John
Maynard Keynes |
केन्ज
का सिद्धान्त अल्पविकसित देशों की समस्याओं का विश्लेषण नहीं करता। यह उन्नत पूँजीवादी
देशों से संबद्ध है। परन्तु यह जानने के लिए कि केन्ज़ का सिद्धान्त अल्पविकसित
देशों पर कहाँ तक लागू होता है, हमें केन्ज के सिद्धान्त का संक्षेप में वर्णन
करना चाहिए।
केन्ज का सिद्धान्त (KEYNES'
THEORY)
किसी
देश में कुल आय उसके रोजगार का फलन होती है। राष्ट्रीय आय जितनी अधिक होगी, उससे
रोजगार की मात्रा उतनी ही अधिक होगी, और उलट भी। रोजगार की मात्रा वास्तविक मांग पर
निर्भर करती है। वास्तविक माँग रोजगार तथा आय के संतुलन स्तर को निर्धारित करती
है। वास्तविक माँग उस बिन्दु पर निश्चित होती है, जहाँ कुल माँग-कीमत कुल
पूर्ति-कीमत के बराबर होती है। वास्तविक मांग में उपभोग-माँग तथा निवेश-माँग शामिल
है। उपभोग-मांग उपभोग प्रवृति पर निर्भर करती है। जिस सीमा तक आय बढ़ती है, उस
सीमा तक उपभोग प्रवृत्ति नहीं बढ़ती। आय तथा उपभोग के बीच के अन्तर को निवेश के
द्वारा पूरा किया जा सकता है। यदि निवेश की अपेक्षित मात्रा उपलब्ध नहीं होती, तो
कुल पूर्ति-कीमत से कुल माँग-कीमत कम रह जाएगी। परिणामस्वरूप, आय तथा रोजगार तब तक
कम होते जाएंगे, जब तक कि इनका अन्तर समाप्त नहीं हो जाता । इस प्रकार रोजगार तथा
आय में परिवर्तन बहुत कुछ निवेश पर निर्भर है। निवेश की मात्रा पूँजी की सीमांत
उत्पादकता तथा ब्याज की दर पर निर्भर करती है। पूँजी की सीमांत उत्पादकता नई पूँजी
परिसम्पतियों के प्रतिफल की प्रत्याशित दर होती है। जब लाभ की प्रत्याशाएं बढ़
जाती हैं, तो व्यापारी अधिक निवेश करते हैं। ब्याज की दर, जो निवेश की दूसरी निर्धारक
है, मुद्रा की मात्रा तथा तरलता अधिमान पर निर्भर रहती है। अब या तो पूँजी की सीमांत
उत्पादकता बढ़ाकर, या फिर, ब्याज की दर घटाकर निवेश बढ़ाया जा सकता है। यद्यपि
निवेश में वृद्धि होने से आमतौर पर रोजगार में वृद्धि होती है, फिर भी, संभव है कि
यदि साथ ही उपभोग प्रवृत्ति घट जाती है, तो ऐसा न हो। इसके विपरीत, यदि उपभोग
प्रवृत्ति बढ़ जाए, तो निवेश में वृद्धि के बिना भी रोजगार बढ़ सकता है। निवेश में
वृद्धि से आय बढ़ती है और बढ़ी हुई आय से उपभोग-वस्तुओं के लिए अधिक माँग होती है
जिसके परिणामस्वरूप आय तथा रोजगार में और वृद्धियां होती हैं। यह प्रक्रिया संचयी
(cumulative) बन जाती है। परिणामस्वरूप, निवेश में दी गई वृद्धि उपभोग प्रवृत्ति
के माध्यम से आय में बहुगुणा वृद्धि करती है। निवेश की तथा आय की वृद्धि के बीच के
इस संबंध को केन्ज, गुणक (K) कहता है। गुणक "उपभोग प्रवृत्ति दी हुई होने
पर,
कुल रोजगार और आय तथा निवेश की दर के बीच सही संबंध स्थापित करता है। "यह
हमें बताता है कि जब कुल निवेश की मात्रा में वृद्धि होगी, तो आय की मात्रा में
वृद्धि निवेश-वृद्धि के K गुणा हो जाएगी।" समीकरण यह है : ∆Y= K∆I और I= 1/K सीमांत उपभोग की प्रवृत्ति को प्रकट करता है । इस प्रकार गुणक K=
1/1-MPC क्योंकि आय में वृद्धि होने पर सीमांत उपभोग प्रवृत्ति घट जाती है, इसलिए
यह आवश्यक हो जाता है कि अर्थव्यवस्था के भीतर ही माय तथा रोजगार के अपेक्षाकृत
ऊँचे स्तर प्राप्त करने के लिए निवेश के बड़ी मात्रा में इजान पिए. जाएं । संक्षेप
में यही केन्ज़ का रोजगार सिद्धांत है।
अपनी
General Theory में, केन्ज ने आर्थिक विकास वे कभी व्यवस्थित मॉडल को विकसित नहीं किया।
यह काम हैरॅड, डोमर, जोन रॉबिन्सन तथा अन्य अर्थशास्त्रियों के लिए छोड़ दिया गया जिन्होंने
आर्थिक वृद्धि के मॉडलों का निर्माण करने के लिए केन्ज़ के औजारों का पूरा प्रयोग किया।
केवल "Economic Possibilities for Our Grand Children" शीर्षक निबन्ध में
ही केन्ज ने आर्थिक प्रगति की आधारभूत परिस्थितियों की रूपरेखा प्रस्तुत की है। वे
ये हैं : "(6)mहमारी जनसंख्या पर नियंत्रण करने की शक्ति, (ii) हमारा गृह-युद्धों
तथा मतभेदों से बचने का निश्चय, (ii) हमारी उन विषयों को विज्ञान के निदेशन पर छोड़ने
की तत्परता, जोकि समुचित रूप से विज्ञान से संबद्ध हैं, और (iv) हमारे उत्पादन तथा
हमारे उपभोग के बीच के अन्तर द्वारा निर्धारित संचय की दर।"
जहाँ
तक पूँजीवाद के भविष्य का संबंध है, केन्ज आशावादी था। उसे 'तेजी का पैगम्बर'
(prophet of boom) कहा जा सकता है। केन्ज मानता था कि पूँजीवाद ऐसा तन्त्र है. जो परिस्थितियों
के अनुसार अपने को ढाल लेने की क्षमता तथा लचीलापन रखता है। केन्ज ने पूँजीवाद के समाप्त
होने का अपना सिद्धान्त सामान्य अति-उत्पादन, चिरकालिक अल्प-उपभोग और भविष्य में पूँजी
की घटती सीमांत उत्पादकता के आधार पर विकसित किया। उसने इसे दीर्घकालीन गतिहीनता कहा
है। इसके लिए उसने जो उपचार बताया, वह जानबूझ कर राज्य-कार्यवाही था।
अल्पविकसित देशों पर केन्ज़ के सिद्धान्त की व्यवहार्यता (APPI
ICABILITY OF KEYNES' THEORY TO UNDERDEVELOPED COUNTRIES)
केन्ज
का सिद्धान्त प्रत्येक सामाजार्थिक व्यवस्था पर नहीं लागू होता। यह केवल उन्नत प्रजातंत्रात्मक
पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं पर ही लागू होता है। जैसाकि शूम्पीटर ने लिखा है, 'व्यावहारिक
केन्ज़वाद ऐसा नया बीज है जिसे विदेशी धरती में नहीं उगाया जा सकता: वहाँ यह मुरझा
जाता है और मुरझाने से पहले जहरीला बन जाता है। परन्तु यदि इसे इंगलैण्ड की धरती में
छोड़ा जाए, तो यह बीज बहुत स्वस्थ रहता है और फल तथा छाया दोनों ही प्रदान करने का
आश्वासन देता है। यह बात केन्ज़ द्वारा दी गई नसीहत के प्रत्येक अंश के संबंध में सत्य
है। 2
अल्पविकसित
देशों के संबंध में केन्जवादी अर्थशास्त्र की व्यवहार्यता का अध्ययन करने से पूर्व
यह आवश्यक है कि अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में प्रवर्तमान परिस्थितियों की तुलना में
केन्जवादी अर्थशास्त्र की मान्यताओं का विश्लेषण कर लिया जाए।
केन्जवादी मान्यताएं तथा अल्पविकसित देश (Keynesian assumptions
and underdeveloped countries)-केन्जवादी अर्थशास्त्र निम्नलिखित मान्यताओं
पर आधारित है, जोकि अल्पविकसित देशों के संबंध में उसकी व्यवहार्यता को परिसीमित करती
हैं।
1. चक्रीय बेरोजगारी (Cyclical unemployment)-केन्जवादी
सिद्धान्त उस चक्रीय बेरोजगारी के अस्तित्व पर आधारित है जो मंदी के दौरान होती है।
यह प्रभावी मांग की कमी से उत्पन्न होती है। प्रभावी मांग के स्तर में वृद्धि करके
बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है। परन्तु विकसित अर्थव्यवस्था की अपेक्षा अल्पविकसित
देशों में बेरोजगारी की प्रकृति बिल्कुल भिन्न होती है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं
में बेरोजगारी चक्रीय नहीं बल्कि चिरकालिक (chronic) होती है। यह प्रभावी मांग के अभाव
के कारण नहीं बल्कि पूँजी साधनों की कमी का परिणाम होती है। चिरकालिक बेरोजगारी के
अतिरिक्त, अल्पविकसित देश अदृश्य बेरोजगारी से भी ग्रस्त रहते हैं। केन्ज का अनैच्छिक
(involuntary) बेरोजगारी दूर करने तथा आर्थिक अस्थिरता की समस्या से मतलब था। इसलिए
अदृश्य बेरोजगारी तथा उसके समाधान पर केन्ज ने विचार नहीं किया। चिरकालिक तथा अदृश्य
बेरोजगारी का इलाज है आर्थिक विकास, जिस पर केन्ज़ ने कोई ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार
चक्रीय बेरोजगारी तथा आर्थिक अस्थिरता के संबंध में केन्ज की मान्यताएं अल्पविकसित
अर्थव्यवस्था में नहीं टिक पातीं।
2. केन्ज़ का अर्थशास्त्र अल्पकालीन विश्लेषण (Keynes' economics
is a short- period analysis)- "केन्जवादी अर्थशास्त्र अल्पकाल सम्बन्धी
विश्लेषण हैं जिसमें केन्ज वर्तमान कुशलता तथा उपलब्ध श्रम की मात्रा, उपलब्ध उपकरण
की वर्तमान मात्रा तथा स्वरूप, वर्तमान तकनीक, प्रतियोगिता की मात्रा, उपभोक्ता की
रुचियों तथा स्वभाव, श्रम की विभिन्न गहनताओं एवं देख-रेख तथा संगठन क्रियाओं की अनुपयोगिता
और सामाजिक ढाँचा, इन सबको दिया हुआ मान लेता है। पर, विकास-अर्थशास्त्र दीर्घकाल सम्बन्धी
विश्लेषण है जिसमें उन सब मूल साधनों में कालपर्यन्त (over time) में परिवर्तन हो जाता
है जिन्हें कि केन्ज दिया हुआ मान लेता है।
3. बन्द अर्थव्यवस्था (Closed economy)-परन्तु
अल्पविकसित देश बन्द अर्थव्यवस्थाएं नहीं हैं। वे तो खुली अर्थव्यवस्थाएं होती हैं,
जहाँ उनका विकास करने में विदेशी व्यापार महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। इस प्रकार की
अर्थव्यवस्थाएं प्राथमिक रूप से कृषि तथा औद्योगिक कच्चे माल के निर्यातों तथा पूँजी
वस्तओं के आयातों पर निर्भर करती हैं। अतः अल्पविकसित देशों से इस सम्बन्ध में केन्ज़वादी
अर्थशास्त्र की कोई संगति नहीं है।
4. श्रम तथा अन्य पूरक साधनों की अतिपूर्ति (Excess supply of
labour and complementary factors)-केन्ज़वादी अर्थशास्त्र की
मान्यता है कि अर्थव्यवस्था में श्रम तथा अन्य पूरक साधनों का आधिक्य रहता है। इस विश्लेषण
का सम्बन्ध मन्दी अर्थव्यवस्था से है, जहाँ, "उद्योग, मशीनें प्रबन्धकर्ता तथा
श्रमिक एवं उपभोग-आदतें, सबके सब केवल इस प्रतीक्षा में रहते हैं कि अस्थायी रूप से
स्थगित अपने कार्य तथा कार्यभाग को संभाल लें" परन्तु अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं
में आर्थिक क्रिया का स्थायी स्थगन होता ही नहीं। वहां आर्थिक क्रिया स्थैतिक होती
है। पूँजी, कुशलताओं, साधन पूर्तियों तथा आर्थिक आधारिक संरचना का अत्यन्त अभाव होता
है।
5. श्रम तथा पूँजी एक ही साथ अनियोजित (Labour and capital
simultaneously- unemployed) - उपर्युक्त मान्यता से यह परिणाम भी निकाला
जा सकता है कि केन्ज़वादी विश्लेषण के अनुसार, श्रम तथा पूँजी एक ही साथ अनियोजित होते
हैं। जब श्रम बेरोजगार होता है, तो पूँजी तथा उपकरणों का भी पूरा उपयोग नहीं हो पाता,
अथवा उनमें अतिरिक्त क्षमता विद्यमान रहती है। परन्तु अल्पविकिसित देशों में ऐसा नहीं
होता। वहां जब श्रम बेरोजगार होता है तो पूँजी के अनुपयोजित (unutilized) रहने का प्रश्न
ही नहीं उत्पन्न होता क्योंकि पूँजी तथा उपकरणों की अत्यन्त कमी रहती है।
केन्जवादी सिद्धान्त के औजार तथा अल्पविकसित देश (TOOLS OF
KEYNFSIAN ECONOMICS AND UNDER DEVEI OPED COUNTRIES
इस
प्रकार, जिन मान्यताओं पर केन्जवादी अर्थशास्त्र आधारित है, वे अल्पविकसित देशों में
प्रवर्तमान स्थितियों पर नहीं लागू होतीं। अब हम केन्जवादी सिद्धान्त के प्रमुख औजारों
का अध्ययन करेंगे ताकि अल्पविकसित देशों के सम्बन्ध में उनकी सार्थकता की जांच हो सके।
1. प्रभावी माँग (Effective Demand)
बेरोजगारी
का कारण है प्रभावी माँग की कमी, और इसे दूर करने के लिए केन्ज का सुझाव था कि उपयोग
तथा गैर-उपयोग खचों को बढ़ाया जाए। परन्तु अल्पविकसित देशों में अनैच्छिक बेरोजगारी
नहीं बल्कि अदृश्य बेरोजगारी होती है। बेरोजगारी प्रभावी माँग के अभाव के कारण नहीं
बल्कि पूरक साधनों की कमी के कारण पैदा होती है। प्रभावी माँग का सिद्धान्त उन अर्थव्यवस्थाओं
पर लागू होता है, जहाँ अति बचतों के कारण बेरोजगारी है; और ऐसी स्थिति में विविध मौद्रिक
तथा राजकोषीय तरीकों से उपभोग तथा निवेश के स्तरों का विस्तार बढ़ाने से ही इसका इलाज
हो सकता है। परन्तु अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में आय-स्तर बहुत ही नीचे होते हैं, उपभोग-प्रवृत्ति
बहुत ऊंची होती है और बचतें लगभग नहीं के बराबर होती हैं। पूरक साधनों के अभाव में,
मौद्रिक तथा राजकोषीय तरीकों के माध्यम से मौद्रिक आयों को बढ़ाने के सब प्रयत्नों
का परिणाम होगा, कीमत-स्फीति। यहां समस्या प्रभावी माँग बढ़ाने की नहीं है बल्कि आर्थिक
विकास के प्रसंग में रोजगार तथा प्रति व्यक्ति आय के स्तरों को बढ़ाने की है।
"आर्थिक प्रगति के दो स्पष्ट वर्ग हैं: एक. जहाँ आर्थिक विकास का स्तर दिया हुआ
होने पर, आप कम रोजगार से पूर्ण रोजगार की ओर जाते हैं; और दूसरे, जहां आप आर्थिक विकास
के एक दिए हुए स्तर पर पूर्ण रोजगार से आर्थिक विकास के अगले अपेक्षाकृत अधिक ऊंचे
स्तर पर पूर्ण रोजगार की ओर जाते हैं। केन्ज का सिद्धान्त केवल पहले वर्ग पर लागू होता
है।"
2. अल्पविकसित देश में गुणक (Multiplier in Underdeveloped
Country)
डॉ०
वी० के० आर० वी० राव ने केन्ज के गुणक सिद्धान्त तथा नीति संकेतों को भारत जैसे अल्पविकसित
देशों पर लागू करने की सम्भाव्यता का विश्लेषण किया है। डॉ० राव के अनुसार, केल्ज़
ने अल्पविकसित देशों की समस्याओं को न तो कभी व्यवस्थित रूप में रखा, और न ही उद्देश्य
या नीति की इन देशों से संबद्धता पर विचार किया, जो उसने अधिक विकसित देशों के लिए
प्रस्तावित किए। परिणाम यह हुआ कि अल्पविकसित देशों की समस्याओं पर केन्ज़ के अर्थशास्त्र
को कुछ-कुछ नासमझी से लागू किया गया। केन्ज़ का गुणक सिद्धान्त निम्नलिखित चार
मान्यताओं
पर आधारित है :
1.
अनैच्छिक बेरोजगारी।
2.
औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था, जहां उत्पादन का पूर्ति वक्र ऊपर की ओर दाएं को ढालू होता
है: परन्तु तब तक अनुलम्ब (vertical) नहीं बनता, जब तक कि काफी समय न बीत चुका हो।
3.
उपभोग-वस्तु उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता।
4.
आवश्यक कार्यकारी (working) पूँजी अथवा बढ़े हुए उत्पादन की अपेक्षाकृत लोचदार पूर्ति।
इन
मान्यताओं के दिए होने पर, यदि हम गुणक सिद्धान्त को अल्पविकसित देशों पर लागू करें
तो स्पष्ट रूप से गुणक मूल्य किसी उन्नत देश के गुणक-मूल्य से भी बहुत अधिक होगा। हम
जानते हैं कि गुणक सीमांत उपभोग-प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। क्योंकि अल्पविकसित देश
में सीमांत उपभोग-प्रवृत्ति काफी ऊंची होती है, इसलिए संभावना यह है कि निवेश की छोटी
वृद्धियां धनी देश की तुलना में, बहुत शीघ्र पूर्ण रोजगार को प्रेरित करेंगी। यह बात
विरोधाभासी तथा तथ्यों के विरुद्ध है क्योंकि अल्पविकसित देशों के सम्बन्ध में वे धारणाएं
सत्य नहीं ठहरतीं, जिन पर गुणक सिद्धांत आधारित है। अब हम भारत जैसे अल्पविकसित देश
में प्रवर्तमान परिस्थितियों के प्रकाश में उनका परीक्षण करते हैं।
अनैच्छिक बेरोजगारी (Involuntary unemployment)-केज
के विश्लेषण में अनैच्छिक बेरोजगारी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से सम्बन्ध रखती है, जहां
अधिकांश श्रमिक मजदूरी के लिए काम करते हैं और जहाँ उत्पादन अपने उपभोग के लिए होने
की बजाय विनिमय के लिए अधिक होता है। प्रो० दास गुप्ता के अनुसार बड़े उद्योगों और
काफी सुविकसित बैंकिंग व्यवस्था के साथ, अल्पविकसित अर्थव्यवस्था का संगठित क्षेत्र
केन्ज के अर्थशास्त्र की सीमा में आता है, क्योंकि वह पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की विशिष्टताओं
को प्रकट करता है। परन्तु जब देश की कुल कार्यकारी जनसंख्या के सम्बन्ध में विचार किया
जाता है तो इस क्षेत्र में अनैच्छिक बेरोजगारी महत्वहीन ठहरती है। प्रो० दास गुप्ता
ने मौटेतौर पर हिसाब लगाया है कि भारत में अनैच्छिक बेरोजगारी कुल कार्यकारी शक्ति
का 0.2 प्रतिशत निकलती है। इस सम्बन्ध में धारणा यह है कि संगठित उद्योग में रोजगार
पर लगे व्यक्तियों में से 10 प्रतिशत अनैच्छिक रूप से बेरोजगार हैं और संगठित उद्योग
कुल कार्यकारी जनसंख्या का मुश्किल से 2 प्रतिशत खपा पाता है।'
वास्तव
में, अति जनसंख्या वाले अल्पविकसित देश में अदृश्य बेरोजगारी रहती है। प्रत्यक्ष रूप
से लोग कृषि में लगे होते हैं परन्तु यदि उनमें से कुछ को फार्म से हटा लिया जाए तो
उत्पादन में कोई कमी नहीं होगी। अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में अनैच्छिक बेरोजगारी की
बजाय अदृश्य बेरोजगारी का पाया जाना गुणक सिद्धान्त के कार्यकरण में बाधा प्रस्तुत
करता है। निवेश की प्रारम्भिक वृद्धियों के द्वितीयक, तृतीयक तथा अन्य प्रभाव प्रमुख
रूप से इसलिए नहीं होते कि चालू मजदूरी-स्तर पर रोजगार स्वीकार करने को कोई भी श्रमिक
तैयार नहीं होता। चाल मजदूरी-स्तर पर अदृश्य बेरोजगारी इसलिए नहीं मिलती कि एक तो उन्हें
इस तथ्य का ही ज्ञान नहीं होता कि वे बेरोजगार हैं और दूसरे उन्हें पहले ही बह बास्तविक
आय प्राप्त हो रही है जो उन्हें कम से कम उतनी संतुष्टि तो देती ही है जितनी कि चालू
मजदूरी-स्तर से उन्हें प्राप्त होगी। इस प्रकार अल्पविकसित देशों में अनैच्छिक बेरोजगारी
का अभाव तथा अदश्य बेरोजगारी की उपस्थिति उत्पादन एवं रोजगार को गुणक द्वारा बढ़ाने
को रोकती है।
उत्पादन का बेलोच पूर्ति वक्र (Inelastic supply curve of output)- अल्पविकसित
देशों में उत्पादन का पूर्ति वक्र बेलोच होता है, जो गुणक के कार्यकरण को और भी कठिन
बना देता है। कारण यह है कि उपभोग-वस्तु उद्योगों की प्रकृति ऐसी होती है कि वे उत्पादन
का विस्तार करने तथा अधिक रोजगार प्रदान करने में असमर्थ होते हैं। अल्पविकसित देश
में प्रमुख उपभोग-वस्तु उद्योग कृषि है, जो गतिहीन होता है। इसका कारण यह है कि अल्पकाल
में उत्पादन बढ़ाने के लिए उत्पादकों को आवश्यक सुविधाएं नहीं प्राप्त होतीं। परिणाम
यह होता है कि निवेश की प्रारंभिक वृद्धि के साथ आय, उत्पादन तथा रोजगार में द्वितीयक,
तृतीयक तथा अन्य वृद्धियां नहीं हो पातीं। आय में हुई प्राथमिक वृद्धि खाने-पीने पर
खर्च हो जाती है और उसका गणक प्रभाव समाप्त हो जाता है।
क्योंकि
अल्पविकसित देशों में सीमांत उपभोग प्रवृत्ति अधिक होती है, इसलिए बढ़ी हई आय को किसान
अपने लिए खाद्य वस्तुओं के उपभोग पर खर्च कर देते हैं जिससे क्रय-योग्य अनाज के अतिरेक
में कमी हो जाती है। फिर इसके परिणामस्वरूप अकृषि क्षेत्र में अनाज की कीमतें चढ़ जाती
हैं, जबकि कुल वास्तविक आय नहीं बढ़ती। पर यह संभावना सीमित होती है कि कृषक अकृषि
वस्तुओं पर अधिक खर्च करें क्योंकि उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता नहीं होती। उत्पादन
को बढ़ाना कठिन होता है क्योंकि पर्याप्त कच्चा माल, पूँजी, उपकरण तथा कुशल श्रमिक
नहीं मिलते। इस प्रकार, डॉ. राव यह निष्कर्ष देते हैं कि "निवेश में प्राथमिक
वृद्धि से, और इसलिए आय तथा रोजगार में वृद्धि से, आय में द्वितीयक तथा तृतीयक वृद्धि
होती है किन्तु कृषि-क्षेत्र या अकृषि-क्षेत्र में, उत्पादन या रोजगार में कोई विशेष
वृद्धि नहीं होती। इसलिए गुणक सिद्धांत मुद्रा आय के सम्बन्ध में तो कोई कार्य करता
है परन्तु वास्तविक आय अथवा रोजगार के प्रसंग में नहीं।"
इसी
प्रकार अल्पविकसित देश में (3) तथा (4) परिस्थितियों का अभाव गुणक के प्रचलन को कठिन
बना देता है। उपभोग-वस्तु उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता का अभाव तथा उत्पादन बढ़ाने
के लिए कार्यकारी पूँजी की अपेक्षाकृत बेलोच पूर्ति, दोनों मिलकर उपभोग-वस्तु उद्योगों
के उत्पादन में आवश्यक वृद्धि तथा उनमें परिणामी रोजगार को रोकते हैं।
इसलिए
सीधा निष्कर्ष यह है कि दो प्रमुख कारणों से भारत जैसे अल्पविकसित देश में केन्ज का
गुणक सिद्धान्त नहीं चलता। पहला कारण तो यह है कि केन्ज के ढंग की अनैच्छिक बेरोजगारी
नहीं मिलती, और दूसरा यह है कि विशिष्ट रूप से इस प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं में पाए
जाने वाले कुछ साधनों के कार्यकरण से कृषि तथा अकृषि उत्पादनों की पूति बेलोच होती
है।
3. उपभोग प्रवृत्ति (Propensity to Consume)
उपभोग
प्रवृत्ति केन्जवादी अर्थशास्त्र के महत्वपूर्ण औजारों में से एक है और यह उपभोग तथा
आय के बीच सम्बन्ध को प्रकट करती है। जब आय बढ़ती है तो उपभोग भी बढ़ता है परन्तु आय
में हुई वृद्धि की अपेक्षा कम मात्रा में । उपभोग फलन का यह व्यवहार इसे और भी स्पष्ट
करता है कि जब आय बढ़ती है, तो बचत में वृद्धि होती है। अल्पविकसित देशों में आय, उपभोग
तथा बचत के ये सम्बन्ध नहीं टिक पाते। लोग बहुत गरीब होते हैं और जब उनकी आय बढ़ती
है तो वे उपभोक्ता वस्तुओं पर अधिक व्यय करते हैं क्योंकि उनकी प्रवृत्ति यह रहती है
कि अपनी अपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा करें। ऐसे देशों में सीमांत उपभोग-प्रवृत्ति बहुत
अधिक होती है, जबकि सीमांत बचत-प्रवृत्ति बहुत कम होती है। केन्ज़वादी अर्थशास्त्र
हमें बताता है कि जब सीमांत उपभोग-प्रवृत्ति ऊंची होती है, तो आय में वृद्धि होने पर
उपभोक्ता माँग, उत्पादन तथा रोजगार अपेक्षाकृत अधिक तेजी से बढ़ते हैं। परन्तु अल्पविकसित
देशों में, जब आय में वृद्धि होने पर उपभोग बढ़ता है तो उपभोक्ता-वस्तुओं का उत्पादन
बढ़ाना संभव नहीं होता क्योंकि सहयोगी साधनों की दुर्लभता रहती है। इसका परिणाम यह
होता है कि रोजगार के स्तर में वृद्धि होने की बजाय कीमतें बढ़ जाती हैं।
4. बचत-प्रवृत्ति (Propensity to Save)
अब
बचत पक्ष को लिया जाए। केन्ज़ ने बचत को एक सामाजिक दोष माना है क्योंकि बचत की अधिकता
ही प्रभावी माँग में कमी लाती है। यह विचार भी अल्पविकसित देशों पर नहीं लागू होता
क्योंकि आर्थिक पिछड़ेपन के लिए बचत तो रामबाण है। पूँजी-निर्माण ही आर्थिक विकास की
कुंजी है और पूँजी-निर्माण तब संभव है, जब लोग अधिक बचत करें। उपभोग में कमी तथा बचतों
में वृद्धि करके ही अल्पविकसित देश प्रगति कर सकते हैं और यह बात केन्ज़ के इस मत के
विपरीत है कि उपभोग बढ़ाया जाए और बचतें घटाई जाएं। अल्पविकसित देशों के लिए, बचत दोष
नहीं, बल्कि
5.
पूँजी की सीमांत उत्पादकता (Marginal Efficiency of Capital)
केन्स
के अनुसार, पूँजी की सीमांत उत्पादकता निवेश के आवश्यक निर्धारकों में से एक है। निवेश
तथा पूँजी की सीमांत उत्पादकता के बीच उलट सम्बन्ध है। जब निवेश बढ़ता है तो पूँजी
की सीमांत उत्पादकता घट जाती है और जब निवेश घटता है तो पूँजी की सीमांत उत्पादकता
बढ़ जाती है। परन्तु यह सम्बन्ध अल्पविकसित देशों पर नहीं लागू होता। इस प्रकार की
अर्थव्यवस्थाओं में निवेश का स्तर नीचा होता है और पूँजी की सीमांत उत्पादकता भी कम
होती है। इस विरोधाभ्यास के कारण हैं : पूँजी
तथा अन्य साधनों का अभाव, मार्किट का छोटा आकार, कम आय, कम माँग, ऊंची लागते, अविकसित
पूँजी तथा मुद्रा मार्किट, अनिश्चितताएं इत्यादि। पूंजी की सीमांत उत्पादकता तथा निवेश
के ये सब साधन नीचे स्तर पर रहते हैं।
6. व्याज की दर (Rate of Interest)
केन्जवादी
पद्धति में निवेश का दूसरा निर्धारक व्याज की दर है। और इसे, आगे, तरलता अधिमान तथा
मुद्रा की पूर्ति निर्धारित करते हैं । तरलता अधिमान के प्रयोजनों में से लेनदेन तथा
एहतियाती प्रयोजन तो आय लोच हैं और वे ब्याज की दर को प्रभावित करते हैं। केवल सट्टा-प्रयोजन
से मुद्रा के लिए मांग ही एक ऐसा प्रयोजन है, जो व्याज की दर को प्रभावित करता है।
अल्पविकसित देशों में, लेनदेन तथा एहतियाती प्रयोजनों के लिए तरलता अधिक होता है और
सट्टा सम्बन्धी प्रयोजनों के लिए कम । इसलिए तरलता अधिमान व्याज की दर को प्रभावित
करने में असमर्थ रहता है। व्याज की दर का अन्य निर्धारक है मुद्रा की पूर्ति । केन्ज़
के अनुसार मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि, ज्याज की दर को घटाती है तथा निवेश आय और रोजगार
के स्तर को बढ़ावा देती है। परन्तु अल्पविकसित देशों में, मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि
के परिणामस्वरूप ब्याज की दर में कमी होने के बजाय कीमतें बढ़ जाती हैं। जैसाकि भारत
का उदाहरण देते हुए स्वयं केन्ज़ ने लक्ष्य किया है. "भारत का इतिहास हर युग में
इस बात का साक्षी रहा है कि भारत एक ऐसा देश है जिसकी दरिद्रता का कारण तरलता (नकदी)
के लिए अधिमान है, जो इतनी प्रबल लालसा के रूप में स्थित रहा है कि कीमती धातुओं का
चिरकालिक तथा भारी मात्रा में आगमन भी ब्याज की दर को घटाकर उस स्तर तक लाने में असमर्थ
रहा है जो वास्तविक धन की वृद्धि के अनुकुल हो।" इस प्रकार अल्पविकसित देशों में,
ब्याज की दर को मुद्रा के लिए माँग तथा मुद्रा की पति इतना नहीं प्रभावित करती जितना
कि परम्पराएं, रीति-रिवाज तथा संस्थागत साधन।
7. नीति उपाय (Policy Measures)
इतना
ही नहीं, अल्पविकसित देशों में प्रवर्तमान परिस्थितियों के अन्तर्गत केन्ज़ की नीति
के नुस्खे भी नहीं काम करते। डॉ. राव का कहना है कि घाटे के वित्त-प्रबंधन के माध्यम
से निवेश बढ़ाने का प्रयत्न उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि लाने की बजाय कीमतों में
स्फीतिकारी वृद्धि लाता है। इसलिए उनका मत है कि "पूर्ण रोजगार प्राप्त करने के
लिए घाटे के वित्त-प्रबंधन की आर्थिक नीति तथा मितव्ययिता की उपेक्षा के जिस सिद्धान्त
का केन्ज़ ने समर्थन किया था, वह अल्पविकसित देश पर लागू नहीं होता।" परन्तु
"Deficit Financing for Capital Formation and Price Behaviour in an
Underdeveloped Economy" शीर्षक से एक अन्य निबन्ध में वे कहते हैं कि पूँजी-निर्माण
के लिए घाटे के वित्त-प्रबंधन से स्फीति नहीं आती क्योंकि क्षमता बढ़ाने और परिणामस्वरूप
उत्पादन के पूर्ति वक्र को लोच प्रदान करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। पर, थोड़ी-बहुत
कीमत वृद्धि तो अनिवार्य है, लेकिन यह स्वयं समाप्त प्रकृति' की होती है। वे संकेत
करते है कि युद्ध-वित्त-व्यवस्था का इतिहास बताता है कि कीमतों में वृद्धि के माध्यम
से प्राप्त बलकृत (forced) बचतें जब पूँजी-निर्माण के लिए प्रयोग होती हैं तो वे आर्थिक
विकास के लिए घाटे के वित्त-प्रबंधन के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। "प्रश्न केवल यह
है कि घाटे के वित्त-प्रबंधन को किस सीमा तक अपनाना उचित है; और इसका स्पष्ट उत्तर
यह है कि उस बिन्दु के बाद घाटे के वित्त-प्रबंधन को नहीं अपनाना चाहिए, जहां वह स्फीतिकारी
हो जाए।"
अल्पविकसित
देशों में जीवन का अपेक्षाकृत अधिक ऊंचा स्तर प्राप्त करने तथा बढ़ते हुए रोजगार के
अवसर प्रदान करने के लिए, प्रो० दास गुप्ता केन्ज़ की सार्वजनिक निवेश की नीति का समर्थन
करते हैं। परन्तु समुचित सार्वजनिक बचतों तथा विदेशी पूँजी के प्रवाह के अभाव के कारण
वे घाटे के वित्त-प्रबंधन का समर्थन करते हैं, जो कीमत तथा पूँजी निर्गम नियंत्रणों
(capital issue controls) के साथ न होने पर संक्रमण (transitional) काल में कीमतों
में स्फीतिकारी वृद्ध ला देगा। अल्पविकसित देशों के लिए, केन्ज के इस सिद्धान्त की
अपेक्षा कि उपभोग तथा निवेश में एक साथ वृद्धि होनी चाहिए, "पुराने ढंग का यह
नुस्खा, कि अधिक परिश्रम करो तथा अधिक बचाओ, आर्थिक प्रगति के लिए औषधि के रूप में
अब भी सही प्रतीत होता है।" पर इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भले ही
केन्ज़ के नीति-नुस्खे अल्पविकसित देशों की समस्याओं पर संपूर्ण रूप से लागू न हों,
ऐसी अर्थव्यवस्थाओं की समस्याओं के समझने के लिए केन्ज़ के विश्लेषण के औजार आवश्यक
हैं।
प्रोफेसर दास गुप्ता के शब्दों में निष्कर्ष यह है कि "General Theory की 'सामान्यता' कुछ भी हो, शायद वही हो जिस अर्थ में केन्ज़ ने 'सामान्य' शब्द का प्रयोग किया है, पर बहुत करें तो अल्पविकसित अर्थव्यवस्था की परिस्थितियों पर General Theory की प्रस्थापनाओं की व्यवहार्यता सीमित है।