मन्द
विकास के निरन्तरता (Continuation of Slow
Development)
द्वितीय
विश्वयुद्ध के बाद से ही विकसीत तथा विकासशील सभी देशों में आर्थिक क्रियाओं का एक
मात्र उद्देश्य था ऊँची आर्थिक वृद्धि की दर को प्राप्त करना । 1970 के दशक में
विकसीत देशों ने यह अनुभव किया कि आर्थिक वृद्धि की ऊंची दर को प्राप्त हुई है
किंतु पर्यावरण प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि में वृद्धि
हुई है। प्राकृतिक सौन्दर्य का कही क्षरण हुआ है तो कही विनाश, सामाजिक तनाव में
वृद्धि हुई है। अतः आर्थिक वृद्धि की ओर से ध्यान हटाकर मानवीय पर्यावरणीय मूल्यों
की ओर केन्द्रित किया जाने लगा है।
विकासशील
देशों ने अनुभव किया कि जहाँ आर्थिक वृद्धि की ऊँची दर प्राप्त की गई है वहीं
अधिक विषमता में वृद्धि हुई है। कुछ लोगों के पास धन और सम्पत्ति का केन्द्रीयकरण
हुआ है और
अधिकांश लोग निर्धन हुए है। विश्व स्तर पर जहाँ विकासशील देशों में विश्व के 70%
लोग निवास करते है। वहाँ समस्त विश्व के उत्पाद का केवल 20% ही उनके पास है। इस
प्रकार विकासशील देशों में आर्थिक वृद्धि की उच्च दर निर्धन और धनी देशों के बीच की खाई को
पाटने में असमर्थ रही है। फलतः विकासशील देशों में समस्त आर्थिक क्रियाओ का
उद्देश्य राष्ट्रीय
उत्पाद में तीव्र गति से वृद्धि को त्याग कर समानता और गरीबी उन्मूलन रखा गया।
पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब उल
हक ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "हमे निर्धनता की
देखभाल करनी चाहिए और निर्धनता स्वयं समग्र राष्ट्रीय उत्पाद की देखभाल कर लेगी।
निर्धनता
एक ऐसी दशा है जिसको राष्ट्रीय
सीमा में नहीं बाँधा जा सकता है। यह हर जगह चाहे वाशिंगटन हो या टोक्यो या दिल्ली,
सब जगह पायी जाती है। यह मुख्य रूप से तीन रूपों में पायी जाती है
(1)
सापेक्षिक निर्धनता :- सापेक्ष निर्धनता यह स्पष्ट
करती है कि किसी देश के विभिन्न आय वर्ग के बीच कितनी आर्थिक विषमता है तथा गिनी गुणांक
कितना है। गिनी गुणांक जितना ही कम होगा विषमता उतनी ही कम होती है। यदि गुणांक का
मूल्य शून्य है तो विषमता शून्य है। यदि गुणांक का मूल्य इकाई के बराबर है तो विषमता
सर्वाधिक है। विषमता का ज्ञान इसी बात से भी होता है। नीचे से 10-12% लोगों के पास राष्ट्रीय आय का कितना
हिस्सा है तथा ऊपर के 10-12% लोगों के पास राष्ट्रीय आय का कितना हिस्सा है। इस
तथ्य को सारणी द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। इस सारणी में आर्थिक विषमता सभी
देशों में है। यह विषमता समाजवादी देशो में कम है। जबकि पूँजीवादी देश अमेरीका में
सर्वाधिक है। अमेरिका में नीचे से 20% लोगों के पास राष्ट्रीय आय का केवल 4.8% है जबकि ऊपर
से 20% लोगों के पास लगभग 45.2% है। इसी प्रकार पाकिस्तान तथा भारत में भी सबसे
अधिक आर्थिक विषमता है। भारत में धन की विषमता पाकिस्तान तथा श्रीलंका की तुलना
में कम है। धन का वितरण जितना ही अधिक होता है। सापेक्षिक निर्धनता उतनी ही अधिक
होती है।
राष्ट्रीय आय का अंश प्रतिशत में
|
नीचे से 20% |
|
|
|
|
|
भारत |
9.2 |
13 |
16.8 |
21.7 |
39.3 |
25 |
श्रीलंका |
8.9 |
13.1 |
16.9 |
21.7 |
39.3 |
25.2 |
पाकिस्तान |
8.4 |
12.9 |
16.9 |
22.2 |
39.7 |
25.2 |
अमेरीका |
4.8 |
10.5 |
16 |
23.5 |
45.2 |
28.3 |
चीन |
5.5 |
9.8 |
14.9 |
22.3 |
47.5 |
30.9 |
इटली |
7.6 |
12.9 |
17.9 |
23.2 |
38.9 |
23.7 |
पोलैंड |
9.3 |
13.8 |
17.7 |
22.6 |
36.6 |
22.1 |
हंगरी |
9.7 |
13.9 |
16.9 |
4.4 |
38.1 |
24 |
मलेशिया |
4.6 |
8.3 |
13 |
20.4 |
83.7 |
37 |
विश्व बैंक की विकास रिपोर्ट 1998-99 में प्रदर्शित विभिन्न
देशो का गिनी गुणांक सारणी में दिया गया है।
प्रमुख देशों के गिनी गुणाक
देश |
वर्ष |
गिनी गुणांक |
भारत |
1997 |
29.7 |
श्रीलंका |
1990 |
30.1 |
पाकिस्तान |
1991 |
31.2 |
अमेरिका |
1994 |
40.1 |
जापान |
N.A |
N.A |
चीन |
1995 |
41.5 |
इटली |
1991 |
31.2 |
पोलैंड |
1992 |
42.9 |
हंगरी |
1993 |
27.9 |
मलेशिया |
1989 |
48.4 |
यद्यपि ये समंक पुराने है पर महत्वपूर्ण है। भारत सरकार के राष्ट्रीय प्रतिदर्श
सर्वेक्षण (NSS) द्वारा संकलित उपभोग व्यय पर गिनी गुणांक की गणना भारत की ग्रामीण
एवं शहरी क्षेत्रों के लिए किया है।
वर्ष |
ग्रामीण |
शहरी |
1960-61 |
0.32174 |
0.3777 |
1970-71 |
0.28313 |
0.32647 |
1983-84 |
0.29759 |
0.33027 |
1987-88 |
0.29826 |
0.35369 |
1988-89 |
0.29041 |
0.33760 |
1989-90 |
0.27825 |
0.35000 |
1990-91 |
0.27202 |
0.33054 |
1991-92 |
0.28726 |
0.36734 |
1993-94 |
0.28190 |
0.33940 |
सारणी से ज्ञात होता है कि 1960-61 में ग्रामीण क्षेत्र में
गिनी गुणांक 0.321 था जो घटकर 1993-94 में 0.281 हो गया। जबकि इसी अवधि में शहरी क्षेत्र
में गिनी गुणांक 0.347 से घटकर 0.339 हो गया। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्र की
तुलना में शहरी क्षेत्र में आय की विषमता में व्यय ध्यान हुआ है।
(2) निरपेक्ष निर्धनता :- सत्तर के दशक में अर्थशास्त्रियों का ध्यान निरपेक्ष निर्धनता की ओर आकृष्ट हुआ। कहा कि अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर कोई मापदण्ड निर्मित किया जाए जिससे यह मापदण्ड निर्मित किया जाए कि प्रत्येक
देश में निरपेक्ष निर्धनता की मात्रा कितनी है। प्रत्येक देश में प्रत्येक व्यक्ति
को भोजन, कपडा, सुरक्षा, चिकित्सा की न्यूनतम मात्रा चाहिए जिससे जीवन निर्वाह कर सके।
और वंश परम्परा
चलाने लायक बना रहे। अन्तराष्ट्रीय स्तर पर यह निर्धारित किया गया कि 1975 मूल्यों
पर 75 मूल्य एस डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष खर्च वाले व्यक्ति निर्धनता की रेखा
पर है। 75 डॉलर की क्रयशक्ति की अन्य देशों की मुद्राओं में बदल प्रत्येक देश में
निर्धनता की रेखा ज्ञात की जा सकती है। इस अध्य्यन से ज्ञात होता है कि 1975 के
निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या भारत में 46% बांग्लादेश में 60%, इंडोनेशिया में 62% है।
(3) मानवीय गरीब :- विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित मानव विकास रिपोर्ट 1997 के अनुसार गरीबी को आय गरीबी के रूप ले न मानवीय गरीबी के रूप में देखा जाना चाहिए। मानवीय गरीबी वह दशा है जिसमे व्यक्ति को एक सहनीय रहन-सहन के चुनाव एवं अवासों से वंचित कर दिया जाता है। यदि व्यक्ति प्रतिदिन 1 डॉलर से कम पर गुजर करने के लिए बाध्य है तो वह मानवीय जिन्दगी नहीं जी रहा है। विकासशील देशो में लगभग 1.3 मिलयन लोग प्रतिदिन 1 डालर से कम पर जीवन यापन कर रहे है। सबसे अधिक गरीब लोग दक्षिण पश्चिम सीमा में है। जिनकी संख्या लगभग 51.5 करोड़ है। विश्व बैंक द्वारा निर्धारित गरीबी के मानक के आधार पर विश्व विकास रिपोर्ट 1998-99 के अनुसार चीन, भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश के क्रमशः 8.4, 40.9, 34 और 42.7% लोग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे है।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)