)

ब्राह्मी

नोट: धौली एवं जौगड़ के लेखों को पृथक्‌ कलिंग प्रज्ञापन कहते हैं। इसमें कलिंग राज्य के प्रति अशोक की शासन नीति का उल्लेख है।

दसवाँ शिलालेख- इसके माध्यम से अशोक ने यह आदेश दिया है कि राजा तथा उच्च पदाधिकारी हर क्षण प्रजा के हित के बारे में सोचें।

ग्यारहवाँ शिलालेख- इसमें धर्म के वरदान को सर्वोत्कृष्ट बताया गया है।

बारहवाँ शिलालेख- इसमें सभी प्रकार के विचारों के समान होने की बात कही गयी है।

तेरहवाँ शिलालेख- इसमें कलिंग युद्ध का वर्णन एवं अशोक के हृदय परिवर्तन की बात कही गयी है।

चौदहवाँ शिलालेख- इसमें अशोक ने जनता को धार्मिक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है।

लघु शिलालेख

लघु शिलालेखों के माध्यम से अशोक के व्यक्तिगत जीवन के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है। अशोक के लघु शिलालेख निम्न प्रकार से हैं-

क्र. सं.

लघु शिलालेख

स्थान

1

एर्रगुड़ी

कर्नूल (आंध्रप्रदेश)

2

ब्रह्मगिरि

ब्रह्मगिरि (कर्नाटक)

3

सिद्धपुर

ब्रह्मगिरि से एक मील पश्चिम (कर्नाटक)

4

जटिंग रामेश्वर

ब्रह्मगिरि से 3 मील उत्तर-पश्चिम (कर्नाटक)

5

गोविमठ

गोविमठ (मैसूर, कर्नाटक)

6

राजुल मंडिगिरि

कर्नूल (आंध्रप्रदेश)

7

मास्की

रायचूर (आंध्रप्रदेश)

8

गुर्जरा

दतिया (मध्यप्रदेश)

9

भब्रू (बैराठ)

जयपुर (राजस्थान)

10

रूपनाथ

जबलपुर (मध्यप्रदेश)

11

अहरौरा

मिर्जापुर (उत्तरप्रदेश)

12

सासाराम

सासाराम (बिहार)

13

पालकि गुंडु

गोविमठ से 4 मील दूर (कर्नाटक)

2. अशोक के स्तंभ लेख (Pillar-edicts)

इनकी कुल संख्या 7 है। ये लेख : अलग-अलग स्थानों से मिले हैं। ये लेखक निम्न हैं-

1. प्रयाग स्तंभ लेख- यह पहले कौशांबी में स्थित था। इसे रानी का अभिलेख भी कहा जाता है। इस स्तंभ लेख को मुगल सम्राट अकबर ने इलाहाबाद के किले में स्थापित करवाया।

2. दिल्ली-टोपरा- यह स्तंभ लेख फिरोजशाह तुगलक द्वारा पंजाब के टोपरा से दिल्ली लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेखों का उल्लेख है।

3. दिल्ली मेरठ- पहले मेरठ में स्थित यह स्तंभ लेख फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया। इसकी खोज 1750 . में टीफैनथेलर द्वारा की गयी।

4. रामपुरवा- यह स्तंभ लेख बिहार राज्य के पश्चिम चंपारण जिला में स्थित है। इसकी खोज 1872 में कारलायल ने की थी। इस स्तंभ लेख पर वृषभ की मूर्ति है।

5. लौरिया अरेराज- यह बिहार राज्य के पूर्वी चंपारण जिले में स्थित है।

6. लौरिया नंदनगढ़- यह भी बिहार राज्य के पश्चिम चंपारण जिले में स्थित है। इस स्तंभ लेख पर मोर का चित्र बना है। लघु-स्तंभ लेख

➤ सभी लघु-स्तंभ लेखों पर अशोक की राजकीय घोषणाओं का उल्लेख है।

➤ साँची-सारनाथ के लघु-स्तंभ लेख में अशोक धर्म महामात्रों को संघ-भेद रोकने का आदेश देता है।

क्र. स.

लघु-स्तंभ लेख

स्थान

1

सारनाथ

वाराणसी (उत्तरप्रदेश)

2

साँची

रायसेन (मध्यप्रदेश)

3

कौशांबी

कौशांबी (इलाहाबाद)

4

रूम्मिनदेई

नेपाल की तराई (नेपाल)

5

निग्लीवा

निगाली सागर (नेपाल)

6

रानी का स्तंभ लेख

इलाहाबाद के किले में (इलाहाबाद)

3. अशोक के गुहा लेख (Cave-inscriptions)

➤ अशोक ने बिहार राज्य के गया जिले (अब जहानाबाद) में बराबर व नागार्जुनी चट्‌टानों को काटवाकर तीसरी शताब्दी ई.पू. में शैलकृत गुफाओं का निर्माण करवाया था।

➤ बराबर स्थित चार में से तीन गुफाओं में अशोक के शिलालेख हैं। इस शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि दो गुफाएँ अशोक द्वारा शासन के 12वें वर्ष और 19वें वर्ष भिक्षुओं को दी गयी।

➤ इन गुफाओं को अशोक ने आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं के निवास के लिए बनवाया था।

➤ अशोक की प्रमुख गुफाएँ हैं- कर्ण, चोपार, विश्व झोपड़ी और सुदामा।

➤ कोशांबी अभिलेख को रानी का अभिलेख कहा जाता है।

➤ अशोक का सबसे छोटा स्तंभ-लेख रूम्मिनदेई का है। इसी में लुम्बिनी में धम्म यात्रा के दौरान अशोक द्वारा भू-राजस्व की दर घटा देने की घोषणा की गयी है।

➤ अशोक का 7वाँ अभिलेख सबसे लंबा है।

➤ धौली एवं जौगड़ के लेखों को पृथक कलिंग प्रज्ञापन कहा गया है। इस अभिलेख में कलिंग राज्य के प्रति अशोक की शासन नीति के विषय में बताया गया है।

➤ प्रथम पृथक्‌ कलिंग शिलालेख में अशोक ने प्रजा के प्रति पितृ-तुल्य भाव प्रकट किया है।

➤ अशोक का शार-ए-कुना (कंधार) अभिलेख ग्रीक एवं आरामाइक भाषाओं में प्राप्त हुआ है।

➤ साम्राज्य में मुख्यमन्त्री एवं पुरोहित की नियुक्ति के पूर्व उनके चरित्र को काफी जाँचा परखा जाता था, जिसे उपधा परीक्षण कहा जाता था।

➤ सम्राट की सहायता के लिए एक मन्त्रिपरिषद्‌ होती थी, जिसमें सदस्यों की संख्या 12, 16 या 20 हुआ करती थी। इन सदस्यों का वेतन 12,000 पण वार्षिक था।

➤ मन्त्रिपरिषद्‌ का राजा पर पूर्ण नियन्त्रण था पर मन्त्रिपरिषद्‌ का कोई भी निर्णय राजा मानने के लिए बाध्य नहीं था।

➤ अर्थशास्त्र में उँचे स्तर (शीर्षस्थ) के अधिकारी के रूप में तीर्थ का उल्लेख मिलता है, इन्हें महामात्र भी कहा जाता था। इनकी संख्या 18 थी।

मौर्य कालीन प्रांत

क्र.सं

प्रांत

राजधानी

1

उत्तरापथ

तक्षशिला

2

अवंतिराष्ट्र

उज्जयिनि

3

कलिंग

तोसली

4

दक्षिणापथ

सुवर्णगिरि

5

प्राची (पूर्वी देश)

पाटलिपुत्र

अर्थशास्त्र में वर्णित तीर्थ

1

मन्त्री

प्रधानमन्त्री

2

पुरोहित

धर्म एवं दान-विभाग का प्रधान

3

सेनापति

सैन्य विभाग का प्रधान

4

युवराज

राजपुत्र

5

दौवारिक

राजकीय द्वार-रक्षक

6

अन्तर्वेदिक

अन्त:पुर का अध्यक्ष

7

समाहर्ता

आय का संग्रहकर्ता

8

सन्निधाता

राजकीय कोष का अध्यक्ष

9

प्रशास्ता

कारागार का अध्यक्ष

10

प्रदेष्ट्रि

कमिश्नर

11

पौर

नगर का कोतवाल

12

व्यावहारिक

प्रमुख न्यायाधीश

13

नायक

नगर-रक्ष का अध्यक्ष

14

कर्मान्तिक

उद्योगों एवं कारखानों का अध्यक्ष

15

मन्त्रिपरिषद्‌

अध्यक्ष

16

दण्डपाल

सेना का सामान एकत्र करने वाला

17

दुर्गपाल

दुर्ग-रक्षक

18

अंतपाल

सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक

अर्थशास्त्र में चर शब्द का उल्लेख जासूस (गुप्तचर) के रूप में हुआ है।

➤ उँचे स्तर के अधिकारी मन्त्री एवं पुरोहित होते थे। पुरोहित, महामन्त्री एवं सेनापति को लगभग 48,000 पण वार्षिक वेतन मिलता है।

➤ अशोक के काल में प्रांतों की संख्या 5 थी। इन्हें चक्र भी कहा जाता था।

➤ प्रांतों के प्रशासक कुमार या आर्यपुत्र या राष्ट्रिक कहलाते थे।

➤ प्रांतों का विभाजन पुन: विषय में किया गया था, जो विषयपति के अधीन होते थे।

➤ प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी, जिसका मुखिया ग्रामिक कहलाता था।

➤ प्रशासक की सबसे छोटी इकाई गोप था, जो दस ग्रामों का शासन संभालता था।

➤ मेगास्थनीज के अनुसार नगर का प्रशासन 30 सदस्यों का एक मंडल करता था, जो 6 समितियों में विभाजित था। प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।

प्रशासनिक समिति एवं उनके कार्य

समिति

कार्य

प्रथम समिति

उद्योग एवं शिल्प कार्य का निरीक्षण

द्वितीय समिति

विदेशियों की देखरेख

तृतीय समिति

जन्म-मरण का विवरण रखना

चतुर्थ समिति

व्यापार एवं वाणिज्य की देखभाल

पंचम्‌ समिति

निर्मित वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण

छठम्‌ समिति

बिक्री कर वसूल करना

बिक्री-कर के रूप में मूल्य का 10वाँ भाग राज्य द्वारा वसूला जाता था, इसे बचाने वालों को मृत्युदंड दिया जाता था।

➤ मार्ग निर्माण अधिकारी के रूप एग्रोनोमई का उल्लेख मेगास्थनीज द्वारा किया गया है।

➤ चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना में लगभग 6,00,000 पैदल सैनिक (जस्टिन के अनुसार) , 50,000 अश्वारोही सैनिक, 9000 हाथी एवं 8000 रथ थे।

➤ मेगास्थनीज के अनुसार इस विशाल सेना के रख-रखाव हेतु 6 समितियों का गठन किया गया था, प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।

➤ प्लूटार्क एवं जस्टिन के अनुसार चन्द्रगुप्त ने नन्दों की पैदल से तीन गुनी अधिक संख्या में अर्थात्‌ 60,000 सैनिकों को लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत को रौंद डाला था।

➤ युद्ध क्षेत्र में सेना नेतृत्व नायक नामक अधिकारी करता था।

➤ सैन्य-विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी सेनापति था।

➤ मौर्य प्रशासन में गुप्तचर विभाग महामात्यापसर्प नामक अमात्य के अधीन था।

➤ मौर्य साम्राज्य में (अर्थशास्त्र के अनुसार) गुप्तचर को गुढ़ पुरुष कहा गया है।

➤ मौर्य शासन में दो तरह के गुप्तचर कार्य करते थे-

1. संस्था गुप्तचर- ये एक ही स्थान पर रहकर कार्य करते थे।

2. संचार गुप्तचर- ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए कार्य करते थे।

➤ पुरुष गुप्तचर को संती, तिष्णा एवं सरद तथा स्त्री-पुरुष को वृषली , भिक्षुकी एवं परिव्राजक कहते थे। 

➤ साम्राज्य में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए अर्थशास्त्र में रक्षिन (पुलिस) का उल्लेख मिलता है।

➤ इस काल में राजकीय कोष का मुख्य अधिकारी या कोषाध्यक्ष सन्निघाता कहलाते थे।

➤ इस काल में राजस्व विभाग का मुख्य अधिकारी समाहर्ता होता था।

➤ उधोग की देख-रेख करने वाला प्रमुख अधिकारी कर्मान्तिक कहलाता था।

वन विभाग का प्रमुख अधिकारी आटविक होता था।

इस काल में वणिक का, नाव पतन कर, चारागाह, सड़क अन्य साधनों से प्राप्त राजस्व को सामूहिक रूप से राष्ट्र कहा जाता था।

इस काल में प्रचलित प्रवरण एक प्रकार का सामूहिक समारोह था।

इस काल में न्यायालय दो भागों में बँटा था - (i) धर्मस्थीय न्यायालय (दीवानी) (ii) कंटक शोधन न्यायालय (फौजदारी)

धर्मस्थीय न्यायालय (दीवानी न्यायालय) का न्यायाधीश व्यावहारिक/धर्मस्थ कहलाता था।

सैन्य समिति एवं उनके कार्य

समिति

कार्य

प्रथम समिति

जल सेना की व्यवस्था

द्वितीय समिति

यातायात एवं रसद की व्यवस्था

तृतीय समिति

पैदल सैनिकों की देख-रेख

चतुर्थ समिति

अश्वारोहियों की सेना की देख-रेख

पंचम्‌ समिति

गजसेना की देख-रेख

छठम्‌ समिति

रथ सेना की देख-रेख

कंटकशोधन न्यायालय (फौजदारी न्यायालय) का न्यायाधीश प्रदेष्टि/प्रदेश कहलाता था।

सरकारी भूमि को सीता भूमि कहा जाता था। इस भूमि की देख-रेख करने वाला अधिकारी सीताध्यक्ष कहलाता था।

बिना वर्षा के अच्छी खेती होने वाली भूमि को अदैवमातृक कहा जाता था।

मौर्य काल में नि:शुल्क श्रम बेगार किये जाने को विष्टि कहा गया है।

इस काल में बलि एक प्रकार का धार्मिक कर था जबकि भाग भूमिकर में राजा के हिस्से को कहा जाता था।

क्षेत्रक भूस्वामी को और उपवास काश्तकार को कहा जाता था।

वह कर जो अनाज के रूप में लेकर नकद रूप में लिया जाता था उसे हिरण्य कहा जाता था।

कृषि, पशुपालन एवं व्यापार को सम्मिलित रूप से अर्थशास्त्र में वार्ता अर्थात आजीविका का साधन कहा गया है।

मौर्य काल में भूमिकर उपज का 1/6 अथवा 1/4 भाग लिया जाता था।

राज्य की ओर से सिंचाई के समुचित प्रबन्ध को सेतुबन्ध कहा जाता था।

इस काल में सिंचाई उपज का 1/5 से 1/3 भाग होता था।

मौर्य काल में आय के कुछ अन्य साधनों में सेतुकर, वनकर, पशुकर, सीमाशुल्क, धर्मस्थल कर उल्लेखनीय है।

मौर्य काल में दो प्रकार के वन पाये जाते थे- हस्तिवन एवं द्रव्यवन।

हस्तिवन में हाथी पाये जाते थे जबकि द्रव्यवन में लकड़ी, लोहा एवं ताँबा पाया जाता था।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मौर्यकालीन मुद्राओं के निम्न नाम मिलते हैं- कर्षापण/पण/धरण या धारण: चाँदी एवं ताँबा निर्मित।

सुवर्ण: सोना से निर्मित।

माषक/भाषक: ताँबा का सिक्का था।

काकणी: यह भी ताँबा से बना होता था।

उपर्युक्त वर्णित मुद्राओं को जारी करने का अधिकार लक्षणाध्यक्ष एवं सौवर्णिक को होता था। स्वतन्त्र रूप से सिक्का ढालने वालों को राज्य को 13.5 प्रतिशत ब्याज रूपिका एवं परीक्षण के रूप में देना पड़ता था।

इस काल में समस्त निर्मित वस्तुओं को पण्याध्यक्ष की कड़ी निगरानी में बाजारों में बेचा जाता था। इन वस्तुओं को पण्य वस्तु भी कहा जाता था। पण्य वस्तु पर उसके मूल्य का पाँचवाँ भाग चुंगी के रूप में तथा इस चुंगी का पाँचवाँ भाग व्यापार कर के रूप में लिया जाता था।

इस काल में व्यापार स्थल एवं जल दोनों मार्गों से होता था।

छोटी नदियों में क्षुद्रका नाव एवं बड़ी नदियों में महानाव चलती थी। साथ ही प्लव (डोंगी) के प्रचलन का भी प्रमाण मिलता है।

इस काल के समुद्री मार्गों को कौटिल्य ने संयानपथ नाम दिया है।

मौर्यकालीन समाज के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मेगास्थनीज की इंडिका एवं अशोक के अभिलेखों से मिलती है।

कौटिल्य ने वर्णाश्रम व्यवस्था के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए इसकी रक्षा को राजा के कर्तव्य से जोड़ा, साथ ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के व्यवसाय को अलग-अलग निर्धारित किया।

अर्थशास्त्र में शूद्रों को मलेच्छों से भिन्न दर्जा देते हुए आर्य कहा गया है। साथ ही इन्हें दास बनाये जाने पर प्रतिबन्ध था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में वार्ता (कृषि, पशुपालन एवं व्यापार) को शूद्रों का वर्णधर्म बताया है।

मौर्यकाल में शिक्षक, यज्ञ सम्पन्न कराने वाले पुरोहित एवं वेद पाठ करने वाले ब्राह्मणों को ब्रह्मदेय नामक भूमि दान में दी जाती थी।

मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों में विभाजित किया है- 1. दार्शनिक, 2. किसान, 3. अहीर, 4. कारीगर, 5. सैनिक, 6. निरीक्षक एवं 7. सभासद। मेगास्थनीज का यह वर्णन भारतीय वर्ण व्यवस्था से मेल नहीं खाता है।

दार्शनिकों की जाति को मेगास्थनीज ने पुन: दो श्रेणियों- ब्राह्मण और श्रमण में विभाजित किया है।

स्मृतिकाल की तुलना में मौर्यकाल में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी।

स्त्रियों में पुनर्विवाह एवं नियोग प्रथा का प्रचलन था।

इस काल में जो स्त्रियाँ घर से बाहर नहीं निकल पाती थीं उन्हें अर्थशास्त्र में अनिष्कासिकनी कहा गया है। 

इस काल में ऐसी स्त्रियाँ गणिका या वेश्या कहलाती थीं जो वैवाहिक सूत्र में बँधकर स्वतन्त्र रूप से जीवन-यापन करती थीं।

इस काल में वैसी स्त्रियों को रूपाजीवा कहा जाता था जो स्वतन्त्र रूप से वेश्यावृत्ति को अपनाती थी।

मौर्यकाल में कला के दो रूप मिलते हैं- 1. राजकीय कला और 2. लोककला। राजकीय कला मौर्य प्रासाद और अशोक स्तंभों में पायी जाती है, जबकि लोककला परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर ग्रहिणी एवं बेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता था।

मौर्य वंश का शासन 137 वर्षों तक रहा।

मौर्य वंश का अंतिम शासक बृहद्रथ था। इसकी हत्या इसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 185 .पू. में करने के पश्चात्‌ मगध पर शुंग वंश (ब्राह्मण साम्राज्य) की स्थापना की।

मौर्यकालीन महत्त्वपूर्ण शब्दावली

जेट्‌ठक

शिल्पी संघ का मुखिया

भोगागम

जेट्‌ठकों के निर्वाह के लिए राजा की ओर से मिलने वाला गाँव का राजस्व

गहपति

भूस्वामी

कार्षापण

चाँदी एवं ताँबे का एक टुकड़ा/एक सिक्का

अदेवमातृक

बिना वर्षा के ही अच्छी खेती वाली भूमि

सीता

सरकारी जमीन

विष्टि

नि:शुल्क श्रम, बेगार

बलि

एक प्रकार का धार्मिक कर या चढ़ावा

भाग

भूमि कर में राजा का हिस्सा

क्षेत्रक

भूमि का मालिक

उपवास

जमीन पर खेती करने वाला काश्तकार

हिरण्य

नकद लिया जाने वाला कर

वार्ता

कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य के लिए संयुक्त रूप से प्रयुक शब्द

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