(भूमि
सुधार, विस्थापन : प्रभाव और पहलें, वनों से संबंधित मुद्दे, पर्यावरणीय निम्नीकरण और इससे निपटने हेतु राज्य की नीति)
भूमि संसाधन
भारत
के कुल क्षेत्रफल के 2.24 प्रतिशत भाग पर अवस्थित झारखंड राज्य भूमि की मिश्रित
सतहों से ढका हुआ है। इस राज्य की कुल जनसंख्या की लगभग 76 प्रतिशत आबादी ग्रामीण
क्षेत्रों में निवास करती है। राज्य के भौगोलिक क्षेत्रफल 79,714
वर्ग कि.मी. में कृषि योग्य भूमि लगभग 26 लाख हेक्टेयर है। राज्य के इस कृषि कार्य में कुल 22.68 प्रतिशत में ही भूमि का उपयोग हो रहा
है। यहां खाद्यान्न उत्पादन 30 लाख मीट्रिक टन है, जबकि आवश्यकता 50 लाख मीट्रिक
टन की है। यहां की अम्लीय मिट्टी और भूमि विषमता से सिंचाई का अभाव कृषि में सबसे
बड़ी बाधाएँ हैं । राज्य में वन क्षेत्रफल 29.61 प्रतिशत है और इस क्षेत्र में
कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता कम है।
राज्य
का लगभग 72 प्रतिशत भूमि पथरीली, पठारी और ऊसर है, जो कृषि योग्य नहीं है। वन कटाव
से पैदावार योग्य मिट्टी नष्ट होने से भी इस बंजर भूमि में वृद्धि हुई है। भूमि के
79,714 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में 23.22 लाख हेक्टेयर जंगल, 5.66 लाख हेक्टेयर
बंजर और 7.24 लाख हेक्टेयर कृषि और गैर कृषि कार्यों में उपयोगी भूमि के अतिरिक्त
0.9 लाख हेक्टेयर में चरागाह आदि हैं। राज्य में उपलब्ध भूमि का उपयोग निम्नलिखित है-
भूमि प्रारुप |
क्षेत्र का % |
शुद्ध बोया गया क्षेत्र |
32 |
चालू परती भूमि |
11.12 |
वन भूमि |
29.61 |
अन्य परती भूमि |
5.59 |
गैर-कृषि उपयोग |
8.6 |
बंजर भूमि |
7.2 |
पशु चारण |
2.48 |
कृषि योग्य बेकार भूमि |
3.44 |
इस
भूमि वितरण में कृषि योग्य भूमि में सिंचाई का अभाव उत्पादन को बाधित करता है।
वर्षा आधारित होने के कारण और वर्षा के जल का समुचित वितरण का अभाव भी कृषि के लिए
प्रतिकूल होता है । खरीफ की फसल में 8 प्रतिशत और रबी की फसल में
6 प्रतिशत भूमि ही सिंचित क्षेत्र में आती है। शेष भूमि जलाभाव
से ग्रसित रहती है।
राज्य
में भूमि, जलवायु और मिट्टी के आधार पर खाद्यान्न में चावल, गेहूँ, जौ, मकई आदि
फसलें और दलहन में मसूर, चना, अरहर, मटर के साथ नकदी फसल में गन्ना व सब्जी प्रमुख
हैं।
वन संसाधन
झारखंड
में वनों का विस्तार 23,605 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में है और यह राज्य के कुल
भू-क्षेत्रफल का 29.61 प्रतिशत है। राज्य में सन् 1909 में ही 'वन संरक्षण समिति'
की स्थापना हो चुकी थी और सन् 1948 में यह पूर्णतया विशेष विधेयक द्वारा राजकीय
संरक्षण में ले लिये गए थे। अस्सी के दशक में केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम
लागू किया।
राज्य
में वनों को तीन वर्गों में सुरक्षित, अवर्गीकृत आरक्षित में रखा गया है। इसमें
राज्य का 18.58 प्रतिशत वन क्षेत्र (4,387 वर्ग कि.मी.) सुरक्षित और शेष 81.28
प्रतिशत क्षेत्र आरक्षित वन की श्रेणी में तथा 0.14% अवर्गीकृत श्रेणी में आता है।
सारा राज्य ही वनों से आच्छादित है, लेकिन गिरिडीह, हजारीबाग, सरायकेला, चतरा,
पलामू, गढ़वा और सिंहभूम के तीन-चौथाई भाग पर वनों का विस्तार है। वनों से राज्य
को अनेक लाभ होते रहे हैं। वनोत्पादनों में इमारती और जलावन लकड़ी के अलावा बाँस,
लाह, गोंद, शहद, तेंदूपत्ता, कत्था, महुआ, अंजन और पशुओं के लिए चारा भी मिलता है।
राज्य में वनों को लकड़ी की उत्पादकता दर कम है, फिर भी छह लाख घन मीटर लकड़ो प्रतिवर्ष
प्राप्त हो ही जाती है। इन लकड़ियों में शीशम, साल, महुआ, आम, कटहल, अर्जुन, सेमल,
कुसुम आदि प्रमुख हैं।
लाह
इन वनों का मुख्य उत्पाद है, जो मुलायम डालों में रहने वाले लाह के कीड़ों के शरीर
से निकले चिकने और चिपचिपे पदार्थ से मिलता है। प्रतिवर्ष लाह को चार बार एकत्र
किया जाता है। मौसम के आधार पर ज्येष्ठ, आषाढ़, कार्तिक और अगहन में यह मिलता है।
गरम मौसम में लाह का उत्पादन लगभग 82 प्रतिशत होता है, जबकि सर्दियों में 18
प्रतिशत । लाह को शुद्ध करने के लिए राज्य में लगभग 37 कारखाने हैं। लाह का प्रयोग
वार्निश, चमड़ा उद्योग, दवाओं, बरतन, विद्युत्-निरोधक वस्तुओं आदि को बनाने में किया
जाता है। जनजातीय ग्रामीण जनसंख्या का एक बड़ा भाग लाह एकत्र करने के कार्य में
जुटा है।
इमारत
और जलावन लकड़ी के अतिरिक्त वनों से प्राप्त लकड़ी बहुत से मानवोपयोगी सामान बनाने
में काम आती है। सेमल की लकड़ी से तख्ते, पेटियां आदि बनाई जाती हैं तो कुसुम की
लकड़ी से औजारों के टिकाऊ दस्ते बनाए जाते हैं। बाँस का प्रयोग कागज के उत्पादन और
अन्य बहुत से कार्यों में होता है। व्यापार और औषधि के लिए कत्था, गोंद, सबुआ व
तेंदू के पत्ते उपयोगी होते हैं।
राज्य
में आरंभ से ही बनों का ह्रास होता रहा है। जनजातियों की झूम कृषि ने वनों का
अंधाधुंध कटाव किया है।
इसके
अलावा राज्य में कई रेलवे लाइनों, उद्योग-धंधों, सड़कों और आवासीय आवश्यकताओं ने
भी इन वनों का पतन किया है। एक आँकड़े के अनुसार, कभी राँची जिले में 2,281 वर्ग
मील वनों का विस्तार था, जो घटते- घटते 1,278 वर्ग मील रह गया। राज्य सरकार ने वन
नीति में आवश्यक सुधार करने के प्रयासों को गति अवश्य दी है, लेकिन अभी यह धीमी
है। भारत सरकार ने भी झारखंड के वनों के महत्त्व को देखते हुए कुछ नीतियां बनाई
हैं और वन संरक्षण में आम नागरिक की भागीदारी को सुनिश्चित करने संबंधी नियमों को
मंजूरी दे दी है। राज्य में वृक्षारोपण पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। सामाजिक
वानिकी विभाग द्वारा ग्रामीण जनसंख्या की वनों पर निर्भरता कम करके उनकी आवश्यकता
की पूर्ति के विकल्प खोजे गए हैं। संयुक्त वन प्रबंधन के अंतर्गत राज्य में 6,628
ग्राम वन समितियों का गठन इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इसके द्वारा 14,232
वर्ग कि.मी. वन क्षेत्रों को संरक्षण और प्रबंधन मिल रहा है।
वन एवं वनों के प्रकार
वन्य
संपदा एवं वन्य जीव-जंतु प्रकृति के द्वारा झारखंड को दिया हुआ एक अमूल्य उपहार
है। झारखंड में प्राकृतिक रूप से वन क्षेत्र बहुत विस्तृत है। राज्य कुल क्षेत्रफल
79,714 वर्ग किलोमीटर के 23,605 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जंगल अवस्थित है, जो
झारखंड के कुल क्षेत्रफल का 29.61 प्रतिशत भाग है। भारत के कुल वन क्षेत्र का 3.4
प्रतिशत भाग झारखंड का वन क्षेत्र है। जबकि पूरे भारत के कुल क्षेत्रफल का 2.42
प्रतिशत झारखंड का क्षेत्रफल है। झारखंड राज्य में वनों पर कई प्रकार के जैविक
दबाव, विशेषकर अनियंत्रित चराई, जलावन, लघु वन पदार्थों का संग्रहण एवं खनन
इत्यादि के प्रतिकूल प्रभाव के बावजूद भी झारखंड राज्य के वनों की स्थिति अन्य राज्यों
की अपेक्षाकृत बेहतर है।
राज्य
का वनावरण वर्ष 2001-2015 तक की अवधि में 22,531 वर्गकिलोमीटर से बढ़कर 23605 वर्ग
किलोमीटर हो गया है। झारखंड में प्रति व्यक्ति वनो का आच्छादन 0.08 हे. है।
राज्य
में अधिसूचित वन भूमि तथा सरकारी गैर-मजरूआ भूमि पर बड़े पैमाने पर किए गए
वृक्षारोपण और वनों की सुरक्षा के लिए उठाए गए कदम ही वनावरण में वृद्धि के मुख्य
कारण हैं।
राज्य में वनावरण की स्थिति
भारत सरकार, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून की इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट, 2015 के अनुसार राज्य में वनावरण की स्थिति निम्नवत् हैं-
क्र.सं. |
वनावरण |
क्षेत्रफल (वर्ग किलोमीटर) |
1. |
अत्यंत सघन वन (वनावरण घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक) |
2598.00 (3.26%) |
2. |
सामान्य सघन वन (वनावरण घनतव 40 से 70 प्रतिशत) |
9686.00 (12.15%) |
3. |
खुले वन (वनावरण घनतव 10 से 40 प्रतिशत) |
11269.00 (14.14%) |
कुल योग |
23553.00 (29.55%) |
|
वृक्षावरण |
||
4. |
वाह्य वन वृक्ष |
2922.00 (3.66%) |
कुल वनावरण एवं वृक्षावरण |
26475.00 (33.21%) |
झारखंड
में वन क्षेत्र का जिलावार विवरण (2015)
क्र. सं. |
जिला का नाम |
जिला का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (वर्ग किलोमीटर) |
कुल वन क्षेत्र (वर्ग किलोमीटर) |
वन क्षेत्र का प्रतिशत |
1. |
चतरा |
3718 |
1766 |
47.50 |
2. |
कोडरमा |
2540 |
1024 |
40.31 |
3. |
पलामू |
4393 |
1200 |
27.32 |
4. |
पश्चिमी सिंहभूम |
7224 |
3366 |
46.59 |
5. |
हजारीबाग |
3555 |
1351 |
38.00 |
6. |
गढ़वा |
4093 |
1390 |
33.96 |
7 |
लोहरदगा |
1502 |
504 |
33.56 |
8. |
साहेबगंज |
2063 |
573 |
27.78 |
9. |
पूर्वी सिंहभूम |
3562 |
1076 |
30.21 |
10. |
बोकारो |
2883 |
570 |
19.77 |
11. |
गुमला |
5360 |
1441 |
26.88 |
12. |
राँची |
5097 |
1164 |
22.84 |
13. |
गोड्डा |
2266 |
421 |
18.58 |
14. |
गिरिडीह |
4962 |
890 |
17.94 |
15. |
पाकुड़ |
1811 |
287 |
15.85 |
16. |
दुमका |
3761 |
576 |
15.32 |
17. |
देवघर |
2477 |
202 |
8.16 |
18. |
धनबाद |
2040 |
204 |
10.00 |
19. |
जामताड़ा |
1811 |
97 |
5.36 |
20. |
खूंटी |
2535 |
904 |
35.66 |
21. |
लातेहार |
4291 |
2404 |
56.02 |
22. |
रामगढ़ |
1341 |
329 |
24.53 |
23. |
सरायकेला-खरसावाँ |
2657 |
573 |
21.57 |
24 |
सिमडेगा |
3774 |
1241 |
32.88 |
कुल |
79714 |
23553 |
29.55 |
राज्य में वनों के प्रकार
झारखंड
में जलवायु और वृक्षों के प्रकार के आधार पर तीन प्रकार के वन मिलते हैं, जो
निम्नवत् हैं-
शुष्क पतझड़ वन
राज्य
के जिन क्षेत्रों में 1200 मिलीमीटर से कम वार्षिक वर्षा होती है, वहाँ पर ये वन
पाए जाते हैं। साल इस वन का प्रमुख वृक्ष है। इस तरह के वन में साल, महुआ, सेमल,
शीशम, खैर, पलाश, आसन, बाँस, अमलतास आदि वृक्ष पाए जाते हैं। इन वन क्षेत्रों का
प्रसार प्रदेश के तीन क्षेत्रों में मिलता है-(क) उत्तरी गढ़वा, पलामू और चतरा
जिला के क्षेत्रों में; (ख) उत्तरी हजारीबाग, कोडरमा, गिरिडीह और देवघर जिला
क्षेत्रों में; (ग) राजमहल पहाड़ी की पश्चिमी ढाल क्षेत्रों में।
शुष्क प्रायद्वीपीय वन
झारखंड
के जिन क्षेत्रों में वर्षा मध्यम कोटि की होती है, वहाँ पर इस प्रकार के वन पाए
जाते हैं। शुष्क का मतलब अल्पवृष्टि से है। इन वनों का विस्तार हजारीबाग पठार के
निचले क्षेत्र, राँची, सिंहभूम तथा पाट क्षेत्र में पाए जाते हैं । इसमें साल, आम,
कटहल, बाँस आदि के वृक्ष प्रमुख रूप से मिलते हैं।
आर्द्र प्रायद्वीपीय वन
इस
प्रकार के वन ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्र में पाए जाते हैं। इस तरह के वनों में साल,
महुआ, जामुन, कुसुम, पियार, गम्हार, करंज, सेमल आदि वृक्ष पाए जाते हैं। राज्य के
कुल 50 प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र में ये वन मिलते हैं। चतरा, कोडरमा, गिरिडीह,
बोकारो, पलामू एवं गढ़वा जिले में इस तरह के वनों का विस्तार है।
वनों
की सुरक्षा के आधार पर राज्य में वनों की तीन श्रेणियां हैं-
आरक्षित वन (Reserved forest)
वैसे
वन जिनमें पशुओं को चराने तथा लकड़ी काटने की अनुमति नहीं होती, अर्थात् इन्हें
सरकारी संरक्षण में रखा जाता है। राज्य में संरक्षित वनों का क्षेत्रफल
4,387 वर्ग किलोमीटर है, जो कुल वन क्षेत्र का 18.58 प्रतिशत हैं। राज्य का सबसे बड़ा संरक्षित वन क्षेत्र कोल्हान एवं पोरहाट वन क्षेत्र है। राज
महल और पलामू क्षेत्र के वन इसी श्रेणी में है। सुरक्षित वन के अंतर्गत सर्वाधिक
क्षेत्रफल पश्चिमी सिंहभूम जिला में है।
सुरक्षित वन (Protected forest)
वैसे
वन जिनमें पशुओं को चराने एवं एक सीमा तक लकड़ी काटने की अनुमति सरकार के द्वारा
प्रदान की जाती है, 'रक्षित वन' कहलाता है। इन वनों का कुल क्षेत्रफल 19,185 वर्ग
कि.मी. है, जो कुल वन क्षेत्र का 81.28 प्रतिशत है। इनका सर्वाधिक विस्तार
हजारीबाग में है। इसके बाद गढ़वा, पलामू, राँची, लातेहार का स्थान है।
अवर्गीकृत वन (Unclassified forest)
वैसे
वन जिनमें पशुओं को चराने तथा लकड़ी काटने के लिए सरकार का कोई प्रतिबंध नहीं
होता, लेकिन सरकार इसके लिए शुल्क लेती है, 'अवर्गीकृत वन' की श्रेणी में आते हैं।
इनका कुल क्षेत्रफल 33 वर्गकिलोमीटर है, जो कुल वन क्षेत्र का 0.14 प्रतिशत है।
राज्य में इस तरह के बन साहेबगंज, पश्चिम सिंहभूम, दुमका, हजारीबाग, पलामू एवं
गुमला में पाए जाते हैं।
राज्य
में वनों का वर्गीकरण
क्र.सं. |
प्रकार |
क्षेत्रफल (वर्ग किलोमीटर) |
प्रतिशत |
1. |
आरक्षित वन |
4387.00 |
18.58 |
2. |
सुरक्षित वन |
19185.00 |
81.28 |
3. |
अवर्गीकृत वन |
33.00 |
0.14 |
कुल वन क्षेत्र |
23605.00 |
29.61 |
वन संपदा
वनों
से प्राप्त होने वाली उपजों को वन संपदा के अंतर्गत शामिल किया जाता है। इनको दो
वर्गों में रखा जाता है-
मुख्य उपज
मुख्य
उपज में केवल लकड़ियों के उत्पादन को गिना जाता है। झारखंड में जिन वृक्षों की
लकड़ियों को वृहद् उपयोग में लाया जाता है, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
साल-ये वृक्ष लगभग संपूर्ण झारखंड क्षेत्र
में मिलते हैं। साल झारखंड का राजकीय वृक्ष है। यह वृक्ष यहां की जनजातीय समाज में
बड़ी धार्मिक महत्त्व की है। इसका उपयोग मकान, फर्श, फर्नीचर, रेल के डिब्बे एवं
पटरियों को रखने के लिए स्लैब आदि बनाने में होता है। इसके बीज का उपयोग तेल निकालने
के काम में भी आता है।
महुआ-झारखंड में महुआ लगभग सभी जगहों पर
पाया जाता हैं। इसके फूल, फल एवं लकड़ी सभी उपयोगी होते हैं। फूल से शराब, पके
फलों के बीज से तेल निकाला जाता है । कच्चे फलों को सब्जी के रूप में उपयोग किया
जाता है । इसकी लकड़ियां काफी मजबूत होती हैं, जो पानी में भी जल्दी नहीं सड़ती।
शीशम-राज्य में उत्तरी एवं मध्यवर्ती
क्षेत्रों में शीशम का वृक्ष अधिकांशतः मिलते हैं। इसकी लकड़ियां चिकनी और धारदार
होती हैं। फर्नीचर बनाने में ये सर्वाधिक उपयोगी माने जाते हैं।
सागौन-सारंडा, पोरहाट और कोल्हान
क्षेत्र में अपेक्षाकृत आर्द्र जलवायु होने के कारण इन वृक्षों का
रोपण किया जाता है। इसकी लकड़ी बहुत ही मजबूत एवं सुंदर होती है। इनका उपयोग रेल के
डिब्बे, हवाई जहाज आदि बनाने में होता है।
हरड़ बहेड़ा-हरे का उपयोग दवाई के लिए, जबकि बहेड़ा
का उपयोग दवाई एवं लकड़ी के लिए किया जाता है। रंगाई की सामग्नी बनाने में भी इनका
उपयोग होता है।
सेमल-सेमल की लकड़ियां हल्की, मुलायम और सफेद होती
है। इनका सर्वाधिक उपयोग पैकिंग के लिए पेटियां बनाने में और खिलौने बनाने में होता
है। इसकी रूई काफी उपयोगी होती है। इसके अलावा गम्हार, आम, जामुन, कुसुम, करंज, पैसार,
कटहल आदि वृक्ष भी बहुत उपयोगी वृक्ष में आते हैं।
गौण उपज
लाह-भारत में लाह के कुल उत्पादन का 50 प्रतिशत झारखंड
में उत्पादन होता है। लेसिफर लक्का या लाह का कीड़ा से इसका उत्पादन होता है। इन कीड़ों
की वृद्धि कुसुम, बरगद, सरेस, खैर, अरहर, रीठा, पीपल, बबूल आदि वृक्षों पर होती है।
राज्य में इनके कीड़ों को लगाने का कार्य बेर, पलास और कुसुम के वृक्षों पर पाला जाता
है। लाह के उत्पादन के लिए खुंटी-राँची जिला, गढ़वा-पलामू-लातेहार क्षेत्र, सिंहभूम
क्षेत्र, संथाल परगना क्षेत्र और हजारीबाग क्षेत्र प्रमुख हैं। खूटी सबसे बड़ा लाह
उत्पादक जिला है। लाह का उत्पादन चार मौसमों में होता है, जिसके आधार पर वैशाखी, जैठवी,
कतकी, अगहनी तरह के लाह होते हैं। ग्रामीणों को लाह की खेती से स्वरोजगार एवं अतिरिक्त
आय उपलब्ध कराने के उद्देश्य से परंपरागत लाह उत्पादन क्षेत्रों के चिह्नित जिलों राँची,
खुंटी, पश्चिमी सिंहभूम, लातेहार, सिमडेगा, गुमला, पलामू, सरायकेला, गढ़वा, गिरिडीह,
दुमका, देवघर में 1750 संयुक्त वन प्रबंधन समिति एवं स्वयं सहायता समूह के माध्यम से
175000 लाह पोषक वृक्षों पर लाह की खेती वर्ष 2014-15 में की गई है, जिसमें 17500 परिवारों
को लाह की खेती से जोड़ा गया है। लाह से संबंधित शोध कार्य के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान
परिषद् के अंतर्गत झारखंड के नामकोम (राँची) में 1924 ई. में भारतीय लाह शोध अनुसंधान
केंद्र (द इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ नेचुरल रेजीन ऐंड गम्स-आई.आई.एन.आर.जी.) की स्थापना
की गई है।
केंदू पत्ता-केंदू पत्ता झारखंड के वनोत्पाद में बहुत
ही प्रमुख वस्तु एवं अत्यधिक राजस्व का साधन माना जाता है। पलामू, गढ़वा, सिंहभूम,
गिरिडीह एवं हजारीबाग जिलों में इसका उत्पादन होता है। केंदू पत्ता का व्यापार अन्य
सभी लघु वन उपज संग्रहक की तरह बिक्री हेतु स्वतंत्र नहीं है। इसके लिए सरकार द्वारा
बेचने की अनुमति प्रदान किया जाता है। केंदू पत्ता व्यापार में ठेकेदारों की भूमिका
नगण्य करने, प्राथमिक संग्रहकों को केंदू पत्ता संग्रहण के बदले उचित मजदूरी का भुगतान
करने के उद्देश्य से झारखंड राज्य केंदू पत्ता नीति, 2015 को दिनांक 27.01.2016 से
अधिसूचित की गई है।
तसर/मलबरी/रेशम-भारत के कुल तसर उत्पादन का 60 प्रतिशत
झारखंड में उत्पादन होता है। झारखंड में लगभग 1.3 लाख जनसंख्या इसमें संलग्न है। रेशम
के उत्पादन में साल, अर्जुन, आसन एवं शहतूत वृक्षों की आवश्यकता होती है। राँची के
नगड़ी में भारत सरकार ने 'तसर अनुसंधान केंद्र' स्थापित किया है। रेशम आधारित उत्पादों
के विकास के लिए झारखंड सरकार ने 2006 ई. में झारखंड सिल्क, टेक्सटाइल एवं हैंडीक्राफ्ट
डेवलपमेंट कॉरपोरेशन' (झारक्राफ्ट) की स्थापना की है। वर्ष
2015-16 में कोकून का उत्पादन 17,548 लाख टन हुआ तथा कच्चे सिल्क का उत्पादन
2,281 मिट्रिक टन हुआ है। झारखंड देश का सबसे बड़ा कोकून और तसर का उत्पादक राज्य है।
सिल्क के सूत प्राप्त करने के लिए कोकून की खेती की जाती है। इसकी खेती राज्य में दो
मौसम में होती है। प्रथम मई-जून से अगस्त-सितंबर तक तथा दूसरा सितंबर-अक्तूबर से नवंबर-दिसंबर
तक। कोकून की खेती से 17000 किसान जुड़े हुए हैं।
हेनार हनी
पलामू
व्याघ्र परियोजना के अंतर्गत लातेहार जिला के गारू प्रखंड के हेनार, मारोमार, बारेसांढ,
कोटाम, कबरीसूद, कारबाई, जगीर आदि आदिवासी बहुल गाँवों एवं उनके आस-पास के क्षेत्रों
में प्राकृतिक मधुमक्खी के छत्तों से मधु संग्रहीत किया जा रहा है, जिसका नाम हेनार
रखा गया है। इस कार्य के लिए मधु प्रसंस्करण संयत्र की स्थापना के लिए 7.50 लाख रुपए
की व्यवस्था की गई है तथा इसके लिए वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग द्वारा
मधुमक्खी ग्राम सोसायटी मारोमार का निबंधन किया जा रव है। इस कार्य से 1000 परिवारों
को लाभ मिल रहा है, जिससे उनकी आय दोगुनी होने की संभावना है।
चकुलिया काजू
पूर्वी
सिंहभूम जिला के जमशेदपुर वन प्रमंडल के चकुलिया क्षेत्र में 2000 हेक्टेयर में काजू
के पौधे का वृक्षारोपण किया गया था, जिससे 4000 5000 क्विंटल काजू के फल प्राप्त हो
रहे हैं । चकुलिया क्षेत्र में काजू प्रसंस्करण संयत्र नहीं होने के कारण काजू फल उड़ीसा
एवं पश्चिम बंगाल में भेजा जाता है, लेकिन सरकार द्वारा इसी क्षेत्र में तीन काजू प्रसंस्करण
संयत्रों की स्थापना की जा रही है, जिसके लिए 13.50 लाख रुपए की व्यवस्था की गई है।
इस कार्य से 1000 परिवारों को लाभ होगा तथा उनकी आमदनी दोगुनी हो जाएगी। वन, पर्यावरण
एवं जलवायु परिवर्तन विभाग द्वारा चकुलिया काजू सोसायटी के निबंधन का कार्य किया जा
रहा है।
इनके
अलावा साल बीज, महुआ बीज, महुआ पत्ता, बाँस, चिरौंजी, ईमली, आँवला, कत्था आदि महत्त्वपूर्ण
वन उत्पाद है। ग्रामीणों की आय में वृद्धि हेतु लाह के अतिरिक्त पत्तल निर्माण, सेवई
घास से रस्सी निर्माण, मधुमक्खी पालन, काजू-प्रसंस्करण एवं बाँस से बम्बू क्राफ्ट इत्यादि
के निर्माण हेतु मशीन एवं विपणन के लिए राशि उपलब्ध कराई गई है।
वन नीति
स्वतंत्र
भारत की प्रथम वन नीति 1952 में बनी थी। 1952 से 1988 के बीच वनों का इतना विनाश हुआ
कि बनों और उनके उपयोग पर एक नई नीति बनाना आवश्यक हो गया। पहले की वन नीतियों का केंद्र
केवल राजस्व का सृजन था। 1980 के दशक में स्पष्ट हो गया कि वनों का संरक्षण उनके अन्य
कार्यों के लिए भी आवश्यक है, जैसे मृदा और जल व्यवस्थाओं के संरक्षण के लिए, जो पारितंत्र
को सुरक्षित रखने में सहायक होते हैं। इनमें स्थानीय निवासियों के लिए वनों से प्राप्त
वस्तुओं और सेवाओं के उपयोग की व्यवस्था भी होनी चाहिए। इन्हीं बातों को ध्यान में
रखते हुए 1988 ई. में राष्ट्रीय वन नीति की घोषणा की गई।
भारत
की राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के अनुसार किसी प्रदेश के कुल क्षेत्रफल के 33.33 प्रतिशत
भाग पर वन का विस्तार होना चाहिए । झारखंड के कुल क्षेत्रफल का 29.61 प्रतिशत भाग पर
वन हैं। राज्य में वन क्षेत्र को 33 प्रतिशत से अधिक करने के लिए झारखंड सरकार ने वन
नीति बनाई है. जिसमें निम्न बातों का उल्लेख है-
1.
प्रत्येक गाँव में एक वन समिति होगी, जिसमें गाँव के प्रत्येक परिवार का एक सदस्य होगा।
राज्य में 200 वन समितियों का गठन किया गया है।
2.
ग्रामीणों की आवश्यकतानुसार वृक्षारोपण किया जाएगा।
3.
वन उत्पादों को सरकारी एजेंसियों के माध्यम से खरीद की जाएगी।
4.
वनों की सुरक्षा का भार ग्रामीण और वन विभाग दोनों के ऊपर होगा।
वन प्रबंधन
झारखंड
में वन प्रबंधन का सर्वप्रथम प्रयास 1882/85 में जे.एफ. हेबिट द्वारा किया गया था।
इसी आलोक में तत्कालीन बंगाल सरकार ने 1909 में वनों की सुरक्षा के लिए एक समिति गठित
की थी। आजादी के पूर्व यहां पर 95 प्रतिशत वन निजी थे, जिनका सरकारीकरण हुआ। राज्य
में 33 प्रतिशत या उससे ज्यादा वन क्षेत्र बनाने के लिए वन प्रबंधन की आवश्यकता है।
राज्य
में वनों के बेहतर प्रबंधन के उद्देश्य से 31 प्रादेशिक प्रमंडलों, 10 सामाजिक वानिकी
प्रमंडलों एवं 04 विश्व खाद्य कार्यक्रम प्रमंडलों का सृजन किया गया है, जिनके माध्यम
से वनों एवं वन्य प्राणियों के प्रबंधन, संवर्धन एवं विकास का कार्य किया जाता है।
झारखंड राज्य में वनों के प्रबंधन का दायित्व प्रधान सचिव/सचिव, वन, पर्यावरण एवं जलवायु
परिवर्तन विभाग के अतिरिक्त भारतीय वन सेवा सवंर्ग के पदाधिकारियों, राज्य वन सेवा
संवर्ग के पदाधिकारियों, वनों के क्षेत्र पदाधिकारियों, वन परिसर पदाधिकारियों एवं
वन उप परिसर पदाधिकारियों का है। विभाग में वनों के प्रबंधन, संवर्धन, संरक्षण एवं
सुरक्षा तथा विकास योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु प्रधान मुख्य वन संरक्षक का पद स्वीकृत
है।
•
वनों के प्रबंधन एवं संरक्षण में व्यापक जन सहभागिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से
राज्य सरकार द्वारा संयुक्त वन प्रबंधन संकल्प 2001 में यथा संशोधित प्रतिपादित किया
गया है, जिसके आलोक में 10903 संयुक्त वन प्रबंधन समितियां गठित की गई हैं एवं वनों
के विकास एवं संरक्षण हेतु योजनओं के क्रियान्वयन के लिए राज्य के सभी प्रादेशिक वन
प्रमंडलों में 35 वन विकास अभिकरण का गठन एवं निबंधन कार्य पूर्ण किया गया है।
•
राज्य में 9 लाख हेक्टेयर से ज्यादा बंजर भूमि है। इस भूमि पर वन रोपण का कार्य किए
जा रहे हैं।
•
वन प्रबंधन प्रशिक्षण के लिए राँची में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय से संबद्ध वानिकी
कॉलेज में एक वानिकी संकाय स्थापित की गई है।
•
दसर्वी पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत झारखंड के 3424 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में वन लगाने
का लक्ष्य रखा गया है।
•
राज्य में कई स्थायी पौधशालाओं की स्थापना की गई है।
•
शहरी वानिकी के माध्यम से राज्य के नगरों में वृक्षारोपण किया जा रहा है।
•
सामाजिक वानिकी से ग्रामीण जनसंख्या की वनों पर निर्भरता कम कर उनकी आवश्यकताओं की
पूर्ति कराने का काम भी किया जा रहा है।
•
वन समितियां गठित कर वन क्षेत्रों के प्रबंधन एवं संरक्षण कार्य किए जा रहे हैं।
•
निजी वन भूमि पर वृक्षारोपण के लिए मुख्यमंत्री जनवन योजना की शुरुआत की गई है।
•
बाँस वृक्ष के रोपण पर विशेष बल दिया जा रहा है।
•
राज्य में 116 स्थायी नर्सरी को और अधिक उन्नत बनाया जा रहा है।
• जंगली जानवरों के आक्रमण से किसी व्यक्ति की मृत्यु
होने पर 2.5 लाख रुपए दिया जाएगा।
•
ग्रामीणों के आय के संसाधन बढ़ाने हेतु Self Help Group एवं ग्राम वन प्रबंधन समितियों
के माध्यम से पलास एवं कुसुम के पौधों पर लाह उत्पादन हेतु नि:शुल्क प्रशिक्षण, प्रयुक्त
होने वाले मशीन एवं टूल्स तथा लाह का कीट उपलब्ध कराया जा रहा है।
•
ई-गवर्नेस के तहत् विभागीय वेबसाइट तैयार की गई है, ताकि सूचनाएँ तुरंत उपलब्ध हो सके।
वेबसाइट का नाम forest. jharkhand.gov.in है।
•
जनसाधारण में प्रकृति के प्रति लगाव उत्पन्न करने, विशेषकर उन्हें वन्य प्राणियों एवं
संरक्षित क्षेत्रों के संरक्षण के प्रति जागरूक करने के लिए संरक्षित क्षेत्रों तथा
इनके बाहर उपयुक्त वन क्षेत्रों में Environmental Friendly, sustainable तरीके से
ईको टूरिज्म को प्रोत्साहित करने के लिए ईको टूरिज्म नीति, 2015, अक्तूबर, 2015 में
अधिसूचित की गई है।
•
अधिसूचित वन भूमि, गैर-वन भूमि पर मुख्य रूप से स्थल विशिष्ट वनरोपण योजनाएँ भूसंरक्षण
योजना, शीघ्र बढ़नेवाले पौधे की योजना, तसर वनरोपण, शीशम वनरोपण के लिए वित्तीय वर्ष
2015-16 में 6900 लाख का बजट उपबंध स्वीकृत है।
•
पथ-तट रोपण सह शहरी वानिकी योजना के अंतर्गत आम नागरिकों को स्वच्छ, स्वास्थ्य कारक
एवं आरामदेह वातावरण उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सड़कों के किनारे, सरकारी परिसरों
तथा स्कूलों, कॉलेजों, सरकारी कार्यालयों, पहाड़ियों इत्यादि पर उपयुक्त छायादार/फलदार
एवं फूलदार/इमारती काष्ट/अन्य सौंदर्यकारक प्रजातियों का वृक्षारोपण किया जा रहा है।
•
स्थायी पौधशाला एवं सीड ऑर्चर्ड्स योजनांतर्गत मुख्य रूप से बॉस गैबियन वृक्षारोपण
हेतु औसतन 5 से 8 फीट लंबे पौधे तैयार किए जा रहे हैं।
वन
प्रबंधन में संयुक्त वन प्रबंधन की नीति एक सफल और उपयोगी नीति है, जो वनों के प्रति
आम नागरिकों में उनके कर्तव्यों के प्रति जागरूकता उत्पन्न करती हैं । झारखंड में वन
संवर्धन और प्रबंधन की विधिवत् शिक्षा के लिए राँची में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय से
संबद्ध वानिकी कॉलेज में वानिकी संकाय स्थापित है। केंद्र संपोषित राष्ट्रीय वानिकीकरण
योजना से राज्य में 18 प्रादेशिक एवं वन्य प्राणी प्रमंडलों में वन विकास अधिकरण का
गठन हुआ है, जिनकी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए केंद्र सरकार से राशि उपलब्ध कराई
जाती है।
झारखंड
में प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिए वन अभिलेखों एवं वन सीमाओं का डिजिटेलाइजेशन
एवं जियोरेफरेंसिंग करने की योजना है।
राज्य
में वन भूमि को चिह्नित करने के लिए कुल 10,66,039 सीमा स्तंभ का निर्माण
कराया जाना है। वित्तीय वर्ष 2016-17 में 104884 सीमा स्तंभों का निर्माण कराया जाएगा।
इसके लिए वित्तीय वर्ष 2016-17 में 4 हजार लाख रुपए का बजटीय प्रावधान है। शेष सीमा
स्तंभ अगले 10 वर्षों में पूरा करने की योजना है। वन अभिलेखों का डिजिटेलाइजेशन तथा
जियोरेफरेंसिंग वन भूमि से संबंधित कार्यों के क्रम में कुल 15,000 केड्रस्टल मानचित्रों
में से 13,900 मानचित्रों का कार्य पूर्ण किया गया है । शहरी क्षेत्रों में अवस्थित
पार्कों के प्रबंधन एवं विकास हेतु झार-पास का गठन कर उसका निबंधन किया गया है।
पर्यावरणीय मुद्दे
झारखंड
की जलवायु तथा उसकी भौगोलिक स्थिति झारखंड को जैव विविधता में काफी धनी राज्य बनाता
है । झारखंड के जंगलों में कई तरह के पेड़, औषधीय पौधे, घास, फूल इत्यादि मौजूद है।
यहां पर पिठोरिया घाटी, नेतरहाट की पहाड़ी, सारंडा का जंगल, पारसनाथ की पहाड़ी, दलमा
की पहाड़ी इत्यादि जैव विविधिता से पूर्ण हैं। झारखंड से होकर बहने वाली नदियां जैसे
कोयल, दामोदर और स्वर्णरेखा के क्षेत्र के जंगल जैव विविधता में धनी है, लेकिन बढ़ता
पर्यावरण प्रदूषण जैव विविधता क्षरण का प्रमुख कारण है। पर्यावरण प्रदूषण के लिए जीव
नाशक, औद्योगिक रसायन तथा अपशिष्ट आदि मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं। विदेशी मूल के पौधों
के उगने से देशी प्रजातियां विस्थापित एवं विलुप्तप्राय हो रही है। अंधाधुंध शिकार
के कारण भी जानवरों की बहुत सारी प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई है। विकास
कार्यों तथा कृषि के विस्तार के कारण जंगलों को बड़े पैमाने पर नष्ट किया गया है, जिसके
कारण वनों में जैव विविधता का क्षरण हुआ है। जैव विविधता के संरक्षण का आशय जैविक संसाधनों
के प्रबंधन से है, जिससे उनके विस्तृत इस्तेमाल के साथ-साथ गुणवत्ता भी बनी रहे।
पर्यावरण
संबंधी नीतियों और कार्यक्रमों का कार्यान्वयन का अधिकार वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन
विभाग, झारखंड सरकार को है। इस विभाग का मुख्य कार्य क्षेत्र राज्य के प्राकृतिक संसाधनों
जिसमें वन और वन्य जीव, जैव विविधता इत्यादि का संरक्षण करना तथा वन्य प्राणियों के
संवर्धन के साथ-साथ प्रदूषण रोकना है। वन पर्यावरण का सबसे अभिन्न हिस्सा है। झारखंड
में वनों की अधिकता है। वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, झारखंड सरकार के अनुसार
2015 ई. में 23605 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल पर वनावरण है। जो झारखंड के कुल क्षेत्रफल
का 29.61 प्रतिशत है। राज्य के पर्यावरण को स्वच्छ बनाने हेतु व्यापक पैमाने पर बन
रोपण अभियान चलाया जा रहा है।
2014-15
में 5,45,000 वृक्ष लगाए गए हैं। झारखंड जैसे राज्य में पर्यावरण को सर्वाधिक हानि
वनों की कटाई से हुई है। वनों की कटाई के क्रम में अनेक दुर्लभ प्रजाति के वृक्ष लुप्त
होने लगे हैं, जिसे बचाने के लिए सरकार द्वारा अनेक कदम उठाए गए हैं। जैसे अफ्रीकी
मूल का कल्पतरू वृक्ष, जो चिकित्सीय महत्त्व का वृक्ष है, भारत में इसकी संख्या मात्र
9 है, जिसमें 4 सूची में है। अति शुष्क वातावरण के इस वृक्ष में जल भंडारण की अत्यधिक
क्षमता होती है तथा इसमें कार्बोहाईड्रेट, फाइबर, प्रोटीन और कैल्सियम पर्याप्त मात्रा
में पाया जाता है। इसी प्रकार के विलुप्तप्राय प्रजाति के पौधों में से एक माखन कटोरी
और शिवलिंगम फूल की प्रजाति है, जिसे संरक्षित करने का कार्य किया जा रहा है।
शिवलिंगम
फूल काफी आकर्षक होता है। लाल और सफेद रंग के ये फूल मनमोहक खुशबू बिखेरते
हैं । यह हिमाचल प्रदेश की तराई क्षेत्र में पाया जाता है । इसके फूल से आसपास काफी
दूर तक का क्षेत्र सुगंधित हो जाता है। देवघर में रूट काँवरिया पथ में इसे लगाया जा
रहा है। इसके अलावा प्रदेश में रुद्राक्ष, हाथी कुंभी, सोला छाल और मेध के पेड़ों पर
रिसर्च किया जा रहा है। मेध का पेड़ काफी संख्या में पाया जाता था, लेकिन इसकी संख्या
घटती जा रही है। इसके छाल का उपयोग अगरबत्ती बनाने में किया जाता है। रुद्राक्ष, जो
मूल रूप से हिमालय की तराई में पाया जाता है, इस पर भी रिसर्च कर बीज तैयार किया जा
रहा है। सखुआ का पेड़, जो झारखंड का प्रमुख वृक्ष है। इससे पेड़ के आसपास पौधों को
प्राकृतिक रूप से जैव विविधता में सहयोग मिलता है। पर्यावरण के दृष्टिकोण से काफी बेहतर
है। एशिया के सबसे घने जंगल सारंडा में काफी संख्या में पाया जाता है, लेकिन तस्करी
के कारण इसकी संख्या में कमी आई है। पहले जंगलों में बीज गिरने से या पेड़ की शाखा
से ही यह तैयार हो जाता था, लेकिन पर्यावरणीय प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन के कारण
ऐसा नहीं हो पा रहा है। अतः अब वनरोपण द्वारा इसे लगाया जा रहा है। देवघर और राँची
में प्रयोगात्मक रूप से 10 हेक्टेयर में इसे लगाया गया है।
पर्यावरण
संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए बंजर भूमि पर वृक्षारोपण पर बल दिया जा रहा है। इसके
लिए व्यावसायिक इस्तेमाल के पौधे लगाए जा रहे हैं । शीतल का उत्पादन इसी योजना के तहत्
किया जा रहा है। शीतल का उपयोग रस्सी बनाने में होता है, जो काफी मजबूत होती है। इसके
लिए वन विकास निगम द्वारा प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है, जिसमें बंजर भूमि पर शीतल
की खेती की जाएगी, जिसका लाभ भूमि मालिक को दिया जाएगा। लातेहार में वन विभाग का अनुसंधान
केंद्र इस पर शोध कार्य कर रहा है। राज्य में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ खेती नहीं होती
है, भूमि बंजर है, वर्षा की मात्रा कम है, वैसे क्षेत्रों में इसकी खेती हो सकती है।
क्योंकि कम बारिश इसके लिए उपयुक्त है।
विलुप्तप्राय
होने वाले जीव-जंतु एवं पक्षियों की अनेक प्रजातियां
पर्यावरण
असंतुलन का कारण बन रही है। इन पक्षियों में गिद्ध प्रमुख है। गिद्ध प्राकृतिक रूप
से मृत पशुओं को खाकर पर्यावरण को शुद्ध रखते हैं। इसलिए इन्हें प्राकृतिक सफाईकर्मी
के रूप में जाना जाता है। गिद्ध की 9 प्रजातियां पाई जाती है, जिसमें से IUCN की सूची
के अनुसार 3 प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं । झारखंड में गिद्धों की 3 प्रजातियां
जिप्स बेंगलेंसिस, जिप्स इंडिकस एवं अजिप्शियन गिद्ध पाई जाती है। इनमें से दो प्रजातियां
जिप्स बेंगलेंसिस तथा जिप्स इंडिकस सिर्फ हजारीबाग में बचे हैं और दोनों ही विलुप्ति
के कगार पर हैं। इन गिद्धों के अधिकतर घोसलें युकेलिप्टस, शीशम, सेमल, ईमली और पीपल
के पेड़ों पर पाए जाते हैं। 2013 में इनकी संख्या 250-300 के बीच होने का अनुमान है
तथा 17 बच्चे देखे गए हैं। 1980 के दशक में इनकी संख्या हजारों में थी। पिछले 28 सालों
में इनकी संख्या में 97 प्रतिशत की कमी आई है। इनके विलुप्ति का मुख्य कारण 'डाइक्लोफेनेक'
दर्द निवारक दवा है। इसका प्रयोग पशु इलाज में बड़े पैमाने पर होता है। इलाज के बाद
डाईक्लोफेनेक जानवर के शरीर में बचा रह जाता है। इन्हीं डाईक्लोफेनेक युक्त मृत पशुओं
के भक्षण से गिद्धों के गुरदे एवं यकृत खराब हो जाते हैं, जिससे इनकी मृत्यु हो जाती
है। नियों ह्यूमन फॉउंडेशन, हजारीबाग के द्वारा गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र पिंजोर
के सहयोग से 2008 एवं 2012 में डाइक्लोफेनेक सर्वे कराया गया। इस सर्वे के आधार पर
स्पष्ट हुआ है कि झारखंड में अभी भी डाईक्लोफेनेक दवा का उपयोग हो रहा है। इसके विलुप्ति
का एक और कारण अंधाधुंध पेड़ों की कटाई है, जिससे इनका प्राकृतिक
आवास ऊँचे-ऊँचे पेड़ नष्ट हो रहे हैं। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अनुसूची-1
में गिद्ध को संरक्षण प्राप्त है। इस ऐक्ट के अनुसार, किसी भी तरह से नुकसान पहुँचाना
कानूनन जुर्म है। ऐसा करने पर कम-से-कम 3 से 7 साल की सजा या 25 हजार रुपए जुर्माना
या दोनों हो सकता है। पशुओं में डाईक्लोफेनेक दवा का इस्तेमाल भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित
कर दिया गया है। गिद्ध पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये पर्यावरण
संतुलन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
वन
एवं इसके आसपास रहने वाले लोगों को वृक्षारोपण से जोड़ने के लिए वन पट्टा का नियम सरल
बनाया जा रहा है। वन विभाग में वन पट्टा प्राप्त करने वालों का नाम रजिस्टर-दो में
दर्ज करने का आदेश दिया है। इसमें पट्टा पाने वाले की पूरी विवरणी दर्ज रहेगा। ऐसे
भूमि का दाखिल खारिज नहीं होगा, क्योंकि वनभूमि का लगान तय करने का अधिकार सरकार के
पास है । जंगलों के विस्तार एवं वृक्षारोपण को अधिक पारदर्शी बनाने के लिए वन विभाग
के अधिकारियों को इलाके में भ्रमण कर रिपोर्ट देने के लिए तकनीकी का प्रयोग किया जा
रहा है । इस काम के लिए अधिकारियों को विभाग की ओर से मोबाइल पर 'प्लांटेशन मैनेजमेंट
इंफोर्मेशन सिस्टम' (PMIS) और 'नर्सरी मैनेजमेंट इंफोरमेशन सिस्टम' (NMIS) एप्लीकेशन
उपलब्ध कराए गए हैं। इसके जरिए अधिकारियों एवं कर्मचारियों को नर्सरी में उगाए जाने
वाले पौधों और प्रतिदिन निकाले जाने वाले पौधों का फोटो भेजना होगा। वन विभाग के अधिकारी
चेक डैम निर्माण, तालाब, जंगल, पानी और पथ मरम्मत की अद्यतन जानकारी के लिए मोबाइल
एप्लीकेशन तैयार कर रहा है। इस तकनीक के जरिए काम में पारदर्शिता आएगी।
राज्य
में वन आच्छादित क्षेत्रों को बढ़ाने के लिए पूरे राज्य में 2015 ई. में मुख्यमंत्री
जन वन योजना' की शुरुआत की गई है। यह निजी भूमि पर वृक्षारोपण प्रोत्साहन का एक महत्त्वाकांक्षी
योजना है। इस योजना के अंतर्गत प्रति एकड़ काष्ठ प्रजाति के 445 पौधों तथा फलदार प्रजाति
के 160 पौधों का रोपण किया जा सकेगा। मेड़ पर काष्ठ प्रजाति के 445 पौधे लगाने पर इसे
एक एकड़ के समतुल्य माना जाएगा। इस योजना के तहत् एक लाभुक के लिए वृक्षारोपण की न्यूनतम
सीमा एक एकड़ एवं अधिकतम सीमा 50 एकड़ होगी। प्रोत्साहन स्वरूप वृक्षारोपण एवं उसके
रख-रखाव पर हुए व्यय के 50 प्रतिशत अंश की प्रतिपूर्ति विभाग द्वारा की जाएगी।
झारखंड
राज्य में सिंचाई परियोजनाओं के पर्यावरणीय पहलू पर भी सरकार द्वारा विशेष बल दिया
जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में राज्य की वृहद् सिंचाई परियोजना स्वर्णरेखा बहुदेशीय परियोजना
में स्वर्णरेखा नदी से सिंचाई संवर्धन पर बल दिया गया है। इसी उद्देश्य से स्वर्ण रेखा
नदी को संरक्षित करने के लिए उसे प्राकृतिक सौंदर्य में प्रवाहमान होने के लिए कार्ययोजना
बनाई जा रही है।
पर्यटन
के दौरान मानवीय क्रिया कलापों के कारण पर्यावरणीय पतन की समस्या उत्पन्न हो रही है।
इसके समाधान के लिए जन साधारण में प्रकृति के प्रति लगाव उत्पन्न करने, विशेषकर उन्हें
वन्य प्राणियों एवं संरक्षित क्षेत्रों के संरक्षण के प्रति जागरूक करने के लिए संरक्षित
क्षेत्रों तथा इनके बाहर उपर्युक्त वन क्षेत्र में पर्यावरणीय फ्रेंडली एवं टिकाऊ
(सतत) तरीके से ईको टुरिज्म को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके लिए सरकार द्वारा
'झारखंड ईको-टूरिज्म नीति 2015' अधिसूचित की गई है। इस योजना के तहत् प्रथम चरण में
राज्य के निम्नलिखित क्षेत्रों को विकसित करने का कार्य प्रारंभ किया गया है-
• फॉसिल पार्क, साहेबगंज
•
पारसनाथ, गिरिडीह,
•
कैनहरी हिल, हजारीबाग
•
त्रिकुट पर्वत, देवघर
•
तिलैया डैम, कोडरमा
•
पलामू व्याघ्र परियोजना, लातेहार
•
नेतरहाट, लातेहार
•
दलमा गज अभयारण्य, जमशेदुपर ।
'ईको
टूरिज्म' के अंतर्गत मूलभूत संरचनाएँ जैसे-सड़क, बिजली, पानी की व्यवस्था, पर्यटकों
के ठहरने हेतु आवासीय सुविधाएँ एवं मनोरंजन हेतु साधन उपलब्ध कराए जाएंगे। साथ ही
'ईको टूरिज्म' को बढ़ावा देने हेतु वन पदाधिकारियों, कर्मचारियों एवं स्थानीय लोगों
को प्रशिक्षित किया जाएगा। क्षमता वर्धन के लिए स्थानीय गावों में ईको टूरिज्म विषय
पर प्रशिक्षण देकर 'नेचर गाइड' के रूप में प्रशिक्षित किया जाएगा।
पर्यावरण
को सुरक्षित बनाए रखने के लिए जल स्रोतों को प्राकृतिक स्वरूप में बनाए रखने की आवश्यकता
है। इसके लिए राज्य सरकार ने 2016 ई. में मनरेगा योजना के तहत् डोभा निर्माण का कार्य
प्रारंभ किया है। पूरे राज्य में 6 लाख डोभा का निर्माण करना है, जिसमें से 30 प्रतिशत
डोभा निर्माण का कार्य जून 2016 तक किया जा चुका है। डोभा निर्माण का मुख्य उद्देश्य
है-सूखे की समस्या से निपटना। डोभा (वर्षा जल संचयन इकाई) का आकार कृषक भूमि के क्षेत्रफल
के अनुसार होगा। किसान के खेत की आवश्यकतानुसार यह आकार 20x20x10 तथा 30x30x10 हो सकता
है। 2016-2017 के बजट में डोभा निर्माण के लिए 200 करोड़ रुपए प्रस्तावित है।
2015
में प्रारंभ प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना जिसमें केंद्र एवं राज्य की हिस्सेदारी
60:40 है। इस योजना के लिए 2015-16 2019-20 तक पाँच वर्ष की अवधि के लिए 50 हजार करोड़
रुपए का प्रावधान किया गया है। इसके तहत् झारखंड में सिंचाई व्यवस्था को सुदृढ़ करने
के लिए जलछाजन का कार्य किया जा रहा है। राज्य के ऊबड़-खाबड़ स्थलाकृति होने के कारण
वर्षा जल का 70 प्रतिशत प्रवाहित वे जाता है, मात्र 12.1 प्रतिशत भूमि सिंचित है। अतः
88 प्रतिशत भूमि पर वर्षा जल का संरक्षण आवश्यक है। इसके लिए जलछाजन विधि से Ridge
to Valley approach के माध्यम से जल एवं भूमि का संरक्षण आवश्यक है। अभी तक 24 जिलों
के 117 क्लस्टर के कुल 927 माइक्रो वाटर शेड एवं 6.20 लाख हेक्टेयर भूमि पर जलछाजन
का कार्य किया जा रहा है। देश में झारखंड पहला राज्य है, जहाँ जलछाजन विषय पर
"Diploma in Water Shed Management" पाठ्यक्रम झारखंड राज्य जलछाजन मिशन
के सहयोग से इग्नू द्वारा संचालित किया जा रहा है।
समेकित
जलछाजन प्रबंधन कार्यक्रम (IWMP) पाँच वर्षों का कार्यक्रम है।
नवंबर 2016 ई. तक इस योजना के अंतर्गत कुल 5744 वर्षा जलछाजन योजना प्रारंभ किया जा
चुका है। इस कार्यक्रम के तहत् वित्तीय वर्ष 2017-18 में 8647.19 लाख रुपए का व्यय
प्रस्तावित है। विश्व बैंक एवं राज्य सरकार के 60:40 के अनुपात में नीरांचल राष्ट्रीय
जलछाजन योजना द्वारा राज्य में चल रहे प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को तकनीकी दृष्टिकोण
से मजबूत बनाना है। दो जिलों राँची एवं धनबाद में शहरी जलछाजन कार्य के लिए पायलट परियोजना
चलाई जा रही है।
जापान
इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी (JICA) के द्वारा बागवानी को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य
से माइक्रोड्रिप (टपक सिंचाई) नामक योजना 30 प्रखंडों में प्रारंभ किया जा रहा है।
इस योजना की कुल लागत 282.20 करोड़ रुपए की स्वीकृति जापान सरकार से मिल चुकी है।
मनरेगा
के अंतर्गत राज्य के प्रत्येक पंचायत में योजना बनाओ अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें
जल संचयन के लिए तालाब, चेक डैम आदि के निर्माण पर बल दिया जा रहा है। संचयित जल का
उपयोग वह सिंचाई योजना के रूप में किया जाएगा। इसके लिए 10 लाख रुपए की राशि प्राक्कलित
की गई है। 2017-18 में इस प्रकार की 200 परियोजनाएँ क्रियान्वित करने का लक्ष्य है।
झारखंड
में वन सेवा सुदृढ़ीकरण के लिए 33 करोड़ रुपए स्वीकृत किए गए हैं। वन विकास परियोजनाओं
के कार्यान्वयन के लिए नाबार्ड से 17.87 करोड़ ऋण लेने की स्वीकृति प्रदान की गई है।
झारखंड राज्य के शहरी क्षेत्र में पर्यावरण के संरक्षण तथा पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु
परिवर्तन के प्रति नागरिकों में जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से छोटे मनोरंजन उद्यान
आदि का निर्माण वन विभाग द्वारा किया जा रहा है। ग्रामीणों को लाह की खेती से स्वरोजगार
एवं अतिरिक्त आय उपलब्ध कराने के उद्देश्य से परंपरागत लाह उत्पादन क्षेत्रों के चिह्नित
जिलों राँची, खूटी, प. सिंहभूम, लातेहार, सिमडेगा, गुमला, पलामू, सरायकेला, गढ़वा,
गिरिडीह, दुमका देवघर आदि में 1750 संयुक्त वन प्रबंधन समिति, स्वयं सहायता समूह के
माध्यम से 1,75,000 लाह पोषक वृक्षों पर लाह की खेती वर्ष 2014-15 में की गई है, जिसमें
17,500 परिवारों को लाह की खेती से जोड़ा गया है। कैंपा के अंतर्गत भारत सरकार से प्राप्त
राशि से वित्तीय वर्ष 2014-15 में वन भूमि में 8867.38 हेक्टेयर में कुल
1,44,03,508 पौधे रोपित किए गए तथा 36000 गैबियन में वृक्षरोपण किया गया। CAMPA
(Compensatory Afforestation fund of Management and planing) प्रतिपूरक वनीकरण कोष
प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण का गठन 2002 ई. में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर किया
गया है। 2009 ई. में राज्य कैम्पा का गठन किया गया है। कैम्पा कोष से संबंधित कैम्पा
कानून 2016 ई. में संसद् द्वारा पारित किया गया है।
वनबंधु
योजना के तहत् जनजातीय कार्य मंत्रालय भारत सरकार से वर्ष 2015-16 में 2 करोड़ की राशि
की स्वीकृति प्रदान की गई है। पाकुड़ जिले के लिट्टीपाड़ा प्रखंड को पायलट प्रखंड के
रूप में चयन किया गया है। जिसमें आवश्यक मानव संपदा एवं कार्यालय संरचना, जल संचयन
संरचना के अंतर्गत नया तालाब एवं चेक डैम तथा स्वास्थ्य क्षेत्र में आजीविका संवर्धन
स्वास्थ्य केंद्र एवं एंबुलेंस क्रय की योजनाएँ शामिल की गई हैं, जिसे अगले छह माह
में पूर्ण कराने का लक्ष्य है। वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत वनों में रहने वाले अनुसूचित
जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन्य निवासी, जो वर्ष 2006 से पूर्व से वनों में निवास कर
रहे हैं एवं जीवनयापन हेतु वनोत्पाद पर निर्भर हैं, को वन भूमि
का पट्टा वितरण किया जाता है। पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले कारणों में एक
प्रमुख कारण महानगरों एवं नगरों में निकलने वाला कचड़ा (सॉलिड वेस्ट) है। अत: कचड़ा
प्रबंधन पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक हो गया है। झारखंड में राँची, धनबाद, चाकुलिया
और पाकुड़ में पीपीपी मोड़ पर सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट योजना की मंजूरी सरकार द्वारा
दी गई है। राँची नगर निगम क्षेत्र में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट पर 2016-17 में
269.67 करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया गया है। केंद्र सरकार में भी स्वच्छ
भारत मिशन के तहत् सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट को प्रमुख घटक माना गया है। स्वच्छ भारत मिशन
जो 2015 में केंद्र सरकार द्वारा प्रारंभ किया गया है। उसके तहत् शहरी क्षेत्रों में
कचरे का आधुनिक एवं वैज्ञानिक तरीके से व्यवस्थापन करते हुए 2 अक्तूबर, 2019 तक पूर्ण
स्वच्छता का लक्ष्य हासिल करना है। इसी उद्देश्य से राँची नगर निगम की सफाई व्यवस्था
का काम अगले 25 साल तक के लिए निजी कंपनी 'एस्सेल इंफ्रा' सौंपा गया है। राँची शहर
में एक दिन में औसत 500 मीट्रिक टन कचड़ा उत्पन्न होता है, जिससे 11 मेगावाट बिजली
उत्पन्न की जा सकती है। एस्सेल इंफ्रा' की ज्वॉइंट वेंचर जापानी कंपनी 'हिताची' राँची
से निकलने वाले कचरे पर आधारित बिजली उत्पादन प्लांट लगाएगी।
भूमि सुधार एवं कृषक संबंध
झारखंड
की अर्थव्यव्यवस्था उद्योग एवं कृषि पर आधारित है। चूँकि कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था
में भूमि अधिकांश लोगों के लिए आजीविका का साधन है, इसलिए इस क्षेत्र के सुधार से अधिकतर
लोग लाभान्वित होंगे तथा उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आयेगा। स्वतंत्रता प्राप्ति
के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी, जिसमें असमानता व्याप्त थी। भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1935 में ही इस बात की घोषणा की थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के
तुरंत बाद भूमि सुधार लागू किए जाएंगे। अत: भूमि सुधार के तीन मुख्य उद्देश्य थे-
(i)
कृषि में विद्यमान संस्थागत विसंगतियों को दूर करना।
(ii)
भूमि सुधार के अन्य उद्देश्य का संबंध सामाजिक-आर्थिक असमानता से था।
(iii)
भूमि सुधार का तीसरा उद्देश्य प्रकृति से समसामयिक था, जिसे पर्याप्त सामाजिक-राजनीतिक
महत्व नहीं मिला।
भूमि
सुधार के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा तीन मुख्य कदम उठाए गए, जिसके
अंतर्गत कई आंतरिक लघु उपाय भी शामिल थे-
(i)
मध्यस्थों की समाप्ति
(ii)
काश्तकारी सुधार
(iii)
कृषि का पुनर्गठन
भूमि सुधार से सम्बन्धित कानून
छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908
1765
ई. में बिहार, बंगाल एवं उड़ीसा की दीवानी ब्रिटिश कंपनी को सौंपी गई। झारखंड क्षेत्र
में अंग्रेजों का आगमन 1769 में हुआ। झारखंड क्षेत्र जंगलों से घिरा था। छोटानागपुर
क्षेत्र में मुंडाओं के राजा महाराजा छोटानागपुर (खुखरा राजा) का राज्य था। पूरा छोटानागपुर
परहा राज्य में विभक्त था।
अंग्रेज
कैप्टन कैमेक के आगमन का विरोध खड़गडीहा, पलामू, छोटानागपुर एवं रामगढ़ के राजाओं ने
किया। लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों में अंग्रेजों का विरोध संभव नहीं था।
1799
तक राजस्व का भुगतान चतरा के कलक्टर को किया जाता था। कंपनी के
शासन वाले क्षेत्र में छोटानागपुर के राजा को यह अधिकार प्राप्त था कि वे अपने
प्रशासनिक व्यवस्था परंपरागत रूप में चला सकते हैं। महाराजा छोटानागपुर ने सन्
1787 में यह रजामंदी दी थी कि कंपनी राजस्व भुगतान में असफल होने पर उनके राज्य या
राज्य के किसी हिस्से को नीलाम कर सकती है।
वर्ष
1765 से 1789 तक कंपनी राजस्व व्यवस्था को अपने ढंग से स्थापित करने का प्रयास किया।
सर्वप्रथम भारतीय एजेंट की नियुक्ति जिलों में की गई और उसका मुख्यालय मुर्शिदाबाद
रखा गया। जिलों की निगरानी के लिए 'अमील' की नियुक्ति की गई। तत्पश्चात् प्रत्येक जिले
में कलक्टर की नियुक्ति की गई, जो बोर्ड ऑफ रेवेन्यू कलकत्ता के अधीन थे।
डिसैनियल
बंदोबस्ती (स्थायी बंदोबस्ती) के पूर्व यह विवाद उभरकर सामने आया कि जींदार या जागीरदार
किसे माना जाय। अंततः डिसैनियल बंदोबस्ती जमींदारों के साथ की गई। गर्वनर जनरल लॉर्ड
कार्नवालिस ने पिछले 10 वर्षों की समीक्षा के बाद पाया कि जमींदार बंदोबस्ती संबंधी
सूचनाएँ पूरी तरह पर्याप्त नहीं हैं। अत: उन्होंने पुन: वार्षिक बंदोबस्ती को ही जारी
रखने का आदेश दिया। 18 सितंबर 1789 में लिये गए अंतिम संकल्प में राजा नागपुर के लिए
'प्रजेंट फूटिंग' शब्द का प्रयोग किया गया, जो नागपुर के राजा की हैसियत जमींदारों
से अलग बताती है। इन्हीं कारणों से रेगुलेशंस का विस्तार छोटानागपुर में नहीं किया
गया।
अंग्रेजों
द्वारा कई प्रकार के कानून बनाकर प्रशासनिक व्यवस्था को अपने हाथ में लेने का षड्यंत्र
किया जा रहा था। इसी क्रम में 4 जून, 1809 को थाना व्यवस्था लागू कर दी गई, जिसका नियंत्रण
रामगढ़ मजिस्ट्रेट के अंतर्गत था। शेरघाटी में जिला की स्थापना एवं चतरा में कल्कटेरियेट
की स्थापना की गई। इस पूरे क्षेत्र को दक्षिण-पश्चिम फ्रंटियर एजेंसी के अंतर्गत लाया
गया। दीवानी, फौजदारी और राजस्व न्यायालय की स्थापना कर न्याय दिलाने की प्रक्रिया
आरंभ की गई। अंग्रेजों का मुख्यालय भू-राजस्व की प्राप्ति को सुनिश्चित करना था। इसके
लिए उन्होंने न्यायालयों का उपयोग कर स्थानीय जमींदारों, जागीरदार एवं रैयतों की भूमि
की नीलामी की प्रक्रिया आरंभ कर दी। इस नीलामी के लिए रेगुलेशन ऐक्ट, 1793 के कानून
का सहारा लिया गया। नीलामी के सहारे नए जमींदार एवं जागीरदार खड़े किए जा रहे थे। ये
नए जमींदार एवं जागीरदार बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल एवं उड़ीसा के थे।
स्थानीय
जमींदारों एवं जागीरदारों का अपने रैयतों के साथ सामाजिक संबंध था तथा वे स्थानीय नियमों
एवं परंपराओं का निर्वाह करते थे। भू- व्यवस्था में भी जनजातीय समाज में प्रचलित नियमों
का सम्मान किया जाता था। स्थानीय जमींदार एवं जागीरदार भूईहरी एवं मुंडारी खूटहरी भूमि
पर किसी प्रकार का कोई हक या दावा नहीं करते थे।
नीलामी
से बचने के लिए जमींदारों एवं जागीरदारों ने कड़ाई से लगान वसूल करना शुरू किया। रैयत
बढ़े हुए लगान देने की स्थिति में नहीं थे, क्योंकि भूमि की उत्पादकता कम थी और उसके
अनुपात में लगान अधिक था। इनके सामने विद्रोह के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। सन्
1831-32 का कोल विद्रोह इसी अत्याचार की अभिव्यक्ति थी। जमींदारों, जागीरदारों एवं
अंग्रेजों के प्रशासन के विरुद्ध असंतोष बढ़ रहा था। वे अंग्रेजों की राजस्व प्रशासनिक
व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे। ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि बाहरी जमींदारों एवं
जागीरदारों की स्थानीय लोगों ने नृशंस हत्या कर दी और इसकी चपेट में स्थानीय जमींदार,
जागीरदार एवं सदान भी आ गए।
सन्
1832 में यह विद्रोह दबा दिया गया, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत यह सोचने
पर विवश हो गई कि जनजातीय समस्याओं को अनदेखा कर इस क्षेत्र में शांति स्थापित नहीं
की जा सकती हैं। सरकार की ओर से छोटे-बड़े कई प्रशासनिक सुधार किए गए, लेकिन ये काफी
नहीं थे। न्यायालय के माध्यम से हस्तक्षेप कर स्थानीय जमींदारों एवं रैयतों की भूमि
को हड़पने की प्रक्रिया लगातार जारी थी। इस संदर्भ में जनजातीय लोगों के अतिरिक्त जमींदार,
जागीरदार, मानकी, मुंडा, उराँव एवं संथाल थे, जो एकजुट होकर खड़े हो गए थे। स्थानीय
लोगों के साथ-साथ जनजातीय समुदाय की समस्याएँ निरंतर बढ़ रही थीं। इन समस्याओं की और
अंग्रेजी हुकूमत का ध्यान जाना स्वाभाविक था। प्रशासन ने भुईहरी भूमि एवं स्थानीय जमींदारों
की मझियस भूमि को चिह्नित करने के लिए वर्ष 1862 में बाबू रखालदास हलधर की देख-रेख
में भुईहरी सर्वे आरंभ किया गया, जो सन् 1869 तक चला। सरकार की ओर से अनुसूचित जनजातियों
के भूमि को संरक्षित करने का यह पहला प्रभावी कदम था। प्रशासनिक सुधार की प्रक्रिया
के अंतर्गत सन् 1879 में छोटानागपुर लैंड ऐंड टेनेंट प्रोसिडियोट ऐक्ट' लाया गया। इसके
पश्चात् 'बंगाल टेन्नेसी ऐक्ट' 1897 पास किया गया। जबकि 'बंगाल टेन्नेसी ऐक्ट' के प्रावधानों
को लागू किए जाने का विचार सन् 1899 तक स्थगित रहा। पिछले 100 वर्ष के अनुभव से प्रशासन
में मौजावार सर्वे करवाने का निर्णय लिया गया। जिसके अंतर्गत खेवट एवं खतियान का निर्माण
किया जाना था। छोटानागपुर में पहला सर्वे वर्ष 1902 में प्रारंभ हुआ तथा सन् 1903 तक
काफी जानकारी उपलब्ध हो चुकी थी। 'छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम', का प्रारूप भी
1903 तक तैयार हो गया था। जिसमें संशोधन एवं परिवर्तन करते हुए 11 नवंबर, 1908 को छोटानागपुर
कास्तकारी अधिनियम 1908 लागू कर दिया गया। इस अधिनियम को भारतीय परिषद् अधिनियम,
1892 की धारा-5 के अधीन गर्वनर जनरल को मंजूरी से अधिनियमित किया गया। इस अधिनियम का
ब्लू प्रिंट जॉन एच. हॉफमैन ने तैयार किया था। इसमें कुल 19 अध्याय और 271 धाराएँ हैं।
संस्थाल परगना भूधारण ( अनुपूरक उपबंध)
अधिनियम, 1949
संथाल
परगना जिले का निर्माण 1855 में किया गया, जिसके अंतर्गत भागलपुर एवं वीरभूम जिले के
हिस्से सम्मिलित किए गए इस क्षेत्र का पुराना नाम 'जंगलतरी ट्रैक' था। इस क्षेत्रीय
भू-भाग में मुख्यतः जनजातीय निवासी थे। 'जंगलतरी ट्रैक' को ही 'दामिन-कोह' के नाम से
जाना जाता है। इसे प्राचीनकाल में नरिखंड भी कहा जाता था। यह क्षेत्र किसी भी शासनकाल
में किसी के अधीन नहीं रहा था। इस क्षेत्र के मूल निवासी पहड़िया थे। इस क्षेत्र की
एक विशेषता यह है कि इसके अंतर्गत आने वाली जागीर या जमींदारी को राजस्व पंजी में तौजी
नंबर से दरशाया गया है। इन तौजियों के जागीरदार और जमींदार भूमि राजस्व के लगान एवं
शेष का भुगतान संबंधित जिलाधीश को किया करते थे। जमींदारी उन्मूलन के पश्चात् यह प्रथा
समाप्त कर दी गई है।
इस
क्षेत्र में 1872 में पहला रैयती कानून 'संथाल परगना सेटलमेंट रेग्यूलेशन ऐक्ट,
1872' पारित किया गया। संथाल परगना क्षेत्र में यह पहला काश्तकारी कानून था। इसी कानून
से संथाल परगना में काश्तकारी की अवधारणा विकसित होती गई। मिस्टर गैंजर की बंदोबस्त
रिपोर्ट देखने के बाद तत्कालीन बिहार सरकार ने 'संथाल परगना इन्क्वायरी कमेटी
1937' का गठन किया। इसी कमेटी के सिफारिश के आधार पर 'संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम, 1949' का निर्माण किया गया। इस अधिनियम में कुल आठ अध्याय
एवं 72 धाराएँ है।
विस्थापन एवं पुनर्वास नीति
झारखंड में आधुनिक विकास परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण से विस्थापन के आंकड़ों का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, कि विकास के लिए इतनी संख्या में विस्थापन हो जाने से झारखंड का जनसांख्यिकी अस्तित्व कितना प्रभावित हुआ होगा। कोयला खदानों में 1984-85 के बीच 1,80,000 लोगों को विस्थापित किया गया और इनमें से प्रति परिवार एक व्यक्ति को रोजगार प्राप्त होने की दर 36.34 प्रतिशत थी।
क्र.सं. परियोजना विस्थापित परिवार विस्थापित भूमि 1. टिस्को (1907) - 3,654 एकड़ आदिवासी भूमि। 2. भारी इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन, रांची,(1958) 25 गांव और 102,990 व्यक्ति 9,200 एकड़ भूमि। 3. बोकारो स्टील प्लांट 46 गांव व 12,487 आदिवासी। 34,227 एकड़ भूमि। 4. कोयला खदान (1981-85) 32,709 परिवार व 1,80,100 आदिवासी। - 5. सी.सी.एल और आई.सी. एल. (1981-85) - 1,50,300 एकड़ भूमि। 6. दामोदर घाटी निगम - 28,837 एकड़ भूमि। 7. आदित्यपुर इंडस्ट्रियल प्राधिकरण - 34,432 एकड़ भूमि।
आंकड़े
बताते हैं कि सन् 1921 तक ही झारखंड के 94,700 आदिवासी बंगाल और असम चले गए थे। आजादी
के बाद सामूहिक रूप से बिहार पर आश्रित इन आदिवासियों को औद्योगिक विकास ने भी पलायन
की भारी पीड़ा दो। वीनर ने अपनी पुस्तक 'संस ऑफ दि स्वाइल' में लिखा है, "छोटानागपुर
में जो विकास हुआ, उससे यहां के लोग ही नहीं, बल्कि बाहरी लोग भी लाभान्वित हुए। बंगाल
तथा उत्तरी बिहार के लोगों ने महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में प्रवेश किया और
फिर प्रशासनिक सेवाओं पर भी अधिकार कर लिया। खदानों, औद्योगिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों
के महत्त्वपूर्ण पदों पर भी बाहरी लोगों का ही अधिकार हो गया।"
सन्
1970 में एच.ई.सी. के 4,284 श्रमिकों में से केवल 335 ही आदिवासी थे, जबकि एच.ई.सी.
की स्थापना ने 32,500 लोगों को विस्थापित किया था।
इचा
डैम, चांडिल डैम और कोयलकारो परियोजनाओं में अपनी भूमि और अधिकारों से वंचित होने वाले
आदिवासियों की संख्या बहुत अधिक थी।
नेतरहाट
फायरिंग रेंज के लिए 245 गांव या 2,24,900 लोग अपनी जमीन छोड़ने
के लिए विवश हैं।
पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास नीति, 2008
विगत
60-70 वर्षों में रोजगार के लिए झारखंड में आने वाले लोगों की संख्या में काफी वृद्धि
हुई है, जिससे झारखंड के लोगों की विशेषकर आदिवासी लोगों के सामाजिक आर्थिक, राजनीति
एवं सांस्कृतिक पहचान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। झारखंड राज्य की जनसंख्या में आदिवासियों
की जनसंख्या वर्ष 1931 में 50 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2011 में लगभग 26.3 प्रतिशत हो
गया है। राज्य में आदिवासी जनसंख्या के घटने के कारण विधानसभा में अनुसूचित जनजाति
के सदस्यों की आरक्षित सीटों की संख्या घटकर 1971 में 32 से 28 हो गई। इसी तरह लोकसभा
में आदिवासियों के लिए आरक्षित लोकसभा सीटों की संख्या 7 से घटकर 5 हो गई। परिसीमन
आयोग, 2001 की जनगणना के अनुसार इसे घटाकर और कम करने का प्रस्ताव था। अत: औद्योगिकीकरण
के प्रक्रिया में आवश्यक है कि अनुसूचित जनजातियों एवं स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा
की जाए। इसको ध्यान में रखकर पुर्नस्थापन एवं पुर्नवास नीति 2008 पारित किया गया।
झारखंड पुनर्स्थापन और पुनर्वास नीति के उद्देश्य
1.
जहाँ तक संभव हो न्यूनतम विस्थापन, विस्थापन न करने अथवा कम-से-कम विस्थापन करने के
विकल्पों को बढ़ावा देना।
2.
प्रभावित व्यक्तियों की सक्रिय भागीदारी के पर्याप्त पुनर्वास पैकेज सुनिश्चित करना
तथा पुनर्वास प्रक्रिया का तेजी से कार्यान्वयन सुनिश्चित करना।
3.
परियोजना के लिए भूमि के न्यूनतम क्षेत्र का अर्जन हो और ऐसी भूमि ली जाए जो बंजर,
अवक्रमित एवं असिंचित भूमि हो।
4.
जिस क्षेत्र में बड़ी संख्या में परिवारों का विस्थापन होता हो, वहाँ सामाजिक प्रभाव
मूल्यांकन करना तथा पुर्नस्थापन क्षेत्र में अपेक्षित आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
5.
समाज के कमजोर वर्गों, विशेष रुप से अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों
के अधिकारों की सुरक्षा करने तथा उनके उपचार के संबंध में ध्यानपूर्वक तथा संवेदनशीलता
के साथ कार्रवाई किये जाने पर विशेष ध्यान रखने को सुनिश्चित करना।
6.
प्रभावित परिवारों को बेहतर जीवन स्तर उपलब्ध कराने तथा सतत रुप से आय मुहैया कराने
हेतु संयुक्त प्रयास करना।
7.
पुनर्वास कार्यों को विकास योजनाओं तथा कार्यान्वयन प्रक्रिया के साथ एकीकृत करना।
8.
जहाँ तक विस्थापन भूमि अर्जन के कारण होता है वहाँ पर अर्जनकारी निकाय तथा प्रभावित
परिवारों के बीच आपसी सहयोग के जरिये सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करना।
पुनर्स्थापन तथा पुनर्वास प्रशासन
जहाँ
पर राज्य सरकार इस बात से संतुष्ट हो कि किसी परियोजना के लिए भूमि अर्जन के कारण किसी
भी क्षेत्र में 100 या इससे अधिक परिवारों का अनैच्छिक विस्थापन हो रहा हो तो राज्य
सरकार अधिसूचना के द्वारा उपायुक्त के स्तर से अन्यून स्तर के किसी अधिकारी को पुनर्स्थापन
और पुनर्वास प्रशासक के रूप में नियुक्त करेगी। प्रशासक की सहायता के लिए अधिकारियों
और
कर्मचारियों
की नियुक्ति भी की जाएगी। राज्य सरकार तथा पुनर्स्थापन और पुनर्वास
आयुक्त के पर्यवेक्षण निर्देशों तथा नियंत्रण के अधीन, पुनर्स्थापन और पुनर्वास प्रशासक,
प्रभावित परिवारों के पुनर्वास के लिए सभी उपाय करेगा। पर्यावरण प्रभाव तथा सामाजिक
प्रभाव का मूल्यांकन जन-सुनवाई के माध्यम से 30 दिनों के अन्दर पूरा किया जायेगा।
पुनर्स्थापन तथा पुनर्वास योजना
किसी
परियोजना के लिए भूमि के अर्जन अथवा किसी अन्य कारणवश सामूहिक रूप से किसी भी क्षेत्र
में 100 या अधिक परिवारों के अनैच्छिक परिवारों के विस्थापन की संभावना हो तो वह एस.आई.ए.
स्वीकृति के 15 दिनों के अंदर आदेश के माध्यम से गाँवों के क्षेत्र अथवा स्थानों को
प्रभावित क्षेत्र घोषित करेगा, जिसे कम से कम तीन दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित
किया जाएगा। घोषणा की सूचना डुगडुगी बजाकर ग्राम पंचायतों में, नगरपालिकाओं के नोटिस
बोर्ड पर, ग्रामसभा, पंचायत कार्यालय एवं अन्य प्रमुख स्थानों पर लगाई जाएगी। प्रभावित
होने वाले परिवारों एवं व्यक्तियों की पहचान के लिए आधारमूलक सर्वेक्षण और गणना आयोजित
करेगा।
इस
सर्वेक्षण में प्रभावित परिवारों के बारे में निम्नानुसार ग्रामवार सूचना दी जाएगी-
1.
परिवार के वे सदस्य जो प्रभावित क्षेत्र में रह रहे हैं, कब से रह रहे हैं, किस व्यापार,
कारोबार अथवा पेशे में लगे हुए हैं।
2.
कृषि श्रमिक अथवा गैर कृषि श्रमिक।
3.
अनुसूचित जातियों अथवा अनुसूचित जनजातियों, आदिम जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित
परिवार।
4.
विकलांग, निराश्रित अनाथ विधवाएँ, अविवाहित लड़कियाँ, परित्यक्त महिलाएँ अथवा ऐसे व्यक्ति,
जिनकी आयु 50 वर्ष से अधिक है, जिन्हें वैकल्पिक आजीविका उपलब्ध नहीं कराई गई है अथवा
तत्काल उपलब्ध नहीं कराई जा सकती है और जो अन्यथा परिवार के भाग के रूप में शामिल नहीं
होते हैं।
5.
ऐसे परिवार, जो भूमिहीन हैं तथा गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले, किंतु प्रभावित क्षेत्र
की घोषणा की तारीख से पहले प्रभावित क्षेत्र में कम-से-कम गैर-अनुसूचित क्षेत्र में
15 वर्ष एवं अनुसूचित क्षेत्र में 30 वर्षों से अन्यून अवधि से लगातार रह रहे हैं तथा
जो संबंधित ग्रामसभा द्वारा प्रमाणित हो।
पुनर्स्थापन
एवं पुनर्वास आयुक्त प्रभावित परिवारों के पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास के लिए सर्वेक्षण
के ब्योरों के राजपत्र के प्रकाशन के 15 दिनों के अंदर आदेश द्वारा किसी क्षेत्र को
पुनर्स्थापन क्षेत्र के रूप में घोषित करेगा। पुनर्स्थापन क्षेत्र परियोजना टाउनशिप
में अथवा परियोजना टाउनशिप से सटे हुए होगा।
पुर्नस्थापन
और पुर्नवास प्रशासक इस योजना के प्रयोजन के लिए किसी व्यक्ति की भूमि खरीद सकता है,
करार कर सकता है अथवा भूमि के अर्जन के लिए राज्य सरकार को कह सकता है। इसके उपरांत
पुर्नस्थापन एवं पुर्नवास योजना से संबंधित प्रारूप तैयार किया जाएगा।
पुनर्स्थापन
और पुनर्वास संबंधी स्कीम या योजना के प्रारूप पर ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामसभाओं
में और उन शहरी क्षेत्रों में तथा ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ ग्रामसभाएं मौजूद न हो,
जन सुनवाइयों में विचार-विमर्श होगा। अनुसूचित क्षेत्रों के 100 या इससे अधिक अनुसूचित
जनजातियों के परिवारों के अनैच्छिक विस्थापन के मामले में 'जनजातीय सलाहकार परिषद्'
से विचार-विमर्श किया जाएगा। किसी परियोजना के लिए अर्जित की गई
भूमि को सार्वजनिक प्रयोजन के अलावा किसी अन्य प्रयोजन के लिए अंतरित नहीं किया
जा सकता है और यह अंतरण राज्य सरकार पूर्वानुमोदन के बाद ही किया जाएगा। साथ ही अर्जनकारी
निकाय द्वारा कब्जे में लेने की तारीख से 5 वर्ष की अवधि तक परियोजना के लिए आंशिक
रूप से एवं 15 वर्षों की अवधि तक पूर्ण रूप से उपयोग में नहीं लाई जाती है तो उस भूमि
को उसके अर्जनकारी निकाय को कोई प्रतिकर या क्षतिपूर्ति की अदायगी किए बिना ही राज्य
सरकार के कब्जे में और स्वामित्व में वापस कर दिया जाएगा। राज्य सरकार के द्वारा तत्पश्चात्
उस भूमि पर अन्य उपयोगी परियोजना स्थापित करने का प्रयास किया जाएगा एवं ऐसा नहीं होने
की स्थिति में भूमि प्रभावित परिवारों को वापस कर दी जाएगी। अर्जनकारी निकाय को अधिगृहित
भूमि को विक्रय करने का अधिकार नहीं होगा।
प्रभावित परिवारों के पुनर्स्थापन और पुनर्वास लाभ
यह
लाभ उन सभी प्रभावित परिवारों को दिया जाएगा, जो घोषणा के प्रकाशन की तारीख को प्रभावित
परिवार के रूप में पात्र हों। उक्त तारीख के पश्चात् परिवार में परिसंपत्तियों के किसी
बँटवारे पर विचार नहीं किया जाएगा। ऐसे किसी परिवार जिनके पास अपना घर हो और जिसका
घर अधिगृहीत कर लिया गया हो या वह घर खो चुका हो, ऐसे प्रत्येक एकल परिवार के लिए वास्तविक
आवासीय भूमि की सीमा तक ग्रामीण क्षेत्रों में दस डिसमील या शहरी क्षेत्रों में 5 डिसमील
आवास के लिए बिना किसी लागत के आवंटित की जाएगी। अर्जनकारी निकाय द्वारा आवासीय स्थल
में एक पक्का घर बनाया जाएगा, जिसमें दो शयन कक्ष, एक ड्राईंग कक्ष, एक रसोईघर तथा
एक शौचालय हो। शहरी क्षेत्रों में 100 वर्गमीटर के विस्तार क्षेत्र में घर उपलब्ध कराया
जा सकता है। ऐसे घर यदि आवश्यक हो तो बहुमंजिला भवन का प्रस्ताव किया जा सकता है। गरीबी
रेखा से नीचे के परिवारों को, जिनके पास वासभूमि नहीं हो और जो प्रभावित क्षेत्र की
घोषणा की तारीख से पहले गैर-अनुसूचित क्षेत्र में 15 वर्षों से एवं अनुसूचित क्षेत्रों
में 30 वर्षों से लगातार रह रहा हो और इस क्षेत्र से अनैच्छिक रूप से विस्थापित हुआ
हो, तो पुनर्स्थापन क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्रों में कम से कम 55 वर्गमीटर तथा शहरी
क्षेत्रों में 55 वर्गमीटर विस्तार क्षेत्र वाला घर मुहैया कराया जाएगा। परियोजना के
लिए अर्जनकारी निकाय के द्वारा प्रभावित परिवारों को आवंटित की गई भूमि अथवा घर के
पंजीकरण के लिए अदा की जाने वाली स्टांप ड्यूटी और अन्य शुल्कों का वहन अर्जनकारी निकाय
द्वारा किया जाएगा। इन परिवारों को आवंटित की गई भूमि या घर सभी ऋणों से मुक्त होगा
तथा पति और पत्नी के संयुक्त नाम से होगा, साथ ही जो मौद्रिक राशि का भुगतान किया जाएगा
पति और पत्नी के संयुक्त खाते के माध्यम से किया जाएगा। परियोजना से प्रभावित परिवारों
को पशु के लिए तथा पशुशाला के निर्माण के लिए ₹ 35000/- की राशि दी जाएगी। साथ ही इन
परिवारों को भवन-निर्माण की सामग्री एवं सामान तथा पशुओं के स्थानांतरण के लिए ₹
15,000/- की वित्तीय सहायता एवं ऐसे दुकानदार, जिनकी विस्थापन के कारण उनकी दुकान अथवा
गुमटी प्रभावित हुई है, उसे ₹ 50,000/- की वित्तीय सहायता दी जाएगी।
किसी
भी क्षेत्र में 100 परिवारों या इससे अधिक परिवारों के अनैच्छिक के विस्थापन के मामलों
में पुनर्स्थापन क्षेत्रों में राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित विस्तृत आधारित अवसंरचनात्मक
सुविधाएं तथा उन्मुक्तियां उपलब्ध करायी जायेगी।
सड़कें
सार्वजनिक विकास जल निकास, सफाई, शुद्ध पेयजल स्त्रोत, पशुओं के
लिए पेयजल स्त्रोत, सामुदायिक तालाब, चारागाह, बिजली, स्वास्थ्य केन्द्र, बच्चों के
लिए खेल मैदान, शिक्षण संस्थान, पूजा स्थल, परंपरागत जनजातीय संस्थाओं के लिए भूमि,
कब्रगाह श्मशान भूमि तथा सुरक्षा व्यवस्था शामिल होगी।
शिकायत निवारण तंत्र
प्रत्येक
परियोजना जिसमें किसी क्षेत्र में सामूहिक रूप से 100 या इससे अधिक परिवारों का अनैच्छिक
विस्थापन होता है राज्य सरकार प्रभावित परिवारों के पुनर्स्थापन और पुनर्वास योजना
कार्यान्वयन के लिए सरकारी अधिकारी की अध्यक्षता में एक समिति गठित करेगी जो अनुमण्डल
पदाधिकारी से अन्यून न हो। इस समिति को पुनर्स्थापन और पुनर्वास समिति कहा जायेगा।
परियोजना
स्तर पर पुनर्स्थापन और पुनर्वास समिति के अंतर्गत आने वाले मामलों को छोड़कर जिले
में प्रभावित परिवारों के पुनर्स्थापन तथा पुनर्वास के कार्य की प्रगति की निगरानी
और समीक्षा करने के लिए उपायुक्त की अध्यक्षता में एक स्थायी पुनर्स्थापन और पुनर्वास
समिति गठन की जाएग। इस समिति के गठन शक्तियाँ, कार्य राज्य सरकार द्वारा निर्धारित
किए जायेंगे।
इस
नीति के अंतर्गत शामिल मामलों से पैदा शिकायतों का समयबद्ध रूप से निपटारा हेतु राज्य
सरकार द्वारा त्रिसदस्यीय न्यायाधिकरण का गठन किया जाएगा।
निगरानी तंत्र
राज्य
स्तर पर मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक परिषद् होगा, जो पुनर्स्थापन और पुनर्वास
समिति के क्रियान्वयन के संबंध में परामर्श, समीक्षा एवं अनुश्रवण का कार्य करेगा।
परिषद् में संबंधित विभाग के मंत्री, राज्य के मुख्य सचिव तथा संबंधित विभाग के सचिव
होंगे। इस परिषद् में राष्ट्रीय स्तर के ख्यातिप्राप्त विशेषज्ञ को सदस्य के रूप में
रखा जा सकता है। राज्यस्तरीय पुनर्स्थापन तथा पुनर्वास परिषद् की वर्ष में कम से कम
दो बैठकें आयोजित की जाएंगी।
उन
सभी मामलों, जिनके लिए यह नीति लागू होती है, से संबंधित पुनर्स्थापन और पुनर्वास स्कीमों
या योजनाओं के कार्यान्वयन की प्रगति की समीक्षा तथा निगरानी करने के लिए विकास आयुक्त
की अध्यक्षता में 'राज्यस्तरीय अनुश्रवण समिति' गठित की जाएगी।
सूचना का आदान-प्रदान
विस्थापन,
पुनर्स्थापन और पुनर्वास के संबंध में सभी सूचना, प्रभावित व्यक्तियों के नाम और पुनर्स्थापन
और पुनर्वास पैकेज के ब्योरों को इंटरनेट पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाएगा तथा
परियोजना प्राधिकारियों द्वारा इस सूचना से संबंधित ग्रामसभाओं, पंचायतों आदि को अवगत
कराया जाएगा। इस नीति के अंतर्गत शामिल प्रत्येक मुख्य परियोजना के पुनर्स्थापन और
पुनर्वास के लिए राज्य सरकार के संबंधित विभाग में एक 'पर्यावलोकन समिति' गठित होगी।
राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग, झारखंड सरकार इस नीति को प्रभावकारी बनाने एवं क्रियान्वयन
करने हेतु नोडल विभाग होगा। राज्य सरकार आवश्यकतानुसार इस नीति के प्रावधानों को समय-समय
पर संशोधित कर सकेगी।
प्रत्यार्पण एवं पुनर्वास नीति, 2009 (सरेंडर पॉलिसी)
झारखंड
सरकार द्वारा वामपंथी उग्रवादियों के प्रत्यार्पण एवं पुनर्वास हेतु वर्ष 2009 में
नई नीति की घोषणा की गई। राज्य के 24 में से 22 जिले उग्रवाद प्रभावित
हैं। उग्रवाद की समस्या, विधि व्यवस्था के क्षेत्र में इस राज्य की सबसे बड़ी
चुनौती बन चुकी है। झारखंड राज्य के राँची, गुमला, खूटी, सिमडेगा, लोहरदगा, पलामू,
लातेहार, गढ़वा, चतरा, हजारीबाग, गिरिडीह, कोडरमा, बोकारो, धनबाद, रामगढ़, पू.
सिंहभूम, प. सिंहभूम, सरायकेला-खरसावाँ आदि जिले इस समस्या से गंभीर रूप से
आक्रांत हैं।
1. उद्देश्य-वामपंथी उग्रवादियों के प्रत्यार्पण एवं
पुनर्वास की योजना का उद्देश्य है कि-
(क)
वामपंथी उग्रवादियों के प्रत्यार्पण को प्रोत्साहित किया जाय।
(ख)
प्रत्यार्पण कर चुके उग्रवादियों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ते
हुए उनके लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था एवं आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जाय।
2. उग्रवादियों द्वारा प्रत्यार्पण मंत्री/सांसद विधायक/प्रमंडलीय
आयुक्त/ प्रक्षेत्रीय पुलिस महानिरीक्षक/पुलिस उप महानिरीक्षक / जिला दंडाधिकारी/ पुलिस अधीक्षक अथवा राज्य सरकार द्वारा मनोनीत पदाधिकारियों के समक्ष
किया जा सकता है। ये पदाधिकारी समर्पणकर्ता उग्रवादियों को आवश्यक कानूनी कार्रवाई
निकटवर्ती पुलिस स्टेशन या पुनर्वास कैंप/केंद्र को सुपुर्द करेंगे, जहाँ उनके पुनर्वास
योजना का सूत्रण कार्यान्वयन किया जाएगा।
3. स्क्रीनिंग समिति- प्रत्येक उग्रवादी के प्रत्यार्पण
को स्वीकार करने के संबंध में निर्णय एक स्क्रीनिंग समिति द्वारा
लिया जाएगा। इस समिति के अध्यक्ष जिला पुलिस अधीक्षक होंगे एवं अन्य सदस्य के रूप
में जिला दंडाधिकारी तथा अपर पुलिस महानिदेशक, विशेष शाखा द्वारा एक-एक पदाधिकारी
मनोनीत किए जाएंगे।
4. पुनर्वास समिति- a. प्रत्येक जिला में प्रत्यार्पण
करने वाले उग्रवादियों के लिए जिला दंडाधिकारी की अध्यक्षता में
जिला पुनर्वास समिति गठित होगी, जिसके सदस्य सचिव, जिला पुलिस अधीक्षक होंगे तथा
उप-विकास आयुक्त, महाप्रबंधक, जिला उद्योग केंद्र, जिला के अग्रणी बैंक पदाधिकारी
एवं समादेष्टा, गृह रक्षावाहिनी के सदस्य होंगे। जिला पुनर्वास समिति द्वारा
प्रत्येक प्रत्यार्पण कर चुके उग्रवादी के संबंध में निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में
रखकर पुनर्वास पैकेज तैयार किया जाएगा-
(क)
उग्रवादी की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि ।
(ख)
उम्र।
(ग)
उनके सामान्य शैक्षणिक एवं तकनीकी योग्यता।
(घ)
पुनर्वास हेतु उपलब्ध विकल्पों के संबंध में उसकी प्राथमिकता।
(ड.)
प्रस्तावित पुनर्वास पैकेज की संभाव्यता।
b.
पुनर्वास पैकेज के सूत्रण के संबंध में पुनर्वास समिति द्वारा पेशेवर
सहायता एन.जी.ओ./परामर्शी से प्राप्त की जा सकती है।
c.
जिला पुनर्वास समिति द्वारा सूत्रण किए गए प्रत्यार्पित उग्रवादी
निर्दिष्ट, पुनर्वास पैकेज को पुलिस महानिदेशक के माध्यम से राज्य सरकार के पास
अनुशंसा के साथ भेजा जाएगा।
5. पुनर्वास पैकेज-पुनर्वास पैकेज के अवयव के
रूप में नीचे अंकित सुविधाओं को अंकित किया जाएगा-
a.
पुनर्वास अनुदान र 2,50,000/- (दो लाख पचास हजार) होगा, जिसमें
से ₹ 50,000/- (पचास हजार) का भुगतान तत्काल प्रत्यार्पण के उपरांत किया जाएगा तथा
शेष ₹ 2,00,000/- (दो लाख) का भुगतान दो बराबर किस्तों में
होगा, जिसकी पहली किस्त एक वर्ष बाद तथा दूसरी किस्त दो वर्ष के बाद प्रत्यार्पित
उग्रवादी की गतिविधियों की छानबीन विशेष शाखा द्वारा किए जाने के पश्चात् देय
होगी।
b.
कार्यशील एवं नियमित आग्नेयास्त्र (Regular) गोला-बारूद के
समर्पण के बदले अतिरिक्त भुगतान निम्नरूपेण तालिका के अनुसार किया जाएगा-
क्र.सं. |
आग्नेयास्त्र/विस्फोटकों के प्रकार |
पुरस्कार से संबंधित राशि |
1. |
रॉकेट लॉन्चर एल.एम.जी. |
₹1,00,000 |
2. |
ए.के. 47/56/74 राइफल/स्नाइपर रायफल |
₹ 75,000 |
3. |
303 राइफल पिस्टल/रिवाल्वर |
₹ 15,000 |
4. |
रिमोट कंट्रोल डिवाईसेस |
₹6,000 |
5. |
ग्रेनेड/ हैंड ग्रेनेड |
₹2,000 |
6. |
वायरलेस सेट |
₹2,000 से
₹ 10,000 (रेंज के आधार पर) |
7. |
आई.ई.डी. |
₹6,000 |
8. |
विस्फोटक सामग्री (प्रति कि.ग्रा.) |
₹2,000 |
c.
पुनर्वास समिति द्वारा ₹ 3,000/- प्रतिमाह की वृत्ति पर एक वर्ष
तक के व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाएगी। विशेष परिस्थिति में व्यावसायिक
प्रशिक्षण की अवधि एक अतिरिक्त वर्ष तक के लिए विस्तारित की जा सकेगी।
d.
अधिकतम 4 डिसमील जमीन गृह निर्माण हेतु आवंटित की जाएगी।
e.
प्रत्यार्पण करने वाले उग्रवादी को एक आवास निर्माण हेतु अधिकतम
₹ 50,000/- (पचास हजार) की राशि दी जाएगी।
f.
राज्यांतर्गत सरकारी चिकित्सा संस्थानों में उग्रवादी एवं उसके परिवार
को निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था की जाएगी।
g.
सरकारी विद्यालयों में उग्रवादी स्वयं एवं उसके पुत्र तथा पुत्रियों
को मैट्रिक तक निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी।
h.
मुख्यमंत्री कन्यादान योजनांतर्गत महिला उग्रवादी एवं उग्रवादियों
की पुत्रियों के वैवाहिक कार्यक्रम हेतु अनुदान राशि दी जाएगी।
i.
यदि प्रत्यार्पण करने वाले उग्रवादी के सिर पर उसके मारे जाने या
गिरफ्तार होने पर कोई सरकारी इनाम घोषित हो, तो समर्पण के उपरांत घोषित इनाम की
राशि उन्हें ही प्रदान कर दी जाएगी। संगठन के विभिन्न पदाधिकारियों के समर्पण करने
पर घोषित इनाम की राशि परिशिष्ट-1 के अनुरूप भुगतान की जाएगी।
j.
समर्पण के उपरांत यदि समर्पणकर्ता को उग्रवादियों द्वारा मारा
जाता है, तो उसके परिवार को सरकारी संकल्प सं.- 423 दिनांक 16.02.06 तथा
369 दिनांक 24.01.2008 के आलोक में लाभों का भुगतान किया जाएगा,
यथा र 1,00,000/- (एक लाख) का अनुदान एवं उसके एक सुयोग्य
आश्रित को सरकारी नौकरी दी जाएगी, भले ही मृतक का प्रत्यार्पण के पूर्व आपराधिक
इतिहास रहा हो।
k.
राष्ट्रीय सहकारी बैंक से स्वनियोजन हेतु ₹ 2,00,000/- (दो लाख) तक के लिए ऋण प्राप्ति
में सहायता देगी। ऋण से प्राप्त राशि पर देय ब्याज के विरुद्ध
सरकार 50 प्रतिशत की सीमा तक अधिकतम र 50,000 (पचास हजार) की राशि प्रतिपूर्ति
करेगी।
अथवा
> शारीरिक मापदंडों को पूरा करने वाले प्रत्यार्पित
उग्रवादियों को पुलिस/गृह रक्षक/विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में नियुक्ति पर विचार
किया जा सकता है। महानिदेशक एवं पुलिस महानिरीक्षक को विशेष परिस्थितियों में
निर्धारित शारीरिक मापदंड को शिथिल करने की शक्ति होगी।
l.
राज्य सरकार द्वारा प्रत्यार्पित उग्रवादी को ₹ 5,00,000/- (पाँच लाख) की जीवन बीमा
कराई जाएगी एवं इसके लिए आवश्यक प्रीमियम का भुगतान किया जाएगा।
m.
प्रत्यार्पित उग्रवादी के आश्रितों के लिए भी (परिवारों के अधिकतर
सदस्यों के लिए) ₹ 1,00,000/- (एक लाख) का समूह जीवन बीमा भी कराया जाएगा।
n.
प्रत्यार्पित उग्रवादी की संपत्ति को उग्रवादियों द्वारा क्षतिग्रस्त किए जाने की स्थिति में क्षति का आकलन पुनर्वास समिति द्वारा कर
क्षतिपूर्ति की जाएगी।
6.
पुनर्वास पैकेज को अंतिम रूप से गृह विभाग, झारखंड द्वारा अनुमोदित
किया जाएगा।
7.
यदि प्रत्यार्पणकर्ता कालांतर में पुनः उग्रवादी गतिविधि में संलिप्त हो जाता है तो पुनर्वास पैकेज के अंतर्गत भुगतेय सभी लाभ राज्य सरकार
या बैंक (यदि ऋण का भुगतान नहीं किया गया हो) द्वारा स्वतः जब्त कर लिया जाएगा।
परोक्ष रूप से प्रत्यार्पणकर्ता के उग्रवादी गतिविधि में संलिप्त होने या नहीं
होने के बिंदु पर अंतिम निर्णय राज्य सरकार के स्तर से होगा।
8. न्यायालय संबंधी मामले-
a.
प्रत्यार्पित उग्रवादी के विरुद्ध लंबित जघन्य आपराधिक मामलों को
विधि के अनुसार निष्पादित किया जाएगा। अन्य अपराधों के लिए समर्पणकर्ता को प्ली
बारगेनिंग (Plea Bargaining) का विकल्प रहेगा।
b.
प्रत्यार्पित उग्रवादी को अपना मुकदमा लड़ने के लिए सरकार की ओर
से नि:शुल्क वकील की व्यवस्था की जाएगी।
c.
न्यायिक प्रावधान के तहत् आवश्यकता शर्त पूरा करने की स्थिति में
सरकार द्वारा राजसाक्षी (Approver) बनाने/महिला एवं नाबालिग होने की स्थिति में
प्रचलित विधि सम्मत कार्रवाई की जा सकती है।
d.
प्रत्यार्पित उग्रवादी के विरुद्ध लंबित मुकदमे के शीघ्रताशीघ्र निष्पादन
हेतु विशेष न्यायालय (फास्ट ट्रैक कोर्ट) गठित कराया जाएगा।
e.
प्रत्यार्पित उग्रवादी द्वारा उग्रवादी गतिविधि में सम्मिलित होने
के पीछे लंबित भू विवाद का कारण होने की स्थिति में संबंधित भूमि विवाद मामलों का
निपटारा प्राथमिकता के आधार पर उपलब्ध न्यायालयों से कराया जाएगा।
9.
उपरोक्त कंडिका 5.a के अनुसार, समर्पण किए गए सक्रिय हथियारों,
गोला-बारूद, विस्फोटक सामग्री आदि एवं कंडिका 5.i के अनुसार संबंधित उग्रवादी के
सिर पर घोषित सरकारी इनामों को छोड़कर समर्पणकर्ता यदि पति एवं पत्नी दोनों हों,
तो पुनर्वास पैकेज के अंतर्गत उन्हें एक यूनिट ही माना जाएगा।
10.
राज्य सरकार प्रत्येक वर्ष इस योजना के कार्यान्वयन की समीक्षा करेगी
तथा आवश्यकतानुसार संशोधन करेगी।
11.
राज्य सरकार में आवश्यकता अनुरूप विशेष परिस्थितियों में उपर्युक्त प्रावधानों में संशोधन करने की शक्ति निहित रहेगी।
परिशिष्ट-1
(कंडिका 7.9)
क्रमांक |
श्रेणी |
संगठन में स्थान |
पुरस्कार |
1. |
ए. |
पोलित ब्यूरो सदस्य केंद्रीय कमेटी सदस्य/केंद्रीय सैन्य आयोग सदस्य |
₹12,00,000 |
2. |
बी. |
ऑल्टरनेट केंद्रीय कमेटी |
₹10,00,000 |
3. |
सी. |
रिजनल ब्यूरो सदस्य/स्पेशल एरिया कमेटी सदस्य राज्य कमेटी सदस्य |
₹10,00,000 |
4. |
डी. |
ऑल्टरनेट स्पेशल एरिया कमेटी सदस्य/राज्य कमेटी सदस्य |
₹8,00,000 |
5. |
ई. |
रिजनल कमेटी सदस्य |
₹7,00,000 |
6. |
एफ. |
जोनल कमेटी सदस्य |
₹5,00,000 |
7. |
जी. |
सब जोनल कमेटी सदस्य |
₹3,00,000 |
8. |
एच. |
एरिया कमांडर/एल.ओ.सी. सदस्य |
₹2,00,000 |
9. |
आई. |
एल.जी.एस. दस्ता कमांडर |
₹1,00,000 |
10. |
जे. |
एल.जी.एस. दस्ता सदस्य |
₹30,000 |
पर्यावरण निम्नीकरण और इससे निबटने हेतु राज्य की नीति
झारखंड राज्य जलवायु परिवर्तन कार्यान्वयन इकाई
झारखंड
के साथ-साथ संपूर्ण विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन मानव जाति के लिए सबसे बड़ी
समस्या है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के सहयोग से झारखंड राज्य
जलवायु केंद्र स्थापित किया गया है। भारत सरकार द्वारा गठित 'नेशनल एक्शन प्लान ऑन
क्लाईमेट चेंज' (NAPCC) ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के नियंत्रण हेतु आठ
मिशनों की घोषणा की है।
ये आठ मिशन निम्नलिखित हैं-
1.
नेशनल सोलर मिशन (NSM)
2.
नेशनल मिशन फॉर इन्हेंस्ड इनर्जी एफिसिएंसी (NMEEE)
3.
नेशनल मिशन ऑन सस्टनेबल हैविटैट (NMSH)
4.
नेशनल वॉटर मिशन (NWM)
5.
नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग द हिमालयन इकोसिस्टम (NMSITE)
6.
नेशनल मिशन फॉर ए ग्रीन इंडिया (NMGI)
7.
नेशनल मिशन फॉर सस्टनेबल एग्रीकल्चर (NMSA)
8.
नेशनल मिशन ऑन स्ट्रेइजिक नॉलेज फॉर क्लाइमेट चेंज
नेशनल
मिशन फॉर ए ग्रीन इंडिया (राष्ट्रीय हरित मिशन) के तहत् चार राज्यों में वन घनत्व
में सुधार के लिए 5 से 10 वर्षों के लिए 90,202. 68 लाख रुपए की योजना
तैयार की गई है। ये चार राज्य मिजोरम, मणिपुर, झारखंड और केरल
हैं।
विभिन्न
विभागों में समन्वय स्थापित करने के लिए 'झारखंड स्टेट क्लाइमेट चेंज एक्शन यूनिट'
की स्थापना की जाएगी। वित्तीय वर्ष 2016-17 में इस योजना के लिए 300 लाख रुपए का
बजट प्रावधान किया गया था।
पर्यावरण
एवं मानव को जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रभावों से बचाने के लिए राज्य में
जलवायु परिवर्तन पंचवर्षीय कार्य योजना तैयार किया गया। इसमें कृषि, वानिकी,
स्वास्थ्य, जल, ऊर्जा, खनन, उद्योग, शहरी विकास एवं पर्यावरण को सम्मिलित किया गया
है। इस बहु विभागीय योजना के समन्वित कार्यान्वयन हेतु नोडल विभाग वन, पर्यावरण
एवं जलवायु परिवर्तन द्वारा कार्य इकाई का गठन किया गया है। यह विभिन्न विभागों
द्वारा संबंधित सेक्टरों में राज्य जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना के कार्यान्वयन में
समन्वयन स्थापित करने के साथ-साथ राज्य में जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर
कार्रवाई करेगी। 'झारखंड जलवायु परिवर्तन एक्शन प्लान' के दृष्टिपत्र में इस बात
पर बल दिया गया है कि पर्यावरणीय संतुलन (पर्यावरणीय धारणीयता) को बनाए रखते हुए
आर्थिक विकास करना, गरीबी दूर करना तथा जीविका के साधनों को उपलब्ध कराना है।
वर्ष
2030 तक सतत् विकास लक्ष्य (Sustainable Development
Goal) को प्राप्त करने के लिए 15 वर्षों की दीर्घकालीन विजन दस्तावेज (Vision
Document), 07 वर्षों की विकास रणनीति (Strategy) एवं 03 वर्षों की
कार्य योजना (Action Plan) तैयार की जाएगी। वर्ल्ड क्लाईमेट डाटा के अनुसार झारखंड
में 2020 से 2050 ई. के बीच गरमी के तापमान में अधिकतम 2 से 3° सेल्सियस तथा
जाड़े के दिनों में 4.78°से 5.2 सेल्सियस तापमान में वृद्धि हो
सकती है। 2008 से 2012 के बीच झारखंड में जलवायु संबंधी कुछ प्रमुख घटनाएँ नीचे के
तालिका में दिया गया है।
आपदा
संबंधी राज्य की प्रमुख घटना
घटना |
घटनाओं की संख्या |
लू (Heat Wave) |
2010 ई. में 100 घटनाएँ |
उच्चतम तापमान |
2010 ई. में 46.5°C (जून) |
न्यूनतम तापमान |
2008 ई. में 3.2°C (जनवरी) |
अधिकतम वर्षा |
2008 ई. में 338.1 मिमी. |
झारखंड
में वर्षा एवं तापमान में परिवर्तनशीलता का प्रभाव आर्थिक विकास एवं कृषि पर पड़
रहा है। अगर तापमान 1 से 4° सेल्सियस तक बढ़ेगा, तब चावल के उत्पादन में शून्य से
लेकर 40 प्रतिशत तक तथा टमाटर के उत्पादन में 40 प्रतिशत की गिरावट आएगी।
जलवायु
परिवर्तन पर झारखंड राज्य एक्शन प्लान (SAPCC), 2014 द्वारा निर्धारित उद्देश्य
निम्नलिखित है-
•
जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों की पहचान करना।
•
जलवायु परिवर्तन से प्रभावित अति संवेदनशील क्षेत्रों की राज्य स्तरीय
मानचित्र तैयार करना।
•
ऐसे क्षेत्रों की पहचान करना, जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हैं, उन्हें नीतियों एवं योजनाओं में शामिल करना।
•
कोयला एवं खनन आधारित उद्योग, जो राज्य के औद्योगिक विकास का
आधार हैं, उनके द्वारा उत्पन्न प्रदूषण की मात्रा को नियंत्रित करने के उपाय पर बल
देना।
•
SAPCC 2014 के अनुसार सबसे संवेदनशील जिला सरायकेला- खरसावाँ है।
जलवायु
परिवर्तन का सीधा प्रभाव झारखंड के आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था पर पड़ रहा है। इस
समस्या का सीधा संबंध जनसंख्या वृद्धि, तीव्र औद्योगिकरण और निम्न आधारभूत संरचना
से है।
झारखंड
में कुल कृषि क्षेत्र 22 लाख हेक्टेयर है, जो तीन कृषि जलवायु क्षेत्र में पड़ता
है। भारत को 15 कृषि जलवायु क्षेत्र में विभाजित किया गया है, जिसमें तीन कृषि
जलवायु प्रदेश झारखंड में स्थित हैं। NIDM के अनुसार झारखंड में स्थित तीन कृषि
उपजलवायु प्रदेश हैं-
•
मध्य एवं उत्तरी-पूर्वी पठारी उप-कृषि जलवायु प्रदेश
•
पश्चिमी पठारी उप-कृषि जलवायु प्रदेश
•
दक्षिणी पूर्वी पठारी उप कृषि जलवायु प्रदेश।
NIDM
के अनुसार झारखंड के विभिन्न कृषि उप जलवायु क्षेत्र के अंतर्गत
सम्मिलित जिलों को नीचे की तालिका में प्रदर्शित किया गया है।
जोन का नाम |
कृषि उप जलवायु क्षेत्र |
जिला का नाम |
सब जोन iv |
मध्य एवं उत्तरी पूर्वी पठारी प्रदेश |
दुमका, देवघर, गोड्डा, साहेबगंज, पाकुड़, हजारीबाग, कोडरमा, जामताड़ा, चतरा, गिरिडीह, धनबाद, बोकारो और राँची का दो-तिहाई भाग। |
सब जोन v |
पश्चिमी पठारी प्रदेश |
पलामू, लातेहार, लोहरदगा, गढ़वा, गुमला, सिमडेगा एवं राँची का एक तिहाई भाग। |
सब जोन vi |
दक्षिणी-पूवीं पठारी प्रदेश |
पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम एवं सरायकेला-खरसावाँ। |
झारखंड
के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का कुल योगदान 20 प्रतिशत हैं तथा 70
प्रतिशत जनसंख्या की आजीविका कृषि पर निर्भर है। झारखंड की कृषि मूलरूप से मौनसून
पर आधारित है। झारखंड का मुख्य फसल खरीफ (धान) है। 40 प्रतिशत क्षेत्र पर एक फसली
कृषि की जाती है, जो कृषि पिछड़ेपन का द्योतक है। जलवायु परिवर्तन का कृषि दक्षता
एवं कृषि प्रतिरूप पर प्रभाव पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि
उत्पादकता पर पड़ा है। भोजन में पोषणीय तत्त्व की कमी तथा अनाज की उपलब्धता में
कमी से लोगों के स्वास्थ्य में गिरावट आ रही है। भारतीय कृषि में परिवर्तन नॉलेज नेटवर्क
(CCKNIA) 2013 ई. में महाराष्ट्र, ओडिसा और झारखंड में शुरू किया है। उसके अंतर्गत
राज्य के पूर्वी सिंहभूम एवं राँची जिला सम्मिलित है।
प्राकृतिक,
तकनिकी एवं अन्य मानवीय प्रक्रियाओं से अत्यधिक उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड,
मिथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन आदि गैसों के कारण पृथ्वी की जलवायु में दीर्घकालिक
परिवर्तन हुए हैं, जो ऋतु पविर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि, समुद्री जलस्तर में
बढ़ोतरी, फसल चक्र में बदलाव आदि के लिए उत्तरदायी हैं। इससे बाढ़, सूखा, अकाल,
महामारी, पलायन आदि समस्याएँ हो रही हैं।
झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
राज्य
में प्रदूषण नियंत्रण हेतु 2001 ई. में झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की
स्थापना की गई है। संसाधनों के सतत् (टिकाऊ) उपयोग के लिए झारखंड राज्य प्रदूषण
बोर्ड (JSPCB) द्वारा 2012-17 के लिए दृष्टि पत्र प्रस्तुत किया गया है। JSPCB एक
नियामक इकाई है, जो उद्योगों को पर्यावरण मित्र बनाने के लिए नए एवं उच्च तकनीक के
लिए प्ररित करता है। यह बोर्ड संसाधनों के सतत् उपयोग पर बल देता है। साथ ही जल के
उपयोग को कम करने, वर्षा, जल, कृषि, लकड़ी एवं कोयला का औद्योगिक क्षेत्र में कम
उपयोग करने एवं स्वच्छ ऊर्जा उपयोग पर अधिक बल देता है।
ग्रीन
हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए झारखंड ऊर्जा नीति,
2012 लागू किया गया है। इसमें गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत के विकास पर विशेष बल दिया गया है । इस नीति में 10 वर्षों में कुल ऊर्जा उत्पादन का 50
प्रतिशत गैर परंपरागत स्रोत से उत्पादन करना है। स्वच्छ ऊर्जा (नवीकरणीय ऊर्जा) के
विकास के लिए 2001 ई. में 'झारखंड नवीकरणीय ऊर्जा विभाग एजेंसी' (JREDA) का
गठन किया गया है।
जल
संसाधन के उचित प्रबंधन के लिए झारखंड राज्य जल नीति, 2011 को लागू किया गया है।
जल
संसाधन, विशेषकर नदी जल संरक्षण के लिए भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय
द्वारा 20 फरवरी, 2009 को राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का गठन किया गया है।
इस प्राधिकरण के अंतर्गत गंगा नदी से संबंधित राज्यों को नदी संरक्षण संबंधी
कार्यों को करने के लिए निर्देश दिया गया है। इस प्राधिकरण के आलोक में पर्यावरण
संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा-3 के तहत् झारखंड राज्य गंगा नदी संरक्षण प्राधिकरण
का गठन 30 सितंबर, 2009 ई. को किया गया था। प्राधिकरण के पदेन अध्यक्ष मुख्यमंत्री
होते हैं तथा इसका मुख्यालय सूची में स्थापित है।
पिछले
कुछ दशकों में झारखंड में वर्षा की मात्रा एवं प्रतिरूप में परिवर्तन हुआ है, जो
जलवायु परिवर्तन का परिणाम है। झारखंड में औसत वार्षिक वर्षा
1149.3 मिमी, है, जिसका 82.20 प्रतिशत वर्षा दक्षिण पश्चिम मानसून से जून से सितंबर के बीच में होती है। केवल 6.5 प्रतिशत वर्षा (92.3
मिमी.) उत्तर पूर्व मानसून से होती है। 3.7 प्रतिशत वर्षा जाड़े के दिनों में
जनवरी एवं फरवरी के बीच होती है, जबकि शेष वर्षा की मात्रा 7.5 प्रतिशत मार्च से
मई के बीच होती है। पिछले पाँच दशक में राँची क्षेत्र में वर्षा की मात्रा में
वृद्धि हुई है तथा 1960 के दशक में लगभग 30 प्रतिशत वर्षा की मात्रा में वृद्धि
हुई है, जबकि राज्य के अन्य हिस्सों में वर्षा की इस प्रवृत्ति में परिवर्तन पाया
जाता है। पिछले 100 वर्षों में राज्य के वर्षा की मात्रा में औसत रूप से 150 मिमी.
की कमी आई है।
नीचे
के तालिका में पिछले 100 वर्षों में वर्षा की प्रवृत्ति में परिवर्तन को दर्शाया
गया है-
ऋतु |
कमी/वृद्धि |
मिमी. में |
मानसून |
कमी |
-95.7 |
जाड़ा |
वृद्धि |
+4.1 |
पूर्व मानसून |
कमी |
- 17.1 |
मानसून बाद |
कमी |
-6.6 |
वार्षिक |
कमी |
- 150.6 |
जलवायु
परिवर्तन का वन, उनके वितरण एवं वनीय जीव पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। झारखंड के सकल
घरेलू उत्पाद में वन क्षेत्र का हिस्सा 1.5 प्रतिशत (2009) हैं, जबकि 2001-02 में
यह हिस्सा 2 प्रतिशत था। जलवायु परिवर्तन होने से ताप में वृद्धि हुई है, जिसके
कारण वायुमंडलीय आर्द्रता में कमी आने से गरमी के दिनों में जंगलों में आग लगने की
घटनाएँ बढ़ी है। वन कार्बन डाईऑक्साइड और ग्रीन हाउस गैस को अवशोषित करने के प्रमुख
स्रोत हैं, लेकिन वनों के विस्तार में कमी होने के कारण का Co2
और GHS की मात्रा में वृद्धि हो रही है, जिससे जलवायु में
परिवर्तन आ रहा है तथा जलवायु परिवर्तन का विपरीत प्रभाव वन एवं धरातलीय वनस्पति
पर पड़ रहा है। वनों पर सर्वाधिक प्रभाव झारखंड के उत्तरी पश्चिमी भाग में पड़ा
है। ये सभी क्षेत्र अतिसंवेदनशील स्थिति में है। जलवायु के गरम होने से ग्रीष्म
ऋतु शुष्क होने, वाष्पीकरण अधिक होने, वातावरण में नमी की मात्रा कम होने से आग
लगने की घटनाएँ बढ़ी हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण जैव विविधता में गिरावट आई है।
जलवायु
परिवर्तन का स्वास्थ्य क्षेत्र पर भी व्यापक असर पड़ा है। स्वच्छ वायु, शुद्ध पेय
जल, पोषक तत्त्व की भोजन में उपलब्धता स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। लेकिन
स्वास्थ्य के उपर्युक्त मानकों में गिरावट तथा खराब स्वास्थ्य सुविधा संबंधी
अवसंरचना के कारण झारखंड में अनेक प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ उत्पन्न
हुई हैं । मलेरिया एवं डेंगू का प्रकोप बढ़ा है। इसका मुख्य कारण भारी वर्षा है,
जिससे ये बीमारियां संचारित होती हैं। 2009 ई. तक राज्य में एक भी डेंगू के मरीज
नहीं थे, जबकि 2010 में 27 और 2011 में 32 की संख्या में पाया गया है। चिकुनगुनिया
नामक बीमारी, जो 2011 में पुनः सामने आई, दिसंबर 2011 तक इसकी संख्या 816 पाई गई,
यह पूरी तरह मौसम से संबंधित विषाणु जनित बीमारी है, जो अधिक ताप बढ़ने से होता
है।
जलवायु
परिवर्तन का सीधा प्रभाव स्वच्छ पेयजल, तापमान में वृद्धि, मौसमी परिवर्तन पर पड़ा
है। वर्षा के प्रतिरूप में परिवर्तन हुआ है। इन कारणों से ही जल में उत्पन्न होने
वाले जीवाणु एवं विषाणु युक्त बीमारियों, जैसे-मलेरिया, डेंगू आदि का प्रकोप बढ़ा
है।
कृषि
में रसायनों जैसे रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक आदि के प्रयोग से उत्पादकता में तो
वृद्धि हो रही हैं, लेकिन इनके प्रयोग से स्वास्थ्य में गिरावट आ रही है।
झारखंड
की अर्थव्यवस्था का आधार बड़े उद्योग एवं खनन क्षेत्र है दोनों क्षेत्र ग्रीन हाउस
गैस का प्रमुख उत्सर्जक क्षेत्र है। गर्ग एवं शुक्ला (2002) के अनुसार झारखंड में
1990 ई. में 51.8 Mt Co2 eq का उत्सर्जन हुआ था, जो अगले पाँच वर्ष में बढ़कर 56.11 Mt Co2 eq के स्तर तक पहुंच गया। झारखंड
में सर्वाधिक ग्रीन हाउस का उत्सर्जन करने वाला जिला गिरिडीह है। झारखंड की
अर्थव्यवस्था मूलत: उद्योग एवं खनन पर आधारित अर्थव्यवस्था है। राज्य में देश का
एक-तिहाई खनिज भंडार है। औद्योगिक विकास के लिए राज्य में चार औद्योगिक विकास
ऑथोरिटी कार्यरत हैं-
(i)
आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र विकास ऑथोरिटी (AIADA)।
(ii)
बोकारो औद्योगिक क्षेत्र विकास ऑथोरिटी (BIADA) |
(iii)
राँची औद्योगिक क्षेत्र विकास ऑथोरिटी (RIADA) ।
(iv)
संथाल परगना औद्योगिक विकास ऑथोरिटी (SPIADA)।
औद्योगिक
विकास का जलवायु परिवर्तन से सीधा संबंध है। तापमान में वृद्धि होने से ताप ऊर्जा
उत्पादन की क्षमता में कमी आती है तथा शुष्क मौसम में भी ऊर्जा उत्पादन में गिरावट
आती है। इसलिए सरकार ने न्यूनतम जल उपयोग करने वाली तकनीक के विकास पर बल दे रही
है। झारखंड खनिज संसाधन में संपन्न राज्य है। खनन कार्य के कारण प्रदूषण की मात्रा
में वृद्धि हो रही है। खनन कार्य से मिट्टी और जल दोनों प्रदूषित हो रहा है।
झारखंड में भू- गर्भ जल का भंडार 500 मिलीयन क्यूविक मीटर है। औसतन हर साल राज्य में वर्षा की कुल मात्रा को 80 प्रतिशत सतही जल और 74 प्रतिशत भूमिगत जल के रूप में प्रवाहित हो जाता है। झारखंड में पीने एवं अन्य घरेलू कार्य एवं सिंचाई हेतु व्यापक स्तर पर भूमिगत जल का उपयोग सिंचाई कार्यों के लिए किया जाता है। लगभग 20 प्रतिशत भूमिगत जल का उपयोग सिंचाई कार्यों के लिए किया जाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की मात्रा एवं प्रतिरूप में परिवर्तन से भूमिगत जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। ताप में वृद्धि के कारण कृषि क्षेत्र में भूमिगत जल का दोहन बढ़ता जा रहा है। जलवायु पविर्तन से थर्मल पावर स्टेशन में भी भूमिगत जल की खपत बढ़ रही है।