आर्थिक विकास में बाधाएँ अथवा अर्द्ध-विकास या अल्पविकास के कारण [OBSTACLES IN ECONOMIC DEVELOPMENT OR CAUSES OF UNDER-DEVELOPMENT]

आर्थिक विकास में बाधाएँ अथवा अर्द्ध-विकास या अल्पविकास के कारण [OBSTACLES IN ECONOMIC DEVELOPMENT OR CAUSES OF UNDER-DEVELOPMENT]

आर्थिक विकास में बाधाएँ अथवा अर्द्ध-विकास या अल्पविकास के कारण [OBSTACLES IN ECONOMIC DEVELOPMENT OR CAUSES OF UNDER-DEVELOPMENT]

प्रश्न :- अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास में क्या-क्या प्रमुख बाधाएँ रही है ? इन पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जा सकती है ?

"यह कहना काफी ठीक होगा कि एक देश आर्थिक दृष्टि से इसलिए गरीब होता है क्योंकि वह राजनीतिक, सामाजिक तथा प्राकृतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ होता है।" व्याख्या कीजिए

"विकारा का मार्ग विषैले वृनों से अवरुद्ध हो चुका है।" समीक्षा कीजिए

अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास की क्या मुख्य बाभाएँ रही हैं? उनके आर्थिक विकास के लिए आवश्यक उपाय बतलाइये।

उत्तर :- आर्थिक विकास में बाधक तत्वों से आशय ऐसे तत्वों से है जो देश के आर्थिक विकस में रुकावटें उत्पन्न करते हैं। प्रायः अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों के विकास न करने का कारण वे बाधाएँ हैं जो अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों के लक्षणों के कारण उदय हो जाती हैं। स्थानीय या ऐतिहासिक शक्तियों से उदित असामान्य कारणों के अतिरिक्त अन्य सामान्य शक्तियाँ भी होती हैं जो इन देशों की अर्थव्यवस्था के विकास में बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। बाधक तत्वों की तीव्रता में अन्तर हो सकता है, परन्तु अधिकांश अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों के विकास में इन तत्वों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यद्यपि अल्पविकसित देशों की सामान्य विशिष्टताएँ सभी अल्पविकसित देशों में समान रूप से नहीं पायी जातीं, फिर भी इन विशिष्टताओं में इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर विद्यमान है कि कोई देश दरिद्र क्यों है? अर्द्ध- विकसित राष्ट्रों में ऐतिहासिक शक्तियों एवं बाधक घटकों ने एक लम्बे काल तक अपना प्रभाव दिखाया है और उसी के परिणामस्वरूप अर्द्ध-विकसित होने के कारणों एवं परिवर्तनों में भेद करना कठिन हो रहा है। इस सम्बन्ध में नर्कसे का मत है कि "एक राष्ट्र इसलिए गरीब है क्योंकि वह गरीब है।"। विशिष्टताओं में से अनेक दरिद्रता का कारण एवं परिणाम दोनों है। इन्हें सामूहिक रूप से 'दरिद्रता का दुश्चक्र' कहा जाता है।

आर्थिक विकास में बाधाएँ या अल्पविकास के कारण

(1) राष्ट्रीय बाधाएँ (National Obstacles)

(A) आर्थिक बाधाएँ (Economic Obstacles)

अर्द्ध-विकसित देशों में आर्थिक विकास की प्रमुख आर्थिक बाधाएँ निम्नलिखित हैं:

(1) निर्धनता का कुचक्र (Vicious Circle of Poverty)- अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों की प्रमुख विशेषताओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ये देश सामान्यतः निर्धन होते हैं तथा ऐसे राष्ट्रों में, निर्धनता के चिरस्थायी बंध रहने की प्रवृत्ति पायी जाती है। इस तथ्य को प्रो. नर्क्स (Naurks) ने निर्धनता का कुचक्र कहा है।

निर्धनता के कुचक्र का अर्थ (Meaning g of Vicious Circle of Poverty)- निर्धनता के कुचक्र से आशय यह है कि निर्धनता स्वयं ही निर्धनता को जन्म देती है। दूसरे शब्दों में, निर्धनता का कुचक्र ऐसी वृत्ताकार (Circular) किया है जिसका प्रारम्भ भी निर्धनता है तथा अन्त भी निर्धनता है। संक्षेप में, निर्धनता का कुचक्र से अभिप्राय उस चक्रीय या वृत्ताकार सम्बन्ध से है जिसका कारण और परिणाम की अलग-अलग व्याख्या करना सम्भव नहीं है। प्रो. हिंगिस इसी बात को 'पहले मुर्गी या अण्डा' के प्रश्न के रूप में उठाते हुए कहते हैं. "आर्थिक विकास का पथ अनेक दुश्चक्रों से भरा है।"

दुश्चक्र की व्याख्या (Explanation of the Vicious Circle) निर्धनता के कुचक्र की कार्यविधि को स्पष्ट करने के लिए हम एक सामान्य व्यक्ति का उदाहरण लेते हैं। उदाहरण के लिए, एक निर्धन व्यक्ति को पर्याप्त खाद्य नहीं मिल पाता। कम खाद्य मिलने के कारण वह निर्बल हो जाता है। निर्बल हो जाने के कारण उसकी कार्यक्षमता कम हो जाती है जिसका अर्थ यह है कि वह निर्धन है अर्थात् उसकी आय कम है जिसका फिर अर्थ यह है कि उसे पर्याप्त खाद्य सामग्री नहीं मिलती और इस प्रकार यह क्रम आगे भी चलता रहता है जैसा कि चित्र 1 में दर्शाया गया है।

आर्थिक विकास में बाधाएँ अथवा अर्द्ध-विकास या अल्पविकास के कारण [OBSTACLES IN ECONOMIC DEVELOPMENT OR CAUSES OF UNDER-DEVELOPMENT]

चित्र 1 में प्रदर्शित स्थिति को हम इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं कि "व्यक्ति इसलिए निर्धन है कि वह निर्धन है।"

जो बात एक व्यक्ति पर लागू होती है, वह सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर लागू होती है। इसलिए कहा जाता है कि एक देश इसलिए निर्धन है कि वह निर्धन है।

प्रो. नर्क्स ने भी लिखा है कि निर्धनता के कुचक्र का अर्थ नक्षत्र-मण्डल के समान शक्तियों का इस प्रकार से घूमना है कि वे परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया करती हुई निर्धन देश को निर्धनता की अवस्था में ही रखें।

निर्धनता के कुचक्र की विशेषताएँ (Characteristics of Vicious Circle of Poverty) उपर्युक्त विश्लेषण से हमें निर्धनता के कुचक्र की निम्नलिखित विशेषताओं का अभास होता है:

(1) निर्धनता का कारण व परिणाम स्वयं निर्धनता है।

(2) निर्धनता अपने प्रारम्भिक विन्दु से अन्तिम बिन्दु तक चक्रीय या वृत्ताकार ढंग से क्रिया व प्रतिक्रिया करती हुई बढ़ती है।

(3) इसका प्रभाव संचयी होता है अर्थात् एक स्तर पर पायी जाने वाली निर्धनता अगले स्तर पर और भी अधिक घातक होने लगती है।

(4) यह एक ऐसी अनवरत प्रक्रिया है जो सम्बन्धित घटकों को सदैव नीचे की ओर धकेलती है।

(5) निर्धनता के कुचक्र का प्रारम्भ एक ऋणात्मक घटक की उपस्थिति से होता है और यह घटक अगले ऋणात्मक घटक का कारण व परिणाम दोनों होता है।

निर्धनता के कुचक्र के प्रमुख पक्ष (Main Aspects of Vicious Circle of Poverty)- निर्धनता के कुचक्र का मुख्य कारण अर्द्ध-विकसित देशों में पूँजी की पूर्ति व माँग का अभाव है। किसी देश में पूँजी की पूर्ति बचत करने की इच्छा व शक्ति पर निर्भर करती है, जबकि पूँजी की माँग विनियोग की प्रेरणाओं पर निर्भर करती है। विश्व के अधिकांश निर्धन देशों में जनता के इस कुचक्र में मॉग और पूर्ति दोनों ही पक्ष है। इस प्रकार निर्धनता के कुचक्र के मुख्य पक्ष निम्नलिखित दो हैं:

1. कुचक्र का पूर्ति पक्ष अथवा कम बचत का कुचक्र (Supply Side of Vicious Circle or Vicious Circle of Low Saving)- निर्धनता के कुचक्र के पूर्ति पक्ष से यह मालूम होता है कि अर्द्ध-विकसित देशों में लोगों की आय इतनी कम होती है कि वे बचत करके पूँजी निर्माण करने में असमर्थ रहते है। इस प्रक्रिया को एक चित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है।

आर्थिक विकास में बाधाएँ अथवा अर्द्ध-विकास या अल्पविकास के कारण [OBSTACLES IN ECONOMIC DEVELOPMENT OR CAUSES OF UNDER-DEVELOPMENT]

चित्र 2 में दर्शाया गया है कि आर्थिक पिछड़ापन और पूँजी की कमी के कारण उत्पादकता का स्तर नीचा बना रहता है जिसके फलस्वरूप आय का स्तर नीचा हो जाता है। नीची आय के स्तर पर लोगों की बचत करने की क्षमता और इच्छा कम हो जाती है। बचत में कमी विनियोग के स्तर को भी कम बना देती है जिसके कारण पूँजी निर्माण की दर कम होती है और अर्थव्यवस्था आर्थिक पिछड़ेपन में फंसी रहती है क्योंकि इस विवरण में हम कम विनियोग का कारण पूँजी को न्यूनतम बताते है, इसलिए इसे निर्धनता चक्र का पूर्ति पक्ष का नाम देते हैं। कुचक्र के पूर्ति पक्ष को नीचे चार्ट में दर्शाया गया है:

कुचक्र का पूर्ति पक्ष (Supply Side of Vicious Circle of Poverty):

कम आय →  कम बचत → कम विनियोग → कम पूँजी निर्माण → कम उत्पादकता → कम आय→

निर्धनता कुचक्र का माँग पक्ष अथवा कम माँग का कुचक्र (Demand Side of Vicious Circle or Vicious Circle of Low Demand) - निर्धनता के कुचक्र का माँग पक्ष यह है कि अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों में पूँजी की माँग सीमित होती है। अर्द्ध-विकसित अर्थव्यवस्थाएँ पर्याप्त मात्रा में निवेश को प्रोत्साहित करने में असमर्थ रहती हैं जिसके कारण गरीबी का कुचक्र क्रियाशील रहता है। इस चक्र को हम चित्र 3 की सहायता से स्पष्ट कर सकते हैं।

आर्थिक विकास में बाधाएँ अथवा अर्द्ध-विकास या अल्पविकास के कारण [OBSTACLES IN ECONOMIC DEVELOPMENT OR CAUSES OF UNDER-DEVELOPMENT]

चित्र में बताया गया है कि आर्थिक पिछड़ेपन के कारण लोगों की उत्पादकता कम होती है तथा आय का स्तर भी नीचा रहता है। इसलिए लोगों की क्रय-शक्ति भी कम होती है जिसके कारण बाजार का आकार सीमित हो जाता है। सीमित बाजार के कारण विनियोग की प्रेरणा नहीं मिल पाती। विनियोग का स्तर कम होने के कारण पूँजी निर्माण की मात्रा कम हो जाती है जो आर्थिक पिछडेपन को जन्म देती है।

निर्धनता के कुचक्र का माँग पक्ष (Demand Side of Vicious Circle of Poverty):

कम आय → कम माँग या कम क्रय शक्ति → कम निवेश → कम पूँजी निर्माण → कम उत्पादकता → कम आय →

निर्धनता के कुचक्र के समीकरण (Equations of Vicious Circle of Poverty)- निर्धनता के कुचक्र को अग्र समीकरणों की सहायता से व्यक्त किया जा सकता है:

(1) आय निर्भर करती है विनियोग (पूँजी निर्माण) पर अर्थात् आय विनियोग का फलन है।

Y = ƒ (I) ----(1)

(2) विनियोग बचत पर निर्भर करती है अर्थात् विनियोग बचत का फलन है:

I = ƒ (S) ----(2)

(3) बचत आय पर निर्भर करती है अर्थात् बचत आय का फलन है।

S = ƒ (Y)-----(3)

इस प्रकार

(1) आय में होने वाली वृद्धि पूँजी (विनियोग) पर निर्भर करती है।

(ii) पूँजी में होने वाली वृद्धि बचत पर निर्भर करती है और

(iii) बचत में होने वाली वृद्धि स्वयं आय पर निर्भर करती है। फलतः निर्धनता का कुचक्र चलता है और अर्द्ध-विकसित देशों में आर्थिक विकास की दर लगभग शून्य (Zero) होती है।

कुचन को तोड़ने की आवश्यकता (Need to Break the Vicious Circle) "निर्धनता एक शाप है किन्तु इससे भी बड़ा अभिशाप यह है कि यह स्वयं को चिरस्थायी बनाये रखती है।" यह राष्ट्र को निर्धनता एवं अल्पविकास में जकड़ लेती है। निर्धन देशों के अनुभव ने यह प्रमाणित कर दिया है कि यह "निर्धनता का दूषित चक्त स्वतः सुधारक न होकर स्वतः स्थायी है" (Poverty is not self-correcting but self-perpetuating) इसीलिए इसे दूषित (Vicious) कहा जाता है किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि निर्धन राष्ट्र सदैव निर्धन बने रहेंगे। आज विकसित कहलाने वाले देश, जैसे रूस, अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि भी कुछेक दशाब्दियों पूर्व निर्धन और अर्द्ध-विकसित देश थे। एशिया महाद्वीप के ही दो बड़े देश जापान और चीन आर्थिक प्रगति के ज्वलन्त उदाहरण हैं। इसी प्रकार अन्य विकासशील देश भी निर्धनता के अभिशाप से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है। इन विकासशील देशों के निवासी यह स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं हैं कि गरीबी और पिछड़ापन सदा के लिए उनके भाग्य में लिखा है। अतः निर्धनता के दलदल से बाहर निकलने के लिए यह आवश्यक है कि विकासशील देश निर्धनता के दुष्चक्र को प्रभावशाली ढंग से तोड़ें।

दुष्चक्र को तोड़ने के तरीके (Methods of Breaking the Vicious Circle) प्रो. नर्क्स का कथन है, "हम जानते है कि विश्व के कुछ भागों में आर्थिक विकास हुआ है। अतः स्पष्ट है कि इन देशों ने किसी न किसी प्रकार इस दुष्वक्र को तोड़ा होगा। इसलिए गतिहीनता के सिद्धान्त के बाद अब विकास-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाना चाहिए जिसमें यह विवेचन किया जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था के इस स्थिर पिछड़ेपन से मुक्ति पाने में कौन-सी शक्तियाँ सहायक रही हैं या है।"

संक्षेप में, आर्थिक विकास को प्राप्त करने के लिए इस दुष्चक्र को तोड़ना अर्द्ध-विकसित देशों का प्राथमिक कार्य होता है परन्तु इस दरिद्रता के कुचक्र को समाप्त करना सहज कार्य नहीं है। इसके समाधान के लिए एक प्रभावशाली आन्दोलन की आवश्यकता है।

सर्वप्रथम पूँजी के पूर्ति पक्ष के दूषित चक्र को तोड़ना होगा, ताकि पूँजी के अभाव की समस्या से मुक्ति पायी जा सके। इसके लिए हमें

(अ) बचत तथा विनियोग के प्रत्येक सम्भव उपाय का प्रयत्न करना होगा;

(ब) समारोहों, उत्सवो, वैभवपूर्ण उपभोग, आभूषणों आदि अनुत्पादक कार्यों पर किये जाने वाले व्यय को कम कर, इसे उत्पादक कार्यों में लगाना होगा;

(स) जनता के आर्थिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में उपभोग में कटौती करनी होगी,

(द) अर्द्ध-विकसित देशों में व्याप्त अदृश्य बेरोजगारी के रूप में छिपी हुई बचत सम्भावनाओं का प्रयोग किया जा सकता है;

(य) अन्त में, पूँजी की आवश्यकता का कुछ भाग विदेशी सहायता से भी पूरा किया जा सकता है। इन सभी आन्तरिक तथा बाह्रा उपायों के द्वारा पूँजी के पूर्ति पक्ष के दूषित चक्र को तोड़कर बचत एवं विनियोग को प्रोत्साहन दिया जा सकता है।

इसी प्रकार माँगपक्षीय दूषित चक्र को भी तोड़ा जा सकता है। इसके लिए पूँजी की माँग-वृद्धि तथा बाजार के आकार में वृद्धि करनी होगी। बाजार के विस्तार के लिए सन्तुलित तथा असन्तुलित विकास के मार्ग अपनाये जा सकते हैं। सन्तुलित विकास की स्थिति में एक साथ कई प्रकार के विभिन्न उद्योगों में पूँजी का विनियोग किया जाता है जिनके कारण माँग में वृद्धि होती है और बाजार का विस्तार होता है। असन्तुलित विकास की स्थिति में उद्योगों की स्थापना का भार निजी उद्योगपतियो को सौपा जाता है।

निर्धनता के कुचक्र की आलोचनाएँ (Criticisms of Vicious Circle of Poverty) प्रो. गुन्नार मिर्डल ने निर्धनता के कुचक्र की संचयी प्रक्रिया व एकतरफा नकारात्मक स्वरूप की आलोचना करते हुए कहा है कि यह आवश्यक नहीं है कि निर्धनता का यह कुचक्र सदैव एक ही दिशा अर्थात् नीचे की ओर अग्रसर होता रहे अर्थात् एक निर्धन देश उत्तरोत्तर निर्धन ही होता जायेगा। तृतीय विश्व के देशों के अनुभविक तथ्य भी इस बात की पुष्टि नहीं करते।

पी. टी. बौर का विचार है कि 'निर्धनता के कुचक्र' का सिद्धान्त सत्य नहीं है। कारण यह है कि यदि यह सत्य होता तो धनी व गरीब देशों में बहुत-से व्यक्ति व समुदाय गरीबी से अमीरी की ओर नहीं जा सकते थे। आज के विकसित राष्ट्रों ने अवश्य ही निर्धनता व निम्न प्रति व्यक्ति आय व अल्प पूँजी से ही प्रारम्भ किया था। इन्हें बाहा पूँजी व अनुदान भी अधिक प्राप्त नहीं हुए लेकिन इसके बाद भी इन्होंने अपना विकास किया। तात्पर्य यह है कि निर्धनता के कुचक्र' की बात सत्य नहीं मानी जा सकती। अर्द्ध-विकसित राष्ट्री में स्वतः बहुत तीव्रता से प्रगति हुई है।

संक्षेप में, निर्धनता के कुचक्र का सिद्धान्त तर्क, अनुभव एवं विश्लेषण की दृष्टि से अल्पविकास की उचित व्याख्या नहीं मानी जा सकती। इस सिद्धान्त का केवल यह योगदान है कि इसने आर्थिक विकास के लिए बचत व पूँजी निर्माण के महत्व की व्याख्या की है।

2. पूँजी निर्माण की समस्या (Problem of Capital Formation) अर्द्ध-विकसित देशों में विकास के लिए विशाल पूँजी की आवश्यकता पड़ती है किन्तु देशों के अविकसित रहने के कारण इनकी राष्ट्रीय आय बहत ही कम रहती है, फलस्वरूप प्रति व्यक्ति आय कम होती है, अतः बचत नहीं हो पाती। बचत न होने के कारण विनियोग के लिए पर्याप्त पूँजी प्राप्त नहीं होती जिससे विकास के कार्य नहीं हो पाते। यह चक्र बराबर चलते रहने के कारण देश निर्धनता और पिछड़ेपन की बेड़ियों से जकड़ा रहता है। के. मेण्डिलवाम (K. Mandelbam) के शब्दों में, "निर्धन कृषि प्रधान देशों में औसत आय इतनी कम है तथा उपभोग की क्षमता इतनी अधिक है कि विनियोग के लिए बहुत कम बचता है।" प्रो. पाल एलवर्ट के शब्दों में, "विनियोग के लिए उपलब्ध घरेलु बचतों की कमी सम्भवतः द्रुत आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण एकाकी बाधा है।"

प्रश्न यह उठता है कि इन देशों में पूँजी की कमी क्यों होती है? इसके प्रमुख कारण इस प्रकार है-

(अ) इन देशों में व्याप्त असीम निर्धनता पूँजी निर्माण की निम्न दर का कारण और परिणाम दोनों है। सरल शब्दों में, आय का निम्न स्तर बचत और विनियोग को कम करने के लिए उत्तरदायी है।

(ब) बचत केवल उच्च आय वर्ग के मुठ्ठी भर लोगों के द्वारा की जाती है जो अपनी बनत को अनुत्पादक कार्यों, जैसे-स्वर्ण आभूषण, कीमती पत्थर आदि में अपव्यय कर देते है।

(स) प्रदर्शनकारी प्रभाव और बैंकिंग सुविधाओं का अभाव भी बचत निर्माण क्षमता पर अंकुश लगाये रखता है।

(द) बचत की कमी के साथ-साथ इन देशों में विनियोग की प्रेरणा का भी अभाव रहता है जिसके कारण विनियोग और पूँजी निर्माण की दर कम होती है।

इन देशों में विनियोग की प्रेरणा कम होने के निम्नलिखित कारण हैं

(i) नवप्रवर्तन की भावना न होना;

(ii) साधन गतिशीलता और कुशल श्रम के अभाव में ऊँची उत्पादन लागत से सम्भावित निवेश का रुक जाना;

(iii) घरेलू बाजार का सीमित आकार;

(iv) आर्थिक संरचना की अपर्याप्तता से निवेश की कम प्रेरणा मिलना;

(v) पूँजी बाजार का अभाव,

(vi) उद्यमीय योग्यता का पर्याप्त रूप में उपलब्ध न होना।

3. बाजार की अपूर्णताएँ (Market Imperfections)- अर्द्ध-विकसित देशों में अनेक प्रकार की अपूर्णताएँ बाजार में पायी जाती है। इस प्रकार की प्रमुख अपूर्णताएँ इस प्रकार है-

(अ) बाजार की दशाओं का पूर्ण ज्ञान,

(ब) साधनों की अगतिशीलता,

(स) एकाधिकार की उपस्थिति,

(द) कीमत अस्थिरता,

(य) विशिष्टीकरण का अभाव तथा

(र) स्थिर सामाजिक ढाँचा।

बाजार की उपर्युक्त अपूर्णताओं के कारण संसाधनों का आदर्शतम आबंटन सम्भव नहीं हो पाता। दूसरे शब्दों में, अर्द्ध-विकसित अर्थव्यवस्थाएँ अपनी सम्भावित क्षमता से कम क्षमता पर उत्पादन करती है।

4. आर्थिक संरचना का अभाव (Lack of Economic Infra-structure)- किसी भी अर्थव्यवस्था में आर्थिक प्रगति के संचालन में उसकी अर्थव्यवस्था की आर्थिक निर्माण संरचना (Infra-structure) का महत्वपूर्ण स्थान होता है। वास्तव में, अर्थव्यवस्था की आर्थिक निर्माण संरचना एक मंच का रूप होती है जिस पर विकास का नाटक संचालित होता है। जब तक यह मंच उपयुक्त आकार एवं प्रकार का नहीं होगा, तब तक नाटक का कुशल संचालन नहीं हो सकेगा। आर्थिक निर्माण संरचना के अन्तर्गत निम्नलिखित मदों को सम्मलित किया जाता है

(i) शक्ति,

(ii) सिचाई के विभिन्न साधन,

(iii) यातायात के साधन,

(iv) संचार,

(v) शिक्षा,

(vi) अनुसन्धान और विकास,

(vii) स्वास्थ्य,

(viii) अधिकोषण सुविधाएँ,

(ix) सामान्य एवं जीवन बीमा तथा श्रमिकों के हितों के लिए बीमा, और

(x) सांख्यिकी एवं सूचना-संगठन तथा संस्थाएँ।

उपर्युक्त समस्त मदें अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की उन सेवाओं का निर्माण एवं संचालन करती है जो उत्पादन क्रियाओं का संचालन करने एवं उनकी गति को तीव्र बनाने में सहायक होती है। इन सेवाओं की कमी अथवा अनुपस्थिति उत्पादक क्रियाओं के संचालन में प्रत्यक्ष गतिरोध उत्पन्न करती है।

5. जनसंख्या सम्बन्धी बाधाएँ (Population Problems) अर्द्ध-विकसित देशों की सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि है। प्रति व्यक्ति आय तथा पूँजी की कमी के कारण देश में जनसंख्या का तेजी से वृद्धि होना आर्थिक विकास के लिए आवश्यक धनराशि के संग्रह में कठिनाई उपस्थित करता है। और पूँजी का एक भारी अंश विद्यमान रहन-सहन के स्तर को बनाये रखने के लिए ही विनियोग करना पड़ता है। इससे नवीन क्षेत्रों में विनियोग के लिए कुछ नहीं बचता। उदाहरण के लिए, यदि पूँजी उत्पाद अनुपात' 8:1 हो तो 2% की दर से बढ़ती हुई जनसंख्या के विद्यमान रहन-सहन के स्तर को बनाये रखने के लिए 6% की दर से पूँजी निर्माण आवश्यक है। स्पष्टतः केवल विकसित देशों में ही, जिनकी पूँजी निर्माण की दर 20% से 25% है, इतनी गुंजाइश है। चूंकि अर्द्ध-विकसित देश अपनी राष्ट्रीय आय का केवल 5% से 10% भाग ही संचित कर सकते हैं इसलिए उनमें तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या का भार सहन करने की शक्ति नहीं है परन्तु फिर भी उनकी जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। प्रो. बीनेर के शब्दों में, "जनसंख्या वृद्धि, गरीब देशों के ऊपर संकटपूर्ण घने बादलों के समान आच्छादित है जो अन्य सभी तत्वों की आर्थिक उन्नति में योगदान को निष्फल कर सकती है।"

एक और कठिनाई इस बात से उत्पन्न होती है कि अर्द्ध-विकसित देशों में जनसंख्या के गुण निम्नस्तरीय होते हैं। अधिकांश जनसंख्या निर्धन व खराच स्वास्थ्य, अशिक्षित व कम आयु वाली है जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता का स्तर निम्न कोटि का है जिसके कारण अर्द्ध-विकसित देशों के विकास में बाधा आती है।

6. योग्य साहसी का अभाव (Lack of Able Entrpreneur) बौर एवं बामी के शब्दों में, "व्यक्तियों की लाभ के नये अवसरों को खोजने की योग्यता तथा उनका विदोहन करने की योग्यता व इच्छा आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है।"

निश्चय ही आर्थिक विकास के क्षेत्र में साहसी वर्ग का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। उदाहरण के लिए, 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन एवं 19वीं शताब्दी में अमेरिका का जो आर्थिक विकास हुआ, उसमें वहाँ के साहसी वर्ग अर्थात् 'उद्योग के कप्तान' (Captains of Industry) का सबसे महत्वपूर्ण स्थान था। साहसी वर्ग ही निर्जीव साधनों को सक्रिय शक्ति में बदलता है और औद्योगिक अवसरों का पता लगाकर उनमें लाभ उठाने के लिए जोखिम उठाता है किन्तु अर्द्ध-विकसित देशों में इस वर्ग का अभाव पाया जाता है। जो थोड़े-बहुत साहसी पाये जाते हैं, वे वाणिज्य व्यापार में लग जाते हैं जिनमें इनकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं होती। अर्द्ध-विकसित देशों में आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण के कारण औद्योगिक नेताओं का अभाव रहता है। संक्षेप में, अर्द्ध-विकसित देशों में साहसियों की पूर्ति के दो पहलू है

(अ) अर्द्ध-विकसित देशों में आर्थिक वातावरण साहसी वर्ग के उदय व उसके प्रशिक्षण के लिए अनुकूल व उत्साहप्रद नहीं होता।

(ब) यदि ऐसे व्यक्ति पर्याप्त संख्या में उपलब्ध भी हों तो भी उनका कार्य अर्द्ध-विकसित देशों में बहुत जटिल होता है।

7. प्रौद्योगिकीय या तकनीकी पिछड़ापन (Technological Backwardness) अर्द्ध-विकसित देशों में न केवल प्राकृतिक तथा मानवीय साधन अप्रयुक्त अवस्था में पड़े हैं बल्कि ये देश प्रौद्योगिकीय के सम्बन्ध में पिछड़े हैं जैसे प्रो. बौर (Bauer) ने कहा, "परम्परागत तरीकों से उत्पादन करना अर्द्ध-विकसित देशों की सबसे बड़ी विशेषता है। विकसित देशों की तुलना में अर्द्ध-विकसित देशों में उत्पादकता की कमी का सबसे प्रमुख कारण प्रौद्योगिकीय पिछड़ापन है।"

प्रो. कुजनेट्स के मतानुसार प्रौद्योगिकीय विकास के चार महत्वपूर्ण चरणों (अ) वैज्ञानिक खोज, (ब) आविष्कार, (स) नवप्रवर्तन तथा (द) सुधार का इन देशों में प्रायः अभाव होता है।

अर्द्ध-विकसित देशों में प्रौद्योगिकीय पिछड़ापन निम्नलिखित तीन रूपों में परिलक्षित होता है:

(1) ऊँची उत्पादन लागत (High Production Cost) अर्द्ध-विकसित देशों में पिछड़ी हुई तकनीक का उपयोग होने के कारण उत्पादन की कुल वास्तविक लागत अधिक होती है। इसलिए अर्द्ध-विकसित देशों में मजदूरी की दर कम होने के कारण इन देशों को ऊँची लागत क्षेत्र (High Cost Area) कहा जाता है, जबकि एक कम विकसित देश को कम लागत क्षेत्र (Low Cost Area) कहा जाता है। इन देशों में अधिकतर लोग पुरानी उत्पादन तकनीक को अपनाये रहते हैं जिसके कारण इनकी उत्पादन लागत अधिक रहती है। फलतः इन देशों की अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में प्रतियोगिता करने की शक्ति कम रहती है। लघु उद्योगों तथा कृषि क्षेत्र में भी पुरानी तकनीकियों को अपनाया जाता है।

(ii) ऊँची पूँजी-श्रम अनुपात (K/L) अर्थात् उत्पादकता का स्तर नीचा होना (High Capital-Labour Ratio) अर्द्ध-विकसित देशों में प्रौद्योगिकीय का पिछड़ापन इस बात से परिलक्षित होता है कि उत्पादन क्रिया में अकुशल तथा अप्रशिक्षित श्रमिकों की अधिकता होती है और उनका उत्पादकता का स्तर निम्न होता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक विवरण के अनुसार 100 किलोग्राम कृषि पदार्थों के उत्पादन में जहाँ अमेरिका में 1 घण्टा, रूस में 1.8 घण्टे और ब्रिटेन में 1.1 घण्टे लगते हैं, वहाँ भारत में 60 घण्टे से अधिक लगते हैं।

(iii) ऊँची पूँजी-उत्पादन अनुपात (K/Y) (High Capital Output Ratio)- अर्द्ध-विकसित देशों में ऊँची पूँजी-उत्पादन अनुपात भी उनके प्रौद्योगिकीय पिछड़ेपन को दर्शाता है। पूँजी-उत्पादन अनुपात का अर्थ है कि उत्पादन की एक इकाई उत्पादन करने के लिए पूँजी की कितनी इकाइयों की आवश्यकता होती है। आर्थिक विकास के लिए पूँजी-उत्पादन अनुपात का कम होना उचित होता है परन्तु अर्द्ध-विकसित देशों में उत्पादन की पिछड़ी हुई तकनीकी के कारण पूँजी-उत्पादन अनुपात अधिक रहता है। उदाहरण के लिए, एक इकाई के उत्पादन के लिए अमेरिका में 2.2 इकाई पूँजी कृषि में तथा 1.1 इकाई पूँजी की आवश्यकता उद्योग में पड़ती है। वहीं भारत में औसत पूँजी-उत्पादन अनुपात 3.6:1 है अर्थात् 1 इकाई के उत्पादन पर 3.6 इकाई पूँजी की आवश्यकता पड़ती है।

प्रौद्योगिकीय पिछड़ेपन के कारण (Causes of Technological Backwardness)- अर्द्ध-विकसित देशों में उत्पादन तकनीकी के पिछड़ेपन का एक मुख्य कारण यह है कि इन देशों में प्रति व्यक्ति आय कम होती है, इसलिए पूँजी का अभाव होता है परन्तु श्रम की अधिकता पायी जाती है। इस कारण नवीनतम तकनीकों का प्रयोग भी सम्भव नहीं होता। ये देश विज्ञान की दृष्टि से काफी पिछड़े हुए हैं। एक अनुमान के अनुसार, "विश्व के वैज्ञानिक अनुसन्धान का 95 प्रतिशत भाग 20 विकसित देशों में सीमित है। शेष 5 प्रतिशत भाग विश्व के अन्य 100 देशों से सम्बन्धित है।"

यह प्रौद्योगिकीय पिछड़ापन प्रौद्योगिकीय द्वैतवाद (Technology Dualism) का परिणाम है और कुछ हद तक उसका कारण भी। प्रौद्योगिकीय द्वैतवाद का अर्थ है एक अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में उत्पादन की उन्नत और पिछड़ी हुई तकनीकों का साथ-साथ प्रयोग किया जाना। ग्रामीण क्षेत्र में पिछड़ी हुई तकनीक का और औद्योगिक या प्राथमिक क्षेत्र में उन्नत तकनीक का प्रयोग किया जाता है। यह द्वैतवाद साधन-अनुपाती (Factor Proportions) में असन्तुलन उत्पन्न करता है जिसके एक तरफ ग्रामीण क्षेत्र में 'अदृश्य बेरोजगारी' तो दूसरी तरफ औद्योगिक क्षेत्र में 'संरचनात्मक या तकनीकी बेरोजगारी' पनपने लगती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार, "कुछ नयी तकनीकों का प्रयोग अर्द्ध-विकसित देशों में होने लगा है। पर इसने केवल कुछ सीमित क्षेत्रों को ही प्रभावित किया है तथा उनके सामाजिक तथा आर्थिक ढाँचे को पूर्णतया प्रभावित नहीं किया है। उत्पादन के मुख्य क्षेत्र अछूते रहे हैं।”

(B) गैर-आर्थिक बाधाएँ (Non-economic Obstacles)

संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेषज्ञों के अनुसार, "एक देश के लोगों के द्वारा प्रगति की इच्छा की जानी चाहिए तथा उनकी सामाजिक, आर्थिक, कानूनी और राजनीतिक संस्थाएँ उसके अनुकूल होनी चाहिए।"

अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास की मुख्य गैर-आर्थिक बाधाएँ निम्नलिखित है:

(1) सामाजिक बाधाएँ (Social Obstacles) अर्द्ध-विकसित देशों की सामाजिक रीति-रिवाज व परम्पराएँ उनके आर्थिक विकास के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा सिद्ध होती है। उदाहरण के लिए, उन देशों में पाया जाने वाला जातिवाद श्रम की गतिशीलता को कम करता है। संयुक्त परिवार प्रथा के फलस्वरूप लोगों के काम करने की प्रवृत्ति कम होती है। इसी प्रकार उत्तराधिकार के नियम कृषि के विकास में बाधक होते हैं। अर्द्ध-विकसित देशों की ये सामाजिक कुरीतियों आर्थिक विकास के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि का निर्माण नहीं कर पातीं।

(2) धार्मिक बाधाएँ (Religious Obstacles) अर्द्ध-विकसित देशों में धार्मिक प्रवृत्तियाँ विकास के मार्ग में बाधाएँ डालती है। जहाँ धर्म इन्हें भाग्यवादी और डरपोक बनाता है, वहाँ आध्यात्मिक प्रवृत्ति बचत तथा परिश्रम के गुणों को प्रोत्साहित नहीं करती है। भाग्यवादी होने के कारण यहाँ के लोग विकास के लिए प्रयत्न नहीं करते और निर्धनता को ईश्वरीय देन समझते हैं।

(3) राजनीतिक बाधाएँ (Political Obstacles)- अर्द्ध-विकसित देशी के आर्थिक विकास में राजनीतिक बाधाएँ भी बहुत महत्व रखती हैं। अनेक अर्द्ध-विकसित देशों ने कुछ वर्ष पूर्व ही उपनिवेशवाद (Colonialism) से मुक्ति प्राप्त की है। साम्राज्यवादी देशों, जैसे ब्रिटेन, फ्रांस आदि ने अपने अधीन देशों का पूर्ण रूप से अधिक शोषण किया है। भारत के आर्थिक पिछड़ेपन का एक मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा किया गया आर्थिक शोषण था।

अर्द्ध-विकसित देशों में राजनीतिक अस्थिरता, दलबदलू सरकारे, राजनीतिक दलों द्वारा हड़तालें व राजनीतिक भ्रष्टाचार भी इनके आर्थिक विकास में बाधक है।

(4) प्रशासनिक बाधाएँ (Administrative Obstacles) अर्द्ध-विकसित देशों का प्रशासनिक ढाँचा भी विकास में एक बड़ी बाधा धारण किए हुए है। प्रशासनिक ढाँचा राजनीति से प्रेरित रहता है जिससे इन अर्थव्यवस्थाओं में लोग सरकारी कार्यों को पूरी निष्ठा से नहीं निभाते हैं। प्रशासन में भाई-भतीजावाद, रिश्वत, पक्षपात इत्यादि बुराइयों फैली हुई हैं। संक्षेप में, भ्रष्ट प्रशासन आर्थिक विकास की एक बहुत बड़ी बाधा है।

(II) अन्तर्राष्ट्रीय बाधाएँ (International Obstacles)

प्रसिद्ध विकासवादी अर्थशास्त्रियों, जैसे-प्रो. डब्ल्यू, आर्थर लुईस (Lewis), मिंट (Myint), गुन्नार मिर्डल (Gunnar Myrdal), प्रैविश (Prebisch) तथा सिगर (H. W. Singer) आदि का मत है कि विश्व जगत में कुछ असमानताजनक शक्तियों (Disequalising Forces) के उदय होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अधिकांश लाभ विकसित देशों को प्राप्त हुआ है, जयकि पिछड़े हुए देश इन लाभी से वंचित बने रहे।

(1) द्वैत अर्थव्यवस्थाएँ (Dual Economies) मिर्डल के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के फलस्वरूप जो विदेशी पूँजी अर्द्ध-विकसित देशों में विनियोग की जाती है, उसका प्रभाव मुख्यतः उन वस्तुओं के उत्पादन पर पड़ता है जिनका निर्यात किया जाता है जिसके कारण अर्द्धविकसित देशों की उत्पादन संरचना असन्तुलित हो जाती है और वे द्वैत अर्थव्यवस्थाएँ बन जाती है अर्थात् अर्द्ध-विकसित देशों में दोहरी अर्थव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। एक ओर विकसित निर्यात क्षेत्र होता है और दूसरी ओर, पिछड़ा हुआ घरेलू उत्पादन क्षेत्र होता है। विदेशी व्यापार के कारण होने वाले विनियोग के फलस्वरूप देश के निर्यातक क्षेत्र का तो विकास होता है परन्तु शेष अर्थव्यवस्था अविकसित रह जाती है। घरेलू उत्पादन क्षेत्र की उत्पादकता कम ही रह जाती है। इस क्षेत्र में मुख्य रूप से कृषि, लघु तथा कुटीर उद्योग आदि शामिल होते है। इस क्षेत्र में भी रोजगार की एक सीमा होती है। विदेशी व्यापार के कारण जो पूँजी प्राप्त होती है, वह इस क्षेत्र में कम मात्रा में विनियोग की जाती है। इसके फलस्वरूप देश में छिपी बेरोजगारी (Disguised Unemployment) फैलने लगती है जिससे लोगों का जीवन स्तर नीचा हो जाता है।

दूसरी ओर, निर्यात क्षेत्र में आधुनिक पूँजीगत तकनीकों का प्रयोग किया जाता है जिससे उस क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम होते जाते हैं। निर्यात क्षेत्र के विकसित होने का यह भी प्रभाव होता है कि विदेशी फमें एकाधिकार प्राप्त कर लेती हैं। इस एकाधिकार के कारण वे देश के लोगों से कच्चा माल तथा कृषि पदार्थ कम कीमतों पर खरीदते हैं परन्तु उन्हें आयात की गयी वस्तुओं की अधिक कीमतें देनी पड़ती है। इसलिए देश के उत्पादकों को सस्ता बेचना तथा महँगा खरीदना पडता है। साथ ही निर्यात पर अधिक निर्भर अर्थव्यवस्था विश्व बाजार की मांग तथा मूल्य के उच्चावचनों से शीघ्र ही प्रभावित होने लगती है। इससे उसमें अस्थिरता आ जाती है जिसके कारण निर्धन देशों को भुगतान सन्तुलन के दबावों को सहन करना पड़ता है।

(2) व्यापार की शर्तों में दीर्घकालीन प्रतिकूलता (Secular Deterioration in Terms of Trade) व्यापार की शर्त तथा प्रेविश दृष्टिकोण या थीसिस (Terms of Trade and Prebisch Thesis) व्यापार की शर्तें उस दर से सम्बन्धित है जिस पर किसी देश के निर्यात और आयात में विनिमय होता है। जब व्यापार की शर्ते प्रतिकूल होती है तो निर्यात की मात्रा में वृद्धि होते हुए भी और आयात में अपेक्षाकृत कम वृद्धि होने पर भी देश को विदेशी व्यापार से बहुत कम लाभ आर्थिक विकास हेतु प्राप्त होता है। निर्यात वस्तुओं की कीमत अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कम होने पर देश की क्रय-शक्ति कम हो जाती है और निर्यात आय को पूर्ववत् बनाये रखने के लिए अधिक वस्तुओं के निर्यात की आवश्यकता होती है।

प्रो. प्रेविश, गुन्नार, मीट, सिंगर जैसे अर्थशास्त्रियों का मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ने अर्द्ध-विकसित देशों के विकास में एक बाधक या रुकावट का काम किया है क्योंकि व्यापार की शर्ते उनके प्रतिकूल रही है।

प्रेबिश के मतानुसार कीमत पर आधारित होने के कारण अदला-बदली, व्यापार की शर्त, सैद्धान्तिक रूप से अर्द्ध-विकसित देशो के पक्ष में होना चाहिए क्योंकि अर्द्ध-विकसित देशों द्वारा उत्पादित की जाने वाली प्राथमिक वस्तुओं की लागत निर्मित औद्योगिक वस्तुओं की लागत से अधिक होगी क्योंकि एक तो कृषि में लागत वृद्धि नियम लागू होता है, दूसरे, तकनीकी प्रगति भी कृषि क्षेत्र में कम होती है।

व्यापार की शर्तें अर्द्ध-विकसित देशों के विरुद्ध रहती हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने निम्नलिखित कारण दिये है:

(i) तकनीकी प्रगति (Technical Progress) से उत्पन्न लाभ का अर्द्ध-विकसित देशों से विकसित देशों की ओर हस्तान्तरित होना उनके अनुसार तकनीकी प्रगति के फल या तो अधिक आय के रूप में उत्पादकों को प्रदान किये जाते हैं अथवा कम कीमतों के रूप में उपभोक्ताओं को दिये जाते हैं। जहाँ तक औद्योगिक देशों का सम्बन्ध है, वे तकनीकी प्रगति के फलों को उच्च आमदनी के रूप में उत्पादकों को सौंपते है। इस प्रकार औद्योगिक देशों में तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप उत्पादकता में वृद्धि होने से जो लाभ होता है, उसका वितरण इस प्रकार होता है कि मजदूरियां बढ़ा दी जाती है और लाभ बढ़ जाता है, जबकि अर्द्ध-विकसित देशों में खाद्य पदार्थों तथा कच्चे माल के उत्पादन के मामलों में तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप उत्पादकता बढ़ने से जो लाभ होता है, उसे कम कीमतों के रूप में उपभोक्ताओं को प्रदान किया जाता है। अतः चूंकि निर्मित वस्तुओं का निर्माण करने वाले देशों में कीमतें पूर्ववत् ही रहती हैं परन्तु अर्द्ध-विकसित देशों में तकनीकी प्रगति के कारण कीमतें घट जाती हैं इसलिए व्यापार की शर्तें अर्द्ध-विकसित देशों के प्रतिकूल रहती हैं।

(ii) अर्द्ध-विकसित देश मुख्यतः प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादन में विशेषज्ञ होते हैं। प्रेबिश के अनुसार प्राथमिक वस्तुओं की व्यापार की शर्ते प्रतिकूल होती हैं जिसके लिए उन्होंने तीन कारण बताये हैं:

(अ) प्राथमिक वस्तुओं के लिए माँग सापेक्षतया आग बेलोच है। जब आय बढ़ती है तो प्राथमिक वस्तुओं की माँग अनुपात में बहुत कम बढ़ती है। दूसरी ओर, निर्मित वस्तुओं की माँग सापेक्षतया आय लोच है। आय बढ़ने से ऐसी वस्तुओं की माँग अनुपात में अधिक बढ़ती है। इसी कारण प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन करने वाले अल्प-विकसित देश की व्यापार की शर्तें उनके विरुद्ध जाती है।

(ब) प्राथमिक वस्तुओं से सम्बन्धित कच्चे माल की सस्ती स्थानापन्न वस्तुओं के निर्माण होने से प्राथमिक वस्तुओं की माँग में कमी आने से उनकी कीमतों में भी गिरावट आती है। उदाहरण के लिए, जूट के स्थान पर नाइलोन की रस्सियों या बोरियों आ जाने के कारण विश्व में जूट की माँग में कमी आ गयी है। (स) विकसित देशों से निर्मित वस्तुओं के उत्पादन में एकाधिकार है जिस कारण वे अधिक कीमतें लेने में समर्थ हो जाते हैं।

(iii) प्रेविश का यह भी मत है कि जब अर्द्ध-विकसित देशों की प्राथमिक वस्तुओं की कीमतें ऊँची होती है तो वे इनसे लाभ उठाने में असफल रहते हैं। कारण यह है कि वे इन लाभों को पूँजीगत वस्तुओं में विनियोग करने की अपेक्षा अपने उत्पादन को बढ़ाने में लगाते हैं। इसके विपरीत, जब कीमतें कम होती हैं तो उनके पास औद्योगीकरण करने के साधन नहीं होते हैं। यद्यपि ऐसा करने की उनकी प्रबल इच्छा होती है।

(iv) प्रेबिश के व्यापार चक्रों को भी अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों के व्यापार शर्तों की प्रतिकूलता का एक प्रमुख कारण बताया है। प्रेबिश के अनुसार व्यापार चक्र की दोनों ही मुख्य धाराएँ समृद्धिकाल और अवसाद काल अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों के लिए हानिकारक होते हैं। समृद्धि की अवस्था में विकसित और अर्द्ध-विकसित दोनो प्रकार के राष्ट्रों में आय तथा माँग में वृद्धि होती है। अर्द्ध-विकसित राष्ट्रों में श्रम की असंख्य मात्रा उपलब्ध रहती है जिसके कारण उत्पादन बढ़ाने के लिए नये श्रमिक बहुत कम मूल्यों पर प्राप्त होते हैं। फलतः उत्पादन लागतें नहीं बढ़तों। इसके विपरीत, विकसित राष्ट्रों में उत्पादन बढ़ाने के लिए श्रमिकों की मजदूरी को बहुत अधिक बढ़ाना पड़ता है जिसके कारण वस्तुओं के उत्पादन मूल्य और निर्यात मूल्य में वृद्धि हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप व्यापार की शतं विकसित देशों के अनुकूल हो जाती है।

प्रेविश के अतिरिक्त गुन्नार मिर्डल, ड्यूजनेवरी, सामिर श्रीमन आदि अर्थशास्त्रियों ने भी इस बात का समर्थन किया है कि व्यापार की शर्ते अर्द्ध-विकसित देशों के प्रतिकूल होती हैं। इस सम्बन्ध में हम ड्‌यूजेनबरी के प्रदर्शन का प्रभाव (Demonstration Effect) का अध्ययन करेंगे।

ड्यूजेनवरी ने अपने प्रदर्शन प्रभाव दृष्टिकोण में यह प्रतिपादित किया है कि लोगों में अपने से उच्च आय वर्ग के उपभोग की अनुकरण की प्रवृत्ति होती है। इसी तरह अर्द्ध-विकसित देशों के लोगों में विकसित देशों के उपभोग के अनुकरण की प्रवृत्ति होती है और यह प्रवृत्ति यहुत ही शक्तिशाली होती है, इसके परिणामस्वरूप इस उपभोग की पूर्ति के लिए अर्द्ध-विकसित देशों का आयात बढ़ जाता है जिससे इन देशों को प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन तथा प्रतिकूल व्यापार की शर्त का सामना करना पड़ता है।

आलोचनाएँ (Criticisms)

प्रेविश-सिंगर के दीर्घकालीन गतिहीनता सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनाएँ की जाती हैं:

(i) प्राथमिक पदार्थों के प्रभाव को आँकना सम्भव नहीं (Not Possible to Estimate the Impact of Primary Products)-1870 से 1930 की स्थितियों से यह निष्कर्ष निकालना कि प्राथमिक पदार्थों की विश्व माँग में कमी होने से अर्द्ध-विकसित देशों की व्यापार शतों में दीर्घकालीन ह्रास हुआ है, सही नहीं है। 1870 से उत्पादन के ढंगों तथा परिवहन में विश्व उत्पादन एवं व्यापार में और विश्व जनसंख्या तथा जीवन स्तरों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए है। इसलिए इनका व्यापार की शर्तों पर प्रभाव का आगणन करना अत्यन्त कठिन है।

(ii) सभी विकसित देश विनिर्माण तथा सभी अर्द्ध-विकसित देश प्राथमिक वस्तुएँ निर्यात नहीं करते (All developed countries do not export manufactures and all under-developed countries primary products) यह कहना सही नहीं है कि सभी विकसित देश निर्मित वस्तुएँ तथा सभी अर्द्ध-विकसित देश प्राथमिक वस्तुएँ निर्यात करते हैं।

(iii) आधुनिक अनुसन्धानों ने इसे सत्य सिद्ध नहीं किया है (Modern researches have not proved it correct) किंडलबरगर, ऐल्जवर्थ, मोरंगा तथा हैवरलर द्वारा किये गये आधुनिक सिद्धान्तों ने दीर्घकालीन ह्रास सिद्धान्त को सत्य सिद्ध नहीं किया है।

(iv) एकाधिकारात्मक तत्व का प्रभाव सही नहीं (Effect of monopolistic element not correct) यह तर्क कि विकसित देश एकाधिकारात्मक तत्व के कारण तकनीकी उन्नति के लाभ अपने पास ही रखते हैं जिससे प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादकों को हानि होती है, किसी भी अनुभविक प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं हो सका है।

निष्कर्ष (Conclusion)

उपर्युक्त आलोचनाओं के होते हुए भी अर्द्ध-विकसित तथा विकसित देशों के बीच व्यापार की शर्तों पर वर्तमान ऑकड़ों द्वारा प्रेविश-सिंगर सिद्धान्त की सत्यता प्रमाणित होती है। उदाहरणार्थ, UNCTAD की Trade and Development Report, 1981 यह बताती है कि 1960-73 के बीच निम्न आय वाले अर्द्ध-विकसित देश जिनकी प्रति व्यक्ति GNP डालर 400 से कम थी, उनकी व्यापार की शतों में 11 प्रतिशत गिरावट हुई, मध्य आय वाले अर्द्ध-विकसित देश जिनकी प्रति व्यक्ति GNP डालर 400 से 800 के बीच थी, उनकी व्यापार की शर्तों में 6 प्रतिशत का सुधार हुआ तथा उच्च आय वाले अर्द्ध-विकसित देश जिनकी प्रति व्यक्ति GNP डालर 800 से ऊपर थी, उनमें 3 प्रतिशत का सुधार हुआ। अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अर्द्ध-विकसित देशों के सन्दर्भ में व्यापार की शर्तों के सम्बन्ध में प्रविश के दृष्टिकोण में कुछ सत्यता का अंश है।

(3) मिर्डल का चक्रीय कार्यकारण दृष्टिकोण (Myrdal's Approach of Circular Cousation)

नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशाखी प्रो. मिर्डल ने अपनी पुस्तक 'Economics Theory and Under-developed Regions' में अर्द्ध-विकसित देशों के अल्पविकास के कारणों की व्याख्या करते हुए एक नए दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया जिसे उन्होंने चक्रीय संचयी कार्यकारण तथा संकुचन प्रभाव (Backwash Effect) कहा जिसके कारण अर्द्ध-विकसित और विकिसत देशों के बीच एक कुचक्र पैदा हो जाता है जो इन दोनों देशों के बीच की आय की असमानता के अन्तराल को बढ़ाता रहता है। अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए उन्होंने दो धारणाओं का उपयोग किया है- (अ) संकुचन प्रभाव (Backwash Effect) जो विकास के लिए प्रतिकूल होते है और (ब) विस्तारक या प्रसरण प्रभाव (Spread Effect) जो आर्थिक विकास के लिए अनुकूल होते हैं। मिर्डल के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय असमानताओं का प्रमुख कारण अर्द्ध-विकसित देशो में प्रबल संकुचन प्रभाव तथा दुर्बल विस्तारक प्रभाव रहे है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार (Trade), पूँजी-प्रवाह (Capital-flow) तथा श्रम देशान्तर (Labour Migration) आदि क्षेत्रों में संकुचन प्रभाव की ही प्रधानता पायी जाती है जिनके कारण इन देशों का आर्थिक विकास नहीं हो पाया है।

मिर्डल के अनुसार विकसित तथा अर्द्ध-विकसित देशों के बीच स्वतन्त्र व्यापार पहले प्रकार के देशों को मजबूत बनायेगा और दूसरे प्रकार के देशों को गरीब बनायेगा क्योंकि धनी देश में प्रबल विस्तारक प्रभाव वाले निर्माणी उद्योगों का विस्तृत आधार होता है व अर्द्ध-विकसित देश केवल प्राथमिक वस्तुओं के निर्यातक बनकर रह जाते हैं।

अर्द्ध-विकसित देशों में पूँजी प्रवाह भी अन्तर्राष्ट्रीय असमानताओं को रोकने में असफल रहता है क्योंकि इन देशों में संरचनात्मक ढाँचे की असुरक्षा एवं लाभ की अनिश्चितता के कारण विनियोगकर्ता इन देशों में पूँजी लगाने में हिचकते हैं।

इसी प्रकार अर्द्ध-विकसित देशों में श्रम का देशान्तर राष्ट्रवाद एवं राजनीतिक कारणों से दिनोंदिन कठिन होता जा रहा है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिन घटकों ने विकसित देशों को उन्नत बनाया था, वे ही घटक आज अर्द्ध-विकसित देशों में संकुचन प्रभावों का सूजन कर रहे हैं और इन देशों के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं।

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