3.पर्यावरणीय अध्ययन का विषय-क्षेत्र (Scope of Environmental Studies)

3.पर्यावरणीय अध्ययन का विषय-क्षेत्र (Scope of Environmental Studies)

3.पर्यावरणीय अध्ययन का विषय-क्षेत्र (Scope of Environmental Studies)

3.पर्यावरणीय अध्ययन का विषय-क्षेत्र (Scope of Environmental Studies)

प्रश्न : पर्यावरणीय अध्ययन के प्रमुख विषय-क्षेत्र कौन-कौन हैं? उनके अध्ययन की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए उसके महत्त्व पर प्रकाश डालिये।

☞ पर्यावरणीय अध्ययन के विषय क्षेत्र एवं उसके महत्त्व के विभिन्न पहलुओं का विवेचन कीजिये।

पर्यावरण के सम्बन्ध में व्यापक अध्ययन की क्या आवश्यकता है? पर्यावरणीय अध्ययन के अन्तर्गत कौन-कौन से विषय क्षेत्र आते हैं? इन सबके महत्त्व का उल्लेख कीजिये।

उत्तर : पर्यावरणीय अध्ययन का विषय-क्षेत्र (Scope of Environmental Studies) पर्यावरणीय अध्ययन का विषय क्षेत्र अत्यंत व्यापक एवं विस्तृत है। इसके अध्ययन के अन्तर्गत प्रमुखता के साथ जीवमण्डल एवं सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र का अध्ययन किया जाता है। ज्ञातव्य है कि पृथ्वी स्थलमण्डल (lithosphere), जलमण्डल (hydrosphere) एवं वायुमण्डल (atmosphere) के मेल से बनी हुई है। पृथ्वी की मोटी परत (पर्पटी या सतह) ही वह मूल आधार है जो सभी प्रकार के जीवों को आधार एवं पोषण प्रदान करती है। पृथ्वी पर व्याप्त इन्हीं जीव-समूहों को जीवमण्डल (biosphere) कहा जाता है। जीवमण्डल में सभी प्रकार के जीवों के अबाध एवं निरंतर विकास के लिए पर्याप्त तथा अनुकूल अवसर उपलब्ध है। इसी जीवमण्डल को प्रकारांतर से भू-पारिस्थितिकी तंत्र (geo-ecosystem) भी कहते हैं। भू-पारिस्थितिकी ही पर्यावरण का मूलभूत तत्त्व है। पर्यावरण में निरंतर नाना प्रकार के भू-रासायनिक चक्र चलते रहते हैं। यही चक्र पर्यावरण के भौतिक घटक जीवन को स्वस्थ आधार प्रदान करते हैं।

पर्यावरण के भौतिक घटकों के साथ उसके सह-सम्बन्धों के अध्ययन को ही 'पारिस्थितिकी विज्ञान' कहा जाता है। पर्यावरण का अध्ययन उसके भौतिक एवं जैवीय घटकों पर केन्द्रित होता है। भौतिक एवं जैविक घटकों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन भी पर्यावरण अध्ययन का एक मुख्य विषय है। जैविक घटक भौतिक घटकों की सहायता से आहार-श्रृंखला की संरचना करते हैं जिनके माध्यम से आहार ऊर्जा का संचरण होता है।

पर्यावरणीय अध्ययन के मुख्य विषय-क्षेत्र :

पर्यावरण के अध्ययन के निमित्त इसके अन्तर्गत विभिन्न विषयों को सम्मिलित किया जाता है। पर्यावरण अध्ययन के विषयों को निम्नलिखित शीर्षकों में बाँटकर समझा जा सकता है

(1) पर्यावरण और मानव

(2) पर्यावरण का ह्रास एवं प्रदूषण तथा पारिस्थितिकी तंत्र तथा

(3) पर्यावरण प्रबंधन।

1. पर्यावरण और मानव : पर्यावरण और मनुष्य का संबंध इतना संश्लिष्ट और घनिष्ठ है कि पर्यावरण के बिना मनुष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए कुछ पर्यावरणविदों ने पर्यावरण और मानव सम्बन्धों की जगह उसे 'मानव पर्यावरण' कहना ज्यादा उपयुक्त समझा है। जब हम पर्यावरण और मानव सम्बन्धों के अध्ययन की ओर बढ़ते हैं तो इसके अन्तर्गत पर्यावरण की परिभाषा, पर्यावरण का संघटन और उसके संघटक तत्त्व, मनुष्य एवं प्रकृति, पर्यावरण और समाज, पर्यावरण और सभ्यता, पर्यावरण और धर्म एवं संस्कृति, विकास और पर्यावरण, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरणीय श्रृंखलाओं के पारस्परिक अन्तःसम्बन्धों एवं अन्तःसूत्रों का भी अध्ययन करते हैं।

2. पर्यावरण ह्रास एवं प्रदूषण तथा पारिस्थितिकी तंत्र : यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रकृति ही मानव का पर्यावरण है। प्रकृति ही उसके संसाधनों का भण्डार है। आज का मानव प्रकृति की गोद में पलकर अपनी विज्ञान-यांत्रिकी की जानकारी का दुरुपयोग कर पर्यावरणीय संसाधनों के अतिशय दोहन में लिप्त है। पिछले कई दशकों से पारिस्थितिकीविदों ने मानव मात्र को यह समझाने का अथक प्रयास किया है कि काल-स्थान की सीमाओं में हमारे संसाधन असीमित नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों और ऊर्जा स्त्रोत क्रमशः क्षीण होते जा रहे हैं। निकट भविष्य में उनके चुक जाने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। इस प्रक्रिया में संसाधनों द्वारा ही निर्मित जीवपोषी तंत्र संकीर्ण, दूषित और विषाक्त होता जा रहा है।

फलस्वरूप पर्यावरण में हास और प्रदूषण-वृद्धि तथा पारिस्थितिकी असंतुलन एक अनिवार्य परिणाम बन गया है।

अतः पर्यावरण का अध्ययन करते समय पारिस्थितिकी तंत्र के संघटकों, इसकी संरचना-प्रकृति, ऊर्जा का प्रवाह, पदार्थों का संचरण, पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता (productivity), पौधों तथा जीव-जंतुओं का प्रादेशिक वितरण (distribution), पर्यावरण की अवनति या ह्रास, पर्यावरण में बढ़ते नाना प्रकार के प्रदूषणों की समस्या तथा मनुष्य और प्रकृति से उत्पन्न विविध प्रकार की समस्याओं का अध्ययन करना भी जरूरी हो जाता है। पर्यावरण और पारिस्थितिकी संबंधी समस्याओं के समाधान और उपायों पर विचार करना भी इस अध्ययन क्षेत्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है।

3. पर्यावरण प्रबंधन : प्रो. ई. एफ. शुमाखर का यह कहना उचित ही है कि "अपनी वैज्ञानिक एवं तकनीकी शक्ति के मुखरित होने के उत्साह में आधुनिक मानव ने उत्पादन की ऐसी प्रणाली विकसित कर ली है जो प्रकृति (पर्यावरण) के साथ अनाचार करती है। मनुष्य ने ऐसे समाज की रचना कर ली है जो मनुष्य को विकृत करती है।" गाँधी जी ने कहा था-"यह धरती अपने प्रत्येक निवासी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए यथेष्ट साघन उपलब्ध कराती है, लेकिन हर व्यक्ति के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती।" मनुष्य के लालच का ही परिणाम प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन है और इस दोहन का ही अनिवार्य कुपरिणाम पर्यावरण में निरंतर प्रदूषण का आक्रोश और आवेगमय विस्फोट है। इसके कारण एक ओर पारिस्थितिकी असंतुलन बढ़ता चला जा रहा है तो दूसरी ओर समूचा परिवेश दमघोंटू बन गया है। अतः प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की ओर हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक हो गया है। इसी से जुड़ा प्रश्न पर्यावरण संरक्षण का है। पर्यावरण संरक्षण हमारा नैतिक दायित्व है। अतः पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से पर्यावरण प्रबंधन की जरूरत महसूस की जा रही है। पर्यावरण से समररा होकर, उसके संतुलन को बनाये रखकर किस प्रकार मानवीय हितों के लिए पर्यावरण को न्यूनतम क्षति पहुँचाकर प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग हो, इसे ही पर्यावरण प्रबंधन कहा जाता है। इसके निमित्त हमें फिर से प्राकृतिक संसाधनों को वर्गीकृत करना पड़ेगा। उसके सर्वेक्षण, मूल्यांकन, कुशल संरक्षण एवं परिरक्षण पर ध्यान देना पड़ेगा।

पर्यावरणीय अध्ययन वर्तमान युग की एक अनिवार्य आवश्यकता है। किन्तु पर्यावरणीय अध्ययन की जगह इसे पर्यावरणीय विज्ञान का अध्ययन कहना ज्यादा समुचित प्रतीत होता है। पर्यावरणीय विज्ञान पर्यावरण का अध्ययन करने के साथ-साथ उसके बीच मानव की स्थिति का भी आकलन करता है। पर्यावरण-विषयक अध्ययन में लोगों की दिलचस्पी बीसवीं शताब्दी के छठे दशक से बढ़नी शुरू हुई। ऊपर से देखने पर पर्यावरणीय अध्ययन सरल और इकहरा लगता है परन्तु अपनी प्रकृति में वह अधिक संश्लिष्ट और अनेक विषयों के समेकित अध्ययन से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण का अध्ययन वर्तमान युग का बिल्कुल नया एवं अछूता विषय है। इसके अध्ययन का क्षेत्र दिनानुदिन विस्तृत होता चला जा रहा है और इसने अपने अध्ययन-त्रिषय में आधुनिक सभ्यता के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों को समेट लिया है। पर्यावरणीय अधायन से अपना नाता मनुष्य के प्राचीन दार्शनिक चिंतनों से जोड़ लिया है क्योंकि दर्शन ने मनुष्य और पर्यावरण के सम्बन्धों को समझने में बहुत बड़ी सहायता की है।

पर्यावरण का अध्ययन उसके अनुप्रयोगों (applied) एवं आधारभूत संकल्पनाओं को ध्यान में रखकर भी किया जाता है। इस दृष्टि से प्राकृतिक विज्ञान के विभिन्न अंगों, यथा भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव-विज्ञान, गणित एवं अभियांत्रिकी (engineering) आदि का ठोस परिज्ञान भी आवश्यक हो जाता है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण का अध्ययन करते समय मानव विज्ञान, समाजविज्ञान, इतिहास, कला, साहित्य, धर्म, विधि (कानून), अर्थशास्त्र, प्रबंधन, पारिस्थितिकी, राजनीति विज्ञान एवं पर्यावरण-दर्शन की जानकारी रखना भी आवश्यक है।

अन्य विषयों का अध्ययन सिद्धांत के स्तर पर किया जाता है किन्तु पर्यावरण का अध्ययन सिद्धांत गढ़ने से अधिक उसके अनुप्रयुक्त रूप पर टिका होता है। इसका कारण यह है कि पर्यावरणीय अध्ययन समस्या-प्रसूत अध्ययन है। पर्यावरण को ठीक से जानने के लिए प्राकृतिक संसार (natural world) एवं उस पर मानव के प्रभाव को जानना भी जरूरी है। इस तरह पर्यावरण की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की ओर भी ध्यान देना पड़ता है। इन विषयों से जोड़कर पर्यावरणीय अध्ययन इसलिए आवश्यक हो जाता है ताकि उसके सम्बन्ध में हम सटीक निष्कर्ष निकाल सकें और उसके आधार पर उन निष्कर्षों और निर्णयों को कार्यान्वित कर सकें।

उपर्युक्त विवेचन का अभिप्राय स्पष्ट है कि पर्यावरणीय अध्ययन प्राकृतिक विज्ञान, समाज विज्ञान, नैतिकता से पर्यावरण का संबंध, पर्यावरण कानून, पर्यावरणीय अर्थशास्त्र, पर्यावरणीय प्रभाव एवं पर्यावरणीय प्रबंधन आदि का संश्लिष्ट अध्ययन है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पर्यावरण के अध्ययन में अनेक विषय का योगदान होता है लेकिन इसके अध्ययन का मुख्य विषय तो पर्यावरण और मानव का संबंध, पर्यावरण में बढ़ता प्रदूषण, पर्यावरण ह्रास की समस्या, पारिस्थितिकी तंत्र में आये असंतुलन में संतुलन स्थापित करने की समस्या, उद्योग, विकास एवं उपभोग की दृष्टि से पर्यावरण प्रबंधन पर पुनर्विचार की आवश्यकता आदि ही प्रमुख हैं।

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