सूर्य देव की रहस्यमय उत्पत्ति। ब्रह्मा, शिव और छठी मइया का गूढ़ संबंध।

सूर्य देव की रहस्यमय उत्पत्ति। ब्रह्मा, शिव और छठी मइया का गूढ़ संबंध।

 सूर्य देव की रहस्यमय उत्पत्ति। ब्रह्मा, शिव और छठी मइया का गूढ़ संबंध।

 सूर्य देव की रहस्यमय उत्पत्ति

ब्रह्मा, शिव और छठी मइया का गूढ़ संबंध

जय श्री कृष्ण ओम सूर्य नमः भक्तों आज हम सुनेंगे सूर्य देव की रहस्यमय उत्पत्ति की वह कथा जिसे जानकर आप भी चकित रह जाएंगे। भक्तों क्या आपने कभी सोचा है कि सूर्य जो पूरी सृष्टि को प्रकाश देता है उसका जन्म कैसे हुआ था? यह एक अत्यंत गूढ़ रहस्य है जो हजारों वर्षों से वेदों में छिपा है। आज की यह कथा अत्यंत ज्ञानवर्धक और प्रेरणादायक है। कथा आरंभ करने से पूर्व आपसे एक विनम्र निवेदन है जैसा कि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि कथा को अधूरा नहीं छोड़ा जाता। अतः इसे श्रद्धा और भक्ति भाव से अंत तक अवश्य सुने। तो आइए बिना किसी विलंब के आरंभ करते हैं। आज की प्रेरणादायक कथा जब अस्तित्व का कोई नाम नहीं था। जब समय का कोई अर्थ नहीं था। जब ना आकाश था ना धरती उस अनंत शून्य में केवल अंधकार था। गहरा अथा भेदी अंधकार। यह वह काल था जब स्वयं ब्रह्मांड भी अपने आदि रूप में अव्यक्त और अदृश्य अवस्था में विचरण कर रहा था। उस महाशून्य में एक दिन अचानक स्पंदन हुआ। अनंत शक्ति का आविर्भाव हुआ और परंपरा अनुसार ब्रह्मा स्वयं अपने स्वरूप में प्रकट हुए। वह शून्य अब केवल शून्य नहीं रहा। उसमें एक बीज पड़ा सृष्टि का आदि बीज। उस बीज से प्रस्फुटित हुआ एक दिव्य कमल जिसकी सुवर्ण कांत से सारा अंधकार तिरोहित हो गया। उस कमल के मध्य में विराजमान हुए कमल योनि ब्रह्मा सृष्टि के आदि स्रष्टा स्वयं को चारों ओर अंधकार से घिरा देख ब्रह्मा विचलित हुए। उन्होंने अपना स्वरूप प्रकाशित किया किंतु उनका प्रकाश उस अनंत अंधकार को भेदने में असमर्थ रहा। तब उनके मुख से अनायास ही प्रथम शब्द उच्चारित हुआ।

ओम यह केवल एक शब्द नहीं था। यह प्रकाश का तेज था। सूक्ष्म ऊर्जा का स्वरूप था। मैं सबका आदि हूं। अंत हूं। मुझ में ही सृष्टि का बीज निहित है। लेकिन इस अंधकार में मेरी सृष्टि कैसे विकसित होगी? ब्रह्मा ने विचार किया। उनके इसी विचार से एक अद्भुत घटना घटित हुई। उनके द्वारा उत्सरित ओम का शब्द अचानक एक ज्योति पुंज में परिवर्तित हो गया और इस प्रकाश से एक दिव्य आकृति प्रकट हुई। तेजस्वी देदिप्यमान स्वर्णिम। वह आकृति ब्रह्मा के चारों ओर प्रदक्षिणा करने लगी और जैसेजैसे वह घूमती गई अंधकार पीछे हटता गया। यह था सूर्य का आदि रूप अंधकार का प्रथम विरोधी प्रकाश का प्रथम स्रोत। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा तुम्हारे प्रकाश से ही मेरी सृष्टि का विस्तार होगा। तुम प्रकाश के अधिष्ठता हो। जीवन के वाहक हो। अब से तुम्हारा नाम आदित्यक होगा जो आदि से है जो अनादि है। उस ज्योतिर्मय पुरुष ने नतमस्तक होकर कहा मैं आपका सेवक हूं। प्रभु आपके आदेश का पालन करना ही मेरा कर्तव्य है। ब्रह्मा ने सूर्य के तेज को तीन भागों में विभाजित किया। प्रथम भाग से अग्नि, द्वितीय से विद्युत और तृतीय से ऊष्मा की उत्पत्ति हुई। इन तीनों से ही आगे चलकर सृष्टि का विस्तार हुआ। सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होकर ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना आरंभ की। इस प्रकार अंधकार के गर्भ से प्रकाश का जन्म हुआ जिसे हम आज सूर्य के रूप में जानते हैं। जैसे-जैसे सृष्टि का विस्तार होता गया ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीचि का जन्म हुआ। मरीच के पुत्र थे महर्षि कश्यप जिनका तप और तेज अद्वितीय था। कश्यप का विवाह प्रजापति दक्ष की 13 कन्याओं से हुआ। जिनमें अदिति और अदिति प्रमुख थी।

अदिति देव माता कहलाए और द्वितीय असुर माता एक बार की बात है जब देवताओं और असुरों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में असुरों ने देवताओं को परास्त कर दिया और उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया। देवताओं की इस दुर्दशा को देखकर अदिति का हृदय व्यथित हो उठा। उन्होंने अपने पति महर्षि कश्यप से कहा स्वामी हमारे पुत्र देवता अब अनाथों की भांति इधरउधर भटक रहे हैं। उन्हें उनका अधिकार दिलाने के लिए कुछ कीजिए। कश्यप बोले देवी इसका केवल एक ही उपाय है। तुम्हें कठोर तपस्या करनी होगी। यदि परमात्मा प्रसन्न हुए तो वे निश्चित ही हमारे पुत्रों की सहायता करेंगे। अदिति ने भगवान विष्णु की आराधना आरंभ की।

वे निराहार रहकर एक पैर पर खड़ी होकर दिन रात श्री हरि का ध्यान करने लगी। उनकी अखंड तपस्या से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान विष्णु प्रकट हुए। माता अदिति तुम्हारी तपस्या से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। वरदान मांगो। श्री विष्णु ने कहा अदिति ने अत्यंत नम्रता से कहा प्रभु मेरे पुत्रों को उनका स्वर्ग लोक वापस दिलाइए। उन्हें पुनः उनका अधिकार प्राप्त हो। विष्णु मुस्कुराए और बोले देवी मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र के रूप में अवतार लूंगा और असुरों का विनाश करूंगा। तुम निश्चिंत रहो। अदिति ने कृतज्ञता के साथ भगवान को प्रणाम किया और अपने आश्रम लौट आई। कुछ समय पश्चात उन्हें गर्भधारण हुआ। वह गर्भकाल अत्यंत दिव्य और अद्भुत था। पूरा आश्रम तेजस्वी प्रकाश से आलोकित रहता। मानो स्वयं सूर्य देव धरती पर उतर आए हो। परंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया, गर्भ में स्थित शिशु का तेज इतना तीव्र होता गया कि अदिति के लिए उसे धारण करना कठिन हो गया। उनका शरीर उस अलौकिक तेज को सहन नहीं कर पा रहा था। पीड़ा से व्याकुल होकर अदिति ने अपने पति कश्यप से कहा स्वामी मेरे गर्भ में स्थित शिशु का तेज मेरे शरीर को जला रहा है।

यह मुझसे सहन नहीं हो रहा है। कश्यप ने समाधि में स्थित होकर दिव्य दृष्टि से देखा और उन्हें सत्य का भान हुआ। उन्होंने कहा देवी तुम्हारे गर्भ में स्वयं सूर्य तेज विराजमान है। यह ब्रह्मा जी द्वारा उत्पन्न आदि सूर्य का अंश है जो अब मानवीय स्वरूप में जन्म लेने जा रहा है। यह सुनकर अदिति और भी अधिक चिंतित हो उठी। कश्यप ने उन्हें धैर्य बंधाते हुए कहा, मैं अपनी मंत्र शक्ति द्वारा तुम्हारे गर्भ के तेज को कम कर देता हूं जिससे तुम्हें कुछ शांति प्राप्त हो सके। कश्यप ने मंत्रोार किया और अपनी योग शक्ति से अदिति के गर्भ को दो भागों में विभाजित कर दिया। एक भाग में शिशु रहा और दूसरे में उसकी अधिकतम तेजस्वीता। समय आने पर अदिति ने एक अत्यंत तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जिसका संपूर्ण शरीर स्वर्णिम आभा से चमक रहा था। उसके जन्म लेते ही चारों दिशाओं में दिव्य प्रकाश फैल गया। आकाश में देव दुध दुंदुभियां बज उठी और देवताओं ने पुष्प वर्षा की। किंतु उसी क्षण एक विलक्षण घटना घटित हुई। जब बालक अदिति के गर्भ से बाहर आया तब गर्भ का आधा भाग अभी भी भीतर ही रह गया जिसमें बालक का शेष तेज समाहित था।

ऋषि कश्यप ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह अद्भुत स्थिति देखी और प्रसव की प्रक्रिया को पूर्ण कर उस अधान को भी बाहर निकाला। इस प्रकार अदिति के गर्भ से दो अलग-अलग रूपों का जन्म हुआ। एक जीवित बालक और दूसरा तेजस्वी अंड। क्योंकि वह बालक अर्धन से उत्पन्न हुआ था। अतः उसका नाम पड़ा मार्तंड अर्थात वह सूर्य जो अर्धन से उत्पन्न हुआ। बालक के शरीर का अधिकांश तेज उस दूसरे भाग में समाहित था जिसे आकाश में स्थापित किया गया और वही तेजस्वी गोला कालांतर में सूर्य कहलाया। इस प्रकार मार्तंड सूर्य दो रूपों में विद्यमान हुए। एक मानवीय रूप में और एक आकाशीय तेज गोलक के रूप में। उनके जन्म से ही असुर भयभीत होकर भाग खड़े हुए और देवताओं को पुनः स्वर्ग लोक प्राप्त हो गया। इस प्रकार देवमाता अदिति और महर्षि कश्यप के पुत्र रूप में मार्तंड सूर्य का जन्म हुआ जिन्हें विवसवान के नाम से भी जाना जाता है। मार्तंड सूर्य का तेज दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। उनके शरीर से निकलने वाली किरणें इतनी प्रखर थी कि कोई भी उनके समीप जाने का साहस नहीं कर पाता था। स्वयं माता अदिति भी उनके निकट आने से भयभीत रहती थी। सूर्यदेव अपनी इस स्थिति से अत्यंत व्यथित हो उठे। वे अकेलेपन और उपेक्षा से घिर गए थे।

एक दिन भगवान शिव कैलाश से भ्रमण करते हुए उस स्थान पर पहुंचे जहां सूर्य ध्यान में लीन थे। शिव का ध्यान उस अलौकिक तेज की ओर गया जो सूर्य से निकल रहा था। यह कौन है जिसका तेज इतना असहनीय है? शिव ने सोचा उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से देखा और जाना कि यह तो स्वयं मार्तंड सूर्य हैं जो अपने ही तेज से व्याकुल है। शिव ने स्नेह पूर्वक पूछा हे मार्तंड क्या तुम स्वयं अपने तेज से क्लांत और पीड़ित नहीं हो? सूर्य ने सिर झुकाकर उत्तर दिया हे महादेव मेरा तेज इतना प्रखर है कि कोई भी मेरे समीप नहीं आता। मेरी माता भी मुझसे दूरी बनाए रखती हैं। मैं इस स्थिति से अत्यंत दुखी हूं। कृपया कोई उपाय बताएं जिससे मेरा तेज संतुलित हो जाए। भगवान शिव ने करुणा से देखा और बोले हे सूर्य मैं तुम्हारे तेज को तीन भागों में विभाजित कर दूंगा जिससे तुम्हारा जीवन सहज हो सकेगा और सृष्टि भी संतुलित रूप से प्रकाशित हो सकेगी। इतना कहकर शिव ने अपना त्रिशूल उठाया और सूर्य को तीन भागों में विभाजित कर दिया। एक भाग से प्रातः काल का सूर्य, दूसरे से मध्यान और तीसरे से संध्या का सूर्य प्रकट हुआ। इस प्रकार सूर्य के तीन रूप हुए।

अरुणोदय, विवसवान और अस्ताचल सूर्य जिनसे दिन के तीन काल निर्मित हुए। सृष्टि संतुलित हो गई और सूर्य का तेज सम्यक रूप से धरती को आलोकित करने लगा। पहला भाग सूर्य के मानवीय रूप में रहा। दूसरा भाग उस अंडे में समाहित हो गया जो आकाश में स्थापित था और तीसरा भाग पृथ्वी पर अग्नि के रूप में स्थित हुआ। अब तुम अपने मानवीय रूप में सामान्य जीवन व्यतीत कर सकोगे। शिव ने कहा आकाश में स्थित वह अंडा संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रकाशित करेगा और अग्नि के रूप में तुम यज्ञों में आहुति लेकर मनुष्यों की सेवा करोगे। सूर्य ने कृतज्ञता पूर्वक शिव को नमन किया। अब उनका तेज इतना सहनीय हो गया था कि लोग उनके समीप आ सकते थे। माता अदिति सबसे पहले दौड़कर अपने पुत्र से लिपट गई और उन्हें हृदय से लगा लिया। शिव द्वारा विभाजित उस दिव्य अंडे से एक अद्भुत घटना घटी। उस अंडे से एक प्रकाश पुंज निकला जो साकार होकर एक सुंदर युवक में परिवर्तित हो गया। वो युवक अत्यंत मनोहर था।

उसके शरीर से तेज की किरणें प्रस्फुटित हो रही थी। यही था विवसवान सूर्य का दिव्य प्रतिरूप जो आकाश में स्वर्णिम रथ पर सवार होकर समस्त ब्रह्मांड को प्रकाश देने लगा। आकाश में स्थित सूर्य और पृथ्वी पर विचरण करने वाले मार्तंड दोनों एक ही आत्मा के दो भिन्न स्वरूप थे। मार्तंड सूर्य अब सामान्य जीवन जीने लगे। जबकि आकाशीय सूर्य अपने रथ पर सवार होकर प्रतिदिन पूर्व से पश्चिम की यात्रा करने लगे। जिससे दिन और रात का चक्र आरंभ हुआ। यह विभाजन सूर्य की उत्पत्ति का एक अद्भुत और रहस्यमय पक्ष था जिससे उनका अस्तित्व दिव्य और मानवीय दोनों रूपों में विभक्त हो गया। अब सूर्य युवावस्था में पहुंच गए थे। देवी अदिति और ऋषि कश्यप उनके विवाह को लेकर चिंतित हो उठे। उसी समय त्रिलोक में प्रसिद्ध देवी संज्ञा देवर्षी विश्वकर्मा की पुत्री अपने तेज और सौंदर्य के लिए जानी जाती थी। एक दिन देवर्षि नारद विश्वकर्मा के भवन पहुंचे। विश्वकर्मा ने उनका आदर पूर्वक स्वागत किया और पूछा हे देवर्षि आपके आगमन का उद्देश्य जानना मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी। नारद मुस्कुराए और बोले मैं एक विशेष प्रस्ताव लेकर आया हूं। देवमाता अदिति और महर्षि कश्यप के पुत्र सूर्यदेव के लिए आपकी पुत्री संज्ञा का हाथ मांगने आया हूं।

विश्वकर्मा के मन में थोड़ी दुविधा उत्पन्न हुई। वे जानते थे कि सूर्य का तेज अत्यंत प्रखर है। भले ही वह अब विभाजित हो चुका है। क्या उनकी पुत्री वह तेज सहन कर पाएगी? परंतु सूर्य से संबंध एक गौरव की बात थी। उन्होंने संज्ञा को बुलाकर प्रस्ताव रखा। संज्ञा ने सूर्य के विषय में बहुत सुना था और सहर्ष विवाह के लिए सहमत हो गई। शुभ मुहूर्त में सूर्य और संज्ञा का विवाह संपन्न हुआ। देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की। इंद्र ने स्वागत की व्यवस्था की। अग्निदेव ने वेदी सजाई। मरुद्गन पवन का संचालन कर रहे थे और अप्सराय नृत्य कर रही थी। विवाह के बाद संज्ञा सूर्य के साथ अपने नवगृह पहुंची। सूर्य ने उसे प्रेम पूर्वक अपनाया और उसका हर प्रकार से ध्यान रखा। समय बीतने के साथ संज्ञा ने तीन संतानों को जन्म दिया। व्यवसत मनु, यम यमी, जुड़वा संतान और अश्विनी कुमार। यह परिवार सुखी था। लेकिन एक समस्या धीरे-धीरे उभरने लगी। सूर्य का तेज अभी भी इतना प्रखर था कि संज्ञा को उनका साथ सहन नहीं हो पा रहा था। उनके शरीर की आभा आंखों को चुभती थी। उनका स्पर्श जलन देता था। वह भीतर ही भीतर क्षीण होती जा रही थी। परंतु अपने प्रेमवश उसने कभी कोई शिकायत नहीं की। अंततः एक दिन उसने निर्णय लिया। मैं अपने स्थान पर अपनी छाया को रखकर तपस्या करने जाऊंगी जिससे मैं सूर्य के तेज को सहन करने योग्य बन सकूं।

उसने अपनी छाया को आदेश दिया तुम मेरे स्थान पर रहो। बच्चों की देखभाल करो और सूर्यदेव को मेरी अनुपस्थिति का आभास ना होने दो। छाया ने आज्ञा का पालन किया। संज्ञा पिता के घर गई और वहां से एक दिन उत्तर दिशा की ओर वन में चली गई। जहां उसने घोड़ी का रूप धारण कर तपस्या प्रारंभ की। इधर छाया सूर्य के साथ रहने लगी। प्रारंभ में सब ठीक रहा किंतु धीरे-धीरे छाया का व्यवहार बदलने लगा। उसने व्यवस्वत मनु यम और यमी के साथ रूखा व्यवहार करना शुरू कर दिया और अपने दो पुत्र सावनी मनु और शनि को अधिक प्रेम और विशेषाधिकार देने लगी। यम के साथ तो वह कठोरता की सारी सीमाएं लंध गई। एक दिन क्रोधित यम ने छाया को पैर से झटका दिया जिससे क्रोध होकर छाया ने उसे श्राप दे दिया तुम्हारा पैर सड़ जाएगा। यह सुन यम भयभीत हो गए और सूर्य के पास पहुंचकर बोले पिताश्री मैंने माता का अपमान नहीं किया था फिर भी उन्होंने मुझे ऐसा भयंकर श्राप दे। दिया। क्या यह माता अपने पुत्र को ऐसा श्राप देती है।

सूर्य चिंतित हुए और उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से संपूर्ण ब्रह्मांड का अवलोकन किया। उन्हें सच्चाई का पता चल गया। वे छाया के पास आए और उससे सत्य पूछने लगे। भयभीत छाया ने सारी बात स्वीकार कर ली। संज्ञा की पीड़ा, उसका वन गमन और छाया के रूप में स्वयं के रहने की बात। सूर्य यम को सांत्वना देते हुए बोले पुत्र तुम्हारा पैर नहीं सड़ेगा किंतु उसमें कीड़े पड़ेंगे और उसी से मानव जाति उत्पन्न होगी। तुम मृत्यु के देवता बनोगे और जीवों का न्याय करोगे। फिर सूर्य संज्ञा की खोज में चल पड़े। वे विश्वकर्मा के पास पहुंचे जिन्होंने बताया कि संज्ञा उत्तर दिशा में तप कर रही है। सूर्य ने भी घोड़े का रूप धारण किया और उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। हिमालय की एक घाटी में उन्हें तपस्या करती घोड़ी रूपी संज्ञा दिखाई दी। संज्ञा उन्हें देख भागने लगी।

सूर्य भी पीछे दौड़े। दोनों भी एक दूसरे के चारों ओर चक्कर काटने लगे और उसी समय उनके सहयोग से अश्विनी कुमार द्वितीय का जन्म हुआ। अंततः सूर्य ने अपना रूप प्रकट किया। संज्ञा उनके चरणों में गिर पड़ी और क्षमा मांगने लगी। सूर्य ने उसे उठाया और कहा तुमने मुझसे अपनी व्यथा क्यों नहीं कही? संज्ञा ने आंसुओं के साथ उत्तर दिया स्वामी मैं आपको दुखी नहीं करना चाहती थी। सूर्य उसे लेकर विश्वकर्मा के पास गए और आग्रह किया हे देव शिल्पी मेरा तेज कम कीजिए जिससे मेरी पत्नी मेरे साथ रह सके। विश्वकर्मा ने एक खरादी पर सूर्य को रखकर उनका तेज रगड़कर कम किया। जैसे-जैसे तेज कम हुआ, सूर्य का रूप और सौम्य होता गया। उसी तेज की धूल से उन्होंने देवताओं के दिव्य अस्त्र बनाए। विष्णु का सुदर्शन चक्र, शिव का त्रिशूल, कुबेर की गदा, कार्तिकेय का शक्ति, अस्त्र और पुष्पक विमान। यह सब देखकर संज्ञा भाव विभोर हो उठी।

अब वो सूर्य के साथ सुख पूर्वक रहने लगी। विश्वकर्मा ने सूर्य को एक दिव्य रथ भेंट किया जिसमें सात घोड़े जुड़े थे। सात घोड़े सात छंदों के प्रतीक थे और उसका सारथी बनाया गया अरुण संज्ञा का भाई। छाया को भी क्षमा कर घर में सम्मानजनक स्थान दिया गया। यम धर्मराज बने। व्यवसत मनु ने पृथ्वी पर मानव सभ्यता की नींव रखी। अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य बने। सावनी मनु भविष्य के मनवंतर के अधिपति बने और शनि एक ग्रह के रूप में प्रतिष्ठित हुए। कालचक्र चलता रहा। सूर्य प्रतिदिन अपने स्वर्णिम रथ पर सवार होकर पूर्व से पश्चिम की यात्रा करते रहे जिससे दिन रात्रि का संचालन हुआ। एक दिन संज्ञा ने सूर्य से पूछा स्वामी क्या आप थकते नहीं? आप यह यात्रा क्यों निरंतर करते हैं? सूर्य ने गंभीरता से उत्तर दिया, प्रिय जब तक यह सृष्टि है, मेरा कर्तव्य चलता रहेगा। मेरे रुकने से जीवन रुक जाएगा। संज्ञा ने उनके त्याग और निष्ठा को नमन किया।

महर्षि व्यास ने सूर्य से ज्ञान मांगा। पाणिनी ने व्याकरण और कई ऋषियों ने उनसे विद्याएं प्राप्त की। श्री कृष्ण ने स्वयं अर्जुन से कहा, प्रकृति के इस महान ज्योति स्वरूप को मैं अपनी योगमाया से संचालित करता हूं। सूर्य का तेज ही जीवन है।

एक श्लोक में कहा गया है

आदित्यस नमस्कार ये कुरवंती।

दिने दिने जन्मांतर सहस्त्रेषु दरिद्रम नोपयते।।

अर्थात जो प्रतिदिन सूर्य को नमस्कार करता है, वह हजारों जन्मों तक दरिद्र नहीं होता। यह कथा केवल सूर्य की नहीं बल्कि त्याग, प्रेम, तप और कर्तव्य की वह महागाथा है जो सृष्टि को जीवन देती है। दोस्तों, छठ पूजा सूर्य देव और माता षष्ठी छठी माई को समर्पित एक अत्यंत पवित्र पर्व है जो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत चार दिनों तक चलता है जिसमें स्नान, उपवास, निर्जला व्रत और सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा होती है। छठ व्रत का संबंध केवल धार्मिक आस्था से नहीं बल्कि गहन आत्मसयम, शुद्धता और श्रद्धा से भी है। इस व्रत में व्रती सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भगवान सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर परिवार की सुख, समृद्धि और संतान की लंबी आयु की कामना करती हैं। कहते हैं कि यह व्रत केवल शरीर का नहीं आत्मा का भी शुद्धिकरण करता है।

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