जे० एच० बूके का सामाजिक द्वैतवाद (SOCIAL DUALISM)

जे० एच० बूके का सामाजिक द्वैतवाद (SOCIAL DUALISM)

हॉलैण्ड के अर्थशास्त्री प्रोफेसर जे० एच० बूके ने एक विशिष्ट सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया, जो केवल अल्पविकसित देशों पर लागू होता है। उसका "सामाजिक द्वैतवाद" का सिद्धान्त उनके इण्डोनेशियाई अर्थव्यवस्था के अध्ययनों पर आधारित है। अल्पविकसित देशों के आर्थिक तथा सामाजिक विकास का सामान्य सिद्धान्त है, जो प्रमुख रूप से

अर्थ (Meaning)-डॉ० बूके का कहना है कि आर्थिक दृष्टिकोण से किसी समाज की तीन विशिष्टताएं होती हैं। वे ये हैं : सामाजिक भावना, संगठनात्मक रूप तथा उस पर छाई हुई तकनीक । इनकी परस्पर निर्भरता तथा परस्पर संबंध को सामाजिक प्रणाली या सामाजिक ईन कहते हैं। वह समाज सजातीय होता है जिसमें केवल एक सामाजिक प्रणाली पाई जाती हो। परन्तु किसी समाज में दो या अधिक प्रणालियां एक-साथ विद्यमान हो सकती हैं। तब वह द्वैत या बहु-संख्यक समाज होता है। बूके ने "द्वैत समाज' शब्द "ऐसे समाजों" के लिए आरक्षित किया है, जो 'दो समसामयिक तथा पूर्णतः विकसित सामाजिक प्रणालियों का स्पष्ट भाजन प्रकट करती है, जो (प्रणालियां) सजातीय समाजों के स्वाभाविक, ऐतिहासिक क्रम-विकास में संक्रमणकालीन रूपों द्वारा एक-दूसरी से अलग कर दी जाती हैं, जैसाकि, उदाहरण के लिए, शुरू के पूँजीवाद द्वारा पूर्व-पूँजीवाद तथा उच्च पूँजीवाद।" उन्नत आयातित पश्चिमी प्रणाली तथा स्वदेशीय पूर्व-पूँजीवादी कृषि सम्बन्धी प्रणाली का पाया जाना इस प्रकार के द्वैत समाज की विशिष्टता होती है।

पहली प्रणाली पश्चिमी प्रभाव तथा देखरेख में होती है, जो उन्नत तकनीकों का प्रयोग करती है और जिसमें जीवन का औसत स्तर ऊंचा होता है। दूसरी स्वदेशी होती है जिसमें तकनीकी, आर्थिक तथा सामाजिक कल्याण के स्तर नीचे होते हैं। बूके इसे "सामाजिक द्वैतवाद" कहता है और इसकी परिभाषा यह देता है कि "यह एक आयातित सामाजिक प्रणाली की दूसरी ढंग की स्वदेशीय सामाजिक प्रणाली से भिड़न्त है। प्रायः आयातित सामाजिक प्रणाली उच्च पूँजीवाद होती है। पर यह समाजवाद या साम्यवाद भी हो सकती है या फिर दोनों का मिश्रण भी।"

द्वैतीय समाज की विशिष्टताएं (Characteristics of Dualistic Society)-दो विरोधी सामाजिक प्रणालियों की आर्थिक अन्तः-क्रियाओं के वर्णन तथा स्पष्टीकरण के लिए बूके ने "द्वैतीय समाज" का आर्थिक सिद्धान्त दिया है जिसे वह "द्वतीय अर्थशास्त्र" या "पूर्वीय अर्थशास्त्र" की संज्ञा देता है। उसका सिद्धान्त अधिकतर इण्डोनेशियाई अनुभव पर आधारित द्वितीय अर्थव्यवस्था के पूर्वीय क्षेत्र की कुछ विशिष्टताएं हैं, जो उसे पश्चिमी समाज से पृथक करती हैं। पूर्वीय समाज की आवश्यकताएं सीमित होती हैं। यदि लोगों की तात्कालिक आवश्कयताएं पूरी हो जाएं तो वे संतुष्ट हो जाते हैं। "जब नारियल की कीमत अधिक हो जाती है, तो संभावनाएं ये हैं कि थोड़ी वस्तुएं विक्रय के लिए आएंगी; जब मजदूरी बढ़ाई जाती है तो संपदा का प्रबंधकर्ता यह जोखिम मोल लेता है कि पहले से थोड़ा काम होगा: यदि किसी कृषक के परिवार की आवश्यकताओं के लिए तीन एकड़ काफी हैं, तो वह छ: की काश्त नहीं करेगा; जब रबड़ की कीमतें गिरती हैं, तो वाटिका का मालिक वृक्षों को अधिक गहनता से उपयोग का निर्णय करता है, जबकि ऊंची कीमतों का मतलब है कि वह उपयोगित वृक्षों के थोड़े बहुत भाग को बिना उपयोग के छोड़ देता है। ऐसा इसलिए कि लोग आर्थिक की अपेक्षा सामाजिक आवश्यकताओं द्वारा अधिक प्रभावित होते हैं। वस्तुओं का मूल्यांकन प्रयोग-मूल्य की अपेक्षा प्रतिष्ठा-मूल्य के अनुसार होता है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि पीछे की ओर ढालू प्रयत्न तथा जोखिम का पूर्ति वक्र पूर्वीय अर्थव्यवस्था की विशिष्टता है।

स्वदेशी उद्योग लगभग संगठनरहित, पूँजीहीन, तकनीक की दृष्टि से विवश और मार्केट से अनभिज्ञ होता है। लोग लगातार लाभ देने वाले उद्योगों की अपेक्षा सट्टा-क्रियाओं में अधिक लगे

रहते हैं। वे जोखिम वाले निवेशों में विश्वास नहीं करते। उनमें उस उपक्रम तथा संगठनात्मक कुशलता का अभाव होता है, जोकि द्वैत समाज के पश्चिमी क्षेत्र की विशेषता है। बे भाग्यवादी होते हैं और आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने में झिझकते हैं। श्रम "असंगठित, निष्क्रिय, शान्त, आकस्मिक' तथा अकुशल होता है। आप्रवासन तथा देश के भीतर एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाना राज्य-हस्तक्षेप के माध्यम से होते हैं। देहाती जीवन की लागत पर शहरी विकास होता है। पूर्वीय समाज में विदेशी व्यापार का प्रमुख लक्ष्य निर्यात है जो पश्चिमी समाज के लक्ष्य से बिल्कल भिन्न है, जहां वह आयात को संभव बनाने वाला साधन मात्र है।

पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त की द्वैतीय समाज में अप्रयोज्यता (Inapplicability of Western Economic Theory to Dualistic Society)-पूर्वीय समाज की ये महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएं पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त को अल्पविकसित देशों के लिए पूर्णतया अव्यवहार्य बना देती हैं। बूके के अनुसार, पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त पूँजीवादी समाज की व्याख्या के लिए है, जबकि पूर्वीय समाज पूर्व-पूँजीवादी है। पहला, असीमित आवश्यकताओं, मौद्रिक अर्थव्यवस्था तथा विभिन्न प्रकार के सहकारी संगठनों पर आधारित है। फिर, अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में साधनों की अगतिशीलता के कारण, साधनों के विभाजन अथवा आय के वितरण की व्याख्या के लिए वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त को लागू करना गलत है। इसलिए, प्रोफेसर बूके ने चेतावनी दी है कि "अच्छा यही है कि हम पश्चिमी सिद्धान्त के कोमल, कमजोर, कांच-गृह के पौधों को उष्णदेशीय धरती में प्रतिरोपित करने का प्रयत्न न करें, जहां कि शीघ्र मृत्यु उनकी प्रतीक्षा करती है।" इस प्रकार, समस्त अर्थव्यवस्था पर एक ही नीति लागू करना संभव नहीं है क्योंकि जो एक समाज के लिए हितकर है, वह दूसरे के लिए अहितकर हो सकती है।

क्योंकि पूर्वीय अर्थव्यवसथाओं की प्रकृति द्वैतीय होती है, इसलिए पश्चिमी ढंग से उनकी पूर्व-पूँजीवादी कृषि के विकास का प्रयत्न निष्फल ही नहीं होगा बल्कि हास भी ला सकता है। आधुनिक कृषि तकनीकों का प्रचलन करने के लिए लोगों की मानसिक वृत्तियों में परिवर्तन आवश्यक है अन्यथा उनके परिणामस्वरूप होने वाली धन में वृद्धि, जनसंख्या में और वृद्धि लाएगी। फिर, यदि पश्चिमी प्रौद्योगिकी फेल हो जाए तो ऋणग्रस्तता बढ़ जाएगी। इसलिए उनकी वर्तमान कृषि-व्यवस्था को नहीं छेड़ना चाहिए क्योंकि उसमें सुधार कर सकना कठिन है।

औद्योगिक क्षेत्र में, पूर्वीय उत्पादक अपने को प्रौद्योगिकीय, आर्थिक अथवा सामाजिक रूप से अपने पश्चिमी प्रारूप अनुकूल नहीं ढाल सकता। यदि पूर्वीय उत्पादक पश्चिम की नकल करेगा तो 'नुकसान उठाएगा। अपने तर्क की पुष्टि में बूके ने इण्डोनेशिया का उदाहरण दिया, जहां इण्डोनेशियाई अर्थव्यवस्था का औद्योगीकरण करने के लिए पश्चिमी प्रौद्योगिकी के अपनाने से आत्मनिर्भरता की मंजिल को और भी दूर कर दिया है तथा उसके छोटे उद्योग का नाश किया है।

बूके अल्पविकसित देशों में पाँच प्रकार की बेरोजगारी की ओर संकेत करता है : "सामयिक (ऋतुकालिक), आकस्मिक, नियमित श्रमिकों को बेरोजगारी, बाबू लोगों की बेरोजगारी, तथा यूरेशियाइयों की बेरोजगारी । वह समझता है कि उन्हें दूर करना सरकार के बस की बात नहीं क्योंकि इससे जो वित्तीय भार पड़ेगा, वह सरकार के साधनों से अधिक होगा।"

अल्पविकसित देशों में सीमित आवश्यकताएं तथा सीमित क्रय-शक्ति पूरे आर्थिक विकास में रुकावट पैदा करती हैं। खाद्य-पूर्ति अथवा उद्योग-वस्तुओं की वृद्धि मार्केट में पदार्थों की भरमार कर देगी जिससे बाद में कीमतों में कमी होगी और मंदी आएगी। इसका यह मतलब नहीं कि बूके पूरे के पूरे औद्योगीकरण और कृषि-सुधारों के विरुद्ध है। बल्कि यह औद्योगीकरण तथा छोटे पैमाने पर कृषि विकास की धीमी प्रक्रिया के पक्ष में है, जोकि पूर्वीय समाज के द्वैतीय ढांचे के अनुकुल ढाल ली गई हो। विकास की प्रेरणा स्वयं लोगों के भीतर से आए। नए नेता प्रकट हों, जो आर्थिक विकास के लक्ष्य के लिए विश्वास, निष्कपटता और धैर्य से प्रयत्न करें।

समीक्षात्मक मूल्यांकन (CRITICAL APPRAISAL)

प्रोफेसर बैनजेमिन हिग्गिन्ज ने निम्नलिखित आधार लेकर डॉ० बूके के द्वैतीय विकास के सिद्धान्त की बहुत कड़ी आलोचना की है।

1. आवश्यकताएं सीमित नहीं होती (Wants not limited)-स्वयं इण्डोनेशिया का अनुभव डॉ० बूके के इस कथन का समर्थन नहीं करता कि अल्पविकसित देशों में लोगा की आवश्यकताएं सीमित होती हैं अथवा प्रयत्न तथा जोखिम का पूर्ति वक्र पीछे की ओर ढालू होता है। वहां सीमान्त उपभोग तथा आयात प्रवृत्तियां दोनों ही ऊंची हैं। लोगों की जरूरतें सीमान्त नहीं हैं बल्कि घरेलू तथा आयातित अर्द्ध-विलास वस्तुओं की बहुत माँग है। भारत में यदि अच्छी फसल हो जाए तो रेडियो, ट्रा. स्टरों और घड़ियों आदि के आर्डरों की बाढ़ आ जाती है।

2. आकस्मिक श्रम असंगठित नहीं (Casual labour not unorganised)-डॉ० बूके का पूर्वीय आकस्मिक श्रमिक का असंगठित, निश्चेष्ट, शान्त तथा आकस्मिक बताना "इण्डोनेशिया और भारत में तथा अन्यत्र संगठित श्रम की बढ़ती हुई शक्ति से मेल नहीं खाता।" इस प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं में आकस्मिक श्रम कृषि में भले ही संगठित न हो परन्तु चाय, कॉफी तथा रबड़ बागान में ट्रेड यूनियन आन्दोलन प्रबलतम होता है।

3. पूर्वीय श्रम अगतिशील नहीं (Eastern labournotimmobile)-बूके का यह विचार भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पूर्वीय अर्थव्यवस्थाओं में लोग अपने ग्राम-समुदाय नहीं छोड़ना चाहते। वास्तव में अपने सिनेमा, दुकानों, होटलों, खेल प्रतियोगिताओं आदि के समस्त आकर्षणों से युक्त शहरी जीवन ने हमेशा देहाती क्षेत्रों से स्थानांतरण कराया है। बड़े-बड़े शहरों में जो भीड़भाड़, बेरोजगारी और अनुपयुक्त आधारभूत सुख-सुविधाएं मिलती हैं, वे इसी का परिणाम हैं। इसके अतिरिक्त आय प्रेरणा से भी श्रम एक बागान से दूसरे में और यहां तक कि आकस्मिक श्रम फसल के दिनों में देहाती क्षेत्रों में चले जाते हैं। प्रोफेसर हिग्गिन्ज़ लिखता है, "मुझे इसका कोई प्रमाण दिखाई नहीं देता कि पूर्वीय श्रम आन्तरिक रूप में पश्चिमी श्रम की अपेक्षा अधिक अगतिशील है।"

4. पूर्वीय अर्थव्यवस्थाओं की ही विशेषता नहीं (Not peculiar to eastern economies)-बूके अपने सामाजिक द्वैतवाद के सिद्धान्त को केवल पूर्वीय अर्थव्यवस्थाओं से सम्बद्ध करता है, पर स्वयं यह भी मानता है कि अफ्रीका और दक्षिण अमरीका की अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी सामाजिक द्वैतवाद विद्यमान है। परन्तु यह अल्पविकसित क्षेत्रों की ही विशेषता नहीं है। इटली, कैनेडा, और यहां तक कि संयुक्त राज्य अमरीका में भी यह मौजूद हैं बल्कि प्रत्येक अर्थव्यवस्था "प्रौद्योगिकीय उन्नति की विभिन्न कोटियों के अनुसार पृथक-पृथक क्षेत्रों में विभक्त की जा सकती है।"

5. पश्चिमी समाज पर लागू (Applicable to western societies)-पूर्वीय समाज की जिन खास विशिष्टताओं का डॉ० बूके ने वर्णन किया है, उनमें से अनेक पश्चिमी समाजों पर भी लागू की जा सकती हैं। पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं में जब कभी दीर्घकालिक स्फीति आती या आने लगती है, तो लोग दीर्घकालीन निवेशों की अपेक्षा सट्टा-संबंधी लाभों को अधिमान देते हैं। प्रोफेसर हिग्गिन्ज के अनुसार, "पश्चिमी अर्थशास्त्रियों ने 'तरलता अधिमान तथा सुरक्षा अधिमान' से सम्बन्धित विश्लेषण के पूरे क्षेत्र का हाल ही में विकास किया है ताकि सारी दुनिया में रूप में रखने के प्रबल अधिमान का हिसाब लगाया जा सके।"

प्रतिष्ठा-मूल्य (Prestige value)-बूके का यह कथन कि पूर्वीय अर्थव्यवस्थाओं में लोग वस्तुओं को उनके प्रयोग-मूल्य की अपेक्षा प्रतिष्ठा-मूल्य के कारण खरीदते हैं, पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं पर भी समान रूप से लागू होता है। यदि ऐसा न होता, तो वैब्लन (Veblen) अमरीकी समाज के लिए "प्रत्यक्ष उपभोग" शब्द न गढ़ता।

पीछे की ओर ढालू प्रयत्न का पूर्ति वक्र (Backward sloping supply curve of effort)-पीछे की ओर ढालू प्रयत्न का पूर्ति वक्र भी पूर्वीय अर्थव्यवस्थाओं की ही विलक्षणता नहीं है। आस्ट्रेलिया ने युद्धोत्तर काल में और संयुक्त राज्य अमरीका ने वर्तमान शताब्दी के पांचवें दशक के वर्षों में इसे अनुभव किया था। प्रोफेसर हिग्गिन्ज़ का कथन है कि "पीछे की ओर ढालू यह पूर्ति वन किसी भी ऐसे समाज में प्रकट हो सकता है जो इस प्रयोजन से काफी देर के लिए मन्द गति हो जाता है कि उस प्रदर्शनकारी प्रभाव को क्षीण करे जो लोगों के अतिरिक्त आय अर्जन में, विशिष्टतया उनके अपने अतिरिक्त प्रयत्नों के परिणामस्वरूप, जीवन के एक स्तर से दूसरे पर जाने की देन होता है।

6. सिद्धान्त नहीं परंच विवरण (Not a theory but description)-बूके अल्पविकसित देशों के लिए विशिष्ट आर्थिक तथा सामाजिक सिद्धान्त देने में विफल रहा है। उसका द्वैतीय सिद्धान्त पूर्वीय समाज का विवरण मात्र है जिसमें वह पूर्वीय समाज के उन विलक्षण तत्त्वों का प्रदर्शन करता है, जिनका पश्चिमी ढंग से विकास नहीं होना चाहिए। बूके का यह कथन है कि पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त पूर्वीय समाजों पर लागू नहीं होता। वह नवक्लासिकी सिद्धान्त पर आधारित है जिसकी व्यवहार्यता पश्चिमी जगत में भी सीमित है।

7. पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त के औजारों का पूर्वीय समाजों में प्रयोग (Tools of western economic theory used in eastern societies)-मौद्रिक तथा राजकोषीय नीतियों के मूल में निहित पश्चिमी आर्थिक सिद्धान्त के कुछ औजार और भुगतान-शेष के असंतुलन को करने वाले साधन थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ पूर्वीय समाजों पर भी लागू होते हैं। प्रोफेसर हिग्गिन्ज का विश्वास है कि "उपयुक्त संस्थानिक धारणाओं से परिभाषित मॉडल के भीतर आर्थिक तथा सामाजिक विश्लेषण के परिचित औजारों का व्यवहार करके" अल्पविकसित देशों की समस्या का हल ढूंढा जा सकता है।

8. बेरोजगारी की समस्या का हल नहीं सुझाता (Does not provide solution to the problem of development)-बूके का द्वैतवाद आर्थिक की अपेक्षा सामाजिक-सांस्कृतिक पक्षों पर अधिक केन्द्रित है। वह विभिन्न प्रकार की बेरोजगारी को, सरकार के बस की बात नहीं मानता और अल्प-रोजगार की तो बात ही नहीं करता, जो धनी आबादी वाली अर्थव्यवस्थाओं की प्रमुख विशेषता है। बूके के द्वैतवाद में यह एक बड़ी कमी है।

निष्कर्ष (Conclusion)-वास्तव में द्वैतीय अर्थव्यवस्थाओं की बड़ी समस्या यह है कि वर्तमान तथा संभावित अल्प-विकसित श्रम-शक्ति को उचित रोजगार की सुविधाएं प्रदान की जाएं। इसी कारण प्रोफेसर हिग्गिन्ज़ ने प्रौद्योगिकी द्वैतवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है, जो 'दो क्षेत्रों में साधन-सम्पन्नताओं तथा उत्पादन फलनों में भेदों को 'प्रौद्योगिकीय द्वैतवाद' का आधार मानता है, जिसका कि परिणाम यह हुआ है कि उत्पादक रोजगार के लिए अपर्याप्त संख्या में मार्ग पाए जाते हैं।" यह बूके की अपेक्षा अधिक यथार्थिक द्वैतीय सिद्धान्त है क्योंकि यह सिद्धान्त विकास के आदर्श पर द्वैतीय समाज के प्रभावों का विश्लेषण करता है।

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