जनसंख्या का आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सिद्धान्त (ECONOMICAL, SOCIAL AND CULTURAL THEORIES OF POPULATION)

जनसंख्या का आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सिद्धान्त (ECONOMICAL, SOCIAL AND CULTURAL THEORIES OF POPULATION)

जनसंख्या का आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सिद्धान्त (ECONOMICAL, SOCIAL AND CULTURAL THEORIES OF POPULATION)

प्रश्न :- जनसंख्या का आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सिद्धान्त का अर्थ बताकर उसका स्पष्टीकरण कीजिए।

हेनरी जार्ज का सामाजिक कुं-समायोजन सिद्धान्त व फ्रान्सिस्को एस० निटी के व्यक्तित्व के सिद्धान्त में अंतर स्पष्ट कीजिए।

जनसंख्या के सामाजिक - सांस्कृतिक तथा आर्थिक सिद्धान्त व्यावहारिक दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इन सिद्धान्तों में जनसंख्या की वृद्धि की विवेचना सामाजिक सांस्कृतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों एवं घटनाओं के संदर्भ में की गयी है। इन सिद्धान्तों में इन्हीं परिस्थितियों को जनसंख्या वृद्धि के लिए उत्तरदायी ठहराया गया है। इन सिद्धान्तों को जनसंख्या के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के नाम से भी सम्बोधित किया जा सकता है। जनसंख्या के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक सिद्धान्त निम्न प्रकार है।

(1) ड्यूमो का सामाजिक कोशिकत्व का सिद्धान्त (Dumont's Theory of Social Capillarity)

प्रो० ड्यूमों (1849-1902) ने फ्राँस में 19 वीं शताब्दी के अन्त में जनसंख्या विकास सम्बन्धी अध्ययन किया जिसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने जनसंख्या वृद्धि का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जो कि व्यक्ति विशेष की समाज में प्रतिष्ठा पाने की लालसा से सम्बन्ध रखती है। इन्होंने अपने जनसंख्या के सिद्धान्त को इन्होंने भौतिक कोशिकत्व की भाँति सामाजिक कोशिकत्व के नाम से पुकारा जिसका अर्थ है सामाजिक आकर्षण या प्रत्याकर्षण। इनका कथन है कि जिस प्रकार किसी तरल पदार्थ को ऊपर चढ़ने के लिए नली या कोशिका का पतले से पतला होना जरूरी है, उसी प्रकार से किसी समाज से किसी परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल करने के लिये उसका छोटे से छोटा होना आवश्यक है। जिस प्रकार किसी तरल पदार्थ तथा नलिका के पतले से पतले होने पर ही उसकी ऊँचाई ज्यादा से ज्यादा हो सकती है, उसी प्रकार समाज में किसी परिवार को प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए उस परिवार का पतला होना आवश्यक है। उनका विश्वास था कि निम्न वर्ग से उच्च वर्ग के इस विकास के क्रम में जन्म-दर में कमी होने लगती है और फिर उनका कहना है कि - "किसी देश में जनसंख्या वृद्धि 'मनुष्य के विकास' का प्रतिलोमानुपाती होता है। अर्थात् यह कहना सही होगा कि जनसंख्या उतनी ही कम होगी जितनी कि उस देश के व्यक्तियों का विकास होता जायेगा।"

इसी सन्दर्भ में फ्राँस में यह अधिक प्रमाण में देखा गया और जन्म-दर में अत्यधिक ह्रास देखा गया। बड़े शहरों एवं विकसित राष्ट्रों में इसीलिए अधिकतम कोशिकत्व का सिद्धान्त देखा जाता है और यहाँ जन्म-दर निम्नतम हो जाती है। इन स्थानों पर धन की अधिकता के साथ-साथ ऊँचे उठने की चाह भी अत्यधिक प्रमाण में पाई जाती है। शहरों में धन, है, आरामदायक जिन्दगी की चाह है, आगे बढ़ने के सम्बन्ध में ज्ञान मौजूद है तथा व्यक्तियों का चिन्तन व आचरण विवेकपूर्ण होता है। इन शहरों में जनतन्त्र का होना, मध्यम श्रेणी के बढ़ने की लगन, उन्नति की प्रबल चाह व रहन-सहन की अधिक लागत आदि के कारण जन्म-दर कम होती जाती है। इसके विपरीत गाँवों में जन्म-दर अधिक होने का कारण जातिवाद, पुराने रूढ़िवादी विचार, अज्ञानता गरीबी की अधिकता है। ड्यूमों का मत है कि गरीबों की जन्म-दर अधिक होने का कारण उनमें अज्ञानता होना तथा उन्नति की चाह की कमी है।

ड्यूमों का मत है कि समाजवादी देशों में जन्म-दर अधिक होगी। इसका कारण यह है कि यहीं सामाजिक कोशिकत्व का अभाव पाया जाता है। इसका कारण यह है कि यहाँ पर किसी व्यक्ति को विशेष उन्नति करने का अवसर ही नहीं दिया जाता है, सबको एक समान अवसर प्रदान किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन राष्ट्रों में पूर्ण रोजगार की व्यवस्था के कारण भी लोग जनसंख्या के सीमित रखने के विचार से परे रहते है, इसीलिये भारत जैसे देश में यह सिद्धान्त अक्रियाशील रहा है।

ड्यूमों का मत था कि माल्थस के सिद्धान्त में कोई सत्यता का अंश नहीं है, जैसा कि फाँस के अर्थशास्त्री जोसेफ गैरिनर के अध्ययन से परिलक्षित होता है। उनहोंने माल्थस के ज्यामितिक अनुपात को दोषपूर्ण सिद्ध कर दिया था। उनके मतानुसार मनुष्य की आय व धन के विकास के साथ-साथ उसके बच्चों की संख्या नहीं बढ़ती बल्कि उसको सामाजिक स्तर व अपने स्वाभिमान बढ़ाने का अवसर मिलता है। वास्तव में ड्यूमों ने (1) जनसंख्या के माल्थस के सिद्धान्त, (2) क्विलार्ड के सिद्धान्त, तथा (3) कोशिकत्व के ही सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की है। इन्होंने माल्थस के सिद्धान्त को उस अर्थ-व्यवस्था में लागू होने वाले बताया जहाँ का रहन-सहन का स्तर अत्यधिक निम्न हुआ हो अर्थात् जहाँ के लोग असभ्य हैं और पशुओं सा जीवन व्यतीत करते है।

ड्यूमों के सिद्धान्त की आलोचनाएँ (Criticisms of the Dumont's Theory):

ड्यूमों के सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनाएँ की जाती है।

(i) शहरों में जन्म दरः ड्यूमों का यह मत भी कि शहर की जन्म दर गाँव से कम मात्रा में होती है, सार्वभौमिक रूप से मान्य नहीं किया जा सकता। यदि हम भारतीय औद्योगीकरण शहरों पर दृष्टिपात करें तो यह कहना गलत न होगा कि यदि यहाँ श्रमिक जो गाँव से आये है, अपनी पत्नी के साथ शहरों में रहे, तो यहाँ की जन्म दर शायद गाँव से कम न होगी।

(ii) एकपक्षीय दृष्टिकोण:- ड्यूमों का दृष्टिकोण एकपक्षीय है, क्योंकि उनके मतानुसार उर्वरता दर को प्रभावित करने वाला एक मात्र निर्धारक 'समाज में ऊपर उठने की चाह' है। परन्तु वास्तव में उर्वरता दर इससे भी कहीं ज्यादा घटकों से प्रभावित या निश्चित होती है।

(iii) समाज में ऊपर उठनाः ड्यूमों के अनुसार, "बच्चों रूपी सामान का बोझ लेकर कोई व्यक्ति समाज की उन्नति की सीढ़ी में ऊपर नहीं चढ़ सकता।" परन्तु समाज में ऊपर उठना मात्र बच्चों पर ही निर्भर नहीं करता, बल्कि देश की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनैतिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है।

(2) हेनरी जार्ज का सामाजिक कु. समायोजन सिद्धान्त

(Henry George's Social Mal-adjustment Theory)

हेनरी जार्ज (1839-1897), जो कि अमेरिकन अर्थशास्त्री तथा समाज सुधारक थे, ने एक कर की प्रथा का वर्णन किया। उनके मतानुसार यदि किसानों से "लगान" लिया जाता है तो फिर किसी अन्य प्रकार के करों की कोई आवश्यकता नहीं। इनके मतानुसार यदि जमींदारी प्रथा समाप्त कर दी जाये और जमीन पर सभी लोग खेती करें तो अधिक खाद्यान्न की उत्पत्ति पहले से अधिक मात्रा में हो सकती है, जिससे किसी भी राष्ट्र की जनसंख्या वृद्धि की समस्या ही समाप्त हो सकती है। इस प्रकार से हेनरी जार्ज ने, माल्थस के बाद अन्य यूरोपियन समाज सुधारकों की भाँति, जनाधिक्य की समस्या के निदानार्थ सामाजिक सुधार को माना और उनका विश्वास था कि किसी न किसी प्रकार से भूमि की उत्पादन शक्ति एवं मानव की उत्पादन शक्ति में परिवर्तन को कम किया जा सकता है।

यद्यपि जार्ज के सिद्धान्त को हम सामाजिक सुधारकों के सिद्धान्त के साथ ही अध्ययन करते हैं किन्तु यह तो स्पेन्सर की भाँति मानव के बौद्धिक स्तर के विकास और जनसंख्या से सहसम्बन्ध जोड़ता है। कुछ भी हो, इससे अन्य सुधारकों की भाँति एक कर प्रणाली का प्रचार कर कुछ तो व्यक्तियों को हौसला दिलाने मैं सफल रहा। यह कठिनाई उन्हें अत्याधक जन्म-दर के कारण उत्पन्न हुई पायी जाती थी। उसने वैसे तो जन्म-दर को कम करने के लिये एच्छिक गर्भनिरोध का सुझाव दिया।

इसके बाद के विवलार्ड के सिद्धान्त को ड्यूमो ने उस समाज में प्रचलित होना बताया है, जहाँ कि मनुष्य घोड़ा सभ्य जीवन व्यतीत करने लगते हैं अर्थात् विकासशील देशों में यह लागू होता है।

इस प्रकार से हम निर्णय के रूप में कह सकते हैं कि वैयक्तिकरण तथा उत्पत्ति के सम्बन्ध में ड्यूमो का मत स्पेन्सर के मत के ऊपर सुधार है। यह उत्तम इसलिये भी है कि इसके द्वारा जनसंख्या निरोध को उस विधि को प्रोत्साहित किया गया जो कि व्यावहारिक है। इसने उस अवस्था की ओर अधिक ध्यान दिया जिसमें कि प्रत्यक्ष निरोधों की व्यावहारिकता बढ़ती है।

(3) ब्रेन्टो का बढ़ती सम्पन्नता एवं सुख का सिद्धान्त

(Brento's Theory of Increasing Prosperity and Pleasure)

ब्रेन्टो द्वारा प्रतिपादित जनसंख्या का सिद्धान्त 'बढ़ती सम्पन्नता और सुख का सिद्धान्त' के नाम से जाना जाता है। ब्रेन्टो के सिद्धान्त के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:-

(i) निर्धनों के पास उन सुविधाओं का, विशेषतः मनोरंजन के साधनों का अभाव होता है। इन साधनों के अभाव में अपनी पत्नी को ही मनोरंजन की वस्तु समझकर प्रजनन दर में वृद्धि करते हैं। इसके विपरीत धनी वर्ग के लोग अपना अधिकतर समय सिनेमा, क्लब, नृत्य गृह, प्रदर्शन व अन्य भौतिक सुखों को प्राप्त करने में व्यतीत करते हैं, फलस्वरूप वे संतानोत्पत्ति में उतना महत्व नहीं दे पाते। इस प्रकार स्पष्ट है कि भोगविलास की सुविधाओं के अनुरूप ही प्रजनन दर में कमी व वृद्धि होती रहती है। ये सुविधाएँ जितनी अधिक होंगी प्रजनन दर उतनी ही कम एवं सुविधाएँ कम होने पर प्रजनन दर अधिक होगी।

(ii) समाज के अबैंक वर्गों को उपलब्ध सुख-साधनों में अंतर पाया जाता है और यही कारण समाज के विभिन्न वर्गों में प्रजननता या उर्वरता दरों में विभिन्नता का है। जिन व्यक्त्यिों को सुख प्राप्ति के विभिन्न साधन उपलब्ध हैं, उनमें उर्वरता दर निम्न होगी। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों को सुख के साधन उपलब्ध नहीं है।

(iii) गरीब व्यक्तियों को विवाह करना भी एक समस्या होती है। परिणामस्वरूप वे इस समस्या से छुटकारा पाना चाहते हैं और कम आयु में ही विवाह कर लेते है। इससे उर्वरता दर में वृद्धि होती है।

(iv) इसके विपरीत धनी व्यक्तियों में विवाह किसी समस्या के रूप में नहीं होता इसलिए अधिक उम्र में विवाह किए जाते हैं। अधिक उम्र में विवाह करने से उर्वरता दर कम प्रमाण में रहती है।

(4) फ्रान्सिस्को एस० निटी का व्यक्तित्व का सिद्धान्त

(Francesco S. Nitti's Principle of Individuality)

जनसंख्या के व्यक्तित्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन इटली के अर्थशास्त्री फ्रान्सैस्को एस० निटी ने अपनी पुस्तक 'Population and the Social System' में किया है। संक्षेप में, निटी के जनसंख्या सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है :-

(i) जनसंख्या की समस्या के निदान के सम्बन्ध में निटी का मत है कि "जनसंख्या की समस्या का निदान, जो अर्थशास्त्रियों के लिए अंधकार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहा है, जैविक सिद्धान्तों में पाया जा सकता है, जिसने जनांकिकी विज्ञान के सामने नवीन क्षितिज उ‌द्घाटित किए है।"

(ii) निटी ने अपने सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "उस समाज में जहां व्यक्तित्व का समुत्रत विकास हो जाएगा" उस समाज में जहाँ सम्पत्ति अधिकांशतः उपविभाजित हो जाएगी तथा जहाँ असमानताओं को उत्पन्न करने वाले सामाजिक कारण सहयोग के माध्यम से दूर हो जाएंगे। जन्म दर, जीवन निर्वाह के साधनों के बराबर हो जाएगी, तथा जनांकिकी विकास में नियमित परिवर्तनों के कारण भय तथा आतंक का तत्व नहीं रहेगा, जैसा कि भूतकाल में रहा है।

(iii) निटी का यह भी मत है कि जनसंख्या तथा उसकी उर्वरता दर के निर्धारकों में नैतिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक व सामाजिक और आर्थिक तत्वों का भी अत्यधिक योगदान है, किन्तु इनमें आर्थिक तत्वों का प्रभाव होता है।

(iv) निटी ने माल्थस के इस मत का भी विरोध किया है कि "जनसंख्या वृद्धि से समाज के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो जाएंगी।" उनके मतानुसार जनसंख्या वृद्धि के सिर्फ बुरे ही परिणाम नहीं होते, बल्कि अच्छे भी होते हैं। इस सन्दर्भ में उसने स्पेंसर के। विचार का समर्थन करते हुए लिखा है कि जनसंख्या वृद्धि से मानव की सभ्यता और संस्कृति का भी विकास होता है।

(v) निटी का दावा है कि 'माल्थस का सिद्धान्त' उसके द्वारा की गयी आलोचनाओं एवं विचारों से अस्तित्वहीन हो जाएगा।

यद्यपि ब्रेन्टो ने अपने सुखवादी सिद्धान्त द्वारा मानव में सुख प्राप्ति और सम्पन्नता तथा जनसंख्या के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट किया है।

(i) जनसंख्या और जन्म दर के सम्बन्ध को केवल मानव की सुखवादी धारणा द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

(ii) यह सिद्धान्त भी अन्य सिद्धान्तों की तरह सर्वमान्य नहीं है।

(iii) गरीबों में उच्च उर्वरता दर का कारण केवल उनके पास वैकल्पिक सुख-साधनों का अभाव ही नहीं, बल्कि इसके लिए अन्य दूसरे घटक भी जिम्मेदार है। उदाहरण के लिये गरीबो की रहने के लिए निवास की समस्या, घर में सथान की कमी और परिवार के सदस्यों की अधिकता के कारण स्वच्छंद प्रेम और सहवास के अवसर ही नहीं मिलते।

(5) फ्रेन्क फेटर का 'ऐच्छिकता' का सिद्धान्त (Frank Fetter - Theory of Voluntarism)

निटी की भाँति फेटर ने जनसंख्या के माल्थस सिद्धान्त का विरोध किया है और इनके मतानुसार जनसंख्या का कोई एक सिद्धान्त नहीं है। यह एक से अधिक तत्वों द्वारा प्रभावित होता है। माल्थस के विरोध में इनका मत था कि प्रजनन दर को निर्धारित करने में केवल सहवास ही सबसे महत्वपूर्ण तत्व नहीं है। फेटर यह भी नहीं मानते थे कि खाद्यात्र की कमी के कारण भी अधिक मृत्यु होती है। उनका मत है कि पहले के लोगों में भी ये सभी विचार पाये जाते थे किन्तु मृत्यु व खाद्यान्न की कमी के कारण माताओं को स्वस्थ एवं सुन्दर बने रहने देना के साथ-साथ अन्धविश्वास तथा सुन्दर बच्चों की उत्पत्ति की लालसा भी थी। इनका मत था कि धनी तथा गरीब व्यक्तियों के लिए प्रजनन-प्रवृत्ति के विश्लेषण हेतु भिन्न-भिन्न व्याख्यायें प्रस्तुत की जा सकती हैं। इनका विचार था कि धनी व्यक्ति अपनी इच्छा से कम बच्चे पैदा करते है। जिसके निम्नलिखित कारण है।

(1) धनी व्यक्ति भौतिक सुखों के भोग के लिए बच्चों की संख्या नियन्त्रित रखते है। यदि बच्चों की संख्या अधिक हुई तो उनको भौतिक सुखों के उपभोग का अवसर कम मिलने का भय बना रहता है।

(2) धनी व्यक्तियों के बच्चों के पालन-पोषण का व्यय अधिक होता है तथा उन बच्चों द्वारा उत्पादन काफी देर में शुरू किया जाता है।

(3) कुछ लोगों की प्रवृत्ति होती है कि वे अपनी सम्पत्ति का विभाजन नहीं देख सकते हैं। अतः ऐसे व्यक्तियों के यदि अधिक बच्चे हो जायें तो उनकी सम्पत्ति का विभाजन हो जायेगा, जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर सकते।

इसके विपरीत, गरीब व्यक्ति के बच्चे कम उम्र में ही उत्पादन के स्त्रोत बन जाते हैं तथा इन पर पालन-पोषण के लिए किया गया व्यय भी नहीं के बराबर होता है। इन व्यक्तियों के उत्तराधिकार के झगड़ों का भी भय बना रहता है।

इस प्रकार संक्षेप में यह कह सकते हैं कि फेटर का विश्वास था कि आर्थिक उन्नति के साथ जन्म. दर गिरती है परन्तु समाजवादी अर्थव्यवस्था में इस प्रकार कोई स्त्रोत नहीं है।

(6) अन्जर्न-स्टर्नबर्ग का विवेकीकरण का सिद्धान्त

(Ungern-Sternberg's Theory of Rationalism)

 अन्जर्न-स्टर्नबर्ग ने यह माना कि गरीबों की प्रजनन-दर-कम या ज्यादा दोनों ही हो सकती है। यह केवल जैविक एवं आर्थिक कारणों से नहीं मापी जाती है। इसके कम या अधिक होने में मानव के मन की स्थिति का भी विशेष प्रभाव पड़ता है अर्थात् इसका मानसिक कारण भी है। इसीलिये उन्होंने लिखा है कि 'जनसंख्या का सिद्धान्त ऐसा होना चाहिए जो केवल अमीरों की घटती हुई प्रजनन-दर के कारण बता सके, बल्कि उसे गरीबों में भी घटती हुई प्रजनन-दर के बारे में भी सही कारेंणों का विश्लेषण कर सके।'

इन्होंने बताया कि अमीरी एवं गरीबी के कारण स्वतः ही प्रजनन दर कम या अधिक नहीं हो जाती है। इन्होंने नार्वे, फिनलैंड, एस्टोनिया आदि देशों का उदाहरण दिया जहाँ कि गरीबी होने के साथ-साथ प्रजनन- दर कम है।

इन्होंने इस बात का खण्डन किया कि शहरों की अपेक्षा, गाँव के व्यक्ति की प्रजनन-दर अधिक होती है। इन्होंने बताया कि यह तो गाँव या शहर में रहने वाले व्यक्तियों की मनोवृत्तियों पर निर्भर करता है। यदि गाँव वाले भी ऐसी मनोवृत्ति के हो जायें कि कुछ बच्चे पैदा किये जायें, तो इनकी भी प्रजनन दर कम होगी।

अन्जर्न-स्टर्नवर्ग ने अपने जनसंख्या सिद्धान्त के प्रतिपादन में 'पूँजीवादी मनोवृत्ति' को ही प्रजनन- दर में अत्यधिक महत्व दिया। इस प्रवृत्ति की व्याख्या में इन्होंने लिखा है कि मनुष्य में विवेकशीलता आ जाती है। वह अपने सभी कार्य करने के पहले उसके परिणामों का विचार कर लेता है कि कहाँ तक उसके कार्य अपने मनोवांछित उद्देश्य के पूरा करने में सहायक बन सकेंगे और वह व्यक्ति स्वार्थी एवं स्वावलम्बी बनना चाहता है। यह प्रवृत्ति स्त्री में भी आने लगती है। वह भी अपने अधिकारों की माँग सतर्कता से करती है। वह भी किसी कार्य के करने के पहले उसके परिणाम पर विशेष रूप से सोच लेती है। इस प्रकार प्रत्येक बच्चे के बाद अगले बच्चे के उत्पादन के औचित्य पर भी ध्यानपूर्वक विचार किया जाता है। इस प्रकार प्यार में, जो कि केवल एक भावनात्मक पहलू काम का है, भी औचित्य का दर्शन करने लगता है। इसीलिए जन्म-दर में कमी आने लगती है।

(7) हार्वे लैबिन्सटीन का जनसंख्या वृद्धि सिद्धान्त

(Harvey Liebenstein's Theory of Population Growth)

हार्वे लेबिन्सटीन ने अपने जनसंख्या वृद्धि सिद्धान्त का प्रतिपादन अपनी पुस्तक 'Economic Backwardness and Economic Growth- -Studies in the Theory of Economic Development' में, जिसका प्रकाशन 1957 में हुआ था, किया है। लेबिन्सटीन ने अपने जनसंख्या वृद्धि सिद्धान्त की व्याख्या आर्थिक विकास के न्यूनतम आवश्यक प्रयत्न सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए की है। संक्षेप में, इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैः-

(i) आर्थिक विकास और जन्म दरः- लैबिन्सटीन का मत है कि अर्द्धविकसित देशों में केवल व्यक्ति आय बढ़ने पर ही जन्म दर कम होगी, अर्थात् पहले आर्थिक विकास होगा, फिर जन्म दर घटेगी। बिना आर्थिक विकास के कोई भी प्रत्यक्ष तरीके जन्म दर नियंत्रण में सफल नहीं हो सकते।

(ii) न्यूनतम आवश्यक प्रयत्नः लैबिन्सटीन ने अर्द्धविकसित देशों के आर्थिक विकास के लिए न्यूनतम आवश्यक प्रयत्न को आवश्यक बताया है। उसके मतानुसार, "जिस देश की जितनी अधिक जनसंख्या होगी, उतनी ही मात्रा में उस कम विकसित देश को निम्न जीवन स्तर के फन्दे से निकालने के लिए अधिक मात्रा में न्यूनतम आवश्यक प्रयत्न करने होंगे।"

(iii) जनसंख्या का घनत्व और आर्थिक विकासः- लैबिन्सटीन के अनुसार आर्थिक विकास जनसंख्या के घनत्व से प्रभावित नहीं होता है। आर्थिक विकास किसी देश के प्राकृतिक साधनों के प्रकार तथा मात्रा, पूंजी की उपलब्धता, तकनीकी प्रगति तथा उत्पत्ति के नियमों पर निर्भर करता है। उनके मतानुसार आर्थिक विकास के लिए जन्म दर का गिरना आवश्यक नहीं है। उनके शब्दों में, "हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि जन्म दर में कमी भी विकास का परिणाम होती है। आर्थिक विकास के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रत्यक्ष तरीका जन्म दर नियंत्रण में सफल नहीं हो सकता है।"

(iv) शिशु उपयोगिता एवं सामाजिक लागतः लैबिन्सटीन ने एक शिशु की उपयोगिता एवं सामाजिक लागत की चर्चा की है। लैबिन्सटीन के मतानुसार एक नवजात शिशु से निम्नलिखित उपयोगिता प्राप्त होती है:-

(a) उत्पादक अभिकर्ताः- कालांतर में एक शिशु उत्पादक अभिकर्ता है, अर्थात् वह धनार्जन का साधन है। कम विकसित देशों में एक व्यक्ति कम आयु में ही धनार्जन प्रारम्भ कर देता है।

(b) उपभोग वस्तुः- एक नवजात शिशु अपने माता-पिता को शिशु लालन-पालन का सुख प्रदान करता है।

(c) सुरक्षा का स्त्रोतः इन देशों में संतान बुढ़ापे का सहारा होती है।

(V) जनसंख्या वृद्धि दर और विकास की अवस्थाएँ:- जनसंख्या वृद्धि की दर विकास की विभिन्न अवस्थाओं से सम्बन्धित है। लैबिन्सटीन ने निम्नलिखित विकास की अवस्थाओं का उल्लेख किया हैः-

(a) निम्न आय स्तर की अवस्था।

(b) निम्न आय स्तर से अधिक आय की अवस्था।

(c) अधिक आय वृद्धि की अवस्था।

(d) अत्यधिक आय की अवस्था।

लैबिन्सटीन ने अपने सिद्धान्त के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया किः-

(i) शुरू में प्रति व्यक्ति आग्न में वृद्धि के परिणामस्वरूप जनसंख्या वृद्धि दर में वृद्धि होती है। एक सीमा तक प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो जाने के पश्चात् जन्म दर घटने लगती है।

(ii) लैबिन्सटीन के अनुसार जनसंख्या वृद्धि की ऊँची दर को नियंत्रित करने एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करके जन्म दर को घटाने के लिए 'न्यूनतम आवश्यक प्रयत्न' आवश्यक है।

(iii) जन्म-दर में जिनती शीघ्रता से गिरावट होगी 'न्यूनतम आवश्यक प्रयत्न' भी उतनी ही कम मात्रा में आवश्यक होगा।

(iv) जब अर्थव्यवस्था अत्यधिक आय की अवस्था में पहुँच जाती है तब जन्म दर तथा मृत्यु दर दोनों ही निम्नतम हो जाती हैं।

लैबिन्स्टीन के मतानुसार, 'न्यूनतम आवश्यक प्रयत्न' केवल अर्द्धविकसित देशों में ही आवश्यक होता है। विकसित देशों में प्रत्येक आय वृद्धि के साथ जनसंख्या वृद्धि घट जाती है। जहाँ एक ओर इस सिद्धान्त का बहुत महत्व है वहीं इस सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैः-

(i) लैबिन्सटीन का विचार है कि प्रारम्भ में आय बढ़ने के साथ जनसंख्या बढ़ती है। उन्होंने इस वृद्धि का कारण जन्म-दर में वृद्धि समझा, जबकि इस वृद्धि का कारण मृत्यु दर में कमी का होना है।

(ii) लैबिन्सटीन ने जनसंख्या को एक विशुद्ध आर्थिक घटक माना है जो कि त्रुटिपूर्ण है। कारण यह है कि अर्द्धविकसित देशों में जनसंख्या एक सामाजिक व धार्मिक समस्या है, जिस पर रीति-रिवाज, धर्म व सांस्कृतिक प्रवृत्तियों आदि का प्रभाव पड़ता है।

(iii) इस विश्लेषण में सरकार द्वारा जनसंख्या रोकने के लिए उठाए गये कदमों को कोई स्थान नहीं दिया गया है।

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