आर्थिक विकास का प्रतिष्ठित सिद्धान्त (The Classical Theory of Economic Development)

आर्थिक विकास का प्रतिष्ठित सिद्धान्त (The Classical Theory of Economic Development)

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के आर्थिक विचारों को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है:

(1) स्वतन्त्र व्यापार अथवा अबन्ध नीति–प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री स्वतन्त्र व्यापार और अबन्ध नीति के समर्थक थे। उनकी धारणा थी कि अदृश्य हाथ' राष्ट्रीय आय को अधिकतम बनाता है। अतः आर्थिक उत्प्रेरणाओं के लिए आर्थिक मामलों में पूर्ण स्वतन्त्रता आवश्यक है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार, पूर्ण प्रतियोगिता, उत्पादन एवं उपभोग की स्वतन्त्रता तथा निजी सम्पत्ति का अस्तित्व आर्थिक विकास के लिए उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। उनका विचार था कि राज्य का हस्तक्षेप केवल सार्वजनिक निर्माण कार्यों, शिक्षा, शान्ति व्यवस्था तथा आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा तक ही सीमित रहना चाहिए।

(2) विकास एवं संचयी प्रक्रिया-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार, विकास एवं संचयी प्रक्रिया है। एक बार प्रारम्भ होने पर अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव संचयी रूप से पड़ता है।

(3) पूंजी-संचय आर्थिक विकास का आधार–प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री पूंजी-संचय को आर्थिक विकास की कुंजी मानते थे। इसके लिए वे अधिक बचत करने पर जोर देते थे। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री इस बात को स्वीकार करते थे कि केवल देश के पूंजीपति तथा भूमिपति ही पूंजी-निर्माण में सहायक हो सकते हैं। बचत से पूंजी-संचय होता है। अतः केवल यह वर्ग ही बचत करने की क्षमता रखता है। श्रमिक वर्ग बचत करने में असमर्थ होता है और इस प्रकार पूंजी-निर्माण में सहायक नहीं हो सकता है। उनके विचार से पूंजी ही विकास का इंजन' (Engine of growth) है। पूंजी-निर्माण ही विकास की प्रगति तथा तकनीकी ज्ञान की वृद्धि में सहायक हो सकता है।

(4) लाभ पूंजी-निवेश का प्रेरणा स्रोत–प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार लाभ तथा लाभ की आकांक्षा से ही विनियोजन के लिए पूंजी आगे आती है। लाभ-वृद्धि के अवसर देने से ही पूंजी संचय सम्भव हो सकता है। यह सही है कि लाभ की मात्रा जितनी अधिक होगी, उतनी ही पूंजी विनियोजन के लिए उपलब्ध हो सकेगी।

(5) मजदूरी-स्तर कम रखने पर बल-इन अर्थशास्त्रियों का विचार था कि यदि अधिक लाभ की स्थिति लानी है तो मजदूरी की दर कम होनी चाहिए। उनका विचार था कि मजदूरों की संख्या में वृद्धि भी कम होनी चाहिए अन्यथा इसका भी लाभ पर कुप्रभाव पड़ेगा। इन अर्थशास्त्रियों का विश्वास था कि “मजदूरों को जीवन-निर्वाह-सिद्धान्त" के आधार  पर मजदूरी दी जानी चाहिए। उनका विचार था कि वास्तविक मजदूरी सदैव जीवन निर्वाह के स्तर के बराबर रह सकती है, इससे अधिक नहीं हो सकती।

(6) लाभ के घटने की प्रवृत्ति-लाभ की प्रवृत्ति लगातार बढ़ने की नहीं होती, क्योंकि पूंजीपतियों के बीच जब अधिक पूंजी संचय हेतु प्रतियोगिता बढ़ती है तो लाभ घटने लग जाते हैं। स्मिथ के अनुसार, इसका कारण पूंजीपतियों में प्रतिस्पर्धा होने से मजदूरी दर का बढ़ना है, जबकि रिकॉर्डों के अनुसार अनाज की कीमत बढ़ने से मजदूरी तथा लगान बढ़ने लगते हैं जिससे लाभ कम हो जाते हैं।

(7) पूर्ण रोजगार की कल्पना- प्रतिष्ठित सिद्धान्त इस धारणा पर आधारित था कि यदि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न किया जाए और कीमत प्रणाली को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने दिया जाए तो श्रम सहित उत्पादन के सभी साधन पूर्ण सेवानियुक्त होते हैं। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री पूर्ण रोजगार के स्तर पर अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन सन्तुलन को सामान्य स्थिति मानते थे। इस तरह, प्रतिष्ठित विचारधारा में पूर्ण रोजगार एक स्वयं सिद्ध स्थिति थी। अतः इन अर्थशास्त्रियों ने रोजगार की समस्या को कोई महत्व नहीं प्रदान किया। उनके अनुसार अल्पकाल में बेरोजगारी उत्पन्न भी होती है तो उसका प्रतिकार करने के लिए अर्थव्यवस्था में शक्तियां क्रियाशील हो जाती हैं और बेरोजगारी की स्थिति समाप्त हो जाती है। उल्लेखनीय है कि प्रतिष्ठित पूर्ण रोजगार युक्त समाज में घर्षणात्मक, सामाजिक तथा ऐच्छिक बेरोजगारी विद्यमान रह सकती है। उनके अनुसार अनैच्छिक बेरोजगारी की स्थिति ही पूर्ण रोजगार दशा का द्योतक है।

(8) भौतिक उत्पादन में वृद्धि ही विकास का प्रतीक-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री यह विचार रखते थे कि देश में एकभौतिक उत्पादन की वृद्धि विकास की सूचक होती है। उत्पादन वृद्धि से ही राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। यह उत्पादन भूमि, पूंजी, श्रम व साहस के फलस्वरूप बढ़ता है।

(9) स्थिर अवस्था-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री पूंजी संचय की प्रक्रिया के अन्त में स्थिर अवस्था की परिकल्पना करते हैं। जब लाभ एक बार घटना प्रारम्भ होता है तो वह क्रम निरन्तर चलता ही रहता है, जब तक कि अर्थव्यवस्था में लाभ शून्य नहीं हो जाते. जनसंख्या में वृद्धि रुक नहीं जाती, पूंजी संचय बन्द नहीं हो जाता और मजदूरी दर निर्वाह-स्तर पर पहुंच नहीं जाती। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की धारणा थी कि यह स्थिर अवस्था समृद्धि की अवस्था होती है जिसमें पूर्ण रोजगार का अस्तित्व बना रहता है।

प्रतिष्ठित विकास मॉडल को चित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता:

चित्र 1 में समय क्षैतिज अक्ष पर प्रदर्शित है जबकि पूंजी-संचय की दर dk/dt को अनुलम्ब अक्ष पर प्रदर्शित किया गया है। अर्थव्यवस्था T समय अवधि में K से S तक बढ़ती है। S बिन्दु के बाद अर्थव्यवस्था 'हास-वृद्धि रहित अवस्था' अर्थात् स्थिरता की अवस्था की ओर गति करती है, इससे और आगे वृद्धि सम्भव नहीं है, क्योंकि लगान इतना बढ़ जाता है कि लाभ शून्य हो जाता है और पूंजी संचय अवरुद्ध हो जाता है।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के विकास मॉडल को प्रो. बेंजामिन हिगिन्स (Higgins) ने निम्न समीकरणों की सहायता से स्पष्ट किया

समीकरण 1 : उत्पादन फलन-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार उत्पादन भूमि, श्रम, पूंजी के प्रयोग के अनुपात और तकनीकी ज्ञान तथा इनके प्रयोग पर निर्भर करता है जिसे उन्होंने फलन के रूप में इस प्रकार व्यक्त किया :

O=f (L, K,Q,T) ........(1)

यहां, 0 = कुल उत्पादन; f = फलन; L = श्रम शक्ति की मात्रा; K = उपलब्ध भूमि की मात्रा; Q = पूंजी की मात्रा; T = प्रयुक्त तकनीक का स्तर।

समीकरण 2 : पूंजी संचय प्राविधिक प्रगति को बढ़ाता है- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की धारणा थी कि पूंजी संचय में वृद्धि के साथ-साथ प्राविधिक प्रगति का स्तर भी क्रमशः बढ़ता है। उनके अनुसार पूंजी संचय तथा प्राविधिक प्रगति परस्पर सम्बन्धित हैं और इस सम्बन्ध को उन्होंने इस प्रकार प्रस्तुत किया है :

T = T (I) ..........(2)

यहां, T = प्राविधिक प्रगति तथा I = विनियोजन की मात्रा।

इसका तात्पर्य यह है कि उनका यह विश्वास था कि नवीन प्रविधियों का अपनाया जाना विनियोजन की मात्रा पर निर्भर करता है।

समीकरण 3: विनियोजन लाभ की मात्रा पर निर्भर करता है-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विश्वास था कि पूंजीपति लाभ प्राप्ति के उद्देश्य से ही विनियोजन करते हैं। विनियोजन से उनका तात्पर्य पूंजी में वास्तविक अथवा शुद्ध वृद्धि से था जिसे इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है:

I = dQ = I (R) .........(3)

यहां, I = विनियोजन; dQ = पूंजी की मात्रा में शुद्ध वृद्धि; R= स्थिर उत्पत्ति के साधनों (भूमि और पूंजी) से प्राप्त लाभ को दर्शा रहा है।

समीकरण 4 : लाभ श्रम, पूर्ति और प्राविधिक स्तर पर निर्भर करते हैं इस सम्बन्ध को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है :

R=R (T,L) ..........(4)

यहां, R = लाभ की मात्रा; T = अपनाई गई तकनीक का स्तर, L= श्रम पूर्ति की मात्रा।

समीकरण 5 : श्रम पूर्ति की मात्रा कुल मजदूरी कोष पर निर्भर करती है—इस सम्बन्ध को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है :

L=L(W) ............(5)

यहां, L = श्रम पूर्ति की मात्रा; W = मजदूरी कोष ।

समीकरण 6 : मजदूरी कोष विनियोजन की मात्रा पर निर्भर करता है-इस सम्बन्ध को उन्होंने निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया है :

W = W(I). .......(6)

यहां, W = मजदूरी कोष, I = विनियोजन की मात्रा।

समीकरण 7 : कुल उत्पादन, लाभ तथा मजदूरी के योग के बराबर होता है अर्थात्

0 = R+W .......(7)

यहां, 0 = कुल उत्पादन; R = लाभ की मात्रा; W = मजदूरी कोष।

समीकरण 8 : दीर्घकालीन सन्तुलन से सम्बन्धित एक और समीकरण प्रस्तुत किया जा सकता है जो इस प्रकार है :

W=wL    ....(8)

यहां, W = मजदूरी कोष; w = मजदूरी दर, जो कि यथास्थिर है; L = श्रम पूर्ति की मात्रा।

इस प्रकार विकास क्रम को हम निम्नलिखित रूप में भी प्रस्तुत कर सकते हैं :

लाभ में वृद्धि → विनियोजन में वृद्धि → पूंजी की मात्रा में वृद्धि → प्राविधिक स्तर में सुधार →पूंजी संचय में वृद्धि के फलस्वरूप मजदूरी → मजदूरी में वृद्धि → श्रम शक्ति की पूर्ति में वृद्धि →उत्पत्ति हास नियम की क्रियाशीलता → लागत में वृद्धि → लाभ में कमी →स्थिरता की अवस्था

इस तरह, प्रतिष्ठित मॉडल में पूंजीवादी विकास का अन्तिम परिणाम होता है गतिहीनता लाभों के घटने की स्वाभाविक प्रवृत्ति और फलस्वरूप पूंजी संचय के रुकने से यह गतिहीनता उत्पन्न होती है।

समीक्षात्मक टिप्पणी (A Critical Appraisal)

विकास का सरल एवं सामान्य प्रतिष्ठित मॉडल आलोचनाओं से मुक्त नहीं है। इन्हें निम्न प्रकार से रखा जा सकता है :

(1) अवास्तविक मान्यताएं-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का सिद्धान्त कतिपय अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित है। उन्हें यह भय था कि उत्पादन में सदैव उत्पत्ति हास-नियम लागू होता है। उन्नत तकनीकी ज्ञान वृद्धि के द्वारा होने वाली प्रगति में उन्हें कम विश्वास था कि इससे उत्पादन बढ़ सकता है। जनसंख्या का भय भी उनको चिन्तित किए हुए रहता था।

(2) सार्वजनिक क्षेत्र की उपेक्षा- प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रीअबंधनीति के समर्थक थे तथा सरकारी क्षेत्र को महत्व नहीं देते थे। उनके अनुसार केवल पूंजी-संचय तथा पूर्ण स्पर्धा एवं निजी सम्पत्ति ही आर्थिक विकास में सहायक हो सकती है।

(3) तकनीकी ज्ञान को कम महत्व-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री तकनीकी ज्ञान की वृद्धि से होने वाली प्रगति में कम विश्वास रखते थे। इस मॉडल की कमी यह है कि विकास में तकनीकी ज्ञान अच्छा साधक हो सकता है 'यह नहीं' समझा गया। एडम स्मिथ ने अवश्य इस ज्ञान को महत्व दिया। यह अर्थशास्त्री यह नहीं समझ पाए कि विज्ञान तथा तकनीकी ज्ञान की प्रगति का आर्थिक विकास पर वास्तव में अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

(4) अवास्तविक विचारधारा- यह अर्थशास्त्री एक ऐसी अवास्तविक विचारधारा रखते थे कि विकास धीरे-धीरे अन्ततोगत्वा स्थिर अवस्था की ओर ले जाता है। भूमि पर घटता प्रतिफल कार्य करता है और माल्थस के अनुसार जनसंख्या की वृद्धि आनुपातिक दृष्टि से उत्पादन की मात्रा से तेज गति से होती है। आज के वातावरण में ये धारणाएं तथा सिद्धान्त अवास्तविक एवं अव्यावहारिक सिद्ध हो गए हैं। तकनीकी विकास से भूमि तथा उसके साथी घटकों से उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई है।

(5) मजदूरी व लाभ की भ्रमात्मक धारणाएं-मजदूरी निर्वाह-स्तर पर ही नहीं रही, बल्कि मुद्रा मजदूरी में निरन्तर वृद्धि होती रही, जबकि लाभ की दरों में तदनुरूप कमी नहीं आई और परिपक्व अर्थव्यवस्थाएं स्थिर आर्थिक व्यवस्था तक नहीं पहुंच सकी। पश्चिमी दुनिया के आर्थिक विकास के प्रकाश में रिकार्डो व माल्थस दोनों ही झूठे पैगम्बर समझे गए।

(6) अवास्तविक विकास प्रक्रिया-प्रतिष्ठित मॉडल ने ऐसी स्थैतिक अवस्था का रूप धारण कर लिया जिसमें परिवर्तन तो था, परन्तु एक सन्तुलन बिन्दु के आसपास, जिसमें प्रगति वृक्ष की भांति नियमित एक रूप एवं निरन्तर थी। परन्तु आर्थिक विकास की यह व्याख्या सन्तोषजनक नहीं है।

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