जनसंख्या का प्राणीशास्त्रीय या जैविकीय सिद्धान्त (BIOLOGICAL THEORIES OF POPULATION)

जनसंख्या का प्राणीशास्त्रीय या जैविकीय सिद्धान्त (BIOLOGICAL THEORIES OF POPULATION)

जनसंख्या का प्राणीशास्त्रीय या जैविकीय सिद्धान्त (BIOLOGICAL THEORIES OF POPULATION)

प्रश्न :- जनसंख्या के जैविकीय सिद्धान्त का अर्थ लिखकर थामस डबलडे का आहार सिद्धान्त स्पष्ट कीजिए।

जनसंख्या के जैविकीय सिद्धान्त का अर्थ लिखकर रेमण्ड पर्ल एवं रीड का लॉजिस्टिक वक्र सिद्धान्त स्पष्ट कीजिए।

उत्तर :- जनसंख्या के प्राकृतिक सिद्धान्त के अन्तर्गत हम उन सभी विचारों का अध्ययन करते हैं जो मानव में प्रकृति-प्रदत्त गुणों से सम्बन्धित हैं। कुछ प्राकृतिक गुण एवं अन्य जीव तथा वनस्पतियों में समान हैं, तो जिस प्रकार का विवेचन इन वनस्पतियों तथा अन्य जीवों के लिये दिया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार का मानव के लिये भी दिया जा सकता है। मानव में भी अन्य जीवों की तरह भोजन, नींद, मैथुन, भय आदि प्रकृति-प्रदत्त विद्यमान है। इस प्रकार यदि विचार किया जाए तो माल्थस का सिद्धान्त भी एक प्राकृतिक सिद्धान्त है, जो कि जनसंख्या वृद्धि को खाद्यान की वृद्धि से सह-सम्बन्धित करता है। जहाँ जनसंख्या वृद्धि, कामेच्छा, जो कि मानवगत एक मूल प्रवृत्ति है, का प्रतिफल है वहीं खाद्यान्न की उत्पत्ति प्राकृतिक प्रक्रिया है। कामेच्छा नैसर्गिक गुण है अतः इससे सम्बन्धित सुख-दुख भी अवश्यम्भावी है। इस प्रकार माल्थस के विचारों के बाद कुछ अन्य विद्वानों ने भी अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया जो निम्न प्रकार है।

माइकेल थामस सैडलर का घनत्व एवं संतानोत्पादकता नियम

(Michael Thomas Sadler's Density and Fecundity Principle)

माइकल थामस सैडलर माल्थस के समकालीन ब्रिटिश समाज सुधारक तथा अर्थशास्त्री थे जिन्होंने माल्थस के ही समय में एक पुस्तक 'दी लॉ ऑफ पापुलेशन' लिखी थी। इन्होंने माल्थस की कटु आलोचना की और इसके विपरीत अपने जनसंख्या का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उन्होंने माल्थस को चोर तथा बेईमान व्यक्ति बताते हुए लिखा है कि इसने अपना जनसंख्या की 15-25 वर्ष में दुगुनी होने की प्रवृत्ति का सिद्धान्त टाउन-सेन्ड से लिया है। सैडलर के अनुसार "मानव की प्रजननता उसके घनत्व का प्रतिलोमानुपाती होती है।" सैडलर के सिद्धान्त के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं :-

(1) जनसंख्या घनत्व और उर्वरता में विपरीत सम्बन्ध (Inverse Relation Between Density of Population and Fertility) :- सैडलर का मत था कि मनुष्यों की जनसंख्या वृद्धि की दर जनसंख्या घनत्व में वृद्धि के साथ घटती है एवं मनुष्य को जहां पर अधिकतम आनन्द मिलेगा उस स्थिति में मनुष्य की वृद्धि दर शून्य हो जाएगी। इस प्रकार जनसंख्या वृद्धि तथा जनसंख्या घनत्व में प्रतिलोम अनुपाती सम्बन्ध होता है।

(2) मृत्यु दर या जन्म दर का प्रत्यक्ष सम्बन्ध (Direct Relationship Between Death Rate and Birth Rate) :- यदि मृत्यु दर अधिक होगी तो जन्म दर भी अधिक होगी, क्योंकि मृत्यु दर और जन्म दर का सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से जनसंख्या के घनत्व से है।

(3) आशावादी दृष्टिकोण (Optimistic Outlook) :- जनसंख्या के सम्बन्ध में सैडलर का दृष्टिकोण आशावादी है। वह माल्थस के ज्यामितीय अनुपात के सिद्धान्त का विरोध करता है और कहता है कि जैसे ही जनसंख्या बढ़ेगी उर्वरता दर कम हो जाएगी।

(4) उर्वरता दर एवं खाद्य सामग्री में प्रत्यक्ष सम्बन्ध (Direct Relationship Between Fertility Rate and Food Material) :- जैसे-जैसे उर्वरता दर में वृद्धि होगी, खाद्य सामग्री में भी वृद्धि होगी। उसने लिखा है कि जब मनुष्यों की उर्वरता दर में वृद्धि होगी, तो वे अपने लिए स्वयं ही खाद्य सामग्री पैदा कर लेंगे। इस प्रकार, वह मानता है कि जनसंख्या और खाद्य सामग्री में समान दर से वृद्धि होती है।

सैडलर के जनसंख्या घनत्व के सिद्धान्त की आलोचना (Criticisms of Sadler's Theory)

सैडलर माल्थस की भाँति निराशावादी तो न थे, किन्तु उन्होंने जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया, वह उनके विषय के प्रति ज्ञान की गहराई का द्योतक अवश्य है। सैडलर की भी आलोचकों ने बड़ी आलोचनाये की, जिनका उल्लेख नीचे किया जा रहा है-

(1) 'संतानोत्पादन शक्ति' तथा 'प्रजननता' शब्दों का समानार्थी शब्दों के रूप में प्रयोगः सैडलर ने 'संतानोत्पत्ति शक्ति' तथा 'प्रजननता' दोनों शब्दों का सही अर्थ नहीं समझा। संतानोत्पादन शक्ति से तात्पर्य संतानोत्पादन की शारीरिक क्षमता से है तथा 'प्रजननता' का अर्थ नहीं समझा। संतानोत्पादन शक्ति से तात्पर्य संतानोत्पादन की शारीरिक क्षमता से है तथा 'प्रजननता' का अर्थ वास्तविक पुनरूत्पादन से है।

(2) वास्तविक जगत में सत्य सिद्ध नहीं: यह सिद्धान्त वास्तविक जगत में सही सिद्ध नहीं हुआ है। विश्व व के के अनेक भागों में जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है, किंतु उन भागों की जन्म दर में कोई कमी नहीं है। भारत, चीन, जापान आदि अनेक देशों में जनसंख्या घनत्व अधिक है, किंतु इसके साथ ही साथ उर्वरता भी अधिक है।

(3) विरोधाभासः- सैडलर ने यह कहा है कि जैसे-जैसे जनसंख्या का घनत्व बढ़ता जाता है वैसे- वैसे उर्वरता क्षमता घटने से जन्म दर घट जाती है और मृत्यु दर बढ़ जाती है। वहीं दूसरी तरफ यह भी कहा है कि जहाँ मृत्यु दर अधिक होगी वहाँ जन्म दर बढ़ जाएगी।

थामस डबलडे का आहार सिद्धान्त (Diet Theory of Thomas Doubleday)

थामस डबलडे (1790-1870) एक अंग्रेज अर्थशास्त्री एवं दार्शनिक थे। इनका जनसंख्या को निर्धारित करने का प्राकृतिक नियम था। इनके अनुसार "जनसंख्या वृद्धि और खाद्यपूर्ति में विलोमानुपात पाया जाता है।" अपने सिद्धान्त को और अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि जितनी ही समुचित मात्रा में खाद्यपूर्ति उपलब्ध होगी, उतनी ही मंद गति से जनसंख्या में वृद्धि होगी। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि अधिक भोजन की मात्रा संतानोत्पादन को कम करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सैडलर ने जहां प्रजनन शक्ति में कमी के लिए जनसंख्या घनत्व में वृद्धि को उत्तरदायी ठहराया, वहीं डबलडे ने खाद्यपूर्ति को। इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-

(1) बाहुल्य व अभाव की स्थितिः डबलडे ने दो प्रकार की अवस्थाओं का वर्णन प्रस्तुत किया है। प्रथम : बाहुल्य की अवस्था, इसमें खाद्य सामग्री पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहती है। यह समृद्ध समाजों की विशेषता है। द्वितीय : अभाव की अवस्था, यह अर्द्धविकसित और पिछड़े देशों में पाई जाती है, जहाँ पर्याप्त मात्रा में जनसंख्या को भोजन उपलब्ध नहीं होता है। इन देशों में जन्म दर में वृद्धि पाई जाती है।

(2) खाद्यपूर्ति से पृथक् सम्बन्धः सामान्यतः जनसंख्या का पृथक् सम्बन्ध खाद्यपूर्ति से माना जाता है। यही खाद्यपूर्ति जनसंख्या की उर्वरता दर को निश्चित करती है।

(3) शरीर के आकार का सम्बन्ध संतानोत्पादक शक्ति सेः डबलडे ने संतानोत्पादन शक्ति का सम्बन्ध शरीर के आकार से भी स्थापित किया है। उनके अनुसार, सभी जीव तथा पशुओं की प्रजनन क्षमता उनके शरीर के आकार अर्थात् मोटेपन तथा दुबलेपन पर निर्भर करती है।

(4) वितरण में समानताः- डबलडे के निष्कर्ष के अनुसार वितरण में समानता आ जाएगी। उनके शब्दों में, "धनी व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को भावी पीढ़ियों को अधिक समय तक हस्तांतरित नहीं कर पाएंगे... भविष्य में निर्धन व्यक्तियों की संतानों को धनी व्यक्तियों की सम्पत्ति प्राप्त हो जाएगी तथा तब पुनः समय के बदलते इनकी संतानें नहीं होंगी और उत्तराधिकारियों के अभाव में ऐसे व्यक्तियों की सतानों को धन प्राप्त हो जाएगा जो अभी तक धनी नहीं है, इस प्रकार असमानता के मध्य पृथक समानता आ जाएगी, जिसका समस्त प्रबुद्ध वर्ग स्वागत करेंगे।"

इस प्रकार डबलडे ने माल्थस के निराशावाद के विपरीत अपने सिद्धान्त में स्पष्ट कर दिया है कि खाद्यान पूर्ति की वृद्धि के साथ प्रजननता घट जाती है, फलस्वरूप खाद्यात्र की पूर्ति और जनसंख्या में असंतुलन की स्थिति नहीं आने पाती।

(5) आहार का प्रकार और संतानोत्पादक शक्तियाँ: डबलडे ने आहार के प्रकार का भी सम्बन्ध संतानोत्पादक शक्ति से स्थापित किया है जो भी व्यक्ति मांसाहारी हैं उनकी प्रजनन शक्ति भी कम होती है, तथा चारागाही अवस्था में कम जनसंख्या के बसने का यही मुख्य कारण है। जो व्यक्ति शाकाहारी भोजन करते हैं, उनकी प्रजनन शक्ति बहुत अधिक होती है। इसी प्रकार अधिक चावल खाने वाले क्षेत्र में प्रजननता अधिक होती है।

डबलडे के सिद्धान्त की आलोचनाएँ (Criticisms of Doubleday's Theory)

इस सिद्धान्त की कुछ प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैः-

(1) जनांकिकी अवधारणा के आधार पर डबलडे समाजवाद की स्थापना के सम्बन्ध में जिस निष्कर्ष पर पहुँचे है, वह अत्यंत हास्यास्पद है। यह तो डबलडे के आशावाद की पराकाष्ठा है कि जनांकिकी प्रवृत्तियों के माध्यम से स्वयं अन्ततः अति सुंदर समाजवाद स्थापित हो जाएगा।

(2) डबलडे ने संतानोत्पादक शक्ति और वास्तविक प्रजननता को एक ही समझने की भूल की है।

(3) डबलडे के सिद्धान्त से तो यही प्रतीत होता है कि भविष्य में मानव जाति समाप्त हो जाएगी, क्योंकि उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि रिक्तिता की स्थिति में जनसंख्या आहार की कमी के कारण खत्म हो जाएगी तथा बहुलता की स्थिति में जनसंख्या प्रजनन क्षमता के कम होने से धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी।

रेमण्ड पर्ल एवं रीड का लॉजिस्टिक वक्र सिद्धान्त

(Raymond Pearl and J. Reed's Logistic Curve Theory)

जनसंख्या वृद्धि के अध्ययन में गणितीय सिद्धांत के निर्माण के सर्वप्रथम क्यूटेलेट (1835) का नाम लिया जाता है। क्यूटेलेट (Quetelet) के अनुसार जनसंख्या की रुकावटों का विरोध करने पर जनसंख्या वृद्धि दर अधिक तीव्र हो जाती है। अपरिवर्तनीय सामाजिक अवस्थाओं के फलस्वरूप जनसंख्या की वृद्धि दर धीमी रहती है। क्यूटेलेट के इस सुझाव का अध्ययन पाश्चात्य विद्वान बारहुस्ट ने सन् 1838 में किया और यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि जनसंख्या वृद्धि के लिए क्रमबद्ध सैद्धांतिक वक्र रेखा उपयुक्त होगी, जिसका उन्होंने वृद्धिघात नाम दिया। इसी वक्र का उपयोग उन्होंने बेल्जियम की जनसंख्या का अनुमान लगाने में किया। उन्होंने लिखा कि जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ती हैं, उसी अनुपात में जनसंख्या वृद्धि पर लगने वाले अवरोध भी बढ़ते है। आँकड़े के अभाव के कारण इस सिद्धांत का अधिक समय तक प्रयोग न हो सका। शनैः शनैः: 1920 ई. तक बारहुस्ट के कार्य को भुला दिया गया।

सन् 1920 में पर्ल तथा रीड ने वृद्धिघात सिद्धांत को नवीन रूप से प्रतिपादित किया, जिसका पिछले सिद्धांत से कोई संबंध नहीं था।

उन्होंने अमरीका में जनसंख्या वृद्धि के समंकों का अध्ययन कर एक गणितीय समीकरण दिया तथा एकत्रित समंकों को समय के साथ ग्राफ पर अंकित करने पर लॉजिस्टिक कर्व (Logistic Curve) प्राप्त किया। उनका विचार था कि जनसंख्या में चक्रीय प्रवृति से वृद्धि होती है। उन्हीं के शब्दों में, "किसी क्षेत्र विशेष में किसी निश्चित अवधि में जनसंख्या निम्नतम सीमा से उस उच्चतम सीमा की ओर बढ़ती है, जिसे सांस्कृतिक स्थितियों एवं उत्पादन की रीतियों को दृष्टिगत रखते हुए वह जनसंख्या सहन कर सकती है।" जनसंख्या की यह वृद्धि चक्रों में होती है। चक्र के प्रारंभ में जनसंख्या की वृद्धि धीरे-धीरे होती है। किन्तु जनसंख्या वृद्धि की निरपेक्ष दर प्रति समय इकाई के साथ चक्र में मध्य बिन्दु तक उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। इस बिन्दु के बाद जनसंख्या वृद्धि की दर समय की प्रति इकाई के साथ चक्र की समाप्ति तक शनैः शनैः घटती जाती है। यदि इस प्रवृत्ति को चित्र के रूप में व्यक्त किया जाये तो लॉजिस्टिक वक्र की आकृति बन जाती है।

सिद्धान्त की मान्यतायें (Logistic Curve Theories Assumptions):-

यह सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधरित है-

1. भौतिक परिवेश यथास्थिर रहता है।

2. किसी विशिष्ट समय (X) की जनसंख्या (N) निम्नतम अनंत स्पर्शीय (Asymptotic) सीमा से उच्चतम अनंत स्पर्शीय सीमा (K) तक बढ़ती है। यह उच्चतम अनंत स्पर्शीय सीमा वह सीमा है, जिसका निर्धारण अपेक्षित पर्यावरण द्वारा होता है, जो प्रचलित सांस्कृतिक दशाओं तथा उत्पादन की विधियों द्वारा होता है।

3. जनसंख्या वृद्धि की आनुपातिक दर र तेजी के साथ घटती है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व में वृद्धि इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करती है।

इस प्रकार प्रति वर्ष अथवा निश्चित समयावधि में कुल जनसंख्या वृद्धि (Absolute Population Increase) को ग्राफ पर अंकित करने से घंटी के आकार का समरूप वक्र प्राप्त हो जायेगा, जो उस शीर्ष बिन्दु तक बढ़ती है जहाँ N = होती है, अर्थात् वास्तविक जनसंख्या अधिकतम सम्भाव्य जनसंख्या की आधी होती है तथा फिर नीचे शून्य की ओर मुड़ जाती है। इस प्रकार जनसंख्या 'S' आकार के वक्र का अनुकरण उस समय करती है, जबकि वह निम्नतम बिन्दु से अधिकतम बिन्दु 'K' तक पहुँचती है।

सिद्धान्त का स्पष्टीकरण (Explanation of the Theory):-

इस सिद्धान्त का निर्माण उन प्रयोगों के आधार पर किया गया है जो पर्ल ने 'फल की मक्खियों' (Fruit- Fly) पर किये थे। पर्ल के अनुसार इन मक्खियों की संख्या में आंरभ में तीव्रता से वृद्धि होती है, फिर वृद्धि की गति मंद पड़ जाती है। उसके बाद वह धीरे-धीरे घटती है और अंत में तीव्रता के साथ घटती है और स्थिर हो जाती है, जहाँ से फिर इसमें वृद्धि होने लगती है। विशेषता यह है कि घटने के पश्चात् भी मक्खियों की संख्या उस स्तर से अधिक रहती है, जहाँ से इसने बढ़ना आरंभ किया था। पर्ल का मत था कि जो नियम फल-मक्खियों पर लागू होता है, वह मनुष्यों के बारे में भी सत्य है।

प्रो. पर्ल ने बताया कि जनसंख्या सदैव तीव्र गति से नहीं बढ़ती है, बल्कि जनसंख्या पहले तेजी के साथ बढ़ती है, फिर बढ़ने की गति धीमी हो जाती है, उसके पश्चात् वह धीरे-धीरे घटने लगती है और अंत में तेजी के साथ घटती है (घटने के कारण जनसंख्या कुछ कम अवश्य हो जाती है, परंतु घटने के पश्चात् भी वह उस बिन्दु से ऊँची ही रहती है, जिससे इसने आरंभ में बढ़ना शुरू किया था) एक निम्नतम बिन्दु पर पहुँचने के पश्चात् जनसंख्या फिर बढ़ने लगती है- पहले तेजी के साथ, फिर धीरे-धीरे और फिर घटने लगती है और यह क्रम बराबर चलता रहता है। कुल मिलाकर जनसंख्या की प्रवृत्ति बढ़ने की ही रहती है।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण (Diagrammatic Representation)

जनसंख्या का प्राणीशास्त्रीय या जैविकीय सिद्धान्त (BIOLOGICAL THEORIES OF POPULATION)

इस सिद्धांत को 'S' आकृति के चित्र की सहायता से भी समझाया जा सकता है-

(i) प्रारंभ में जनसंख्या A बिन्दु से बढ़ना प्रारम्भ करती है और प्रति वर्ष बढ़ती दर में बढ़ती है।

(ii) A से B तक धनात्मक ढाल इस बात का द्योतक है कि प्रतिवर्ष जनसंख्या में वृद्धि बढ़ती दर में होती है, फिर B से C तक जनसंख्या में वास्तविक वृद्धि नहीं होती।

आर्थिक विवेचन की दृष्टि से हम इस प्रकार कह सकते हैं कि जनसंख्या वृद्धि वक्र का निचला भाग ज्यामितीय-गति (Geo- metrical Progression) से जनसंख्या वृद्धि को दर्शाता है, - परंतु वक्र का ऊपरी भाग यह दिखलाता है कि जनसंख्या की वृद्धि की दर काफी घट गयी है। इसका कारण यह हो सकता है कि किसी देश के विकास के प्रारंभिक चरणों में, किसी प्रकार का रोक या प्रतिबंध न होने के कारण जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती है, परंतु जैसे-जैसे देश का विकास होता जाता है, 'प्रतिबंध' दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जिस कारण जनसंख्या की वृद्धि दर घट जाती है। यह स्थिति अमरीका, इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा अन्य यूरोपीय देशों में पायी जाती है। जनसंख्या के जैविकीय सिद्धांत का प्रमुख निष्कर्ष हम इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं, "जनसंख्या घटती-बढ़ती है, ऊपर-नीचे जाती है, तेजी के साथ बढ़ती है अथवा नीचे गिरती है, परंतु अंततोगत्वा इसमें वृद्धि ही होती है।"

सिद्धान्त के गुण (Merits of the Theory):-

यह सिद्धांत जनसंख्या के विकास के स्वरूप पर प्रकाश डालता है। यह सिद्धांत बताता है कि जनसंख्या घटती-बढ़ती है, परंतु इसकी केन्द्रीय अथवा अंतिम प्रवृत्ति निरंतर बढ़ते रहने की ही होती है। इस दृष्टि से यह माल्थस के सिद्धांत का समर्थन करती है, क्योंकि माल्थस के अनुसार भी जनसंख्या की प्रवृत्ति बढ़ने की होती है। परंतु एक अन्य दृष्टि से यह सिद्धांत माल्थस के सिद्धांत को खंडित करता है और माल्थस के सिद्धांत से श्रेष्ठ लगता है।

यह तथ्य निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट हो जाएगा-

1. माल्थस के सिद्धांत के अनुसार जनसंख्या सदैव बढ़ती रहती है, परंतु इस सिद्धांत का कहना है कि प्रारंभ में जनसंख्या बढ़ती है, तत्पश्चात् स्थिर रहती है या गिरने लगती है।

2. माल्थस का कहना था कि सभ्यता के विकास तथा आर्थिक संपन्नता के साथ जनसंख्या बढ़ती है, परंतु इस सिद्धांत के अनुसार जब देश सभ्यता के उच्च स्तर पर पहुँच जाता है, तो जनसंख्या या तो स्थिर हो जाती है अथवा गिरने लगती है। इस दृष्टि से यह मानव के भविष्य के संबंध में आशावादी है।

सिद्धांत की आलोचनाएँ (CRITICISMS OF THE THEORY)

1. यह सिद्धांत एकांगी है, क्योंकि इसमें केवल जैविकीय पक्ष पर जोर दिया गया है, जबकि जनसंख्या के एक पूर्ण सिद्धांत के लिए अन्य पक्षों, जैसे- धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक पक्षों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

2. इसी प्रकार यह सिद्धांत मनुष्य के विचार, स्वभाव, चरित्र इत्यादि पर, वातावरण के परिवर्तन के कारण पड़ने वाले प्रभाव पर ध्यान नहीं देता है।

3. यह आवश्यक नहीं है कि जो नियम जीवों पर लागू होते हैं, वे व्यक्तियों के बारे में भी ठीक हों।

4. यह सिद्धांत एक प्रकार से माल्थस के जनसख्या सिद्धांत की पुष्टि करता है।

निष्कर्ष - उपर्युक्त आलोचनाओं के होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि संसार में जनसंख्या की वृद्धि इस सिद्धांत की पुष्टि करती है। सन् 1750 से अब तक सारे संसार की जनसंख्या की वृद्धि का अध्ययन यह स्पष्ट कर देता है कि यद्यपि किसी काल में जनसंख्या अधिक तेजी के साथ बढ़ी है और किसी काल में कम तेजी के साथ, परंतु कुल मिलाकर संसार की जनसंख्या निरंतर बढ़ती ही गयी है। ऐसा कहा जा सकता है कि इस समय संसार जनसंख्या में तीव्र वृद्धि की अवस्था से गुजर रहा है, और यह अवस्था लगभग 2000 ई. के आस-पास समाप्त हो जाएगी। इसके उपरांत जनसंख्या की वृद्धि दर काफी घट जाएगी।

गिनी का जैविक या प्राणिशास्त्रीय अवस्था नियम

(Ginni's Principle of Biological Stages)

कोराडो गिनी, जो कि इटली के समाजशास्त्री थे, ने किसी समाज या देश के उद्भव पर जनसंख्या परिवर्तन के प्रभाव को अपने अध्ययन का विषय माना इनका विचार है कि किसी देश या समाज की उत्पत्ति उनकी जनसंख्या विकास या समाज के विभिन्न वर्गों के विकास से प्रभावित होता है। है। इनका सिद्धान्त प्राकृतिक नियमों का सिद्धान्त है, क्योंकि इन्होंने जनसंख्या विकास को एक सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन न समझते हुए प्राणिशास्त्रीय गुणों में बदलाव माना है। इनके मतानुसार किसी भी देश की जनसंख्या के प्राणिशास्त्रीय गुणों में परिवर्तन उस देश के अन्य वर्गों की तीव्रतर वृद्धि के माध्यम से प्रभावित होता है। इस प्रकार का निष्कर्ष उन्होंने विभिन्न देशों के विषय में एकत्रित समंकों के आधार पर दिया, जिसके आधार पर उन्होंने बताया कि देश की एक जातीय छोटी सी जनसंख्या आने वाली पीढ़ियों में अधिक हो जाती है। उन्होंने किसी राष्ट्र की वृद्धि प्रक्रिया के उतार-चढ़ाव का चक्र माना है।

सिद्धान्त की विशेषताएँ (Features of the Theory)

इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:-

(1) चक्रीय परिवर्तनः गिनी का मत है कि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि व कमी जीवन की भाँति चक्रीय प्रवृत्ति रखती है। प्रारंभ में जनसंख्या तेजी से बढ़ती है, फिर वृद्धि की गति मंद पड़ जाती है और एक स्तर के बाद घटनी प्रारंभ होकर एकदम घट जाती है, क्योंकि पुनरूत्पादन शक्ति क्षीण होने लगती है।

(2) विकास की अवस्थाः गिनी के मतानुसार किसी राष्ट्र के विकास में सर्वप्रथम तीव्र विकास का काल आता है, उसके बाद धीमे विकास का। तत्पश्चात् परिपक्वता की अवस्था और अन्त में नष्ट काल जिसके अंतर्गत जनसंख्या घट जाती है।

(3) जैविकीय या प्राणिशास्त्रीय आधारः गिनी का विश्वास था कि यद्यपि जनसंख्या की कमी के अनेक कारण है, जैसे- प्राणिशास्त्रीय, आर्थिक तथा सामाजिक, पर इन सबमें प्रमुख कारण प्राणिशास्त्रीय ही है। इस प्रकार इनका सिद्धान्त प्राणिशास्त्रीय आधारों पर ही आधारित है।

(4) संचयी प्रवृत्तिः- जब पुनरूत्पादन शक्ति उच्च वर्ग में क्षीण होना प्रारम्भ होती है तो धीरे- धीरे यह प्रायः सभी वर्गों में फैल जाती है। पुनरूत्पादन में होने वाले ह्यास के कारण व्यक्तियों के गुणों में भी ह्रास प्रारम्भ हो जाता है और इस प्रकार इन दोनों के ह्रास होने से वंशानुक्रमागत गुणों में भी बहुत कुछ जीव-शास्त्रीय परिवर्तन हो जाते हैं।

यद्यपि गिनी ने जैविकीय या प्राणिशास्त्रीय आधार पर जनसंख्या की वृद्धि और हास को चक्रीय आधार पर पेश करते हुए इसे सामाजिक और राष्ट्रीय विकास से सम्बद्ध किया है, पर यह सिद्धान्त भी अन्य जैविक व नैसर्गिक सिद्धान्तों की तरह ही दोषपूर्ण है। यदि संक्षेप में देखा जाए तो कह सकते हैं कि गिनी के सिद्धान्त की सबसे बड़ी कमी यही है कि उसने मनुष्य का जन्म, जीवन, मरण तथा गुणात्मक विकास आदि सभी को जैविक तथ्यों पर आधारित कर दिया है। उपर्युक्त आलोचनाओं के होते हुए भी गिनी ने विभिन्न देशों का विभाजन जैविकीय आयु के अनुसार किया, जो उसकी स्वयं की ही सूझबूझ थी। इस दृष्टि से उसका योगदान मौलिक तथा महत्वपूर्ण है।

हरबर्ट स्पैन्सर का प्रजनन फलन विश्लेषण

(Herbert Spencer's Analysis of Fertility Function)

हरबर्ट स्पैन्सर (1820-1903) इंग्लैंड के महान दार्शनिक एवं समाज वैज्ञानिक थे। समाजविज्ञान के क्षेत्र में उसे एक उद्विकासी कहा जाता है। स्पैन्सर ने प्राणी शास्त्र से सम्बन्धित निम्न प्रकार से तथ्य प्रस्तुत किए।

(1) व्यक्तिकरण एवं प्रजननशीलता या संतानोत्पादक शक्तिः स्पैंसर की मान्यता थी कि जैसे- जैसे समाज में व्यक्तिकरण होता जाएगा, उसी अनुपात में प्रजननता में कमी आती जाएगी। व्यक्तिकरण का अर्थ है समाज में ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध हों, जिनके माध्यम से व्यक्ति का अधिक से अधिक कल्याण हो अथवा व्यक्ति अपने हितों की अधिकाधिक मात्रा में संतुष्टि कर सकें। इस प्रक्रिया में व्यक्ति स्वयं अपनी सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक प्रगति हेतु अधिक समय एवं शक्ति लगाएगा तथा इन्हें प्राप्त करने की अभिलाषा में 'प्रजनन' की ओर उसका ध्यान कम होता जाएगा। परिणामस्वरूप जनसंख्या वृद्धि में कमी आएगी।

(2) प्राणी के आकार व उर्वरता दर में संबंधः- स्पैसर ने प्रजनन दर को प्राणी के आकार से भौ सम्बन्धित माना है-

a) यदि जीव का आकार सूक्ष्म है, तो उसमें प्रजनन क्षमता अत्यधिक होती है और अधिक बच्चे पैदा करता है, क्योंकि इनमें बच्चों की उत्पत्ति नर-मादा के संभोग के आधार पर न होकर, शरीर में कोशिका विभाजन के आधार पर होती है।

b) यदि जीव का आकार स्थूल है, तो उसमें प्रजनन क्षमता कम होती है और बच्चे कम पैदा करता है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति प्रक्रिया भी जटिल होती है और समय भी ज्यादा लगता है।

(3) विकासवादी सिद्धान्तः- स्पैसर ने जनसंख्या सिद्धान्त को विकासवादी सिद्धान्त के माध्यम से भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है। स्पैसर ने जनसंख्या के सिद्धान्त में विकासवादी सिद्धान्त का सहाग लेते हुए कहा है कि समाज विकासशील है। इस विकास की मौलिक विशेषता यह है कि यह विकास 'सरलता से जटिलता' की ओर जाता है। जैसे-जैसे समाज विकसित होता जाता है, वैसे-वैसे जीवन भी कठोर होता जाता है और प्रजनन दर दिन-प्रतिदिन घटती जाती है।

(4) तीन वर्गों में व्यक्तियों का विभाजनः स्पैंसर ने मनुष्यों को तीन भागों में विभाजित किया है, यथा (i) सम्पन्न, (ii) निर्धन तथा (iii) मध्यम वर्गीय। इनके मतानुसार एक व्यक्ति जैसे जैसे आर्थिक सामाजिक दृष्टि से विकसित होता जाता है, वैसे वैसे उसके व्यक्तिगत विकास में भी तेजी होती जाती है तथा संतानोत्पादन शक्ति का ह्वास होता जाता है।

(5) जन्म दर में कमीः- स्पैसर का मत है कि यदि जन्म दर कम करना है, तो जीवनकाल को बढ़ाकर यह कार्य किया जा सकता है और इसके लिए व्यक्तिकरण अर्थात् व्यक्तिगत विकास पर अधिक ध्यान देना होगा।

(6) जीवन शैली तथा कार्य की प्रकृति और संतानोत्पादन शक्ति में सम्बन्धः स्पैसर ने जीवन शैली तथा कार्य की प्रकृति को संतानोत्पादन शक्ति से भी सम्बन्धित किया है। उनका मत है कि व्यक्ति मानसिक कार्यों में अधिक संलग्न रहते हैं एवं जिनका बौद्धिक विकास हो चुका है, विशेष रूप से महिलाओं में, उनकी संतानोत्पादन शक्ति का ह्रास हो जाता है।

(7) जनसंख्या वृद्धि हानिकारक नहीं: स्पैंसर जनसंख्या वृद्धि को बुरा या हानिकारक नहीं मानता। उनके मतानुसार जनसंख्या वृद्धि के कारण ही प्राकृतिक साधनों का अधिकाधिक प्रयोग हुआ है और सामाजिक- सांस्कृतिक तथा आर्थिक स्तर में वृद्धि तथा विकास हुआ। विश्व में महान क्रांतिकारी परिवर्तन इसी से हुए है।

स्पैन्सर के सिद्धान्त की जो आलोचनाएँ की जाती हैं, उसमें से कुछ प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं:-

(1) स्पैन्सर का जनसंख्या में वृद्धि और कमी को पूर्णतया प्राकृतिक और प्राणिशास्त्रीय तथ्य मानना भी सही नहीं है।

(2) स्पैन्सर द्वारा जनसंख्या वृद्धि के नियंत्रण का बताया गया उपाय भी निर्भर योग्य नहीं है।

(3) स्पैन्सर ने उर्वरता मापने के लिए तथ्यों का प्रयोग नहीं किया है। इस सम्बन्ध में केवल यही कहा जा सकता है कि संभवतः शिक्षा के प्रसार तथा व्यक्तिगत विकास से संतानोत्पादन शक्ति का ह्रास होता है।

(4) अभी तक आँकड़ों के आधार पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि बौद्धिक रूप से विकसित परिवारों की संतानोत्पादन शक्ति बौद्धिक रूप से अविकसित परिवारों से कम होती है।

(5) स्पैन्सर का यह कथन भी पूर्ण सत्य प्रमाणित नहीं होता कि जीवन में जटिलता में वृद्धि के साथ-साथ संतानोत्पादन शक्ति घट जाती है।

उपर्युक्त आलोचनाओं के होते हुए भी हम यह कह सकते हैं कि स्पैसर ने विकासवादी सिद्धान्त के आधार पर जनसंख्या में वृद्धि और ह्रास पर महत्वपूर्ण विचार दिए है।

जोज डी केस्ट्रो का प्रोटीन उपभोग सिद्धान्त

(Jouse De Castro's Theory of Protein Consumption)

जोज डी केस्ट्रो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'The Geography of Hunger' में स्पष्ट किया कि जन्म दर को प्रोटीन उपभोग की मात्रा से सम्बन्धित किया है तथा संतानोत्पादन क्षमता प्रोटीन के उपभोग की मात्रा और गुणवत्ता के अनुसार नियंत्रित होती है। केस्ट्रो के निष्कर्षों का आधार स्लोन्कर द्वारा चूहों पर किए गये प्रयोग है। स्लोन्कर के निम्नलिखित महत्वपूर्ण निष्कर्ष हैः-

(i) जब चुहियों को केवल 10% प्रोटीन वाला आहार दिया गया, तब उनके बच्चों का औसत 23.3 था।

(ii) जब चुहियों को केवल 18% प्रोटीन वाला आहार दिया गया, तब उनके बच्चों की संख्या का औसत 17.4 था।

केस्ट्रो का विचार है कि प्रोटीन से मोटापा बढ़ता है तथा आस्ट्रोजन निष्क्रिय हो जाता है, अतः संतानोत्पादकता कम हो जाती है। संक्षेप में जिनके भोजन में प्रोटीन में कमी होती है, उनका जिगर खराब होता है या ठीक से कार्य नहीं करता है, क्योंकि गर्भाशय द्वारा रक्तवाहिनी नाड़ियों में डाले गये आस्ट्रोजन के निष्क्रिय करने की जिगर की शक्ति कम हो जाती है। अतः ऐसी स्त्रियों की रक्तवाहिनी नाड़ियों में जो आस्ट्रोजन होते है, उनकी संख्या बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप प्रजननता बढ़ जाती है। अतः गरीब व्यक्तियों में उर्वरता या प्रजननता कम करने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि उनके भोजन में प्रोटीन की मात्रा में वृद्धि की जाए। केस्ट्रो के अनुसार जब जनता में भुखमरी का प्रकोप होगा तो सहवास बढ़ेगा जिससे जनसंख्या में वृद्धि होगी।

केस्ट्रों ने अपने सिद्धान्त के निष्कर्ष से यह कहा कि आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप लोग अधिक प्रोटीन युक्त भोजन प्राप्त कर सकेंगे, जिससे कि जन्म दर में गिरावट आएगी।

सिद्धान्त की आलोचनाएँ (Criticisms of the Theory)

डी० कैस्ट्रो के सिद्धान्त की विशेषताओं के बाद भी इसमें अनेक कमियाँ हैं जो निम्न प्रकार हैं:-

(1) केस्ट्रो के विचार की आलोचना करते हुए लैबिन्स्टीन (Harvey Leibenstein) का मत है कि यदि आर्थिक विकास की ओर पहले ही ध्यान दिया जाए, तो जन्म दर स्वयं ही कम हो जाएगी।

(2) केस्ट्रो का मत है कि आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप प्रजनन दर घट जाती है। किन्तु आर्थिक विकास के युग में अधिकांश देशों में प्रजनन दर में वृद्धि हो जाती है।

(3) केस्ट्रो के मतानुसार गरीबी का प्रमुख कारण सामाजिक व आर्थिक दशाएं है। केस्ट्रो के इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि गरीबी का कारण प्रकृति की कृपणता भी है।

(4) यदि केस्ट्रो की इस अवधारणा को स्वीकार भी कर लिया जाये कि संतानोत्पादन शक्ति आहार से सम्बन्धित है, तब भी इसका यह अर्थ नहीं है कि सम्पूर्ण प्रजननता का उपयोग किया ही जाए।

(5) वैज्ञानिक आधार पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि प्रोटीन लेने से संतानोत्पादकता घटती है।

कुजिन्सकी का जैविक सिद्धान्त शुद्ध पुनरूत्पादन दर का सिद्धान्त

(Kuczynsky's Biological Theory or Theory of Net Reproduction Rate)

कुजिन्सकी ने जनसंख्या के विकास के सम्बन्ध में विभिन्न अध्ययन किए तथा जनसंख्या के भविष्य में विकास अथवा ह्रास के विश्लेषण में अपने शुद्ध पुनरूत्पादन दर के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। कुजिन्सकी ने बताया है कि किसी देश में जनसंख्या की वृद्धि की दर जन्म दर और मृत्यु दर के अंतर पर निर्भर नहीं करती, बल्कि यह उन औरतों की संख्या पर निर्भर करती है, जो बच्चे उत्पन्न करने की आयु की हैं। अतः जनसंख्या के विकास की वास्तविक स्थिति को ज्ञात करने के लिए शुद्ध पुनरूत्पादन दर की रीति का प्रयोग किया जाता है। शुद्ध पुनरूत्पादन का तात्पर्य चालू उर्वरता एवं मरण दरों के आधार पर 1,000 नवजात कन्याओं द्वारा अपनी प्रजनन काल में उत्पन्न की जाने वाली बालिकाओं की संख्या से है। यह दर इस तथ्य का मापन करता है कि किस सीमा तक माताएँ उन कन्याओं को जन्म देती हैं, जो उन्हें (माताओं को) प्रतिस्थापित करने के लिए जीवित रहती हैं। इनके अनुसार जिस दर से स्त्री जाति अपने आपको प्रतिस्थापित करती है, वह शुद्ध पुनरूत्पादन दर कहलाती है। उदाहरण के लिए यदि 1,000 नवजात कन्याएं अपने प्रजनन की अवधि में (बच्चे उत्पन्न करने की आयु) में 4,500 शिशुओं को जन्म दें और इनमें से 50 प्रतिशत (4500×50100) या 2,250 कन्याएँ हों, जिनमें 70 प्रतिशत अपने पूरे प्रजनन काल तक जीवित रहें और उर्वरता दरों में कोई बदलाव न हो, तो शुद्ध पुनरूत्पादन दर निम्नलिखित प्रकार से होगीः-

शुद्ध पुनरूत्पादन दर =2250×70100= 1,575 प्रतिशत या 15.75 प्रति स्त्री।

सिद्धान्त का मूल्यांकन (Evaluation of the Theory)

कुजिन्सकी का जैविक सिद्धान्त अपना विशेष महत्व रखता है।

(1) यह सिद्धान्त 'उत्पादन शक्ति' तथा 'प्रजनन उर्वरता' के सिद्धान्त में अन्तर स्पष्ट करता है। मनुष्य में 'सन्तान उत्पादक शक्ति' बहुत अधिक होती है, परन्तु व्यावहारिक जीवन में इस शक्ति में लड़कियों की मृत्यु, वैधव्य और गर्भ निरोध के साधनों के प्रयोग इत्यादि के कारण बहुत कमी हो जाती है। अतः प्रजनन उर्वरता कम रहती है।

(2) कई यूरोपीय देशों की शुद्ध पुनरूत्पादन दर एक से कम है, जो माल्थस के इस कथन का खंडन करती है कि जनसंख्या सदैव बढ़ती रहती है।

(3) यह सिद्धान्त जनसंख्या वृद्धि की माप की दृष्टि से विवेकपूर्ण दृष्टिकोण को अपनाता है, किन्तु इसे जनसंख्या का एक पूर्ण सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में, यह जनसंख्या के विकास को मापने की विधि बताता है, किन्तु अन्य पक्षों के सम्बन्ध में मौन है।

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