जब समंको या आंकड़ों को 'ग्राफ पेपर' पर
अंकित करके निरूपित किया जाता है तो इसे बिंदुरेखीय प्रदर्शन अथवा रेखाचित्र अथवा
ग्राफीय प्रदर्शन कहते हैं।
आरकिन तथा काल्टन के अनुसार,"ग्राफ सांख्यिकीय आंकड़ों को दृष्टिमय रुप में प्रस्तुत करने की एक विधि है।"
बिन्दुरेखा का निर्माण
ग्राफ पेपर पर अंकित किये गये बिन्दुओं
को आपस में मिलाकर रेखाचित्र की रचना की जाती है। बिन्दु-रेखा की रचना प्राय: बिन्दुरेखीय -पत्र(Graph- Paper) पर की जाती है जिससे प्रत्येक सेण्टीमीटर अथवा इंच के वर्गों को 10 समान भागों
में विभक्त करती हुई रेखाएं खिंची रहती है और गणना की सुविधा के लिए मोटी लाल या नीली रेखाएं खिंची रहती है। रेखाचित्र बनाने की विधि इस प्रकार है :
1. मूल बिन्दु (Point of Origin) :- सर्वप्रथम एक मूल बिन्दु माना जाता है। इसे कटान बिन्दु भी
कहा जाता है। इसी बिंदु से समकोण बनाती हुई दो रेखाएं खींची जाती है - एक क्षैतिज तथा दूसरी उदग्र।
2. X-अक्ष एवं Y-अक्ष
(क) क्षैतिज रेखा(Horizontal Line) :- मूल बिंदु से जो रेखा बायें से दायें खींची जाती है, उसे आड़ी
या क्षैतिज रेखा कहा जाता है।
(ख) उदग्र रेखा(Vertical Line) :- मूल बिंदु से ऊपर की ओर खड़ी या उदग्र रुप से खींची गयी रेखा को उदग्र रेखा या खड़ी रेखा कहा जाता है।
(ग) कोटी अक्ष(Ordinate) :- ऊपर से नीचे की ओर खींची गयी रेखा अर्थात उदग्र रेखा को कोटी अक्ष कहते हैं। कोटी अक्ष को Y-अक्ष कहा जाता है।
(घ) भुजाक्ष(Abscissa) :- जो रेखा बातें से दायें खींची जाती है,उसे भुजाक्ष कहा जाता है। भुजाक्ष को X-अक्ष कहा जाता है।
3. चरण(Quadrant) :- भुजाक्ष और कोटी अक्ष समतल को चार चरणों में विभाजित कर सकते हैं
चरण 1 - मूल बिंदु के ऊपर दायीं ओर
चरण 2 - मूल बिंदु के ऊपर बायीं ओर
चरण 3 - मूल बिंदु के नीचे
बायीं ओर
चरण 4 - मूल बिंदु के नीचे दायीं ओर
चरण एक (Quadrant 1) में X और Y दोनों राशियां धनात्मक है, चरण दो में X की राशि ऋणात्मक है, Y की राशि धनात्मक है,चरण तीन में X व Y दोनों ऋणात्मक है, चरण चार में X धनात्मक है परन्तु Y ऋणात्मक है परन्तु व्यवहार में चरण एक ही अधिकतर काम में आता है
चित्र में चार बिन्दु अलग-अलग चरणों में प्रदर्शित किये गये है जिनके X तथा Y के मूल्य निम्नवत दिखाए जा सकते हैं
प्राय: स्वतन्त्र
चर
को
X-अक्ष
पर
दिखाया
जाता
है तथा आश्रित चर को Y-अक्ष
पर।
उदाहरण
के
लिए,
यदि
कोई
तथ्य
समय
से
सम्बन्धित
हों
तो
वर्ष
को
X-अक्ष पर। तथा समय से
सम्बन्धित
मूल्यों
(जैसे
निर्यात
मूल्यों)
को
Y-अक्ष पर दिखाया जाता है।
चित्रमय एवं बिन्दुरेखीय
प्रदर्शन में अन्तर
चित्रमय प्रदर्शन |
बिन्दुरेखीय प्रदर्शन |
यह
साधारण कागज पर बनाया जा सकता है |
इसमें
चित्र बनाने
के लिए
ग्राफ पेपर
का प्रयोग किया जाता है |
चित्रमय प्रदर्शन द्वारा
भूयिष्ठक अथवा
माध्यिका का
निर्धारण नहीं
हो सकता |
रेखाचित्रों द्वारा भूयिष्ठक, मध्यका तथा विभाजन मूल्यों का
निर्धारण किया जा सकता है |
चित्रमय प्रदर्शन स्थान
सम्बन्धी समंको
को प्रस्तुत करने के
लिए उपयुक्त होता है |
काल-श्रेणीयों तथा आवृत्ति वितरणों को प्रदर्शित
करने के लिए
बिन्दुरेखीय चित्र
अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी होते
हैं |
चित्रमय प्रदर्शन द्वारा समंको
का आन्तर्गणन एवं बाह्यगणन नहीं किया जा सकता |
इस
विधि द्वारा समंको का आन्तर्गणन एवं
बाह्यगणन सरलता तथा
शीघ्रता से
किया जा सकता है |
चित्रों का मस्तिष्क पर स्थाई
प्रभाव पड़ता
है |
बिन्दुरेखा सापेक्षत: कम
आकर्षक होते
है |
चित्र
सापेक्षत: आसानी
से समझा जा सकता है |
बिन्दुरेखा खींचना अपेक्षाकृत कठिन होता
है, अतः
इसका उपयोग
सभी के
द्वारा नहीं हो सकता। केवल
प्रशिक्षित व्यक्ति ही इसका
उपयोग कर
सकते हैं |
चित्र
में दण्ड,
आयत, वर्ग,
वृत्त आदि
का प्रयोग होता है |
रेखाचित्र में विभिन्न प्रकार की
रेखाएं ( सरल
रेखा, खण्डित रेखा, बिन्दुरेखा आदि) खींची
जाती है |
बिन्दुरेखों के प्रकार
बिन्दुरेखा के निम्नलिखित दो प्रकार हैं :- (1) काल श्रेणी के रेखाचित्र और (2) आवृत्ति वितरण के रेखाचित्र
1. काल श्रेणी के रेखाचित्र :- किसी समय की अवधि पर आधारित मूल्यों की श्रेणी को काल श्रेणी कहते हैं। इस काल श्रेणी को ग्राफ पेपर पर रेखा
चित्र द्वारा माह अथवा दिनों के आधार पर दर्शाया जाता है। इस प्रकार के चित्र को काल चित्र
या रेखाचित्र कहते हैं। इसके दो प्रकार है -
(1) एक चर के रेखाचित्र :- रेखाचित्र द्वारा एक ही चर को प्रदर्शित करने के लिए समय को X-अक्ष पर तथा विभिन्न मूल्यों को Y-अक्ष पर प्रदर्शित किया जाता है। समय एवं चर के मूल्यानुसार आंकड़ों को रेखाचित्र पर अंकित किया जाता है। अंकित किए गए बिंदुओं को मिला दिया जाता है। उदाहरण ---
(2) दो या दो अधिक चरों का रेखाचित्र :- दो या दो से अधिक चरों को भी रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। X-अक्ष पर समय तथा Y-अक्ष पर विभिन्न चरों के सभी मूल्यों को प्रदर्शित किया जाता है। समय और विभिन्न चरों के मूल्यों के अनुसार आंकड़ों को रेखाचित्र पर अंकित कर सभी बिंदुओं को मिलाया जाता है।
2. आवृत्ति वितरण के रेखाचित्र
:- आवृत्ति
वितरण
रेखाचित्र
एक
ऐसा
रेखाचित्र
है
जो
समय
से
सम्बन्धित
नहीं
होता बल्कि आंकड़ों के आवृत्ति
वितरण
को
प्रदर्शित
करता
है।
आवृत्ति वितरण के रेखाचित्र निम्न प्रकार के होते हैं :
(A) रेखा
आवृत्ति
चित्र
(B) आवृत्ति आयत चित्र (C) आवृत्ति
बहुभुज
(D) आवृत्ति वक्र (E) संचयी
आवृत्ति
वक्र
या
ओजाइव
वक्र
(A) रेखा आवृत्ति चित्र :- खण्डित श्रेणियों में रेखा आवृत्ति चित्र
का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार का चित्र बनाते समय पद-मूल्यों को भुजाक्ष
(X-अक्ष)
तथा
आवृत्तियों को कोटि-अक्ष(Y-अक्ष) पर रखकर प्रत्येक
मूल्य के बिंदु पर उसकी आवृत्ति के माप की ऊंचाई के बराबर लम्ब -
रेखा
खींच दी जाती है।
यदि लम्ब रेखा न खींचकर निश्चित चौड़ाई के दण्ड
चित्र खींचे जाते हैं तो इस आलेख को आवृत्ति दण्ड चित्र कहा जा सकता है।
नीचे दिये गये उदाहरण में पहला चित्र आवृत्ति रेखाचित्र और दूसरा चित्र आवृत्ति दण्ड चित्र है।
(B) आवृत्ति आयत चित्र :-
अखण्डित
समंक
श्रेणियों
के
प्रदर्शन
के
लिए
आवृत्ति
आयत
चित्र
का
प्रयोग
किया
जाता है। यदि वर्गान्तर समावेशी
है
तो
आवृत्ति
आयत
चित्र
बनाने
के
लिए
पहले
उन्हें
अपवर्जी
बना
लिया
जाता
है।
आवृत्ति आयत चित्र के प्रकार
(क) समान
वर्गान्तरो
का
आवृत्ति
आयत
चित्र
, (ख)
आवृत्ति
आयत
चित्र
: जब
मध्य
बिन्दु
दिये
हो,
(ग)
असमान
वर्गान्तरों
का
आवृत्ति
आयत चित्र, (घ) आवृत्ति आयत चित्र
: जब
वर्गान्तर
समावेशी
रीति
द्वारा
दिया
गया
हो।
(क) समान वर्गान्तरो का आवृत्ति आयत चित्र :- यदि वर्गान्तर समान है तो आयतों की चौड़ाई समान रहेगी तथा ऊंचाई आवृत्तियों के अनुपात में होगी। प्रत्येक वर्गान्तर तथा उसकी आवृत्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले आयत एक दूसरे से सटे हुए बनाए जाते हैं। उदाहरण -
(ख) आवृत्ति आयत चित्र : जब मध्य
बिन्दु दिये हो :- मध्य मूल्य दिये होने
पर
आवृत्ति
आयत
चित्र
बनाने
में
निम्नांकित
चरण
सम्मिलित
होते
हैं
-
1. सर्वप्रथम
मध्य
मूल्यों
के
आधार
पर
वर्ग
की
दोनों
सीमाएं
निश्चित
की
जाती
है। इसके लिए दो
निकट
के
मध्य
मूल्यों
का
अन्तर
वर्गान्तर
होता
है।
2. वर्गान्तर ज्ञात हो जाने पर निम्न सूत्रों की सहायता से वर्ग की दोनों सीमाएं ज्ञात कर ली जाती है
3. X-अक्ष
पर
चर
के मूल्य प्रदर्शित किते जाते
हैं।
4. Y-अक्ष
पर चरों
से
सम्बन्धित
आवृत्तियां
प्रदर्शित
की
जाती
है।
5. प्रत्येक वर्ग तथा उसकी आवृत्ति का प्रतिनिधित्व
करने वाले आयत एक -दूसरे को
जोड़ते
हुए
बनाए
जाते
हैं। उदाहरण -
प्राप्तांक |
5 |
15 |
25 |
35 |
45 |
55 |
65 |
छात्रों की संख्या |
20 |
30 |
50 |
80 |
60 |
40 |
20 |
हल
मध्य
मूल्य |
वर्गान्तर |
आवृत्ति
(f) |
5 |
0-10 |
20 |
15 |
10-20 |
30 |
25 |
20-30 |
50 |
35 |
30-40 |
80 |
45 |
40-50 |
60 |
55 |
50-60 |
40 |
65 |
60-70 |
20 |

(ग) असमान वर्गान्तरों का आवृत्ति आयत चित्र :- असमान वर्गान्तरों की स्थिति में, यदि आयतों की
ऊंचाई आवृत्ति के अनुपात में रखकर चित्र बनाया जाता है तो आयतों का क्षेत्रफल
आवृर्तियों के समानुपाती नहीं रह पाता। इस दोष को हटाने के लिए निम्न
विधि
प्रयोग में लायी जाती है :
1. वह वर्ग
लीजिए जिसमें सबसे कम वर्गान्तर है।
2. सबसे कम
वर्ग
की आवृर्तियों को व्यवस्थित न करें।
3. जिस अनुपात
में वर्गान्तर असमान है, उसी अनुपात में आयत की ऊंचाई
कम कर देते हैं ताकि क्षेत्रफल आवृर्तियों के
समानुपाती ही रहे अर्थात् :
आयत की
ऊंचाई
= C × आवृत्ति / वर्गान्तर
जहां C एक
अंतर
राशि है। यदि वर्गान्तर
दूना
होता
है
तो
ऊंचाई
आवृत्ति
की
आधी
होगी।
उदाहरण
-
मजदूरी |
मजदूरों
की
संख्या |
10-15 |
7 |
15-20 |
19 |
20-25 |
28 |
25-30 |
15 |
30-40 |
12 |
40-60 |
12 |
60-80 |
8 |
यह वर्ग लीजिए जिसका वर्गान्तर सबसे कम है। यहां सबसे कम वर्गान्तर 5 है अतः C= 5 (2) 5 वर्गान्तर वाली आवृत्ति को छोड़कर अन्य वर्गों की आवृत्तियों को समायोजित किया जायेगा। जैसे -
(घ) आवृत्ति आयत चित्र : जब वर्गान्तर सम्मिलित
या समावेशी रीति द्वारा दिया गया हो :- जब वर्गान्तर
सम्मिलित या समावेशी रीति द्वारा दिया रहता है अर्थात प्रत्येक वर्ग में उच्च एवं
निम्न सीमाएं सम्मिलित रहती है तो यह आवश्यक हो जाता है कि वर्गों की निम्न तथा
उच्च सीमाओं को व्यवस्थित किया जाये जिससे जुड़ते हुए आयतों का उचित चित्र बन सके।
उदाहरण
-
अंक |
छात्रों
की
संख्या |
10-14 |
3 |
15-19 |
5 |
20-24 |
10 |
25-29 |
6 |
30-34 |
4 |
35-39 |
2 |
समावेशी श्रेणी में आवृत्ति आयत के निर्माण के लिए श्रेणी को पहले अपवर्जी बनाना होता है। इसके लिए उच्च सीमा में 0.5 घटाते हैं और निम्न सीमा में 0.5 जोड़ देते हैं । उदाहरण :-
समावेशी
वर्ग
अन्तराल |
अंक |
छात्रों
की
संख्या |
10-14 |
9.5-14.5 |
3 |
15-19 |
14.5-19.5 |
5 |
20-24 |
19.5-24.5 |
10 |
25-29 |
24.5-29.5 |
6 |
30-34 |
29.5-34.5 |
4 |
35-39 |
34.5-39.5 |
2 |
(C) आवृत्ति बहुभुज :-
जब
आवृत्ति
चित्र
के
प्रत्येक
वर्गान्तर
पर
बने
आयत
के
मध्य
बिन्दुओं
को
सरल
रेखा
से
मिला
दिया
जाये
तो
इस
प्रकार
बने
वक्र
को
'आवृत्ति
बहुभुज'
कहते
हैं।
इस
वक्र
के
दोनों
छोरों को X-अक्ष के
दोनों
किनारों से मिला देते
हैं।
आवृत्ति बहुभुज दो रुप में बनाया जा सकता है :
(a) आवृत्ति आयत चित्र सहित आवृत्ति बहुभुज :- इस रीति में
दिये
गये आंकड़ों से पहले आवृत्ति
आयत
चित्र बनाया जाता है। फिर सभी आयतों की ऊपरी भुजा के मध्य बिंदु ज्ञात किये जाते
हैं।
इन मध्य बिंदुओं को सरल रेखा द्वारा मिला दिया
जाता है। अन्त में प्रथम
आयत
तथा अंतिम आयत की ऊपरी भुजा के मध्य बिंदुओं को आधार रेखा
पर अगले वर्गान्तरों के मध्य बिंदुओ से
मिला दिया जाता है, ताकि आवृति बहुभुज तथा आवृत्ति आयत
चित्र का क्षेत्रफल बराबर हो जाए। उदाहरण
-
अंक |
छात्रों
की
संख्या |
5-10 |
12 |
10-15 |
28 |
15-20 |
35 |
20-25 |
45 |
25-30 |
22 |
30-35 |
14 |

(b) आवृत्ति आयत चित्र रहित आवृत्ति बहुभुज
:- इस
विधि में विभिन्न वर्गोन्तर का मध्य बिंदु लिया जाता
है फिर इन मध्य बिंदुओं को भुजाक्ष
तथा इनकी संबंधित आवृत्तियों को कोटि -अक्ष पर अंकित करके सभी बिंदुओं को सीधी
रेखा द्वारा मिला दिया जाता है। इस विधि से
प्राप्त आवृत्ति बहुभुज का ग्राफ पहली विधि के ही समान
होता है। उदाहरण -
अंक |
छात्रों
की
संख्या |
5-15 |
5 |
15-25 |
12 |
25-35 |
15 |
35-45 |
22 |
45-55 |
14 |
55-65 |
4 |
(D) आवृत्ति वक्र :- यदि आवृत्ति बहुभुज को सरल वक्र के रूप में मिला
दिया जाये तो यह 'आवृत्ति वक्र' कहलाता है। यह
वास्तव में आवृत्ति बहुभुज का सरलित रूप होता है। आवृत्ति वक्र बनाते समय यह ध्यान
रखना पड़ता है कि आवृत्ति बहुभुज की कोणीयता समाप्त कर दी जाए और इसलिए आवृत्ति
वक्र बनाने के लिए आवृत्ति बहुभुज के आयतों के शीर्ष बिंदुओं को सीधी रेखाओं
द्वारा न मिलाकर मुक्त हस्त 'कोण रहित' वक्र द्वारा
मिलाया जाता है। उदाहरण -
वर्गान्तर |
आवृत्ति |
0-10 |
15 |
10-20 |
30 |
20-30 |
50 |
30-40 |
80 |
40-50 |
100 |
50-60 |
90 |
60-70 |
40 |
70-80 |
10 |
(E) संचयी आवृत्ति वक्र या ओजाइव
वक्र :- संचयी आवृत्ति वक्र
वह वक्र है जो आवृत्तियों को संचयी आवृत्ति में बदलकर
ग्राफ पेपर पर बनाया जाता है। संचयी आवृत्ति वक्र को ओजाइव वक्र भी कहते
हैं।
संचयी आवृत्ति वक्र दो रितियों से बनाया जा सकता है :
1. 'से कम' संचयी आवृत्ति बहुभुज :- 'से कम' संचयी आवृत्ति वक्र बनाने के लिए वर्ग- अन्तराल की उच्च
सीमाओं को भुजाक्ष (OX-अक्ष) पर तथा संचयी
आवृत्तियों को कोटि अक्ष (OY-अक्ष) पर लेकर बिन्दुओं
का आलेखन करने के बाद इन्हें क्रमानुसार सरल रेखाओं से मिला दिया जाता है। यह वक्र
ऊपर की ओर उठता हुआ होता है।
2. 'से अधिक' संचयी आवृत्ति बहुभुज :- 'से अधिक' संचयी आवृत्ति बहुभुज या वक्र को बनाने
के लिए वर्ग-अन्तराल की निम्न सीमाओं को
भुजाक्ष पर तथा उनकी संगत आवृत्तियों को कोटि अक्ष
पर लेकर बिन्दुओं का आलेखन करने के बाद इन्हें
क्रमानुसार सरल रेखाओं से मिला दिया
जाता है। यह वक्र नीचे
की ओर गिरता हुआ होता है।
ओजाइव से मध्यका की गणना :
ग्राफिक विधि द्वारा मध्यका की गणना के लिए ग्राफ
पेपर पर 'से कम ओजाइव'
तथा 'से अधिक ओजाइव' वर्कर खींचे जाते
हैं।
जहां पर ये दोनों वक्र एक-
दूसरे को काटते हैं, उस बिंदु से X-अक्ष पर
लम्ब
डाला
जाता है। यह लम्
X-अक्ष
को जिस स्थान पर मिलता है, वह मध्यका का मूल्य होता है।
उदाहरण
-
प्राप्तांक |
छात्रों
की
संख्या |
0-10 |
7 |
10-20 |
12 |
20-30 |
16 |
30-40 |
26 |
40-50 |
20 |
50-60 |
11 |
60-70 |
8 |
प्राप्तांक |
छात्रों
की
संख्या
(f) |
'से
कम'
ओजाइव |
'से
अधिक'
ओजाइव |
||
अंक |
संचयी
आवृत्ति |
अंक |
संचयी
आवृत्ति |
||
0-10 |
7 |
10 से
कम |
=7 |
0 से
अधिक |
=100 |
10-20 |
12 |
20 से
कम |
7+12=19 |
10 से
अधिक |
100-7=93 |
20-30 |
16 |
30 से
कम |
19+16=35 |
20 से
अधिक |
93-12=81 |
30-40 |
26 |
40 से
कम |
35+26=61 |
30 से
अधिक |
81-16=65 |
40-50 |
20 |
50 से
कम |
61+20=81 |
40 से
अधिक |
65-26=39 |
50-60 |
11 |
60 से
कम |
81+11=92 |
50 से
अधिक |
39-20=19 |
60-70 |
8 |
70 से
कम |
92+8=100 |
60 से
अधिक |
19-11=8 |
|
|
|
|
70 से
अधिक
|
8-8=0 |
|
100 |
|
|
|
|
बिन्दु रेखीय प्रस्तुतीकरण के गुण-लाभ अथवा महत्व या उपयोगिता
1. इस विधि
द्वारा जटिल एवं अव्यवस्थित आंकड़ों को सरल रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है।
2. इस विधि
का प्रयोग पूर्वानुमान, अन्तर्गणन एवं
वाह्मगणन
में किया जाता है।
3. इसकी सहायता
से माध्यिका, बहुलक तथा अन्य विभाजित मूल्यों को
ज्ञात किया जा सकता है।
4. इसकी सहायता
से सह-सम्बन्ध
की मात्रा ज्ञात की जा सकती है।
5. इसकी सहायता
से चर के मूल्यों के उतार-चढ़ाव का अध्ययन भी किया जा सकता है।
6. इसमें
समय एवं श्रम की बचत होती है।
7. इसके द्वारा
सांख्यिकीय सूचनाओं की तुलना में सहायता मिलती
है।
बिन्दुरेखीय प्रदर्शन की सीमाएं
1. समझने में कठिनाई :- कुछ विशेष
प्रकार के रेखाचित्र, जैसे - अनुपात माप श्रेणी के वक्र, दो मापदण्डों
वाले रेखाचित्र आदि सामान्य व्यक्ति की
समझ से परे होते हैं।
2. केवल बृहद् प्रवृत्ति का ज्ञान :- बिन्दुरेखीय समंको
से समंको की शुद्धता का पता नहीं चलता है।
इससे केवल समंको के उतार-चढ़ाव की जानकारी होती है,
वास्तविक मूल्य का पता नहीं चलता है।
3. दुरुपयोग :- बिन्दुरेखाओं
के मापदण्डों में थोड़ा सा परिवर्तन करके तथा वक्र के आधार को
परिवर्तित करके समंकों का दुरुपयोग किया जा सकता है।
4. अपूर्णता :- इन रेखाचित्रों द्वारा कई प्रकार की सूचनाओं या समंकों को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।