प्रस्तावना (INTRODUCTION)
फाई
व रेनिस ने 'A Theory of Economic Development'' शीर्षक वाले एक लेख में विश्लेषण किया
है कि संक्रमण प्रक्रिया में एक विकासशील अर्थव्यवस्था गतिहीनता की स्थिति से
आत्मजनक वृद्धि (self-sustained growth) की ओर जाने की आशा करती है। उनका यह
सिद्धान्त लुइस (Lewis) के असीमित श्रम पूर्ति सिद्धान्त से उत्तम है क्योंकि
लुइस कृषि क्षेत्र में वृद्धि का सन्तोषजनक विश्लेषण कर पाने में
असमर्थ रहा है।
सिद्धान्त (THE THEORY)
इस
सिद्धान्त का संबंध विकासशील श्रम-अतिरेक (labour surplus) तथा संसाधनहीन अर्थव्यवस्था
से है जिसमें अधिकतर जनसंख्या विस्तृत बेरोजगारी और जनसंख्या की ऊंची वृद्धि दरों
के बीच कृषि में कार्यरत है। कृषि अर्थव्यवस्था गतिहीन है। लोग पारम्परिक कृषि
व्यवसायों में संलग्न हैं। कृषि-रहित व्यवसाय पाए जाते हैं किन्तु उनमें पूँजी का
कम उपयोग होता है, इसमें एक सक्रिय तथा गत्यात्मक औद्योगिक क्षेत्र भी है। विकास
से अभिप्राय कृषि अतिरेक श्रमिकों का औद्योगिक क्षेत्र को पुनः आवंटन करना है,
जिनका कृषि उत्पादन में योगदान शून्य अथवा नगण्य है, जहां वे कृषि में संस्थानिक
मजदूरी के बराबर मजदूरी पर उत्पादक बन जाते हैं।
मान्यताएं (Assumptions)
आर्थिक
विकास के सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हुए फाई तथा रेनिस ने निम्नांकित मान्यताएं
दी हैं।
1.
यह एक दोहरी अर्थव्यवस्था है, जिसमें प्रथम परम्परागत तथा गतिहीन कृषि क्षेत्र है और
द्वितीय एक सक्रिय औद्योगिक क्षेत्र।
2.
कृषि क्षेत्र का उत्पादन केवल भूमि तथा श्रम का फलन है।
3.
भूमि के सुधार के अतिरिक्त कृषि में पूँजी का संचय नहीं होता है।
4.
भूमि की पूर्ति स्थिर है।
5.
यदि जनसंख्या उस मात्रा से अधिक होती है जहां श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य बन जाती है तो श्रम को कृषि उत्पादन में हानि के बिना औद्योगिक क्षेत्र
में स्थानान्तरण किया जा सकता है।
6.
कृषि-कार्य में पैमाने के स्थिर प्रतिफल पाए जाते हैं जिनमें श्रम एक परिवर्ती साधन
है।
7.
औद्योगिक क्षेत्र का उत्पादन केवल पूँजी तथा श्रम का फलन है। भूमि की उत्पादन के साधन के रूप में कोई भूमिका नहीं है।
8.
जनसंख्या की वृद्धि को एक वहिर्जात (exopenous) तत्त्व के रूप में माना गया है।
9.
औद्योगिक क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी स्थिर रहती है। यह कृषि क्षेत्र की प्रारम्भिक
वास्तविक आय के बराबर होती है। वे इसे संस्थानिक (institutional)
मजदूरी कहते हैं
10.
दोनों क्षेत्रों में श्रमिक केवल कृषि वस्तुओं का उपभोग करते हैं।
ये मान्यताएं दी जाने पर फाई तथा रेनिस श्रम अतिरेक अर्थव्यवस्था के विकास को तीन अवस्थाओं में प्रस्तुत करते हैं। प्रथम अवस्था में, अदृश्य बेरोजगार श्रमिक जो कृषि उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं करते, को निरन्तर संस्थानिक मजदूरी पर औद्योगिक क्षेत्र में स्थानान्तरित कर दिया जाता है। द्वितीय अवस्था में, कृषि श्रमिक जो कृषि उत्पादन में वृद्धि तो करते हैं किन्तु प्राप्त संस्थानिक मजदूरी से कम उत्पादन करते हैं, ऐसे श्रमिक भी औद्योगिक क्षेत्र में भेज दिए जाते हैं। यदि श्रमिकों का औद्योगिक क्षेत्र में निरन्तर स्थानान्तरण किया जाता रहता है तो अन्ततः ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जबकि खेतीहर श्रमिक संस्थानिक मजदूरी के बराबर उत्पादन करते हैं। इसी से तृतीय अवस्था प्रारम्भ होती है, जो कि उत्कृष (take off) की अन्तिम स्थिति है और आत्मजनक वृद्धि का प्रारम्भ है, जबकि खेतीहर मजदूर संस्थानिक मजदूरी से अधिक उत्पादन करने लगते हैं। इस अवस्था में श्रम अतिरेक समाप्त हो जाता है और कृषि का व्यापारिककरण हो जाता है।
चित्र (A) कृषि की प्रक्रिया को प्रस्तुत करता है
जहां श्रम (L) तथा भूमि (Z) द्वारा वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। श्रम का माप
अनुलम्ब अक्ष तथा भूमि को क्षतिज अक्ष पर दर्शाया गया है। किरण OR उत्पादन की
अवस्था दर्शाती है। वक्र ABC कृषि वस्तुओं की उत्पादन परिधि रेखा है। भूमि को OZ
पर स्थिर मानकर, श्रम ON1
अधिकतम उत्पादन करता है। चित्र (B) में TP वक्र श्रम की कुल उत्पादकता को प्रस्तुत
करता है। यदि भूमि OZ के साथ N1
के बाद अधिक श्रम लगाया जाता है तो उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं होगी, क्योंकि
वक्र TP पर M बिन्दु के बाद श्रम की कुल उत्पादकता स्थिर हो जाती है। यदि यह मान
लें कि ON2 कृषि में लगी कुल श्रम
शक्ति है तथा ON1
कार्यरत श्रमिक है तथा N1N2 अतिरिक्त बेरोजगार श्रमिक, तो N1N2 श्रमिकों की संख्या उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं डालती तथा उनका सीमांत
भौतिक उत्पादकता वक्र TP बिन्दु M के आगे शन्य की ओर चला जाता है। इस प्रकार के श्रमिक अदृश्य बेरोजगार हैं।
इन मजदूरों को कृषि क्षेत्र से औद्योगिक क्षेत्र में तीन अवस्थाओं में स्थानान्तरित कर दिए जाने पर आर्थिक विकास होता है। यह चित्र (A), (B) तथा (C) में दर्शाया गया है।
वहां
भाग
(A) औद्योगिक क्षेत्र को और भाग (B) तथा (C) कृषि क्षेत्र को दर्शाते हैं। पहले हम
भाग (C) पर विचार करते हैं। वहाँ श्रम शक्ति को दाई ओर से बाई ओर क्षैतिज अक्ष ON पर
तथा कृषि उत्पादन को O से नीचे की ओर अनुलम्ब अक्ष OY पर मापा गया है। वक्र OCX कृषि
क्षेत्र की कुल भौतिक उत्पादकता का वक्र (TPP) है | CX वक्र का सामान्तर भाग यह दर्शाता
है कि इस क्षेत्र में कुल उत्पादकता स्थिर है, अत: MN श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य
है। इस प्रकार MN अतिरेक श्रम तथा इसे औद्योगिक क्षेत्र में लाने पर कृषि उत्पादन पर
कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। यद्यपि यह मान लिया जाता है कि सम्पूर्ण श्रम-शक्ति ON कृषि
क्षेत्र में लगी हुई है तो यह कृषि उत्पादन उत्पादित करती है। यह पहले वाले चित्र
(B) का उलटा किया हुआ OTP वक्र है। यह मानते हुए कि समस्त उत्पादन NX कुल श्रम शक्ति
ON द्वारा उपभोग कर लिया जाता है, तो वास्तविक मजदूरी NX/ON अथवा किरण OX की ढाल है।
यह संस्थानिक मजदूरी है।
उत्कृष
के दौरान आवंटन प्रक्रिया को तीन अवस्थाओं में दूसरे चित्र के
भाग (B) में दर्शाया गया है, जहाँ कुल श्रम शक्ति को दाई ओर से बाई ओर अनुलम्ब अक्ष
ON पर तथा औसत उत्पादन को क्षैतिज अक्ष NV पर मापा गया है। वक्र NMRU श्रम की सीमांत
भौतिक उत्पादकता (MPP) को दर्शाता है। NW संस्थानिक मजदुरी है जिस पर कि मजदूरों को
इस क्षेत्र में लगाया जाता है।
अवस्था
I में NM श्रमिक अदृश्य बेरोजगार हैं। उनकी सीमांत उत्पादकता शून्य है जिसे भाग
(B) में NMRU वक्र के अंश NM अथवा TPP वक्र के अंश CX द्वारा भाग (C) में दर्शाया गया
है। अतिरिक्त श्रम शक्ति NM जिसे भाग (A) के OM में दर्शाया गया है, उसी संस्थानिक
मजदूरी OW(= NW) पर स्थानान्तरित की गई है।
अवस्था
II में, MPP वक्र NMRU पर MK कृषि मजदूरों की सीमांत भौतिक उत्पादकता MR रेंज में धनात्मक
है लेकिन यह संस्थानिक मजदूर KR(= NW) जो वे प्राप्त करते हैं उससे कम है जैसाकि भाग
(B) में दिखाया गया है। इसलिए वे कुछ सीमा तक अदृश्य बेरोजगार हैं जिनको औद्योगिक क्षेत्र
में स्थानान्तरित किया जा सकता है, किन्तु इस अवस्था में सामान्य मजदूरी औद्योगिक क्षेत्र
में संस्थानिक मजदूरी के बराबर नहीं होगी। यह इस कारण से कि श्रम के औद्योगिक क्षेत्र
में
स्थानान्तरण
से कृषि उत्पादन कम होता है। परिणामस्वरूप, कृषि वस्तुओं की कमी हो जाती है जिससे औद्योगिक
वस्तुओं की सापेक्षता में उनकी कीमतें बढ़ जाती हैं। इससे औद्योगिक क्षेत्र की व्यापार
की शर्ते खराब हो जाती हैं, उससे औद्योगिक क्षेत्र में सामान्य मजदूरी में वृद्धि की
आवश्यकता पड़ती है। सामान्य मजदूरी OW से LH तथा KQ तक संस्थानिक मजदूरी से अधिक बढ़
जाती है। यह श्रम के पूर्ति वक्र WT से H तथा Q से ऊपर W1 तक जाते हुए भाग
(A) में दर्शाया गया है, जब ML तथा LK मजदूर धीरे-धीरे औद्योगिक क्षेत्र में स्थानान्तरित
हो जाते हैं। T से ऊपर की ओर श्रम के पूर्ति वक्र WTW1 पर गति ही लुइस का
मोड़ बिन्दु (Lewis turning point) है।
जब
अवस्था III प्रारम्भ होती है, तो कृषि मजदूर कृषि उत्पादन को संस्थानिक मजदूरी के बराबर
उत्पादित करना शुरू कर देते हैं और अन्ततः संस्थानिक मजदूरी से अधिक प्राप्त करते हैं।
यह उत्कृष का अन्त है तथा आत्मजनक वृद्धि का प्रारम्भ है। वह भाग (B) में वक्र MPP
के बढ़ रहे भाग RU से दर्शाया गया है, जो कि संस्थानिक मजदूरी KR (= NW) से ऊंचा है।
परिणास्वरूप KO श्रम को चित्र के भाग (A) में KQ से ऊपर बढ़ती हुई सामान्य मजदूरी पर
कृषि क्षेत्र से औद्योगिक क्षेत्र में भेज दिया जाएगा। यह कृषि क्षेत्र में अतिरिक्त
श्रम को समाप्त करता है जिसका पूरी तरह व्यापारिककरण हो जाता है। इस अतिरेक श्रम की
समाप्ति को श्रम शक्ति की भौतिक कमी की अपेक्षा मुख्य तौर से बाजार का तत्त्व माना
जाना चाहिए। यह पूर्ति के स्रोत पर वास्तविक मजदूरी में वृद्धि द्वारा व्यक्त किया
जाता है।
फाई
तथा रेनिस का मत है कि जब कृषि श्रमिकों को औद्योगिक क्षेत्र में भेज दिया जाता है
तो कृषि वस्तुओं का अतिरेक प्रारंभ हो जाता है। इससे कृषि क्षेत्र में कुल कृषि अतिरेक
(total agricultural surplus or TAS) हो जाता है। संस्थानिक मजदूरी पर कृषि शक्ति की
उपभोग आवश्यकता से अधिक कुल कृषि उत्पादन का अतिभाग TAS कहा जाता है। TAS की मात्रा
विकास प्रक्रिया की प्रत्येक अवस्था में औद्योगिक क्षेत्र में भेजे गए श्रमिकों की
संख्या का फलन है। TAS को चित्र के भाग (C) में रेखा OX तथा TPP वक्र OCX के बीच की
अनुलम्बदूरी से मापा गया है। अवस्था I में जब NM श्रम को स्थानान्तरित किया जाता है
तो TAS है BC.अवस्था II में जब ML तथा LK श्रमिकों को औद्योगिक क्षेत्र में स्थानान्तरित
किया जाता है तो TAS की DE तथा FG राशियां उत्पन्न होती हैं। TAS को कृषि मजदूरों के
पुनः आवंटन द्वारा बाजार में छोड़े गए कृषि संसाधनों के रूप में देखना चाहिए। ऐसे संसाधनों
को भूमिपति वर्ग की निवेश क्रियाओं अथवा/और सरकारी कर नीति द्वारा निकालकर नई औद्योगिक
वस्तुओं के लिए उपयोग किया जा सकता है।
इसके
अलावा औसत कृषि अतिरेक (AAS) भी होता है। औद्योगिक क्षेत्र को आवंटित प्रति श्रमिक
को उपलब्ध कुल कृषि अतिरेक ही औसत कृषि अतिरेक (AAS) है। यह ऐसे है जैसाकि प्रत्येक
आवंटित श्रमिक अपने निर्वाह का बोझ अपने साथ उठाता है। AAS वक्र को WASO वक्र के रूप
में चित्र के भाग (B) में दर्शाया गया है। अवस्था I में (AAS) वक्र संस्थानिक मजदूरी
के वक्र (WA) के साथ समरूप है। अवस्था II में जब (MK) श्रमिकों को औद्योगिक क्षेत्र
में भेज दिया जाता है, तब AAS चित्र के भाग (B) में A से S तक गिरने लगता है, जबकि
TAS भाग (C) में BC से DE से FG तक बढ़ता जाता है।
अवस्था
III AAS अधिक तेजी से भाग (B) में S से O तक कम होता है और भाग (C) में क्षेत्र FG
से O तक सुकड़ने से TAS भी कम हो जाता है। AAS तथा TAS दोनों में कमी कृषि श्रमिकों
की MPP संस्थानिक मजदूरी से अधिक बढ़ने के कारण है जो कि अन्ततः बचे हुए अतिरिक्त श्रमिकों
को औद्योगिक क्षेत्र में ले जाती है।
फाई
तथा रेनिस अवस्था I तथा अवस्था II के बीच की सीमा को 'दुर्लभता बिन्दु"
(shortage point) कहते हैं, जब कृषि वस्तुओं की कमियां प्रारम्भ होती हैं जो कि
AAS (WASO वक्र का AS भाग) के न्यूनतम संस्थानिक मजदूरी (NW) से नीचे गिरने द्वारा
दिखाया गया है। अवस्था II तथा अवस्था III के बीच की सीमा व्यापारिककरण बिन्दु
(commercialisation point) है जो कि कृषि में संस्थानिक मजदूरी तथा MPP के बीच समानता
के प्रारम्भ को प्रकट करता है। इस प्रकार लुइस का मोड़ बिन्दु फाई तथा रेनिस के दुर्लभता
बिन्दु के समान होता है तथा व्यापारिककरण बिन्दु पर औद्योगिक मजदूरी की वृद्धि तीव्र
होती है।
फाई
तथा रेनिस प्रदर्शित करते हैं कि यदि कृषि उत्पादकता बढ़ती है तो दुर्लभता बिन्दु तथा
व्यापारिककरण बिन्दु मिल जाते हैं। यह इसलिए होता है कि कृषि की उत्पादकता की वृद्धि
के कारण MPP में वृद्धि उत्पादन को संस्थानिक मजदूरी के स्तर तक अधिक शीघ्रता से बढ़ने
के योग्य बनाती है। दूसरे चित्र (B) में इसे MRU बक्र के ऊपर बाई तरफ स्थानान्तरित
होते समझा जा सकता है। दूसरी ओर कुल भौतिक उत्पादकता में वृद्धि के साथ AAS में भी
वृद्धि होती है इसका अभिप्राय यह है कि दूसरे चित्र (B) में वक्र ASO दाई ओर ऊपर स्थानान्तरित
हो जाता है। यदि उत्पादकता में वृद्धि पर्याप्त है तो दूसरे चित्र (B) में MRU तथा
ASO वक्र ऊपर की ओर इस प्रकार से स्थानान्तरित हो जाएंगे कि दुर्लभता बिन्दु A तथा
व्यापारिककरण बिन्दु R मिल जाएंगे तथा अवस्था II समाप्त हो जाएगी। जहां तक औद्योगिक
क्षेत्र का प्रश्न है. कृषि उत्पादकता की वृद्धि का प्रभाव यह होता है कि मोड़ बिन्द
के बाद औद्योगिक पूर्ति वक्र को ऊपर उठा देगी। दूसरे चित्र (A) में इसे WTW1 के
नीचे दाई ओर बिन्दु T के नीचे दिखाया जा सकता है।
फाई
तथा रेनिस के अनुसार, द्वितीय अवस्था के समाप्त होने का आर्थिक महत्त्व यह है कि यह
अर्थव्यवस्था को आत्मजनक वृद्धि में सरलता से चलने की योग्यता प्रदान करती है।
संतुलित वृद्धि (Balanced Growth)
फाई तथा रेनिस ने दर्शाया है कि उनका मॉडल उत्कृष प्रक्रिया के दौरान की शर्तों को पूरा करता है। संतुलित वृद्धि में व्यवस्था के कृषि तथा औद्योगिक दोनों क्षेत्रों में एक साथ निवेश आवश्यक है। इसे तीसरे चित्र में दर्शाया गया है
जहाँ
श्रम का PP प्रारम्भिक माँग वक्र तथा S1S1 श्रम का प्रारम्भिक
पूर्ति वक्र है । ये दोनों a बिन्दु पर काटते हैं जहां OM श्रम शक्ति औद्योगिक क्षेत्र
में काम में लगी है। रोजगार के इस स्तर पर औद्योगिक क्षेत्र S1aP क्षेत्र
के बराबर लाभ कमाता है। यह लाभ उत्कृष प्रक्रिया के दौरान अर्थव्यवस्था का उपलब्ध कल
निवेश कोष है। इस कोष का एक भाग कृषि क्षेत्र को आवंटित किया जाता है जिससे कृषि उत्पादकता
में वृद्धि होती है तथा श्रम पूर्ति वक्र औद्योगिक क्षेत्र में नीचे दाई ओर S1S1
से S2S2 तक स्थानान्तरित होता है। निवेश कोष का बचा हुआ भाग
औद्योगिक क्षेत्र को आवंटित किया जाता है जो औद्योगिक माँग वक्र को ऊपर दाई ओर PP से
P1P1 तक स्थानान्तरित करता है। संतुलित वृद्धि पथ S1a3
पर स्थित बिन्दु a1 पर वक़ S2S2 तथा P1P1
काटते हैं। कृषि क्षेत्र को निवेश कोष के आवंटन के कारण कृषि उत्पादकता में वृद्धि
होने से जो कृषि क्षेत्र द्वारा श्रम शक्ति ML छोड़ी गई है वह a1 पर औद्योगिक
क्षेत्र द्वारा काम में लगाई जाती है। तीसरे चित्र में दिखाई गई औद्योगिक क्षेत्र में
लगाई गई श्रमशक्ति ML दूसरे चित्र (B) में कृषि क्षेत्र द्वारा छोड़ी गई श्रमशक्ति
ML बिल्कुल बराबर दिखाई गई है।
इस
प्रकार, जब काल पर्यन्त निवेश कोष दोनों क्षेत्रों को लगातार आवंटित किए जाते हैं,
तो अर्थव्यवस्था संतुलित वृद्धि पथ पर चलेगी, किन्तु प्रायः यह संभावना रहती है कि
समय-समय पर वास्तविक वृद्धि पथ संतुलित पथ से विचलित हो जाता है। फिर भी, इस प्रकार
का विचलन बराबर करने वाली संतुलन शक्तियां लाएगा जो इसे संतुलित वृद्धि पर लाने की
प्रवृत्ति रखती है। वास्तव में, यह पथ संतुलित वृद्धि पथ के इर्द-गिर्द घूमने की संभावना
रखता है। उदाहरणार्थ, यदि औद्योगिक क्षेत्र में अति निवेश के फलस्वरूप श्रम-माँग- वक्र
P2P2 पर स्थानान्तरित हो जाता है तथा a2 पर श्रम
पूर्ति वक्र S2S2 को काटता है तो वास्तविक वृद्धि पथ संतुलित
वृद्धि पथ से ऊपर होगा। इससे कृषि वस्तुओं में कमी आएगी तथा औद्योगिक क्षेत्र की व्यापार
शतों में गिरावट आएगी तथा इस क्षेत्र में मजदूरी की दर में बढ़ोत्तरी होगी। इससे औद्योगिक
क्षेत्र में निवेश हतोत्साहित होगा तथा कृषि क्षेत्र में निवेश प्रोत्साहित होगा। इसके
द्वारा वास्तविक पथ संतुलित वृद्धि पथ a3 के स्तर पर आ जाएगा।
समीक्षात्मक मूल्यांकन (CRITICAL APPRAISAL)
फाई
तथा रेनिस का मॉडल लुइस के मॉडल का एक सुधरा हुआ रूप है । लुइस का मॉडल कृषि क्षेत्र
के विकास को ध्यान में न रखते हुए केवल औद्योगिक क्षेत्र पर ही केन्द्रित रहता है।
फाई तथा रेनिस का मॉडल विकास को प्रारम्भ तथा तीव्र करने में दोनों क्षेत्रों के परस्पर
प्रभाव को दर्शाता है। फिर, लुइस के मोड़ बिन्दु को समझाने का इसका दंग अधिक वास्तविक
है। इस सिद्धान्त की मुख्य श्रेष्ठता यह है कि यह अल्पविकसित देशों में पूँजी के संचय
के लिए कृषि वस्तुओं के महत्त्व को प्रकट करता है।
इन
श्रेष्ठताओं के बावजूद यह मॉडल भी आलोचना से अछूता नहीं है, जिनकी नीचे विवेचना की
1. भूमि की पूर्ति का स्थिर न होना (Supply of land not fixed)- फाई
तथा रेनिस यह धारणा लेकर चलते हैं कि विकास प्रक्रिया के दौरान भूमि की पूर्ति स्थिर
होती है। दीर्घ अवधि में, फसल एकड़ उत्पत्ति का अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि भूमि
की मात्रा स्थिर नहीं रहती है। उदाहरणार्थ, भारत में फसल क्षेत्र का सूचकांक (आधार
1961-62) 1950-51 में 82 या जो बढ़कर 1970-71 में 107.3 हो गया।
2.
संस्थानिक मजदूरी का MPP से अधिक न होना (Institutional wage not above the MPP)-यह
मॉडल इस धारणा पर आधारित है कि विकास प्रक्रिया की अवस्था I तथा II के दौरान संस्थानिक
मजदूरी स्थिर होती है तथा MPP से ऊंची होती है। इस मान्यता के पक्ष में कोई आनुभविक
प्रमाण नहीं है। वास्तव में श्रम अतिरेक अल्पविकसित देशों में कृषि श्रमिकों को दी
जाने वाली मजदूरी MPP से काफी कम होती है।
3. कृषि क्षेत्र में संस्थानिक मजदूरी का स्थिर न होना
(Institutional wages not constant in the agricultural sector)- इस
सिद्धान्त की धारणा है कि कृषि उत्पादकता में वृद्धि होने के बावजूद पहली दो अवस्थाओं
में संस्थानिक मजदूरी स्थिर रहती है। यह अत्यधिक अवास्तविकता है क्योंकि कृषि उत्पादकता
में सामान्य वृद्धि के कारण फार्म मजदूरी का बढ़ना सुनिश्चत है। उदाहरणार्थ, पंजाब
में हरित क्रांति (1967-72) के दौरान किए गए फार्म सर्वेक्षण से यह प्रमाणित होता है
कि विभिन्न कृषि वर्गों के लिए श्रमिकों की दैनिक वास्तविक मजदूरी (1966 की कीमतों
पर) की दरें 41.7 प्रतिशत से 55.2 प्रतिशत हो गई थीं।
4 बंद मॉडल (Closed model)- फाई तथा रेनिस के अनुसार व्यापार
की शर्ते दूसरी अवस्था में औद्योगिक क्षेत्र के विरुद्ध कार्य करती हैं, जब कृषि उत्पादन
घटता है और कृषि वस्तुओं की कीमतें बढ़ती हैं। यह विश्लेषण बंद अर्थव्यवस्था की धारणा
पर आधारित है जहां विदेशी व्यापार नहीं होता। यह मान्यता इस कारण से अयथार्थ है क्योंकि
अल्पविकसित देश बंद अर्थव्यवस्थाएं न होकर खुली अर्थव्यवस्थाएं हैं जहां कमी आने पर
कृषि वस्तुओं को आयातित किया जाता है।
5. कृषि का व्यापारिककरण स्फीति को उत्पन्न करता है
(Commercialisation of agriculture leads to inflation)- इस
सिद्धान्त के अनुसार, जब कृषि क्षेत्र तृतीय अवस्था में प्रवेश करता है तो व्यापारिकृत
हो जाता है। किन्तु अर्थव्यवस्था की सरल आत्मजनक वृद्धि की ओर जाने की संभावनाएं नहीं
रहती क्योंकि स्फीतिकारी दबाव प्रारम्भ हो जाते हैं। जब अनेक श्रमिक औद्योगिक क्षेत्र
में स्थानान्तरित हो जाते हैं तो कृषि क्षेत्र श्रमिकों की कमी को महसूस करता है। इसी
दौरान संस्थानिक मजदूरी श्रमिकों की MPP के बराबर होती है तथा इस प्रकार कृषि वस्तुओं
की कमी हो जाती है। ये सभी तथ्य अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी दबाव पैदा करते हैं।
6. एम.पी.पी. शून्य नहीं है ( MPP not 7ero)- फाई
तथा रेनिस मानते हैं कि भूमि की स्थिर मात्रा के साथ जनसंख्या का एक बहुत बड़ा आकार
होगा जो कि MPP को शून्य बनाएगा। शुल्ज इस मत से सहमत नहीं है कि श्रम-अतिरेक अर्थव्यवस्थाओं
में MPP शून्य है। उसके अनुसार यदि ऐसा होता तो संस्थानिक मजदूरी भी शून्य होती। वास्तविकता
यह है कि प्रत्येक मजदूर को न्यूनतम मजदूरी मिलती है जो भले ही वस्तु के रूप में हो
यदि नकदी के रूप में नहीं । अतः यह कहना नितान्त असत्य है कि कृषि क्षेत्र में MPP
शून्य होती है।
निष्कर्ष (Conclusion) फिर भी श्रम-अतिरेक देशों के आर्थिक विकास के लिए फाई तथा रेनिस के इस मॉडल की ये कमियां किसी भी प्रकार इसके महत्त्व को कम नहीं करती है, अपितु यह सिद्धान्त अल्पविकसित देशों के कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्रों के परस्पर प्रभावों की विकास प्रक्रिया का उत्कृष से आत्मजनक वृद्धि तक व्यवस्थित ढंग से विश्लेषण करता है।