शुम्पीटर का आर्थिक विकास का सिद्धान्त (The Suhumpeterian Theory of Economic Growth)

शुम्पीटर का आर्थिक विकास का सिद्धान्त (The Suhumpeterian Theory of Economic Growth)

जोसेफ एलोई शुम्पीटर (Joseph Alois Schumpeter) ने प्रथम बार सन् 1911 में जर्मन भाषा में प्रकाशित 'The Theory of Economic Development' में अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इसका अंग्रेजी संस्करण 1934 में प्रकाशित हुआ। बाद में व्यापार चक्र (1939), पूंजीवाद, समाजवाद एवं प्रजातन्त्र (1942) में इस सिद्धान्त को परिष्कृत एवं परिवर्धित किया गया परन्तु इसकी आधारभूत विचारधारा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

शुम्पीटर का विश्लेषण (SCHUMPETER'S ANALYSIS)

शुम्पीटर के विकास सिद्धान्त की प्रमुख कड़ियां इस प्रकार हैं :

अर्थव्यवस्था का वृत्तीय प्रवाह (Circular Flow of Economy)-शुम्पीटर प्रारम्भ में एक ऐसी अर्थव्यवस्था की कल्पना करते हैं जो स्थिर साम्य में होती है। स्थिर साम्य की स्थिति में अर्थव्यवस्था पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक सन्तुलन में होती है। अर्थात, उत्पादन की मांग उसकी पूर्ति के बराबर होती है। कीमतें औसत लागत के बराबर होती हैं, लाभ शून्य होता है। ब्याज दर की प्रवृत्ति शून्य होने की होती है क्योंकि निवेश नहीं होते और न ही उत्पत्ति के साधनों में किसी प्रकार की अनैच्छिक बेरोजगारी पाई जाती है। इस तरह अर्थव्यवस्था में प्रत्येक घटक स्थिर रहता है। उनके अनुसार ऐसी अर्थव्यवस्था सदैव साम्य की स्थिति में बनी रहती है। इस स्थिर स्थिति को उन्होंने वृत्तीय प्रवाह (circular flow) की संज्ञा दी जिसमें आर्थिक कार्य की पुनरावृत्ति उसी प्रकार होती रहती है जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में रक्त का प्रवाह निरन्तर एक ही गति से होता रहता है।

आर्थिक विकास का अर्थ (Meaning of Economic Development)-शुम्पीटर की धारणा थी कि आर्थिक विकास वृत्तीय प्रवाह के असतत विचलन का परिणाम है। उनका कथन है कि "आर्थिक विकास वृत्तीय प्रवाह में होने वाला एक आकस्मिक तथा असतत परिवर्तन है अर्थात सन्तुलन की एक ऐसी हलचल है जो पूर्व स्थापित साम्य की स्थिति को सदा के लिए बदल देती है।" आर्थिक जीवन में घटित होने वाले ये आकस्मिक तथा असतत् परिवर्तन अर्थव्यवस्था पर बाहर से नहीं थोपे जाते बल्कि उसके अपने प्रयास या उपक्रम (initiative) से उसके अन्दर से ही उत्पन्न होते हैं। शुम्पीटर के अनुसार वृत्तीय प्रवाह में बाधा या विचलन नव-प्रवर्तनों के रूप में आती है। आर्थिक विकास उन संयोगों को लागू करने में निहित है जिनकी सम्भावनाएं स्थिर अवस्था में ही उपस्थित रहती हैं। इस प्रकार वृत्तीय प्रवाह में असतत परिवर्तन होना और उसके फलस्वरूप वर्तमान सन्तुलन का विचलित होकर एक नए सन्तुलन का स्थापित होना आर्थिक विकास की प्रक्रिया का सार है। यह नए सन्तुलन अथवा संयोग नवप्रवर्तनों के फलस्वरूप प्रकट होते हैं।

नवप्रवर्तन (Innovations)-शुम्पीटर के अनुसार आर्थिक विकास मूलभूत रूप से नव-प्रवर्तनों का परिणाम है। नए संयोग नवप्रवर्तनों के रूप में प्रकट होते हैं जो स्थैतिक सन्तुलन को भंग करके नए साम्यों को जन्म देते हैं जिससे विकास की गति तेज होने लगती है। नवप्रवर्तनों से शुम्पीटर का अभिप्राय, मात्र किसी आविष्कार विशेष से नहीं, बल्कि उत्पादन की तकनीक व साधनों के नवीन व विचित्र संयोगों से है। उन्हीं के शब्दों में, "नवप्रवर्तनों से मेरा अभिप्राय उत्पत्ति के साधनों के अनुपातों में होने वाले उन परिवर्तनों से है जो धीरे-धीरे न होकर तीव्र गति से घटित होते हैं।"

शुम्पीटर के आर्थिक विकास की समस्त चक्रीय प्रक्रिया को चित्र में दर्शाया गया है

जहां नवप्रवर्तन की द्वितीयक लहर को प्राथमिक लहर पर अध्यारोपित किया गया है। अतिआशावादिता और सट्टे से समृद्धि की अवस्था में विकास तीव्र गति से होता है। जब सुस्ती (recession) प्रारंभ होती है तो व्यापार चक्र संतुलन से नीचे मंदी की अवस्था में चलता है। अन्ततः एक अन्य नवप्रवर्तन पुनरुत्थान लाता है।

शूम्पीटर के विश्लेषण में उद्यमी ही प्रमुख व्यक्ति हैं। वे आकस्मिक तथा असतत ढंग से आर्थिक विकास करते हैं। "चक्रीय उतार-चढ़ाव पुँजीवाद के अन्तर्गत आर्थिक विकास की कीमत है," जो उसके गत्यात्मक समय मार्ग की स्थायी विशेषता है। दीर्घकाल में, निरन्तर प्रौद्योगिकीय प्रगति का परिणाम यह होगा कि कल तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन में असीम वृद्धि हो जाएगी क्योंकि ऐतिहासिकता से प्रौद्योगिकीय प्रगति के घटते प्रतिफल नहीं होते। जब तक प्रौद्योगिकीय प्रगति होती रहेगी, तब तक लाभों की दर धनात्मक रहेगी। इसलिए न तो निवेश योग्य कोषों के स्रोत ही सुख सकते हैं और न ही निवेश के अवसर ही समाप्त

नवप्रवर्तनों के रूप-शुम्पीटर के अनुसार नवप्रवर्तन निम्न प्रकार से हो सकता है:

(1) किसी नवीन वस्तु का उत्पादन करना,

(2) उत्पादन की किसी नवीन प्रविधि का प्रचलन होना,

(3) नए बाजारों की खोज होना,

(4) कच्चे माल के नए पूर्ति-स्रोतों का पता लगाना,

(5) एकाधिकार स्थापित करने की तरह किसी उद्योग के नए संगठन को कार्यान्वित करना।

नवप्रवर्तक का कार्य (Role of Innovator)– शुम्पीटर के अनुसार आर्थिक विकास का कार्य स्वतः नहीं होता बल्कि इस कार्य को विशेष प्रयास व जोखिमों के साथ शुरू करना होता है। यह कार्य नवप्रवर्तक अर्थात् उद्यमी करता है, पूंजीपति नहीं। पूंजीपति केवल पूंजी प्रदान करता है जबकि उद्यमी उसके प्रयोग का निदेशन करता है। शुम्पीटर का कहना है कि “साहसी के सम्बन्ध में स्वामित्व नहीं बल्कि नेतृत्व अधिक महत्वपूर्ण होता है।"

आर्थिक विकास एक असतत् प्रक्रिया है तथा आर्थिक जगत में बहुत अधिक अनिश्चितता एवं जोखिम विद्यमान रहता है। अतः साधारण प्रबन्धकीय योग्यता वाले व्यक्ति में जोखिम उठाने और अनिश्चितता वहन करने की योग्यता नहीं होती। यह कार्य उद्यमी द्वारा किया जाता है। इस प्रकार उद्यमी शुम्पीटर के विकास सिद्धान्त की केन्द्रीय शक्ति है। “साहसी, विकास का मुख्य प्रेरक स्रोत है। वह नवीनताओं का सृजनकर्ता है, उत्पादन की तकनीक में क्रान्ति का अधिष्ठाता है और बाजारों के विस्तार का श्रेय भी उसे ही दिया जाता है।" साहसी अथवा तुलना युद्ध की व्यूह रचना करने वाले उस निडर व कुशाग्र बुद्धि वाले कमाण्डर से की जा सकती है जो लड़ाकू फौज में प्रतिक्षण साहस, रणकौशल व उत्साह की भावना भरता रहता है। शुम्पीटर के शब्दों में, "स्थिर अर्थव्यवस्था में साहसी बहाव के साथ तैरता है, गतिशील अर्थव्यवस्था में उसे बहाव के विपरीत तैरना होता है। साहसी विकास मंच का नेता है, अन्य उसके अनुगामी होते हैं। वह स्वामिभानी तथा विवेकशील होता है। उसमें जूझने की प्रवृत्ति होती है, वह जीतने का संकल्प रखता है और उसमें अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रबल इच्छा होती है। वह केवल लाभ के लिए ही जोखिम नहीं उठाता बल्कि सफलता प्राप्त करना भी उसका एक लक्ष्य होता है।"

उद्यमी को प्रेरित करने वाले तत्व- उद्यमी को मुख्य रूप से तीन बातें प्रेरित करती हैं:

(i) नवीन वाणिज्य साम्राज्य की स्थापना की लालसा,

(ii) अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की इच्छा,

(iii) अपनी शक्ति तथा प्रवीणता के प्रयोग करने की प्रसन्नता।

उद्यमी को अपना आर्थिक कार्य करने के लिए दो चीजों की आवश्यकता होती है। प्रथम, नई वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान की उपलब्धता: द्वितीय, ऋण के रूप में उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण की शक्ति अर्थात बैंक साख की सुविधा। शुम्पीटर की धारणा थी कि समाज में तकनीकी ज्ञान का एक ऐसा भण्डार विद्यमान रहता है जिसे अभी तक खोला नहीं गया होता है और इसके प्रयोग की पहल उद्यमी द्वारा की जाती है। इस तरह, संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि विकास की दर समाज में तकनीकी ज्ञान के भण्डार में परिवर्तन का फलन है। तकनीकी परिवर्तन की दर उद्यमियों के सक्रिय होने के स्तर पर निर्भर करती है और यह सक्रियता-स्तर नए उद्यमियों के प्रकट होने तथा साख निर्माण की मात्रा द्वारा निर्धारित होता है।

पूंजी, लाभ एवं व्याज (Capital, Profit and Interest)- शुम्पीटर के अनुसार पूंजी केवल वह स्तर है जिसके द्वारा उद्यमी जिन वस्तुओं को चाहता है, उनको अपने नियन्त्रण में रखता है। अन्य शब्दों में, पूंजी उत्पादन के साधनों को नए प्रयोगों की ओर ले जाने अर्थात् उत्पादन को नया मोड़ देने का साधन है। उनके अनुसार लाभ लागतों के ऊपर आधिक्य है जो कुल प्राप्तियों एवं लागतों का अन्तर है। शुम्पीटर के अनुसार, में प्रत्येक वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत के बराबर होती है अतः लाभ नहीं उत्पन्न होते। नवप्रवर्तन से होने वाले गत्यात्मक परिवर्तनों के कारण लाभ उत्पन्न होते हैं। वे उतनी देर तक बने रहते हैं जब तक कि नवप्रवर्तन सामान्य नहीं हो जाते। पूंजी और लाभ की तरह, शुम्पीटर ब्याज को भी विकास की देन मानता है। यह वर्तमान उपभोग का भविष्य के उपभोग पर अधिमान है। परन्तु लाभ की तरह यह विकास का प्रत्यक्ष प्रतिफल नहीं है अर्थात् यह विकास की सफलताओं का प्रतिफल नहीं है बल्कि यह विकास पर रुकावट की तरह है। यह उद्यमीय लाभ पर एक कर की तरह है।

वृत्तीय प्रवाह को तोड़ना (Breaking the Circular Flow)- शुम्पीटर का विकास मॉडल वृत्तीय प्रवाह को एक नवप्रवर्तन से भंग करने से प्रारम्भ होता है जो उद्यमी लाभ कमाने के लिए एक नई वस्तु के रूप में करता है। शुम्पीटर की धारणा के अनुसार चूंकि एक पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पत्ति के साधनों के नए व अच्छे संयोगों की सम्भावनाएं सदा, विद्यमान रहती हैं, अतः साहसी इन लाभ सम्भावनाओं का फायदा उठाने के लिए नए प्रयोग अर्थात् नवप्रवर्तन करते हैं जिनके लिए बैंकों से ऋण लिया जाता है। चूंकि नवप्रवर्तनों में निवेश में जोखिम होती है अतः उन्हें ऋण पर ब्याज देना होगा। नवप्रवर्तन जब एक बार सफल हो जाता है और लाभ देने लगता है तब बड़ी संख्या में अन्य उद्यमी उसका अनुकरण करने लगते हैं। एक क्षेत्र में नवप्रवर्तन सम्बद्ध क्षेत्रों में नवप्रवर्तनों को प्रोत्साहन दे सकता है। मोटरकार उद्योग आरम्भ होने के परिणामस्वरूप सड़कों, रबर टायरों तथा पेट्रोल इत्यादि के उत्पादनमें नए निवेशों की लहर फैल सकती है। परन्तु एक नवप्रवर्तन कभी शत-प्रतिशत नहीं होता। नवप्रवर्तन के प्रसार को चित्र 1 द्वारा स्पष्ट किया गया है जहां एक विशेष नवप्रवर्तन अपना रही फर्मों के प्रतिशत को अनुलम्ब अक्ष पर तथा समय को क्षैतिज अक्ष पर प्रदर्शित किया गया है। वक्र प्रदर्शित करता है कि प्रारम्भ में फर्मे एक नवप्रवर्तन को धीरे-धीरे अपनाती हैं; शीघ्र नवप्रवर्तन अपनी गति पकड़ता है, परन्तु शत-प्रतिशत का इसे नहीं अपना पाती हैं।

चक्रीय प्रक्रिया (Cyclic Process)- शुम्पीटर का विचार था कि नवप्रवर्तन हेतु जब बैंकों से ऋण लिया जाता है तब साख का विस्तार होता है। नवप्रवर्तन हेतु किए गए निवेश में वृद्धि से मौद्रिक आय और कीमतें बढ़ने लगती हैं जो आगे चलकर समस्त अर्थव्यवस्था के संचयी-विस्तार की दशाएं उत्पन्न कर देती हैं। शुम्पीटर ने इस आर्थिक चेतना को उद्यमी के नवप्रवर्तन की प्राथमिक लहर की संज्ञा दी है।

बढ़ती हुई कीमतें लाभ को बढ़ाती हैं, इससे उत्साहित होकर उद्यमी बैंकों से ऋण लेकर निवेश को बढ़ाते हैं, इससे उत्पादन का और अधिक विस्तार होता है। लाभ की प्रवृत्तियां जहां सट्टे के कार्य को प्रोत्साहन देती हैं वहां आय व लाभ की अनन्त सम्भावना नए विनियोगों को जन्म देने लगती है। फलस्वरूप बैंकों से अधिक मात्रा में ऋण लिए जाते हैं। इससे साख-स्फीति की द्वितीयक लहर प्रेरित होती है, जो नवप्रवर्तन की प्राथमिक लहरों पर अध्यारोपित हो जाती है। शुम्पीटर ने इसे ‘समृद्धि' (Prosperity) की अवस्था कहा है।

कुछ समय पश्चात् नई वस्तुएं बाजार में आना शुरू हो जाती हैं जो पुरानी वस्तुओं को विस्थापित करती हैं और दिवालियापन, पुनः समायोजन (readjustment) तथा खपत की प्रक्रिया होती है। बाजार में नई वस्तुओं तथा फर्मों के प्रवेश से उत्पादन इकाइयों में परत्या प्रतिस्पर्धा होती है। शुम्पीटर ने इसे सृजनात्मक विनाश की प्रक्रिया (Process of Creative Destruction) का प्रथम चरण कहा। पुरानो वस्तुओं की मांग घट जाती है। उनकी कीमतें घट जाती हैं। लाभ के कम होने से पुरानी फ अपना उत्पादन घटाती हैं और कुछ। दिवाला भी निकल जाता है। इस तरह नई फर्मों के सामने पुरानी फले बाजार में ठहर नहीं पाती। जब नवप्रवर्तक लाभों में से बैंक ऋण वापस करना प्रारम्भ करते है, तो मुद्रा की मात्रा घट जाती है और कीमत गिरने लगती हैं। लाभ कम हो जाते हैं, अनिश्चितता तथा जोखिम बढ़ा जाती है। नवप्रवर्तन की प्रेरणा घटती है और अन्त में समाप्त हो जाती है। असन्तुलन व असामंजस्य की प्रक्रिया के फलस्वरूप बैंक अपना रुपया वापस लेने लगते हैं जिससे मुद्रा विस्फीति की दशा उत्पन्न है, प्रवर्तन-क्रियाओं में शिथिलता आती है फलस्वरूप कीमतों व मौद्रिक आय में ह्रास होना शुरू हो जाता है। शुम्पीटर ने इस अवस्था को 'प्रतिसार' (Recession) की अवस्था कहा है।

शुम्पीटर का कथन है कि यदि अर्थव्यवस्था नवप्रवर्तनों की दृष्टि से विकास की द्वितीय लहर की स्थिति पर स्थिर हो जाए तो इससे 'पूर्णकाय मन्दी' (Full fledged depression) की दशा उत्पन्न हो जाती है और अर्थव्यवस्था एक दुश्चक्र में फंस जाती है।

इस अवस्था के पश्चात् नए सिरे से तथा नए ढंग से नवप्रवर्तन किए जाते हैं। इससे नई तेजी प्रारम्भ हो जाती है। शुम्पीटर ने इसे पुनरुत्थान (Recovery) की अवस्था कहा है। इस तरह, विकास की यह पूरी प्रक्रिया अपने को पूर्व की भांति दोहराती है और अंततः देश की आर्थिक प्रणाली पुनः साम्य की स्थिति प्राप्त कर लेती है। हां, मन्दी के बाद के इस सन्तुलन का बिन्दु पुराने सन्तुलन बिन्दु से ऊंचा होती है।

शुम्पीटर का कहना है कि प्रत्येक चक्र के समाप्त होने में निश्चित समयावधि नहीं होती है। उसने इन चक्रों को 'गम-खुशी के चक्र' कहा है। शुम्पीटर की विकास की इस प्रक्रिया को चित्र 2 द्वारा दर्शाया जा सकता है जिसमें क्षैतिज अक्ष पर समय तथा अनुलम्ब अक्ष पर राष्ट्रीय उत्पादन प्रदर्शित किया गया है।

वक्र YPT दीर्घकालीन चक्रीय उतार-चढ़ावों को दर्शाता है। जब एक नवप्रवर्तन होता है अर्थव्यवस्था y से ऊपर की ओर गति करती है और वस्तुओं का उत्पादन बिन्दु P तक बढ़ता जाता, कुछ समय पश्चात जब यह नवप्रवर्तन समाप्त होना प्रारम्भ होता है तब नया नवप्रवर्तन इसका स्थान लेना शुरू करता है तो अर्थव्यवस्था में उत्पादन का स्तर P से गिरकर T पर आ जाता है। इस प्रकार सृजनात्मक विनाश की प्रक्रिया के कारण अर्थव्यवस्था का नया सन्तुलन बिन्दु T पूर्व बिन्दु Y से ऊंचा है जो अर्थव्यवस्था के विकास को प्रदर्शित करता है।

शुम्पीटर के विश्लेषण में उद्यमी प्रमुख व्यक्ति हैं जो आकस्मिक तथा असतत् ढंग से आर्थिक विकास करते रहते हैं।

शुम्पीटर का विकास सिद्धान्त एक दृष्टि में

(1) आर्थिक विकास का प्रारम्भ नव-प्रवर्तकों के विनियोग से प्रारम्भ होता है,

(2) आर्थिक विकास अनियमित ढंग से होता है,

(3) साम्य से ही समृद्धि का प्रारम्भ माना गया है,

(4) आर्थिक विकास चक्रीय प्रक्रिया द्वारा व्यक्त किया जाता है,

 (5) आर्थिक विकास से कम आय वाले व्यक्ति अधिक लाभान्वित होते हैं,

(6) नव-प्रवर्तन आर्थिक विकास का मुख्य कारण है,

(7) नव-प्रवर्तन का वित्त-प्रबन्ध बैंक से ऋण लेकर किया जाता है,

(8) आर्थिक विकास एवं आर्थिक उतार-चढ़ाव में कोई विरोध नहीं माना जाता, एवं

(9) समाज में प्रत्येक नवीन साम्य आर्थिक व्यवस्था को पहले से ऊंची विकास की अवस्था पर पहुंचा देता है।

शुम्पीटर के सिद्धान्त की मुख्य बातें (MAIN FEATURES OF SCHUMPETER'S THEORY)

(1) साहसी को महत्व देना (Importance of Enter- pereneur)- शुम्पीटर ने अपने सिद्धान्त में साहसी को सबसे अधिक महत्व दिया, क्योंकि साहसी के द्वारा पूंजी की व्यवस्था करना, तकनीकी विशेषज्ञों की सुविधाएं एवं अन्य साधनों को जुटाने की आर्थिक व्यवस्था करनी होती है।

(2) पर्याप्त पूंजी (Sufficient Capital)- देश के आर्थिक विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में पूंजी का निर्माण होना आवश्यक है। पूंजी की सहायता से ही साहसी नवीन प्रवर्तकों को जन्म व प्रोत्साहित करते हैं।

(3) साख का महत्व (Importance of Credit)- वित्तीय प्रवाह को तोड़ने हेतु उद्यमियों को बैंक साख-विस्तार से धन प्राप्त होता है, क्योंकि नव-प्रवर्तकों में निवेश में जोखिम होती है, अतः उन्हें ऋण पर ब्याज देना होगा। शुम्पीटर ने कहा कि बैंकर ही सबसे बड़ा पूंजीपति है जो धन व साख की सुविधाएं प्रदान करता है। साख से नवीन क्रय-शक्ति का सृजन होकर अर्थव्यवस्था में गतिशीलता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार जोखिम उठाने वाला साहसी न होकर बैंकर होता है।

(4) नव-प्रवर्तन (Innovations)- विकास शनैः-शनैः न होकर एक साथ बड़े प्रयत्न के कारण होता है। नवीन प्रवर्तनों से प्रेरित होकर अन्य विनियोजक भी प्रोत्साहित सट्टे की क्रियाओं को बढ़ाते हैं। पूंजीगत उद्योगों का अधिक विकास होता है, नवीन उत्पादन विधियों का उपयोग किया जाता है, प्रभावशील मांग में वृद्धि होकर लाभ की सम्भावनाएं बढ़ती हैं। इसके विपरीत, नवीन विनियोजन के समाप्त होने पर मन्दी काल प्रारम्भ हो जाता है, सट्टे के कार्य शिथिल हो जाते हैं तथा मूल्य गिरने लगते हैं, धीरे-धीरे यह मन्दी पूरी अर्थव्यवस्था में फैल जाती है।' नव-प्रवर्तन निम्न प्रकार से हो सकता है—(i) नवीन वस्तु का प्रचलन होना, (ii) नवीन बाजार खोजना, (iii) एकाधिकार स्थापित करने में नवीन संगठन को कार्यान्वित करना, (iv) उत्पादन की नवीन विधि का प्रयल करना, (v) कच्चे माल एवं अर्द्ध-विकसित वस्तुओं के नवीन पूर्ति स्रोत खोजना।

(5) विकास कार्य प्रणाली (Development Working)- शुम्पीटर ने पूंजीवाद के योगदान की विकास कार्यों में बहुत प्रशंसा की। इसमें वैज्ञानिक विधियों को अपनाया गया तथा समान्तवादी रीतियों को समाप्त कर दिया गया। पूंजीवाद ने नवीन उत्पादन विधियों को जन्म दिया। इस प्रकार पूंजीवाद ने नवीन तकनीकी व सभ्यता के साथ-साथ अनेक दोषों को जन्म दिया, जिससे विकास पद्धति ही समाप्त हो गई।

(6) लाभ को महत्व (Importance to. Profits)- स्थिर अर्थव्यवस्था में लाभ प्राप्त नहीं होते, बल्कि उन्हें केवल व्यवस्था का वेतन प्राप्त होता है। गतिशील अर्थव्यवस्था में लाभ विकास कार्यों के लिए प्रेरणा स्रोत होते हैं। इसमें कुछ साहसी अधिक लाभ उठाते हैं तो कुछ कम और कुछ हानि भी उठाते हैं। स्थिर व्यवस्था में लाभ बढ़ाने में सबको आय प्राप्त होती है। यह लाभ शून्य नहीं होता। प्रारम्भ में नवीन वस्तु में काफी लाभ प्राप्त होते हैं, परन्तु प्रतियोगिता प्रारम्भ होने पर लाभ गिर जाते हैं तथा बाद में समाप्त हो जाते हैं।

(7) विकसित मुद्रा बाजार (Developer Money Market)- पूंजीवाद का आधार विकसित मुद्रा बाजार माना गया है जहां पूंजी प्राप्त करके बाजार को भी विकसित किया जाता है तथा बाद में यह बाजार समस्त आय का स्रोत माना जाता है।

(8) नवीन प्रविधि (New Technique)- नवीन प्रवर्तन स्वेच्छित विनियोजन को प्रोत्साहित करके नवीन तकनीकी द्वारा साधनों का और अधिक विकास किया जाता है। नवीन प्रवर्तन विभिन्न प्रकार का होता है; जैसे (1) नवीन उत्पादन पद्धति को जन्म देना, (ii) कच्ची सामग्री को नवीन स्रोत देना, (iii) एकाधिकार स्थापित करने के प्रयास करनाः, (iv) नवीन विपणि की खोज करना, (v) बाजार में नवीन वस्तुएं लाना, आदि।

(9) आर्थिक विकास व आर्थिक प्रगति (Economic Growth and Development)- जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, विकास से आशय देश की अर्थव्यवस्था में संख्यात्मक वृद्धि से है जैसे जनसंख्या में वृद्धि हो जाने से मांग व उत्पादन का बढ़ जाना। इसके अतिरिक्त, आर्थिक प्रगति में देश की अर्थव्यवस्था में गुणात्मक वृद्धि को सम्मिलित किया जाता है। शुम्पीटर ने दो प्रकार की अर्थव्यवस्थाएं बताई हैं-एक स्थिर अर्थव्यवस्था, जिसमें मांग, पूर्ति, रोजगार, आदि स्थिर अवस्था में रहते हैं तथा देश की अर्थव्यवस्था, सदैव साम्य की स्थिति रहती है। गतिशील अर्थव्यवस्था में परिवर्तन धीरे-धीरे होते हैं, जो क्रान्तिकारी परिवर्तनों से ही सम्भव हो पाता है।

शुम्पीटर के विकास मॉडल का बेंजामिन हिगिन्स द्वारा प्रस्तुत

समीकरणों की सहायता से स्पष्टीकरण

साध्य ! : उत्पादन फलन

शुम्पीटर द्वारा प्रस्तुत उत्पादन फलन कार्ल मार्क्स तथा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत उत्पादन फलन से बिल्कुल मिलता-जुलता ही है जो कि इस प्रकार से है :

O = (L, K,Q, T) ...(1)

साध्य 2 : बचतें मजदूरी, लाभ तथा ब्याज की दर पर निर्भर करती शुम्पीटर का बचतों से तात्पर्य भावी उपभोग अथवा विनियोजन के लिए बचतों को बढ़ाना है। अतः श्रमिकों तथा पूंजीपतियों की जैसे-जैसे आय बढ़ेगी वे और अधिक मात्रा में बचतें कर सकेंगे। शुम्पीटर ने नव-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की भांति यह भी स्वीकार किया है कि बचतें, ब्याज की दरों से भी सम्बन्धित हैं। एक दी हुई मजदूरी दर तथा लाभ दर पर, व्याज की मात्रा बढ़ने के उपरान्त बचतें बढ़ेगी। अतः द्वितीय समीकरण उन्होंने इस प्रकार प्रस्तुत किया है :

S = S (W,R,r) ...(2)

S = वचतें; W = मजदूरियां; R = लाभ; r= ब्याज की दर।

साध्य 3 : कुल विनियोजन प्रेरित विनियोजन (Induced Investment) तथा आत्मशासित (Autonomous) विनियोजन में विभाजित किया जा सकता है

शुम्पीटर के अनुसार प्रेरित विनियोजन वह विनियोजन है जो उत्पादन, आय, विक्री अथवा लाभ में परिवर्तन में हुए परिवर्तन से प्रभावित है। इसे उन्होंने (Ii) से बताया है। इसके विपरीत आत्मशासित विनियोजन (Autonomous) वह विनियोजन है जो दीर्घकालीन तत्वों से प्रभावित होता है, जैसे यान्त्रिक परिवर्तन इत्यादि। इसको शुम्पीटर IA से इंगित करते हैं। शुम्पीटर के अनुसार कुल विनियोजन, प्रेरित विनियोजन तथा आत्मशासित विनियोजन दोनों से मिलकर बनता है। अतः उनका तीसरा समीकरण इस प्रकार है:

I = Ii + IA ...(3)

साध्य 4: प्रेरित विनियोजन लाभ के स्तर तथा व्याज दर पर निर्भर करता है

शुम्पीटर ने इस क्षेत्र में भी नव-प्रतिष्ठित विचारधारा को स्वीकार किया है। वर्तमान लाभ बढ़ने की स्थिति में प्रेरित विनियोजन बढ़ता है और ब्याज दर बढ़ने पर घटता है। अतः लाभ तथा ब्याज दर में अन्तर प्रेरित विनियोजन के निर्धारण में एक मूलभूत तत्त्व है। कुछ भी हो, यदि पहले ही काफी पूंजी का संचय हो चुका है तो ऐसी स्थिति में ब्याज के ऊपर लाभ काफी होना चाहिए जिससे विनियोजन अधिक होगा। अतः चौथा समीकरण उन्होंने निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया है :

Ii = (R,r,Q) ……(4)

`\frac{\delta I_i}{\delta R}>0\frac{\delta I_i}{\ r}<0\frac{\delta I_i}{\delta Q}<0`

साध्य 5 : आत्मशासित विनियोजन साधन खोज तथा तकनीकी प्रगति पर निर्भर करता है

शुम्पीटर के अनुसार आत्मशासित विनियोजन नवप्रवर्तनों द्वारा विशेष रूप से प्रभावित होता है। नवप्रवर्तन, साधनों की खोज, यान्त्रिक प्रगति, आदि अनेक क्षेत्रों में हो सकते हैं, किन्तु नव-प्रवर्तन से उनका तात्पर्य विशेष रूप से उत्पादन फलन में ऐसे परिवर्तनों से है जिनके कारण उत्पादन में आशातीत वृद्धि होती है।

पांचवें समीकरण में (K) समय में तथा (T) का प्रयोग `\frac{dT}{dt}`समय में यान्त्रिक प्रगति को दर्शाने हेतु किया गया है। समीकरण इस प्रकार से

IA x 1a (K,T) …...(5)

साध्य 6 तथा 7 : यान्त्रिक प्रगति तथा साधन खोज की दर (नवप्रवर्तन) साहसियों की पूर्ति पर निर्भर करते हैं

पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत आर्थिक विकास में साहसियों के महत्वपूर्ण योगदान को शुम्पीटर ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। शुम्पीटर के अनुसार साहसी वह व्यक्ति है जो सदा नई प्रविधि, नई वस्तुओं, कौशल एवं वैज्ञानिक संगठन को लाने के उचित अवसरों की तलाश में रहता है तथा साधन खोज के लिए भी प्रयलशील रहता है। यह नवीन उपक्रमों को संचालित करने के लिए, द्रव्य, उत्पत्ति के साधनों, आदि को एकत्रित करता है, मैनेजरों का चुनाव करता है तथा उपक्रम को संचालित करता है। यहां यह भी स्पष्ट है कि साहसी का पूंजीपति, अन्वेषक इत्यादि होना आवश्यक नहीं है। निम्न समीकरणों में (E) का प्रयोग साहसियों की पूर्ति में वृद्धि `\frac{dE}{dt}`के लिए किया गया है:

T= (TE) ...(6)

KK (= E) …..(7)

बेंजामिन हिगिन्स ने लिखा है कि साहसियों की पूर्ति की गणना करना कठिन कार्य है, किन्तु शुम्पीटर के विकास मॉडल में साहसियों की पूर्ति विकास दर का एक महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व है। इसलिए इसे एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करना अनिवार्य हो जाता है।

साध्य 8 : साहसियों की पूर्ति लाभ दर तथा सामाजिक जलवायु पर निर्भर करती है

सामाजिक जलवायु से शुम्पीटर का तात्पर्य उन समस्त जटिल सामाजिक-राजनीतिक, सामाजिक-मनोवैज्ञानिक वातावरण से है जिसके अन्तर्गत एक साहसी कार्य करता है। इसमें एक देश की एक दिए हुए समय पर सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक संरचना, शिक्षा यवस्था, आदि भी सम्मिलित हैं। इसके अन्तर्गत कुछ अन्य सम्बन्धित विषय भी आ सकते हैं जैसे समाज में साहसियों की स्थिति,प्राप्त सम्मान तथा लाभ के अतिरिक्त उन्हें प्राप्त होने वाली अन्य सुविधाएं, इत्यादि। अतः इस बात में कोई सन्देह नहीं कि सम्भावित लाभ के अतिरिक्त इन तत्वों पर भी साहसियों की पूर्ति निर्भर करती है। x चिह्न का प्रयोग सम्पूर्ण जलवायु के लिए किए जाने पर सम्पूर्ण समाज के साहस सम्बन्धी साधनों का निर्धारण इस प्रकार होगा :

E = E(R, x) ...(8)

साध्य 9 : सकल राष्ट्रीय उत्पादन, बचत और विनियोजन तथा सुपर गुणांक (Super multiplier) के सम्बन्ध पर निर्भर करता है

शुम्पीटर द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि स्वैच्छिक बचतों की तुलना में विनियोजन की अधिकता (जो साख सृजन द्वारा हो सकती है) सकल राष्ट्रीय उत्पादन को द्रव्य रूप में बढ़ाएगी। इसी प्रकार यदि स्वैच्छिक बचतें विनियोजन की तुलना में बढ़ जाती हैं तो सकल राष्ट्रीय उत्पादन की मात्रा घटेगी। राष्ट्रीय उत्पादन की मात्रा में वृद्धि के क्षेत्र में गुणांक अथवा सुपर गुणांक का क्या महत्व है इससे भी हम अवगत हैं, अतः

0 = K (I-S) …..(9)

साध्य 10 : मजदूरी बिल विनियोजन के स्तर पर निर्भर करता है

शुम्पीटर ने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों तथा काल मार्क्स की भांति मजदूरी बिल को विनियोजन की मात्रा से सम्बन्धित किया है अर्थात् विनियोजन की मात्रा में वृद्धि के साथ-साथ मजदूरियां भी बढ़ती हैं। अतः

W=W (I) ...(10)

साध्य 11 : आय के वितरण से सामाजिक जलवायु प्रभावित होती है

आय के वितरण की स्थिति को शुम्पीटर ने 'सामाजिक जलवायु' के मापक के रूप में प्रयोग किया है। इस पर लाभों की मात्रा में किन्हीं कारणों से कमी, जैसे श्रम संघों का अत्यधिक शक्तिशाली हो जाना, प्रगतिशील आय कर, सामाजिक कल्याणात्मक कार्यक्रम, सरकारी हस्तक्षेप आदि अनेक बातों का प्रभाव पड़ता है। इन तत्वों के प्रतिकूल होने की स्थिति में सामाजिक 'जलवायु' पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। कुछ भी हो, लाभ और मजदूरी का अनुपात सामाजिक जलवायु की स्थिति को स्पष्ट करता है। अतः

x = x (R/w) …..(11)

साध्य 12 : सकल राष्ट्रीय उत्पादन लाभ और मजदूरी का योग है

O = R+W  ...(12)

O = उत्पादन या सकल राष्ट्रीय उत्पादन; R = लाभ; W = मजदूरी बिल।

पूंजीवाद के विनाश की प्रक्रिया (PROCESS OF END OF CAPITALISM)

कार्ल मार्क्स की ही भांति शुप्पीटर भी इस धारणा के समर्थक थेकि पूंजीवाद का अन्त सुनिश्चित है। पूंजीवाद की आर्थिक सफलता का परिणाम अन्त में इसकी तबाही होगा। अन्य शब्दों में, पूंजीवादी व्यवस्था अपने विनाश की दशाएं स्वयं उत्पन्न करती है। पूंजीवाद के बारे में शुम्पीटर ने लिखा है कि "पूंजीवाद ने हमें उत्पादन की नवीन तकनीकें प्रदान की, नई वस्तुएं दीं, नया सामाजिक तथा औद्योगिक संगठन प्रदान किया और इस प्रकार नई संस्कृति एवं सभ्यता प्रदान की, परन्तु पूंजीवाद के इस गुणगान का यह कदापि अर्थ नहीं है कि मैं चाहता हूं कि पूंजीवाद पद्धति को रहने दिया जाए। यह पद्धति मानव जाति के कन्धों से गरीबी का बोझ दूर नहीं कर सकती।'

पूंजीवाद के भविष्य पर अपना मत व्यक्त करते हुए शुम्पीटर ने लिखा है कि "क्या पूंजीवाद बचा रह सकेगा? नहीं, मैं समझता हूं कि वह नहीं पाएगा।" पूंजीवाद का पतन कैसे और क्यों कर? इस सम्बन्ध में शुम्पीटर का कथन है कि पूंजीवाद का नाश आकस्मिक रूप से नहीं बल्कि धीरे-धीरे होता है। पूंजीवाद की सफलता ही उसके पतन के लिए उत्तरदायी है। पूंजीवादी व्यवस्था में स्वयं के विनाश के बीज विद्यमान रहते हैं, जो न केवल पूंजीवाद का अन्त करते हैं बल्कि समाजवादी सभ्यता के अभ्युदय की दशाएं भी उत्पन्न करते हैं। अधिक स्पष्ट शब्दों में, पूंजीवाद किसी भी प्रकार की आर्थिक बाधाओं के कारण समाप्त नहीं होता बल्कि 'संस्थानिक कमियां ही उसकी पहल के लिए उत्तरदायी होती हैं। संस्थानिक ढांचा जो कि पूंजीवाद का ‘रक्षा कवच' है, पूंजीवाद की अपार सफलता से ही विघटित होकर उसे पतन की ओर ले जाता है।

शुम्पीटर ने पूंजीवाद के पतन के लिए तीन प्रमुख कारकों को उत्तरदायी बताया है :

1. उद्यमीय कार्य का हास- शुम्पीटर के अनुसार, पूंजीवाद स्वयं को तभी तक अस्तित्व में बनाए रख सकता है, जब तक उद्यमी शूरवीरों तथा नेताओं की भांति डटे रहते हैं। पूंजीवाद की प्रारम्भिक अवस्थाओं में, प्रेरक शक्ति उद्यमियों से प्राप्त हुई थी, जिन्होंने नवप्रवर्तन, प्रयोग तथा विस्तार करने का साहस किया था, परन्तु उद्यमियों द्वारा किया जाने वाला नवप्रवर्तन अब 'सामान्य परिपाटी' का रूप ले चुका है। प्रौद्योगिकी प्रगति प्रशिक्षित विशेषज्ञों के समूह का व्यापार बन चुकी है। फलतः साहसी तथा समस्त बुर्जुआ (Bourgeois) वर्ग, जिसका अस्तित्व साहसिक कार्यों पर निर्भर करता है, अपना सामाजिक महत्व उसी प्रकार खो बैठता है जिस तरह शान्ति काल में सेना का जनरल' महत्वहीन हो जाता है। शुम्पीटर के शब्दों में, “उद्यमियों के लिए कुछ भी करने को नहीं रह जाता..... ...लाभ गिरने लगता है, ब्याज शून्य हो जाता है...........उद्योग और व्यापार का प्रबन्ध एक सामान्य प्रशासन का रूप ले लेता है और प्रबन्धक अन्ततोगत्वा नौकरशाह का रूप धारण कर लेते हैं।"

2. बुर्जुआ परिवार का बिखराव- धीरे धीरे बुर्जुआ परिवार में बिखराव उत्पन्न होने लगता है। विवेकीकरण पारिवारिक जीवन में भी दिखाई देने लगता है। माता पिता बच्चों के प्रति अपने व्यवहार में तर्कशील प्रवृत्ति अपनाने लगते हैं। धन संचय की लालसा धीरे-धीरे घटने लगती है। 'निजी साम्राज्य' स्थापित करने की आकांक्षा समाप्त होने लगती है और इसी के साथ पूंजीवादी समाज का अस्तित्व भी समाप्त होने की ओर अग्रसर होने लगता है।

3. पूंजीवादी समाज के संस्थानिक ढांचे का विघटन- पूंजीवादी व्यवस्था पर एक अन्य आधात उसके संस्थागत ढांचे के विघटन के रूप में होता है जिसका श्रेय भी उद्यमी को ही है। बड़ी व्यापार संस्थाओं में संकेन्द्रण की प्रवृत्ति तथा विशाल उत्पादन इकाइयों की स्थापना की लालसा 'निजी सम्पत्ति' तथा 'ठेके की स्वतन्त्रता' को, जो कि पूंजीवाद की दो प्रमुख संस्थाएं हैं, नष्ट कर देती है। इन बड़ी व्यापार संस्थाओं में मालिकों का काम प्रबन्धक करने लगते हैं और मालिक निष्क्रिय बना दिए जाते हैं। शुम्पीटर के अनुसार, “अभौतिक, निष्क्रिय और अनुपस्थित स्वामित्व न तो लोगों को प्रभावित ही करता है और न ही नैतिक निष्ठा उत्पन्न कर पाता है जैसा कि सम्पत्ति के ठोस व प्रत्यक्ष स्वामित्व द्वारा किया जाता है।"

शुम्पीटर का कथन है कि पूंजीवाद की मौत का घण्टा बजाने के लिए उपरोक्त शक्तियां ही पर्याप्त नहीं हैं। बुद्धिजीवियों का सक्रिय विरोध ही उसे अन्तिम परिणति तक पहुंचाता है। बुद्धिजीवी जन साधारण के मन में पूंजीवादी व्यवस्था के सामाजिक तथा राजनीतिक ढांचे के विरुद्ध असन्तोष तथा सन्देह के बीच बोते हैं। नौकरी पेशा, मजदूर वर्गों को भड़काकर वे पूंजीवाद विरोधी राजनीतिक सुधार करा लेते हैं। राजनीति के खिलाड़ी सत्ता प्राप्त करने के लिए मजदूर वर्गों को हड़ताल तथा तालाबन्दी, आदि के लिए प्रेरित करते हैं। पूंजीवाद का किला रक्षाविहीन हो जाता है। यद्यपि पूंजीपति अपने आलोचकों को धन से खरीदने की कोशिश करते हैं, पर सभी को खरीद नहीं पाते। श्रम आन्दोलन जोर पकड़ता है, राजनैतिक व सामाजिक ढांचे के विरुद्ध असन्तोष के अंकुर फूटने लगते हैं। परिणामस्वरूप वह संस्थानिक ढांचा टूटने लगता है जिस पर पूंजीवाद स्थित है और व्यवस्था समाजवाद की ओर धीरे-धीरे प्रगति करती है। अन्ततः पूंजीवाद बिना शोर शराबे के विनष्ट हो जाता है।

शुम्पीटर मॉडल एवं प्रतिष्ठित मॉडल में भिन्नता

1. आर्थिक विकास के प्रतिष्ठित मॉडल में निवेश हेतु चालू आय में से बचंत करने की बात कही गई है जबकि शुम्पीटर ने निवेश हेतु बैंक साख को अधिक महत्व प्रदान किया है।

2. प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की धारणा थी कि विकास की प्रक्रिया समरूप तथा क्रमिक होती है जबकि शुम्पीटर का विचार था कि आर्थिक विकास चक्रीय प्रवाह में आकस्मिक एवं असतत परिवर्तनों का परिणाम है।

3. प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री पूंजीवादी व्यवस्था के सम्बन्ध में आशावादी दृष्टिकोण रखते थे जबकि शुम्पीटर ने पूंजीवाद के अनिवार्य विघटन एवं समाजवाद के अभ्युदय की परिकल्पना की थी।

4. प्रतिष्ठित विचारधारा के विपरीत शुम्पीटर ने भी कार्ल मार्क्स की ही भांति वर्ग संघर्ष को स्वीकृति प्रदान की है।

शुम्पीटर एवं कार्ल मार्क्स के विचारों में अन्तर

(1) कार्ल मार्क्स के विपरीत शुम्पीटर ने पूंजीवाद के पतन के लिए जिन तीन कारणों को उत्तरदायी बताया है, वे हैं-(i) नवप्रवर्तन अथवा उद्यमियों के कार्यों का महत्व समाप्त अथवा कालातीत होना। (ii) पूंजीवादी समाज के संस्थानिक ढांचे की समाप्ति तथा (iii) बुद्धिजीवी वर्ग के विरोध के फलस्वरूप राजनीतिक ढांचे का विघटन।

(2) शुम्पीटर ने अपने सिद्धान्त में नव-प्रवर्तन एवं साहसी को महत्व प्रदान किया है जबकि कार्ल मार्क्स को दर्शन में श्रम को केट बिन्दु माना गया है।

(3) कार्लमार्क्स के विपरीत शुम्पीटर ने विकास प्रक्रिया को समरूप न मानकर एक असतत परिवर्तन माना है जो पूर्व स्थापित साम की स्थिति को सदा के लिए परिवर्तित कर देता है।

सिद्धान्त की आलोचनाएं (CRITICISMS OF THE THEORY)

मायर तथा बाल्डविन के अनुसार, 'शुम्पीटर के सिद्धान्त को एक ऐसा प्रमुख कार्य कहना उचित होगा जिसे स्मिथ, रिकार्डो, मिल, मार्स. मार्शल तथा केन्स जैसे अर्थशास्त्रियों के योग्य तथा समकक्ष माना जा सकता है।'' फिर भी शुम्पीटर के आर्थिक विकास सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनाएं अग्रलिखित हैं :

(1) आर्थिक प्रगति समस्त समाज के सामूहिक प्रयत्नों (Collec- tive efforts) से होती है, केवल नव-प्रवर्तन द्वारा ही नहीं। शुम्पीटर के सिद्धान्त के अनुसार नव-प्रवर्तन ही प्रमुखतः आर्थिक विकास एवं व्यापार चक्र के कारण होते हैं। यह बात पूर्णतया सत्य नहीं है।

(2) शुम्पीटर के अनुसार नव प्रवर्तनों से उत्पन्न आर्थिक विकास चक्रीय प्रक्रिया के रूप में होता है, उचित नहीं है।

(3) नव प्रवर्तन को ही व्यापार-चक्र का कारण मानना उचित नहीं है। चक्रीय उच्चावचन मनोवैज्ञानिक, प्राकृतिक तथा वित्तीय आदि कारणों से भी होते हैं।

(4) शुम्पीटर ने वित्त व्यवस्था के लिए बैंक ऋणों को ही महत्व प्रदान किया है जबकि ऋणपत्रों तथा शेयरों को बेचकर भी पूंजी प्राप्त की जा सकती है।

(5) शुम्पीटर का पूंजीवाद से समाजवाद की ओर जाने का विश्लेषण वास्तविक नहीं है।।

(6) आर्थिक विकास के लिए नव-प्रवर्तन को ही प्राथमिक रूप से जिम्मेदार नहीं माना जा सकता।

(7) नव-प्रवर्तन में अनियमितता क्यों आती है? इसे स्पष्ट नहीं समझाया गया।

(8) शुम्पीटर का यह तर्क कि उद्यमी धीरे-धीरे महत्वहीन हो जाता है और लाभ शून्य होने लगता है, उचित नहीं है।

अन्त में मायर व बाल्डविन (Meier and Baldwin) के शब्दों में, "शुम्पीटर ने जो विकास का वृहत् सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण किया है, उसकी सर्वत्र प्रशंसा की जाती है, परन्तु बहुत कम लोग उसके निष्कर्षों को स्वीकार करने को तैयार हैं। उसका तर्क उत्तेजक हैं, विश्लेषण उद्दीपक है, वह पूर्ण रूप से विश्वसनीय नहीं है। उसका विश्लेषण एकतरफा है तथा कई बातों पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया गया है।

शुम्पीटर के सिद्धान्त का विश्लेषण एवं अल्प-विकसित देश (ANALYSIS OF SCHUMPETER'S THEORY AND UNDER-DEVELOPED COUNTRIES)

जैसा कि स्पष्ट है और जिस तत्व की ओर मेयर तथा बाल्डविन किया है और उसके सिद्धान्त की सर्वत्र प्रशंसा भी की गई है, परन्तु ने भी इंगित किया है, शुम्पीटर ने बड़े अनूठे ढंग से विकास को परिभाषित घ्यावहारिक दृष्टि से बहुत कम लोग ही उसको स्वीकार करने को तैयार हैं। उसके सिद्धान्त का विश्लेषण तर्कपूर्ण होते हुए भी विश्वसनीय नहीं है। उन्होंने कई बातों पर आवश्यकता से अधिक महत्व दिया है।

अर्द-विकसित देशों के सन्दर्भ में उनके सिद्धान्त के परिपालन में निम्न कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं :

(1)उद्यमशीलता तथा साहस का अभाव (Lack of Entrepreneurship) - शुम्पीटर के सिद्धान्त के परिपालन में उद्यमशीलता का अस्तित्व प्रमुखतः महत्ता रखता है। अर्द्ध-विकसित देशों में उद्यमशीलता तथा साहस का अभाव पाया जाता है। साथ ही इन देशों में तकनीकी ज्ञान का भी अभाव बना रहता है। अतएव इन देशों ने इस सिद्धान्त की विशेषताओं और शक्तियों को न तो सही रूप से समझा और परिपालन करने में ही कोई रुचि दिखाई।

(2) उपभोग की ओर अरुचि (Neglect of Consumption)- शुम्पीटर ने अपने मॉडल में लोगों का ध्यान उत्पादन वृद्धि की ओर ही इंगित करना उचित समझा है। यह वृद्धि ही विकास का आधार मानी जाती है। विकास प्रक्रिया की गतिशीलता के लिए उपभोग को पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए। अल्प-विकसित देशों के लिए उपभोग ही उत्पादन का आधार बनता है। अतःशुम्पीटर का सिद्धान्त अल्प-विकसित देशों पर लागू नहीं हो पाता।

(3) बचत का परित्याग (Neglect of Saving)- यह सिद्धान्त यह बात स्पष्टतः स्वीकार करता है कि बैंक-ऋण ही विनियोग का एक प्रमुख आधार है। वास्तविक बचतों के महत्व की उपेक्षा इस सिद्धान्त की मुख्य कमी है। अर्द्ध-विकसित देशों के लिए विकास के साथ-साथ वचत का आशय बड़ा ही महत्वपूर्ण है।

(4) भिन्न सामाजिक- आर्थिक स्थिति (Different Socio- economic order)-शुम्पीटर का सिद्धान्त एक विचित्र सामाजिक- आर्थिक स्थिति की परिकल्पना को लेकर चलता है। यह व्यवस्था उनके सिद्धान्त के प्रतिपादन के समय अमरीका तथा पश्चिमी जर्मनी में उस समय विद्यमान थी। अर्द्ध-विकसित देशों में से परिस्थितियां नहीं मिलती और न शीघ्र ही उत्पन्न होने की सम्भावनाएं ही हो सकती हैं। इस कारण यह सिद्धान्त उन देशों के लिए लागू नहीं हो सकता।

(5) नव-प्रवर्तन की सम्भावनाएं (Possibilities of Innova- lions)- अर्द्ध-विकसित देशों में नव-प्रवर्तन (innovations) केवल विकसित देशों के प्रवर्तनों का अपनाना मात्र है। ये पिछड़ी अर्थ-व्यवस्थाएं नव प्रवर्तनों को विकसित करने की क्षमता नहीं रखती हैं। इन देशों के साहसी स्वयं नई स्थितियां उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं रखते हैं। अतः अर्द्ध-विकसित देशों के लिए इस सिद्धान्त का परिपालन अत्यन्त ही

(6) बाहरी प्रभावों की अवहेलना (Neglects External Ef- fects)- शुम्पीटर के अनुसार विकास उन परिवर्तनों का परिणाम है, कठिन होता है। जो अर्थव्यवस्था के अपने भीतर से उत्पन्न होते हैं। शुम्पीटर का सिद्धान्त केवल देश के अन्दर होने वाले परिवर्तनों का आश्रय लेकर चलने वाला है। बाहरी परिवर्तनों का प्रभाव इस विकास प्रक्रिया में महत्वपूर्ण नहीं माना गया है। अर्द्ध-विकसित देशों में ये परिवर्तन अर्थव्यवस्था के भीतर से ही उत्पन्न नहीं हो सकते, वरन बहुत कुछ बाहर से आयात किए जाते हैं। इन देशों में स्वयं सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिवर्तन लाने की क्षमता नहीं होती है।

(7) समाजवादी राष्ट्रों के लिए अनुपयुक्तता (Not suitable for Socialist Countries)- शुप्पीटर का सिद्धान्त उन अर्द्ध-विकसित देशों के लिए लागू नहीं हो सकता जो नए विचारों के अनुरूप समाजवाद की ओर बढ़ने की इच्छा रखते हैं। उद्यमशीलता में संलग्न व्यक्तियों के लिए विचार प्रेरणा का स्रोत नहीं बन सकता कि उनके लाभ के भाग में कमी आए और अपने साहस के फल को अन्य घटकों में बांटने के लिए उन पर कोई दबाव डाला जाए।

(8) विकास में जनसंख्या वृद्धि के कुप्रभाव की महत्वहीनता (Neglects the Effects of Growth of Population in Develop- ment)- शुम्पीटर यह नहीं सोच पाए कि जनसंख्या की वृद्धि का विकास की गति पर कुप्रभाव पड़ता है। वास्तव में, जनसंख्या की वृद्धि की दर ऊंची होने से अर्थव्यवस्था में विकास की गति मन्द हो जाती है और भौतिक साधनों के नए स्रोत इस गति को तीव्र कर देते हैं।

(9) जनसंख्या तथा धन वृद्धि के अभावों की अवहेलना (Neglect the Effects of Growth of Population and Wealth)- शुम्पीटर देश के आर्थिक विकास पर जनसंख्या तथा धन को वृद्धि के प्रभाव को आंकने में असफल रहा। जनसंख्या वृद्धि की ऊंची दर विकासशील वृद्धि दर को घटा देती है, जबकि प्राकृतिक साधनों के नवीन स्रोतों की खोज या उनका अच्छा प्रयोग विकास की गति को बढ़ा देता है।

(10) स्फीतिकारी शक्तियों का सन्तोषजनक विवेचन (Unsatis- factory Explanation Inflationary Forces)- शुम्पीटर की पद्धति में स्फीतिकारी प्रेरणाएं विकास प्रक्रिया का अभिन्न अंग होती हैं, परन्तु इसमें दीर्घकालीन स्फीति को सम्मिलित नहीं किया जाता है। दीर्घकालीन मूल्य स्तर प्रायः स्थिर रहता है, परन्तु अल्प-विकसित अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारक शक्तियां बहुत प्रबल होती हैं। विकास एवं विनियोग के अतिरिक्त भागअनुस्थापित अर्थव्यवस्थाकासमस्त सामाजिक वातावरण ही स्फीतिकारी प्रवृत्तियों के लिए जिम्मेदार माना जाता है।

निष्कर्ष

शुम्पीटर का सिद्धान्त आर्थिक विकास के मुख्य साधन के रूप में स्फीतिकारी वित्त एवं नव-प्रवर्तनों के महत्व को रेखांकित करता है। स्फीतिकारक वित्त व्यवस्था उन शक्तिशाली ढंगों में से एक मानी जाती है जिसे प्रत्येक अल्प-विकसित देश किसी-न-किसी समय अपनाने का अवश्य प्रयास करता है। नव प्रवर्तनों से एक ओर उत्पादकता व दूसरी ओर रोजगार में वृद्धि होती है। यद्यपि यह पाश्चात्य पूंजीवाद की समस्याओं से सम्बन्ध रखता है, फिर भी "जब एक बार औद्योगीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाए तो यह निश्चित रूप से उन समस्याओं की ओर संकेत दे सकता है; जो अल्प-विकसित देशों में उठती है और यह भी सिखा सकता है कि व्यर्थ तथा अतिरिक्त कठिनाइयों से कैसे बचा जाए, जो आयोजनाओं तथा असमन्वित विकास में रहती हैं।"

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