मुद्रा
की मांग, मुद्रा के दो महत्त्वपूर्ण कार्यों से उत्पन्न होती है। प्रथम यह कि
मुद्रा विनिमय के माध्यम का कार्य करती है और दूसरा कि मुद्रा मूल्य का संचय है।
अत: व्यक्ति और व्यापारी मुद्रा को आंशिक रूप से नकदी में और आंशिक रूप से
परिसम्पत्तियों में रखना चाहते हैं।
मुद्रा
की मांग में परिवर्तनों की कैसे व्याख्या की जाती है? इस प्रश्न पर दो दृष्टिकोण
हैं। प्रथम 'माप' (scale) दृष्टिकोण है जिसका संबंध आय या सम्पत्ति स्तर का मुद्रा
की मांग पर प्रभाव से है? मुद्रा की मांग प्रत्यक्ष तौर से आय स्तर से संबद्ध होती
है। आय-स्तर ऊंचा होने पर, मुद्रा की मांग भी अधिक होगी। दूसरा स्थानापत्ति'
(substitution) दृष्टिकोण है जो परिसम्पत्तियों को सापेक्ष आकर्षणशीलता से संबंधित
है जिनको मुद्रा से स्थानापन्न किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, जब व्याज
दरों के गिरने से बांडों जैसी वैकल्पिक परिसम्पत्तियां आकर्षक नहीं रहती, तो लोग
अपनी परिसम्पत्तियों को नकदी में रखने पर अधिमान देते हैं, तथा मुद्रा की मांग बढ़
जाती है और विलोमशः । 'माप' और 'स्थानापत्ति' दृष्टिकोणों को मिलाकर मुद्रा की
मांग की प्रकृति की व्याख्या की गई है जिसे लेन-देन मांग, सतर्कता मांग और सट्टा
मांग में बांटा गया है। मुद्रा की मांग के तीन मत हैं- क्लासिकी, केन्जीय तथा
केन्जीपरान्त। इन तीनों मतों की निम्न विवेचना की गई है।
क्लासिकी
मत (THE CLASSICAL APPROACH)
क्लासिकी
अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा के मांग सिद्धांत को स्पष्टतौर से निर्माण नहीं किया
बल्कि उनके विचार मुद्रा के परिमाण सिद्धांत में पाये जाते हैं। उन्होंने मुद्रा
के प्रचलन वेग (velocity of circulation) के रूप में मुद्रा की लेन-देन मांग पर बल
दिया। ऐसा इसलिए कि मुद्रा विनिमय के माध्यम का कार्य करती है और वस्तुओं तथा
सेवाओं के विनिमय को सुगम बनाती है । फिशर के विनिमय के समीकरण' में
MV = PT
जहां M मुद्रा की कुल मात्रा
है, V इसका चलन वेग, P कीमत स्तर तथा T मुद्रा में विनिमय की गई कुल वस्तुओं और सेवाओं
की मात्रा।
इस समीकरण में PT मुद्रा की
मांग को व्यक्त करता है जो अर्थव्यवस्था में किये गए लेन-देन के मूल्य पर निर्भर करता
है । MV मुद्रा पूर्ति को व्यक्त करता है जो दी हुई है, और संतुलन में मुद्रा की मांग
के बराबर होती है । इस प्रकार समीकरण बन जाता है:
Md=PT
आगे, मुदा की यह लेन-देन मांग
पूर्ण रोजगार आय-स्तर द्वारा निर्धारित होती है। ऐसा इसलिए कि क्लासिको अर्थशास्त्री
से के नियम में विश्वास रखते थे, जिसके अनुसार पूर्ति अपनी मांग स्वयं उत्पन्न करती
है, यह मानते हुए कि अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार आय-स्तर पाया जाता है । इस प्रकार,
फिशर के मत में मुदा की मांग लेन-देन के स्तर का एक स्थिर अनुपात है जिसका आगे राष्ट्रीय
आय के स्तर के साथ एक स्थिर संबंध पाया जाता है। फिर, मुद्रा की मांग की किसी समय अर्थव्यवस्था
में चल रहे व्यापार की मात्रा से साथ जोड़ा गया
मुद्रा के लिए
केम्ब्रिज मांग समीकरण है:
Md =kPY
जहां Md मुद्रा की मांग है
जो अर्थव्यवस्था में संतुलन की स्थिति में मुद्रा की पूर्ति (Ms) के अवश्य बराबर होनी
चाहिए (Md = Ms)I kवास्तविक मौद्रिक आय (PY) का भाग है जिसे लोग नकदी तथा मांग जमा
में रखना चाहते हैं, और सफल वास्तविक आय है। यह समीकरण बताता है कि अन्य बातें समान
रहने पर, सामान्य रूप में मुद्रा की मांग प्रत्येक व्यक्ति के नकदी आय-स्तर के समानुपातिक
होगी, और इसलिए सफल अर्थव्यवस्था के लिए भी ।
आलोचनाएं
(Criticisms)
मुद्रा की मांग के क्लासिकी
मत की मुख्य आलोचना इस बात से उत्पन्न होती है कि यह मुद्रा के मूल्य संचय (store
of value) कार्य की उपेक्षा करता है। क्लासिकी अर्थशास्त्रियों ने केवल मुद्रा के विनिमय
के माध्यम कार्य के ऊपर ही बल दिया जिसने क्रय और विक्रय की सुगमता के माध्यम का कार्य
किया। उनके लिए अर्थव्यवस्था में मुद्रा तटस्थ (neutral) भूमिका निभाती थी । यदि सम्पत्ति
के रूप में संचित कर ली जाए तो यह (मुद्रा) बढ़ती नहीं थी और व्यर्थ होती थी। यह एक
गलत धारणा थी क्योंकि मुद्रा परिसम्पत्ति कार्य भी करती है जब यह बिलों, बांडों, प्रतिभूतियों,
ऋण पत्रों, वास्तविक परिसम्पत्तियों जैसे घर, कार, टी.वी. आदि अन्य प्रकार की परिसम्पत्तियों
में परिवर्तित कर दी जाती है। अत: मुद्रा की मांग के क्लासिकी मत की मुख्य कमी मुद्रा
के परिसम्पत्ति कार्य की उपेक्षा थी, जिसे केन्ज ने दूर किया।
केन्जीय
मत : तरलता अधिमान (TIIE KEYNESIAN APPROACH : LIQUIDITY PREFERENCE)
केन्ज़ ने अपनी पुस्तक
General Theory में मुद्रा की मांग के लिए एक नया शब्द 'तरलता अधिमान' प्रयोग किया।
उसने तीन उद्देश्य सुझाए जो अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मांग लाते हैं : (1) लेन-देन
मांग, (2) सतर्कता मांग, और (3) सट्टा मांग।
(1) मुद्रा को
लेन-देन मांग (Transactions Demand for Money)—मुद्रा की लेन-देन मांग
वस्तुओं और सेवाओं के लगातार भुगतान करने के लिए मुद्रा के विनिमय-माध्यम कार्य से
उत्पन्न होती है। केन्ज के अनुसार, इसका सम्बन्ध “निजी और व्यापार विनिमय के चालू लेन-देनों
की नकदी के लिए आवश्यकता है।" इसको आय और व्यापार उद्देश्यों में विभाजित किया
जाता है। अन्य उद्देश्य का मतलब होता है : "आय की प्राप्ति और उसके भुगतान के
बीच के समय को पूरा करना।" इसी प्रकार व्यापार उद्देश्य का प्रयोजन यह होता है
कि "व्यवसाय लागतों के खर्च करने तथा विक्रय से प्राप्त आय के बीच के समय को पूरा
करना।" यदि खर्च करने और आय प्राप्ति के बीच का समय कम होगा, तो लोग चालू लेन-देन
के लिए कम नकदी रखेंगे, और विलोमशः । फिर भी, मुद्रा को लेन-देन की मांग में परिवर्तन
होते रहेंगे जो आय प्राप्त करने वालों और व्यापारियों की प्रत्याशाएं पर निर्भर करेंगे।
ये प्रत्याशाएं आय के स्तर, ब्याज दर, व्यापार आर्वत (business turnover), आय की प्राप्ति
और उसके भुगतान के बीच सामान्य समय, आदि पर निर्भर करती हैं।
ये तत्त्व दिये होने पर, मुद्रा
की लेन-देन मांग आय-स्तर का प्रत्यक्ष समानुपातिक और धनात्मक फलन है, और इसे इस प्रकार
व्यक्त किया जाता है :
L=kY
जहां L, मुद्रा की लेन-देन
मांग है, k आय का भाग है जो लेन-देन उद्देश्य के लिए रखा जाता है, और Y आय है।
इस समीकरण को चित्र में चित्रित किया गया है।
जहां kY रेखा लेन-देन मांग
और आय स्तर में रेखीय (linear) और समानुपातिक संबंध व्यक्त करती है। मानलीजिए कि k
= 1/4 और रु. 1000 करोड़ तो लेन-देन शेषों की मांग बिंदु A पर रु. 250 करोड़ रु. होगी।
आय के बढ़कर रु. 1200 करोड़ होने पर, लेन-देन मांग kY वक्र के बिन्दु B पर रु. 300
करोड़ होगी। यदि अर्थव्यवस्था की संस्थानिक और संरचनात्मक स्थितियों में परिवर्तन के
कारण लेन-देन मांग गिर जाती है और मान लीजिए कि k का मूल्य कम होकर 1/5 हो जाता है,
तथा नया लेन-देन मांग वक्र k'Y हो जाता है। ऐसी स्थिति में, रु. 1000 और रु. 1200 करोड़
आय स्तर पर, लेन-देन शेष क्रमशः वक्र k'Y के बिन्दुओं C और D पर रु. 200 और रु.
240 करोड़ होंगे। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि धारण किये गए लेन-देन शेषों की वास्तविक
राशि में परिवर्तनों का मुख्य निर्धारक आय में परिवर्तन होता है। लेन-देन शेषों में
परिवर्तन Y में परिवर्तनों के कारण होते हैं न कि k में परिवर्तनों के कारण।
ब्याज दर और
लेन-देन मांग (Interest Rate and Transactions Demand)—व्याज
की दर को मुद्रा की लेन-देन मांग का निर्धारक लेते हुए, केन्ज ने LT फलन
को ब्याज बेलोच माना । परन्तु उसने यह संकेत किया कि "सक्रिय चलन में मुद्रा की
मांग कुछ सीमा तक ब्याज की दर का भी फलन होती है, क्योंकि ऊंची ब्याज दर सक्रिय शेषों
के अधिक किफायती प्रयोग को ले जा सकती है।'' फिर भी उसने अपने विश्लेषण के इस भाग में
ब्याज की दर को भूमिका पर बल नहीं दिया, और उसके बहुत से समर्थकों ने इसकी बिल्कुल
उपेक्षा की। अभी के वर्षों में दो केन्जोपरान्त अर्थशास्त्रियों बोमल और टोबिन ने यह
दर्शाया है कि ब्याज की दर मुद्रा की लेन-देन मांग का एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक है।
उन्होंने यह भी बताया है कि मुद्रा को लेन-देन मांग तथा आय में सम्बंध रेखीय और समानुपातिक
नहीं है। बल्कि, आय में परिवर्तन लेन-देन मांग में समानुपातिक छोटे परिवर्तन लाते हैं।
लेन-देन शेष इसलिए धारण किये
जाते हैं कि एक मास में एक बार प्राप्त आय को उसी दिन व्यय नहीं कर दिया जाता है। वास्तव
में, एक व्यक्ति अपने व्यय को समान रूप से महीने भर में फैला देता है। इसलिए, लेन-देन
उद्देश्य के लिए मुद्रा का एक भाग अल्पकालीन ब्याज धारक (Interest bearing) प्रतिभूतियों
पर व्यय किया जा सकता है। कुछ दिनों, हफ्तों या महीनों के लिए ब्याज धारक प्रतिभूतियों
में निधियां लगाना संभव होता है। यहां समस्या यह है कि क्रय और विक्रय में लागत शामिल
होती है। बावजूद इसके प्रति क्रय और विक्रय लागत दी होने पर, स्पष्टतया कुछ ब्याज की
दर होती है जिस पर लेन-देन शेषों को ब्याज- धारक प्रतिभूतियों में परिवर्तित करना लाभदायक
बन जाता है, चाहे लेन-देन आवश्यकताओं से हटाई गई निधियां केवल कुछ सप्ताह के लिए हों।
जितनी ब्याज दर ऊंची होगी, उतना ही अधिक लेन-देन शेषों की एक निश्चित राशि का अंश लाभदायक
तौर से प्रतिभूतियों में लगाया जा सकता है।
नकदी और अल्पकालीन बांड धारणों (holdings) का ढांचा चित्र (A), (B) और (C) में दर्शाया गया है।
मानलीजिए एक व्यक्ति प्रत्येक
मास की पहली तारीख को रु. 1200 आय प्राप्त करता है और इसे समान रूप से महीने भर व्यय
करता है। मास में चार सप्ताह हैं। उसकी बचत शून्य इस प्रकार, उसकी मुद्रा के लिए लेन-देन
मांग रु. 300 प्रति सप्ताह है। अतः, प्रथम सप्ताह में उसके
पास रु. 900 निष्क्रिय (idie) मुद्रा है, दूसरे सप्ताह में रु. 600, और तीसरे सप्ताह
में रु. 300, जैसा कि चित्र के भाग(A) में दिखाया गया है । इसलिए वह इस निष्क्रिय मुद्रा
को ब्याज धारक बांडों में परिवर्तित कर देगा, जैसा कि चित्र के भाग (B) और (C) दर्शाया
गया है। वह प्रथम सप्ताह में रु. 300 अपने पास रखकर व्यय करता है, (देखें चित्र का
भाग B), और रु. 900 ब्याज-धारक प्रतिभूतियों में निवेश करना है । (चित्र के भाग C में देखिए) दूसरे सप्ताह के पहले दिन,
वह दूसरे सप्ताह के नकदी लेन-देन को पूरा करने के लिए रु. 300 के बांड बेच देता है।
उसके बांड धारण कम होकर रु. 600 हो जाते हैं । इसी प्रकार, वह तीसरे सप्ताह के प्रथम
दिन रु. 300 के बांड बेच देगा और रु. 300 के बांड अपने पास रखेगा जिन्हें वह चौथे सप्ताह
के पहले दिन बेच देगा ताकि वह अन्तिम सप्ताह में अपने खर्चे पूरे कर सके । प्रत्येक
सप्ताह में लेन-देन उद्देश्यों के लिए रखी गई राशि चित्र के भाग (B) में आरी के दांतेदार
ढांचे में दिखायी गई है, तथा प्रत्येक सप्ताह में बांड धारणों को चित्र के भाग (C)
में ब्लाकों में दिखाया गया है।
आधुनिक दृष्टिकोण यह है कि
मुद्रा को लेन-देन मांग आय और ब्याज दर दोनों का ही फलन है जिसे इस प्रकार व्यक्त किया
जा सकता है :
LT = ƒ(Y,r)
आय तथा ब्याज दर और मुद्रा की लेन-देन मांग में सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए संबंध नीचे के चित्र में दर्शाया गया है।
जैसाकि ऊपर बताया गया था LT
= kY | यदि Y = रु.1200 करोड़ और k = 1/4, तब LT = रु. 300 । यह चित्र में
Y1 वक्र द्वारा दिखाया गया है। यदि आय बढ़कर रु. 1600 करोड़ हो जाती है,
तो लेन-देन मांग भी बढ़कर रु. 400 करोड़ हो जाती है, k = 1/4 दिए होने पर। परिणामस्वरूप,
लेन-देन वक्र Y1 से Y2 पर सरक जाता है। जब तक ब्याज दर r8
से ऊपर नहीं बढ़ती है, लेनदेन वक्र Y1 और Y2 ब्याज बेलोच है।
जब व्याज दर r8 से ऊपर बढ़ना प्रारम्भ करती है, तो मुदा की लेन-देन मांग
व्याज-लोच हो जाती है। इसका मतलब यह है कि प्रतिभूतियों की क्रय और विक्रय लागत दी
होने पर, 8% से ऊपर ब्याज दर लेन-देन शेषों की कुछ राशि को प्रतिभूतियों में आकर्षित
करने के लिए पर्याप्त ऊंची है। Y1 वक्र का पीछे की ओर झुकाव (backward
slope) दर्शाता है कि और ऊंची व्याज दरों पर, मुद्रा की लेन-देन मांग गिरती है। जब
ब्याज दर r12 बढ़ जाती है, तो लेन-देन मांग रु. 1200 करोड़ आय स्तर पर रु.
300 करोड़ से कम होकर रु. 250 करोड़ हो जाती है। इसी प्रकार राष्ट्रीय आय रु. 1600
होने पर , ब्याज दर r12 पर रु. 400 करोड़ से गिरकर रु. 350 हो जाएगी। अत:
मुद्रा लेन-देन मांग आय-स्तर के साथ सीधे और ब्याज दर के साथ विपरीत परिवर्तन करती
है।
2. मुद्रा की
सतर्कता मांग (The Precautionary Demand for Money)- मुद्रा
की सतर्कता मांग का संबंध"आड़े समय के उन आकस्मिक खर्चे और लाभप्रद क्रयों के
अपूर्वदृष्ट अवसरों के लिए प्रबंध करने की इच्छा से होता है।" अप्रत्याशित आवश्यकताओं
को पूरा करने के लिए व्यक्ति और व्यापारी दोनों ही कुछ नकदी, रिजर्व में रखते हैं।
व्यक्ति तो बीमारी, दुर्घटना, बेरोजगारी और अदूरदर्शी संभाव्यताओं (unforeseen
contingencies) की व्यवस्था करने के लिए कुछ नकदी रखते हैं। इसी प्रकार, व्यापारी प्रतिकूल
स्थितियों को पार करने के लिए या अप्रत्याशित सौदों से लाभ उठाने के लिए कुछ नकदी रिजर्व
में रखते हैं । अतः “सतर्कता उद्देश्य के अन्तर्गत रखी गई मुद्रा कुछ-कुछ उस पानी के
समान है जो तालाब में रिजर्व में रखा जाता है।'' मुद्रा की सतर्कता मांग आय के स्तर,
व्यापार क्रिया, अप्रत्याशित लाभप्रद सौदों के अवसरों, नकदी की प्राप्यता, तरल परिसम्पत्तियों
को बैंक रिजर्व में रखने की लागत आदि पर निर्भर करती है।
केन्ज का मत है कि मुद्रा की
लेन-देन मांग की तरह, सतर्कता मांग आय के स्तर का फलन होती है परन्तु केन्जोपरान्त
अर्थशास्त्रियों के अनुसार, लेन-देन मांग की तरह सतर्कता मांग का ऊंजी व्याज दरों के
साथ विपरीत संबंध होता है। क्योंकि लेन-देन मांग और सतर्कता मांग दोनों ही आय और व्याज
दर का फलन हैं, इसलिए इन दोनों उद्देश्यों के लिए मुद्रा की मांग को एक समीकरण में
व्यक्त किया जाता है, LT = ƒ (Y, r) । इस प्रकार, मुद्रा
की सतर्कता मांग को भी चात्रों द्वारा समझाया जा सकता है।
3. मुद्रा की
सट्टा मांग (The Speculative Demand for Money)-मुद्रा की सट्टा (या
परिसम्पत्ति या तरलता अधिमान) मांग इस उद्देश्य के लिए होती है कि "भविष्य के
संबंध में मार्किट की तुलना में अधिक जानकारी द्वारा लाभ कमाए जा सकें।" जिन व्यक्तियों
और व्यापारियों के पास लेन-देन और सतर्कता उद्देश्यों के लिए मुद्रा रखने के बाद नकदी
बच जाती है, उसे वे बांडों में निवेश करके सट्टाप्रद लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। सट्टा
उद्देश्य के लिए रखी गई मुद्रा मूल्य का एक तरल संचय है जो उपयुक्त अवसर पर ब्याज-धारक
बांडों या प्रतिभूतियों में निवेश की जा सकती है।
बांड कीमतों और ब्याज की दर
का एक दूसरे के साथ विपरीत संबंध होता है। कम बांड कीमतें ऊंची ब्याज दरों को और ऊंची
बांड कीमतें कम ब्याज दरों को व्यक्त करती हैं। एक बांड पर निश्चित ब्याज प्राप्त होता
है। उदाहरणार्थ, यदि रु. 100 के बांड पर 4 प्रतिशत ब्याज दिया जाता है और मार्किट ब्याज
दर 8 प्रतिशत हो, तो इस बांड का बाजार मूल्य गिरकर रु. 50 हो जाता है। यदि बाजार ब्याज
दर कम होकर 2 प्रतिशत हो जाती है, तो बाजार में बांड का मूल्य बढ़कर रु. 200 हो जाएगा।
इसे निम्न समीकरण द्वारा हल किया जा सकता है :
`V=\frac Rr`
जहां V एक बांड की कीमत है,
R बांड पर वार्षिक प्रतिफल (या आय) है, और r बाजार ब्याज दर है। इस प्रकार एक बांड
जिसकी कीमत रु. 100 (V) और उस पर ब्याज दर 4 प्रतिशत (r) है, उसे वार्षिक प्रतिफल
(R) रु. 4 प्राप्त होता है । अर्थात, V = 4/0.04 = 100 । जब बाजार ब्याज दर बढ़कर
8 प्रतिशत हो जाती है तो, V = रु. 4/0.08 = रु. 50। जब यह गिरकर 2 प्रतिशत होती है
तो V = 4/0.02 = रु0 200।
इस प्रकार व्यक्ति और व्यापारी
ब्याज दर ऊंची (8 प्रतिशत) होने पर रु. 100 के बांडों को बाजार कीमत रु. 50 पर खरीदकर
लाभ कमा सकते हैं, और ब्याज दर गिरने पर (2 प्रतिशत) जब वे मंहगे हो जाते हैं (रू.
200 का एक) तो उन्हें पुन: बेचकर लाभ कमा सकते हैं।
केन्ज के अनुसार, बांड कीमतों
या चालू बाजार ब्याज की दर में परिवर्तन संबंधी प्रत्याशाएं मुद्रा की सट्टा मांग को
निर्धारित करते हैं। मुद्रा की सट्टा मांग की व्याख्या करते हुए केन्ज के मन में एक
सामान्य या क्रांतिक (critical) ब्याज की दर (rc) थी। यदि चालू ब्याज दर
(r) क्रांतिक व्याज दर (rc) से ऊंची होती है, तो व्यापारी इसके गिरने की
आशा रखते हैं और बांड कीमतों के बढ़ने की इसलिए वे भविष्य में बेचने के लिए अब बांड
खरीदेंगे जब उनकी कीमतें बढ़ेंगी ताकि वे इस तरह लाभ कमा सकें। ऐसे समय में, मुद्रा
की सट्टा मांग गिर जाएगी, और विलोमश: जब चालू व्याज दर (r) क्रांतिक ब्याज दर (rc)
से नीचे होती है। इस प्रकार, जब r>rc एक निवेशक अपनी सभी तरल परिसम्पत्तियां
बांडों में रखता है, तथा r<rc तो उसके समस्त धारण मुद्रा में चले जाते
हैं । परन्तु जब r = rc तो वह बांड या मुद्रा रखने के बारे में उदासीन हो
जाता है।
एक व्यक्ति की मुद्रा की मांग और ब्याज दर में संबंध नीचे के चित्र में दर्शाया गया है
जहां क्षैतिज अक्ष पर एक व्यक्ति
सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की मांग व्यक्त करता है और अनुलम्ब अक्ष चालू और क्रांतिक
ब्याज दरें। चित्र यह दर्शाता है कि जब rc से r अधिक है तो परिसम्पत्ति
धारक अपने समस्त नकदी शेषों को बांडों में लगाता है और उसकी मुद्रा की मांग शून्य है।
यह अनुलम्ब अक्ष पर LM भाग द्वारा दिखाया गया है। जब rc से r कम हो जाता
है, तो व्यक्ति ब्याज प्राप्तियों की अपेक्षा बांडों पर अधिक पूंजी हानियों की आशा
रखता है। इसलिए, वह अपने समस्त धारणों को मुद्रा में परिवर्तित कर देता है, जैसा कि
चित्र में OW द्वारा दिखाया गया है। एक व्यक्तिगत परिसम्पत्ति धारक की मुद्रा की मांग
और चालू ब्याज दर में यह संबंध एक अनिरंतर सीढ़ियों वाला मुद्रा का मांग वक्र LMSW
प्रदान करता है।
समस्त अर्थव्यवस्था के लिए व्यक्तिगत मांग वक्रों को इस मान्यता पर जोड़ा जा सकता है कि व्यक्तिगत प्रतिभूति-धारक अपनी क्रांतिक दरों (rc)में भिन्न होते हैं। इस प्रकार एक समतल वक्र जो दाईं से बाईं ओर नीचे ढ़ालू होता है, जिसे नीचे के चित्र में Ls वक्र दिखाया गया है।
इससे यह स्पष्ट होता
है कि मुद्रा की सट्टा मांग ब्याज दर का घटता हुआ फलन है । ब्याज की दर जितनी ऊंची
होगी, मुद्रा की सट्टा मांग उतनी ही कम होगी, तथा व्याज दर पर जितनी कम होगी मुद्रा
की सट्टा मांग उतनी ही ऊंची होगी। बीजगणितीय रूप में इसको इस प्रकार व्यक्त किया जा
सकता है-Ls = ƒ(r)| जहां Ls मुद्रा
की सट्टा मांग है और ब्याज की दर रेखागणितीय रूप में इसे चित्र में दिखाया गया है।
चित्र दर्शाता है कि ब्याज की बहुत ऊंची दर r12 पर, मद्रा की सट्टा मांग
शून्य है तथा व्यापारी अपने नकदी धारणों को बांडों में निवेश करते हैं क्योंकि वे विश्वास
रखते हैं कि ब्याज दर में और वृद्धि नहीं हो सकती है। जब ब्याज दर, मानलीजिए, गिर कर
r8 हो जाती है, तो मुद्रा की सट्टा मांग OS होती है। ब्याज दर में और कमी
r6 हो जाने पर, यह बढ़कर OS' हो जाती है। अत: Ls वक्र (या LP तरलता अधिमान
वक्र) का आकार यह दिखाता है कि जब ब्याज दर बढ़ती है, तो मुद्रा की सट्टा मांग गिरती
है; तथा ब्याज दर में कमी से यह बढ़ती है।
तरलता पाश (या जाल)
(Liquidity Trap)-बहुत नीची ब्याज दर, जैसे r2 पर Ls वक्र पूर्णतया लोचदार
बन जाती है, और मुद्रा की सट्टा मांग अनन्त लोच होती है । Ls वक्र का यह भाग 'तरलता
पाश' कहलाता है। इतनी नीची दर पर लोग बांडों में निवेश करने की बजाय मुद्रा को नकदी
में रखने को अधिमान देते हैं, क्योंकि बांड़ों को खरीदने का मतलब होगा निश्चित हानि
। लोग उतनी देर तक बांड नहीं खरीदेंगे जब तक ब्याज दर इस निम्न स्तर पर रहती है और
वे ब्याज दर के 'सामान्य' स्तर पर वापिस आने तथा बांड कीमतों के गिरने की प्रतीक्षा
करेंगे।
केन्ज के अनुसार, जब ब्याज
दर शून्य के निकट आती है, तो बांड रखने में हानि का जोखिम जब बांडों की कीमत की बोली
इतनी ऊंची लगाई जाती है कि ब्याज दर, मानलीजिए केवल 2 प्रतिशत या कम होती है, तो बांडों
की कीमत में बहुत थोड़ी गिरावट समस्त प्रतिफल (yield) को समाप्त कर देगी, तथा थोड़ी-सी
और गिरावट मूल राशि (principal) के भाग में भी हानि ला देगी।" अतः जितनी ब्याज
दर कम होगी, उतनी ही बांडों से आमदनी थोड़ी होगी। इसलिए, नकदी रखने की मांग उतनी ही
अधिक होगी। परिणास्वरूप, Ls वक्र पूर्णतया लोचदार बन जाएगा।
प्रो. एफ. मोदिग्ल्यानि
(Prof. F. Modigliani) के अनुसार, अत्यन्त अनिश्चितता की अवधि में ही यह संभव है कि
Ls वक्र अनन्त लोचदार हो, जबकि कीमतें घट जाने की आशा हो और बांडों में निवेश की प्रवृत्ति
कम हो जाती है, या फिर यदि निवेश के ऐसे निकासों की वास्तविक कमी हो जो न्यूनतम संस्थानिक
(institutional-minimum) या उससे ऊंची दरों पर लाभदायक हों।"
तरलता पाश स्थिति में कई महत्त्वपूर्ण
बातें निहित रहती हैं । प्रथम, सस्ती मुद्रा नीति का अनुसरण करके भी मुद्रा प्राधिकारी
ब्याज की दर को प्रभावित नहीं कर सकता।दूसरे, ब्याज की दर गिरकर शून्य पर नहीं आ सकती।
अन्तिम, पूर्ण लोचदार Ls वक्र के सामने एक सामान्य मजदूरी कटौती की नीति भी प्रभावकारी
नहीं हो सकती। इसमें संदेह नहीं कि सामान्य मजदूरी में कटौती की नीति मजदूरी और कीमतों
को घटा देगी और इस प्रकार लेन-देन से मुद्रा को सट्टा उद्देश्य के लिए मुक्त कर देगी,
पर व्याज की दर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि मुद्रा-मार्किट में वर्तमान अनिश्चितता
के कारण लोग नकद मुद्रा रखेंगे।
मुद्रा
की कुल मांग (The Total Demand for Money)
केन्ज के अनुसार, लेन-देन और
सतर्कता उद्देश्यों के लिए रखी गई मुद्रा मुख्यतया आय के स्तर का फलन है, अर्थात,
LT = ƒ
(Y), और मुद्रा की सट्टा मांग, ब्याज की दर का फलन है, Ls = ƒ(r),
इस प्रकार मुद्रा की कुल मांग आय और ब्याज दर दोनों का फलन है:
LT + Ls =
ƒ(Y)
+ ƒ(r)
या, L = ƒ(Y)
+ ƒ(r)
या, L = ƒ(Y,r)
जहां L मुद्रा की कुल मांग
को व्यक्त करता है।
मुद्रा की कुल मांग वक्र लेन-देन और सतर्कता उद्देश्यों के मांग फलन तथा सट्टा उद्देश्य के लिए मांग फलन के पार्श्वयोग (lateral summation) द्वारा खींचा जा सकता है, जैसा कि नीचे के चित्र (A), (B) और (C) में दर्शाया गया है।
चित्र के भाग (A) आय के स्तर
Y तथा विभिन्न ब्याज दरों पर मुद्रा की लेन-देन और सतर्कता मांग OT को व्यक्त करता
है । भाग (B) विभिन्न ब्याज दरों पर मुद्रा की सट्टा मांग दर्शाता है। यह ब्याज दर
का प्रतीप (inverse) फलन है । उदाहरणार्थ, r6 ब्याज दर पर मुद्रा की सट्टा
मांग OS है और जब ब्याज दर गिरकर r2 हो जाती है तो Ls वक्र पूर्णतया
लोचदार हो जाता है । भाग (C) मुद्रा का कुल मांग वक्र L दर्शाता है जो LT
और Ls वक्रों का पार्श्वयोग है: L = LT +Ls । उदाहरणार्थ,
ब्याज दर पर, मुद्रा की कुल मांग OD है जो लेन-देन और सतर्कता मांग OT जमा सट्टा मांग
TD का जोड़ है : OD = OT + TD । ब्याज की दर r2, पर, मुद्रा का कुल मांग
वक्र पूर्णतया लोचदार हो जाता है जो तरलता पाश की स्थिति दर्शाता है।
केन्जोपरान्त
मत (THE POST-KEYNESIAN APPROACH)
केन्ज मानता था कि मुद्रा की
लेन-देन मांग प्रमुखत: ब्याज बेलोच होती है। प्रो. बोमल (Boumol) ने अपने स्टॉक सैद्धांतिक
दृष्टिकोण' के आधार पर मुद्रा की लेन-देन मांग की ब्याज लोचात्मकता का विश्लेषण किया
है। फिर केन्जीय विश्लेषण में, मुद्रा की सट्टा मांग का बाजार की अनिश्चितताओं के सम्बन्ध
में विश्लेषण किया गया है। प्रो. टोबिन (Tobin) ने दूसरा सिद्धांत प्रस्तुत किया है
जो तरलता अधिमान को जोखिम के प्रति व्यवहार मानता है। तीसरा महत्वपूर्ण केन्जोपरान्त
सिद्धांत फ्रीडमैन (Friedman) द्वारा किया गया निरूपण है। उसका कहना है कि मुद्रा की
मांग केवल आय तथा ब्याज की दर का ही नहीं, अपितु कुल सम्पत्ति का भी फलन है।
तरलता अधिमान विषयक अन्य दो
मतों की चर्चा नीचे की जा रही है।
1. बोमल का मालसूची सैद्धान्तिक मत' (Boumol's Inventory Theoretic
Approach)
केन्ज़ द्वारा प्रस्तुत मुद्रा
की लेन-देन मांग में विलियम बोमल ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। केन्ज़ मुद्रा की
लेन-देन मांग को आय के स्तर का फलन मानता है और लेन-देन मांग तथा आय के बीच रेखीय एवं
समानुपातिक संबंध मानता है। बोमल कहता है कि लेन-देन मांग तथा आय में संबंध न तो रेखीय
है और न ही समानुपातिक, बल्कि होता यह है कि जब आय में परिवर्तन होते हैं, तो मुद्रा
की लेन-देन मांग में आनुपातिक से कम परिवर्तन होते हैं। फिर केन्ज मानता था कि लेन-देन
मांग प्रमुखतः ब्याज बेलोच होती है। परन्तु बोमल ने मुद्रा की लेन-देन मांग की ब्याज
लोचात्मकता का विश्लेषण किया है।
बोमल के विश्लेषण का आधार यह
है कि कोई फर्म या व्यक्ति लेन-देन के लिए मुद्रा की इष्टतम मालसूची अपने पास रखता
। वह लिखता है, "फर्म के नकदी शेष का मतलब मुद्रा की वह मालसूची मानी जा सकती
है जिसे उसका रखने वाला कच्चे माल आदि के क्रय के बदले देने को तैयार है।" नकदी
शेष इसलिए रखे जाते हैं कि आय तथा व्यय एक साथ नहीं होते। "परन्तु पूंजी की बड़ी
राशियों को नकदी शेष के रूप में बांध रखना महंगा पड़ता है। क्योंकि वह मुद्रा फर्म
में कहीं और अधिक लाभप्रद ढंग से प्रयोग की जा सकती है... उसे लाभप्रद रूप से प्रतिभूतियों
में निवेश किया जा सकता है।" इस प्रकार नकदी शेष रखने का दूसरा तरीका बांड हैं
जिन पर ब्याज मिलता है। अपनी परिसम्पत्तियों से अधिकतम लाभ कमाने के लिए फर्म हमेशा
यह प्रयत्न करेगी कि लेन-देन के लिए न्यूनतम नकदी शेष रखे जाएं। बांडों पर ब्याज की
दर जितनी ही अधिक होगी, फर्म उतने ही कम लेन-देन शेषों को रखेगी।
बोमल यह मानकर चलता है कि किसी फर्म को प्रति समय-अवधि, जैसे एक वर्ष में Y डालरों की आय होती है जिसे वह उस अवधि में धीरे-धीरे एक स्थिर दर से खर्च करती है। इसलिए, फ़र्म को अपनी निष्क्रिय निधियों से बांड खरीदना हमेशा लाभदायक रहेगा। लेन-देन के लिए नकदी की जरूरत पड़ने पर बांड बेचे जा सकते हैं। फर्म के नकद धारणों और बांड धारणों का ढांचा नीचे के चित्र में दिखाया गया है।
मान लें कि फर्म के पास
$1,200 हैं जो उसे वर्ष के दौरान प्रति चार मास स्थिर दर से व्यय करने हैं। इस राशि
में से वह लेनदेन के लिए $400 नकदी में रख बाकी $800 से बांड खरीद लेती है। खरीदे गए
आधे बांडों की परिपक्वता 1/3K(चार मास) और शेष आधे बांडों की परिपक्वता 2/3t (आठ मास)
होती है, मान लीलिए कि k बांडों को बेचने से निकाली गई राशि का आकार है और फर्म के
औसत नकदी धारण बांडों के बेचने से प्राप्त राशि के आधे के बराबर (1/2k) है। ये मान्यताएं
दी होने पर, फर्म शुरु में समय t = 0 पर अपनी 2/3 आय के बांड ($800) खरीदती है और बाकी
1/3 ($400) नकदी में रखती है, जैसाकि चित्र में दर्शाया गया है। समय 1/3t पर खरीदे
गए पहले आधे बांड ($400) परिपक्व हो जाते हैं जो वह समय 2/3t तक नकदी के लिए बेचती
है। समय 2/3t पर शेष बांड परिपक्व हो जाते हैं जिन्हें फर्म बेच देती है ताकि t1
समय तक लेन-देन कर सके । समय t1 पर नकदी शेष शून्य है और फर्म नए वर्ष में
नकद प्राप्तियों के लिए तैयार हो जाती है।
इस समस्या को हल करने के लिए
आवश्यक है कि वर्ष भर नकदी-शेषों को रखने की लागत न्यूनतम रखी जाए। नकदी-शेषों को रखने
में ब्याज-लागते और गैर-ब्याज (non-interest) लागते सम्मिलित रहती हैं। जैसा कि हम
पहले ही देख चुके हैं ब्याज-लागते अवसर लागत के रूप में होती हैं। क्योंकि जब कोई फर्म
लेन-देन के लिए नकदी रखती है, तो उसे ब्याज-आय छोड़नी पड़ती है। दूसरी ओर, गैर-ब्याज
लागतों में नकदी को बांडो अथवा बांडों को नकदी में बदलने के लिए दलाली, डाक-व्यय, बहीखाता
व्यय आदि मदें शामिल रहती हैं।
इस प्रकार, जब कभी कोई फर्म
लेन-देन के लिए मुद्रा रखती है, तो उसे ब्याज-लागतें और दलाली (गैर-ब्याज लागतें) उठानी
पड़ती हैं । मानलीजिए ब्याज की दर r है जो वर्ष भर के लिए स्थिर मान ली गई है और दलाली
b है जिसे भी स्थिर मान लिया गया है। मानलीजिए कि वर्ष के प्रारम्भ में फर्म की आय
Y है जो इसके द्वारा किए गये लेन-देनों के वास्तविक मूल्य के बराबर है और K अन्तरालों
पर प्रत्येक बार निकाली गई राशि का आकार है जो बांड बेचने के समय निकाली गई है। इस
प्रकार, वर्ष भर में Y/K बार राशि निकाली गई है। वर्ष के दौरान दलाली परb (Y/K) लागत
आएगी। क्योंकि औसत नकदी निकास (withdrawals) K/2 हैं, इसलिए नकदी शेष रखने की ब्याज-लागत
rK/2 है । इस प्रकार लेन-देन करने की कुल लागत अर्थात् C को समीकरण के रूप में इस प्रकार
लिखा जा सकता है :
`C=r\frac K2+b\frac YK` ...........(1)
K का इष्टतम मूल्य वह होगा
जिससे कुल मालसूची की लागत न्यूनतम हो जाए। K के सम्बन्ध में C का विभेदीकरण करने से
व्युत्पन्न dC/dK शून्य के बराबर रखने से और C को हल करने पर हमें उपलब्ध होता है,
`\frac{dC}{dK}=\frac r2+\frac{-by}{K^2}=0`
अथवा, `\frac r2=\frac{bY}{K^2}`
अथवा दोनों पक्षों को 2K2/r
से गुणा करने पर हमें प्राप्त होता है :
`K^2=\frac{2bY}r`
अथवा, `K=\sqrt{\frac{\2bY}{\r}}` ........(2)
समीकरण (2) से स्पष्ट है कि
यदि दलाली बढ़ जाएगी, तो निकासों की संख्या कम हो जाएगी। दूसरे शब्दों में इष्टतम नकदी
शेष बढ़ जाएगा, क्योंकि फर्म बांडों में कम निवेश करेगी। दूसरी ओर, यदि बांडों पर ब्याज
की दर बढ़ जाएगी, तो फर्म के लिए बांडों में निवेश करना अधिक लाभदायक होगा और इष्टतम
नकदी शेष अपेक्षाकृत कम हो जाएंगे और विलोमश: भी।
बोमल का विश्लेषण लेन-देन शेषों
की मांग के व्यवहार के प्रति एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य को लक्ष्य करता है। जब कोई फर्म
या व्यक्ति बड़ी संख्या में बांड खरीदता है, तो उसके पास लेन-देन शेष थोड़े रह जाते
हैं और विलोमशः भी। परन्तु प्रत्येक क्रय में दलाली, डाक-व्यय इत्यादि के रूप में गैर-
ब्याज लागतें पाई जाती हैं जो खरीदने वाले को देनी पड़ती हैं । इसलिए उसे बड़ी संख्या
में बांड खरीदने पर होने वाले व्यय के मुकाबले कम बांड खरीदने से होने वाली आय की कमी
को संतुलित करना पड़ता है। यह निर्णय बांडों पर मिलने वाली ब्याज दर पर निर्भर करता
है।
ब्याज की दर जितनी ही अधिक
होगी, फर्म बांड खरीदने में उतना ही अधिक खर्च खपा सकेगी। इस निर्णय को निर्धारित करने
वाला एक और भी महत्त्वपूर्ण कारण मुद्रा की वह राशि है जो लेन-देन के लिए रखी जाती
है क्योंकि बांड खरीदने और बेचने की दलाली अपेक्षाकृत स्थिर रहती है और लेन-देन की
राशि की अपेक्षा अधिक नहीं बदलती। जब लेन-देन के लिए मुद्रा अधिक होगी, तो दलाली लागते
अपेक्षाकृत कम होंगी। “एक हजार डालर के बांड खरीदने पर न्यूनतम दलाली महंगी पड़ेगी
! दस लाख डालर के बांड खरीदने पर दलाली नगण्य (negligible) होगी। इसलिए कुल लेन-देन
की राशियां जितनी ही अधिक होंगी, दलाली की लागतें उतनी ही कम होंगी, और उतने ही बार-बार
इष्टतम निकास किये जाएंगे।" ऐसा नकदी प्रबन्ध अथवा मुद्रा के प्रयोग में पैमाने
की बचतों के कारण होता है।
इसका मतलब है कि आय के अधिक ऊंचे स्तरों पर लेन-देन की औसत लागत अर्थात् दलाली अपेक्षाकृत कम होती है। ज्यों-ज्यों आय बढ़ती है, त्यों-त्यों मुद्रा की लेन-देन मांग भी बढ़ती जाती है पर यह वृद्धि आय में वृद्धि की अपेक्षा कम मात्रा में होती है। यदि आय चार गुणा बढ़ती है, तो इष्टतम लेनदेन शेष केवल दुगुने होते हैं। क्योंकि बोमल मुद्रा मांग की आय-लोच 1/2 (आधी) मानता है, इसलिए जिस अनुपात में आय बढ़ेगी, मुद्रा की मांग उसी अनुपात में नहीं बढ़ेगी। ऐसा पैमाने की बचतों के कारण होता है। आय में वृद्धि होने के कारण जब लेन-देन में लगाई गई मुद्रा की राशि अपेक्षाकृत अधिक होती है तब पैमाने की बचतें बांडों में अधिक निवेश को प्रोत्साहन देती हैं । मुद्रा की मांग के इस स्टॉक सिद्धांत में बोमल इस बात पर भी बल देता है कि मुद्रा की मांग वास्तविक शेषों के लिए मांग होती है। क्योंकि वर्ष-भर औसत नकदी धारणों का मूल्य K/2 है, इसलिए लेन-देन के लिए वास्तविक शेषों की मांग यह होगी :
`M_D=\frac K2``=\frac{1}2\sqrt{\frac{2bY}r}`
`M_D=\frac{1}2\sqrt{\frac{2bY}rP}` ..........(3)
जहां MD मुद्रा
की मांग है और P कीमत स्तर है। समीकरण (3)से पता चलता है कि लेन-देन शेषों की मांग
'लेनदेनों की मात्रा के वर्गमूल के समानुपाती और ब्याज की दर के वर्गमूल के प्रतीपानुपाती
(inverse) होती है।" इसका मतलब है कि कीमत स्तर में परिवर्तनों और मुद्रा की लेन-देन
मांग के बीच प्रत्यक्ष एवं समानुपातिक संबंध होता है। यदि फर्म के क्रय का ढांचा अपरिवर्तित
रहता है, तो इष्टतम नकदी शेष (Y) ठीक उसी अनुपात में बढ़ेंगे जिस अनुपात में कीमत स्तर
(P) बढ़ेगा। यदि कीमत स्तर दो गुणा हो जाएगा, तो फर्म के लेन-देन का मुद्रा मूल्य भी
दो गुणा हो जाएगा। जब सब कीमतें दो गुणी हो जाएंगी, तो दलाली (b) भी दोगुनी हो जाएगी
"परिणामतः निवशों और निकासी तथा उनकी दलाली लागतों से बचने के लिए अधिक नकदी शेष
रखना वांछनीय होगा!" इस प्रकार के लेन-देन का मुद्रा मूल्य और दलाली बढ़ जाने
से मुद्रा की इष्टतम मांग ठीक उसी अनुपात में बढ़ जाती है जिस अनुपात में कीमत स्तर
बढ़ता है। इस प्रकार बोमल द्वारा प्रस्तुत वास्तविक शेषों की मांग के विश्लेषण का मतलब
है कि लेन-देन के लिए मुद्रा की मांग में मुद्रा-भ्रान्ति नहीं है।
क्लासिकी एवं
केन्जीय मतों की तुलना में बोमल सिद्धांत की श्रेष्ठता (Its Superiority over the
Classical and Keynesian Approaches)
बोमल का मुद्रा को लेन-देन
मांग संबंधी स्टॉक सैद्धान्तिक मत क्लासिकी तथा केन्जीय मतों से निम्न बातों में श्रेष्ठ
है-
1. मुद्रा का नकदी शेष परिमाण
सिद्धांत यह मान्यता लेकर चलता है कि लेन-देन मांग और आय स्तर में रेखीय एवं समानुपातिक
सम्बन्ध होता है। बोमल ने स्पष्ट किया है कि यह सम्बन्ध मानना सही नहीं है । निस्सन्देह
यह सच है कि जब आय बढ़ती है, तो लेन-देन मांग भी बढ़ती है परन्तु नकदी प्रबन्ध में
पैमाने की बचतों के कारण यह मांग आय की अपेक्षा कम अनुपात में बढ़ती है।
2. बोमल के सिद्धांत की एक
श्रेष्ठता यह है कि जहां केन्ज का मत यह था कि मुद्रा की लेन-देन मांग ब्याज बेलोच
होती है वहां बोमल ने सिद्ध किया कि मुद्रा की लेन-देन मांग ब्याज लोचात्मक होती है।
3. बोमल का सिद्धांत वास्तविक
शेषों के लिए लेन-देन मांग का विश्लेषण करता है, और परिणामत: मुद्रा भ्रांति
(money illusion) के अभाव पर बल देता है।
4. बोमल का मालसूची विषयक सैद्धांतिक
दृष्टिकोण क्लासिकी एवं केन्जीय दोनों ही दृष्टिकोणों से इसलिए भी श्रेष्ठ है कि यह
परिसम्पत्तियों और उनकी ब्याज एवं गैर-ब्याज लागतों को ध्यान में रखकर मुद्रा की लेन-देन
मांग को पूंजी-सिद्धांत में एकीकृत कर देता है।
2. टोबिन का निवेशसूची चयन माडल : जोखिम निवारण तरलता अधिमान सिद्धांत
(Tobin's Portfolio Selection Model : The Risk Aversion Theory of Liquidity
Preference)
जेम्ज़ टोबिन ने अपने
"Liquidity Preference as Behaviour Towards Risk"(1971) शीर्षक प्रसिद्ध
लेख में निवेशसूची चयन पर आधारित जोखिम निवारण तरलता अधिमान सिद्धांत प्रस्तुत किया।
इस सिद्धांत ने तरलता अधिमान के केन्जीय सिद्धांत के दो प्रमुख दोषों को दूर किया है।
एक, केन्जीय तरलता अधिमान भावी ब्याज-दरों की प्रत्याशाओं की बेलोच पर निर्भर करता
है; और दूसरे, व्यक्ति या तो मुद्रा रखते हैं या फिर बांड ही। टोबिन ने इन दोषों को
दूर कर दिया है। उसका सिद्धांत भावी ब्याज-दरों की प्रत्याशाओं की लोच पर निर्भर नहीं
करता, अपितु यह मान्यता लेकर चलता है कि व्याज धारक परिसम्पत्तियां रखने से पूंजी लाभ
अथवा हानि का प्रत्याशित मूल्य सदैव शून्य होता है।
फिर, यह इस बात को भी स्पष्ट
करता है कि किसी व्यक्ति की निवेश सूची में मुद्रा तथा बांड दोनों ही रहते हैं, यह
नहीं कि एक समय में कोई एक ही रहे।
टोबिन तरलता अधिमान का अपना
निवेश सूची चयन मॉडल प्रस्तुत करते हुए शुरू में ही यह मानकर चलता है कि परिसम्पत्ति
धारक व्यक्ति की निवेश सूची में मुद्रा तथा बांड दोनों हैं । मुद्रा से उसे न तो कोई
आय होती है और न ही उसे कोई जोखिम उठानी पड़ती है। परन्तु बांडों से ब्याज मिलता है
और आय भी होती है। परन्तु बांडों से प्राप्त होने वाली आय अनिश्चित है क्योंकि उसमें
पूंजी हानि अथवा लाभ की जोखिम सम्मिलित रहती है। बाडों में जितना अधिक निवेश होगा,
उनसे पूंजी हानि की जोखिम भी उतनी ही बड़ी होगी। निवेशक यह जोखिम तभी उठा सकता है जब
बांडों से पर्याप्त आय उसकी क्षतिपूर्ति करे।
यदि प्रत्याशित पूंजी लाभ या
हानि g है, तो मान्यता यह है कि निवेशक इस (g) के संभाव्यता वितरण (probabililty
distribution) के अपने अनुमान के आधार पर कार्य करेगा और यह भी मान्यता है कि इस संभाव्यता
वितरण का प्रत्याशित मूल्य शून्य है तथा बांडों पर चालू ब्याज दर । के स्तर से स्वतन्त्र
है।
उसकी निवेश सूची में मुद्रा
का M अनुपात और बांडों का B अनुपात रहता है, जहाँ M तथा B दोनों का योग एक है। इनका
कोई मूल्य ऋणात्मक नहीं है। निवेश सूची R पर प्रतिफल है:
R = B (r +g) जहां
0 £ B £ I
क्योंकि g यदृच्छिक चर
(random variable) है जिसका प्रत्याशित मूल्य शून्य है इसलिए निवेश सूची पर प्रतिफल
है:
RE = mR = Br
निवेश सूची से सम्बद्ध जोखिम R के मानक विचलन (standard deviation) द्वारा मापी जाती है अर्थात sR टोबिन ने तीन प्रकार के निवेशकों का उल्लेख किया है। एक प्रकार के निवेशक तो वे हैं जिन्हें जोखिम उठाने में मजा आता है और वे अधिकतम जोखिम उठाने में अपना सारा धन बांडों में लगा देते हैं। बांडों से प्रत्याशित आय के बदले जोखिम उठाते हैं । वे जुआरियों जैसे होते हैं। दूसरा वर्ग गोताखोरों (plungers) का है । वे या तो अपना सारा धन बांडों में लगा देते हैं या उसे नकदी के रूप में रखते हैं। ये गोताखोर प्रवृत्ति के लोग या तो सब कुछ दांव पर लगा देते हैं, या बिल्कुल जोखिम नहीं उठाते।
परन्तु अधिकांश निवेशक तीसरे वर्ग के ही होते हैं। वे जोखिम निवारक (risk averters) अथवा विविधक (diversifiers) होते हैं । जोखिम निवारक हानि की उस जोखिम से बचना चाहते हैं जो मुद्रा की बजाय बांड रखने से सम्बन्धित रहती है। वे केवल उस अवस्था में अतिरिक्त जोखिम उठाने को तैयार होते हैं जब उन्हें यह आशा हो कि बांडों पर कुछ अतिरिक्त प्रतिफल (आय) प्राप्त होगी, बशर्ते कि जो प्रत्येक अधिक जोखिम वे उठाते हैं वह अपने साथ प्रतिफल आय में अधिक वृद्धियां लाता हो। इसलिए वे अपनी निवेश सूची को विविध बनाएंगे और मुद्रा तथा नकदी दोनों रखेंगे। यद्यपि मुद्रा रखने से न तो कोई प्रतिफल प्राप्त होता है और न ही कोई जोखिम, फिर भी यह परिसम्पत्तियों का सर्वाधिक तरल रूप है जिसे कभी भी बांड खरीदने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। जोखिम निवारक के जोखिम तथा प्रत्याशित प्रतिफल में अधिमान का पता लगाने के लिए, टोबिन धनात्मक ढलान वाले उदासीनता वक्रों का प्रयोग करता है, जो प्रकट करते हैं कि जोखिम निवारक अधिक जोखिम उठाने के लिए और अधिक प्रत्याशित प्रतिफलों की मांग करता है। इसे नीचे चित्र में दिखाया गया है
जिसमें क्षैतिज अक्ष
जोखिम (sR) को तथा अनुलम्ब अक्ष
प्रत्याशित प्रतिफलों (sμR) को मापता है। Or
रेखा जोखिम निवारक की बजट रेखा है। यह जोखिम और प्रत्याशित मुद्रा प्रतिफल के उन संयोगों
को व्यक्त करती है जिनके आधार पर वह अपने धन की निवेशसूची को मुद्रा और बांडों में
लगाता है। I1 तथा I2 उदासीनता वक्र हैं। उदासीनता वक्र बताता
है कि वह प्रत्याशित फल और जोखिम के उन सभी संयोगों के प्रति उदासीन है जो I1
वक्र पर स्थित हैं ।1 वक्र पर स्थित बिंदुओं को अपेक्षा वह 12
पर स्थित बिन्दुओं को अधिमान देता है। परन्तु जोखिम निवारक को प्रत्याशित प्रतिफल तथा
जोखिम के बीच संतुलन की स्थिति वहां उपलब्ध होगी जहां उसकी बजट रेखा उदासीनता वक्र
को स्पर्श करेगी। बजट रेखा और I1 वक्र पर ऐसा बिन्दु T है।
चित्र के निचले भाग में अनुलम्ब
वक्र की लम्बाई उस सम्पत्ति को प्रकट करती है जिसे जोखिम निवारक अपनी निवेशसूची को
मुद्रा एवं बांडों में रखता है I OC रेखा जोखिम को बांडों में रखी कुल निवेशसूची के
भाग के अनुपात के रूप में व्यक्त करती है। इस प्रकार बिन्दु T से लम्ब के रूप में खींची
गई इस रेखा पर बिन्दुE मुद्रा तथा बांडों का निवेशसूची मिश्रित निर्धारित करता है।
इसमें OP बांड तथा PW मुद्रा है।
इस प्रकार जोखिम निवारक अपने कुल धन OW को कुछ- कुछ बांडों में और कुछ-कुछ नकदी के रूप में रखकर अपने कुल धन को विविध (diversify) करता है। यही कारण है कि उसे विविधक कहा जाता है। वह तब तक अधिक जोखिम उठाने को तैयार नहीं होता जब तक उसे अधिक प्रत्याशित प्रतिफल की आशा न हो। पर, जोखिम निवारक मन-ही-मन तरलता को अधिमान देता है जिसे केवल अधिक ऊंची ब्याज दरों से दूर किया जा सकता है। ब्याज की दर जितनी ऊंची होगी, मुद्रा की मांग उतनी ही कम होगी, परिणामतः बांड रखने की प्रेरणा उतनी ही अधिक होगी। इसके विपरीत, ब्याज की दर जितनी कम होगी, मुद्रा की मांग उतनी ही अधिक होगी, और परिणामतः बांड रखने की इच्छा उतनी ही कम होगी। इसे नीचे के चित्र में दिखाया गया है।
जब ब्याज की दर बढ़ती है तो
बजट रेखा को ढलान बढ़ती है। इसे बजट रेखा r1 द्वार दिखाया गया है जो घूमती
हुई ऊपर की ओर r2 तथा, पर r3 पहुंचती है। परिणामत: ब्याज दर
में वृद्धि के साथ जोखिम के अनुपात में प्रतिफल बढ़ते जाते हैं और बजट रेखा अधिक ऊंचे
उदासीनता वक्रों को स्पर्श करती चलती है। ऊपर के चित्र में r1, r2,
और r3, रेखाएं I1, I2, I3 वक्रों पर क्रमश:
T1, T2, T3 बिन्दुओं पर स्पर्श करती हैं । ये बिन्दु
चित्र में इष्टतम निवेश सूची वक OPC को अनुरेखित करती है, जो बताता है कि ज्यों-ज्यों
स्पर्श बिन्दु बाई ओर से दाई ओर ऊपर को बढ़ते हैं, त्यों-त्यों प्रत्याशित प्रतिफल
और जोखिम बढ़ते जाते हैं।
ये स्पर्श बिन्दु जोखिम निवारक
के निवेश-सूची चलन को भी निर्धारित करते हैं, जैसाकि ऊपर के चित्र के निचले भाग में
दिखाया गया है। जब ब्याज दर r1, है तो वे OB1, बांड तथा B1W
मुद्रा रखते हैं। ज्यों-ज्यों ब्याज की दर r1 से बढ़कर r2 और
r3 होती जाती है त्यों-त्यों जोखिम निवारक अपनी निवेश सूची में क्रमशः अधिक
बांड OB2, और OB3, मुद्रा रखते चलते हैं और मुद्रा को घटाकर
B2W तथा B3W कर देते हैं। चित्र यह भी प्रदर्शित करता है कि
जब ब्याज की दर में समान मात्राओं में r1 से r2, से r3,
तक वृद्धि होती है तो जोखिम निवारक घटती मात्राओं में बांड रखते हैं । B2B3
< B2B1 <OB1 । इसका यह अर्थ भी है जब ब्याज
की दर बढ़ती है तो मुद्रा की मांग अपेक्षाकृत कम मात्रा में घटती है। इसका कारण यह
है कि निवेश सूची में कुल सम्पत्ति के अन्तर्गत बांड तथा मुद्रा होती है।
इस प्रकार ऊपर के चित्र के आधार पर मुद्रा का मांग वक्र खींचा जा सकता है। इसे नीचे के चित्र में Ls वक्र के रूप में व्यक्त किया गया है।
वक्र बताता है कि ब्याज की
दर ऊंचे स्तर से गिरती है, तो मुद्रा की मांग में अपेक्षाकृत कम वृद्धि होती है। उदाहरणार्थ,
जब ब्याज की दर r10 से गिरकर r8 हो जाती है तो मुद्रा की मांग
में AB वृद्धि होती है जो OA से कम है। इसका कारण यह है कि जोखिम निवारक, मुद्रा की
अपेक्षा बांड अधिक रखना चाहता है। परन्तु जब नीचे के स्तर पर ब्याज की दर गिरती है
जैसे r4 से गिर कर r2, हो जाती है, तो मुद्रा की मांग में बहुत
अधिक वृद्धि होती है। चित्र में यह वृद्धि CD है। यह मुद्रा का मांग वक्र मुद्रा की
समस्त मांग से नहीं अपितु मुद्रा की सट्टा मांग से सम्बन्ध रखता है।
केन्जीय सिद्धांत
की तुलना में टोबिन के सिद्धांत की श्रेष्ठता (Its Superiority of over Keynesian
Theory)
केन्ज के मुद्रा की सट्टा मांग
के तरलता अधिमान सिद्धांत की तुलना में टोबिन का निवेश सूची चयन जोखिम निवारक सिद्धांत
श्रेष्ठ है।
1. अधिक संतोषजनक
(More Satisfactory)-टोबिन का सिद्धांत भावी ब्याज दरों की प्रत्याशाओं
को बेलोच पर निर्भर नहीं करता, अपितु यह मान्यता लेकर चलता है कि ब्याज धारक परिसम्पत्तियों
से पूंजी-लाभ अथवा हानि का प्रत्याशित मूल्य हमेशा शून्य होता है। इस सम्बन्ध में टोबिन,
केन्ज के सिद्धांत की अपेक्षा तार्किक रूप से अपने सिद्धांत को तरलता अधिमान का अधिक
संतोषजनक आधार मानता है।
2. विविध निवेशसूची
(Diversified Portfolio) केन्ज के सिद्धांत की अपेक्षा यह सिद्धांत इस
बात में भी श्रेष्ठ है क्योंकि यह बताता है कि लोग केवल बांड या मुद्रा की बजाय बांडों
तथा मुद्रा के रूप में विविध निवेश सूची रखते हैं।
3. अधिक यथार्थवादी
(More Realistic)-केन्ज की भांति टोबिन भी मानता है कि मुद्रा
की मांग ब्याज दरों पर गहन रूप से निर्भर है और ब्याज दरों से उलट तौर से सम्बन्धित
है । परन्तु वह बहुत नीची दरों पर मुद्रा की मांग की पूर्ण लोचदार तरलता पाश की चर्चा
नहीं करता, और इस दृष्टि से वह केन्ज की तुलना में अधिक यथार्थवादी है।
4. रोचक दृष्टिकोण
(Interesting Approach)-निवेश सूची सिद्धांत का वास्तविक महत्त्व
"इस बात में नहीं है कि यह प्रत्यक्ष रूप से समस्त अर्थव्यवस्था के बारे में बताता
है बल्कि इस बात में हैं कि यह अनिश्चितता की स्थिति रहते मुद्रा की मांग से सम्बन्धित
समस्या के विषय में रोचक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है और संभवतः भविष्य में इस दृष्टिकोण
के विकास की पर्याप्त गुंजाइश है।"
फ्रीडमैन का मुद्रा का मांग सिद्धान्त (Friedman's Theory of
Demand for Money)
फ्रीडमैन का मुद्रा का मांग
सिद्धान्त पूंजी अथवा संपत्ति सिद्धान्त है (It is a capital or wealth theory), क्योंकि
वह मुद्रा को एक परिसंपत्ति (asset) अथवा पूंजी वस्तु मानता है । अंतिम संपत्तिधारकों
(wealth holders) की ओर से मुद्रा की मांग एक टिकाऊ वस्तु के लिए मांग की तरह है।
अंतिम संपत्ति धारकों के लिए
वास्तविक रूप में मुद्रा की मांग मुख्यतया निम्न चरों का फलन होने की संभावना हो सकती
है :
1. कुल संपत्ति
(Total Wealth) —कुल संपत्ति बजट अवरोध (constraint) का समरूप
है। कुल संपत्ति विभिन्न प्रकार की परिसंपत्तियों में बांटी जानी चाहिए। व्यवहार में,
कुल संपत्ति के अनुमान कभी-कभार उपलब्ध होते हैं। इसके बजाय, सम्पत्ति के सूचक का कार्य
आय कर सकती है। अत: फ्रीडमैन के अनुसार आय संपत्ति की एक प्रतिनिधि है।
2. संपत्ति का
मानव और गैर-मानव रूप में विभाजन (Division of Wealth between Human and Non-Human
Forms)-संपत्ति
का मुख्य स्रोत मानवों की उत्पादकीय क्षमता है जो मानव संपत्ति है। परन्तु मानव संपत्ति
का गैर-मानव संपत्ति में परिवर्तन या इसका विपरीत, संस्थानिक प्रतिबंधों के अधीन है।
ऐसा गैर-मानव संपत्ति को वर्तमान अर्जनों द्वारा खरीद कर अथवा गैर-मानव संपत्ति के
प्रयोग से वित्त प्रबंधन द्वारा दक्षताएं प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है। अत:
गैर-मानव संपत्ति के रूप में कुल संपत्ति का अंश एक अतिरिक्त महत्वपूर्ण चर है। फ्रीडमैन
गैर-मानव से मानव संपत्ति के अनुपात को अथवा संपत्ति से आय के अनुपात को W कहता है।
3. मुद्रा और
अन्य परिसंपत्तियों पर प्रतिफल की प्रत्याशित दरें (Expected Rates of Returm on
Money and Other Assets)-ये प्रतिफल की दरें उपभोक्ता मांग सिद्धांत में
एक वस्तु की कीमत की, उसके स्थानापन्नों की, और पूरकों की दूसरा रूप हैं । प्रतिफल
की मुद्रारूप (nominal) दर शून्य हो सकती है जैसे सामान्यतः करेंसी पर होती है, अथवा
ऋणात्मक जैसे यह अक्सर मांग खातों पर जिन पर शुद्ध सेवा चार्ज देने होते हैं, अथवा
धनात्मक जैसे उन मांग खातों पर जिन पर ब्याज देय होता है और सामान्यतः समय खातों पर।
अन्य परिसंपत्तियों पर अंकित प्रतिफल की दर में दो भाग शामिल होते हैं : प्रथम, कोई
वर्तमान में भुगतान की गई प्राप्ति या लागत जैसे बांडों पर ब्याज, पर लाभांश और भौतिक
परिसंपत्तियों को स्टोर करने की लागत; तथा द्वितीय, इन परिसंपत्तियों की शेयरों कीमतों
में परिवर्तन जो अवस्फीति अथवा स्फीति की स्थितियों में विशेषतौर से महत्त्वपूर्ण बन
जाते हैं।
4. अन्य चर
(Other Variables)-आय के अलावा अन्य चर, मुद्रा की सेवाओं से संबद्ध
उपयोगिता को प्रभावित कर सकते हैं, जो वास्तविक तरलता को निर्धारित करते हैं। तरलता
के अतिरिक्त संपत्ति धारकों की रुचियां और अभिमान चर होते हैं। एक अन्य चर अंतिम संपत्ति
धारकों द्वारा वर्तमान पूंजी वस्तुओं में व्यापार है। ये चर संपत्तियों के अन्य प्रकारों
के साथ मुद्रा के मांग फलन को भी निर्धारित करते हैं। ऐसे चरों को फ्रीडमैन m (म्यू)
का नाम देता है।
संपत्ति के प्रकार
(Forms of Wealth)
फीडमैन के अनुसार, मोटे तौर
पर संपत्ति में आय के सभी स्रोत अथवा उपभोग करने योग्य सेवाएं शामिल होती हैं। यह पूंजीकृत
(capitalised) आय है। आय से फ्रीडमैन का मतलब 'स्थायी आय' से है जो संपत्ति के जीवनकाल
की औसत प्रत्याशित प्राप्ति है। संपत्ति पांच भिन्न प्रकारों से धारण की जा सकती है
: मुदा, बांड, ईक्विटियां, भौतिक वस्तुएं और मानव पूंजी। प्रत्येक प्रकार की संपत्ति
की अपनी अद्वितीय विशेषता है और यह विभिन्न प्रतिफल देती है, जिसका निम्न वर्णन है
1. मुदा
(Money)-मुद्रा
के विस्तृत अर्थ में लिया गया है जिसमें करेंसी, मांग खाते और समय खाते शामिल हैं जिनमें
जमा पर ब्याज प्राप्त होता है। इस प्रकार मुद्रा एक विलासिता वस्तु है। यह धारक को
सुविधा, सुरक्षा, आदि के रूप में वास्तविक प्रतिफल देती है जिसे सामान्य कीमत स्तर
(P) से मापा जाता है । मुद्रा पर प्रत्याशित दर Rm है।
2. बांड
(Bonds)-बांडों
को भुगतानों की समयधारा के दावों के रूप में परिभाषित किया गया है, जो मुद्रारूप
(nominal) इकाइयों में स्थिर हैं । बांडों पर प्राप्ति, Rb में कूपन
(coupan) ब्याज दर अथवा मार्किट ब्याज दर में प्रत्याशित कमी या वृद्धि के कारण पूंजी
लाभ अथवा हानि की आशा होती
3. ईक्विटियां
(Equities) ईक्विटियों को भुगतानों की समयधारा के दावों के रूप में परिभाषित
किया गया है, जो वास्तविक इकाइयों में स्थिर हैं। ईक्विटियों पर प्राप्ति, Re
में प्रतिफल लाभांश दर, ब्याज दर में परिवर्तनों के कारण प्रत्याशित लाभ अथवा हानि,
और सामान्य कीमत-स्तर में प्रत्याशित परिवर्तन शामिल होते हैं।
4. भौतिक वस्तुएं
अथवा गैर-मानव वस्तुएं (Physical Goods or Non-human Goods)- ये
उपभोक्ता और उत्पादक टिकाऊ वस्तुओं की मालसूचियां (inventories) हैं। इनके प्रतिफल
(gp) कीमतों में प्रत्याशित परिवर्तनों द्वारा प्रभावित होते हैं।
5. मानव-पूंजी
(Human Capital)-मानव-पूंजी मानवों की उत्पादकीय क्षमता है।'
इस प्रकार, संपत्ति की प्रत्येक किस्म की अपनी अद्वितीय विशेषता और भिन्न प्रतिफल या
तो स्पष्टतया ब्याज, लाभांश, श्रम, आय आदि के रूप में अथवा अस्पष्टतया कीमत स्तर
(P) में मापी गई मुद्रा की सेवाओं और मालसूचियों के रूप में होती हैं। इन पांच प्रकार
की संपत्ति से इन प्रत्याशित आय प्रवाहों का वर्तमान बट्टागत मूल्य संपत्ति का चालू
बनता है, जिसे निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता
W=Y/r
जहां W कुल संपत्ति का चालू
मूल्य है, Y संपत्ति की पांच किस्मों से प्रत्याशित आय का कुल प्रवाह है, और r ब्याज
दर। यह समीकरण दर्शाता है कि संपत्ति पूंजीकृत आय है । (Wealth is capitalised
income).
मुद्रा का मांग फलन (Demand Function of Money)
फ्रीडमैन अपने नवीनतम अनुभवसिद्ध
अध्ययन Monetary Trends in the United States and the United Kingdom (1982) में एक
व्यक्तिगत संपत्ति धारक के मुद्रा के मांग फलन को सरल ढंग से अपने 1956 के मूल अध्ययन
से कुछ भिन्न निम्न संकेत-चिह्नों से व्यक्त करता
है:
M/P = ƒ (Y,
W, Rm Rb Re,gp, m)
जहां M मांगी गई मुद्रा का
कुल स्टॉक; P कीमत स्तर है; Y वास्तविक आय है; W गैर-मानव रूप में संपत्ति का अंश है;
Rm मुद्रा पर प्रत्याशित मुद्रारूप की दर है; Rb बांडों पर प्रत्याशित
प्रतिफल की दर है जिसमें उनकी कीमतों में प्रत्याशित परिवर्तन शामिल है; Re
ईक्विटियों पर प्रत्याशित मुद्रारूप प्रतिफल की दर है जिसमें उनकी कीमतों में प्रत्याशित
परिवतन शामिल है; gp = (1/P) (dP/dt) वस्तुओं की कीमतों में होने वाले परिवर्तन
की प्रत्याशित दर है, इसलिए भौतिक परिसंपत्तियों पर प्रत्याशित मुद्रारूप प्रतिफल की
दर है; और m
(म्यू) आय के अलावा अन्य चरों के लिए है जो मुद्रा की सेवाओं से संबद्ध उपयोगिता को
प्रभावित कर सकते हैं जैसे रुचियां, अधिमान आदि ।
व्यवसाय का मांग फलन लगभग समान
ही है। यद्यपि कुल संपत्ति और मानव संपत्ति में विभाजन बहुत लाभदायक नहीं होता है,
क्योंकि एक फर्म मार्किट में बेच और खरीद सकती है और अपनी इच्छानुसार अपनी मानव संपत्ति
को किराए पर दे सकती है। परन्तु अन्य घटक महत्त्वपूर्ण होते हैं । मुद्रा का समस्त
मांग फलन व्यक्तिगत मांग फलनों का योग है जिसमें M और Y क्रमशः प्रति व्यक्ति मुद्रा
धारणों और प्रति व्यक्ति आय को व्यक्त करते हैं। और W गैर-मानव रूप में समस्त संपत्ति
को व्यक्त करता है।
मुद्रा का मांग फलन इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अन्य बातें समान होने पर, विभिन्न परिसंपत्तियों की प्रत्याशित प्राप्तियों (Rb, Re और gp,) (प्रतिफलों) में वृद्धि होने से एक संपत्तिधारक की मुद्रा की मांग कम हो जाती है, और संपत्ति में वृद्धि से मुद्रा की मांग बढ़ जाती है। परन्तु सम्पत्ति के साथ मुद्रा की मांग का धनात्मक (positive) संबंध पाया जाता है। जब सम्पत्ति बढ़ती है तो इससे मुद्रा की मांग में वृद्धि होती है क्योंकि लोग मुद्रा को अधिक धारण करते हैं। अनुभवसिद्ध प्रमाण बताता है कि मुद्रा-मांग की आय लोच इकाई से अधिक होती है, जिसका अर्थ है कि दीर्घकाल में आय वेग (velocity) गिर रही होती है। इसका अभिप्राय है कि मुद्रा का दीर्घकालीन मांग फलन स्थिर और सापेक्षतया ब्याज बेलोच है जैसाकि नीचे के चित्र में दर्शाया गया है
जहा MD मुद्रा का मांग वक्र है । यदि ब्याज दर में परिवर्तन होता है तो परिसम्पत्तियों में नगण्य (negligible) परिवर्तन होगा।