प्रश्न- मुद्रा मूल्य का आय सिद्धांत की आलोचनात्मक
व्याख्या करें
→ 'मुद्रा का परिमाण सिद्धांत मानो समुद्र
के सामान्य तल की व्याख्या करता है, तथा बचत विनियोग का सिद्धांत ज्वार-भाटे के वेग
की व्याख्या करता है'। विवेचना कीजिए
→ कीन्स के आय एवं रोजगार सिद्धांत की समालोचनात्मक व्याख्या कीजिये
→ केन्स के मुद्रा एवं मूल्य सिद्धांत की आलोचनात्मक
व्याख्या कीजिये । या इस विचार के संबंध में कारण दीजिये कि बचत एवं निवेश सिद्धांत
कीमतों के परिवर्तनो की व्याख्या करने में पुराने परिमाण सिद्धांत पर एक सुधार है
→ मुद्रा के मूल्य का बचत तथा विनियोग से क्या
सम्बन्ध है।
उत्तर- मुद्रा के मूल्य को स्पष्ट करने का आधुनिक सिद्धांत
"आय सिद्धांत अथवा बचत एवं विनियोग का सिद्धांत" है। इस सिद्धांत का श्रेय
केन्स को प्राप्त है। केन्स का विचार है कि मुद्रा का मूल्य जनता की आय तथा इसके बचाने
की शक्ति तथा बचत और विनियोग के सम्बन्ध पर निर्भर करता है, मुद्रा के परिमाण पर नहीं।
प्राचीन दृष्टिकोण मुद्रा के परिमाण एवं मुद्रा के मूल्य के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध
मानता था, किन्तु केन्स के मतानुसार मुद्रा की मात्रा का मुद्रा के मूल्य से अप्रत्यक्ष
सम्बन्ध है। उनका विश्वास है कि मुद्रा के परिवर्तनो का अनेक तत्वों पर प्रभाव पड़ता है। (जैसे- ब्याज की
दर, विनियोग, रोजगार, आय का स्तर आदि) और ये अनेक तत्त्व मुद्रा के मूल्य को
प्रभावित करते है।
केन्स से पूर्व अनेक अन्य
अर्थशास्त्रियों ने बचत एवं विनियोग के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया, जो
निम्न है
टूक के विचार :- किसी वस्तु की पूर्ति का
निर्धारण उसकी लागत व्यय के आधार पर होता है, उसी प्रकार उपभोग वस्तुओं पर व्यय की
जाने वाली मौद्रिक आय ही मांग की सीमा को निर्धारित करती है। इस प्रकार उपभोग
वस्तुओं की मांग द्वारा आय का स्तर निर्धारित होता है। यदि मजदूरी में वृद्धि कर दी
जाये तो एक तरफ तो लागत व्यय बढ़ जायेगा और दूसरी तरफ ऊँची मजदूरी से मांग बढ़ेगी
व मूल्यों मे वृद्धि होगी। इसे निम्न समीकरण के रूप में रखा जा सकता है.
`P_c=\frac{D_c}{O_c}`
जहाँ
Pc = उपभोग वस्तुओं
का मूल्य
Dc = उपभोग वस्तुओं
की मांग
Oc = उपभोग वस्तुओं
की पूर्ति
अफ्तालियन के विचार :- अफ्तालियन
ने सन् 1925 में आय सिद्धांत की विवेचना एक समीकरण की सहायता से की जो निम्न है
R = PQ
`P=\frac RQ`
जहाँ R = मौद्रिक आय, P= कीमत स्तर, Q = कुल उत्पादन
समीकरण से स्पष्ट है कि यदि वास्तविक आय में कोई परिवर्तन न होने पर यदि मौद्रिक आय में वृद्धि हो जाती है तो उसके फलस्वरूप मूल्य स्तर में वृद्धि होगी। इसके विपरीत, मौद्रिक आय में कमी होने पर मूल्य स्तर में भी कमी हो जाती है।
आय समीकरणों के आधार पर कुछ व्यय अनेक कारणों से प्रभावित होते हैं, जैसे- जनसंख्या में वृद्धि, कुशल बैंकिंग व्यवस्था, प्रतिस्पर्धा की मात्रा, कर प्रणाली, विवाह व शादी की सख्या, देश में तरल साधनों की उपलब्धि आदि ।
देश में प्रायः दो प्रकार के लेन देन के व्यवहार किये जाते है- प्रथम वर्ग में वे सौदे सम्मिलित किये जाते है, जिनसे उत्पादन क्रिया को कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता तथा दूसरे वर्ग में वे लेन-देन सम्मिलित होते है जिनसे उत्पादन को प्रोत्साहन मिले। आय समीकरण में केवल उन सौदों को ही महत्व दिया गया जिनमे निर्माण कार्य सम्मिलित होते है।
आय समीकरण -
Py Ty = MVy
or, MVy = PyTy
or, `V_y=\frac{P_yT_y}M`
`or,P_y=\frac{MV_y}{T_y}`
जहाँ
M = मुद्रा की मात्रा, Ty
= उत्पादित वस्तुओं की मात्रा, Py = उत्पादित वस्तुओं का सूचनांक,
Vy = मुद्रा की
आय गति ।
इस समीकरण के आधार पर आय
गति (Vy) का पता लगाना कठिन होता है जिससे गणना करने में कठिनाई उत्पन्न
होती है। V एवं
Vy
में अन्तर है, क्योंकि V नवीन
व पुराने माल को खरीदने में प्रयोग की गई मुद्रा को नापता है, जबकि Vy
केवल नवीन उत्पादित की गई वस्तुओं को क्रय करने में ही प्रयोग की जाती है।
केन्स
का विचार :- केन्स के मतानुसार, देश में वास्तनिक ब्याज की दर
एवं बाजार की दर समान होने पर बचत एवं विनियोग भी समान हो जाते है तथा उस समय
मौद्रिक सतुलन की स्थिति निर्मित हो जाती है। इसके विपरीत, जब वास्तविक ब्याज दर,
बाजार दर से अधिक होती है तो विनियोग की मात्रा बचत से अधिक होगी, जिसके
परिणामस्वरूप देश में उत्पादन, रोजगार एवं मूल्य में निरन्तर वृद्धि होती है। यदि
किये गये विनियोग की मात्रा की गई बचत से अधिक है तो इसका आशय यह हुआ कि विनियोग,
बचत की मात्रा से अधिक है। बचत से विनियोग अधिक होने पर उत्पादन के साधनों में
वृद्धि होगी, रोजगार में वृद्धि होगी, उत्पादन एवं आय में वृद्धि होगी तथा
अर्थव्यवस्था में तेजी का वातावरण आयेगा। तथा अर्थव्यवस्था सन्तुलन पथ की ओर
जायेगा। इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
यदि,
वास्तविक उपभोग Ct = c(Yt-1 )
तथा विनियोग It = A
तो Yt = ct + It
Putting
the value of Ct and It in Yt
Yt
= cYt-1 + A
or,
Yt - cYt-1 = A ------(1)
Try Ȳ for all Yt
Ȳ - c
Ȳ
= A --------(2)
Ȳ
(1-
c ) = A
`Ȳ=\frac A{(1-c)}`
Subtract (2) from (1)
(Yt - Ȳ) – c(Yt-1 - Ȳ ) = 0
yt - cyt-1
= 0 [Yt - Ȳ = yt , Yt-1
- Ȳ = yt-1]
yt = cyt-1
yt-1 = cyt-2
= c (cyt-2)
= c2 yt-2
yt
= ct yt-t
yt
= y0 ct
Yt
- Ȳ = ( Y0 - Ȳ ) ct
Yt
= Ȳ + ( Y0 - Ȳ ) ct [c = MPC , 0 < c < 1]
As
t → ¥ , ct →
0
(Y0
- Ȳ ) ct → 0
Yt
→ Ȳ + 0
Yt
→ Ȳ
Ȳ संन्तुलित
आय को बताता है जिस ओर आय बढ़ता है अर्थात् अर्थव्यवस्था में तेजी का वातावरण
आयेगा। इसके विपरीत, यदि बाजार दर वास्तविक व्याज की दर से अधिक है तो विनियोग बचत से कम होंगे, आय कम हो
जायेगी, माँग, रोजगार व उत्पादन में कमी आ जायेगी; जिसके परिणामस्वरूप
अर्थव्यवस्था में मन्दी का वातावरण निर्मित हो जायेगा।
केन्स के बचत एवं विनियोग सम्बन्धी पहले के विचार अपूर्ण
एवं अस्पष्ट थे। परिणामस्वरूप केन्स ने पहले विचारों का परित्याग करके इस सम्बन्ध में नये
विचारों का प्रतिपादन किया जो निम्न मान्यताओं पर आधारित है
मान्यताएं
(1) द्रव्य की मात्रा एवं द्रव्य की मांग में आनुपातिक वृद्धि होती है
(2) पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त होने से पहले
उत्पादन के साधनों की पूर्ति पूर्ण रूप से मूल्य सापेक्ष रहती है तथा पूर्ण रोजगार
की स्थिति प्राप्त हो जाने के पश्चात् उत्पादन साधनों की पूर्ति पूर्ण रुप से
मूल्य निरपेक्ष हो जाती है।
केन्स ने अपने नये विचारों का प्रतिपादन करते समय बचत
एवं विनियोग को सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की कार्य प्रणाली से सम्बन्धित किया।
इन्होंने बचत एव विनियोग की प्रवृत्ति को समान माना तथा आय एवं रोजगार के सम्बन्ध
मे पर्याप्त प्रकाश डाला तथा यह बताया कि बचत एवं विनियोग के पारस्परिक सम्बन्धों
से सम्पूर्ण समाज की आय प्रभावित होती है, जिसका मांग पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता
है।
केन्स ने बचत एवं विनियोग का अध्ययन दो दृष्टि से किया
है, जो कि निम्न है -
(i) लेखागत समानता :- राष्ट्र की आय की गणना करते समय वास्तविक बचत एवं विनियोग
को सदैव समान या बराबर माना गया है। केन्स ने बचत की वर्तमान आय एवं उपभोग के अन्तर के
बराबर माना है। इसी प्रकार विनियोग को आय का वह अंश माना है जो उपभोग पर व्यय न होकर
अन्य पूँजीगत सामग्री पर व्यय किया जाता है। बचत एवं विनियोग की क्रियाये पृथक-पृथक
होती है तथा जनता के विभिन्न वर्गों द्वारा विविध प्रकार से इन्हें सम्पन्न किया जाता
है। व्यक्तिगत दृष्टि से इनमे अन्तर होना माना जाता है, परन्तु समाज की दृष्टि से इन्हें
समान माना जाता है, क्योंकि एक व्यक्ति की बचत दूसरे व्यक्ति की अ-बचत से सन्तुलित
हो जाने की प्रवृत्ति रखती है, जिससे बचत एवं विनियोग में समानता बनी रहती है। इस विचार
को बीज - गणित के रूप में निम्न प्रकार रखा जा सकता है
Y = C + S ---(1)
या, S = Y -C
Y = C + I ------(2)
या, I = Y - C
समीकरण (2) का मान समीकरण (1) मे रखने पर
C + I = C + S
I = S
अतः विनियोग और बचत आपस में बराबर है।
उपरोक्त समीकरण में,
Y = कुल आय, C = उपभोग, S = बचत, I = विनियोग
इस लेखागत दृष्टि से बचत एवं विनियोग में समानता का अर्थ
यह होगा कि अर्थव्यवस्था में जनता की धनराशि विनियोग करने की इच्छा एवं बचत करने की
इच्छा में समानता नहीं होगी, उस समय तक उत्पादकों को रोजगार एवं उत्पादन में निरन्तर
परिवर्तन करने होगे। ऐसे परिवर्तन
करने पर ही वे अपने लाभ की मात्रा को अधिकतम सीमा तक ले जा सकेंगे। ऐसे परिवर्तन उस समय तक होते रहेगे जब तक कि
अर्थव्यवस्था संतुलन की स्थिति तक नहीं पहुँच जाती और बचत एवं विनियोग की मात्रा समान नहीं हो जाती।
(ii) कार्यगत समानता :- केन्स के सिद्धांत में बचत तथा विनियोग की समानता सन्तुलन
आय स्तर
का निधारण करती है।
(a) जब विनियोग बचत से अधिक होता है (1> S)- विनियोग बचत से अधिक उसी समय हो सकता जबकि साहसी जितना समाज बचाने के लिए उद्यत है, उससे अधिक विनियोग करने का निर्णय लेता है। इसके लिए विनियोगकर्ता (साहसी) पूर्व बचतों को उपयोग में ले सकता है या बैंकों से नये ऋण ले सकता है। जब विनियोग बचत से अधिक रहता है, तब पूँजीगत उद्योगों में उत्पादन बढ़ता है, उनमें अधिक श्रमिकों को रोजगार मिलता है, श्रमिकों की आय बढ़ती है और वे उपभोक्ता वस्तुओं पर अधिक व्यय करते है जिसका फल यह होता है कि उपभोक्ता उद्योगों के उत्पादन में वृद्धि होती है और ऐसे उद्योगों में भी रोजगार की मात्रा बढ़ जाती है। संक्षेप में, यदि विनियोग बचत से अधिक है तो अनेक बेकार साधनों को कार्य मिलेगा, उत्पादन बढ़ जायेगा, राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी और मूल्य-स्तर बढ़ जायेगा अर्थात् मुद्रा का मूल्य घट जायेगा।
मान लीजिए, किन्हीं कारणों से विनियोग की मात्रा में वृद्धि
हो जाती है और विनियोग रेखा ऊपर खिसककर I1I1 हो जाती है। इसी
स्थिति में आय बढ़कर OM हो जाती है और बचत और विनियोग के बीच में नया सन्तुलन E1
बिन्दु पर स्थापित होता है। इस प्रकार
(अ) पुराना सन्तुलन बिन्दु है और पुराना आय का स्तर OM
(ब) नया सन्तुलन बिन्दु E1 व नया आय का स्तर
OM1। स्पष्टतः बचत और विनियोग के बीच नया सन्तुलन अपेक्षाकृत ऊँची आय के
स्तर पर हुआ है।
(b) जब बचत विनियोग से अधिक होती है (S<I) बचत विनियोग से अधिक तभी हो सकती है, जबकि समाज अधिक बचाने
का निर्णय करे या जब उद्यमकर्ता कम विनियोग करने का निर्णय करें। मुद्रा को जमीन के
अन्दर गाड़कर रखने के कारण भी बचत विनियोग से अधिक हो सकती है।
यदि बचत विनियोग से अधिक है तो इसका अर्थ यह है कि नयी उत्पादित वस्तुओं पर किया गया कुल खर्च उस समय आय से अपेक्षाकृत कम है जो इन वस्तुओं का उत्पादन करने के परिणामस्वरूप उत्पादन साधनों को प्राप्त होती है। अतः उत्पादक देखेंगे कि अधिक बचत के कारण उनकी वस्तुओं के लिए माँग अपर्याप्त है तथा उनमें से कुछ को हानि भी हो रही है। इसलिए वे उत्पादन घटा देंगे, फलतः रोजगार तथा राष्ट्रीय आय में भी कमी हो जायेगी और मूल्य-स्तर गिर जायेगा अर्थात् मुद्रा का मूल्य बढ़ जायेगा। इसे हम चित्र द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं:
चित्र में SS बचत रेखा, I-I विनियोग रेखा और साम्य बिन्दु
E है। अब यदि विनियोग यथास्थिर रहता है परन्तु बचत में वृद्धि हो जाती है तो बचत रेखा
S1S1 हो जाती है और बचत तथा विनियोग का नया सन्तुलन बिन्दु
E1 हो जाता है। स्पष्टतः
(अ) पुराना सन्तुलन बिन्दु और आय का स्तर OM है तथा
(ब) नया सन्तुलन बिन्दु E₁ है और नया आय का सन्तुलन स्तर
OM1 है। स्पष्टतः जब बचत विनियोग से अधिक हो जाता है, तब दोनों के बीच में
समानता अपेक्षाकृत नीची आय के स्तर पर होती है। यदि बचत स्थिर रहती है परन्तु विनियोग
कम हो जाता है तो भी बचत विनियोग से कम हो जायेगी और दोनों के बीच सन्तुलन एक निम्न
आय के स्तर पर स्थापित होगा।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि
(अ) यदि कुल बचत कुल विनियोग के बराबर है (S=I) तो राष्ट्रीय
आय में कोई परिवर्तन नहीं होगा, कीमतें स्थिर रहेगी तथा मुद्रा का मूल्य भी स्थिर रहेगा।
(ब)
यदि बचत विनियोग से अधिक है तो अनेक उत्पादक साधन बेकार हो जायेंगे, राष्ट्रीय आय कम
हो जायेगी तथा मूल्य स्तर गिर जायेगा अर्थात् मुद्रा का मूल्य
बढ़ जायेगा।
(स) यदि विनियोग से बचत अधिक है तो अनेक बेकार साधनों को
कार्य मिलेगा, उत्पादन बढ़ जायेगा, राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी और मूल्य-स्तर बढ़
जायेगा अर्थात् मुद्रा का मूल्य घट जायेगा।
उपर्युक्त विवेचन से मुद्रा के आय
सिद्धान्त के निम्नलिखित तत्वों का आभास होता है:
(अ) कीमत-स्तरों में परिवर्तन या
मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन पृथक् घटना न होकर अर्थव्यवस्था में सामान्य
परिवर्तन के ही अंग होते हैं।
(ब) कीमत-स्तरो या मुद्रा के मूल्य
में परिवर्तन अर्थव्यवस्था में आय व व्यय के स्तरों में परिवर्तन पर निर्भर होते
हैं, न कि मुद्रा के परिमाण पर, जैसा कि मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त ने बताया है।
(स) ये आय व व्यय के स्तरी में
परिवर्तन बचत व विनियोग के सम्बन्धों के कारण उत्पन्न होते हैं।
(द) यदि बचत विनियोग से अधिक (S/I)
हो जाती है तो कीमत-स्तरों में कमी आती है अर्थात् मुद्रा का मूल्य बढ़ जाता है,
इसके विपरीत, यदि विनियोग बचत से अधिक (I>S) है तो कीमत-स्तर में वृद्धि हो
जाती है अर्थात् मुद्रा का मूल्य घट जाता है।
(य) आय सिद्धान्त का निष्कर्ष यह
है कि मुद्रा के मूल्य में मुद्रा की मात्रा के कारण परिवर्तन नहीं होता (जैसा कि
मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त मानकर चलता है) वरन् बचत तथा विनियोग के अनुपात में
परिवर्तन से होता है।
आय अथवा बचत तथा विनियोग सिद्धान्त की श्रेष्ठता
आधुनिक अर्थशास्त्री बचत, विनियोग
अथवा आय सिद्धान्त को मुद्रा परिमाण सिद्धान्त की अपेक्षा श्रेष्ठ मानते है। उसकी
पुष्टि में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं:
(1) अधिक व्यापक (More
Comprehensive)- कीन्स का यह सिद्धान्त मुद्रा के मूल्य के सम्बन्ध में अधिक व्यापक है
क्योंकि यह मुद्रा मूल्य पर प्रभाव डालने वाले सभी तत्वों का व्यापक अध्ययन
प्रस्तुत करता है। यह आय, बचत, विनियोग, उपभोग एवं लागत आदि सभी शक्तियों के
प्रभावों को समन्वित करता है।
(2) व्यावहारिक एवं सरल (Practical
and Easy)- यह सिद्धान्त मूल्यों में परिवर्तनों के कारणों की विधि एवं क्रम के साथ-साथ
विभिन्न तत्वों के पारस्परिक सम्बन्ध में तालमेल बैठाकर सिद्धान्त को सरल बनाता
है।
(3) पूर्ण रोजगार की मान्यता
(Assumption of Full Employment) परम्परावादी मुद्रा सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की अवास्तविक
मान्यता पर आधारित है। प्रो. कीन्स ने पूर्ण रोजगार को एक अपवाद माना और बेरोजगारी
और उत्पादन भी इसी वृद्धि के अनुपात में बढ़ेगा और जब पूर्ण रोजगार की स्थिति आ
जायेगी तो कीमतें मुद्रा की मात्रा में होने वाली वृद्धि के अनुपात में बढ़ेगी।
(4) व्यापार-चक्रों की सन्तोषजनक
व्याख्या (Satisfactory Explanation of Business Cycle)- यह सिद्धान्त यह स्पष्ट करता है
कि व्यापार-वक्र की मन्दी वास्तव में विनियोग की कमी के कारण मौद्रिक आय के अभाव
से उत्पन्न होती है. मुद्रा की कमी के कारण नहीं। क्राउथर के शब्दों में,
"मन्दी की घोरतम अवस्था में स्पष्टतः जिस चीज की तेजी की उच्चतम अवस्था की
तुलना में अभाव होता है, वह मुद्रा नहीं बल्कि लोगों की व्यक्तिगत आयो का जोड़ है।"
(5) मुद्रा के चलन वेग का महत्व
(Importance of Velocity of Money)- वचत एवं विनियोग सिद्धान्त मुद्रा के चलन वेग पर भी
पर्याप्त प्रकाश डालता है। यदि बचत, विनियोग से अधिक हो जाती है तो मुद्रा का संचय
(Hoarding) होने लगता है और मुद्रा की चलन गति कम हो जाती है। ऐसी हालत में यदि
मुद्रा की मात्रा बढ़ायी भी जाय तो वह बचत का रूप धारण कर लेगी और MV ज्यों का
त्यों रह जायेगी। इसके विपरीत, जब विनियोग, बचत से अधिक होता है तो मुद्रा संचित
कोषों से निकलने लगती है और उसी प्रकार उसकी चलन गति बढ़ जाती है।
(6) समीकरण के तत्वों की गणना
(Calculation of Factors of Equation)- इस सिद्धान्त की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि
इसके समीकरण में Y, S, I और सभी तत्वों की शुद्ध गणना की जा सकती है।
(7) मौद्रिक एवं रोजगार नीति का
आधार (Basis for Monetary and Employment Policy) यह सिद्धान्त न केवल मुद्रा मूल्य
की व्याख्या करता है बल्कि इससे नीति निर्धारकों को उचित मार्ग-दर्शन मिलता है।
(8) समष्टि अर्थशास्त्र का आधार
(Basis for Macro Economics)- यह सिद्धान्त अर्थशास्त्र की जटिलताओं को समझने में योगदान
देता है और यह समष्टि अर्थशास्र का आधार है।
सिद्धान्त की आलोचनाएँ
इस सिद्धान्त में भी अग्रलिखित
कमियाँ हैं:
(अ) यह सिद्धान्त यह स्पष्ट नहीं करता
है कि अर्द्ध-विकसित देशों में पूर्ण रोजगार को प्राप्त होने के पूर्व ही उसी मूल्य-स्तर
में वृद्धि होने लगती है।
(ब) क्लार्क का यह मत है कि कीन्स का
यह कहना है कि यह सिद्धान्त प्रावैगिक है, ठीक नहीं है।
(स) प्रो. लुट्ज के अनुसार, कीन्स ने बचत और विनियोग
की जो परिभाषाएँ दी हैं, वे प्रावैगिक परिवर्तनों व साख नीति के अध्ययन में बेकार और
अव्यावहारिक हैं।
(द) इस सिद्धान्त की लेवन्तीफ ने आलोचना
की है कि बचत और विनियोग प्रत्येक दशा में समान नहीं होते और न उन्हें मापना ही सरल
है कि वे बराबर हैं या नहीं।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मुद्रा के
परिमाण सिद्धान्त एवं आय सिद्धान्त दोनों का ही अपना महत्व है। जहाँ परिमाण सिद्धान्त
मूल्य की दीर्घकालीन प्रवृत्तियों का विश्लेषण करता है, वहीं आय सिद्धान्त मूल्य-स्तर
के अल्पकालीन परिवर्तनों को स्पष्ट करता है। वास्तव में, मूल्य-स्तर के परिवर्तनों
को पूर्ण रूप से समझने के लिए दोनों सिद्धान्त आवश्यक हैं।
क्राउथर के शब्दों में, "मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त, समुद्र के सामान्य स्तर का विश्लेषण करता है, जबकि बचत एवं विनियोग का सिद्धान्त ज्वार-भाटे की उग्रता को स्पष्ट करता है।"
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)