केन्स का रोजगार सिद्धांत (Keynes' Employment Theory)

केन्स का रोजगार सिद्धांत (Keynes' Employment Theory)

केन्स का रोजगार सिद्धांत (Keynes' Employment Theory)

प्रश्न :- केन्स के रोजगार सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या करे !

केन्स के रोजगार का प्रारम्भिक बिन्दु प्रभावपूर्ण माँग का सिद्धांत है।" व्याख्या करे

केन्स के आय एवं रोजगार सिद्धांत का सार कुल माँग प्रक्रिया में पाया जा सकता है।" व्याख्या करे

केन्स के समर्थ माँग सिद्धांत की व्याख्या करे ?

उत्तर :- लार्ड्स जे. एम. केन्स द्वारा प्रतिपादित आय एवं रोजगार सिद्धांत आधुनिक आर्थिक सिद्धांतो के अध्ययन मे एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। केन्स ने 1936 में प्रकाशित "The General Theory of Employment, Interest and Money" में रोजगार के नये सिद्धांत का समावेश कर अर्थशास्त्र में एक क्रान्तिकारी कदम उठाया। यही कारण है कि केन्स को "नया अर्थशास्त्र" का जन्मदाता कहा जाता है।

प्रभावपूर्ण माँग

वास्तव में प्रभावपूर्ण माँग का सिद्धांत केन्स के रोजगार सिद्धांत का प्रारंम्भिक बिन्दु है। प्रो. डडले डिलार्ड ने ठीक ही कहा है, "प्रभावपूर्ण माँग का सिद्धांत ही केन्स के रोजगार सिद्धांत का तार्किक प्रारम्भ बिन्दु है।" (The Logical starting point of keynes theory of employment is the principle of effective demand)

प्रभावपूर्ण माँग में दो तरह की माँगे सम्मिलित है। जैसे - उपभोग संबंधी माँग और विनियोग सम्बन्धी माँग

ED = C + I

ED= Effective demand (प्रभावपूर्ण माँग)

C = Consumption demand (उपभोग माँग)

I = Investment demand (विनियोग माँग)

चूंकि रोजगार प्रभावपूर्ण माँग पर निर्भर करता है, अतः बेरोजगारी का कारण प्रमावपूर्ण माँग में कमी का होना है। इसलिए केन्स के सिद्धांत को माँग में कमी का सिद्धांत भी कहते है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में इस प्रकार माँग में कमी होने से बेरोजगारी उत्पन्न होने का कारण यह है कि अर्थव्यवस्था में जिस अनुपात मे राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है, उससे कम अनुपात में राष्ट्रीय उपभोग में वृद्धि होती है। जिससे आय एवं उपभोग में अन्तर हो जाता है। यदि आय एवं उपभोग के इस अन्तर को विनियोग द्वारा पूरा नहीं किया गया तो समाज में बेरोजगारी फैलती है। अतः रोजगार में वृद्धि करने के लिए विनियोग में वृद्धि करके प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि करना आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते है कि केन्स के रोजगार सिद्धांत का मुख्य बिन्दु प्रभावपूर्ण माँग की अवधारणा है। प्रभावपूर्ण माँग की अवधारणा को निम्न प्रकार से व्यक्त कर सकते है -

प्रभावपूर्ण माँग = राष्ट्रीय उत्पादन का मूल्य = राष्ट्रीय आय = उपभोग पदार्थों पर किया गया व्यय + विनियोग पदार्थों पर किया गया व्यय

(Effective demand = value of national output = National Income = Expenditure on consumption goods+ Expenditure on Investment goods)

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अल्पकाल में रोजगार प्रभावपूर्ण माँग द्वारा निर्धारित होता है और प्रभावपूर्ण माँग उपभोग पदार्थों तथा विनियोग पदार्थों पर किये गये राष्ट्रीय व्यय के बराबर होती है। प्रभावपूर्ण माँग का निर्धारण दो तत्त्वों से होता है-

(1) कुल माँग कीमत (Aggregate demand price):- कुल माँग कीमत का अर्थ मुद्रा के उस मात्रा से है जिसे रोजगार के किसी विशेष स्तर पर उत्पादित माल को बेच कर वसूल करने की आशा की जाती है। समस्त माँग कीमत मुद्रा की वह मात्रा है जिसे सेवा नियुक्त व्यक्तियों द्वारा उत्पादित उत्पादन को बेचकर उद्यमी प्राप्त करने की आशा करते है। ADF का सम्बन्ध प्रत्याशित आय तथा रोजगार के विभिन्न स्तरों से होता है। अतः रोजगार के विभिन्न स्तरों पर विविध माँग कीमतों को प्रकट करनेवाला विवरण समस्त माँग कीमत अनुसूची अथवा समस्त माँग फलन कहलाता है। प्रो. केन्स ने कहा था, "समस्त माँग फलन रोजगार के किसी दिये हुए स्तर को रोजगार के उस स्तर से होनेवाले प्रत्याशित आय के साथ सम्बद्ध करता है।

समस्त माँग अनुसूची

रोजगार का स्तर (N)

समस्त माँग कीमत (D)

N1

D1

N2

D2

N3

D3

N4

D4

N5

D5

रोजगार के स्तर की वृद्धि के साथ-साथ सम्पूर्ण माँग कीमत बढ़ती जाती है। अतः

D = f(N)

(जहाँ D वह आय है जिसे उद्यमि N व्यक्तियो को रोजगार मे लगाकर प्राप्त करने की आशा करते हैं। इस अनुसूची के आधार पर समस्त माँग वक्र खींचा जाता है। यह वक्र बायें से दाये ऊपर की र ढालवा होता है।

केन्स का रोजगार सिद्धांत (Keynes' Employment Theory)

ADF का बायें से दाये ऊपर की ओर बढ़ना इस बात को दर्शाता है कि जैसे-जैसे रोजगार की मात्रा बढ़ती जाती है कुल माँग कीमत भी बढ़ती जाती है।

(2) कुल पूर्ति कीमत (Aggregate supply price):- कुल पूर्ति कीमत उस मुद्रा राशि या विक्रय प्राप्ति को व्यक्त करती है जो रोजगार के किसी विशेष स्तर पर उत्पादन के बिक्री से उद्यमियों को मिलनी चाहिए। अर्थव्यवस्था में श्रमिको को किसी एक संख्या को रोजगार मे लगाने पर उन श्रमिको द्वारा किए ग कुल उत्पादन की कुल लागत को अर्थव्यवस्था की समस्त पूर्ति कीमत कहते है। अतः रोजगार पर लगाऐ गऐ श्रमिकों के भिन्न-भिन्न सख्या पर अर्थव्यवस्था के कुल लागत अथवा समस्त पूर्ति कीमत भिन्न-भिन्न होगी। समस्त पूर्ति कीमत अनुसूची इस बात को स्पष्ट करती है

समस्त पूर्ति कीमत अनुसूची

रोजगार का स्तर (N)

समस्त पूर्ति कीमत (Z)

N1

Z1

N2

Z2

N3

Z3

N4

Z4

N5

Z5

यह स्पष्ट हो जाता है कि रोजगार के बढ़ने पर पूर्ति मूल्य मे भी वृद्धि होती जाती है। अतः

Z = f(N)

अर्थात् सम्पूर्ण पूर्ति कीमत (Z) रोजगार (N) का फलन होती है। इस अनुसूची के आधार पर समस्त पूर्ति वक्र खींचा जा सकता है। यह बायें से दाये ऊपर की ओर ढालवा होती है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जब अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार के स्तर पर पहुंच जाती है तो समस्त पूर्ति वक्र लम्बवत् हो जाता है। यह चित्र से स्पष्ट है।

केन्स का रोजगार सिद्धांत (Keynes' Employment Theory)

रेखाचित्र से यह स्पष्ट होता है कि ON तक रोजगार के बढ़ने के साथ-साथ ASF में वृद्धि होती जाती है। N पूर्ण रोजगार की अवस्था है, क्योंकि यहाँ से ASF लम्बवत् हो जाती है।

इस प्रकार हम कह सकते है की अर्थव्यवस्था से कुल माँग क्रिया (ADF) उद्य‌मियों की प्राप्तियों और कुल पूर्ति क्रिया (ASF) उनकी कुल लागतों का प्रतिनिधित्व करते है। यही दोनों तत्व अर्थव्यवस्था में रोजगार स्तर को निर्धारण करते है। यदि कुल माँग  क्रिया (ADF) और कुल पूर्ति क्रिया (ASF) की वक्र रेखाऐ तैयार की जाऐ तो जिस बिन्दु पर यह दोनों रेखाएँ एक दूसरे को काटती है वह प्रभावपूर्ण माँग का बिन्दु है। यह अल्पकालीन संतुलन बिन्दु है जो रोजगार स्तर को निर्धारित करता है। इसे चित्र से स्पष्ट कर सकते है

केन्स का रोजगार सिद्धांत (Keynes' Employment Theory)

यहाँ AD कुल माँग वक्र की रेखा है और AS कुल पूर्ति की रेखा है। यह दोनों वक्र एक दूसरे को E बिन्दु पर काटती है। ह प्रभावपूर्ण माँग का बिन्दु है। इस बिन्दु पर रोजगार ON के बराबर तथा विक्रय प्राप्तियां OM के बराबर है। यह वह बिन्दु है जहाँ उद्यमकर्ता को अधिकतम लाभ प्राप्त होता हैI ON से कम रोजगार स्तर पर कुल माँग कीमत तथा पूर्ति कीमत से अधिक है। अर्थात् साहसियों को प्राप्त होने वाली रकम उनकी लागत से अधिक हैं। यह अन्तर ab के बराबर है। ऐसी स्थिती में उद्यमकर्ता उत्पादन तथा रोजगार बढाना चाहेगा । परन्तु जब E बिन्दु के बाद AD वक्र AS वक्र के दाई ओर चला जाता है तो कुल पूर्ति कीमत कुल माँग कीमत की तुलना में अधिक हो जाती है। इन दोनों में CD के बराबर के अन्तर से यह बात स्पष्ट हो जाती है की उद्यमि की लागत सकी बिक्री प्राप्ति की राशि से अधिक है। ऐसी स्थिती में वह रोजगार बढ़ाने के बजा मजदूरी की छंटनी करेगा और तब तक करता रहेगा जब तक कुल रोजगार ON तक नही पहुँच जाता। स्पष्ट है कि रोजगार E बिन्दु तक बढ़ता है। इस बिन्दु पर सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में रोजगार संतुलन की अवस्था में होगा।

प्रभावपूर्ण माँग के बिन्दु E पर कुल माँग कीमत और कुल पूर्ति कीमत एक दूसरे के बराबर हो जाते है और रोजगार संतुलन स्थापित होता है परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि इस बिन्दु पर यह संतुलन पूर्ण रोजगार के स्तर पर ही हो। केन्स ने पूर्ण रोजगार के कम पर संतुलन बिन्दु को अधिक वास्तविक माना है।

केन्स का रोजगार सिद्धांत (Keynes' Employment Theory)

चित्र में AS और AD वक्र एक दूसरे को E बिन्दु पर काटती है। इस बिन्दु पर रोजगार ON के बराबर है और बिक्री प्राप्ति OM होने की आशा है। परन्तु जैसा की AS वक्र से ज्ञात होता है पूर्ण रोजगार तब होगा जब रोजगार का स्तर OM1 के बराबर होगा I ON रोजगार स्तर संतुलन की अवस्था में तो है परन्तु अभी तक अर्थव्यवस्था में NN1 के बराबर बेरोजगारी है। पूर्ण रोजगार संतुलन प्राप्त करना तभी संभव हो सकता है जब ऐसी अनु‌कूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हो की बिक्री प्राप्तियो मे MM' के बराबर वृद्धि हो जा

इस तरह स्पष्ट है कि प्रभावपूर्ण माँग में कमी के कारण बेरोजगारी की सम्या उत्पन्न होती है, अतः प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि लाने के लिए कुल मांग पर निर्भर करना होगा क्योंकि कुल पूर्ति अल्पकालें स्थिर रहती है। कुल माँग के दो निर्धारक तत्त्व है-

(1) उपभोग फलन :- उपभोग वस्तुओं की माँग को उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि लाकर बढ़ाया जा सकता है, परन्तु उपभोग प्रवृत्ति लोगों के मनोविज्ञान, रुचि, स्वभाव, इच्छा तथा सामाजिक ढांचे पर निर्भर रहती है और सामाजिक ढांचा, आय के वितरण को निर्धारित करता है। वे सभी तत्त्व अल्पकाल मे स्थिर रहते है। इसलिए रोजगार निवेश पर निर्भर करता है और यह उसी दिशा में विचरण करता है जिस दिशा में निवेश की मात्रा विचरण करती है।

(2) विनियोग फलन :- निवेश ब्याज की दर तथा पूँजी की सीमांत उत्पादकता पर निर्भर रहता है। ब्याज की दर में कमी तथा पूँजी की सीमांत उत्पादकता में वृद्धि करके निवेश बढ़ाया जा सकता है। पूँजी की सीमांत उत्पादकता पूँजी परिसम्पत्तियों में पूर्ति कीमत और उनकी भावी आय पर निर्भर करती है। यह तब बढ़ सकती है, जब परिसम्पत्तियों की पूर्ति कीमत गीरे अथवा उनकी भावी आय बढ़े। क्योंकि अल्पकाल में पूँजी परिसम्पत्तियों की पूर्ति कीमत स्थिर रहती है, इसलिए उसे कम करना कठिन है। पूँजी की सीमांत उत्पादकता का दूसरा निश्चायक पूँजी परिसम्पत्तियों की भावी आय है जो व्यापारियों की आय प्रत्याशाओं पर निर्भर करती है।

केन्स का रोजगार सिद्धांत

केन्स का रोजगार सिद्धांत (Keynes' Employment Theory)

केन्स के सिद्धांत में अनेक त्रुटियाँ है। माइसेस, एफ.ए. हायेक, विलियम रॉपके, नाइट एवं हैजनिट ने निम्न कथनों से आलोचना की है - हेनरी हैजलिट ने कहा, "हमारे युग का महानतम बौद्विक घोटाला " है। इसी तरह प्रो. हट्ट ने कहा, "केन्स के विचारों में जो कुछ मौलिक था वह गलत था और जो कुछ सही था वह मौलिक नहीं था।"

केन्स के प्रभावपूर्ण माँग अथवा रोजगार के सिद्धांत के विरुद्ध निम्नलिखित आलोचनाएं दी जाती है

(1) सामान्य सिद्धांत नही :- यह सिद्धांत सभी देशों में समान रूप से लागू नहीं होता। यह केवल इंग्लैण्ड तथा अमेरिका जैसे पूँजीवादी देशो में रोजगार के समस्याएँ का विश्लेषण करता है। रूस जैसे साम्यवादी देशो पर यह सिद्धांत लागू नहीं होता।

(2) अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित :- शास्त्रीय सिद्धांत की तरह ही केन्स का सिद्धांत भी पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। हम जानते है कि वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिती नहीं पाई जाती। अतः केन्स का सिद्धांत वास्तविक परिस्थितियों की व्याख्या नहीं करता।

(3) अल्पकालिन व्याख्या :- केन्स की व्याख्या अल्पकालिन व्याख्या है। केन्स ने अल्पकालिन समस्याओं पर ही ध्यान केन्द्रित रखा दीर्घकालीन समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उनका कहना है की दीर्घकाल में हम सभी मर जाते हैं।

(4) रोजगार स्तर तथा प्रभावपूर्ण माँग के बीच कोई सीधा संबंध मान लेना ठीक नहीं :- केन्स ने प्रभावपूर्ण माँग तथा रोजगार के स्तर के बीच क्रियात्मक संबंध को स्वीकार किया परन्तु इसके लिए सांख्यिकीय प्रमाण प्रस्तुत नहीं किऐ।

(5) सिद्धांत प्रावैगिक नहीं :- केन्स का सिद्धांत अपेक्षित रूप से प्रावैगिक नहीं है तथा इसमे समय विलम्ब की विवचना नहीं की गई। वास्तव में, आय और उपभोग में कुछ समय विलम्ब होता है और उस सीमा तक रोजगार में तत्काल वृद्धि नहीं होती

(6) माइक्रो दृष्टिकोण की उपेक्षा :- यह सिद्धांत अकेले मैक्रो दृष्टिकोण से प्रतिपादित किया गया और माइक्रो दृष्टिकोण से इसकी उपेक्षा की गई है।

(7) विनियोग पर अधिक बल :- रोजगार स्तर पर उपभोग प्रवृत्ति का भी प्रभाव पड़ता है परन्तु केन्स ने इसे अल्पकाल में स्थिर मान लिया और रोजगार स्तर के निर्धारण के लिए इसको महत्व नहीं दिया। वास्तव में बेरोजगारी किसी एक कारण का परिणाम नहीं होता है और इसके उपचार के लिए अनेक तत्त्वों की ओर ध्यान देना पड़ता है।

(8) वितरण की समस्या का हल नही :- प्रो. केन्स ने अपने रोजगार के सिद्धांत में साधनों के वितरण की समस्या पर ध्यान नहीं दिया है। पूर्ण रोजगार का अधिकतम लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि विभिन्न प्रयोगो में साधनो का उचित वितरण हो।

निष्कर्ष

उपयुक्त व्याख्या से स्पष्ट होता है की अनेक प्रकार से महत्वपूर्ख होते हुए भी केन्स के सिद्धांत पूर्णतः सही नहीं है। इसका प्रभाव कुछ क्षेत्र में थोडा सा है और कुछ अन्य क्षेत्रो में सर्वथा शून्य है।

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