JPSC_Meaning_and_Standards_of_Economic_Development,_Characteristics_of_Underdevelopment (आर्थिक विकास का अर्थ और मानक, अल्प विकास की विशेषताएं)

आर्थिक विकास (आर्थिक विकास का अर्थ और मानक, अल्प विकास की विशेषताएं)

आर्थिक विकास

(आर्थिक विकास का अर्थ और मानक, अल्प विकास की विशेषताएं)

आर्थिक वृद्धि एवं विकास

विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास की परिभाषा के लिए भिन्न-भिन्न आधारों को अपनाया है। अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने आर्थिक विकास का अर्थ, कुल राष्ट्रीय वास्तविक आय में वृद्धि करना बताया है, तो दूसरी विचारधारा के लोगों ने प्रति-व्यक्ति वास्तविक आय में की जाने वाली वृद्धि को आर्थिक विकास की संज्ञा दी है।

प्रथम सम्प्रदाय में प्रो. साइमन कुजनेट्स, मायर एवं बाल्डविन तथा ऐ.जे. यंगसन, आदि को सम्मिलित किया जाता है।

द्वितीय सम्प्रदाय में प्रति व्यक्ति की आय में वृद्धि को, आर्थिक विकास मानने वाले अर्थशास्त्रियों में डॉ. बैंजमीन, हिंगीन्स, हार्वे लिवेस्टीन, डब्ल्यू. आर्थर लुईस, प्रो. विलियमसन तथा जैकब बॉइनर आदि प्रमुख रूप से हैं।

हम आर्थिक विकास की कुछ प्रचलित परिभाषाओं की विवेचना निम्नवत प्रस्तुत कर रहे हैं :

आर्थिक विकास की परिभाषाएं

विभिन्न विद्वानों ने आर्थिक विकास को निम्न प्रकार व्यक्त किया है

मायर एवं बाल्डविन के मतानुसार :

"आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दीर्घकाल में किसी अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।"

प्रो. लुईस के शब्दों में : "आर्थिक विकास का अर्थ, प्रति-व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि से लगाया जाता है।"

प्रो. यंगसन के विचारानुसार : “आर्थिक प्रगति से आशय किसी समाज से संबंधित आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की शक्ति में वृद्धि करना है।'

प्रो. विलियमसन के अनुसार : "आर्थिक विकास अथवा वृद्धि से उस प्रक्रिया का बोध होता है जिसके द्वारा किसी देश अथवा प्रदेश के निवासी उपलब्ध साधनों का उपयोग, प्रति व्यक्ति वस्तुओं के उत्पादन में निरन्तर वृद्धि के लिए करते हैं।"

उपरोक्त परिभाषाओं के विवेचन से स्पष्ट है कि जहां मायर एवं वाल्डविन ने आर्थिक विकास में वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने की बात कही है वहीं विलियमसन तथा लुईस द्वारा प्रति व्यक्ति उत्पादन अथवा आय में वृद्धि का समर्थन किया गया है लेकिन ऊपर वर्णित सभी परिभाषाओं में तीन महत्वपूर्ण बातें समान रूप से परिलक्षित होती हैं

1. विकास की सतत प्रक्रिया- आर्थिक विकास एक सतत प्रक्रिया है। जिसका अर्थ, कुछ विशेष प्रकार की शक्तियों के कार्यशील रहने के रूप में, लगाया जाता है। इन शक्तियों के एक अवधि तक निरन्तर कार्यशील रहने के कारण आर्थिक घटकों में सदैव परिवर्तन होते रहते हैं। यद्यपि इस प्रक्रिया के फलस्वरूप किसी अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन तो होता है किन्तु इस प्रक्रिया का सामान्य परिणाम, राष्ट्रीय आय में वृद्धि होना है।

2. वास्तविक राष्ट्रीय आय - आर्थिक विकास का सम्बन्ध वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि से है। ध्यान रहे, वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि से अभिप्राय किसी राष्ट्र द्वारा एक निश्चित काल में उत्पादित समस्त वस्तुओं एवं सेवाओं के विशुद्ध मूल्य में होने वाली वृद्धि से लगाया जाता है, न कि मौद्रिक आय की वृद्धि से। चूंकि आर्थिक विकास को मापने के लिए राष्ट्रीय आय को ही आधार माना जाता है इसलिए किसी देश का आर्थिक विकास तभी माना जाएगा जब उस देश में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन निरन्तर बढ़ता रहे। कुल राष्ट्रीय उत्पादन में से मूल्य ह्रास अथवा मूल्य स्तर में हुए परिवर्तनों को समायोजित करने पर विशुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन प्राप्त हो जाता है।

3. दीर्घकालीन अथवा निरन्तर वृद्धि- आर्थिक विकास का सम्बन्ध अल्पकाल से न होकर दीर्घकाल से होता है। दूसरे शब्दों में, विकास की यह प्रक्रिया एक या दो वर्षों में होने वाले अल्पकालीन परिवर्तनों से सम्बन्धित नहीं होती बल्कि 15 से 20 वर्षों के बीच दीर्घकालीन परिवर्तनों से सम्बन्धित होती है। इसलिए अगर किसी अर्थव्यवस्था में किन्हीं अस्थायी कारणों से देश की आर्थिक स्थिति में सुधार हो जाता है, जैसे अच्छी फसल अथवा अप्रत्याशित निर्यात होना, तो इसे आर्थिक विकास नहीं समझना चाहिए, क्योंकि आर्थिक विकास विशेष घटकों से प्रभावित होने वाला विकास है।

आर्थिक विकास तथा आर्थिक वृद्धि में अन्तर

"अल्पविकसित देशों की समस्याएं उपयोग में न लाए गए साधनों के विकास से सम्बन्ध रखती हैं, भले ही उनके उपभोग भली-भांति ज्ञात न हों, जबकि उन्नत देशों की समस्याए वृद्धि से सम्बन्धित रहती हैं, जिनके बहुत सारे साधन पहले से ज्ञात और किसी सीमा तक विकसित रहते हैं। प्राय: आर्थिक विकास तथा आर्थिक वृद्धि में कोई अंतर नहीं किया जाता है। किंतु इनके मध्य अंतर है आर्थिक वृद्धि एक स्वाभाविक एवं सामान्य प्रक्रिया है जिसके लिए समाज को कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता है, इसके विपरीत आर्थिक विकास के लिए विशेष प्रयत्नों का किया जाना जरूरी है अर्थात आर्थिक विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तनों का होना आवश्यक है ताकि विद्यमान आर्थिक व्यवस्था के पूरे स्वरूप को परिवर्तित किया जा सके।

आर्थिक वृद्धि शब्द का प्रयोग विकसित देशों के लिए किया जाता है क्योंकि इन देशों में उत्पादन के साधन पहले से ही ज्ञात एवं विकसित होते हैं। इसके विपरीत 'विकास' का सम्बन्ध अल्प विकसित देशों से है जहां अशोषित व अर्द्ध शोषित साधनों के पूर्ण उपयोग व विकास की सम्भावनाएं विद्यमान होती हैं। 'विकास के लिए विशेष निर्देशन, नियंत्रण, प्रयास व मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है और यह बात अल्प विकसित देशों के सम्बन्ध में ही ठीक बैठती है। इसके विपरीत आर्थिक वृद्धि का स्वभाव स्वेच्छानुसार होता है जो कि एक उन्नत स्वतंत्र उपक्रम वालीmअर्थव्यवस्था का लक्षण है।' 'आर्थिक वृद्धि का अर्थ केवल उत्पादन वृद्धि से है जबकि आर्थिक विकास का अर्थ है उत्पादन वृद्धि के साथ प्राविधिक एवं संस्थागत परिवर्तन का होना है।'

आर्थिक वृद्धि

1. स्वाभाविक क्रमिक व स्थिर गति वाला परिवर्तन

2. केवल उत्पादन में वृद्धि का होना

3. आर्थिक व संस्थागत घटकों में परिवर्तन होने पर स्वतः ही घटित होती रहती है।

4. वर्तमान साम्य की अवस्था में कोई आधारभूत परिवर्तन नहीं होता।

5. आर्थिक उन्नति नियमित घटनाओं का परिणाम है।

6. यह उन्नत देशों की समस्याओं का समाधान है।

7. आर्थिक वृद्धि स्थैतिक साम्य की स्थिति है।

आर्थिक विकास

1. प्रेरित एवं असंगत प्रकृति का परिवर्तन।

2. उत्पादन-वृद्धि + प्राविधिक एवं संस्थागत परिवर्तनों का होना।

3. विकास के लिए संरचनात्मक परिवर्तनों का किया जाना आवश्यक

4. नई शक्तियों से नये मूल्यों का निर्माण किया जाता है तथा प्रचलित साम्य में सुधार लाए जाते हैं।

5. आर्थिक विकास उन्नति इच्छा, विशेष निर्देशन व सृजनात्मक शक्तियों का परिणाम है।

6. यह अल्प विकसित देशों की समस्याओं को हल करने का एक नारा है।

7. आर्थिक विकास गतिशील साम्य का एक रूप है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आर्थिक वृद्धि की दशा में आर्थिक जीवन प्रत्येक वर्ष उन्हीं आर्थिक धाराओं से होकर इस प्रकार बहता चला जाता है जिस प्रकार एक प्राणी की धमनियों में रक्त का संचालन होता है। दूसरे शब्दों में आर्थिक वृद्धि के अंतर्गत ज्यादा नवीनता का सृजन नहीं होता है बल्कि जो कुछ भी उन्नति होती है वह परम्परागत एवं नियमित घटनाओं का परिणाम होती है। इसके विपरीत आर्थिक विकास में नई शक्तियों को जन्म दिया जाता है और प्रचलित संतुलन में निरन्तर सुधार लाने के प्रयत्न किए जाते हैं।

आर्थिक विकास की प्रकृति

आर्थिक विकास का अर्थ व परिभाषा जान लेने के बाद एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि आर्थिक विकास की प्रकृति क्या है? चूंकि आर्थिक विकास का स्वभाव अर्थशास्त्र के स्थैतिक एवं गत्यात्मक स्वरूपों पर आधारित है इसलिए यह अधिक उपयुक्त होगा कि पहले संक्षेप में इन दोनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट कर लिया जाए।

स्थैतिक अर्थशास्त्र

स्टैटिक (Static) शब्द का सामान्य अर्थ है 'स्थिर रहना' तथा डायनौमिक शब्द का अर्थ है 'गतिमान' होना। इसी प्रकार भौतिक शास्त्र में भी स्थैतिक शब्द से अभिप्राय 'विश्राम की अवस्था' से होता है। इसके विपरीत अर्थशास्त्र में स्थैतिक शब्द का आशय गतिहीन अवस्था से नहीं होता बल्कि उस अवस्था से होता है जिसमें परिवर्तन तो हों परन्तु इन परिवर्तनों की गति अत्यंत कम हो।

प्रो. हैरोड ने स्थैतिक शब्द की परिभाषा इस प्रकार दी है- “एक स्थैतिक संतुलन का अर्थ, विश्राम की अवस्था से नहीं होता बल्कि उस अवस्था से होता है जिसमें कार्य निरन्तर रूप से दिन-प्रतिदिन अथवा वर्ष-प्रति वर्ष हो रहा हो परन्तु उसमें वृद्धि अथवा कमी न हो रही हो। इस सक्रिय अपरिवर्तनीय प्रक्रिया को 'स्थैतिक अर्थशास्त्र' कहा जाता है।"

उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि स्थैतिक अवस्था कोई विश्राम या गतिहीनता की अवस्था नहीं है। इसमें क्षण प्रति क्षण परिवर्तन होते हैं। यह परिवर्तन इतनी कम गति से होते हैं कि सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं हो पाता। स्थैतिक अवस्था 'गति में स्थिरता' की द्योतक है।

गत्यात्मक अथवा प्रावैगिक अर्थशास्त्र

परिवर्तन प्रकृति का निरन्तर नियत है। दिन के बाद रात, दुख के बाद सुख धूप के बाद छांव तथा जन्म के बाद मृत्यु होना अवश्यम्भावी है। सत्यता तो यह है कि वास्तविक जीवन में पूर्ण स्थैतिक अवस्था कहीं देखने को नहीं मिलती है। परिवर्तनशीलता की इस प्रवृत्ति को ही गत्यात्मक अर्थशास्त्र कहते हैं।

प्रो. हैरोड के अनुसार

"प्रावैगिक (अर्थशास्त्र) का सम्बन्ध विशेषतया निरन्तर परिवर्तनों के प्रभाव तथा निर्धारित किए जाने वाले मूल्यों में परिवर्तन की दरों से होता है।"

प्रो. जे.बी. क्लार्क ने गत्यात्मक अर्थशास्त्र के पांच प्रमुख लक्षणों की ओर संकेत किया है। जो कि निम्नवत हैं :

जनसंख्या में वृद्धि

पूंजी व पूंजी निर्माण में वृद्धि

उत्पादन विधियों में सुधार

• औद्योगिक संगठनों के स्वरूपों में परिवर्तन

उपभोक्ता की आवश्यकताओं में वृद्धि।

आर्थिक विकास की प्रकृति मूलतः गत्यात्मक है

स्थैतिक एवं गत्यात्मक अर्थशास्त्र के उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि आर्थिक विकास मूलतः गत्यात्मक प्रकृति का है। जिस प्रकार गत्यात्मक अवस्था में पुराने साम्य टूट कर नए साम्य निर्मित होते रहते हैं ठीक उसी प्रकार विकास की पुरानी अवस्थाओं में परिवर्तन होने पर नई अवस्थाओं का निर्माण होता रहता है। आर्थिक विकास का उद्देश्य जहां एक ओर आर्थिक प्रगति की विभिन्न स्थितियों का अध्ययन करना है वहीं दूसरी ओर दीर्घकाल में आर्थिक गतिविधियों का विश्लेषण करना भी है। ध्यान रहे आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में उत्पादकता के ऊंचे स्तर को प्राप्त करना होता है जिसके लिये 'विकास प्रक्रिया' अर्थव्यवस्था को प्रगति के एक निचले साम्य से ऊपर उठाकर किसी अन्य उच्चस्तरीय साम्य के धरातल पर लाकर खड़ा कर देती है और यह आवश्यक भी है, अन्यथा आर्थिक विकास एक महत्वहीन विचारधारा बनकर रह जाएगा।

यहां यह लिखना आवश्यक होगा कि प्रो. शुम्पीटर द्वारा वर्णित 'आर्थिक वृद्धि की प्रकृति भी मूलरूप से गत्यात्मक ही है, परन्तु इसका झुकाव स्थैतिकता की ओर अधिक होता है। इसका कारण यह है कि आर्थिक वृद्धि के तदन्तर होने वाले विकासमयी परिवर्तन बहुत धीमी गति से होते हैं, और इनमें किसी भी प्रकार की नवीनता का सृजन नहीं हो पाता है।

सकल राष्ट्रीय उत्पाद की माप में कठिनाइयां

किसी भी देश की राष्ट्रीय आय का गणना करना एक जटिल समस्या है जिसमें निम्नलिखित कठिनाइयां पाई जाती हैं।

1. राष्ट्र की परिभाषा - प्रथम कठिनाई 'राष्ट्र' की परिभाषा है। हर राष्ट्र की अपनी राजनीतिक सीमाएं होती हैं परन्तु राष्ट्रीय आय में राष्ट्र की सीमाओं से बाहर विदेशों में कमाई गई देशवासियों की आय भी सम्मिलित होती है। इस प्रकार राष्ट्रीय आय के दृष्टिकोण से 'राष्ट्र' की परिभाषा राजनैतिक सीमाओं को पार कर जाती है। इस समस्या को सुलझाना कठिन है।

2. कुछ सेवाएं - राष्ट्रीय आय सदैव मुद्रा में ही मापी जाती है परन्तु बहुत सी वस्तुएं और सेवाएं ऐसी होती हैं जिनका मुद्रा में मूल्यांकन करना मुश्किल होता है, जैसे किसी व्यक्ति द्वारा अपने शौक के लिए चित्र बनाना, मां का अपने बच्चों को पालना आदि। इसी प्रकार जब एक फर्म का मालिक अपनी महिला सेक्रेटरी से विवाह कर लेता है तो उसकी सेवाएं राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं होती जबकि विवाह से पहले वह राष्ट्रीय आय का भाग होती हैं। ऐसी सेवाएं राष्ट्रीय आय में सम्मिलित न होने से राष्ट्रीय आय कम हो जाती है।

3. दोहरी गणना - राष्ट्रीय आय की परिगणना करते समय सबसे बड़ी कठिनाई दोहरी गणना की होती है। इसमें एक वस्तु या सेवा को कई बार गिनने की आशंका बनी रहती है। यदि ऐसा हो तो राष्ट्रीय आय कई गुना बढ़ जाती है। इस कठिनाई से बचने के लिए केवल अन्तिम वस्तुओं और सेवाओं को ही लिया जाता है जो आसान काम नहीं है।

4. अवैध क्रियाएं - राष्ट्रीय आय में अवैध क्रियाओं से प्राप्त आय सम्मिलित नहीं की जाती जैसे, जुए या चोरी से बनाई गई शराब से आय। ऐसी सेवाओं में वस्तुओं का मूल्य होता है और वे उपभोक्ता की आवश्यकताओं को भी पूरा करती हैं परन्तु इनको राष्ट्रीय आय में शामिल न करने से राष्ट्रीय आय कम रह जाती है।

5. अन्तरण भुगतान – राष्ट्रीय आय में अन्तरण भुगतानों को सम्मिलित करने की कठिनाई उत्पन्न होती है। पेन्शन, बेरोजगारी भत्ता तथा सार्वजनिक ऋणों पर ब्याज व्यक्तियों को प्राप्त होते हैं पर इन्हें राष्ट्रीय आय में सम्मिलित किया जाए या न किया जाए, एक कठिन समस्या है। एक ओर तो ये प्राप्तियां व्यक्तिगत आय का भाग हैं, दूसरी ओर ये सरकारी व्यय हैं। यदि इन्हें दोनों ओर सम्मिलित किया जाए तो राष्ट्रीय आय में बहुत वृद्धि हो जाएगी। इस कठिनाई से बचने के लिए इन्हें राष्ट्रीय आय में से घटा दिया जाता है।

6. वास्तविक आय - मुद्रा के रूप में राष्ट्रीय आय की परिगणना वास्तविक आय का न्यून आगणन करती है। इसमें किसी वस्तु के उत्पादन की प्रक्रिया में किए गए अबकाश का त्याग शामिल नहीं होता। दो व्यक्तियों द्वारा अर्जित की गई आय समान हो सकती है परन्तु उसमें से यदि एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा अधिक घंटे काम करता है तो यह कहना कुछ ठीक ही होगा कि पहले की वास्तविक आय कम बताई गई है। इस प्रकार राष्ट्रीय आय वस्तु के उत्पादन की वास्तविक लागत को नहीं लेती।

मानव विकास

• 20वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में मानव विकास की अवधारणा विकसित हुई। वस्तुतः मानव विकास की अवधारणा समावेशी विकास की अवधारणा को परिपुष्ट करने का कार्य करती है।

प्रारंभिक अर्थशास्त्रियों द्वारा जीडीपी आधारित विकास की जो संकल्पना दी गई थी, उसकी कमियों को दूर करने के उद्देश्य से सम्पूर्ण मानव विकास की अवधारणा प्रस्तुत की गई।

• वर्ष 1990 में संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम (United Nations Development Programme) द्वारा मानव विकास सूचकांक (Human Development Index_HDI) को प्रस्तुत किया गया।

मानव विकास सूचकांक

मानव विकास सूचकांक की संकल्पना के विकास में पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब उल हक तथा भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।

मानव विकास सूचकांक का मूल्य 0 से 1 के मध्य होता है। जिस देश के सूचकांक का मान जितना अधिक होता है, वह देश मानवविकास सूचकांक की श्रेणी में उतना ही अधिक ऊपर होता है।

• मानव विकास सूचकांक की गणना में निम्नलिखित तीन आयामों (Dimensions) तथा सूचकों (Indicators) का प्रयोग किया जाता है।

1. दीर्घ एवं स्वस्थ जीवनः जन्म के समय जीवन प्रत्याशा।

2. ज्ञानः स्कूल के औसत वर्ष तथा स्कूल के प्रत्याशित वर्ष।

3. जीवन स्तरः प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय।

यूएनडीपी ऊपर बताए गए तीन मानकों के आधार पर अर्थव्यवस्थाओं को एक ही स्केल (यानी 0.000-1.000) के बीच उनके प्रदर्शन के आधार पर स्थान देता है। इन उपलब्धियों के आधार पर देशों को मुख्य तौर पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है जिसके लिए सूचकांक में अंकों की श्रेणियाँ बनी होती हैं:

1. उच्च मानव विकास वाले देश: सूचकांक में 0.800 से 1.000 अंक

2. मध्यम मानव विकास वाले देशः सूचकांक में 0.500 से 0.799 अंक

3. निम्न मानव विकास वाले देश: सूचकांक में 0.000 से 0.499 अंक

मानव विकास सूचकांक-2019 के अनुसार, 189 देशों की सूची में भारत 129वें स्थान पर है।

प्रति व्यक्ति आय एवं आर्थिक विकास

"प्रति व्यक्ति वास्तविक आय या उत्पादन में वृद्धि" के रूप में आर्थिक विकास की परिभाषा देने में अर्थशास्त्री एकमत हैं। बुर्कनन तथा एलिस के अनुसार, “विकास का अर्थ पूंजी निवेश के उपयोग द्वारा अल्पविकसित क्षेत्रों की वास्तविक आय सम्भाव्यताओं का विकास करने के लिए ऐसे परिवर्तन लाना और ऐसे उत्पादक स्रोतों का बढ़ाना है, जो प्रति व्यक्ति वास्तविक आय बढ़ाने की संभावना प्रकट करते हैं।" इन परिभाषाओं का उद्देश्य इस बात पर बल देना है कि आर्थिक विकास के लिए वास्तविक आय में वृद्धि की दर जनसंख्या में वृद्धि की दर से अधिक होनी चाहिए। परन्तु फिर भी कठिनाइयां रह जाती हैं।

यहां यह भी संभव है कि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के परिणामस्वरूप जन साधारण के वास्तविक जीवन स्तर में सुधार न हो। यह संभव है जब प्रति व्यक्ति वास्तविक आय बढ़ रही हो, तो प्रति व्यक्ति उपभोग की मात्रा कम होती जा रही हो। हो सकता है कि लोग बचत की दर बढ़ा रहे हों, या फिर सरकार स्वयं इस बढ़ी हुई आय को सैनिक अथवा अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर रही हो। वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि के बावजूद जनसाधारण को गरीबी का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि बढ़ी हुई आय बहुसंख्यक गरीबों के पास जाने के बजाए मुट्ठी भर अमीरों के हाथ में जा रही हो। इसके अतिरिक्त, इस प्रकार की परिभाषा उन प्रश्नों को गौण बना देती है जो समाज के ढांचे, उनकी जनसंख्या के आकार एवं बनावट, उसकी संस्थाओं तथा संस्कृति साधन स्वरूप और समाज के सदस्यों में उत्पादन के समान वितरण से सम्बन्ध रखते हैं। प्रति व्यक्ति आय आगणन की कठिनाइयां

अल्प विकसित देशों में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय के माप तथा उन्नत देशों की प्रति व्यक्ति आय से उनकी तुलना करने में भी बड़ी कठिनाइया उत्पन्न होती हैं। जिनके कारण नीचे दिए जा रहे हैं।

1. अमौद्रिक क्षेत्र- अल्पविकसित देशों में एक महत्वपूर्ण अमौद्रिक क्षेत्र होता है जिसके कारण राष्ट्रीय आय का हिसाब लगाना कठिन है। कृषि क्षेत्र में जो उत्पादन होता है, उसका बहुत-सा भाग या तो वस्तुओं में विनिमय कर लिया जाता है या फिर व्यक्तिगत उपभोग के लिए रख लिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय कम बताई जाती है।

2. व्यावसायिक विशिष्टीकरण का अभाव - ऐसे देशों में व्यावसायिक विशिष्टीकरण का अभाव होता है। जिससे वितरणात्मक हिस्सों के द्वारा राष्ट्रीय आय की गणना करना कठिन हो जाता है। उपज के अतिरिक्त किसान ऐसी अनेक वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जैसे अण्डे, दूध, वस्त्र आदि जिन्हें प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय के अनुमान में कभी शामिल नहीं किया जाता।

3. अशिक्षा- अल्प विकसित देशों में अधिकतर लोग अशिक्षित होते हैं और हिसाब-किताब नहीं रखते, और यदि हिसाब-किताब रखें भी तो अपनी सही आय बताने को तैयार नहीं होते। ऐसी स्थिति में मोटे तौर पर ही अनुमान लगाया जा सकता है जो कि दोषपूर्ण होता है।

4. गैर-बाजार लेन-देन- राष्ट्रीय आय के आगणन में केवल उन वस्तुओं और सेवाओं को सम्मिलित किया जाता है जिनका वाणिज्य में प्रयोग होता है। परन्तु अल्पविकसित देशों में गांवों में रहने वाले लोग प्राथमिक वस्तुओं से उपभोग-वस्तुओं का निर्माण करते हैं और बहुत से खर्चों से बच जाते हैं। वे अपनी झोपड़ियां, वस्त्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुएं स्वयं बना लेते हैं। इस प्रकार अल्पविकसित देशों में अपेक्षाकृत कम वस्तुओं का मार्केट के मार्ग से प्रयोग होता है और इसीलिए वे प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय के आगणन में भी शामिल नहीं होता है।

5. वास्तविक आय - मुद्रा के रूप में राष्ट्रीय आय की गणना वास्तविक आय का न्यून अनुमान करती है। इसमें किसी वस्तु के उत्पादन की वास्तविक लागत, प्रयत्न या उत्पादन की प्रक्रिया में किए गए अवकाश का त्याग शामिल नहीं होता। दो व्यक्तियों द्वारा अर्जित की गई आय समान हो सकती है परन्तु यदि उनमें एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा अधिक घंटे काम करता है, तो यह कहना कुछ ठीक नहीं होगा कि पहले की वास्तविक आय कम बताई गई है।

6. कीमत परिवर्तन कीमत स्तर में परिवर्तन के कारण जो परिवर्तन उत्पादन में होते हैं, उसका उचित माप राष्ट्रीय आय के आगणन में नहीं कर पाते। कीमत स्तर के परिवर्तन को मापने के लिए काम में लाए जाने वाले सूचकांक भी केवल मोटे तौर पर अंदाजे से बनाएmजाते हैं। फिर भिन्न-भिन्न देशों में कीमत स्तर भी भिन्न होते हैं। प्रत्येक देश में उपभोक्ताओं की इच्छाएं और अधिमान भी भिन्न होते हैं। इसीलिए विभिन्न देशों के प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय के आंकड़े प्रायः भ्रांतिजनक तथा अतुलनीय होते हैं।

7. भ्रमपूर्ण आंकड़े - अविश्वसनीय तथा भ्रमपूर्ण आंकड़ों के कारण अल्पविकसित देशों के प्रति व्यक्ति आय के हिसाब-किताब में उसके कम या अधिक बताए जाने की संभावना रहती है। इन सब सीमाओं के बावजूद, विभिन्न देशों के आर्थिक प्रगति के स्तर के लिए सबसे अधिक व्यापक रूप से किया जाने वाला माप प्रति व्यक्ति आय ही है। फिर भी, अल्पविकास सूचकों के रूप में केवल प्रति व्यक्ति आय आगणनों का कोई मूल्य नहीं है।

आर्थिक कल्याण एवं आर्थिक विकास

विभिन्न देशों में यह प्रवृत्ति भी होती है कि आर्थिक कल्याण के दृष्टिकोण से आर्थिक विकास की परिभाषा दी जाए। ऐसी प्रक्रिया को आर्थिक विकास माना जाए जिससे प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि होती है और उसके साथ-साथ असमानताओं का अंतर कम होता है तथा समस्त जनसाधारण के अधिमान संतुष्ट होते हैं। इसके अनुसार आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्तियों के वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग में वृद्धि होती है। “आर्थिक विकास" भौतिक समृद्धि में अनवरत दीर्घकालीन सुधार है। जो कि वस्तुओं और सेवाओं के बढ़ते हुए प्रवाह में प्रतिबिम्बित समझा जा सकता है।

इसकी सीमाएं : यह परिभाषा भी सीमाओं से मुक्त नहीं है। प्रथम, यह आवश्यक नहीं है कि वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि का अर्थ “आर्थिक कल्याण" में सुधार ही हो। ऐसा संभव है कि वास्तविक राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने से अमीर अधिक अमीर हो रहे हों या गरीब और अधिक गरीब। इस प्रकार केवल आर्थिक कल्याण में वृद्धि से ही आर्थिक विकास नहीं होता, जब कि राष्ट्रीय आय का वितरण न्यायपूर्ण न माना जाये। दूसरे, आर्थिक कल्याण को मापते समय कुल उत्पादन की संरचना का ध्यान रखना पड़ता है जिसके कारण प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है, और यह उत्पादन कैसे मूल्यांकित हो रहा है? बढ़ा हुआ कुल उत्पादन पूंजी पदार्थों से मिलकर बना हो सकता है और यह भी उपभोक्ता वस्तुओं के कम उत्पादन के कारण। तीसरे, वास्तविक कठिनाई इस उत्पादन के मूल्यांकन में होती है। उत्पादन तो मार्केट कीमतों पर मूल्यांकित होता है, जबकि आर्थिक कल्याण वास्तविक राष्ट्रीय उत्पादन या आय में वृद्धि से मापा जा सकता है। वास्तव में, आय के विभिन्न वितरण से कीमतें भिन्न होंगी और राष्ट्रीय उत्पादन का मूल्य तथा संरचना भी भिन्न होंगे। चौथे, कल्याण के दृष्टिकोण से हमें केवल यह नहीं देखना चाहिए कि क्या उत्पादित किया जाता है। बल्कि यह भी देखना चाहिए कि उसका उत्पादन कैसे होता है? वास्तविक राष्ट्रीय उत्पादन के बढ़ने से संभव है कि अर्थव्यवस्था में वास्तविक लागतों तथा पीड़ा और त्याग जैसी सामाजिक लागतों में वृद्धि हुई हो। उदाहरणार्थ, उत्पादन में वृद्धि अधिक घंटे तथा श्रम-शक्ति को कार्यकारी अवस्थाओं में गिरावट के कारण हुई हो। पांचवें, हम प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि को भी आर्थिक कल्याण में वृद्धि के बराबर नहीं मान सकते। विकास की इष्टतम दर निश्चित करने के लिए हमें आय-वितरण, उत्पादन की संरचना, रुचियों, वास्तविक लागतों तथा ऐसे अन्य सभी विशिष्ट प्रयत्नों के संबंध में मूल्य-निर्णय करने पड़ेंगे, जो कि वास्तविक आय में कुल वृद्धि से सम्बन्ध रखते हैं।" इसलिये मूल्य निर्णयों से बचने और सरलता के लिए अर्थशास्त्री प्रति व्यक्ति वास्तविक राष्ट्रीय आय को आर्थिक विकास का माप बनाकर प्रयोग करते हैं।

अंतिम, सबसे बड़ी कठिनाई व्यक्तियों के उपभोग को भार देने की है। वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग व्यक्तियों की रुचियों और अधिमानों पर निर्भर करता है। जो भिन्न-भिन्न होते हैं। इसीलिये व्यक्तियों का कल्याण सूचक बनाने में समान भार लेना सही नहीं है।

मूलभूत आवश्यकताएं एवं आर्थिक वृद्धि

आर्थिक विकास के माप के रूप में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय की कीमत से असंतुष्ट होकर, कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास को सामाजिक अथवा मूलभूत (आधारभूत) आवश्यकता सूचक के रूप में मापना प्रारम्भ किया है। जिसके अनेक कारण निम्नवत हैं :

1950 तथा 1960 के दशकों में GNP में वृद्धि एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को आर्थिक विकास का सूचक माना जाता रहा। 1960 के विकास दशक के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव द्वारा अल्पविकसित देशों के लिए GNP में 5 प्रतिशत की वृद्धि दर का लक्ष्य निश्चित किया। इस लक्ष्य दर को प्राप्त करने के लिए अर्थशास्त्रियों ने शहरीकरण के साथ तीव्र औद्योगिकरण का सुझाव दिया है। उनका यह मत था कि GNP की वृद्धि से प्राप्त लाभ अपने आप रोजगार और आय के सुअवसरों में वृद्धि के रूप में गरीबों तक धीरे-धीरे पहुंच जाएंगे। इस प्रकार, विकास के इस माप के अनुसार गरीबी, बेरोजगारी और आय असमानताओं की समस्याओं को गौण महत्त्व दिया गया।

रोस्टोव द्वारा प्रतिपादित विकास के इस एक रेखीय वृद्धि की अवस्थाओं के पथ को नर्से के कम बचतों, छोटी मार्केटों तथा जनसंख्या दबावों के कुचक्रों ने और शक्ति प्रदान की। यह समझा गया कि इन कुचक्रों को दूर करने के लिए प्राकृतिक शक्तियां मुक्त हो जाएंगी। जो अर्थव्यवस्था में ऊंची वृद्धि लाएंगी। इसके लिए रोडान ने "बड़ा धक्का", नर्से ने संतुलित विकास, हर्षमैन ने असंतुलित विकास, तथा लीबन्स्टीन ने क्रान्तिक न्यूनतम प्रयत्न सिद्धांत का सुझाव दिया। परन्तु अल्पविकसित देशों में विकास के लिए पूंजी, तकनीकी ज्ञान विदेशी विनिमय आदि के रूप में “लुप्त अंशों" को प्रदान करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहायता पर अधिक बल दिया गया। विदेशी सहायता के तर्क के पीछे “दोहरा अंतराल मॉडल" तथा आयात स्थानापन्नता द्वारा औद्योगिकीकरण था ताकि अल्पविकसित देश धीरे-धीरे विदेशी सहायता का परित्याग कर दें।

विकास की GNP प्रति व्यक्ति मापों से असंतुष्ट होकर, 1970 की दशाब्दी से आर्थिक विचारकों ने विकास प्रक्रिया की गुणवत्ता की ओर ध्यान देना प्रारम्भ किया है। जिसके अनुसार वे तीन महत्वपूर्ण बिन्दुओं रोजगार को बढ़ाने, गरीबी को दूर करने तथा आय और धन की असमानताओं को कम करने के लिए मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं की कूटनीति पर बल देते हैं। इसके अनुसार, जनसाधारण को स्वास्थ्य, शिक्षा, जल, खुराक, कपड़े, आवास, काम आदि के रूप में मूलभूत भौतिक आवश्यकताएं और साथ ही अभौतिक आवश्यकताएं प्रदान करना है। मुख्य उद्देश्य गरीबों को मूलभूत मानवीय आवश्यकताएं प्रदान करके उनकी उत्पादकता बढ़ाना और गरीबी दूर करना है। यह तर्क दिया जाता है कि मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं का प्रत्यक्ष प्रबंध करने से गरीबी पर थोड़े संसाधनों द्वारा और थोड़े समय में प्रभाव पड़ता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में मानव संसाधन विकास के उत्पादकता के उच्च स्तर प्राप्त होते हैं। ऐसा विशेष तौर से वहां होता है जहां ग्रामीण भूमिहीन अथवा शहरी गरीब पाए जाते हैं तथा जिनके पास दो हाथ और काम करने की इच्छा के सिवाय कोई भौतिक परिसंपत्तियाँ नहीं होती हैं। इस कूटनीति के अंतर्गत मूलभूत न्यूनतम आवश्यकताओं के अलावा, रोजगार के सुअवसरों, पिछड़े वर्गों के उत्थान तथा पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर बल देना और उचित कीमतों एवं दक्ष वितरण प्रणाली द्वारा आवश्यक वस्तुओं को गरीब वर्गों के लिए जुटाना है।

सामाजिक सूचक : अब हम सामाजिक-आर्थिक विकास के सूचकों का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि निम्नवत हैं :- अर्थशास्त्री सामाजिक सूचकों में तरह-तरह की मदों को शामिल कर लेते हैं। इनमें से कुछ आगतें हैं जैसे पौष्टिकता मापदण्ड या अस्पताल के बिस्तरों की संख्या या जनसंख्या के प्रतिव्यक्ति डॉक्टर, जबकि दूसरी कुछ मदें इन्हीं के अनुरूप निर्गतें हो सकती हैं, जैसे नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के अनुसार स्वास्थ्य में सुधार, रोग दर, आदि। सामाजिक सूचकों को प्रायः विकास के लिए मूल आवश्यकताओं के संदर्भ में लिया जाता है। मूल आवश्यकताएं, गरीबों की मूल मानवीय आवश्यकताओं को उपलब्ध करा कर गरीबी उन्मूलन पर केन्द्रित होती हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य, जल, स्वच्छता, तथा आवास जैसी प्रत्यक्ष सुविधाएं थोड़े से मौद्रिक संसाधनों तथा अल्पावधि में ही गरीबी पर प्रभाव डालती हैं। जबकि GNP प्रति व्यक्ति आय की कूटनीति उत्पादकता बढ़ाने तथा गरीबों की आय बढ़ाने के लिए दीर्घावधि में स्वतः ही कार्य करती है। मूल आवश्यकताओं की पूर्ति उच्च स्तर पर उत्पादकता तथा आय बढ़ाती है, जिन्हें शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं जैसे मानव विकास के साथ साधनों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

प्रो. हिवस और स्ट्रीटन मूलभूत आवश्यकताओं के लिए छः सामाजिक सूचकों पर विचार करते हैं :

सामाजिक सूचकों की विशेषता यह है कि वे लक्ष्यों से जुड़े और वे लक्ष्य हैं मानव विकास। आर्थिक विकास इन लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक साधन है। सामाजिक सूचकों से पता चलता है कि कैसे विभिन्न देश वैकल्पिक उपयोगों के बीच अपने GNP का आवंटन करते हैं। कुछ शिक्षा पर अधिक तथा अस्पतालों पर कम खर्च करना पसंद करते हैं। इसके साथ-साथ इनसे बहुत-सी मूल आवश्यकताओं की उपस्थिति, अनुपस्थिति अथवा कमी के बारे में जानकारी मिलती है।

उपर्युक्त सूचकों में प्रति व्यक्ति कैलोरी आपूर्ति को छोड़कर शेष सूचक निर्गत सूचक हैं। नि:सन्देह नवजात शिशुओं की मृत्युदर, स्वच्छता तथा साफ पेय जल सुविधाओं दोनों की सूचक हैं क्योंकि नवजात शिशु पानी से होने वाले रोगों का शीघ्र शिकार हो सकते हैं। नवजात शिशु मृत्युदर भोजन की पौष्टिकता से भी संबंधित है। इस प्रकार शिशुओं की मृत्युदर 6 में से 4 मूल आवश्यकताओं को मापती है।

कुछ सामाजिक सूचकों से संबंधित विकास का एक सामान्य सूचक बनाने में कुछ समस्याएं उत्पन्न होती हैं जो कि निम्नवत हैं :

प्रथम, ऐसे सूचक में शामिल किए जाने वाली मदों की संख्या और किस्मों के बारे में अर्थशास्त्रियों में एक मत नहीं है। उदाहरणार्थ, हेगन और संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक विकास के लिए अन्वेषण संस्था 11 से 18 मदों का प्रयोग करते हैं। जिनमें से बहुत कम समान हैं। दूसरी ओर डी. मौरिस तुलनात्मक अध्ययन के लिए विश्व के 23 विकसित और विकासशील देशों से संबंधित "जीवन का भौतिक गुणवत्ता सूचक" बनाने के लिए केवल तीन मदों अर्थात जीवन प्रत्याशा, शिशु मृत्युदर और साक्षरता दर को लेता है।

दूसरे, विभिन्न मदों को भार देने की समस्या उत्पन्न होती है जो देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ढांचे पर निर्भर करती है। यह व्यक्तिपरक बन जाती हैं। मौरिस तीनों सूचकों को समान भार प्रदान करता है जो विभिन्न देशों के तुलनात्मक विश्लेषण के लिए सूचक का महत्व कम कर देता है। यदि प्रत्येक देश अपने सामाजिक सूचकों की सूची का चुनाव करता है और उनको भार प्रदान करता है तो उनकी अन्तर्राष्ट्रीय तुलनाएं उतनी ही गलत होंगी जितने की GNP के आंकड़े होते हैं।

तीसरे, सामाजिक सूचक वर्तमान कल्याण से संबंधित होते हैं न कि भविष्य के कल्याण से।

चौथे, अधिकतर सूचक आगत हैं न कि निर्गत जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य आदि।

अन्तिम, उनमें मूल्य-निर्णय पाए जाते हैं। अतः मूल निर्णयों से बचने और सुगमता के लिए अर्थशास्त्री तथा यू.एन. के संगठन GNP एवं प्रतिव्यक्ति आय को आर्थिक विकास के माप के रूप में प्रयोग करते हैं।

अल्पविकसित तथा विकासशील अर्थव्यवस्था

अल्प विकास या अल्प विकसित देश को परिभाषित करना काफी कठिन है। प्रो. सिंगर का भी मत है कि 'एक अल्प विकसित देश 'जिराफ' की भांति है जिसका वर्णन करना कठिन है। लेकिन जब हम इसे देखते हैं तो समझ जाते हैं।' वैसे अल्प विकसित अर्थव्यवस्था के अनेक मापदण्ड प्रस्तुत किए गए हैं जैसे निर्धनता, अज्ञानता, निम्न प्रति व्यक्ति आय, राष्ट्रीय आय का असमान वितरण, जनसंख्या भूमि अनुपात, प्रशासनिक अयोग्यता, सामाजिक बाधाएं इत्यादि।

प्रो. डब्ल्यू. डब्ल्यू. सिंगर - का मत है कि अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाnको परिभाषित करने का कोई भी प्रयास, समय को बर्बाद करना है। फिर भी किसी एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए यह आवश्यक होगा कि कुछ प्रचलित परिभाषाओं का अध्ययन कर लिया जाए।

संयुक्त राष्ट्र संघ - की एक विज्ञप्ति के अनुसार, "अल्प विकसित देश वह है जिसकी प्रति व्यक्ति वास्तविक आय अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया तथा पश्चिम यूरोपीय देशों की प्रति व्यक्ति वास्तविक आय की तुलना में कम है।"

भारतीय योजना आयोग - के अनुसार “एक अल्प विकसित देश वह देश है जहां पर एक ओर अप्रयुक्त मानवीय शक्ति और दूसरी ओर अवशोषित प्राकृतिक साधनों का कम या अधिक मात्रा में सह-अस्तित्व का पाया जाना है।"

सामान्यतया एक अल्प विकसित देश वह है जहां जनसंख्या की वृद्धि की दर अपेक्षाकृत अधिक हो, पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक साधन उपलब्ध हों, परन्तु उनका पूर्णरूपेण विदोहन न हो पाने के कारण उत्पादकता व आय का स्तर नीचा हो। सरल शब्दों में, वह देश अल्प विकसित देश माना जाएगा जिसका आर्थिक विकास सम्भव तो हो, किन्तु अपूर्ण हो।

अल्पविकसित तथा विकासशील अर्थव्यवस्था की विशेषताएं

एक विकासशील या अल्पविकसित अर्थव्यवस्था वाले देश में कौन सी आधारभूत विशेषताएं पाई जाती हैं, इस सम्बन्ध में सर्वमान्य विशेषताएं बताना कठिन है। इसका कारण यह है कि भिन्न-भिन्न विकासशील या अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में भिन्न-भिन्न विशेषताएं पाई जाती हैं। मानर एवं बाल्डविन ने अपनी पुस्तक "Economic Development" में अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के छ: आधारभूत लक्षण बताए हैं :

1. प्राथमिक उत्पादन की प्रधानता,

2. जनसंख्या दबाव,

3. अल्पविकसित प्राकृतिक साधन,

4. जनसंख्या का आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा होना,

5. पूंजी का अभाव

6. विदेशी व्यापार की उन्मुखता।

हार्वे लिबिन्सटीन ने अल्प विकसित देशों की चार विशेषताएं बताई हैं।

1. आर्थिक, 2. जनसंख्या सम्बन्धी, 3. प्राविधिक तथा 4. सांस्कृतिक एवं राजनीतिक।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हमने एक अल्पविकसित अर्थव्यवस्था की विशेषताओं को छ: भागों में बाटा हैं 1, आर्थिक विशेषताएं, 2. जनसंख्या सम्बन्धी विशेषताएं, 3. तकनीकी विशेषताएं, 4. सामाजिक विशेषताएं, 5. राजनीतिक विशेषताएं एवं 6. अन्य विशेषताएं।

लैंगिक सशक्तिकरण माप (जीईएम)-लैंगिक सशक्तिकरण माप राजनैतिक भागीदारी (जिसमें महिलाओं को प्राप्त पार्लियामेंट में सीट के आधार पर) आर्थिक भागीदारी (जिसे प्रोफेशनल स्थिति पर महिलाओं के हिस्से के आधार पर) तथा आर्थिक संसाधनां पर अधिकार (जिसे आप अन्तराल के आधार पर) बल देता है।

I. आर्थिक विशेषताएं

1. कृषि की प्रधानता - अल्प विकसित देशों की सबसे प्रमुख विशेषता अधिकांश जनता का कृषि में लगे रहना है। यहां कृषि से अर्थ कृषि, बागवानी, जंगल कटाई, पशुपालन व मछली पालन आदि से है। भारत, इण्डोनेशिया, पाकिस्तान आदि देशों को अल्प विकसित माना जाता है, क्योंकि भारत की 51.2 प्रतिशत जनसंख्या, इण्डोनेशिया की 57 प्रतिशत जनसंख्या एवं पाकिस्तान की 56 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्यों में लगी है, जबकि विकसित देश फ्रांस, कनाडा, अमरीका एवं ब्रिटेन की कुल जनसंख्या का प्रतिशत बहुत कम है, जैसे फ्रांस की 5 प्रतिशत, कनाडा की 3 प्रतिशत, अमरीका की । प्रतिशत व ब्रिटेन की 2 प्रतिशत। यही कारण है कि अल्पविकसित देशों की राष्ट्रीय आय, निर्यात व्यापार व उद्योग कृषि पर आधारित होते हैं।

2. प्राकृतिक साधनों का अल्प उपयोग - अल्पविकसित देशों में प्राकृतिक साधनों के प्रचुर मात्रा में उपलब्ध न होने के बाद भी उनका उपयोग या तो होता ही नहीं है और यदि होता भी है तो बहुत ही कम मात्रा में। कभी-कभी तो अल्प विकसित देशों को इस बात का पता ही नहीं होता कि उनके देश में प्राकृतिक साधन उपलब्ध हैं।

3. प्रति व्यक्ति आय का निम्न स्तर - इन देशों में प्रति व्यक्ति आय का स्तर निम्न होता है। World Development Report, 2009 के अनुसार भारत की प्रति व्यक्ति आय 950 डॉलर या, जबकि भारत की तुलना में प्रति व्यक्ति आय अमेरिका में 46040 डॉलर, जापान में 37670 डॉलर तथा यू.के. में 42740 डॉलर था।

वर्तमान कीमतों पर शीर्ष पांच प्रतिव्यक्ति आय वाले राज्य।

केन्द्रशासित प्रदेश

राज्य                             आय रुपए मे 2016-17

1. गोवा                                327059

2. दिल्ली                              300793

3. सिक्किम                          257182

4. चण्डीगढ़                          236865

5. हरियाणा                          180174

    भारत                             103870

4. पूंजी निर्माण का निम्न स्तर - यहां पूंजी निर्माण का स्तर निम्न है। अल्प विकसित देशों में घरेलू निवेश की दर राष्ट्रीय आय की 5 से 10 प्रतिशत तक होती है, जबकि विकसित देशों में यह 20 से 25 प्रतिशत तक की होती है।

5. सम्पत्ति एवं आय वितरण में असमानता – अल्पविकसित देशों में राष्ट्रीय सम्पत्ति एवं आय का बहुत बड़ा भाग कुछ ही व्यक्तियों के अधिकार में होता है, जबकि जनसंख्या के बड़े भाग को सम्पत्ति एवं आय का छोटा-सा हिस्सा मिल पाता है।

6. औद्योगिक पिछड़ापन अल्पविकसित देश औद्योगिक विकास की दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं। इसका अर्थ यह है कि यहां आधारभूत उद्योगों का अभाव होता है। यहां कुछ उद्योग जो उपभोक्ता वस्तु या कृषि वस्तु बनाते हैं उनका ही विकास हो पाता है। औद्योगिक पिछड़ेपन की पुष्टि इस अनुमान से हो जाती है कि 74 प्रतिशत जनसंख्या वाले देश विश्व औद्योगिक उत्पादन में केवल 20 प्रतिशत का ही योगदान देते हैं शेष 80 प्रतिशत उत्पादन विकसित देशों में ही होता है।

7. अल्प रोजगार व बेरोजगारी - इन अल्पविकसित देशों में अल्प रोजगार के साथ साथ बेरोजगारी भी होती है। जिन लोगों को काम मिला हुआ होता भी है उनको भी पूरे समय के लिए काम नहीं मिलता है। इन देशों में कुछ लोग सदा ही बेरोजगार बने रहते हैं। उनके लिए समाज के पास कोई कार्य नहीं होता है। इसका मुख्य कारण औद्योगीकरण की कमी एवं पूंजी निवेश का अभाव है।

8. बैंकिंग सुविधाओं का अभाव - अल्पविकसित देशों में बैंकिंग सुविधाओं का अभाव रहता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो बैंकिंग सुविधाएं ही कम होती हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि अल्पविकसित देशों में यह प्रतिशत 60 तक होता है।

9. आर्थिक दुष्चक्र - अल्पविकसित देशों में आर्थिक दुष्चक्रों की प्रधानता रहती है। वहां पूंजी की कमी से उत्पादन कम होता है। इससे वास्तविक आय कम होती है। अतः वस्तुओं की मांग कम रहती है। इन सबका परिणाम यह होता है कि साधनों का उचित विकास नहीं हो पाता है इस प्रकार यह कुचक्र चलता रहता है और इससे अर्थव्यवस्था निरन्तर प्रभावित होती रहती है।

10. विदेशी व्यापार में अस्थिरता - अल्पविकसित देशों के कच्चे माल का निर्यात व पक्के माल का आयात किया जाता है। कच्चे माल की वस्तुओं के मूल्य अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में स्थिर नहीं रहते हैं। इससे विदेशी मुद्रा अर्जन में घटता-बढ़ता रहता है। जिससे देश की अर्थव्यवस्था भी स्थिर नहीं रहती है।

11. ऊंची जन्म व मृत्यु दरें - अल्पविकसित देशों में जन्म दर व मृत्यु दर अपेक्षाकृत ऊंची रहती है। एक अनुमान के अनुसार विकसित देशों में जन्म दर व मृत्यु दर क्रमश: 15 से 20 प्रति हजार व 9 से 10 प्रति हजार होती है, जबकि अल्पविकसित देशों में यह दरें क्रमशः 30 से 40 प्रति हजार व 15 से 30 प्रति हजार तक होती हैं। अल्पविकसित देशों में ऊंची जन्म दर के कारण हैं सामाजिक धारणा एवं विश्वास, पारिवारिक मान्यता, बाल विवाह, विवाह की अनिवार्यता, भाग्यवादिता, मनोरंजन सुविधाओं का अभाव. निम्न आय व निम्न जीवन स्तर, निरोधक सुविधाओं का अभाव। इसी प्रकार यहां ऊंची मृत्युदर के कारण हैं -अकाल व महामारी, लोक स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, स्त्री शिक्षा का अभाव, पौष्टिक आहार का अभाव आदि। भारत में वर्तमान में जन्म दर 23,। व मृत्यु दर 7.4 प्रति हजार है।

12. ग्रामीण जनसंख्या की अधिकता - अल्पविकसित देशों में अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है जिसका मुख्य व्यवसाय कृषि होता है। भारत की 65 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में व शेष शहरों में रहती है।

13. जनसंख्या का आधिक्य - अल्पविकसित देशों में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है, जबकि विकसित देशों में उतना नहीं होता है। साथ ही अल्पविकसित देशों में जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती है। अत: यहां जनसंख्या का आकार व घनत्व अधिक होता है।

14. आश्रितों की अधिकता - अल्पविकसित देशों में एक परिवार में आश्रितों की मात्रा अधिक होती है। इसका अर्थ यह है कि इन देशों में कमाने वाले कम होते हैं, जबकि खाने वाले अधिक। इसका कारण यह है कि यहां बच्चों व बूढ़ों की संख्या विकसित देशों की तुलना में अधिक होती है।

15. अकुशल जनशक्ति की अधिकता – अल्पविकसित देशों में अकुशल जनशक्ति की अधिकता रहती है। इसके कारण शिक्षा व प्रशिक्षण का अभाव, प्रति व्यक्ति निम्न आय, संयुक्त परिवार प्रणाली, रूढ़िवादिता, भाग्यवादिता, आत्मसन्तोष की भावना आदि है।

16. निम्न प्रत्याशित आयु - विकसित देशों की तुलना में अल्पविकसित देशों की प्रत्याशित आयु (Life expectancy) कम होती है। विकसित देशों में प्रत्याशित आयु औसतन 74 से 82 वर्ष होती है. जैसे जापान में 81 वर्ष स्विटजरलैण्ड में 80 वर्ष स्वीडन में 79 वर्ष, अमरीका में 77 वर्ष, ब्रिटेन में 77 वर्ष, फ्रांस में 79 वर्ष। अल्प विकसित देशों में यह 40 से 60 वर्ष ही है। भारत में प्रत्याशित आयु 63.5 वर्ष है।

II. तकनीकी विशेषताएं

1. पुरानी उत्पादन विधि - अल्पविकसित देशों में वही पुरानी उत्पादन विधि ही पाई जाती है जिसे उन्नत देश छोड़ चुके हैं। उदाहरण के लिए अल्पविकसित देशों में कृषि उत्पादन पुराने तरीके से ही होता है, जबकि उन्नत देश ट्रैक्टर व आधुनिक मशीनों का प्रयोग करते हैं। कृषि के क्षेत्र में ही नहीं, लगभग सभी क्षेत्रों में अल्पश्रविकसित देशों में पुरानी उत्पादन विधि ही पाई जाती है।

2. तकनीकी शिक्षा का अभाव - अल्पविकसित देशों में तकनीकी शिक्षा सम्बन्धी सुविधाओं का अभाव होता है तथा उनके द्वारा अनुसंधान व शोध कार्यों पर बहुत कम व्यय किया जाता है। इसके कारण अशिक्षा, श्रम की गतिशीलता का अभाव, परम्परावादी दृष्टिकोणश्रतथा औद्योगिकरण की कमी है।

3. अपर्याप्त संचार एवं आवागमन सुविधाएं - अल्पविकसित देशों में संचार एवं आवागमन के साधन अपर्याप्त होते हैं जिससे व्यापार सीमित मात्रा में ही होता है तथा श्रमिकों में गतिशीलता की कमी पायी जाती है।

4. कुशल श्रमिकों का अभाव - श्रमिकों की कुशलता बढ़ाने के लिए अल्पविकसित देशों में प्रशिक्षण सुविधाओं का अभाव रहता है। इससे देश में कुशल श्रमिक कम मात्रा में ही मिल पाते हैं।

III. सामाजिक विशेषताएं

1. साक्षरता की कमी - अल्पविकसित देशों में साक्षरता की कमी पाई जाती है। दूसरे शब्दों में, इन देशों में व्यापक निरक्षरता होती है। जिसका प्रतिशत 70 या इससे भी ऊपर होता है। विकसित देशों में निरक्षरता का प्रतिशत 5 से भी कम होता है। इस निरक्षरता के कारण ही यहां के निवासी रूढ़िवादी, अन्धविश्वासी एवं भाग्यवादी होते हैं जो नवीन परिवर्तनों का धर्म के नाम पर विरोध करते हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में साक्षरता की दर 64.3 प्रतिशत है।

2. जातिवाद इन देशों में वर्ग भेद व जातिवाद की भावना व्याप्त होती है। जिसके परिणामस्वरूप यहां के व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति भिन्न-भिन्न होती है तथा प्रत्येक जाति की अपनी परम्पराएंश्रएवं रीति-रिवाज होते हैं।

3. रीति-रिवाज की प्रधानता अल्पविकसित देशों में रीति-रिवाज की प्रधानता होती है जिनको प्रत्येक व्यक्ति आंखें मूंदकर मानता है और समय-समय पर उन्हीं रिवाजों के अनुसार कार्य करता है जिसका परिणाम यह होता है कि फिजूलखर्ची को बढ़ावा मिलता है जिससे निवासी निर्धन व ऋणग्रस्त बने रहते हैं।

4. स्त्रियों को निम्न स्थान अल्पविकसित देशों में स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं होती है, उनका समाज में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं होता है। उन्हें कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं होती है। उनमें साक्षरता भी कम होती है। वे अपना पेट भरने के लिए पुरुषों पर निर्भर रहती हैं।

IV. राजनीतिक विशेषताएं

1. अधिकारों के प्रति ज्ञान न होना अल्पविकसित देशों में जनता अपने अधिकारों के प्रति ज्ञानवान नहीं होती है। अत: उसमें अधिकारों के प्रति जागरूकता नहीं पाई जाती है। इसका कारण यह है कि यहां के लोग अपनी दरिद्रता को ईश्वरीय देन मानते हैं।

2. दुर्बल राष्ट्र - अल्पविकसित देश विकसित देशों के मुकाबले दुर्बल होते हैं और ऐसे देशों पर सदा ही विदेशी राष्ट्रों का आधिपत्य किसी न किसी रूप में इन पर बना रहता है।

3. आधुनिक सेना का अभाव ऐसे देशों के पास आधुनिक अस्त्रों से लैस सेना का अभाव होता है।

4. प्रशासनिक अकुशलता इन राष्ट्रों में प्रशासनिक कुशलता एवं ईमानदारी का अभाव होता है। राजनीतिक नेता भी इस सम्बन्ध में कोई अच्छा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते हैं। अतः यहांकालाबाजारी, भ्रष्टाचार व बेईमानी विस्तृत रूप में पाई जाती है।

V. अन्य विशेषताएं

1. दोषपूर्ण वित्तीय संगठन - अल्पविकसित देशों में वित्तीय संगठन दोषपूर्ण होता है। इन देशों में परोक्ष कर अधिक लगाए जाते हैं। मुद्रा बाजार असंगठित होता है। बैंकिंग व्यवस्था प्रभावशाली नहीं होती है। सरकारी आय के साधन भी सीमित होते हैं।

2. स्थिर व्यावसायिक ढांचा इन देशों में व्यावसायिक ढांचा स्थिर रहता है। इसका अर्थ यह है कि इन देशों में व्यावसायिक ढांचा एक जैसा रहता है, उनमें परिवर्तन नहीं होता है।

विकसित तथा अल्पविकसित देश में अंतर

डॉ. स्टीफैन ने इस दृष्टि से एक अल्प विकसित अर्थव्यवस्था को 'अनार्थिक संस्कृति' का नाम दिया है। उनका मत है कि ‘परम्परागत सामाजिक मनोवृत्ति मानवी साधनों के पूर्ण उपयोग को कुंठित करती है जिसके फलस्वरूप एक रूढ़िवादी मानव समाज भौतिक पर्यावरण में बदलाव लाने और उपभोग में अतिरिक्त वृद्धि के प्रति उदासीन हो जाता है।'

यद्यपि उपरोक्त विवरण से विकसित और अल्प विकसित या विकासशील अर्थव्यवस्था में अंतर स्वतः स्पष्ट तथा विद्यार्थियों की सुविधा हेतु हमने विभिन्न विकास अंगों के रूप में इन दोनों प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं में अंतर का एक संक्षिप्त-सार प्रस्तुत किया है।

आर्थिक विकास के आधुनिक संकेतक

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (United Nations Development Programme UNDP) संयुक्त राष्ट्र का वैश्विक विकास नेटवर्क है जो सकारात्मक परिवर्तनों पर बल देते हुए विभिन्न देशों को ज्ञान, अनुभव तथा संसाधनों के सेतु उपलब्ध कराता है, जिससे जीवन को बेहतर बनाने में लोगों की सहायता की जा सके।

यूएनडीपी की स्थापना 1965 ई. में हुई थी। वर्तमान में ब्राजील-जर्मनी मूल के अचीम स्टेनर (Achim Steiner) यूएनडीपी के वर्तमान अध्यक्ष हैं, इस पद पर इनकी नियुक्ति 19 जून, 2017 को हुई। इनका कार्यकाल 4 वर्ष है; जबकि न्यूजीलैंड की हेलेन क्लार्क प्रथम महिला हैं, जो इस पद पर आसीन हुई। यूनएनडीपी द्वारा वर्ष 1990 से प्रतिवर्ष मानव विकास रिपोर्ट (Human Development Report) जारी की जाती है। गत वर्षों में इसके मानक में विस्तार के साथ-साथ इसे और परिष्कृत बनाया गया है।

यूएनडीपी ने मानव विकास रिपोर्ट जारी किए जाने की 20वीं वर्षगांठ के अवसर पर बहुआयामी निर्धनता सूचकांक (Multi-dimensional Poverty Index-MPI) की पद्धति को विकसित किया था। इस पद्धति में गरीबी के तीन मानकों स्वास्थ्य, शिक्षा तथा जीवन स्तर के अंतर्गत 10 संकेतकों को शामिल किया गया है। MPI को पहली बार

वर्ष 2010 की मानव विकास रिपोर्ट में शामिल किया गया है। वर्ष 2010 में साक्षरता और आय के संकेतकों को नया रूप दिया गया है जिसके अंतर्गत सकल नामांकन दर एवं वयस्क साक्षरता दर को क्रमशः स्कूल की अवधि के अनुमानित वर्ष (Expected Years of Schooling) एवं स्कूलावधि के औसत वर्ष (Mean Year of Schooling) से प्रतिस्थापित किया गया है और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का स्थान सकल राष्ट्रीय आय (GNI) ने लिया है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय आय प्रवाहों को भी शामिल किया जाता है।

• HDR-2010 में तीन नए मापक आयाम भी प्रस्तुत किए गए हैं-

1. बहुआयामी निर्धनता सूचकांक (The Multi-dimensional Poverty Index)

2. लिंग असमानता सूचकांक (The Gender Inequality Index)

3. असमानता समायोजित मानव विकास सूचकांक (The Inequality Adjusted Human Development Index)

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