5. पर्यावरण के प्रति जनबोध की आवश्यकता (Need for Public Awareness)
प्रश्न : पर्यावरण के
प्रति लोगों का जागरूक रहना क्यों आवश्यक है?
☞ पर्यावरण के प्रति जनबोध (जनाभिज्ञता) की उन्मुखता की आवश्यकता
पर प्रकाश डालिये।
☞ पर्यावरणिक समस्याओं के समाधान में व्यक्तिगत स्तर पर हम किस
प्रकार योगदान कर सकते हैं? इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त कीजिये।
☞ "व्यक्ति का अपने एवं अन्य जीवों के हितार्थ पर्यावरणिक
दायित्व हैं" इस पर अपना विचार व्यक्त कीजिये।
☞ पर्यावरण के विकास और परिष्कार में व्यक्ति स्वयं को किस प्रकार
संलग्न कर सकता है? बताइये।
☞ उन कारणों की समीक्षा कीजिये जिन्होंने मनुष्य मात्र का ध्यान
पर्यावरण में सुधार की ओर आकृष्ट किया है।
☞ आज लोग एकाएक पर्यावरण के प्रति इतना सचेत क्यों हो उठे हैं?
तर्कपूर्ण उत्तर दीजिये।
☞ पर्यावरण के प्रति व्यक्ति के दायित्वों की विवेचना कीजिये।
☞ "पर्यावरण-संरक्षा का प्रश्न केवल जैव विविधताओं, प्राकृतिक
संसाधनों एवं सौंदर्यात्मक मूल्य के संरक्षण का प्रश्न नहीं है, अपितु यह प्रश्न मानव-अस्तित्व
की रक्षा से जुड़ा हुआ एक गंभीर प्रश्न है।"- इस कथन पर विचार विमर्श कीजिये।
उत्तर : मनुष्य ने अंतरिक्ष से पृथ्वी
को सर्वप्रथम बीसवीं शताब्दी के मध्य में निहारा। अंतरिक्ष से पृथ्वी एक कोमल गेंद की
तरह दिखायी देती है जिस पर मानवीय कृतियों व कृत्यों का नहीं अपितु बादलों, महासागरों,
हरियाली एवं मृदा के शिल्प सौंदर्य का कब्जा है। लेकिन पृथ्वी का यह चेहरा कैसे तीव्रगति
से विद्रूप होता चला गया, उसमें कैसे-कैसे भयंकर परिवर्तन आये, इसका एक शब्द-चित्र
सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् डॉ. ब्रह्मदेव त्रिपाठी ने प्रस्तुत किया है "प्रलयंकारी
समुद्री तूफान, विशाल पर्वतों की धँसती हुई चोटियाँ, बढ़ता हुआ रेगिस्तानी क्षेत्र,
सर्वाधिक वर्षावाले क्षेत्र में भीषण सूखा, भयंकर भूकंपों के आघात, ज्वालामुखियों के
उद्गार (फूटने) की आशंका, आसमान से उल्कापात्, एवं मानव-निर्मित प्रयोगशालाटों द्वारा
नरसंहार का आतंक, बढ़ते हुए प्रदूषण से वैज्ञानिकों द्वारा व्यक्त की गयी विनाश की
आशंका।" नवें दशक के आरंभ में जीव-विज्ञानी लेखिका राशेल कार्सन ने अमेरिका के
एक शहर की अकालमृत्यु का भयावह दृश्य अपनी प्रसिद्ध पुस्तक साइलेंट स्प्रिंग में कल्पित
किया था, तब बहुतों को लगा था कि यह कोरी कल्पना है और ऐसा कभी नहीं हो सकता। परन्तु
इस पुस्तक के प्रकाशन के ज्यादा दिन नहीं बीते थे कि अचानक अमेरिका के एक औद्योगिक
नगर (डेट्राइट) के एक कस्बे में विचित्र वर्षा ने लोगों को हैरत में डाल दिया। बाहर
सूखते कपड़े जल गये थे। जाँच के बाद पता चला था कि यह गंधकाम्ल की वर्षा थी। कारखानों
की चिमनियों से हवा में इतनी SO₂ गैस जमा हो गयी थी कि इसने बादलों के साथ रासायनिक
क्रिया करके तेजाब की वर्षा कर दी। जापान में 'मिनिमाता रोग' का कारण पारा बना जो एसिटोएल्डिहाइड
रसायन बनाने के लिए उत्प्रेरक के रूप में प्रयुक्त होता था। मेथिल मर्करी के रूप में
उसका अवशिष्ट समुद्र में बहा दिया जाता था। इससे समुद्री शैवाल और अन्य वनस्पतियाँ
प्रभावित हुईं। इन्हें छोटी मछलियों ने खाया। छोटी मछलियों को बड़ी मछलियों ने खाया
और बड़ी मछलियों को मनुष्यों ने खाया जो एक नयी 'तंत्रिका बीमारी' का कारण बना जिसे
चिकित्सकों ने 'मिनिमाता रोग' का नाम दिया था।
पर्यावरण के असंतुलन और प्रदूषण की
ओर ध्यान बीसवीं शताब्दी के पाँचवे दशक के अंत अर्थात् 1948 ई. से ही जाना शुरू हो
गया था। लेकिन इसमें तीव्रता आठवें दशक के आरंभ से आयी। इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्रसंघ
की मदद से प्रकृति के संरक्षण का अन्तरराष्ट्रीय संघ (ICUN) स्थापित किया गया था। संयुक्त
राष्ट्र संघ के सहयोग से ही पेरिस (फ्रांस) में 1968 ई. में 'जीवमण्डल कांफ्रेस' आयोजित हुआ। इसके चार वर्षों
के बाद 1972 ई. में संयुक्त राष्ट्रसंघ का 'मानव पर्यावरण कांफ्रेंस' हुआ। जीव मण्डल
कांफ्रेंस (पेरिस) में प्रमुख रूप से वैज्ञानिक विशेषज्ञों ने भाग लिया था। इस सम्मेलन
में विश्व पर्यावरण के बारे में जो चेतना मुखर हुई थी उसे स्टाकहोम सम्मेलन से और भी
बल मिला। इस दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका में 22 अप्रैल, 1970 ई. को मनाये गये
'विश्व दिवस' में भी पर्यावरणीय समस्याओं के प्राकृतिक संसाधनों के क्षय तथा प्रदूषण
के खतरे के विश्वस्तरीय स्वरूप को प्रकाश में लाया गया। स्टाकहोम सम्मेलन में पर्यावरण
की रक्षा के लिए अन्तरराष्ट्रीय प्रयासों सम्बन्धी सिद्धांतों को सूचीबद्ध किया गया
और तदनुसार 'मानव पर्यावरण घोषणा' अंगीकृत की गयी। इसके बाद तो 'पारिस्थितिकी' शब्द
प्रत्येक की जबान पर चढ़ गया। पर्यावरण में एकाएक दिलचस्पी का कारण क्या है? निश्चय
ही इस चेतना जागृति के पीछे मनुष्य के द्वारा प्रकृति के साथ खेली गयी क्रूर विनाश-लीला
की पृष्ठभूमि है। यह ठीक है कि विश्वभर में पर्यावरण के प्रति एक व्यापक जनचेतना मुखरित
हुई है लेकिन पर्यावरण की अधिकांश चिंता या तो पर्यावरणविद्, वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ
कर रहे हैं या फिर कुछ स्वैच्छिक स्वयंसेवी संस्थाएँ। पर्यावरण के प्रति जनसाधारण की
चेतना अभी पूर्णतः उन्मुख नहीं हुई है। एक व्यक्ति के नाते पर्यावरण के प्रति उसका
क्या दायित्व है इसे अभी ठीक से नहीं समझा गया है। यही कारण है कि स्वयं व्यक्ति भी
जाने-अनजाने पर्यावरण के साथ खिलवाड़ कर रहा है। अतः पर्यावरण के प्रति जनचेतना को
जागृत करने की बहुत बड़ी आवश्यकता बनी हुई है।
पर्यावरण के साथ न केवल अन्य जीवों का अपितु स्वयं मनुष्य मात्र
के अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी पर आज से लगभग
दो अरब साठ लाख वर्ष पूर्व (2.6 बिलियन) जीवन का प्रारंभ हुआ। तब से लेकर आज तक लगातार
जीव पृथ्वी और पर्यावरण को प्रभावित करते चले आ रहे हैं। पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभ
काल से आज तक असंख्य जीव प्रजातियों का जन्म और विकास हुआ और उनमें से अनेक प्रजातियाँ
कालांतर में विलुप्त भी हो गयीं। उनमें से कुछ प्रजातियों के चिह्न जीवाश्मों
(fossils) के अवशेष के रूप में ही मिलते हैं। कई लाख वर्ष पूर्व प्रकृति ने मानव जाति
के विश्व पर वर्चस्व के लिए रंगमंच तैयार कर दिया था। जीव वैज्ञानिक दृष्टि से प्रत्येक
जीव या उसकी प्रजाति की नियति में अन्ततः पृथ्वी पर से विलुप्त हो जाना लिखा हुआ है।
इसका मतलब स्पष्ट है कि एक-न-एक दिन मनुष्य भी संसार से तिरोहित हो जायेगा। इसके बावजूद
मनुष्य की वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिए यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि वह किस रूप में
पर्यावरण को प्रभावित करता है।
लाखों लाख जीवों की अनेक प्रजातियों के बीच मनुष्य जैवमण्डल
में सर्वोपरि स्थान पर जा पहुँचा है और अपनी मस्तिष्कीय ऊर्जा, बौद्धिक क्षमता, तकनीकी
ज्ञान, अलंकृत बाक् और भाषा के बल पर उसने समस्त जैवमण्डल पर अपना एकछत्र आधिपत्य स्थापित
कर लिया है। पृथ्वी पर के अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य में पर्यावरण को बदलने की सर्वाधिक
क्षमता है। किन्तु मनुष्य को सदैव यह बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि वह विश्व पर्यावरण
का स्वामी नहीं अपितु उसका एक अंग मात्र है। मनुष्य कृषि, उद्योग, यातायात, परिवहन,
संचार, आराम, सुख-सुविधा, भोग-विलास, सौंदर्य-सुख और यहाँ तक कि युद्धों के लिए भी
अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिकाधिक वस्तुओं, संसाधनों और ऊर्जा को उपयोग में लाता
है। मानवीय आवश्यकताओं और उससे अधिक उसकी लालसा और लालच ने पारिस्थितिकी के संतुलन
को बिगाड़कर रख दिया है। यह सब उसकी अदूरदर्शिता का परिणाम है। इस ओर महात्मा गाँधी
और प्रोफेसर ई. शुमाखर ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया था किन्तु लोगों ने उनकी बातों
पर कान नहीं दिया। इसका भयानक दुष्परिणाम आज हमारे सामने है। इसके साथ ही मनुष्य जीवन-प्रणाली
को बनाये रखने में सहयोग करनेवाले कारकों और घटकों, यथा, वायु, जल और पृथ्वी को ही
विनष्ट करने पर तुला हुआ है। किन्तु इस प्रणाली पर एकमात्र मनुष्य का नहीं अपितु सम्पूर्ण
संसार के जीवधारियों का हक है लेकिन हमने यह तथ्य भुला दिया है।
पर्यावरण को सम्पूर्णतः विनष्ट होने
से बचाने में मनुष्य व्यक्तिगत तौर पर भी अपन बहुमूल्य योगदान कर सकता है। हमें पर्यावरण
सम्वन्धी समस्याओं को पहचान कर उनम विचार-विमर्श करना चाहिए तथा उसके समाधान के उपाय
ढूँढ़ने चाहिए। पर्याकरण की समस्याओं के प्रति हमें गंभीरतापूर्वक आलोचनात्मक रुख अपनाना
चाहिए। इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि मानवीय शक्ति और उसका वर्चस्व उसके पर्यावरण
संबंधी सर्टक ज्ञान में निहित है। अतः पर्यावरण को बेहतर बनाने की दिशा में हमें निजी
रूप से सक्रिय होत चाहिए। अन्य सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों की तरह 'पर्यावरणीय आंदोलन'
को में एक उपयुक्त दिशा प्रदान करने की आवश्यकता है। पर्यावरण के प्रति हमें अधिक सचेत
होने की आवश्यकता है। पर्यावरण की समस्या के समाधान के लिए अधिक प्रतिबद्ध राजनीतिक
और दार्शनिक दृष्टि की जरूरत है। पर्यावरण विज्ञान ने पर्यावरण के प्रति अधिक विवेकसम्मत
विचार प्रस्तावित किया है। उसने वैज्ञानिक और तकनीकी सूचनाओं के प्रयोग को समझने पर
बल दिया है ताकि पर्यावरण को बचाया जा सके और उसके संसाधनों का उचित प्रबंधन किया जा
सके।
हमें कभी भी यह बात भूलनी नहीं चाहिए
कि पर्यावरण एवं अन्य प्राणियों के प्रति हमारे विशिष्ट दायित्व हैं। हमें पर्यावरण
की रक्षा न केवल जैव-विविधताओं, प्राकृतिक संसाधनों एवं सौंदर्यात्मक मूल्यों की संरक्षा
के लिए करनी है अपितु उसकी रक्षा अपने अस्तित्व को बचाने के लिए भी आवश्यक है।
जहाँ तक भारतीय जनों में पर्यावरण के
प्रति चिंता और चेतना जगाने की बात है तो केवल उसके मानस को कुरेदने भर की जरूरत है।
हमारी संस्कृति में पर्यावरण के प्रति असीम मोह, लगाव, प्रेम और आत्मीय संबंधों के
फलदायी पुष्ट बीज निहित हैं। एक बार यदि उन बीजों को ठीक से अंकुरित होने का अवसर प्रदान
कर दिया जाय तो भारत ही क्या भारतीय विश्व पर्यावरण के संकट को भी हल करने की दिशा
में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
भारतीय मनीषी तरु को वंदनीय मानकर नमस्कार
करता है। भारत में नीम, तुलसी, वट, पीपल, बेल, अशोक और शमी वृक्षों को महत्त्वपूर्ण
स्थान प्राप्त है। इनके सिंचन, पूजन और संवर्द्धन को धार्मिक और आध्यात्मिक कृत्य से
जोड़ दिया गया। नदी की भी पूजा होती है। कूप की पूजा इन्द्र के रूप में होती है। गंगा
के दर्शन को मुक्ति का मार्ग माना गया है। 'मनुस्मृति' में निर्देश है कि पानी में
मल-मूत्र, थूक अथवा अन्य दूषित पदार्थ, रक्त या विष का विसर्जन नहीं किया जाना चाहिए।
वैदिक ऋषि शुद्ध जल की कामना करता है। इस देश में जल और वनस्पतियाँ आदि सदैव नैवेद्य
की वस्तु मानी जाती रही हैं। 'मत्स्यपुराण' का यह कथन देखिये-
दश कूप-समावापी, दशवापी-समोहृदः ।
दश-हृदः-समः पुत्रो, दश पुत्रसमो द्रुमः
।।
अर्थात् “दस कुओं के बराबर एक बावड़ी
है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब है, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों
के बराबर एक वृक्ष है।" वृक्षों के प्रति ऐसे अनुराग की छाया भी किसी अन्य देश
की संस्कृति में सर्वथा दुर्लभ है। वृक्षों के प्रति भावनात्मक संबंधों से संबंधित
एक पौराणिक गाथा कहती है कि भगवती पार्वती ने बड़े प्रेम और यत्न से देवदारु का एक
पौधा लगाया था। देवदारु को अपने दुग्ध से सींचा था। एक बार एक जंगली हाथी ने कान खुजाने
के लिए इस वृक्ष से अपनी कनपटी रगड़ दी जिससे देवदारु की थोड़ी-सी छाल छिल गयी। यह
देखकर पार्वती को वैसा ही शोक हुआ जैसा शोक उन्हें दैत्यों के बाणों से घायल कार्त्तिकेय
को देखकर हुआ था- (अभिज्ञान शाकुंतलम् : कालिदास)। इस प्रकार की गाथाओं का निष्कर्ष
यही है कि भारतीय वृक्षों के प्रति या तो पुत्रवत् स्नेह रखते थे या फिर देवता-पितर
के समान श्रद्धा-भाव। तात्पर्य यह है कि पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं में प्राण मानने वाली
संस्कृति इसे प्राण का दर्जा देती है।
भारतीयों में पर्यावरण के प्रति जो
स्नेह और पूजा-भाव निहित है, यदि उनका उचित रूप हसे पोषण किया जाय, उसके प्रति उन्हें
जागरूक बनाया जाय तो यहाँ का अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति भी प्राणपण से'पर्यावरण की सुरक्षा
में लग जायेगा। फलस्वरूप पर्यावरण का संकट शनैः-शनैः दूर होता चला जायेगा।
पर्यावरण के प्रति जनचेतना को मुखरित
करने के लिए कुछ युक्तियाँ सुझायी गयीं हैं, जैसे-
(1) पर्यावरण और मनुष्य के सह-सम्बन्धों
और पारस्परिक निर्भरता को समझना,
(2) सामाजिक, आर्थिक तथा आर्थिक विकास
के निमित्त सामूहिक क्रिया-कलापों को प्रारंभ करना,
(3) पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जन-चेतना
को प्रबुद्ध बनाना तथा
(4) प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की
अधिक वैज्ञानिक और सुरक्षित विधि को अपनाना।
भारतवर्ष में पर्यावरण के प्रति लोगों
को जागरूक बनाने के लिए कुछ लोगों ने अथक प्रयास किये हैं। इनमें पं. सुंदर लाल बहुगुणा,
सुश्री मेधा पाटकर और राजेन्द्र सिंह के नाम अग्रगण्य हैं। इससे पूर्व महात्मा गाँधी
और काका कालेलकर भी पर्यावरण-रक्षा के निमित्त बहुत कुछ कह और कर चुके थे। गाँधी जी
ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि केवल यंत्रों और यांत्रिक प्रविधियों की सहायता से
पारिस्थितिकी असंतुलन की समस्या का समाधान असंभव है। इसके लिए इतर प्राविधिक चिन्तन
और समेकित दृष्टिकोण अपरिहार्य है।
भारतवर्ष में पर्यावरण को बचाने के लिए कुछ प्रमुख आंदोलन चले, जैसे-'चिपको आंदोलन', 'शांत घाटी आंदोलन', 'अरावली बचाओ आंदोलन', 'नर्मदा बचाओ आंदोलन', 'टिहरी बाँध परियोजना आंदोलन'। ये सब प्रमुख जन आंदोलन हैं। आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी या निजी तौर पर जहाँ कहीं भी पर्यावरण को क्षति पहुँचानेवाली योजनाओं को लागू करने की कोशिश है, जनता आगे बढ़कर उसका दृढ़ प्रतिरोध करे और ऐसी योजनाओं को कार्यान्वित न होने दे।