(समावेशी विकास का अभिप्राय और 11वीं और 12वीं
पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान विकास की नीति और रणनीति)
समावेशी विकास
समावेशी
विकास का अर्थ है विकास की ऐसी संकल्पना जो समाज के सभी लोगों, विशेषकर गरीब तथा
वंचित वर्गों को विकास की मुख्य धारा में लाना।
बहुजन
के प्रगति के संदर्भ में समावेशी विकास, सामाजिक और वित्तीय समावेशन के रूप में
देखा जा सकता है। जनसंख्या का बड़ा हिस्सा विशेषकर, भूमिहीन कृषि श्रमिक, सीमान्त
किसान, अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियां और अन्य पिछड़े वर्ग जैसे घटक
सामाजिक और वित्तीय बहिष्करण से पीड़ित हैं। तदनुसार, सरकार की नीतियां इन वर्गों के
आर्थिक और सामाजिक उत्थान की ओर लगाई गई हैं ताकि प्रत्येक को संवृद्धि का लाभ
लेने में समर्थ बनाया जा सके और समाज के हाशिए पर बैठे वर्गों को मुख्यधारा में
लाया जा सके। इसे सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र में किए गए व्यय में भी
प्रतिबिंबित किया गया है। यथा-
समावेशी विकास के लक्ष्यों की प्राणित तीन पहलुओं को आवश्यक माना
गया है-
•
ऊँची आर्थिक विकास दर
•
आर्थिक विकास से उत्पन्न लाभ का समान वितरण तथा वित्तीय समावेशन
समावेशी
विकास को प्राप्त करने के लिए निम्न उपायों पर फोकस करना आवश्यक है-
•
आधारभूत सुविधाएँ जैसे- भोजन, आवास, सड़क, जल इत्यादि तक सभी की
पहुँच सुनिश्चित हो।
•
रोजगार के समान अवसर सृजित हो।
•
वंचित वर्गों हेतु विशेष कार्यक्रम हो।
शून्य
बैलेंस सुविधा प्रदान कर (आर बी आई द्वारा), ग्रामीण मध्यवर्ती संस्थाओं का विकास
करके, इलेक्ट्रानिक बैंक ट्रांसफर आदि का उपयोग करके इस दिशा में व्यापक पहल की गई
है।
वित्तीय समावेशन हेतु प्रमुख उपाय-
•
देश के सभी क्षेत्रों विशेषकर दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों व पिछड़े इलाकों में बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध कराना।
•
लोगों में बैंकिंग प्रणाली के प्रति जागरूकता लाना।
•
पिछड़े क्षेत्रों में न्यूनतम लागत पर ऋण की सुविधा आदि।
इस
दिशा में सरकार ने की कई योजनाएँ लाई है। प्रधानमंत्री जन-धन योजना इस दिशा में
प्रभावी पहल है। इस योजना का शुभारभ 28 अगस्त, 2014 को मेरा खाता,
भाग्य विधाता के आदर्श वाक्य के साथ हुई। इसका लक्ष्य है वंचित
एवं गरीब लोगों को वित्तीय सेवाओं यथा बचत बैंक खाता, साख, बीमा, पेंशन आदि की
उपलब्धता को सुनिश्चित करना। अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना भी
इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास है।
भारत समावेशी नवाचार कोष
27
जनवरी, 2014 को राष्ट्रीय नवाचार परिषद और सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय (MSME : Ministry of micro Small and Medium Enterprises)
ने संयुक्त रूप से एक 'भारत समावेशी नवाचार कोष' (IIIF : India Inclusive Innovation
Fund) के गठन की घोषणा की थी। इस कोष की आरंभिक निधि
500
करोड़ रुपये निर्धारित था, जिसमें से 20 प्रतिशत (100 करोड़ रु.)
का योगदान 'सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय (Msme) द्वारा तथा शेष योगदान
बैंकों, बीमा कंपनियों, विदेशी वित्तीय और विकास संस्थाओं द्वारा किया गया था। इस
कोष का उद्देश्य आगामी दो वर्षों में निधि को 5000 करोड़ रुपये तक विस्तार करना
है। यह कोष उन नवाचारी उपक्रमों में निवेश करेगा जो मापन योग्य,
पोषणीय, टिकाऊ और लाभदायक हैं। इसके साथ ही यह कोष अल्प सुविधा प्राप्त नागरिकों
की स्वास्थ्य-देखभाल, खाद्य, पोषण, कृषि, शिक्षा, कौशल विकास,
ऊर्जा, वित्तीय समावेशन, जल, स्वच्छता और रोजगार सृजन जैसे क्षेत्रों की सामाजिक
आवश्यकताओं को भी पूरा करेगा। विदित हो कि 21वीं सदी में राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मकता
और समृद्धि के विकास में नवाचार (Innovation) की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए
भारत | सरकार ने वर्ष 2010-20 के दशक को 'नवाचार का दशक' (Decade
of Innovation) घोषित किया है।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना
1
अप्रैल, 2007 से शुरू 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007 - 12) का मुख्य बल अधिक तीव्र, अधिक व्यापक और समावेशी विकास पर था। इस योजना में औसत
वार्षिक वृद्धि दर का लक्ष्य 90% प्रस्तावित (बाढ़ में 8.5%) था। इसमें गरीबी
रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या कम करने, प्राथमिक स्कूल
से बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों के प्रतिशत को 5 से 10% तक लाने, 7 वर्ष या
उससे ऊपर के लोगों की साक्षरता दर को 80% तक ले जाने आदि का लक्ष्य रखा गया।
योजना
आयोग ने योजनाओं का बीच में मूल्यांकन करने की कोशिश की, जिस पर जुलाई 2010 में
राष्ट्रीय विकास परिषद ने विचार किया और अपनी स्वीकृति दी। मूल्यांकन दस्तावेज ने
विकास कामों की समीक्षा की और ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अलग-अलग
क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को आंका गया। इस आकलन सुधार के परामर्श भी
थे। कुछ चुने हुए क्षेत्रों में इसने समस्याओं की तरफ ध्यान खींचने का काम किया। उन
अवरोधों को भी चिन्हित किया, जो ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना की शेष समय-सीमा और
12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए प्रासंगिक हो सकते थे।
अन्य मुद्दों के साथ इसमें हैं :
(i)
कृषि में उत्साह की पुनर्बहाली
(ii)
भारत के जल-संसाधन का प्रबंधन
(iii)
ऊर्जा उत्पादन लक्ष्यों को पाने में आती समस्याएं
(iv)
शहरीकरण से जुड़े मुद्दे
(v)
आदिवासी विकास से जुड़ी विशेष समस्याएं
कृषि
के मद्देनजर समय-सीमा के बीच में हुआ मूल्यांकन बताता है कि हालांकि, 11वीं योजना
में कृषिगत प्रदर्शन व विकास-दर, दोनों 10वीं योजना से बेहतर लगते
हैं, लेकिन सालाना चार प्रतिशत के लक्ष्य को नहीं पाया जा सकता।
कृषि पर ध्यान की जरूरत के अलावा ऊपर बताए गए दूसरे महत्त्वपूर्ण मुद्दों के लिए
केंद्र और राज्यों को सम्मिलित कार्रवाई करनी पड़ेगी। योजना आयोग द्वारा गरीबी
आकलन पर समीक्षा भी महत्वपूर्ण है। खासकर तब, जब यह मुद्दा देश में बहस का विषय बन
चुका है। योजना आयोग देश में, राष्ट्रीय स्तर पर और राज्यों में, गरीबी का आकलन
करने की एक केंद्रीय ऐजेंसी है। यह गरीबी का पता गरीबी रेखा के आधार पर करता है,
जो प्रति माह प्रति व्यक्ति खर्च के संदर्भ में परिभाषित है।
गरीब
की संख्या और अनुपात के निर्धारण' पर विशेषज्ञ दल की एक रिपोर्ट
ने जो कार्य-पद्धति बनाई है, उसी के आधार पर 1977 से आयोग गरीबी रेखा और गरीबी
अनुपात का आकलन कर रहा है। इस रिपोर्ट को लकड़ावाला समिति की रिपोर्ट कहते हैं।
ऊपर चर्चा की गई गरीबी रेखा के इस्तेमाल से गरीबी-अनुपात का पता चलता है। लगभग हर
पांच साल पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ) द्वारा पारिवारिक व्यय के
बड़े नमूने से गरीबी रेखा निकाली जाती है। गरीबी के आकलन के लिए मौजूद तौर-तरीकों
की पुनर्समीक्षा हेतु प्रोफेसर सुरेश डो. तेंदुलकर की अध्यक्षता में दिसंबर, 2005
को योजना आयोग ने एक विशेषज्ञ दल का गठन किया। इस दल ने अपनी रिपोर्ट दिसंबर, 2009
में सौंपी। गरीबी की बहुआयामी प्रकृति को पहचानने के साथ, विशेषज्ञ दल ने यह
सिफारिश की कि कैलोरी ग्रहण की मात्रा पर गरीबी रेखा भरोसा छोड़कर मिश्रित संदर्भ
अवधि (एमआरपी) को अपनाए. जो परिवार के उपभोग-व्यय के आकलन पर निर्धारित हो। चूंकि भविष्य
की गरीबी रेखा के लिए एमआरपी है, इसलिए यह शहरी गरीबी रेखा अंक (पीएलबी) के लिए भी
समतुल्य है। हालांकि, अलग अलग कार्य पद्धति के कारण तेंदुलकर समिति का आकलन
तत्कालीन गरीबी आकलन से मेल नहीं खा सकता। जैसा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के मध्य-अवधि
मूल्यांकन में यह संकेत दिया गया था कि तेंदुलकर समिति की अनुशंसाओं, जो 2004-05
के लिए संशोधित गरीबी रेखा और गरीबी अनुपात थीं, को योजना आयोग ने स्वीकार किया।
तेंदुलकर समिति ने यह विशेष तौर पर बताया कि 2004-05 में निर्धारित ग्रामीण गरीबी
की फीसदी में जो बदलाव हुआ है, वह नई गरीबी की फीसदी में जो बदलाव हुआ है, वह नई
गरीबी रेखा के नियम को लागू करने से हुआ है. न कि इसकी यह व्याख्या यह की जाए कि
इस बीच गरीबी बढ़ी है। समिति ने यह भी कहा कि चाहे हम पुरानी गणना को लें या नई
को, गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत गिरा है।
मूल्य-स्थिरता
का मुद्दा योजना अवधि के आधे से अधिक समय तक बना रहता है। मूल्य-वृद्धि के संकट से
बचने के लिए एक तरफ सरकार को कई कर-रियायतों की घोषणा करनी पड़ती है, तो दूसरी
तरफ, आम जन पर आयातित तेल की कीमतों का बोझ भी नहीं पड़ने देना होता है। नतीजतन,
सरकारी खजाने में फंड की कमी की स्थिति आती है और अंत में, सरकार के पास निवेश किए
जाने वाले फंड की न्यूनतम आपूर्ति हो जाती है। यही सब कारण रहें, जिनसे ग्यारहवीं
पंचवर्षीय योजना अपने लक्ष्य से पीछे रह गई।
12वीं पंचवर्षीय योजना
भारत
में योजनाओं का लक्ष्य और सामाजिक उद्देश्य संविधान में दिये गये राज्य के नीति
निर्देशक सिद्धान्त से निर्धारित हुआ है। देश में अब तक के (प्रथम से ग्यारहवीं)
आयोजन पर मौजूदा दृष्टिकोण सामान्य रूप से यह है कि उनको स्वास्थ्य और अधिकाधिक
दिशा-सूचक होना चाहिए।
12वीं
पंचवर्षीय योजना । अप्रैल, 2012 से 31 मार्च, 2017 तक के लिए था।
योजना में तेज, सतत एवं अधिक समावेशी विकास को मूलभूत लक्ष्य के रूप में स्वीकार
किया गया था। 12वीं योजना इस बात को पूर्णतः स्वीकार करती है कि विकास का उद्देश्य
जनता की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक सुधार करना है। तथापि, इस
उद्देश्य की पूर्ति के लिए GDP का तीव्र विकास अनिवार्य है।
बारहवीं योजना के दृष्टिकोण पत्र :
जिसे राष्ट्रीय विकास परिषद् (एनडीसी) द्वारा वर्ष 2011 में अनुमोदित
किया गया। इस योजना अवधि में जीडीपी के लिए 9 प्रतिशत औसत विकास
लक्ष्य निर्धारित किया था। यह उस वर्ष में युरोजोन संकट द्वारा वैश्विक आथिक
संभावनाओं में तीव्र गिरावट को प्रवर्तित करने से पहले और घरेलू अर्थव्यवस्था में
मंदी का विस्तार मालूम होने से पहले किया गया था।
इस
एकीकृत जीडीपी विकास लक्ष्य के अंतर समावेशिता के लिए दो उप-लक्ष्य महत्वपूर्ण
हैं। ये हैं-बारहवीं योजना अवधि में कृषि क्षेत्र के लिए 4 प्रतिशत की विकास दर
तथा योजना के अंतिम दो वर्षों में विनिर्माण क्षेत्र के लिए लगभग 10 प्रतिशत की
विकास दर का लक्ष्य है। क्षेत्र संबंधी इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए
नीतियों की जरूरत है।
गरीबी
उपशमन के रूप में समावेशिता : वितरण संबंधी चिंताओं को परंपरागत रूप में गरीबों और
हाशिए पर खड़े लोगों तक पर्याप्त रूप से लाभ की पहुंच सुनिश्चित करने के रूप में
देखा गया है। समावेशिता के इस आयाम का रिकार्ड उत्साहजनक है। आंकड़ों के अनुसार
गरीबी रेखा के नीचे रह रही आबादी के प्रतिशत में कमी आ रही है। लेकिन वास्तविकता
यह है कि अभी बहुत बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।
बारहवीं
योजना में पिछड़ रहे राज्यों के विकास में तीव्रता के लिए संभावनाओं पर बल देना
होगा। इसके लिए राज्यों को योजना बनाने, उन्हें लागू करने संबंधी अपनी क्षमताओं को
मजबूत करने तथा अपने को प्रशासन और केन्द्र सरकार के साथ सम्मिलन करना होगा। देश
में पिछड़े क्षेत्रों के विकास में प्रमुख बाधा अवसंरचना खासकर सड़क संपर्क,
विद्यालय और स्वास्थ्य सुविधाएं और बिजली उपलब्धता की खराब स्थिति जो मिलकर विकास
में बाधक बनते हैं। योजना में समावेशिता, समानता, सशक्तिकरण के रूप में समावेशिता,
मनरंगा जैसे कार्यक्रमों के जरिये समावेशिता तथा पर्यावरण निरंतरता जैसे मुद्दों
पर ध्यान दिया गया।
बारहवीं
पंचवर्षीय योजना के लिए विस्तृत उद्देश्य, लक्ष्य एवं महत्वपूर्ण क्षेत्र :
बारहवीं योजना के लिए इलेक्ट्रॉनिकी तथा सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के विजन और
बहु आयामी कार्यनीति के जरिये भारत को ई-विकास करना है। इसमें सुविधाएं प्रदान
करके तथा फास्ट ट्रैक ई- शासन के लिए अवसंरचना विकास, सॉफ्टवेयर (आईटी-आईटीएस) उद्योग
का संवर्धन, ज्ञान नेटवर्क का निर्माण तथा भारत के साइबर स्पेस को सुरक्षित रखना
शामिल है।
बारहवीं
योजना की रणनीति : बारहवीं योजना में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच बढ़ाने और देश में
सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) प्रणाली स्थापित करने के दीर्घकालिक
उद्देश्यों की ओर काम करने के लिए ग्यारहवीं योजना की पहलों को मजबूत बनाने की
परिकल्पना की गई थी। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की वहन करने योग्य कीमत
पर दवाइयों और उपचार की एक निश्चित आवश्यकता रेंज तक आश्वस्त पहुंच होगी जो अधिकतर
लोगों के लिए पूरी तरह नि:शुल्क होनी चाहिए। रणनीति के ऐसे कुछ मुख्य तत्वों को
रेखांकित करना संभव है जो बारहवीं योजना में अपनाया गया
1.
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा प्रणाली को पर्याप्त रूप से विस्तार करना
और इसे मजबूत बनाना। आज अधिकतर आबादी निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य सुविधा प्रदाताओं
पर निर्भर है।
2.
केन्द्र और राज्यों द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र का व्यय, योजना और योजनेत्तर दोनों में बारहवीं योजना के अंत तक काफी वृद्धि होगी। इसमें दसवीं
योजना में जीडीपी के 0.94 प्रतिशत से ग्यारहवीं योजना में 1.04 प्रतिशत की वृद्धि
पहले ही हो चुकी है। रोग नियंत्रण के मुख्य कारकों के रूप में
स्वच्छ पेयजल तथा साफ-सफाई का प्रबंध करना औद्योगिक देशों के इतिहास से सुस्थापित
कारक है और स्वास्थ्य संबंधी संसाधन को इस व्यापक परिभाषा की प्रतिशत जरूरत को
बारहवीं योजना के अंत तक बढ़ा कर 2.5 प्रतिशत कर दिये जाने का लक्ष्य।
3.
उपलब्ध संसाधनों का अधिक कुशल उपयोग सुनिश्चित करने और बेहतर
स्वास्थ्य संबंधी परिणाम हासिल करने के लिए वित्तीय और प्रबंधकीय प्रणालियों को
फिर से तैयार करना और समूचे क्षेत्रों में सेवाओं की समन्वित सुपुर्दगी, जवाबदेही
के अनुसार प्रत्यायोजन, नवचार की भावना विकसित करना। कुछ ऐसे प्रस्तावित उपाय हैं जो
यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि बेहतर स्वास्थ्य परिणामों के लिए कम से अधिक किया जा
सकता है।
4.
स्वास्थ्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच समन्वय को प्रोत्साहित करने का उचित तरीका खोजने का प्रयास
करना।
5.
वर्तमान राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा करना (आरएसबीवाई), जो बीमा आधारित
प्रणाली के माध्यम से पात्र लाभार्थियों के लिए नकदी उपचार प्रदान करती है, में
सुधार की आवश्यकता होगी ताकि व्यापक प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक सुविधा तक
निरंतर पहुंच हो सकें।
6.
स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने में कुशल मानव संसाधनों की उपलब्ध ता
हमेशा मुख्य बाधा रही है। स्वास्थ्य समर्पित वित्तीय संसाधनों का विस्तार तब तक
वांछित परिणाम नहीं देगा जब तक स्वास्थ्य कर्मी उपलब्ध न हों। मेडिकल स्कूलों,
नर्सिंग कालेजों का व्यापक प्रसार इसलिए आवश्यक है और सार्वजनिक क्षेत्र के मेडिकल
स्कूलों को भी इस प्रक्रिया में अहम भूमिका निभानी चाहिए।
7.
ग्यारहवीं योजना में यह महत्वपूर्ण सीख मिली कि लोगों की बीमारी दूर
करने या क्रियाकलापों या संस्थानों को विधिबद्ध करने के लिए केन्द्रीय स्तर पर
प्रायोजित योजना की बहुविविधता, स्वास्थ्य प्रणाली के समग्र दृष्टिकोण को रोकती
है, इससे कार्य दोहराये जाते हैं और निरर्थकता आती है और यह समन्वित सेवा को कठिन
बनाती है।
8.
दवा निर्धारण सुधारों की शृंखला आवश्यक सामान्य औषधियों का
संवर्धन और आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं के भाग के रूप में निःशुल्क उपलब्ध कराना
प्राथमिकता होगी।
9.
लोगों को जोखिम और अनैतिक व्यवहार से सुरक्षित रखने के लिए मेडिकल
प्रैक्टिस, खाद्य और दवाइयों में कारगर विनियम आवश्यक है। ऐसा करना इसलिए विशेष
रूप से आवश्यक है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में सूचना में देरी के कारण किसी
व्यक्ति को अपनी पसंद बताना मुश्किल होता है।
10.
बारहवीं योजना की स्वास्थ्य प्रणाली में सार्वजनिक और निजी सेवा प्रदाताओं
दोनों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत बनाने की आवश्यकता
पर बल दिया गया। तत्काल सेवा देने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों को भी आपस
में समन्वय स्थापित करने की जरूरत है। दी गयी सेवाओं की गुणवत्ता पर नजर रखने के
लिए एक मजबूत विनियामक प्रणाली होगी।
लक्ष्य निर्धारण : योजना आयोग द्वारा 21
अप्रैल, 2012 को प्रधानमंत्री को प्रस्तुत प्रेजेंटेशन में, बारहवीं योजना के अगले
पांच वर्षों में निम्नांकित लक्ष्यों की प्राप्ति की रूपरेखा बनायी गई थी-
•
सकल घरेलू उत्पाद 9 से 9.5%
•
शिक्षा दर-100%
•
स्वास्थ्य सेवा पर खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.3 से 2.0% तक
वृद्धि
•
कृषि-4-4.2%
•
उद्योग-10.5%
•
उद्योग एवं विनिर्माण क्रियाकलाप 11% तक वृद्धि
•
ऊर्जा आवश्यकता में वृद्धि प्रतिवर्ष 7%
योजना आयोग ने गहन विचार मंथन के पश्चात् बारहवीं योजना के लिए कुल 12 रणनीतिक चुनौतियों की पहचान की थी तथा चुनौतियों को जटिल माना था और स्वीकार किया था कई मसले एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं, जैसे-पर्यावरण प्रबंधन एक जटिल तथा विस्तृत मुद्दा है जिसमें अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे (जल संसाधन, ग्रामीण विकास, कृषि आदि) परस्पर जुड़े हुए हैं।