प्रश्न- राजकोषीय नीति से आप क्या समझते हैं? विकासशील देशों में राजकोषीय नीति
के क्या मुख्य उद्देश्य होने चाहिये?
→ वित्तीय नीति से आप क्या समझते हैं? भारत जैसे अल्पविकसित देशों के विशेष संदर्भ में वित्तीय नीति के विभिन्न उद्देश्यों की व्याख्या कीजिए?
→ प्रशुल्क नीति क्या है? आर्थिक विकास के अस्त्र के रूप
में इसका कहाँ तक प्रयोग किया जा सकता है?
उत्तर- राजकोषीय
नीति सरकार की वह नीति है जो राजस्व की क्रियाओं के माध्यम से सरकार अपने आर्थिक उद्देश्य
की पूर्ति करता है। राजस्व या लोक वित्त की क्रियाओं के अन्तर्गत सार्वजनिक व्यय, करारोपण,
लोक ऋण
से सम्बन्धित क्रियाएँ आते है जिनके सामूहिक तथा संयोजित प्रयोग के द्वारा ही सरकार अपने आर्थिक उद्देश्य को प्राप्त
करने की कोशिश करती है। अतः राज्यकोषीय नीति का अर्थ है, "स्थिरीकरण या विकास
के लिए सरकार द्वारा करारोपण, सार्वजनिक ऋण
एवं सार्वजनिक व्यय का प्रयोग"।
इसकी परिभाषा विभिन्न प्रकार से दी गयी है जो निम्नलिखित
है:
आर्थर स्मिथीज के
अनुसार, "राजकोषीय नीति
वह नीति है जिससे सरकार अपने व्यय तथा
आय के कार्यक्रमों को राष्ट्रीय आय, उत्पादन तथा रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने एवं अवांछित प्रभावों को रोकने के लिए प्रयुक्त करती है"। केन्स
ने भी प्रशुल्क नीति को उपभोग की प्रवृत्ति और विनियोग की प्रेरणा के बीच समायोजन करने वाले संतुलन तत्त्व के रुप में बतलाया है।
केन्स के अनुसार, "राज्यकोषीय नीति वह नीति है जो अर्थव्यवस्था में
संतुलनकारी तत्त्व के रूप में राजस्व का प्रयोग करती है।"
श्रीमती
हिक्स के अनुसार, "वित्तीय नीति या राज्यकोषीय नीति का सम्बंध उस पद्धति
से है जिसमे राजस्व के विभिन्न तत्त्व मुख्यतः अपने दायित्व की पुरा करते हुए सामूहिक
रूप से आर्थिक नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति करते हैं।
वित्तीय नीति के अर्थ को स्पष्ट करते हुए जे. ए. इसटे ने अपनी पुस्तक "Business Cycle"
(1950) में यह बताया है कि "वित्तीय नीति का अर्थ लोक व्यय एवं करारोपण के द्वारा
समाज में वस्तुओं एवं सेवाओं की प्रभावपूर्ण माँग को त्वरित करना है। जिस पर उत्पादन
एवं रोजगार निर्भर करता है।"
अतः मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि वित्तीय नीति का अर्थ
सार्वजनिक व्यय, करारोपण तथा ऋण प्रबंध की नीतियों से है जिसका प्रयोग सरकार अर्थव्यवस्था
पर नियंत्रण रखने तथा विकास के लिए करती है।
राजकोषीय नीति के उद्देश्य:- प्रतिष्ठित विचारकों के अनुसार
अर्थव्यवस्था में सदैव पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है। क्योंकि जे. बी. से के अनुसार "मांग स्वयं अपनी
पूर्ति उत्पन्न करती है"। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में कभी अति उत्पादन की स्थिति नहीं हो सकती और
अर्थव्यवस्था में सभी साधन रोजगार में लगे रहते है।
प्रो पीगू ने 'से' के नियम को श्रम बाजार के प्रसंग
में सूत्रबद्ध किया और बताया कि यदि बेरोजगारी उत्पन्न होती है तो मजदूरी की दर
में कमी करके दूर किया जा सकता है। इन्होंने रोजगार को वास्तविक मजदूरी का फलन
माना
जहां N = रोजगार, ƒ = फलन, `\frac WP` = वास्तविक मजदूरी।
किंतु 1930 की महान मन्दी
ने इस विचार को गलत साबित कर दिया और अर्थशास्त्रियों का ध्यान बेरोजगारी की ओर गया। तब से राजकोषीय नीति
का मुख्य उद्देश्य पूर्ण रोजगार स्थापित करना हो गया। केन्स ने अपनी पुस्तक
"General Theory of Employment Interst and Money" में परम्परावादी विचारों
को छिन्न-भिन्न कर दिया। यह स्पष्ट रूप से बताया कि रोजगार की मात्रा प्रभावपूर्ण
माँग पर निर्भर करता है। प्रभावपूर्ण माँग में दो तरह की मांग सम्मिलित है। उपभोग सम्बंधी
मांग तथा विनियोग संबंधी मांग।
अतः ED = C+I
जहाँ, ED = प्रभावपूर्ण माँग,
C = उपभोग माँग तथा I = विनियोग मांग
केन्स ने बताया कि जब प्रभावपूर्ण
माँग में कमी आती है तो उत्पादन कम हो जाता है जिसके फलस्वरूप बेरोजगारी उत्पन्न होती
है।
द्रुत आर्थिक विकास
के साथ आर्थिक विषमताओं को दूर करना भी राजकोषीय नीति का प्रमुख उद्देश्यों में से है। संक्षेप में वर्तमान
समय में राजकोषीय नीति के मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार स्थापित करना,
आर्थिक स्थिरता को बनाये रखना, देश में द्रुत आर्थिक विकास, समाज में आय का न्यायोचित
वितरण करना, अथवा समाज में धन एवं आय की विषमता को दूर या कम करना आदि है। इस प्रकार
वर्तमान समय में राजकोषीय नीति के उद्देश्यों के संबंध में कार्यात्मक एवं क्रियात्मक
वित्त का विचार अधिक लोकप्रिय हो गया है। सुप्रसिद्ध विद्वान
मसग्रेव ने अपनी पुस्तक "Fiscal System," में बताया है कि "राजकोषीय
नीति का उद्देश्य उच्च रोजगार, कीमत स्थाईत्व का उचित स्तर, विदेशी खातो में संतुलन
तथा आर्थिक विकास की एक स्वीकार्य दर प्राप्त करना अथवा बनाए रखना, होना चाहिए"।
राजकोषीय नीति के विभिन्न
उद्देश्य होते हैं जो विभिन्न देशों के आर्थिक स्तर पर निर्भर करते है।
अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति
राजकोषीय नीति के उद्देश्य
विभिन्न देशों की आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न होते है। विकसित
देशों में राजकोषीय नीति का प्रधान उद्देश्य पूर्ण रोजगार के बिन्दु पर आर्थिक
स्थायित्व समझा जाता है, किंतु अर्द्धविकसित देश में इसका प्रधान उद्देश्य
द्रुतगति से देश का आर्थिक विकास ही होना चाहिए। अर्द्धविकसित देशों में उत्पादन
तथा रोजगार में होने वाले उतार चढ़ाव का अधिक महत्व नहीं है। बल्कि असली समस्या
संरचनात्मक परिवर्तनों की होती है। ये देश में दीर्घकाल तक गतिरोध रहने की स्थिति में
होते हैं। ऐसी अर्थव्यवस्था में तकनीकि ज्ञानों तथा पूँजी के आभाव में आर्थिक साधन
निष्क्रिय पड़े रहते हैं। उनके सामने दो ही प्रमुख समस्याएं होती है।
(ⅰ) किस प्रकार
अर्थव्यवस्था में व्याप्त अदृश्य बेरोजगारी की समस्या को दूर किया जाए।
(ii)
किस प्रकार एक विशाल जनसंख्या की बेरोजगारी को दूर किया जाए जो कि रोजगार के आभाव
में बेकार रहते हैं।
अतः अर्द्धविकसित देशों की
मूल समस्या आर्थिक विकास के द्वारा पूर्ण रोजगार को प्राप्त करना है।
कर नीति के द्वारा उपभोग
तथा विनियोग में वृद्धि लायी जा सकती है। उपभोग वस्तुओं पर कर घटाकर उन वस्तुओं के
उपभोग को बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त आय कर एवं निगम कर घटाकर व्यावसायी को
उधोगों में पूँजी लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
पूर्ण रोजगार की प्राप्ति हेतु वित्तीय नीति के प्रभाव को एक रेखा चित्र द्वारा दिखलाया जा सकता है। यदि वित्तीय नीति के अन्तर्गत कर की दर में कटौती तथा व्यय में वृद्धि की जाए तो लोगों की आय में वृद्धि होगी जिससे उनकी उपभोग की प्रवृत्ति एवं निवेश दोनों में वृद्धि होगी।
रोजगार पहली अवस्था में संतुलन A बिंदु पर संतुलन जहां LM0
'कर' मात्रा को बताने वाली रेखा
IS0 को काटती है।
OY = आय
का स्तर OY0 = रोजगार का स्तर । अब
व्यय में वृद्धि होती है जिसे
LM1 द्वारा
दिखाया गया है। तब B = संतुलन
बिन्दु OY1 = आय
का स्तर, OY = रोजगार का स्तर
। यदि व्यय की वृद्धि के साथ ही साथ 'कर'
में कटौती की जाये तो व्यय के गुणक के प्रभाव के कारण आय की मात्रा
OY2 हो जाऐगी।
अतः स्पष्ट है कि वित्तीय नीति के सही समायोजन से रोजगार के स्तर में तीव्रता से वृद्धि
की जा सकती है।
अर्द्धविकसित
देशों की राज्यकोषीय नीति के लिए निम्नलिखित उद्देश्यों
का होना आवश्यक है।
(1)
पूंजी का निर्माण :- आर्थिक
विकास के लिए पूँजी निर्माण प्रथम आवश्य तत्व है। इसके लिए बचत में वृद्धि कर विनियोग
की दर में वृद्धि की जा सकती है। पूँजी निर्माण को 'विकास
वित्त' भी कहा जाता है। चूंकि अर्द्धविकसित
देशों में विनियोग कम होती है इसलिए सार्वजनिक विनियोग में वृद्धि करना आवश्यक हो जाता
है। सार्वजनिक विनियोग के लिए करारोपण, सार्वजनिक ऋण एवं हिनार्थ
से आय प्राप्त किया जा सकता है। दूसरी नीति बचत की कमी को सार्वजनिक बचत से पुरा किया
जाना चाहिए। धन के असमान वितरण से बचत एवं पूँजी
निर्माण में वृद्धि होती है।
लेविस
के अनुसार, "अधिक बचत के लिए एक विशेष प्रकार की असामनता की आवश्यकता होती है।
यह ऐसा होना चाहिए जिनसे राष्ट्रीय आय में
उद्यमियों के लाभ का हिस्सा अपेक्षाकृत अधिक होना चाहिए"।
(2)
प्रत्यक्ष भौतिक नियंत्रण :- यह रीति विशिष्ट उपयोग एवं
विशिष्ट उपभोग एवं अन्य उत्पादक विनियोजन को बढ़ाने
में अत्यंत प्रभावशाली होती है। यद्यपि अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था
में इसे क्रियान्वित करने में प्रशासनिक रूप में अनुचित सहायक होता है फिर भी प्रत्यक्ष
भौतिक नियंत्रण राजकोषीय नीति के आवश्यक अंग होते है। यद्यपि इन अर्थव्यवस्थाओं में
यह रीति आंशिक रूप से लागू की जा सकती है। फिर भी साधनों की यथेष्ट मात्रा में गतिशील
करने के लिए लागू करना आवश्यक है।
(3)
कर राजस्व के स्तर में वृद्धि :- श्रीमती हिक्स के अनुसार
"विकास वित्त का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
श्रोत राजस्व होता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप से विकास वित्त में योगदान करता है
तथा नियंत्रण, प्रेरणा एवं व्यय योग्य
आय की मात्रा को कम करने में यह
अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है"।
सरकार
को ऐसी कराधान नीति अपनानी चाहिए कि देश में बचत की दर बढे तथा पूँजी निर्माण हो ।
विशेषकर अल्पविकसीत देशों में कराधान नीति उत्पादन परक होनी चाहिए। जिसका बचत तथा निवेश
पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़े। इस संबंध में नये करो
को लगाना तथा वर्तमान करो की दर में वृद्धि करना स्पष्ट रूप
से प्रगतिशील होना चाहिए। कर की रचना निम्न प्रकार से होनी चाहिए -
(a)
धनी वर्ग के उन साधनों को जो निष्क्रीय पड़े हैं उनका सम्पूर्ण समाज की ओर
हस्तांतरण किया जाए जैसे आायकर, सम्पत्ति कर एवं विलासिताओं की वस्तुओं पर कर
लगाया जाए तथा प्राप्त राजस्व को सामाजिक कल्याण के कार्यों पर व्यय किया जाए।
(b)
अनुत्पादक विनियोगों में बचतों के प्रयोग को नियंत्रित करने के लिए अप्रत्याशित
आय, अनुपार्जित आय, पूँजी लाभों, व्यय, भू संपदा इत्यादियों पर ऊँचे प्रगतिशील कर
लगाए जाए ताकि उपभोग की प्रवृत्ति को जो कि अर्द्धविकसित देशों में अधिक होती है
नियंत्रित किया जा सके। आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप बढ़ने वाली आय को धनी लोगो
की ओर जाने से रोका जा सकता है यदि
(i)
आय कर तथा अन्य प्रत्यक्ष करो का पैमाना प्रगतिशील हो
(ii)
ऐसी
वस्तुओं पर कर लगाया जा सके जिनके माँग की आय सापेक्षताः ऊंची हो।
आर्थिक विकास का विशेष दर
प्राप्त करने के लिए कर राजस्व की कितनी मात्रा की आवश्यकता होगी। इसे ज्ञात करने
के लिए प्रो. मसग्रेव ने एक समीकरण दिया है,
जो इस प्रकार है:
`t=\frac{Zg-S+a}{1-S}`
जहाँ
t
= कर
की दर
Z
= सीमांत
पूँजी उत्पत्ति की दर
g = विकास की वांछित दर
S
= व्यय योग्य आय में बचत की प्रवृत्ति
a = सरकार की चालू व्यय
(राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के रूप में)
उपर्युक्त समीकरण को हम एक उदाहरण के द्वारा समझा
सकते हैं:-
यदि Z =3, g=0.04, S=0.03, a=0.1 है तो
`t=\frac{Zg-S+a}{1-S}=\frac{3\left(0.04\right)-0.03+0.1}{1-0.03}`
`t=\frac{0.12-0.03+0.1}{0.97}=\frac{0.12+0.1-0.03}{0.97}`
`t=\frac{0.22-0.03}{0.97}=\frac{0.19}{0.97}`= 19% (लगभग)
अतः कर की दर (t)
= 19% (लगभग) है।
(4)
कर सरंचना :- अर्द्धविकसित
देशों में कर संरचना ऐसी होनी चाहिए जो राष्ट्रीय आर्थिक क्षमता को बिना प्राप्त किये
तथा करारोपण की मात्रा को बिना प्रभावित किये वृद्धि कर सके। अतः कर सरंचना निम्नलिखित
प्रकार की होनी चाहिए
(i) कृषि
कर (ii) आय कर
(iii) सम्पति कर (iv)
उपभोग कर
(5)
सार्वजनिक लोक
ऋण :- अर्द्धविकसित देशों
में करारोपण के द्वारा प्रयाप्त मात्रा में
आय नहीं होने से सरकार को ऋण लेना
पड़ता है। लोक ऋण से प्राप्त राजस्व का प्रयोग उत्पादन, विनियोग में
किया जाय तो यह स्फीति जनक नहीं होता है लेकिन लोक
ऋण की राशि लोगों को उधार देने की क्षमता तथा सरकार कर लगाने की इच्छा शक्ति पर निर्भर
करता है।
लोक
ऋण का उच्चतम स्तर को निम्नलिखित समीकरण द्वारा व्यक्त
किया जा सकता है।
`D=\frac{yt-O}r`
जहाँ,
D
=
लोक ऋण का उच्चतम स्तर,
y = राष्ट्रीय आय
t = अधिकतम कर राजस्व,
o = सामान्य सार्वजनिक
क्रियाओं के लिए व्यय की स्थिर राशि
r = लोक ऋण की व्याज पर आधारित
यदि y =1000 करोड़, t = 0.20, o =150, r
=0.05
`D=\frac{yt-O}r=\frac{1000\left(0.20\right)-150}{0.05}`
`D=\frac{200-150}{0.05}=\frac{50\times100}{0.05}`
D = 10 X 100 = 1000 करोड़ रु.
(6)
घाटे की वित्त व्यवस्था:- विकासशील देशों में
सार्वजनिक आय का प्रमुख श्रोत घाटे की वित्त व्यवस्था होता है। अगर सीमा के अन्दर
इसका सहारा लिया जाय तो यह लाभकारी होता है। लेकिन सीमा के बाहर यह स्फीति जनक
होता है। अगर घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रयोग यातायात के लिए की जाए तो गैर
स्फीतिजनक होता है। इसका प्रयोग देश के उत्पादन साधनों के लिए किया जा सकता है
क्योकि अर्द्धविकसित देशों में अतिरिक्त आर्थिक उत्पाद साधन बेकार पड़े रहते हैं।
घाटे की वित्त व्यवस्था का
गैर स्फीति जनक (नकद मुद्रा की मांग) का निर्धारण दो तत्त्वो पर निर्भर करता है -
(a)
माँग की आय लोच (b)
मुद्रा एवं राष्ट्रीय आय का अनुपात
इसे निम्नलिखित समीकरण
द्वारा दिखाया जा सकता है-
Md=
e x m
जहाँ,
Md
= नकद मुद्रा की मांग, e =
मांग की आय लोच, m = मुद्रा एवं राष्ट्रीय आय का अनुपात
(7)
आर्थिक विकास की गति को तीव्र करना :- वित्तीय नीति का प्रधान
उद्देश्य आर्थिक विकास की गति को तीव्र करना है। आर्थिक विकास का अभिप्राय राष्ट्रीय
आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना होता है। ऐसा केवल तभी हो सकता है जबकि सरकार
द्वारा बचत तथा निवेश करने के अतिरिक्त अवसर तथा प्रेरणाएं प्रदान की जायें।
अर्थिक
विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से
उन क्षेत्रों का विकास साथ-साथ किया जाना चाहिए जो
एक दूसरे पर निर्भर करते हैं जैसे कृषि और उद्योग। इस सदर्भ
में प्रो. राजा. जे. चालिहा ने ठीक ही कहा है कि
"प्रगति का सर्वाधिक फलदायी मार्ग कृषि और
उद्योग के संतुलित विकास के साथ-साथ चलता है"।
(8)
निवेश का स्वरूप :- निवेश का
स्वरूप को निर्धारित करना राज्य
का दायित्व है। इस कार्य में राज्य वित्तीय
नीतियों का उपयोग करता है। इस दृष्टि
से निवेश के विभिन्न क्षेत्रो
की सीमांत सामाजिक उत्पादकता पर ध्यान दिया जाता है। उन्ही विकास योजनाओं को चुना
जाता है जिसकी सामाजिक सीमांत उत्पादकता अधिकतम होती है।
(9)
बेरोजगारी को दूर करना :- विकसित देशों में बेरोजगारी
की समस्या प्रायः अल्पकालीन होती है किंतु अर्द्धविकसित देशों में अदृश्य बेरोजगारी
एक दीर्घकालीन एवं सर्वव्यापी समस्या होती है। अतः समस्या के सामाधान
के लिए इन देशों में दीर्घकालीन विकास नीति की आवश्यकता होती
है। अतः देश में करारोपण, सार्वजनिक व्यय और
ऋण नीतियों के द्वारा विनियोग एवं उपभोग में वृद्धि करने प्रभावपूर्ण
माँग को बढ़ा कर रोजगार के अवसरों का विस्तार किया जा सकता है।
(10)
मुद्रा स्फीति के प्रभाव को रोकना :- विकास की गति को तेज करने
के लिएजों राजकोषीय प्रयत्न किये जाते हैं उनसे कीमतों में वृद्धि होने लग जाती है।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अर्द्धविकसित देशों में सीगीत संसाधन'जान- -बूझकर बड़े पैमाने
के विनियोग में लगा दिए जाते है। और परिणामस्वरूप उपयोगी वस्तुओं की उपलब्दाता कम हो
जाती है। इन देशों में विदेशी विनिमय की कमी होती है इसलिए विदेशों से उपभोग वस्तुओं
का आयात भी अधिक माता मैनही किया जा सकता, परिणामतः मुद्रा स्फीति के दबाव बढ जाते
है और कीमते बढ़ने लग जाती है। यदापि अर्द्धतिकसित देशों में मुद्रास्फिती को रोक पाने
में राजकोषीय नीति अधिक प्रभावशाली नहीं होती है फिर भी यदि राजकोषीय नीति निम्न प्रकार
से कार्यान्वित की जाए तो उसके अच्छे परिणाम निकल सकते है:
(i)
जनता की अतिरिक्त क्रयशक्ति को करारी बचत एवं सार्वजनिक ऋण आदी रीतियों के द्वारा कम
किया जाए।
(ii)
विशेष प्रकार के मुद्रा स्फीति कर जैसे अधिकतम लाभ कर, विलासीता
की वस्तुओं पर कर आदि लगाये जाएँ।
(iii)
तरल सम्पत्तियो एवं पूँजी पर करारोपण किया जाए।
(iv) ऐच्छिक
बचतों पर प्रोत्साहन अधिक हो।
(v) प्रगतिशील
कर प्रणाली लागू की जाए।
(11)
व्यापार चक्र विरोधी प्रशुल्क नीति :-
आर्थिक स्थायित्व के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राजकोषीय नीति का व्यापार
चक्र विरोधी होना अनिवार्य है। राज्य एक ओर तो अपनी आय से
अधिक व्यय कर अर्थव्यवस्था में आय रोजगार व्यय तथा आर्थिक
क्रियाओ का विस्तार कर सकता है तो दूसरी
ओर अपने व्यय में कमी तथा करो में वृद्धि के द्वारा रोजगार आय एवं
आर्थिक क्रियाओं के स्तर में संकुचन उत्पन्न कर
सकता है।
विशेषताएं
(i) राज्यकोषीय
नीति के माध्यम से अर्थव्यवस्था
में मितव्ययिता अपनाकर और प्रर्याप्त
वित्तीय साधन प्राप्त कर पूँजीगत साधनों का
उचित प्रयोग किया जा सकता है।
(ii)
उपभोग पर नियंत्रण करके ग्रामीण क्षेत्रों का विकास किया जा सकता है।
(iii)
घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा, आय की कमी को पुरा किया जा सकता
है।
राजकोषीय नीति की सीमाएँ
(i) अर्द्धविकसित
देशों में आधुनिक उचीत एवं लोचपूर्ण
कर प्रणाली के लिए उपयुक्त परिस्थितियां उपलब्ध नहीं होती है।
(ii) अर्थव्यवस्था
का एक बड़ा भाग अमौद्रिक होता है जहाँ अब भी वस्तु विनिमय की प्रथा प्रचलित होती है।
(iii)
संमको की अनुपस्थिती में लोगों की आय एवं
लोगों की व्यय का ठीक से पता नहीं लगाया जा
सकता है।
(iv)
व्यापक अशिक्षा के कारण लोग सामाजिक एवं आर्थिक विकास का महत्त्व नहीं समझ पाते है
और कर से बचने की कोशिश करते हैं।
(v)
विशेष हित रखने वाले राजनैतिक दल भी विद्यमान रहते है।
निष्कर्ष
इसमें कोई संदेह नहीं की विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति की विभिन्न कठिनाइयाँ एवं सीमाएँ है फिर भी यह निर्विवाद सत्य है कि प्रभावशाली राजकोषीय नीति अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था की प्रगति में अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकती है। इसके लिए जरूरी है कि करारोपण सार्वजनिक व्यय एवं सार्वजनिक ऋण की एक समन्वयपूर्ण समन्वयपूर्ण नीति अपनायी जाए। इसके बाद भी आवश्यक है कि सभी उद्देश्यों के मध्य समन्वय स्थापित किया जाऐ।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)