JPSC_Public_Finance(लोक वित्त)

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लोक वित्त का अर्थ

लोक वित्त अथवा राजस्व अर्थशास्त्र की वह शाखा है जो सरकार के आय-व्यय का अध्ययन करती है। राजस्व को लोक वित्त के पर्यायवाची शब्द के रूप में लिया जाता है। राजस्व, संस्कृत भाषा का शब्द है जो दो अक्षरों-'राजन + स्व' से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है।-'राजा का धन'। राजनैतिक दृष्टि से राजा को समाज एवं क्षेत्र विशेष को प्रतिनिधित्व करने वाला मुखिया माना जाता है। इस तरह सरल शब्दों में राजस्व का अर्थ 'राजा के धन' या राजनैतिक दृष्टिकोण से 'मुखिया के धन' से होता है जिसके अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि राजाधन को कहाँ से तथा किस प्रकार प्राप्त करता है तथा उस धन को किस प्रकार व्यय करता है।

अंग्रेजी में व्यक्त किया गया 'Public Finance' भी दो शब्दों Public और Finance से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है 'जनता का वित्त' अथवा 'सार्वजनिक वित्त'। परन्तु हम लोक वित्त अथवा राजस्व के अन्तर्गत जनता के वित्त का अध्ययन नहीं करते बल्कि जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था 'राज्य' अथवा सरकार की वित्तीय व्यवस्थाओं का अध्ययन करते हैं।

लोक वित्त को विभिन्न देशों की भाषाओं में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है यथा, जर्मनी में इसे 'Finanzwissenschaft' है जिसका अर्थ है वित्त का विज्ञान, फ्रांस में इसके लिए 'Science des finances' शब्द का प्रयोग किया जाता है। तथा इटली में इसे ने नाम से जाना जाता है। इन शब्दों को सार्वजनिक आया एवं व्यय के प्रबंध के रूप में प्रयोग किया जाता है।

लोक वित्त की परिभाषाएँ

विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने लोक वित्त को भिन्न भिन्न प्रकार से परिभाषित किया है।

डॉ डाल्टन (Dalton) के अनुसार, "लोक वित्त उन विषयों में से एक है जो अर्थशास्त्र एवं राजनीति शास्त्र की सीमा रेखा पर स्थित है। इसका सम्बन्ध लोकसत्ताओं के आय-व्यय तथा उनके पारस्परिक समायोजन और समन्वय से है।

प्रो.सी.एफ. बैस्टेल (Bastable) के अनुसार, "लोक वित्त राज्य की लोकसत्ताओं के आय-व्यय, उनके पारस्परिक सम्बन्ध, वित्तीय प्रशासन एवं नियंत्रण का अध्ययन करता है।"

प्रो, फिण्डले शिराज (Findlay shirras) के अनुसार, "लोक वित्त के अंतर्गत लोक सत्ताओं के कोषों में वृद्धि एवं व्यय से संबंधित सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है।"

उपयुक्त परिभाषाओं को अधिक विस्तृत इसलिए कहा जाता है क्योंकि लोकसत्ताओं और उनकी सभी प्रकार की आय एवं व्यय को चाहे वह मौद्रिक हो अथवा अमौद्रिक, सबको लोकवित्त के अध्ययन क्षेत्र मेंसम्मिलित कर लिया गया है।

दोषः- इन परिभाषाओं के कुछ प्रमुख दोष इस प्रकार है-

1. उपर्युक्त परिभाषाओं में प्रयुक्त शब्द लोक सत्ताओं पर कुछ अर्थशास्त्रियों ने आपत्ति प्रकट की है। उनका कहना है कि यह आवश्यक नहीं है कि सभी लोक सत्ताएँ राज्य की वैधानिक अंग हों। लोक सत्ताओं के अंतर्गत यदि सार्वजनिक कम्पनियाँ तथा शिक्षण संस्थाएँ आदि भी सम्मिलित कर ली जाती हैं तो लोक वित्त का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत हो जाएगा। वास्तविकता यह है कि लोक वित्त में हम केवल राज्य की वित्तीय क्रियाओं का अध्ययन करते हैं।

2. इन परिभाषाओं में लोक सत्ताओं को सभी प्रकार की आय-मौद्रिक और अमौद्रिक को सम्मिलित कर लिया गया है जबकि विषय के क्षेत्र को निश्चितता प्रदान करने के लिए लोक वित्त के अंतर्गत केवल मुद्रा एवं साख सम्बंधी आय को ही सम्मिलित किया जाना चाहिए।

उपर्युक्त दोषों के बाद भी यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि विभिन्न मौद्रिक एवं आमौद्रिक साधनों के बीच भेद करना सरल नहीं है। राज्य अपने कार्य संचालन के लिए सभी तरह के साधनों का प्रयोग करता है। इस तरह, मुद्रा के महत्व में वृद्धि के साथ वित्त का क्षेत्र भी विस्तृत हो गया है। ऐसी स्थिति में इस तरह की आपत्ति अनुपयुक्त है और उक्त परिभाषाएँ औचित्यपूर्ण है।

लोक वित्त की विषय-वस्तु एवं क्षेत्र

लोक वित्त की विषय वस्तु की जानकारी के लिए यह याद रखना होगा कि लोक वित्त के विभिन्न पहलुओं की विवेचना का इतिहास काफी पुराना है। एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक 'Wealth of Nations' (1776) के खण्ड 5 (Book V) में लोक वित्त के विभिन्न अंगों का विश्लेषण किया है। इस खण्ड में तीन अध्याय है जो क्रमशः सरकार के व्यय, सरकार के राजस्व तथा लोक ऋण की विवेचना करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि लोक वित्त को क्षेत्र तीन विषय-वस्तु तक सीमित है, यथा लोक व्यय, लोक राजस्व तथा लोक ऋण (Public Expenditure, Public Revenue and Public Debt)

रिकार्डो की पुस्तक का नाम था 'The Principles of Political Economy and Taxation' (1819), जिसमें दस अध्याय करारोपण की विभिन्न समस्याओं पर लिखे गए। लोक व्यय पर कोई पृथक् अध्याय नहीं है। लोक ऋण की विस्तृत विवेचना उनके पृथक् प्रकाशन Essay on the Funding System में मिलती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि रिकार्डों ने केवल कर तथा लोक ऋण को ही लोक वित्त के अध्ययन की प्रमुख विषय-वस्तु माना।

उपरोक्त विवरण के आधार पर लोक वित्त के अध्ययन क्रम को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है।

1. सार्वजनिक व्यय

2. सार्वजनिक आय

3. सार्वजनिक ऋण

4. वित्तीय प्रशासन

5. राजकोषीय या वित्तीय-नीति

1. सार्वजनिक (या लोक) व्यय (Public Expenditure) :- लोक वित्त के इस अंग के अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सार्वजनिक व्यय किन किन मदों पर करना आवश्यक है? व्यय का स्वरूप तथा परिमाण क्या हों? व्यय करते समय किन किन

नियमों एवं सिद्धान्तों का पालन किया जाए? इन व्ययों का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है तो इससे संबंधित कठिनाईयाँ क्या है? तथा उन्हें किस प्रकार दूर किया जा सकता है। राजकीय अथवा सार्वजनिक व्यय का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जन कल्याण के सभी का सार्वजनिक व्यय पर ही निर्भर करते हैं। सार्वजनिक व्यय की मदों तथा उन पर व्यय की जाने वाली धनराशि जिसके आधार पर उस देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक नीतियों तथा स्थितियों की समीक्षा की जा सकती है।

2. सार्वजनिक (या लोक) आय (Public Revenue) :- इस अंग के अंतर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सरकार अपनी आय किन-किन स्रोतों से प्राप्त करती है। इसमें आय के विभिन्न स्रोतों का विश्लेषण वर्गीकरण, साधनों की गतिशीलता तथा उनके सापेक्षिक महत्व एवं सिद्धान्त का अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त आय के इन स्रोतों का देश के उपभोग, उत्पादन, वितरण, बचत तथा विनियोग पर क्या प्रभाव पड़ा है, का भी अध्ययन किया जाता है।

3. सार्वजनिक ऋण (Public Debt) :- इस अंग के अंतर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सरकारी ऋण क्यों और किस उद्देश्य हेतु लिए जाते हैं। राज्य किन सिद्धान्तों के आधार पर ऋण प्राप्त करता है? तथा इन ऋणों का भुगतान किस प्रकार किया जाता है। ऋणों के क्या प्रभाव पड़ते हैं? सार्वजनिक ऋणों से सम्बन्धित विभिन्न समस्याएँ क्या है? अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन ऋणों का सापेक्षित महत्व क्या है? इत्यादि।

4. वित्तीय प्रशासन (Financial Administration) :- इस विभाग के अंतर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि सरकार वित्तीय क्रियाओं का प्रबंध किस प्रकार करती है? इसके अन्तर्गत विशेष रूप से यह अध्ययन किया जाता है। कि बजट किस प्रकार बनाया जाता है, बजट बनाने के क्या उद्देश्य होते हैं, घाटे के बजट तथा आधिक्य के बजट तथा आधिक्य के बजट का क्या महत्व है, इसके अतिरिक्त लेखों का अंकेक्षण करना भी इसके अन्तर्गत आता है।

वित्तीय प्रशासन लोक वित्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाग है। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् इसका महत्व काफी बढ़ गया है। प्रो. बैस्टेबल लोक वित्त के इस भाग के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखते है कि 'लोक वित्त' की कोई पुस्तक तब तक पूर्ण नहीं कही जा सकती जब तक कि वह वित्तीय प्रशासन और बजट की समस्याओं का अध्ययन नहीं करती।

5. राजकोषीय या वित्तीय नीति (Fiscal Policy) :- लोक वित्त के एक भाग के रूप में राजकोषीय अथवा वित्तीय नीति के महत्व को आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने स्वीकार किया है। स्थिरता के साथ आर्थिक विकास, को गति प्रदान करने के लिए आज वित्तीय नीति का सहारा लिया जाता है। वित्तीय नीति के द्वारा देश में उत्पादन क्रियाओं को नियमित करके, राष्ट्रीय आय के वितरण को न्यायपूर्ण बनाकर तथा कीमतों में स्थिरता लेकर आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

इस तरह, नियोजित आर्थिक विकास हेतु राजकोषीय नीति का प्रयोग एवं अध्ययन लोक वित्त की विषय वस्तु का एक प्रमुख अंग है।

लोक वित्त की प्रकृति

लोक वित्त की प्रकृति के विवेचन हेतु यह जानने का प्रयास किया जाता है कि लोक वित्त विज्ञान है अथवा कला?

विज्ञान ज्ञान का वह शास्त्र है जिसमें किसी विषय का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन निरीक्षण, प्रयोग एवं विश्लेषण पर आधारित होता है। इस तरह के अध्ययन के आधार पर जो नियम बनाए जाते हैं या निष्कर्ष निकाले जाते हैं, उनका स्वभाव वैज्ञानिक होता है। इस आधार पर लोक वित्त को विज्ञान कहना अनुचित नहीं होगा। परन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि लोक वित्त एक स्वतंत्र विज्ञान नहीं है बल्कि एक आश्रित विज्ञान है क्योंकि इसका अर्थशास्त्र तथा राजनीति शास्त्र से घनिष्ट सम्बन्ध है और यह उन पर आश्रित है।

विज्ञान भी दो प्रकार के होते है-प्राकृतिक विज्ञान (Positive Science) तथा आदर्श विज्ञान (Normative Science) प्राकृतिक विज्ञान में हम वास्तविक एवं वस्तु स्थिति का अध्ययन करते हैं। वह क्या है? का उत्तर देता है परन्तु क्या होना चाहिए? से इसका सम्बन्ध नहीं है। वास्तविक विज्ञान उस दीप स्तंभ की तरह है जो जहाज को रोशनी दिखाता है और इंगित करता हैं कि यहाँ चट्टान है परन्तु यह नहीं बताता कि जहाज हमारा ध्यान आकर्षित करता है। इस तरह, आदर्श विज्ञान ज्ञान का वह पुंज होता है जिसका सम्बन्ध आदर्शों को स्थापित करना होता है। इस दृष्टि से दोनों विज्ञानों में 'वस्तु स्थिति' तथा 'आदर्श' का अंतर है।

लोक वित्त के अंतर्गत तथ्यों का अध्ययन दोनों दृष्टिकोणों से किया जाता है। कला ज्ञान का व्यावहारिक स्वरूप है। किसी बात का ज्ञान तो विज्ञान है और उस ज्ञान को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने के लिए जब नियम बनाए जाते हैं तो उसे कला कहते हैं। इस तरह किसी कार्य को रोकने के लिए व्यावहारिक नियमों को बताना ही कला है। इस दृष्टि से लोक वित्त कला भी है। यह कला का रूप उस समय धारण कर लेता है जब किसी देश की सरकार विविध स्रोतों से प्राप्त अपनी आय को इस प्रकार व्यय करने का निश्चय करती है ताकि सामाजिक कल्याण अधिकतम हो सकें। सामाजिक कल्याण में वृद्धि के लिए सरकार का यह भी दायित्व हो जाता है कि राजकोषीय नीति का इस तरह प्रयोग करें ताकि समाज में धन एवं आय के वितरण की समाप्त किया जा सके।

इस तरह निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि लोक वित्त विज्ञान तथा कला दोनों है। जब हम सार्वजनिक आय एवं व्यय के सिद्धान्तों एवं नियमों का अध्ययन करते हैं तो यह लोक वित्त का वैज्ञानिक पहलू होता है और जब इन सिद्धान्तों एवं नीतियों का प्रयोग सरकार की वित्तीय समस्याओं को हल करने में किया जाता है तो वहीं लोक वित्त का कलात्मक पहलू हो जाता है।

लोक वित्त का महत्व

प्राचीन काल में राज्य के कार्य सीमित थे, अतः लोक वित्त का महत्व भी उसी के अनुरूप कम था। लोक वित्त का महत्व राज्यों की आर्थिक क्रियाओं से सम्बद्ध होता है। प्रारम्भ में सरकार के कार्य केवल बाह्मा आक्रमण से सुरक्षा तथा न्याय तक ही सीमित थे, फलस्वरूप सरकार का कोष भी सीमित ही रखा जाता था। क्लासिकल अर्थशास्त्री भी अहस्तक्षेप नीति के समर्थक (Laissez-faire) थं और चाहते थे कि आर्थिक क्रियाओं के स्वतः संचालन में सरकार को किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए इस तरह के सरकार के अल्प योगदान पर विश्वास करते थे। युग बदला, परिस्थितियाँ बदली, राज्य के कार्यों एवं उनके योगदान में परिवर्तन हुए तथा राज्य के अहस्तक्षेप नीति के भयंकर दोष सामने आने लगे। राज्य के कार्यों में वृद्धि के साथ ही साथ लोक वित्त का क्षेत्र एवं महत्व भी बढ़ता जा रहा है। अब राज्य केवल देश की रक्षा एवं नागरिकों की सुरक्षा ही नहीं करता वरन् कल्याणकारी राज्य के रूप में वह देश के लोगों की बीमारी, गरीबी, अशिक्षा को दूर करने के साथ साथ नागरिको के जीवन के प्रत्येक पहलू पर अपना नियंत्रण रखता है स्थिति यह है कि आज राज्य मानव के समस्त आर्थिक क्षेत्रों-उत्पादन, उपयोग, विनिमय तथा वितरण में प्रवेश कर चुका है। कीन्स के 'सामान्य सिद्धान्त' के प्रकाशन के बाद देश की आर्थिक क्रियाओं में राज्य के हस्तक्षेप और लोक वित्त के महत्व में क्रांतिकारी परिर्वतन आया।

कीन्स ने प्रतिपादित किया कि देश में आर्थिक स्थिरता तथा रोजगार में वृद्धि राज्य के हस्तक्षेप द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। सरकार राजकोषीय एवं मौद्रिक नीतिक का सहारा लेकर अर्थव्यवस्था को वांछित दिशा में ले जा सकती है। आज विकसित देश आर्थिक स्थायित्व के लिए तथा विकासशील देश स्थिरता के साथ तीव्र आर्थिक विकास के लिए प्रयत्नशील हैं। परिणामस्वरूप इन देशों में राज्य एवं लोकवित्त का महत्व अपेक्षाकृत बढ़ता जा रहा है। सरकार अपनी राजकोषीय नीति के द्वारा स्थिरता के साथ विकास तथा राष्ट्रीय आय के न्यायोचित वितरण आदि उद्देश्यों को सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकती है। राज्य आज आर्थिक विकास को बढ़ावा देने, बाह्य आक्रमण से सुरक्षा तथा आंतरिक शन्ति बनाए रखने, सामाजिक सुरक्षा तथा जनकल्याणकारी कार्यों के कार्यान्वयन करने, सामाजिक बुराइयों को दूर करने, शिशु उद्योगों को संरक्षण प्रदान कर विदेशी प्रतियोगिता से बचाने के लिए, आर्थिक विषमता को समाप्त करने के लिए, दुर्लभ साधनों के सर्वोत्तम ढंग से आवंटन के लिए, राष्ट्रीय उपक्रमों का विकास करने तथा बेरोजगारी दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये महत्वपूर्ण कार्य सरकार राजकोषीय नीति के द्वारा सुगमतापूर्वक कर सकती है। कोई भी राज्य कुशलतापूर्वक अपने उक्त कार्यों का सम्पादन तब तक नहीं कर सकती जब तक कि उसके पास सुसंगठित लोक वित्त नहीं होगा। इस तरह, राज्य के कार्यों एवं महत्व में वृद्धि होने से लोक वित्त के महत्व में अधिक वृद्धि हो चुकी है।

लोक वित्त की सीमाएँ :- लोक वित्त से सम्बन्धित नीतियाँ राष्ट्रीय आय, उत्पादन एवं रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने एवं अवांछित प्रभावों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। और इस तरह देश के आर्थिक जीवन को प्रभावित करने में भारी योगदान प्रदान करती है। देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद लोक वित्त की नीतियों की अपने कुछ सीमाएँ भी है यथा- (i) कर प्रणाली में मनचाहा परिवर्तन करना सुगम नहीं होता। सामान्यतया लोग नए करों का विरोध करते हैं। (ii) कभी-कभी सरकारी व्यय में वृद्धि से निजी निवेश में गिरावट आने लगती है। सार्वजनिक क्षेत्र के विकास से निजी क्षेत्र का संकुचन होने लगता है। (iii) सार्वजनिक निर्माण कार्यक्रम तभी सफल हो सकते हैं जब उन्हें उचित समय पर क्रियान्वित किया जाए परन्तु इस उचित समय अर्थात् मंदी का पुर्वानुमान लगाना कठिन होता है। (iv) सार्वजनिक निर्माण कार्यों को तुरंत लागू करना सदैव संभव नहीं हो पाता। सरकारी मशीनरी अपने ढंग से कार्य करती है, अतः निर्माण कार्यों को प्रारम्भ करने में कुछ न कुछ देरी तो हो ही जाती है।

इस तरह अकेली लोक वित्तीय नीति अर्थव्यवस्था को स्थिरता के साथ विकास के पथ पर तेजी से ले जाने में पूर्णतया समर्थ नहीं है। अतः सरकार मंदी एवं बेरोजगारी का प्रभावपूर्ण ढंग से सामना करने तथा स्थिरता के तीव्र आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजकोषीय नीति के साथ-साथ मौद्रिक नीति का भी सहारा लेती है। समन्वित मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति के क्रियान्वयन से ही अर्थव्यवस्था में वाछित लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं।

लोक-वित्त एवं निजी-वित्त में भेद

लोक वित्त तथा निजी वित्त में सामान्यतया ऊपरी तौर पर कोई विशेष भिन्नता दृष्टिगोचर नहीं होती क्योंकि दोनों का उद्देश्य आय तथा व्यय के बीच सामंजस्य अथवा संतुलन स्थापित करना होता है। दोनों की समस्याएँ एक सी है तथा दोनों का उद्देश्य अपनी आय तथा व्यय से अधिकतम संतोष प्राप्त करना होता है। निजी व्यय इसलिए होता है ताकि अधिकतम संतुष्टि' की प्राप्ति हो सके और सार्वजनिक व्यय इसलिए किया जाता है ताकि उससे 'अधिकतम् सामाजिक लाभ' उपलब्ध हो सके। इसलिए अतिरिक्त देश की आर्थिक स्थिति में किसी भी प्रमुख परिवर्तन का प्रभाव व्यक्ति तथा सरकार दोनों की वित्तीय स्थिति पर पड़ता है। फिर भी लोक वित्त निजी वित्त की प्रकृति, उद्देश्य, सिद्धान्त व्यवस्था तथा प्रशासन आदि में आधारभूत एवं मौलिक भेद हैं जिनकी क्रमबद्ध विवेचना निम्न है।

1. आय तथा व्यय के समायोजन में भेद :- सामान्यतया व्यक्ति अपनी आय के अनुसार व्यय करता है। वह पहले आय को देखता है फिर उसी अनुसार अपने व्यय को निर्धारित करता है। इसके विपरीत, सरकार पहले अपना व्यय निश्चित कर लेती है फिर उस व्यय के अनुसार आय के साधन जुटाने की व्यवस्था करती है। परन्तु दोनों की वित्त व्यवस्थाएँ अनेक व्यावहारिक कठिनाईयों के कारण सदैव ही उपरोक्त सिद्धान्तों के अनुसार नहीं चल पाती है। कभी-कभी व्यक्ति को कुछ विशेष अवसरों पर अपनी आय के अधिक व्यय करना पड़ता है। जैसे-विवाह, त्यौहारों एवं अन्य सामाजिक उत्सवों के अवसर पर व्यक्ति का व्यय बढ़ जाने पर वह अतिरिक्त कार्य करके, आराम का त्याग कर, कठिन परिश्रम करके अपनी आय को बढ़ाने के लिए प्रयास करता है। इसी तरह कभी-कभी सरकारें भी अपनी आय के अनुसार ही व्यय को समायोजित करती हैं। इसके अतिरिक्त सदैव यह आवश्यकता नहीं है कि सरकार अपने व्यय के अनुरूप आय को प्राप्त करने में सफल ही हो जाए। कभी-कभी सरकार को अपनी खर्चों में कटौती भी करनी पड़ती है। इस संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो. फिण्डले शिराज कहते हैं कि निजी वित्त तथा लोक वित्त में अंतर केवल मात्रा का है प्रकृति का नहीं।

2. उद्देश्यों में भिन्नता :-

(क) व्यक्ति सदैव अपने हित की भावना से प्रेरित होकर कार्य करता है जबकि सरकार के कार्यों का उद्देश्य सामाजिक कल्याण को अधिकतम करना होता है।

(ख) व्यक्ति व्यय करते समय प्राय: सम-सीमांत उपयोगिता नियम को पालन करने का प्रयास करता है ताकि वह अपनी निश्चित आय से अधिकतम संतुष्टि प्राप्त कर सकें। परन्तु सरकार के लिए ऐसा पाना संभव नहीं हो पाता क्योंकि सरकार को अधिकांशतः अपना व्यय राजनीतिक आधार पर करना पड़ता है भले ही उससे मिलने वाली उपयोगिता कितनी ही कम क्यों न हो। इस तरह, सरकार के सामने व्यय के चुनाव की स्वतंत्रता बहुत सीमित होती है। जबकि व्यक्ति अपना व्यय अपनी इच्छा एवं अभिरूचि के अनुरूप निश्चित कर सकता है।

(ग) सामान्यता व्यक्ति अपनी वर्तमान एवं तत्कालीन आवश्यकताओं को संतुष्ट करने का प्रयास करता है और उसी के अनुरूप व्यय करता है जबकि सरकार वर्तमान एवं भविष्य के हितों को ध्यान में रखकर अपने व्यय को निर्धारित करती है। डाल्टन ने इस सम्बन्ध में कहा है कि राज्य ने केवल वर्तमान के लिए बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी एक प्रन्यासी (Trustee) होता है, राज्य अमर है जबकि व्यक्ति मरणशील है। इसलिए व्यक्ति प्रायः शीघ्र लाभ प्राप्त करने को उत्सुक रहता है।

3. आय के साधनों में लोच-सम्बन्धी अन्तर :- सरकार की आय तथा उसके प्राप्त करने के साधन निजी आय एवं उसके साधनों की अपेक्षा अधिक लोचपूर्ण होते हैं। सरकार अपनी आय को पुराने करों की दर में वृद्धि करके, नए कर लगाकर, नोट छापकर आंतरिक एवं बाह्य ऋण प्राप्त करके तथा लाभ कमाने वाले उद्योगों का राष्ट्रीकरण करके बढ़ सकती है। कोई व्यक्ति उपरोक्त साधनों का प्रयोग नहीं कर सकता।

इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मत है कि सरकार अपनी आय की सीमा से अधिक नहीं बढ़ा सकती। वह एक सीमा के बादक्षमनमाने ढंग से कर को नहीं बढ़ा सकती, नोट को नहीं छापक्षसकती तथा बाह्य ऋण भी नहीं प्राप्त कर सकती। सरकारी वित्त व्यवस्था केवल युद्ध या आपातकालीन परिस्थितियों में अधिक लोचपूर्ण बनायी जा सकती है। जैसे-जैसे सरकार की आय बढ़ती है। वैसे-वैसे व्यक्तियों की व्यक्तिगत आय कम होती जाती है। इस सम्बन्ध में श्रीमती हिक्स का विचार है कि सरकार अपनी आय बढ़ाने के बजाय उस अनुपात को बदल सकती है। जिसमें देश को सम्पूर्ण आय सरकार तथा नागरिकों के बीच बंटी रहती है।

4. बजट की प्रकृति में अन्तर :- एक व्यक्ति के बजट का अतिरेक होना उस व्यक्ति की कुशलता एवं दूरदर्शिता का प्रमाण समझा जाता है कि जबकि सरकार के बजट में अतिरेक का होना वित्त मंत्री की अकुशलता को प्रदर्शित करता है। सरकार के अतिरेक बजट का अर्थ है-'उच्च स्तरीय कराधान तथा निम्न स्तरीय व्यय। ये स्थितियाँ एक जन हितकारी सरकार के लिए उचित नहीं समझी जाती है। जहाँ अधिक कर देना देश की जनता के लिए कष्टकारी होता है वही सरकार द्वारा सार्वजनिक हित के कार्यक्रमों पर होना ही उचित समझा जाता है। कभी-कभी घाटे का बजट भी उपयुक्त होता है। इस सम्बन्ध में फिन्डले शिराज का कथन है," यदि किसी सरकार का बजट अतिरेक बतलाता है तो इससे देश के वित्त मंत्री की अकुशलता का परिचय मिलता है। सरकारी बजट का संतुलित होना ही उचित समझा जाता है और कभी-कभी घाटे का बजट बनाना भी युक्तिपरक होता है।"

5. गोपनीयता का अंतर :- प्रत्येक व्यक्ति अपनी आय तथा व्यय सम्बन्धी बातों का विवरण अन्य लोगों पर प्रकट नहीं करना चाहता और उसे गुप्त रखने का प्रयास करता है। इसके विपरीत सरकारी बजट में पूर्णरूपेण पारदर्शिता रहती है। सरकार अपने बजट कोक्षसमाचार पदों एवं अन्य प्रचार माध्यमों के द्वारा प्रसारित करती है ताकि जनता उसके बारे में भली-भाँति जान सके तथा टीका- टिप्पणी कर सके।

6. अवधि में अंतर :- सरकार एक निश्चित अवधि, सामान्यता एक वर्ष की अवधि के लिए आय-व्यय का बजट तैयार करती है परन्तु व्यक्तिगत अर्थ प्रबंधन में कोई व्यक्ति अथवा परिवार ऐसी किसी निश्चित अवधि के लिए अपने आय-व्यय का लेखा तैयार नहीं करता। सरकार की योजनाएँ अत्यधिक विस्तृत होती है जबकि व्यक्ति की योजनाएँ बहुत लघु स्तर की होती हैं।

7. राज्य का अपेक्षाकृत अधिक प्रभुत्व :- राज्य का प्रभुत्व व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होता है अर्थात् राज्य अधिक शक्तिशाली होता है। यद्यपि व्यक्ति और राज्य के स्त्रोत कुछ अंश तक एक जैसे हैं, यथा-दोनों ही अपनी आय प्राप्त कर सकते हैं। दोनों ही दूसरों से दान ले सकते हैं और दोनों ही ऋण ले सकते हैं, फिर भी राज्य शक्तिशाली होने के कारण व्यक्तियों की सम्पत्ति कर अपनाmअधिकार जमा कर सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसको हड़प भी सकता है। परन्तु, एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति को हड़प नहीं सकता है।

इसके अतिरिक्त सरकार का नागरिकों पर प्रभुत्व होने के कारण वह अपने नागरिकों को ऋण देने के लिए विवश कर सकती है, जबकि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को ऋण देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।

8. विचारपूर्ण व्यय :- व्यक्तिगत व्यय प्राय: आदतों, रीति रिवाजों तथा उस सामाजिक वर्ग की आर्थिक एवं व्यावसायिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है जिसका कि वह सदस्य होता हैं। इसके विपरीत, सार्वजनिक व्यय का आकार व स्वरूप सरकार द्वारा पूर्ण निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सोच-समझ कर बनाई गयी नीतियों पर निर्भर करता है।

इस प्रकार लोक वित्त एवं निजी व्यवस्था में अनेक अंतर पाए जाते परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि दोनों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। इन दोनों में मात्र अंश का ही अंतर है। यदि अंतर है तो मात्र इतना कि एक का सम्बन्ध केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय निकायों के आय-व्यय से है तो दूसरे का सम्बन्ध निजी व्यक्तियों तथा परिवारों के आय-व्यय से है।

लोक वित्त तथा विकासशील देश

लोक वित्त का विकासशील देशों में महत्वपूर्ण स्थान होता है। विकासशील देशों में सरकार राजकोषीय नीति के माध्यम से स्थिरता के साथ आर्थिक विकास तथा आय वितरण की असमानता को कम करने के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहजता से सफल हो सकती है। बाल्टर हेलर (Walter Heller) की धारणा है कि विकासशल देशों में कर तथा बजट नीति के आर्थिक उद्देश्य निवेश को प्रोत्साहित करना, मूल्य स्थायित्व तथा धन एवं आय की असमानता को कम करना आदि है। उनका कथन है कि, "निजी उद्योगों पर आधारित विकसित देशों में राजकोषीय नीति के उद्देश्य-साधनों का अनुकूलतम आवंटन, आर्थिक विकास, स्थायित्व तथा आय का सर्वोत्तम वितरण आदि है जो अल्पविकसित देशों के उद्देश्य से बहुत भिन्न नहीं है। यद्यपि विकसित तथा विकासशील देशों के राजकोषीय नीति के उद्देश्यों में बहुत हद तक समानता है फिर भी विकसित एवं विकासशील देशों में लोक वित्त के कार्य क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। विकासशील देशों की आर्थिक परिस्थितियाँ, वैधानिक तथा राजनीतिक वातावरण तथा कर प्रशासन की क्षमता विकसित देश के भिन्न होती है। अतः एक ही तरह के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भी भिन्न नीतियों की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त इन देशों की प्राथमिकताएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं यथा-अमेरिका जैसे विकसित देश की प्राथमिकता आर्थिक विकास के उच्च स्तर को बनाए रखना हो सकता है, जबकि भारत जैसे विकासशील देश के लिए स्थिरता के साथ विकास करना तथा पूँजी निर्माण को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण होगा।

विकासशील देशों में आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने में राज्य को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है। अत: इन देशों में लोक वित्त काnमहत्व अधिक होता है ऐसे राज्यों में जहाँ जनतंत्रीय प्रणाली कार्यरत है,nवहां भौतिक नियंत्रण को अच्छा नहीं माना जाता है। अतः ऐसे राज्यों में मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों के माध्यम से परोक्ष नियंत्रण का सहारा लेकर वांछित उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयास किया जाता है। भारत की द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इंगित किया गया है कि "नियोजन की प्रजातंत्रीय पद्धति में साधनों के प्रत्यक्ष अधिग्रहण से बचा जाता है तथा मुख्य रूप से कीमत यंत्र के माध्यम से ही कार्य किया जाता है।" अल्पविकसित देशों में लोकवित्त के महत्व को स्पष्ट करते हुए राजा चेलैया ने लिखा है, "एक प्रजातंत्रीय देश में राजकोषीय नीति सर्वाधिक शक्तिशाली तथा सबसे कम अवांछनीय नियंत्रण यंत्र है कि जिसका उपयोग सरकार आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए कर सकती है।"

पूंजी निर्माण अल्पविकसित देशों की प्रमुख समस्या है जिसके समाधान हेतु इन देशों को राजकोषीय नीति का सहारा लेना पड़ता है। उचित कर नीति के माध्यम से बचतों में वृद्धि तथा विनियोग को प्रोत्साहित किया जा सकता है। नर्क्स के अनुसार, "अल्पविकसित देशों में पूंजी निर्माण की समस्या का सामना करने में लोक वित्त की भूमिका महत्वपूर्ण है।"

अल्पविकसित देशों में लोक वित्त के महत्व को स्पष्ट करते हुए यह कहा जा सकता है कि इन देशों में आर्थिक विकास की गति प्रदान करने, आर्थिक विषमता को कम करने, उद्योगों का संरक्षण एवं सहायता देने, सामाजिक सुरक्षा एवं जनकल्याण को बढ़ावा देने, देश की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा बनाए रखने, दुर्लभ साधनों का सर्वोत्तम ढंग से आवंटन करने, आधारभूत उद्योगों की स्थापना करने, सामाजिक एवं आर्थिक पूंजी का निर्माण करने, बाजारों का विस्तार करने तथा गरीबी एवं बेरोजगारी को दूर करने में सरकार राजकोषीय नीति को एक कारगर अस्त्र के रूप में प्रयोग कर सकती है।

लोक वित्त की विचारधाराएं एवं अवधारणाएं

अर्थशास्त्रियों द्वारा लोक वित्त की विभिन्न विचार धाराओं का प्रतिपादन किया गया जिसके फलस्वरूप लोक वित्त की विभिन्न अवधारणाओं एवं सिद्धान्तों का विकास हुआ लोक वित्त की प्राचीन विचारधारा परम्परागत आर्थिक अवधारणा पर ही आधारित थी, परन्तु समय के साथ-साथ इस अवधारणा में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं एवं अंततः लोक वित्त को आधुनिक अवधारणा का विकास हुआ। लोक वित्त की सभी महत्वपूर्ण अवधारणायें निम्नवत हैं

प्राचीन या संस्थापक अवधारणा प्राचीन या संस्थापक अवधारणा मूलतया परम्परागत आर्थिक विचारधारा एवं सिद्धान्तों पर आधारित है।nसंस्थापक अवधारणा आर्थिक क्रियाकलापों में किसी भी प्रकार के सरकारों हस्तक्षेप को अनुचित मानते हैं। इन विचारकों के अनुसार सरकार को न्यूनतम व्यय तथा न्यूनतम कर लगाने चाहिए। यह सरकारी व्यय को अनुत्पादक मानते हैं एवं इस बात पर जोर देते हैं कि कर बचत एवं निवेश पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री जे.बी.से. के अनुसार, "वित्त की सारी योजनाओं में सर्वोत्तम वह है, जिसमें कम व्यय किया जाये और सभी करों में सर्वोत्तम् कर वह है जिसकी धनराशि सबसे कम हो।" एडम् स्मिथ तथा रिकार्डों का विचार यह था कि गैर सरकारी व्यय उत्पादक होता है और सरकारी व्यय अनुत्पादक होता है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार, "प्रत्येक कर एक बुराई है और प्रत्येक सरकारी व्यय अनुत्पादक है।" संस्थापक अवधारणा के मुख्य विचार बिन्दु निम्न हैं-

बजट सदैव संतुलित होना चाहिए एवं बजट का आकार भी छोटा होना चाहिए तथा बजट घाटा प्रगति पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

• सरकारी निवेश अनुत्पादक होता है अत: सरकार को निवेश कम से कम करना चाहिए एवं निजी निवेश पूर्ण रोजगार स्थापित करने में सक्षम होता है।

• बचतों पर पड़ने वाले समाज हेतु हानिकारक होते हैं जैसे आयकर, मृत्यु कर आदि, उपभोग पर पड़ने वाले कर कम हानिकारक होते हैं।

आधुनिक वैचारिक अवधारणा एवं आधुनिक सिद्धान्त-कीन्स द्वारा न सिर्फ प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की स्वचालित पूर्ण रोजगार की मान्यता पर जमकर कुठाराघात किया अपितु पूर्णरोजगार, निवेश में वृद्धि एवं संवृद्धि दर को तीव्र करने के लिए की लोक वित्त महत्ता को प्रमुखता से स्थापित किया। कीन्स के सिद्धान्त में निम्न अवधारणा विचार बिन्दु उजागर होते हैं-

• पूर्ण रोजगार की स्थापना एवं निवेश, बचत प्रक्रिया में संवृद्धि हेतु सार्वजनिक निवेश का बढ़ा महत्वपूर्ण योगदान होता है।

• सार्वजनिक निवेश गुणक प्रक्रिया के माध्यम से आय उत्पादन में वृद्धि करता है।

सरकार सड़कों, रेलों, विद्युत, जनोपयोगी उद्यमों तथा उद्योगों में सरकारी धन के व्यय करके समर्थ मांग को प्रोत्साहित कर सकती है।

• घाटे की वित्त व्यवस्था तथा जनता से उधार लेकर सार्वजनिक निवेश आर्थिक मंदी को दूर करने का कारगर उपाय है।

कुल मिलाकर कीन्स ने लोक वित्त का महत्व को पूर्ण रोजगार, आर्थिक प्रगति, आर्थिक स्थिरता तथा संसाधनों के श्रेष्ठतर आवंटन हेतु स्थापित कर दिया। लर्नर द्वारा लोक वित्त की कीन्सियन विचारधारा को क्रियाशील वित्त की अवधारणा के रूप में प्रतिपादित किया है। क्रियाशील वित्त (क्रियात्मक वित्त) में लोक वित्त की पद्धति का मूल्यांकन उसके क्रियाशील कार्यों के आधार पर किया जाता है।

सामाजिक राजनैतिक अवधारणा- इस अवधारणा के समर्थकों में वैगनर तथा एजवर्थ प्रमुख हैं। इस अवधारणा के विकास में लोकतांत्रिक एवं कल्याणकारी राज्य की राजनैतिक विचारधारा के माध्यम से हुआ है। इस अवधारणा के अनुसार लोक वित्त का प्रमुख उद्देश्य यह होना चाहिए जिससे धन का हस्तांतरण निर्धनों के पक्ष में हो जाये जिससे समाज में अधिकतम सामाजिक कल्याण की स्थापना हो सके।

लोक वित्त की विशुद्ध अवधारणा-इस वैचारिक अवधारणा का प्रतिपादन सेलिगमैन द्वारा किया गया। इसके अनुसार लोक वित्त की विभिन्न समस्याओं जैसे आय, व्यय, ऋण आदि पर तटस्थ रूप से विचार किया जाना चाहिए। इस विचारधारा में ऐसा कोई आग्रह नहीं किया जाता कि लोक वित्त नीति का उद्देश्य धन की असमानताओं को दूर करना होना ही चाहिए।

लोक वित्त के नवीनतम् अवधारणा-मसग्रेव द्वारा लोक वित्त की परिधि में नवीनतम विचारों का समावेश किया। मसग्रेव के अनुसार लोक वित्त के सिद्धान्तों का मुख्य कार्य सार्वजनिक अर्थव्यवस्था को कुशलतम् बनाने हेतु नियमों के निर्माण से सम्बन्धित होता है। मसग्रेव के अनुसार लोक वित्त के उद्देश्यों को तीन निम्न भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है

आर्थिक स्थिरीकरण

आय का वितरण

साधनों का आवंटन

अतः मसग्रेव के अनुसार लोक वित्त के अन्तर्गत ऐसी प्रक्रियाओं को अपनाया जाता है जिससे उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति हो सके एवं इन उद्देश्यों की पूर्ति करने में बजट की विभिन्न क्रियाकलापों का अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन किया जा सके।

लोक वित्त के सिद्धान्त

लोक वित्त के सिद्धान्तों का विकास लोक वित्त की विचारधाराओं एवं लोक वित्त की अवधारणाओं के माध्यम से हुआ है। लोक वित्त के सिद्धान्तों से तात्पर्य लोक वित्त के मूलभूत नियमों से है जिसके द्वारा लोक वित्त की महत्त्वपूर्ण नीतियों का निर्धारण होता है। लोक वित्त परम्परागत् विचारधारा ने इस अवधारणा को स्थापित किया सरकार को न्यूनतम सरकारी व्यय करना चाहिए क्योंकि यह अनुत्पादक होता है।

आधुनिक समय में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की स्थापना के कारण लोक वित्त का महत्व अत्यधिक बढ़ गया है। लोक वित्त के इसी बढ़ते हुए महत्व के कारण ही अर्थशास्त्रियों द्वारा अधिकतम सामाजिक कल्याण या अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है लोक वित्त के इस महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन प्रो. पीगू तथा प्रो. डॉल्टन द्वारा किया गया। डॉल्टन का मत है कि "कोई व्यय उत्पादक है या नहीं इसका मूल्यांकन उस व्यय की आर्थिक सामाजिक कल्याण की उत्पादकता से ज्ञात होती है।" जैसे शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर किया गया व्यय प्रायः व्यक्तिगत भोग विलासों पर किये जाने वाले व्यय की अपेक्षा अधिक उत्पादक तथा कल्याणकारी होते हैं तथा इन कार्यों को पूर्ण करने के लिये जो कर लगाये जाते हैं, वह सार्वजनिक हित कीक्षभावना से लगाये जाते हैं तथा इस प्रकार से समस्त कर बुरे नहीं होते हैं।

अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त-आधुनिक समसामयिक विश्व में प्राय: सभी राष्ट्र कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में विश्वास रखते हैं तथा राज्य की नीति का मुख्य उद्देश्य समाज को अधिकतम सुख सुविधाओं को प्रदान करना है। लोक वित्त के दो प्रमुख क्षेत्र सार्वजनिक आय तथा सार्वजनिक व्यय होते हैं। अतः लोक वित्त के दोनों क्षेत्रों पर लागू हो तथा इन दोनों वित्तीय कार्यवाहियों का निर्देशन तथा नियमन ऐसे मूलभूत सिद्धान्त के द्वारा किया जाये ताकि अधिकतम सामाजिक लाभ को प्राप्त किया जा सके। प्रो. पीगू तथा प्रो. डॉल्टन इस सिद्धान्त के प्रतिपादक एवं प्रसिद्धि हेतु उत्तरदायी थे।

डॉल्टन का मत यह है कि "लोक वित्त की सर्वोत्तम प्रणाली वह है जिससे राज्य अपने कार्यों द्वारा अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति करता है।" प्रो. पीगू ने इस सिद्धान्त को अधिकतम कुल कल्याण का सिद्धान्त कहा है। प्रो. पीगू के मतानुसार, "लोक वित्त की सबसे बेहतर प्रणाली वह है जिससे राज्य कुल सामाजिक कल्याण को अधिकतम करता है।"

अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त की व्याख्या-अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त मूलतया उपयोगिता क्षय नियम पर आधारित है। इसके अनुसार धन की मात्रा में वृद्धि होने के साथ-साथ उपयोगिता में कमी आती है तथा धन की मात्रा में कमी आने से उसकी उपयोगिता में वृद्धि होती है। इस सिद्धान्त में आधारभूत मान्यताएं निम्न प्रकार से हैं

लोक वित्त की समस्त क्रियाएं क्रय शक्ति के हस्तांतरण या परिवर्तन से सम्बन्धित होते हैं।

सरकार के द्वारा धन के व्यय उपयोगिता या तुष्टिगुण में वृद्धि होती है एवं कर के आरोपण समाज में अनुप्रयोगगिता या तुष्टिहीनता उत्पन्न होती है यानि सार्वजनिक व्यय से समाज को लाभ प्राप्त होता है तथा कर के कारण समाज को त्याग करना पड़ता है।

डाल्टन के अनुसार प्रत्येक इकाई कर में वृद्धि के कारण से समाज को जो अतिरिक्त त्याग करना पड़ता है उसे सीमांत सामाजिक त्याग कहते हैं तथा प्रति इकाई व्यय में वृद्धि से जो अतिरिक्त संतुष्टि प्राप्त होती है उसे सीमान्त सामाजिक संतुष्टि कहते हैं।

सरकार अपने आय-व्यय का निर्धारण करते समय सम सीमान्तश्रउपयोगिता के नियमानुसार आय तथा व्यय की सीमांत उपयोगिता में संतुलन का प्रयास करना चाहिए जिससे अधिकतम संतुष्टि की प्राप्ति हो सके।

इस सिद्धान्त के अनुसार संतुलन की स्थिति में सरकारी व्यय की इकाई के फलस्वरूप सीमांत लाभ सरकार द्वारा लगाए जाने वाले कर कीश्रकिसी इकाई के कारण जनता के सीमांत त्याग के बराबर हो जायेगा। जिस बिन्दु पर सीमांत लाभ व सीमांत त्याग बराबर हो जाते हैं वह सरकार के वित्तीय कार्य को अनुकूलतम सीमा का निर्धारण करता है एवं अधिकतम सामाजिक लाभ इसी संतुलन पर प्राप्त होता है।

• सिद्धान्त के अनुसार राजकीय व्यय को उस सीमा तक बढ़ाते रहना चाहिए जब तक कि उस व्यय से प्राप्त संतुष्टि करदाता द्वारा दिए गए करों से प्राप्त असंतुष्टि के बराबर न हो जाए। अतः प्रो. पीगू के अनुसार, "सभी दिशाओं में व्यय को इस प्रकार करना चाहिए कि अन्तिम शिलिंग से प्राप्त उपयोगिता सरकारी सेवा के रूप में खोई गई अन्तिम शिलिंग की संतुष्टि के बराबर हो जाए।

अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त के निष्कर्ष-अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त राज्य की वित्तीय तथा बजट नीति के दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं एवं सरकार की लोक वित्त नीतियों का मार्गदर्शन करते हैं। इस सिद्धान्त से निम्न महत्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आते हैं-

व्यय की सीमा-सरकारी व्यय को उस सीमा तक किया जाना चाहिए जहाँ पर राज्य द्वारा व्यय किए जाने वाले सार्वजनिक धन को अन्तिम इकाई से जनता को प्राप्त होने वाला लाभ सरकारी आय की उसी इकाई के प्राप्त करने में जनता पर पड़ने वाले त्याग के ठीक बराबर हो जाए अर्थात् व्यय से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता एवं करों से प्राप्त होने वाली सीमांत अनुपयोगिता सदैव बराबर होनी चाहिए।

राज्य के साधनों का आबंटन-सार्वजनिक व्यय की विभिन्न मदों के बीच राज्य के साधनों का आबंटन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि प्रत्येक साधन से प्राप्त होने वाली संतुष्टि का सीमांत प्रतिफल एक समान हो अर्थात् व्यय की सीमांत उपयोगिता प्रत्येक स्तर परसमान होनी चाहिए।

कर विभाजन-राज्य द्वारा करों का विभाजन इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि प्रत्येक करारोपण की सीमांत उपयोगिता विभिन्न स्तरों पर समान होनी चाहिए अर्थात् समाज द्वारा करों के भुगतान के फलस्वरूप जो त्याग वहन किया जाता है उसकी सीमांत अनुपयोगिता सभी करदाताओं हेतु एक समान हो।

अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त का परीक्षण-अधिकतम सामाजिक कल्याण सिद्धान्त को क्रियान्वित करने में अनेक व्यवहारिक कठिनाइयाँआती हैं अतः इस सिद्धान्त के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने तथा क्रियान्वयन का परीक्षण एवं मूल्यांकन करने हेतु डाल्टन द्वारा निम्न महत्वपूर्ण कसौटियों का उल्लेख किया है

(क) आर्थिक कल्याण में वृद्धि-यदि सार्वजनिक व्यय से समाज के आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती है तो उससे सामाजिक कल्याण अधिकतम हो जाता है। समाज का आर्थिक कल्याण उत्पादन की शक्ति में वृद्धि तथा धन के वितरण में सुधार के माध्यम से निम्न प्रकार से बढ़ाया जा सकता है-

उत्पादन शक्ति में वृद्धि

लोक वित्त की नीतियों तथा प्रक्रियाओं को माध्यम से समाज की उत्पादन शक्ति बढ़ाकर कल्याण को अधिकतम किया जा सकता है। उत्पादन में सुधार निम्न का प्रयोग किया जा सकता है

उत्पादन के आकार में वृद्धि कर देश की आर्थिक प्रगति तथा कल्याण में बढ़ोत्तरी की जा सकती है।

• उद्योगों की उत्पादन शक्ति तथा उद्योगों की कार्यक्षमता बढ़ाकर भी उत्पादन की मात्रा बढ़ायी जा सकती है।

देश में उत्पादन संगठन की समुचित व्यवस्था करके आर्थिक संसाधनों के अपव्यय को रोका जा सकता है।

उत्पादन का स्वरूप ऐसा हो जिससे समाज की आवश्यकताओं को अधिक मात्रा में तथा बेहतर तरह से पूरा किया जा सके।

कर व्यवस्था छूट देकर उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है इसके लिये अनिवार्य वस्तुओं के उत्पादन तथा निर्यात के सामानों पर कर छूट देकर तथा आयातों पर भारी कर लगाकर देश में उत्पादन कोप्रोत्साहित किया जा सकता है।

धन के वितरण में सुधार

आय तथा सम्पत्ति के उचित वितरण द्वारा भी समाज के कल्याण में वृद्धि की जा सकती है। इसके उद्देश्य की पूर्ति हेतु करों को इस प्रकार से नियोजित किया जाना चाहिए जिससे धनी वर्ग से क्रय शक्ति को एकत्रित करके उसे निर्धन वर्ग के पक्ष में सार्वजनिक व्यय के माध्यम से हस्तांतरित किया जा सके।

(ब) भावी विकास-सामान्यतया व्यक्ति वर्तमान हितों पर ही अधिक ध्यान देता है अतः राज्य को जनता के भावी कल्याण में वृद्धि, करने हेतु सुविचार करके सार्वजनिक व्यय हेतु नीतियाँ बनानी होगी। राज्य को नीतियाँ बनाते हुए भावी पीढ़ियों के हितों को भी ध्यान में रखना होगा।

(स) आर्थिक स्थायित्व-आर्थिक उतार चढ़ावों जैसे मंदी एवं तेजी से जनता के सामाजिक कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अतः सरकार को आर्थिक स्थायित्व को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए जिससे जनता के कल्याण को अधिकतम किया जा सके।

(द) शान्ति एवं सुरक्षा-शांति तथा सुरक्षा राज्य के विकास हेतु अनिवार्य एवं आवश्यक हैं अतः राज्य का यह कर्तव्य होगा कि जनता के कल्याण हेतु सार्वजनिक व्यय के माध्यम से शांति तथा सुरक्षा को स्थापित किया जाये।

कुल मिलाकर डाल्टन ने सामाजिक कल्याण के परीक्षण तथा मूल्यांकन हेतु आर्थिक सामाजिक तथा भविष्य के आधारों को स्थापित किया है जो कि इस सिद्धान्त के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

कार्यात्मक वित्त का आशय

कार्यात्मक वित्त का अर्थ

आधुनिक अर्थशास्त्री के मतानुसार करारोपण का उद्देश्य आर्थिक असमानताओं को कम करना एवं आर्थिक क्रियाओं का नियमन कना है। लार्ड कीन्स (Lord Keynes) पहले अर्थशास्त्री थे जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि राजस्व की नीतियों द्वारा आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित किया जा सकता है। कीन्स के पश्चात् प्रो. लर्न (Prof. Lerner) ने इस विचार को एक आधुनिक रूप प्रदान किया। प्रो. लर्नर का कहना है कि जिस ढंग से सार्वजनिक वित्तीय उपाय समाज में कार्य करते हैं उसे कार्यात्मक वित्त कहते हैं। उनका मानना है कि राजकोषीय कार्यवाहियों की जाँच केवल उनके प्रभावों द्वारा ही की जानी चाहिए।

जिस विधि के द्वारा अर्थव्यवस्था में राजकोषीय कार्यवाहियाँ क्रियाशील रहती है उसी को प्रो. लर्नर ने कार्यात्मक वित्त का नाम दिया। आज राज्य के सामने अनेक उद्देश्य है जैसे-बेरोजगारी दूर करना, सार्वजनिक कल्याण की योजनाएँ बनाना, उन पर व्यय करना, यातायात के साधनों का विकास करना, निजी उद्योग एवं सार्वजनिक उद्योगों में गति प्रदान करना, वितरण की असमानता को मिटाना आदि। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये वित्त की सहायता ली जाती है। जिन साधनों का प्रयोग इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किया जाता है, वे कार्यात्मक वित्त के अन्तर्गत आते हैं। कार्यात्मक वित्त के अर्थ को निम्न बातों से स्पष्ट किया जा सकता है।

1. कर (tax)-कार्यात्मक वित्त के अन्तर्गत करों को लगाने का मुख्य उद्देश्य आय प्राप्त करना नहीं है, बल्कि कुछ सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति भी करना है। करारोपण के द्वारा आय की असमानता को दूर किया जा सकता है। जब मुद्रास्फीति की स्थिति हो तो, कर लगाकर अतिरिक्त क्रयशक्ति में कमी आ सकती है। इससे सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। कार्यात्मक वित्त के कारण ही करारोपण अर्थव्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभा रहा है।

2. ऋण (public debt)-कार्यात्मक वित्त यह भी स्पष्ट करता है कि ऋण से अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। साथ ही यह बताता है कि ऋण का उपयोग कब और कैसे किया जाए।

3. सार्वजनिक व्यय (public expenditure) यदि लोक व्यय से अर्थव्यवस्था पर अनुकूल प्रभाव पड़ रहे हो तो सार्वजनिक व्यय होने चाहिये, अन्यथा नहीं। कार्यात्मक वित्त की सहायता से सार्वजनिक व्ययों को उपयोगी बनाया जा सकता है। अर्थात् उत्पादन, उपभोग, रोजगार, राष्ट्रीय आय में वृद्धि संभव है तो सार्वजनिक व्यय आर्थिक विकास को चरम सीमा तक पहुँचा सकता है।

कार्यात्मक वित्त इस विचार पर आधारित है कि बजट स्थिरता (budget stability) के साथ पूर्ण रोजगार की स्थिति को प्राप्त करने तथा बनाये रखने का एक महत्वपूर्ण अस्त्र है। इस विचार के अनुसार लोक वित्त मुद्रा स्फीति (inflation) तथा मुद्रा अवस्फीति (dellation) के मूल कारण को दूर करता है जिससे आर्थिक स्थिरता (economic stability) कायम रहती है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रो. लर्नर ने सुझाव दिया है कि कार्यात्मक वित्त के अन्तर्गत सरकार की क्रियाओं के लिये निम्नलिखित नियमों का पालन किया जाना चाहिए।

1. राज्य को सबसे पहली जिम्मेदारी यह है कि वह खर्च को इस

वो प्रकार नियमित तथा नियन्त्रित करें कि सभी वस्तुओं व सेवाओं की पूर्ति प्रचलित मूल्यों पर ही पूरी तरह खप जाय। खर्च की मात्रा अधिक होने पर मुद्रास्फीति उत्पन्न हो जाएगी और यदि कम हुई तो मुद्रा अवस्फीति और उसके परिणाम स्वरूप बेरोजगारी उत्पन्न होगी।

कार्यात्मक वित्त के उद्देश्य

कार्यात्मक वित्त के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं।

1. रोजगार में वृद्धि : देश के लिए बेरोजगारी एक अभिशाप होती है। रोजगार स्तर में वृद्धि करने के लिए कार्यात्मक वित्त की सहायता ली जाती है।

2. आय स्तर में वृद्धि : रोजगार से तो आय प्राप्त होती है परन्तु रोजगार में लगा व्यक्ति भी कुछ समय के बाद अपनी आय में वृद्धि करने में चेष्टा करता है। अतः सरकार बजटों में परिवर्तन करके आय स्तर को प्रभावित करती है।

3. आर्थिक विकास : आर्थिक विकास में सार्वजनिक व्यय, आय तथा ऋण का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कार्यात्मक वित्त के द्वारा आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

4. बचत में वृद्धि : आर्थिक विकास के माध्यम से आय स्तर में वृद्धि करके बचतों को बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त करारोपण से उपभोग में कमी करके भी बचतें बढ़ाई जा सकती हैं।

5. व्यापार चक्रों पर रोक : पूंजीवादी व्यवस्था में व्यापार चक्रों की पुनरावृत्ति होती है। व्यापारिक तेजी व मन्दी के समय सार्वजनिक व्यय में परिवर्तन करके व्यापार चक्रों में रोक लगाई जा सकती है।

कार्यात्मक वित्त के उपकरण और उनके प्रयोग

जैसे युद्ध में बारूद का प्रयोग होता है, वैसे वर्तमान समय में कार्यात्मक वित्त उतना ही उपयोगी है। जब कभी किसी देश में आर्थिक अस्थिरता जैसे मुद्रा प्रसार, मुद्रा संकुचन, मन्दी, बेरोजगारी उत्पादन हास जैसी स्थिति उत्पन्न होती है। तब इस स्थिति को नियन्त्रण में लाने के लिए कार्यात्मक वित् की सहायता ली जाती है।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री सरकार का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करते थे। वे उसे घातक मानते थे। उनके अनुसार सरकारी हस्तक्षेप प्रतियोगिता में बाधक होते हैं जिससे विकास अवरूद्ध हो उठता है। सरकारी हस्तक्षेप में न निज भावना होती है न निज स्वार्थ। पर वर्तमान समय में लोक कल्याणी राज्यों के विकास के साथ-साथ सरकारी हस्तक्षेप बढ़ने लगा है। आर्थिक उच्चावचन के समय सरकार मूक दर्शक बन कर नहीं रह सकती। सरकार अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित करने के लिये निम्न उपकरणों की सहायता लेती है-

1. करारोपण

2. सार्वजनिक व्यय

3. सार्वजनिक ऋण

4. घाटे की वित्त व्यवस्था

ऊपर दिए गए उपकरणों की सहायता से रोजगार, आय की समानता, अल्पविकसित देशों में पूँजी का निर्माण एवं आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया जा सकता है। विभिन्न परिस्थितियों में इन उपकरणों का प्रयोगनिम्न प्रकार से होता है।

मुद्रा प्रसार तथा मुद्रा संकुचन में कार्यात्मक वित्त की भूमिका-मुद्रा स्फीति एवं मृदा संकुचन से निपटने के लिये तीन राजकोषीय उपकरण है।

1. सरकार द्वारा स्वयं क्रय विक्रय करना।

2. नागरिकों को मुद्रा देना और उनसे मुद्रा लेना।

3. ऋण देना-लेना।

कार्यात्मक वित्त इस बात की जाँच करता है कि प्रत्येक वित्तीय उपकरण मुद्रा प्रसार या मुद्रा संकुचन को रोकने के लिये किस प्रकार से काम में लाया जा सकता है। वर्तमान में कार्यात्मक वित्त अनेक प्रकार की समस्याओं का समाधान ढूंढ चुका है।

1. सार्वजनिक व्यय :- सरकार को ऊपर यह दायित्व है कि अपने व्यय को इस प्रकार नियन्त्रित करें कि मुद्रा स्फीति एवं मुद्रा संकुचन जैसी स्थितियों से निपटारा हो सके।

(a) मुद्रा स्फीति- मुद्रा स्फीति निजी अथवा गैर सरकारी व्यय की अधिकता का परिणाम होती है। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए राजकोषीय अस्त्रों का उपयोग किया जाना चाहिए।

1. कम व्यय करक।

2. नए कर लगाकर एवं चालू करों की दर को बढ़ाकर

3. निजी अथवा गैर-सरकारी खर्च की वृद्धि को रोकने के लिये सरकार लोगों से रुपये उधार ले सकती है।

4. बैंक दर बढ़ाकर ब्याज की दरों को बढ़ा देना जिससे लोग खर्च कम करें और बचत अधिक।

इसका अर्थ यह है कि आधिक्य बजट की नीति अपनाकर मुद्रा स्फीति सम्बन्धी दबाव को रोका जा सकता है। इस प्रकार आर्थिक स्थिरता भी बनी रहेगी।

(b) मुद्रा अवस्फीति-जिस प्रकार मुद्रा स्फीति निजी अथवा गैर-सरकारी व्यय की अधिकता से उत्पन्न होता है उसी प्रकार मृदा अवस्फीति गैर-सरकारी खर्च की कमी का परिणाम होता है। इसे निम्न तरीकों से दूर किया जा सकता है।

I. करें की दरें घटाकर जिससे लोगों की क्रयशक्ति में वृद्धि हो सके।

II. सरकार कुछ ऐसी मदों पर अपने व्ययों में वृद्धि कर सकती है जैसे पेन्शन, बेरोजगारी के लाभ आदि। इससे उपभोग में वृद्धि हो सकती है।

III. ब्याज की दर को घटाकर और निवेश व्यय को प्रोत्साहित करके निजी उद्यमियों को उदारता से ऋण दे सकती है।

IV. जब ब्याज की दर में वृद्धि से निजी उद्यमी प्रेरित नहीं‌होते तो ऐसे में बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकार को सार्वजनिक निर्माण कार्यक्रमों को अपने हाथ में लेना चाहिये।

V. उत्पादन एवं अनुदान सरकार पिछड़े क्षेत्रों को प्रोत्साहित कर सकती है साथ ही ब्याज मुक्त ऋण देकर भी ऐसे क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहन दे सकती है।

ऊपर दिए गए उपाय मन्दी के विरूद्ध है जिससे लोगों में क्रय शक्ति बढ़ सकती है और वे उपभोग व्यय में वृद्धि कर देते हैं जिससे मांग बढ़ती है और निवेश प्रोत्साहित होता है। अत: यहाँ घाटे का बजट श्रेयस्कर माना जाता है।

2. सार्वजनिक ऋण-कार्यात्मक वित्त के अनुसार, 'सरकार द्वारा उधार लेने का उद्देश्य स्वयं अधिक धन प्राप्त करना नहीं अपितु यह है कि जनता अपने पास बाण्ड अधिक रखे और मुद्रा कम रखें।' यह लर्नर का मत है। अन्य शब्दों में सरकार को मुद्रा स्फीति की अवधि में उधार लेना चाहिए। और सरकार द्वारा लोगों को केवल तभी उधार दिया जाना चाहिए जब यह उचित समझे कि लोगों के पास मुद्रा तो अधिक मात्रा में रहे और बाण्ड कम मात्रा में।

3. करारोपण :- करारोपण के सम्बन्ध में लर्नर ने कहा कि कराधान का उद्देश्य अधिक धन प्राप्त करना नहीं है अपितु यह कि करदाता के पास कम मात्रा में छोड़ी जाए। कर के दो प्रभाव होते हैं-

1. सरकार के हाथों में मुद्रा की मात्रा बढ़ जाती है।

2. लोगों के हाथों में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है।

पहले प्रभाव का महत्व उतना नहीं जितना कि दूसरे का। क्योंकि सरकार नोट छापकर भी मुद्रा की मात्रा को बढ़ा सकती है। मुद्रास्फीति में करों की मात्रा और दर में वृद्धि एवं अवस्फीति में कर की मात्रा और दर में कटौती की जानी चाहिए। अन्य शब्दों में कराधान का महत्व यह है कि यह निजी अथवा गैर सरकारी व्यय को नियमित एवं नियन्त्रित करता है।

4. घाटे की वित्त व्यवस्था : प्रो. लर्नर के अनुसार यदि सरकार के द्रव्य व्यय की मात्रा चालू द्रव्य आय से अधिक हो और उसकी पूर्ति जनता से ऋण लेकर करना सम्भव न हो तो उसकी पूर्ति घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा अथवा नए नोट छापकर की जानी चाहिए। इस प्रकार पूर्ण रोजगारक्षतथा मूल्य स्थिरता की स्थिति लाने के लिए सरकार को नोटों की छपाई उनका नि:संचय करना (hoarding) अथवा उनको नष्ट करना, जो भी उचित वो करना चाहिए। अतः कार्यात्मक वित्त का प्रयोजन राजकोषीय या बजट नीति के प्रतिचक्रीय लक्ष्य (counter cyclical goal of fiscal policy) को पूर्णतया प्राप्त करना है। अन्य शब्दों में, क्रियाशील वित्त का उद्देश्य अर्थव्यवस्था के चक्रीय उतार चढ़ावों (cyclical fluctuations) के चक्रों को नियन्त्रित करना है और पूर्ण रोजगार तथा मूल्य स्थिरता की स्थिरता को बनाए रखना है। अत: लर्नर के मतानुसार सरकार का बजट इस लक्ष्य से प्रेरित होना चाहिए। प्रो. लर्नर के ही शब्दों में, 'बजट को सन्तुलित करने के सिद्धान्तों को कदापि इतना महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता, जितना की पूर्ण रोजगार की स्थिति को बनाये रखने तथा मुद्रास्फीति को रोकने को माना जाना चाहिये।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि लर्नर ने सन्तुलित अथवा ठोस वित्त के सिद्धान्त पर आधारित राजकोषीय नीति के आधार पर समाप्त करके उसके स्थान पर कार्यात्मक वित्त के सिद्धान्त को प्रतिस्थापित किया।

बजट के समर्थन में प्रो. लर्नर के विचार

वैसे तो लर्नर ने सन्तुलित बजट का परित्याग करने को कहा परन्तु कुछ परिस्थितियों में इसका समर्थन भी किया। जब सन्तुलित बजट पूर्ण रोजगार की स्थिति को क्षति न पहुँचाता हो, साधनों का अनुकूल उपयोग करता हो, मुद्रास्फीति, अवस्फीति उत्पन्न न करता हो।

नियन्त्रित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत, जहाँ कि अर्थव्यवस्था के एक काफी बड़े भाग का संचालन व्यवसायी लोगों द्वारा किया जाता है, ऐसे पूर्वाग्रह जहाँ व्यवसायी लोग सरकार को एक व्यवसाय समझते हैं और पूंजीवादी समाज पर अपनी विचारधारा धीरे धीरे थोप देते हैं। बजट के किसी भी सिद्धान्त से बंधने के प्रति जाने वाला दृढ़ पूर्वाग्रह ही है। ऐसे पूर्वाग्रह महत्व रखते हैं। इन पूर्वाग्रहों के मुकाबले पूर्ण रोजगार की स्थिति लाने आदि लक्ष्यों का अधिक महत्व है और व्यवसायी लोगों की केवल इस भावना के कारण इन लक्ष्यों का बलिदान नहीं किया जा सकता कि सरकार को ठोस व्यावसायिक सिद्धान्त "sound business principle" पर दृढ़ता से टिकं ही रहना चाहिए। पर यदि ऐसा कोई तरीका है जिससे कि बिना इन लक्ष्यों की बलि चढ़ाये बजट को सन्तुलिन बनाया जा सकता है तो निश्चित ही उस पर विचार किया जाना चाहिए।

कार्यात्मक वित्त एवं कीन्स के विचार

परम्परावादी अर्थशास्त्रियों ने लोक वित्त को कार्यात्मक वित्त का रूप नहीं दिया था। उनके अनुसार सरकारी क्षेत्र निजी क्षेत्र के समान कुशल नहीं है। उनका मानना था कि-

1. बचत का बजट होना चाहिये और संभव हो तो सन्तुलित बजट हो।

2. सरकारी हस्तक्षेप न हो।

3. स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।

4. बजट छोटा होना चाहिए।

5. कर उपभोग पर लगना चाहिये, कर पर नहीं।

हालांकि कीन्स परम्परावादी अर्थशास्त्रियों के इन विचारों को काफीक्षसमय तक मानते रहे पर 1930 को महामन्दी ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। अपनी पुस्तक "General theory of employment, interest and money" में उन्होंने प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री की पूर्ण रोजगार नहीं, अल्प बेरोजगारी अर्थव्यवस्था में विद्यमान रहती है। सरकारी हस्तक्षेप के महत्व को उजागर करते हुए उन्होंने प्रभावपूर्ण मांग का कम होना बेरोजगारी का कारण बताया जो सरकारी हस्तक्षेप से ही बढ़ाया किया जा सकता है। बेरोजगारी की स्थिति में सन्तुलित, आधिक्य छोटा बचत कारगर नहीं होता बल्कि छोटे का बजट ही जरूरी होता है। सरकार द्वारा किया गया व्यय लोगों की क्रयशक्ति में वृद्धि करता है जिससे प्रभाव पूर्ण मांग बढ़ती है। उपभोग पर लगने वाले कर को अनुचित बताते हुए उन्होनें यह मत प्रस्तुत किया कि इससे वस्तुओं की मांग में कमी हो जायेगी और बेरोजगारी को बढ़ावा मिलेगा। कीन्स के अनुसार सार्वजनिक वित्त की क्रियाएँ देश में उत्पादन एवं रोजगार की प्रभावित करती है। मन्दी के समय सरकार को व्यय बढ़ा देना चाहिये। सार्वजनिक निर्माण कार्यों को बढ़ावा देने से देश में आय एवं रोजगार में वृद्धि होती है। यह वृद्धि गुणक प्रभाव से कई गुना हो जाती है। प्रारम्भिक निवेश से केवल उन उद्योगों की आय में ही वृद्धि नहीं होती है, बल्कि अन्य उद्योगों की आय में भी वृद्धि हो जाती है। कीन्स ने इसे निवेश गुणक (Investment Multiplier) कहा है।

अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में कार्यात्मक वित्त की अनुरूपता

विकासशील देश चक्रीय समस्याओं में फंसे होने के कारण अपना आर्थिक विकास करने की क्षमता नहीं रखते। इन देशों में पूंजी की कमी, निर्धनता, प्रति व्यक्ति न्यून आय, जनसंख्या का आधिक्य, अशिक्षा कृषि का पिछड़ापन, परम्परावादी अर्थव्यवस्था आदि अनेक ऐसी बातें हैं जो विकास में बाधक होती है। अतः विकासशील देशों में कार्यात्मक वित्त का मुख्य उद्देश्य पूंजी निर्माण तथा आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देना है।

1. अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के लिये अनुपयुक्त (not suitable for underdeveloped economy) - कार्यात्मक वित्त का सिद्धान्त उस राजकोषीय नीति की कसौटी पर खरा नहीं उतरता जो कि एक विकसित अर्थव्यवस्था वाले देश के आर्थिक विकास के लियेक्षउपयुक्त होती है। आर्थिक विकास की जरूरतें सन्तुलित बजट केक्षमाध्यम से सम्पूर्ण नहीं हो सकती।

आर्थिक विकास की जरूरतों की मांग यह होती है कि राजकोषीय या बजट नीति का उपयोग निवेश और बचतों के स्तर को निरन्तर ऊँचा उठाने में किया जाना चाहिये। यही कि विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति का आधार कार्यात्मक वित्त के आधार पर भिन्न होता है।

2. व्यापक अर्थव्यवस्था पर आधारित (based upon Macro economy) - कार्यात्मक वित्त व्यापक अर्थव्यवस्था के कीन्स मॉडल पर आधारित है और यह मानता है कि अर्थव्यवस्था में विकास की एक निश्चित दर बनी रहे। अत: अर्थव्यवस्था के समस्त व्यय को नियमित व नियन्त्रित करके यह विकास की उस दर पर अर्थव्यवस्था को बनाये रखने का प्रयास करता है। इस प्रकार वह स्थिर या स्थैतिक मॉडल जिस पर कि कार्यात्मक वित्त का सिद्धान्त आधारित है, विकासशील अर्थव्यवस्था को आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त नहीं है।

3. अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में महत्व (importance in under- developed economy) - अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में सम्पूर्ण व्यय के नियमन द्वारा मुद्रा स्फीति या मुद्रा अवस्फीति को रोकने की समस्या को तो गौण ही माना जाता। वहाँ मुख्य समस्या तीव्र गति से अधिक विकास करने की होती है। इसके लिये आवश्यक है कि निवेशों में लगातार वृद्धि हो तथा उपभोग पर रोक लगे। इस प्रकार अल्पविकसित अथवा विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में विकास की समस्या वास्तव में गतिशील अर्थशास्त्र की समस्या होती है।

4. व्यापक स्थिरता का आधार (basis of macro statics) कार्यात्मक वित्त का सिद्धान्त व्यापक स्थिरता का है जबकि आर्थिक विकास के लिए व्यापक गतिशीलता का सिद्धान्त माना जाता है। अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में कुल व्यय के स्थिरीकरण का अर्थ होगा अल्पविकसित के सन्तुलन की स्थिर दशा और वह आर्थिक विकास की जरूरतों के लिये उपयुक्त नहीं हो सकती।

5. कराधान का उपयुक्त प्रयोग नहीं (not proper use of taxation)- विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में कराधान का उपयोग साधनों की वृद्धि के लिए किया जाना चाहिये। इस प्रकार, सरकारी उधार का उपयोग साधनों को गतिशील करने के एक अस्त्र के रूप में किया जाना चाहिए। परन्तु कार्यात्मक वित्त अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास के सिद्धान्त के पहलू को महत्वपूर्ण नहीं मानता। अन्त में यद्यपि यह सत्य है कि विकासशील अर्थव्यवस्था में निवेशों की मात्रा क्रमशः अधिकाधिक बढ़ती जाती है जिससे मुद्रा स्फीति सम्बन्धी दबाव भी उत्पन्न हो सकते हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि अर्थव्यवस्था को अपने कुल व्यय में कटौती करनी चाहिये जैसा कि कार्यात्मक वित्त के सिद्धान्त में बतलाया गया है। आर्थिक विकास की लागत पर मौद्रिक स्थिरता उचित नहीं है।

सार्वजनिक व्यय, करारोपण, सार्वजनिक ऋण, उद्योग आदि ऐसे उपकरण हैं जिन्हें अपनाए बिना आर्थिक विकास सम्भव नहीं। बचतों कोक्षप्रोत्साहन देकर पूंजी के निर्माण से विनियोग को बढ़ाया जा सकता है। गुणक व त्वरक से आर्थिक विकास को गति प्रदान की जा सकती है। इस क्रिया से विकासशील देश आत्मनिर्भरता प्राप्त कर होते हैं। इसके अतिरिक्त कीमत स्तर में वृद्धि को रोकना तथा समाज में आय की विषमताओं को दूरश्रकरना भी विकासशील देशों में कार्यात्मक वित्त के उद्देश्य हो सकते हैं।

विकसित अर्थव्यवस्था में कार्यात्मक वित्त की सीमा

कार्यात्मक वित्त की मान्यता है कि अर्थव्यवस्था में विकास की एक निश्चित मान्य दर को प्राप्त किया जाए परन्तु ऊँची दर से विकास करना भी वांछनीय है। यदि राजकोषीय कार्यवाहियों के द्वारा कुल व्यय के स्तर को प्रभावित किया गया वह भी बिना इस बात की परवाह किये कि निवेश की वृद्धि पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है, इससे लोगों की उपभोग प्रवृत्ति को अनुचित बढ़ावा मिल सकता है। उससे कुल उत्पादन की दीर्घकालीन वृद्धि अवरूद्ध हो सकती है। इस प्रकार कार्यात्मक वित्त के सिद्धान्त में चक्रीय उतार-चढ़ाव को रोकने की अल्पकालीन समस्या के समाधान पर ध्यान दिया परन्तु दीर्घकालीन विकास की समस्या पर नहीं।

कार्यशील वित्त

प्रो. बलराज सिंह ने कार्यात्मक वित्त को कार्यशील वित्त कहा है। उनके अनुसार कार्यशील वित्त में हम वित्तीय विधियों एवं उपकरणों का उनकी कार्य-संरचना पर परीक्षण करते हैं और यह ज्ञात करते हैं कि उपकरणों की अर्थव्यवस्था के लिये क्या उपयोगिता है। राजकोषीय नीति की साधनों की गतिशीलता बनाये रखने तथा आर्थिक विकास में जो भूमिका होती है, उसे कार्यशील वित्त कहा जाता है। कार्यशील वित्त में राज्य द्वारा राजकोषीय समायोजन किया जाता है, जिससे अर्थव्यवस्था में विनियोग का निरन्तर प्रवाह होता रहे और उपलब्ध साधनों का अधिकतम प्रयोग हो सकें, ताकि राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो सके।

कार्यशील वित्त की मान्यताएँ-

1. सार्वजनिक व्यय अपूर्ण होने से मांग एवं उत्पादन में समय की स्थिति नहीं होती है।

2. राष्ट्रीय आय बचत और विनियोग पर आधारित है।

3. विभिन्न वित्तीय रीतियाँ अर्थव्यवस्था में स्फूर्ति उत्पन्न करती है।

 कार्यशील वित्त में ऐसे उपाय किए जाते हैं कि विनियोग सदैव होते रहे, इससे उत्पादन एवं रोजगार में वृद्धि होती रहे।

प्रो. सिंह के अनुसार कीन्स एवं लर्नर के वित्तीय दृष्टिकोण केवल विकसित अर्थव्यवस्था तक ही सीमित है। जबकि वास्तविक समस्या अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था की होती है। निर्धन देशों में राजकोषीय नीति का इस प्रकार नियमन एवं संचालन करना चाहिये, ताकि उपलब्ध साधनों की इष्टतम प्रयोग करके उत्पादन एवं रोजगार में वृद्धि की जा सके।

कार्यात्मक वित्त एवं कार्यशील वित्त में अंतर

1. कार्यात्मक वित्त इस मान्यता पर आधारित है कि सम्पूर्ण आय व्यय नहीं की जाती जिससे फलस्वरूप प्रभावपूर्ण मांग होती है। अतः ऐसी स्थिति में उत्पादन मांग से अधिक होगा और इसलिये कार्यात्मक वित्त का मुख्य कार्य वित्तीय क्रियाओं द्वारा मांग में वृद्धि करना है।

इसके विपरीत कार्यशील वित्त को मान्यता है कि कोई देश इसलिये निर्धन है क्योंकि उसकी आय कम है। अत: मुख्य समस्या बचत एवं विनियोग में वृद्धि करके राष्ट्रीय आय को बढ़ाना है।

2. डॉ. बलजीत सिंह के अनुसार कीन्स एवं लर्नर के विचार विकसित अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित है। अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में प्रभावपूर्ण मांग बढ़ाना समस्या नहीं है। जैसा कि विकसित अर्थव्यवस्था में होती है। इन अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में बचत एवं विनियोग को प्रोत्साहित करके उत्पादन बढ़ाना मुख्य लक्ष्य होता है।

3. कार्यात्मक वित्त में व्यय से आरम्भ करते हैं जबकि कार्यशील वित्त में उत्पादन से आरम्भ किया जाता है। प्रो. वॉन फिलिप का कहना है कि कार्यशील वित्त की धारणा कार्यात्मक वित्त की धारणा से निश्चित रूप से श्रेष्ठ है।

4. बिना रूकावट के चलने वाली अर्थव्यवस्था में भी असाम्य उत्पन्न हो जाता है। इसको ठीक करने के लिये कार्यात्मक वित्त का सहारा लिया जाता है। इसके विपरीत जो अर्थव्यवस्था अविकसित है और अर्थव्यवस्था स्वयं नहीं चल पा रही है, ऐसी अर्थव्यवस्था में वित्तीय नीति द्वारा ऐसे उपाय किये जाते हैं जिससे बचत एवं विनियोग में निरन्तर प्रभाव बना रहे तथा उपलब्ध साधनों का इष्टतम प्रयोग किया जा सके, यह कार्यशील वित्त में ही सम्भव है।

कर एवं करारोपण

कर एवं करारोपण एक ही अवधारणा नहीं है। सामान्य रूप से करारोपण को कर के ही रूप में परिभाषित किया जाता रहा है। लेकिन करारोपण तथा कर एक-दूसरे के पूरक रूप में ही हैं। प्रथमतः आपको कर की | अवधारणा को स्पष्ट किया जाए। कर जनता पर लगाया गया वह अनिवार्य भुगतान है जिसे सरकार द्वारा अनिवार्य रूप से एकत्रित किया जाता है तथा उसे सार्वजनिक कार्यों पर सामान्यत: व्यय कर दिया जाता है।

डॉल्टन के अनुसार, "कर किसी सार्वजनिक सत्ता द्वारा लगाया गया एक अनिवार्य अंशदान है भले ही इसके बदले में करदाताओं को उतनी सेवाएँ प्रदान की गई हों अथवा नहीं। यह किसी कानूनी अपराध के दण्डस्वरूप नहीं लगाया जा सकता।"

बेस्टेबल (Bastable) के शब्दों में कर को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है, "कर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की सम्पत्ति का वह भाग होता है जो सार्वजनिक सेवाओं को चलाने के लिए अनिवार्य रूप से वसूल किया जाता है।"

अर्थशास्त्री शिराज ने भी कर को निम्नवत स्पष्ट किया है, "कर सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा वसूल किया जाने वाला वह अनिवार्य भुगतान है जो सार्वजनिक भलाई के खर्च को पूरा करने के लिए लिया जाता है और उसका किसी विशेष लाभ से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।"

कर की अवधारणा को स्पष्ट करके आपको करारोपण की अवधारणा को समझने में कठिनाई नहीं होगी।

करारोपण एवं सिद्धान्तों के मध्य सम्बन्ध

लम्बे समय से ही सरकारों के क्रियाकलापों में वृद्धि के साथ अनेक प्रकार के उद्देश्यों में भी परिवर्तन पाया गया है। सरकार द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था संचालन के लिए वित्तीय व्यवस्था अनेक प्रकार के उपायों द्वारा की जाती रही है। करारोपण उनमें से एक महत्वपूर्ण उपाय के रूप में जाना जाता है। सरकार के ऊपर लगातार बढ़ती जिम्मेदारियों के मद्देनजर यह भी आवश्यक होता है कि सरकार की व्यवस्थाओं का सर्वाधिक लाभ किस वर्ग या व्यक्ति को प्राप्त हुआ है तथा किस वर्ग को किसी भी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं हो सका। सरकार को देश में वित्तीय व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के साथ शान्ति व्यवस्था तथा सामाजिक सुरक्षा आदि का भी ध्यान रखना होता है। सरकार की वित्तीय व्यवस्थायें भी पूर्ण हो तथा जनता में भी शान्ति तथा सुरक्षा व्यवस्था बनी रहे इसके लिए किसी सामान्य से पैमाने से काम चलने वाला नहीं है। करारोपण के विभिन्न सिद्धान्त सरकार तथा जनता से सम्बन्धित सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं का अध्ययन कर आधारित किये गये हैं। इसीलिए इन सिद्धान्तों की प्रासंगिकता प्राचीन से वर्तमान में भी बनी हुई है।

वर्तमान में कर प्रणाली इतनी विस्तृत है कि करारोपण के बिना सरकार के क्रियाकलापों को संचालित कर पाना सम्भव नहीं होगा। कल्याणकारी राज्यों में करारोपण के साथ-साथ करारोपण के सिद्धान्त भी समकक्ष रूप में देखे जाने लगे हैं। इन सिद्धान्तों की अवहेलना करके करारोपण को सफल नहीं बनाया जा सकता है।

करारोपण का वर्गीकरण

करारोपण से सम्बन्धित विभिन्न अर्थशास्त्रियों में सिद्धान्तों का अध्ययन करने के बाद आपको यह समझना अत्यन्त आवश्यक है कि करारोपण का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया।

1. प्रत्यक्ष कर तथा परोक्ष कर

2. एकल एवं बहुकर प्रणाली

3. करों की दर की स्थिति के आधार पर वर्गीकरण

4. विशिष्ट कर एवं मूल्यानुसार कर

5. लोक सत्ताओं के आधार पर कर-केन्द्रीय कर, राज्यीय कर, स्थानीय कर

6. अन्य वर्गीकरण

करों के उक्त वर्गीकरणों के अन्तर्गत निर्धारित किये जाने वाले करों की विस्तृत व्याख्या के आधार पर आप इन वर्गीकरणों के बारे में भली-भाँति समझ सकेंगे।

1. प्रत्यक्ष तथा परोक्ष कर (Direct and Indirect Tax)-एक लम्बे समय से अर्थशास्त्रियों में विवादास्पद विषय रहा है कि किन करों को प्रत्यक्ष कर माना जाय तथा किन करों को परोक्षकर की श्रेणी में रखा जाय। डॉल्टन ने प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों के विषय में लिखा है कि, "एक प्रत्यक्ष कर वास्तव में उसी व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जिस पर वैधानिक रूप से वह लगाया जाता है जबकि अप्रत्यक्ष कर एक व्यक्ति पर लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण या आंशिक रूप से वह अन्य व्यक्ति द्वारा भुगतान किया जाता है, जो अनुबन्ध एवं सौदा करने की शर्तों के परिणाम स्वरूप ऐसा होता है।"

जे.एस. मिल ने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों के बारे में लिखा है कि, 'एक प्रत्यक्ष कर वह है जो उसी व्यक्ति से माँगा जाता है जो उसे भुगतान करने की इच्छा या इरादा रखे और एक अप्रत्यक्ष कर वह है जो एक व्यक्ति से इस आशा एवं इच्छा से माँगा जाता है कि वह दूसरे की लागत पर इसको क्षतिपूर्ति कर लंगा।"

सामान्य तौर पर कर आघात तथा कर आयतन के आधार पर ही करों को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों की श्रेणी में रखा गया है। प्रत्यक्ष करों के आरोपण पर कराघात एवं कर का आपतन एक ही इकाई या व्यक्ति पर पड़ता है जबकि परोक्ष करों के आरोपण की स्थिति में कराघात तथा कर का आयतन अलग-अलग इकाइयों या व्यक्तियों पर पड़ता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष करारोपण के अन्तर्गत कर विवर्तन नहीं पाया जाता जबकि परोक्ष करारोपण की स्थिति में कर का विवर्तन किया जाता है। इस प्रकार आय, व्यय, सम्पत्ति, उपहार, उत्तराधिकार, पूँजी आय, ब्याज आदि पर करारोपण प्रत्यक्ष कर की श्रेणी में आता है। उत्पादन शुल्क, बिक्रीकर, सीमा शुल्क आदि को परोक्ष कर की श्रेणी में आता है। उत्पादन शुल्क, बिक्रीकर, सीमा शुल्क आदि को परोक्ष कर की श्रेणी में रखा जाता है।

2. एकल एवं बहुकर प्रणाली-सामान्य रूप एकल करारोपण की स्थिति में कर प्रणाली के अन्तर्गत केवल एक ही कर अस्तित्व में पाया जाता है। साधारण जीवन की अर्थव्यवस्था में इस प्रणाली को अपनाया जा सकता है जिसमें एक ही कर से अर्थव्यवस्था संचालन के लिए वित्त की व्यवस्था आसानी से हो सके।

लेकिन अर्थव्यवस्था के विकास एवं अनेक जटिलताओं के चलते एकल कर प्रणाली से काम चलने वाला नहीं है। इस कर प्रणाली से न तोक्षसरकार सभी को कर सीमा में ला सकती है और न ही सार्वजनिक कार्य पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में राजस्व की आपूर्ति को जुटा पा सकती है।

बहुकर प्रणाली के अन्तर्गत एक ही कर प्रणाली में एक साथ एक से अधिक कर अस्तित्व में पाये जाते हैं। इस कर प्रणाली में अधिकांशतः सभी को किसी न किसी कर की सीमा में लाया गया है तथा सरकार के लिए सार्वजनिक कार्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में राजस्व को जुटाया जा सका है। बहुकर प्रणाली से कर प्रणाली के अन्तर्गत पैदा होने वाली अनेक समस्याओं को हल किया जा सकता है।

एकल कर प्रणाली में अर्थव्यवस्था में आवश्यकतानुसार सुधारों की सम्भावनायें समाप्त हो जाती है तथा अर्थव्यवस्था में स्थिरता या ठहराव की स्थिति पैदा हो जाती है। इसके साथ बहुकर प्रणाली में लोचता की अधिकता के कारण अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुसार आवश्यक परिवर्तन किये जा सकते हैं।

3. करों की दर की स्थिति के आधार पर वर्गीकरण-आपको यहाँ पर ध्यान देना होगा कि करों की दरों की स्थिति में अन्तर के आधार पर करों को अनेक रूपों में रखा जा सकता है।

• आनुपातिक कर (Proportional Tax) : आनुपातिक कर प्रणाली के अन्तर्गत सभी प्रकार की आय वाली इकाईयों एवं व्यक्तियों पर एक ही दर से कर लगाया जाता है। आय में वृद्धि होने पर कर राजस्व में वृद्धि होती है। आय में वृद्धि की दर तथा कर राजस्व में वृद्धि की दर समान पाई जाती है यदि एक आय स्तर 1000 करोड़ रुपये पर 10 प्रतिशत की दर से कर लगाने पर 100 करोड़ रुपया का राजस्व प्राप्त होगा। परन्तु आय स्तर 10000 करोड़ रुपये होने पर भी कर 10 प्रतिशत की दर से ही लगाया जायेगा तथा कर राजस्व की राशि 1000 करोड़ रुपये होगी।

प्रगतिशील कर वृद्धि (Progressive Tax): प्रगतिशील कर प्रणाली में आय के स्तर में वृद्धि होने पर कर की दर में भी वृद्धि हो जाती | है। इसे एक उदाहरण द्वारा आसानी से समझाया जा सकता है।

उपर्युक्त तालिका में आय स्तर में वृद्धि होने के साथ-साथ कर की दर में वृद्धि हो रही है।

प्रतिगामी कर (Regressive Tax) : इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रगतिशील करक प्रणाली की विपरीत दिशा में कर की दरें निश्चित की जाती हैं। प्रारम्भ में आय स्तर पर कर की दर उच्च पाई जाती है जैसे-जैसे आय का स्तर बढ़ता जाता है कर की दर घटती जाती है।

अधोगामी कर (Degressive Tax) : अधोगामी कर प्रणाली में प्रारंभिक आय स्तर से आय में वृद्धि होने पर कर की दरें बढ़ती जाती हैं लेकिन एक स्तर के बाद आय वृद्धि होने पर कर की दर बढ़ायी नहीं जाती है। इस सीमा के बाद कर की दर समान हो जाती है जैसे 100000 रु. की आय पर 8 प्रतिशत की दर, रु. 200000 रु. पर 10 प्रतिशत की दर तथा रु. 400000 की आय पर 15 प्रतिशत की दर से कर लगेगा लेकिन 400000 रु. से ऊपर आय वृद्धि पर कर की दर 15 प्रतिशत ही रहेगी। यह कर प्रगतिशील तथा प्रतिगामी कर प्रणाली की संयुक्त विशेषताओं के आधार पर व्युत्पन्न किया गया है।

4. विशिष्ट कर एवं मूल्यानुसार कर-विशिष्ट कर वे कर कहलाते हैं जिन्हें किसी वस्तु के भार आकार या इकाईयों की संख्या के आधार पर लगाया जाता है, जबकि मूल्यानुसार कर वह कर है जिसे वस्तु के मूल्य के आधार पर लगाया जाता है। सामान्य रूप से मूल्यानुकसार कर को अधिक महत्व दिया जा रहा है।

5. लोक सत्ताओं के आधार पर कर-लोक सत्ताओं के अधिकार के आधार पर करों को निम्न रूपों में विभाजित किया जा सकता है-

केन्द्रीय सरकार के कर : जो कर किसी देश की केन्द्रीय सरकार द्वारा लगाये जाते हैं जैसे भारत में आय कर जो देश की संघीय सरकार द्वारा लगाया जाता है।

राज्य सरकार के कर : किसी देश के अन्दर वहाँ की अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा लगाए जाने कर इस श्रेणी में आते हैं, जैसे भारत में कृषि तथा मनोरंजन कर आदि राज्यों की सरकारों द्वारा लगाए जाते हैं।

स्थानीय कर : ये कर स्थानीय सरकारों जैसे-नगर निगम, पंचायत द्वारा लगाये जाते हैं जैसे पथकर, गृहकर, जलकर आदि।

6. अन्य वर्गीकरण-करों के अन्य वर्गीकरणों में व्यक्ति कर तथा वस्तु कर, अस्थायी तथा स्थायीकर एवं सम्पत्ति कर तथा वस्तुकर (Tax on Property and Tax on Commodity) को भी शामिल किया गया है।

करारोपण की आवश्यकता

आपको इस बिन्दु के अन्तर्गत यह समझ में आ जाएगा कि किसी राजसत्ता या सरकार को करारोपण की आवश्यकता क्यों पड़ती है। क्या अन्य साधनों से करारोपण से प्राप्त राजस्व की भरपाई नहीं की जा सकती। किसी अर्थव्यवस्था में सरकार द्वारा करारोपण की आवश्यकता को निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है।

1. सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता अपने सामाजिक कार्यों के लिए किए जाने वाले व्यय की पूर्ति के लिए आय प्राप्त करना निर्धारित की गयी। यह आवश्यकता अत्यन्त ही प्राचीन तथा सार्वभौमिक रूप में देखी गयी है।

2. विकास के दौर में सरकारों के सामने एक अन्य चुनौती स्वयं की अर्थव्यवस्थाओं को संतुलित स्तर पर चलाने की रही है। अर्थव्यवस्था के नियमन एवं नियन्त्रण के लिये सरकारों द्वारा करारोपण का सहारा लिया गया है। व्यापारिक चक्रों की स्थिति, विदेशी प्रभाव आदि से बचने के लिए भी करारोपण को एक उपकरण के रूप में अपनाया जाने लगा है।

3. समाज में व्याप्त अनेक विसंगतियों को दूर करने के लिए भी करारोपण पद्धति का सहारा समय-समय पर सरकारें लेती रही हैं। धन के असमान वितरण की समस्या का सामना करने वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए करारोपण की भूमिका और अधिक बढ़ जाती है।

प्रो. राजा चलैया के एक कथन से करारोपण की आवश्यकता को और अधिक स्पष्ट रूप में रखा जा सकता है-

'एक विकासोन्मुख देश में एक अच्छी कर पद्धति का कार्य यह होना चाहिए कि वह उस आर्थिक वेशी को गतिशील करे जो अर्थव्यवस्था में अभी हाल में उत्पन्न हुई हो। आर्थिक वेशी उस अन्तर को कहते हैं जो वास्तवक चालू उपज तथा वास्तविक चालू उपभोग के बीच पाया जाता है। भारत जैसे देश में आर्थिक वेशी का एक बड़ा भाग कृषि क्षेत्र में उत्पन्न होता है। वह किसानों, व्यापारियों तथा अन्य लोगों द्वारा अपने पास रख लिया जाता है और ये लोग इस वेशी को उत्पादक विनियोजन में लगाने के अभ्यस्त नहीं होते। आर्थिक विकास की दृष्टि से कर नीति का कार्य यह है कि वह इस वेशी को गतिशील करे, उसे उत्पादक स्त्रोतों की ओर मोड़े तथा उसके आकार में निरन्तर वृद्धि करे।"

इस प्रकार आर्थिक विकास के लिए करारोपण की आवश्यकता भी अहम भूमिका अदा करती है।

वैट की अवधारणा

असीम दास गुप्ता समिति की संस्तुति पर भारत में वैट लागू हुआ था।

• कोई भी वस्तु उत्पादन से लेकर उपभोक्ता तक पहुँचने के क्रम में कई चरणों से गुजरती है। उत्पादन से अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचने के क्रम में उसमें विभिन्न सेवाएँ भी जुड़ती चली जाती हैं। इस पद्धति को ध्यान में रखते हुए वैट कर प्रणाली का विकास किया गया है।

वैट उत्पादन से उपभोग तक के प्रत्येक चरण में आरोपित किया जाता है। इस प्रणाली के माध्यम से करों की बहुलता को समाप्त करने का प्रयास किया गया।

वस्तुतः वैट लागू होने से पहले विभिन्न राज्यों द्वारा वस्तुओं के उत्पादन पर विभिन्न प्रकार के कर लगाए जाते थे, जिससे वस्तुओं के मूल्यों में बड़ी असमानता रहती थी, इसी कारण से वस्तुओं के मूल्य विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न हुआ करते थे।

• वैट व्यवस्था में संपूर्ण भारत क्षेत्र में चुंगी तथा प्रवेश कर को छोड़कर शेष शुल्कों को समाप्त कर दिया गया था। स्वीकृत कर व्यवस्था पर निगरानी रखने हेतु सभी व्यापारियों को एक टिन (Tin) संख्या दी गई थी। वस्तु एवं सेवा कर लागू होने से मूल्य वर्द्धित कर (VAT) को समाप्त कर दिया गया हैं। वैट प्रणाली की कुछ मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

• भारत में वैट व्यवस्था 1 अप्रैल, 2005 से 22 राज्यों तथा 5 केन्द्र शासित प्रदेशों में लागू की गई थी। इसके पश्चात् 2007 में तमिलनाडु तथा पुदुचेरी तथा 1 जनवरी, 2008 को उत्तर प्रदेश में लागू की गई।

• लक्षद्वीप तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में चूँकि बिक्री कर नहीं था, अत: वहाँ पर वैट भी अस्तित्व में नहीं था। वैट को लागू करने वाला प्रथम राज्य हरियाणा तथा अन्तिम राज्य उत्तर प्रदेश था।

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1 comment

  1. Deergha
    Deergha
    Nice Sir
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