भुगतान सन्तुलन (Balance of Payments)

भुगतान सन्तुलन (Balance of Payments)

भुगतान सन्तुलन (Balance of Payments)

प्रश्न - व्यापार सन्तुलन एवं भुगतान सन्तुलन का अन्तर बताइए तथा विपरीत भुगतान सन्तुलन को सुधारने की विभिन्न विधियों की विवेचना कीजिए?

• भुगतान शेष में असन्तुलन होने के क्या कारण है? प्रतिकूल भुगतान शेष को किस प्रकार ठीक किया जा सकता है, समझाइए?

उत्तर:- किसी देश के अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संबंधों के विश्लेषण के लिए भुगतान संतुलन एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण यंत्र है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रत्येक देश कुछ वस्तुओं का अन्य देशों से आयात करता है जिसका उसे भुगतान करना पड़ता है तथा कुछ वस्तुओं का निर्यात करता है जिसके बदले में अन्य देशों से भुगतान प्राप्त करता है। इस संबंध में व्यापार संतुलन और भुगतान संतुलन दो काफी महत्त्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अंग है।

व्यापार सन्तुलन का अर्थ :- व्यापार सन्तुलन के अन्तर्गत आयातो और निर्यातों का विस्तृत विवरण रहता है। जब एक देश के आयातो की तुलना में, उसके निर्यात अधिक होते है तो उसे अनुकूल व्यापार सन्तुलन कहते है और जब निर्माता की तुलना में आयात अधिक होते है तो इसे प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन कहते है।

भुगतान सन्तुलन का अर्थ :- भुगतान सन्तुलन से आशय देश के समस्त आयातो एवं निर्यातों एवं अन्य सेवाओं के मूल्य के सम्पूर्ण विवरण से होता है। इनके अन्तर्गत लेन-देन के दो पक्ष होते है। एक ओर तो देश की विदेशी मुद्रा की लेनदारियों का विवरण रहता है जिसे धनात्मक पक्ष कहते है तथा दूसरी ओर उस देश की समस्त देनदारियों का विवरण रहता है जिसे ऋणात्मक पक्ष कहते है।

अर्थव्यवस्था में यदि आयात और निर्यात की मात्रा बराबर है तो यह स्थिति 'आदर्श एवं संतुलित' मानी जाती है। अर्थात्

EX = IM

यदि अर्थव्यवस्था में निर्यात की मात्रा, आयात की मात्रा से अधिक है तो ऐसी स्थिति को 'अनुकूल भुगतान सन्तुलन' कहते है। अर्थात्

EX > IM

परन्तु, यदि अर्थव्यवस्था में निर्यात का मौद्रिक मान आयात के मौद्रिक मान से कम है तो ऐसी स्थिति को प्रतिकूल भुगतान संतुलन कहते है।

EX < IM

यह स्थिति प्रत्येक दृष्टिकोण से अर्थव्यवस्था में प्रतिकूलता को जन्म देती है, जिसे गणितीय अंदाज में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है।

गणितीय व्याख्या

प्रतिकूल भुगतान संतुलन

Export (Revenue)

EX = R(T) e-iT . BC

d(EX)dT= R’(T) e-iT.BC + R(T) e-iT .dTdT(-i ).BC

d(EX)dT R’(T) e-iT . BC + R(T) e-iT . 1 (-i ) . BC

d(EX)dT R’(T) e-iT . BC – iR (T) e-iT  . BC

Import (Cost)

D = a + a PT

dDdT = 0 + aP’(T)

dDdT=aP(T)

S = b + b PT

dSdT = 0 + bP’(T)

dSdTb P’(T)

For the Equilibrium

dDdT=dSdT

Price Level

(a) a [P’(T)]

(b) b [P’(T)]

Equilibrium Position (Idial State)

d(EXdT)= Price Level

R’(T) e-iT . BC – iR (T) e-iT  . BC = a [P’(T)]

BC . e-iT [R’(T) – iR (T) ] = a [P’(T)]

Equilibrium Level

BC . e-iT [R’(T) – iR (T) ] ¹ a [P’(T)]

Profitable

(a) BC . e-iT [R’(T) – iR (T) ] > a [P’(T)]

(b) BC . e-iT [R’(T) – iR (T) ] < a [P’(T)]

Case (a) and (b) are generates of state of the diseqilibrium

व्यापार सन्तुलन और भुगतान सन्तुलन में अन्तर

भुगतान सन्तुलन और व्यापार संतुलन मे निम्नलिखित अन्तर है -

(1) व्यापार संतुलन के अन्तर्गत केवल वस्तुओं के आयात और निर्यातो का विस्तृत विवरण रहता है, किंतु भुगतान सन्तुलन में केवल वस्तुओं के आयातो-निर्यातो का ही नहीं वरन् सेवाओ, पूँजी, स्वर्ण आदि का भी समावेश किया जाता है।

(2) व्यापार सन्तुलन किसी भी समय अनुकूल या प्रतिकूल हो सकता है किंतु भुगतान सन्तुलन सदैव सन्तुलित रहता है।

(3) व्यापार सन्तुलन की तुलना में भुगतान सन्तुलन अधिक व्यापक है क्योकि भुगतान सन्तुलन में दृश्य एवं अदृश्य मदो का समावेश भी होता है। इस प्रकार व्यापार सन्तुलन, भुगतान सन्तुलन का एक अंग है और यह सबसे बड़ा अंग है। यदि किसी देश का व्यापार संतुलन उनके पक्ष में नहीं है तो यह अधिक चिन्ता की बात नहीं है, किंतु यदि भुगतान सन्तुलन देश के पक्ष नहीं है तो यह देश की चिन्ता का विषय है।

भुगतान शेष में असन्तुलन के कारण

विभिन्न देशों में भुगतान संतुलन में असन्तुलन के विभिन्न कारण हो सकते है जैसे, भारत में द्वितीय पंचवर्षीय योजना की अवधि में भुगतान सन्तुलन में असन्तुलन इसलिए हुआ क्योंकि भारी मात्रा में पूँजीगत वस्तुओं का औद्योगीकरण के लिए आयात किया गया तथा तृतीय योजनाकाल में इसलिए असन्तुलन हुआ क्योंकि देश में सूखे की स्थिति के कारण खाद्यान्न का काफी आयात किया गया जबकि युद्ध की स्थिति के कारण (चीन और पाकिस्तान) निर्यातों  में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हो सकी।

सामान्य तौर पर निम्न कारण भुगतान संतुलन में असन्तुलन पैदा कर देते हैं:

(1) विकास एवं विनियोग कार्यक्रम :- देश द्रुत गति से औद्योगीकरण एवं र्थिक विकास करना चाहते  है किंतु इसके लिए इनके पास पर्यात मात्रा में पूंजी एवं अन्य साधनों का अभाव होता है। अतः इन चीजों का इन्हें विदेशो से आयात करना होता है। इस प्रकार इन देशो का आयात तो बढ़ जाता है किंतु उसी अनुपात में इनके निर्यात में वृद्धि नहीं हो पाती क्योंकि प्राथमिक उत्पादन होने के नाते, ये केवल इनी-गिनी वस्तुओं का ही निर्यात करते हैं। इसके साथ ही जब इन देशों में औद्योगीकरण की प्रतिक्रिया प्रारम्भ होती है तो उन वस्तुओं की खपत देश में ही ब़ जाती है, जिनका कि पहले निर्यात किया जाता था। इस प्रकार इन देशों के भुगतान सन्तुलन में सरंचनात्मक परिवर्तन होते है जिनके फलस्वरूप संरचनात्मक असन्तुलन हो जाता है।

(2) चक्रीय उच्चावचन :- व्यापार चक्र के फलस्वरूप विभिन्न देशों में भिन्न अर्थव्यवस्था में चक्रीय उच्चावचन होते है जिनकी अवस्थाएं विभिन्न देशों में अलग-अलग होती है जिनके फलस्वरूप भुगतान संतुलन में चक्रीय असन्तुलन पैदा हो जाता है।1930 के दशक के दौरान विश्व के भुगतान संतुलन में इस प्रकार का असन्तुलन पैदा हुआ था।

(3) आय प्रभाव एवं कीमत प्रभाव :- विकासशील देशो में आर्थिक विकास के फलस्वरूप लोगों की आय में वृद्धि होती है, जिससे कीमतों में भी वृद्धि होती है जिसका इन देशों में भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। य में वृद्धि होने से इन देशों के आयातों में वृद्धि होती है क्योंकि इनकी सीमांत आयात प्रवृत्ति ऊँची होती है। इसके साथ ही इन देशों में सीमांत उपभोग प्रवृत्ति भी ऊंची होती है, लोगों की घरेलू वस्तुओं के उपभोग की मांग में भी वृद्धि होती है। इसका परिणाम यह होता है कि इनके पास निर्यात की वस्तुओं की कमी हो जाती है।

जब इन देशों में भारी उधोगों में, अधिक मात्रा में विनियोग किया जाता है तो इसका मुद्रा स्फीतिक प्रभाव होता है क्योंकि अन्तिम उत्पादन होने में तो काफी समय लगता है जबकि ब़ती हुई मुद्रा लोगो के हाथों में पहुंच जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि वस्तुओं की माँग में वृद्धि होने से उनकी कीमते बढ़ने लगती है जिससे आयातों को प्रोत्साहन मिलता है तथा निर्यात हतोत्साहित होते है और देश के भुगतान संतुलन में असन्तुलन पैदा हो जाता है।

(4) निर्यात माँग मे परिवर्तन :- विकासशील देशो में भुगतान शेष में असन्तुलन होने का एक प्रमुख कारण यह है कि इनके द्वारा निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की मांग में परिवर्तन हुआ है। आज विकसित देश खाद्यान्न, कच्चे माल एवं अन्य वैकल्पिक वस्तुओं का उत्पादन करने लगते है जिनका कि पहले वे विकासशील देशों से आयात करते थे। इनके फलस्वरूप विकासशील देशों के निर्यात कम हो गए है एवं उनके भुगतान शेष में संरचनात्मक असन्तुलन पैदा हो गया है।

(5) विकसित देशो मे आयात प्रतिबन्ध :- विकसित देशों में अनुकूल व्यापार शर्तों एवं अन्य कारणों के फलस्वरूप उनका भुगतान सन्तुलन अतिरेक की स्थिति में रहता है और यदि वे विकासशील देशों से आयात करते रहे तो विकासशील देशों की भुगतान सन्तुलन की स्थिति में सुधार हो सकता है। किंतु ये देश तरह-तरह के आयात प्रतिबन्ध लगा देते है जिससे विकासशील देशों के निर्यात में वृद्धि नही हो पाती एवं उनके भुगतान सन्तुलन में असन्तुलन हो जाता है।

(6) विकासशील देशों में तीव्र जनसंख्या वृद्धि दर :- जनसंख्या में वृद्धि के कारण एक तो इन देशों की आयात की मात्रा में वृद्धि हो जाती है किंतु दूसरी ओर घरेलू उप‌भोग में वृद्धि होने से निर्यात क्षमता कम हो जाती है। यह तथ्य भी इन देशो की स्थिति को भीषण बना देती है कि विकसित देशो की घटती हुई जनसंख्या से विकासशील देशों के निर्यात में कमी हो जाती है क्योंकि इन वस्तुओं की माँग में कमी हो जाती है। फलस्वरूप विकासशील देशो के भुगतान शेष में असन्तुलन की समस्या और भी कठिन हो जाती है।

(7) प्रदर्शन प्रभाव :- प्रो नर्कसे ने अपनी पुस्तक "Problem of Capital Formation in under- developed countries" में प्रदर्शन प्रभाव की व्यापक चर्चा की है। इसका तात्पर्य यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, राजनीतिक एवं अन्य सामाजिक कारणों से जब अर्द्धविकसित देश विकसित देशों के सम्पर्क में आते है तो वहाँ के लोग विकसित देश के लोगों की उपभोग, आदतों को अपनाने के लिए प्रवृत्त होते है तथा पश्चिमी तड़क-भड़क को अपनाना चाहते है। अतः ऐसी वस्तुओ का विदेशों से आयात किया जाता है। जबकि दूसरी ओर या तो उनकी निर्यात की मात्रा स्थिर रहती है अथवा उसमे कमी हो जाती है। इसके फलस्वरूप विकासशील देशों के भुगतान सन्तुलन में असन्तुलन की स्थिति पैदा हो जाती है।

(8) अन्तर्राष्ट्रीय ऋण एवं विनियोग :- अपने विकास कार्यक्रम को वित्तीय व्यवस्था के लिए बहुत से विकासशील देश विकसित देशों से भारी मात्रा में ऋण लेते हैं जिसके ब्याज एवं मूलधन की वापसी के लिए उन्हें बहुत अधिक विदेशी विनिमय खर्च करना होता है जिससे उनके भुगतान सन्तुलन में असन्तुलन पैदा हो जाता है। दूसरी ओर जो देश ऋण देते हैं, उनका भुगतान संतुलन अनुकूल रहता है; क्योंकि उन्हें ब्याज आदि के रुप में विदेशी विनिमय प्राप्त होता है।

प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को ठीक करने के उपाय

जब किसी देश के भुगतान सन्तुलन में निरन्तर असाम्य बना रहता है तो यह देश की अर्थव्यवस्था और विश्व के व्यापार के लिए घातक होता है। इसलिए इस असमानता को दूर करने के लिए निम्नलिखित तरीके अपनाऐ गऐ हैं-

(A) मौद्रिक उपाय

भुगतान सन्तुलन के प्रतिकूलता को निर्यातों में वृद्धि और आयातो में कमी से ठीक किया जा सकता है। इसके लिए निम्न मौद्रिक उपायो का सहारा लिया जाता है -

(1) मुद्रा संकुचन:- भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए मुद्रा संकुचन की नीति अपनाई जाती है। मुद्रा संकुचन के फलस्वरूप देश में वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में कमी आ जाती है। इससे देश का निर्यात प्रोत्साहित होता है तथा आयात हतोत्साहित हो जाता है। इतना ही नहीं मुद्रा संकुचन से आय में कमी आ जाती है। जिसके फलस्वरूप घरेलू उपभोग सीमित हो जाता है। अतः विदेशों को निर्यात के लिए अधिक मात्रा में वस्तुएँ उपलब्ध हो जाती है। इस प्रकार निर्यातों में वृद्धि हो जाती है। दूसरी ओर आय के कम होने के कारण लोगों की आयात करने की प्रवृत्ति भी कम हो जाती है। इस प्रकार भुगतान सन्तुलन में घाटा दूर हो जाता है।

मुद्रा संकुचन की सफलता आयातो-निर्यातो की माँग की लोच पर निर्भर करता है। यदि इनकी माँग की लोच इकाई से अधिक होती है तो बहुत हल्के संकुचन द्वारा ही निर्यातों में वृद्धि और आयातो में कम हो जाती है। लेकिन जब आयातो एवं निर्यातों की मांग की लोच इकाई से कम होती है तो अधिक मात्रा में मुद्रा सकुंचन की आवश्यकता होती है। भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को दूर करने में मुद्रा संकुचन की नीति अच्छी नहीं मानी जाती।

(2) विनिमय ह्मस :- भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को घरेलू मुद्रा के बाहरी मूल्य का ह्मस कर के भी दूर किया जा सकता है। किसी देश के विनिमय ह्मस से विदेशियों के लिए घरेलू वस्तुएँ सस्ती हो जाती है और आयात महंगे हो जाते है अतः निर्यातों में वृद्धि तथा आयातों में कमी आ जाती है और भुगतान संतुलन का घाटा दूर हो जाता है। जब आयातो एवं निर्यातो की मांग की लोच अधिक लोचदार होती है तो थोड़ा सा विनिमय ह्मस ही भुगतान संतुलन के घाटे को दूर कर देता है परन्तु माँग के कम लोचदार होने पर बहुत अधिक विनिमय ह्मस की आवश्यकता होती है। विनिमय ह्मस की नीति की सफलता विदेशियों के सहयोग पर निर्भर करती है।

(3) विनिमय नियंत्रण :- विनिमय नियंत्रण भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को दूर करने का एक अच्छा तरीका माना जाता है। विनिमय नियंत्रण का अर्थ सरकार द्वारा विदेशी विनिमय बाजार की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करना है। जब किसी देश की सरकार विनिमय की उस दर से संतुष्ट नहीं होती जो स्वतंत्र विनिमय बाजार में माँग तथा पूर्ति की शक्तियों द्वारा स्थापित होती है तो वह प्रतिबंध हस्तक्षेप द्वारा विनिमय दर को नियंत्रण करती है। इसे ही विनिमय नियंत्रण कहते है।

जब किसी देश में विदेशी विनिमय का संकट उत्पन्न होता है और केवल अधिकृत व्यापारियो का ही सीमित मात्रा में विदेशी मुद्रा की लेन-देन की अनुमति देती है। आयात किये जाने वाली वस्तुओं की मात्रा को भी सरकार द्वारा नियंत्रित कर दिया जाता है। जिससे आयातो को उपलब्ध विदेशी विनिमय के अनुसार समायोजित कर दिया जाता है। विनिमय नियंत्रण पूंजी के निर्यात एवं बहिर्गमन को रोक कर प्रतिकूल भुगतान संतुलन को ठीक करने में सहायता देता है।

(4) अवमूल्यन :- अधिकांश देशों द्वारा प्रतिकूल भुगतान संतुलन को ठीक करने के लिए अवमूल्यन को अन्तिम अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है। अवमूल्यन के अन्तर्गत सरकारी घोषणा के अनुसार देश के मुद्रा के बाह्य मूल्य को कम कर दिया जाता है।

पाल एनजिंग के अनुसार," अवमूल्यन का अर्थ मुद्राओं की अधिकृत समानताओं में कमी कर देना है। अवमूल्यन के फलस्वरूप विदेशी मुद्रा के इकाई के बदले पहले से अधिक स्वदेशी मुद्रा की इकाईयां प्राप्त होने लगती है"। अवमूल्यन के कारण देश के निर्यात विदेशों में सस्ते पड़ते है। जबकि आयात मँहगे हो जाते है। इस प्रकार निर्यात अधिक और आयात कम हो कर भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता दूर हो जाती है।

(B) अमौद्रिक उपाय

इसके अन्तर्गत निम्नलिखित विधियों को अपनाया जाता है -

(1) आयात में कमी करना :- भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए देश के आयातो में कमी करना नितांत आवश्यक होता है। किसी भी देश का आयात निम्न विधियों द्वारा कम किया जा सकता है।

(a) विलासितापूर्ण वस्तुओं का आयात रोक दिया जाता है।

(b) आवश्यक वस्तुओं की एक सूची तैयार कर ली जाती है और उनके आयात संबंधी लाइसेंस देने की व्यवस्था लागू की जाती है।

(c) अनेक वस्तुओं की देशी विकल्प खोजने की चेष्टा की जाती है।

(d) विभिन्न वस्तुओं की आयात संबंधी कोटा निर्धारित किऐ जाते है। यह नियंत्रण एकपक्षीय कोटा प्रणाली या द्विपक्षीय कोटा प्रणाली द्वारा किया जाता है।

(2) निर्यात को प्रोत्साहन :- भुगतान संतुलन के प्रतिकूलता को दूर करने के लिए यह आवश्यक है उस देश के निर्यात को अधिक से अधिक बढ़ाया जा। निर्यात को कई तरीको से बढ़ाया जा सकता है

(a) निर्यात करो में कमी :- निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए उन पर लगे करो में बहुत अधिक कमी कर देनी चाहिए ताकी विदेशियों के लिए निर्यात काफी सस्ता हो जाऐ।

(b) आर्थिक सहायता :- इसके अन्तर्गत साख की सुविधाओं का विस्तार तथा सब्सीडी आते है। निर्यात उद्योगों को संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए ताकी उसकी उत्पादन लागत कम से कम रह सके।

(c) अन्य उपाय :- निर्यात व्यापार में वृद्धि लाने के लिए देश के माल का विदेशों में प्रचार करना चाहिए। विदेशियों की रुचि के अनुसार माल का निर्माण करना चाहिए।

(3) विदेशी निवेश को प्रोत्साहन :- सरकार विदेशी निवेश कर्ताओं को देश के अन्दर निवेश करने के लिए विविध की रियायते और प्रोत्साहन दे सकती है। इससे विदेशी पूँजी का देश के अन्दर प्रवाह होगा और तत्काल भुगतान असंतुलन दूर हो जायेगा।

(4) सरकार की आर्थिक नीतियों में परिवर्तन :- सरकार आय-व्यय नीति, बजट नीति ; मौद्रिक नीति आदि में इस प्रकार परिवर्तन कर सकती है कि अपने कुल व्यय को अपनी कुल आय की सीमा में रख सके।

(5) विदेशी :- भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संस्थाओं से अथवा विदेशी सरकार से दीर्घकालीन ऋण लिया जा सकता है। चूंकि इन णों का भुगतान दीर्घकाल में किया जाता है इसलिए वर्तमान में भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को विदेशी मुद्रा की सहायता से दूर किया जा सकता है।

(6) विदेशी पर्यटको को प्रोत्साहन :- यदि देश में पर्याप्त संख्या में विदेशी पर्यटक आते है तो देश की विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है और कुछ सीमा तक प्रतिकूल भुगतान संतुलन को ठीक करने में सहायता मिलती है। अतः देश में कलात्मक एवं ऐतिहासिक स्थलो को विकसित किया जाना चाहिए।

 इस प्रकार भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता को दूर करने में अमौद्रिक उपाय अधिक उपर्युक्त मानी जाती है। अवमूल्यन को केवल असामान्य परिस्थिती में ही उपयोग में लाया जा सकता है। विकसीत देशों के दीर्घकालीन असंतुलन को दूर करने का एक मात्र उपाय विश्व में नये बाजारों की खोज कर निर्यात व्यापार में वृद्धि करना है।

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