त्रयोदशः पाठः योग्यस्य वैशिष्ट्‌यम (Class XII Sanskrit Chapter 13)

त्रयोदशः पाठः योग्यस्य वैशिष्ट्‌यम (Class XII Sanskrit Chapter 13)

त्रयोदशः पाठः योग्यस्य वैशिष्ट्‌यम

( 1 ) अधोलिखितप्रश्नानां उत्तराणि संस्कृतेन लिखत ।

( क) योगः कः कथ्यते ?

उत्तर - चित्तवृत्तिनां निरोधः योगः कथ्यते ।

(ख) मातुः मुखाद् योगशिक्षायाः विषये का श्रुतवती ?

उत्तर - मातुः मुखाद् योगशिक्षाया: विषये सागरिका: श्रुतवती ।

(ग) छात्राः कस्मिन् विषये ज्ञातुम् उत्सकाः सन्ति ।

उत्तर - छात्रा: योग्यस्य उपयोगिता: विषये ज्ञातुम उत्सकाः सन्ति ।

( घ ) प्रमाणानि कानि ?

उत्तर - प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रभामानि सन्ति ।

(ङ) स्मृतिः का कथ्यते ?

उत्तर - अनुभूतविषयासम्रमोषः स्मृतिः कथ्यते ।

(च) निद्रा का भवति ?

उत्तर - अभावप्रत्ययालम्बनावृतिः निद्रा भवति ।

(छ ) योगाङ्गानि कानि ?

उत्तर - यमः , नियमः , आसनम् ,प्रणायामः , प्रत्याहारः , धारणा, ध्यानम्, समाधिः, अष्टं, योगङ्गानि ।

 या -' यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहार - धारणा - ध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि '।

(ज) अहिंसा का कथ्यते ?

उत्तर - वैरत्याग: अहिंसा कथ्यते ।

(झ) अपरिग्रहः कः भवति ?

उत्तर - जन्मकथन्तासम्बोधः अपरिग्रहः कथयति ।

( ञ) के नियमाः ?

उत्तर - शौचम् , सन्तोष:, तपः, स्वाध्यायः, ईश्वरप्रणिधानम् , नियमः ।

( 2 ) वाक्यांशानम् आशयं स्पष्टीकुरुत ।

(क ) स्थिरसुखमासनम् ।

उत्तर - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक शाश्वती भाग दो के त्रयोदशः पाठः योगस्य वैशिष्ट्यम से लिया गया है। यह पाठ पतञ्जलि रचित योगसूत्र पर आधारित है । जिसमें योगाभ्यास के माध्यम से जीवन को संयमित बनाने के लिए शारीरिक , मानसिक एवं बौद्धिक रूप से विशिष्ट उपायों का उल्लेख किया गया है इस पंक्ति से यह आशय स्पष्ट प्रतीत होता है कि आसन् ( बैठना) आस् धातु और ल्युट् प्रत्यय से बना है। आसनम् का अर्थ योग में बैठने का ढंग ही आसन कहलाता है । स्थिरता पूर्वक बैठकर सुख का अनुभव प्राप्त होना ही आसन कहा जाता है।

(ख) देशबन्धश्चितस्य धारणा ।

उत्तर - मन को किसी देश विशेष में बाँधना ही धारणा कहलाता है ।

( ग ) ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः

उत्तर - ब्रहमचर्य का अर्थ संयमित जीवन होता है । ब्रह्मचर्य की सिद्धि होने पर बल की प्राप्ति होती है, और इन्द्रियों पर काबू पाना ही सिद्धि है।

(घ) सन्रोषादनुत्तम: सुखलाभः ।

उत्तर - सम् उपसर्ग तुष् धातु और घञ् प्रत्यय से बना शब्द संतोषः का अर्थ संतुष्टि या तृष्णारहित होना होता है। संतोष करने से अनुत्तम या सर्वोत्तम सुख का लाभ होता है।

(ङ) स्वाध्यादिष्टदेवतासम्प्रयोग: ।

उत्तर - स्वाध्याय के सिद्ध होने से योगी परमात्मा / ईश्वर से जुड़ जाता है।

( 3 ) ' अ ' स्तम्भस्य वाक्यांशै: सह ' ब ' स्तम्भस्य वाक्यांशान् मेलभत् ।

          ' अ '                         ' ब '                              

क . शब्दज्ञानुपाती             = विकल्प:

ख . स्थिरसुखम्                = आसनम्

 ग . देशबन्ध चितस्य          = धारणा

 घ . अस्तेयप्रतिष्ठायाम्        = वीर्यलाभः

 ङ . प्रत्येकतानया               = ध्यानम्

(4) रिक्तस्थानानां पूर्ति कुरुत ।

क . योगशास्त्रे शरीरस्य मनसः नियनमं प्रतिपादनं वर्त्तते ।

ख . अन्तराष्ट्रिययोगदिवसः जूनमासस्य एकविंशति तमे दिवसे मन्यते ।

ग. शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेइश्वर प्राणिधानानि नियमा:

घ . सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।

ङ . विपर्ययो मिथ्या ज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ।

( 5 ) अधोलिखितानां संधिं विच्छेदं वा कुरुत

   क . स्वागतम्        = सु + आगतम्

   ख . कालांश          = काल + अंश:

   ग . अति + झ्व        = अतीव

   घ . विदाध्ययनेऽपि  = विद्या + अध्ययने + अपि

   ड . सन उत्साहम्     = सोत्साहम्

   च . सम्यगूपेण          = सम्यक् + रुपेण

   छ . सन्निधि                = सम् + निधिः

(6) अधोलिखितपदानां मूलशब्दं , विभक्तिं , वचनं , लिङ्गम् च लिखत ।

        पदानि    मूलशब्दः   विभक्तिः   वचनम्  लिङ्गम्

(क) अस्माकम्  अस्मद्   षष्ठी   बहुवचन त्रिषुलिंग 

(ख) मनसः  मनस्  पंचमी,षष्ठी  एकवचन  नपुंसक

(ग) चिन्तया चिन्ता तृतीया एकवचन स्त्रीलिंग

(घ) अङ्गानि अङ्ग प्र० द्वि० बहुवचन नपुंसक

(ङ) तस्मिन् तद् सप्तमी एकवचन पु०/ नपु०

(च) महती महत प्रथमा एकवचन स्त्रीलिंग

(छ) प्रतिष्ठायाम् प्रतिष्ठा सप्तमी एकवचन स्त्रीलिंग

(7) पाठमाधृत्य योगस्य महत्ता स्वशब्देषु वर्णयत ।

उत्तर - योगस्य अनेकः महत्त्वं वर्णितं अस्ति । योगः मनुषस्य स्वास्थ्य कृते बहु सम्यक वर्तते । योगः मनुष्ये मानसिक स्वस्थस्य कृते अपि बहु सम्यक वर्तते ।

योग्यताविस्तारः

1. योगस्य विशिष्टतत्त्वानि

( क ) ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा । (सा.पाद, सूत्र - 48 )

उत्तर - शब्दार्थ :- तत्र, ( उस अध्यात्म प्रसाद के प्राप्त होने पर ) प्रज्ञा, ( साधक की बुद्धि ) ऋतम्भरा, ( केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली होती है । )

सूत्रार्थ :-  अध्यात्मप्रसाद का लाभ प्राप्त होने पर साधक की बुद्धि केवल सत्य को जानने वाली हो जाती है ।

व्याख्या :- इस सूत्र में अध्यात्मप्रसाद को प्राप्त करने के बाद साधक की क्या स्थिति होती है ? इसका वर्णन किया गया है । अध्यात्मप्रसाद से साधक समाहित चित्त वाला बन जाता है । उस समाहित चित्त की में भी निपुणता होने पर उत्कृष्ट बुद्धि की प्राप्ति होती है । उस उत्कृष्ट बुद्धि को ही ऋतम्भरा कहा गया है ।

ऋतम्भरा बुद्धि वह होती है जो केवल सत्य को ही ग्रहण करती है । उसमें असत्य या विपरीत ज्ञान का लेश मात्र भी अंश नही होता है ।

सामान्य जीवन में व्यक्ति की बुद्धि असत्य ज्ञान को भी ग्रहण करती रहती है । जिससे वह अविद्या आदि क्लेशों में उलझा जाता है । कलेशों के कारण वह अनावश्यक अर्थात निषेध कार्यों को करता रहता है ।

लेकिन जैसे ही साधक को अध्यात्मप्रसाद की प्राप्ति होती है वैसे ही उसकी बुद्धि केवल और केवल सत्य को ही ग्रहण करने वाली बन जाती है । और सभी कलेशों का नाश हो जाता है । ऋतम्भरा प्रज्ञा के प्राप्त होने से साधक को अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी हो जाती है । जिससे वह आत्मा, चित्त, मन, शरीर व इन्द्रियों के विषयों का आत्मसात कर लेता है ।

यह ऋतम्भरा प्रज्ञा ही साधक की मुक्ति का साधन बनती है ।

(ख) अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशाः । (सा. पाद, सूत्र - 3 )

उत्तर - अविद्या - अविद्या,

अस्मिता - अस्मिता (अहंकार),

राग - राग,

द्वेष - द्वेष (और)

अभिनिवेशाः - अभिनिवेश (जीवन के प्रति ममता - ये पाँचों)

क्लेशाः - क्लेश हैं ।

अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (जीवन के प्रति ममता) - ये पाँचों क्लेश हैं।

महर्षि उक्त जिज्ञासा के उत्तर में सभी पञ्च क्लेशों के नाम गिनाते हैं।

ये हैं-

अविद्या

अस्मिता

राग

द्वेष

और अभिनिवेश

क्लेशों से महर्षि का क्या आशय है, इस बात समझाने के लिए महर्षि व्यास जी अपने योग दर्शन के भाष्य में कहते हैं कि ये पांच क्लेश पांच प्रकार के मिथ्याज्ञान हैं। अविद्या आदि ये पांच क्लेश व्यक्ति की अधर्म प्रवृति को बढ़ा देते हैं और इस प्रकार प्रवृति को कार्य रूप में। परिणित कर देते हैं।

अंततः व्यक्ति जन्म जन्मांतर कर्म फल के चक्रव्यूह में फंसता चले जाता है। जब तक प्रत्येक प्रवृति या कर्म के मूल में ये पांच कर्म होंगे मनुष्य बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है।

जब तक अविद्या आदि क्लेश मूल में है किसी भी कर्म के व्यक्ति धर्माचरण से युक्त नहीं हो सकता है। समाधि की सिद्धि नहीं हो सकती है। साधक अपने सच्चे स्वरूप में स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता है।

अतः इस सूत्र में महर्षि ने संकेत रूप में पांच क्लेशों के केवल नाम यहां गिनाए हैं। आगे के सूत्रों में विस्तृत रूप से इन पांच क्लेशों के स्वरूप एवं उनके कार्यों के ऊपर बात की गई है।

(ग) सुखानुशयी राग: । (सा. पाद, सूत्र - 7 )

उत्तर - सुख - सुख (की प्रतीति के)

अनुशयी - पीछे (अर्थात् सुख को भोगने की इच्छा)

रागः - राग (क्लेश है) ।

सुख की प्रतीति के पीछे अर्थात् सुख को भोगने की इच्छा - राग क्लेश है।

जब कभी भी हम किसी भी सुख को भोगते हैं तो भोगने के बाद हमारे अंतःकरण (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार) में उस सुख और जिन साधनों से हमें सुख प्राप्त हुआ था उनके प्रति पुनः भोग करने की जो इच्छा है, वह इच्छा विशेष या लोभ विशेष को राग नाम का क्लेश कहते हैं।

सुख भोगने में तो सभी को अच्छा लगता है लेकिन सुख भोगने में उतनी हानि नहीं है जितनी सुख भोगने के बाद राग नाम का क्लेश आपको जीवन भर आगे दुखों में डालता रहेगा। इसलिए साधु संत जब सन्यास लेते हैं तो राग और द्वेष रूपी इन दोनों क्लेशों को छोड़ने के लिए सर्व सम्भव सुखों से और सांसारिक सभी द्वेषों से अपना मुँह मोड़ लेते हैं।

राग और द्वेष ये दो क्लेश ही दैनिक जीवन में हमें क्लेशों के बीच फंसाकर हमारे संस्कार प्रबल करते रहते हैं इनसे बचना ही योग मार्ग पर आगे बढ़ने की सफलता है।

राग कैसे बन जाता है- मान लीजिए कि आपने जिह्वा से कोई सुख लिया। गुलाब जामुन खाया और उसे स्वाद ले लेकर खाया तो आपके अंदर के अन्तःकरण रूपी सॉफ्टवेयर में गुलाब जामुन के प्रति सुख की इच्छा अंकित हो गई। अगली बार जब गुलाब जामुन आपके सम्मुख होगा तब पुरानी स्मृति या याद अन्तःकरण देगा और आपको भीतर से धक्का देगा कि गुलाब जामुन खाओ। यदि सहज उपलब्ध है तो आप खा लेंगे लेकिन यदि गुलाब जामुन प्राप्त करने में कोई बाधा आ रही है तो आपको बैचेन भी करने लग जायेगा। यह सब राग नाम का क्लेश करा रहा है।

यदि गुलाब जामुन देने में कोई व्यक्ति ही बाधा बन रहा है तो तुरंत ही उस व्यक्ति से आपका द्वेष हो जाएगा। इस प्रकार राग वाले विषय में जो भी बाधक होगा चाहे वह व्यक्ति हो, वस्तु हो या स्थान हो आप उससे द्वेष करने लग जाएंगे। जिस विषय में भी आपके राग की प्रबलता होगी उसके बीच आने वाले तत्त्वों में आप द्वेष करने लग जाएंगे। इस प्रकार राग और द्वेष दोनों आपके जीवन को हिलाने लग जाएंगे। फिर द्वंद्व, विचलन और उलझन जीवन में शुरू होती चली जायेगी। इसी प्रकार के जितने भी सुख हम अन्य इंद्रियों ( आंख, कान, नाक, त्वचा) से लेते हैं, उनके विषय में भी ऐसा ही समझ लेना चाहिए।

आगे के सूत्रों में बताएंगे कि कैसे ये क्लेश मानव के सुंदर जीवन को नारकीय बना देते हैं और कैसे हम इन क्लेशों से और सब प्रकार के दुखों से बच सकते हैं।

(घ) दुःखानुशयी द्वेषः । (सा. पाद, सूत्र - 8)

उत्तर - दुःख - दु:ख (की प्रतीति के)

अनुशयी - पीछे (अर्थात् दु:ख को न भोगने की इच्छा)

द्वेषः - द्वेष (क्लेश है) ।

दु:ख की प्रतीति के पीछे अर्थात् दु:ख को न भोगने की इच्छा द्वेष क्लेश है।

यह भी सर्वविदित है कि सबके जीवन में अलग अलग दुख आते रहते हैं, जब दुख भोग लिया जाता है या आकर चला जाता है तो उसके बाद दुख और जिनके कारण से दुख मिला था उन्हें दूर करने की इच्छा संस्कार रूप में चित्त में अंकित रह जाती है, जिसे द्वेष नामक क्लेश कहते हैं।

द्वेष नामक क्लेश से अनेक दुर्भाव जैसे मानसिक एवं प्रकट क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या, उत्पन्न होते हैं। द्वेष नामक क्लेश जब जीवन में अधिक बढ़ जाता है तो निरंतर संशय की स्थिति बना देता है जिसके कारण से व्यक्ति किसी पर भी सहजता से विश्वास नहीं कर पाता है। यदि कोई व्यक्ति निरंतर संशय की स्थिति में जीता है तो वह अपनी आत्मा से दूर होता चला जाता है। एक प्रकार से वह केवल शरीर भाव से ही जी रहा है, जीवन के असली तत्त्व जो वह स्वयं आत्मस्वरूप है उससे बहुत अधिक बिछड़ने लग जाता है। यह स्थिति अत्यंत भयावह है।

द्वेष क्लेश बढ़ने से, लगातार नकारात्मक भाव से भरने लग जाता है। स्वभाव से चिढचिढा और शिकायती होने लग जाता है।

जब कोई व्यक्ति किसी दुख से ग्रसित होता है तो चिंतन करता है कि दुख क्यों आया, किन साधनों के कारण आया तो यह दुख का अनुभव संस्कार रूप में चित्त पर चिपक जाता है। चित्त पर चिपके ये संस्कार कोई भी अनुकूल वातावरण उत्पन्न होने पर स्मृति को उत्पन्न कर देते हैं। फिर इस स्मृति से द्वेष पैदा होता है। यही द्वेष के उत्पन्न होने का क्रम एवं प्रक्रिया है।

राग और द्वेष दो विपरीत क्लेश हैं लेकिन दोनों की उत्पत्ति के क्रम एवं प्रक्रिया में एक जैसी समानता है।

राग अलग तरह से व्यक्ति को दुखी करता है और द्वेष अलग तरह से।

द्वेष, व्यक्ति को पाप और हिंसा में प्रवृत्त करता है। बुरे कर्माशयों की ओर लेकर जाता है और फिर पूरे मानव जीवन को जन्मजन्मांतरों में भटकाता है।

इसलिए दैनिक जीवन में राग और द्वेष को ठीक ठीक समझकर इनका प्रयोग केवल स्वयं के जीवन के उत्थान में लगाना चाहिए।

द्वेष क्लेश होने के साथ साथ एक शक्ति भी है। ऐसी शक्ति जो हमें हटाने की, निवृत्ति की शक्ति देती है। अतः इसका प्रयोग यदि आप स्वयं के जीवन से दोषों और दुर्गुणों को हटाने के लिए करेंगे तो यही शक्ति सात्विक शक्ति बन जाएगी।

ईश्वर ने जो कुछ बनाया है उसमें अच्छाई और बुराई दोनों डालकर भेजी हुई है, अब यह आपका चुनाव है कि आप उस शक्ति का प्रयोग अच्छाई के लिए करते हैं या स्वयं उसकी चपेट में आकर स्वयं को नष्ट करते हैं।

जग की सेवा, खोज अपनी, प्रीति उससे कीजिये

जिंदगी का राज है ये जानकर जी लीजिये।

(ङ) जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः । ( कै. पाद, सूत्र - 1 )

उत्तर - कोई भी पांच में से किसी भी माध्यम से समझदार योग शक्ति प्राप्त कर सकता है: जन्म से, दवाओं से, मंत्रों के जाप से, कठोर तपस्या के द्वारा, या गहन अंतर्दृष्टि समाधि द्वारा।

योगसिद्धि किसी का विशेष अधिकार नहीं है। यह लोगों की एक विस्तृत श्रृंखला के अनुरूप हो सकता है। यद्यपि राजयोग योग शक्तियों और समाधि को केवल सर्वोच्च भगवान पर ध्यान के माध्यम से प्राप्त करने की वकालत करता है, पतंजलि का मत है, योग शक्तियों को निम्नलिखित पांच संभावनाओं में से किसी के माध्यम से महारत हासिल की जा सकती है:

एक। जन्म से: कई बार, हम अद्भुत प्रतिभा का प्रदर्शन करने वाले बाल विलक्षणताओं के सामने आते हैं। ऐसी प्रवीणता प्राप्त करने के लिए आमतौर पर एक व्यक्ति को कई वर्षों तक संघर्ष करना पड़ता है। ऐसी प्रतिभा इन बच्चों में बहुत कम उम्र में ही प्रदर्शित कर दी जाती है। यह कैसे संभव है? विज्ञान इसे 'आनुवंशिकता' या 'आनुवंशिकी' कह सकता है। इसी तरह, हम कुछ जन्म-योगियों का सामना करते हैं जो अपने जन्म से ही रहस्यमय योग शक्तियों का प्रदर्शन करते हैं।

2. श्रीमद्भगवद्गीता

(क) योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते। (2/48)

उत्तर - योगस्थः-योग में स्थिर होकर; कुरु-करो; कर्मणि-कर्त्तव्यः सङ्गम्-आसक्ति को; त्यक्त्वा-त्याग कर; धनञ्जय-अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयोः-सफलता तथा विफलता में; समः-समभाव; भूत्वा-होकर; समत्वम्-समभाव; योग–योग; उच्यते-कहा जाता है।

हे अर्जुन! सफलता और असफलता की आसक्ति को त्याग कर तुम दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करो। यही समभाव योग कहलाता है।

भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है

(ख) बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् । (2/50)

उत्तर - बुद्धि-युक्त:-बुद्धि से युक्त; जहाति-मुक्त हो सकता है; इह-इस जीवन मे; उभे दोनों; सुकृत-दुष्कृते-शुभ तथा अशुभ कर्म; तस्मात्-इसलिए; योगाय-योग के लिए; युज्यस्व-प्रयास करना; योगः-योगः कर्मसु-कौशलम्-कुशलता से कार्य करने की कला।

जब कोई मनुष्य बिना आसक्ति के कर्मयोग का अभ्यास करता है तब वह इस जीवन में ही शुभ और अशुभ प्रतिक्रियाओं से छुटकारा पा लेता है। इसलिए योग के लिए प्रयास करना चाहिए जो कुशलतापूर्वक कर्म करने की कला है।

(ग) श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।। (2/53)

उत्तर - श्रुतिविप्रतिपन्ना-वेदों के साकाम कर्मकाण्डों के खडों की ओर आकर्षित न होना; ते तुम्हारा; यदा-जब; स्थास्यति-स्थिर हो जाएगा; निश्चला–अस्थिर; समाधौ-दिव्य चेतना; अचला-स्थिर; बुद्धिः-बुद्धि; तदा-तब; योगम् योग; अवाप्स्यसि तुम प्राप्त करोगे।

जब तुम्हारी बुद्धि का वेदों के अलंकारमयी खण्डों में आकर्षण समाप्त हो जाए और वह दिव्य चेतना में स्थिर हो जाए तब तुम पूर्ण योग की उच्च अवस्था प्राप्त कर लोगे।

(घ) तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। (2/61)

उत्तर - तानि-उन्हें; सर्वाणि-समस्त; संयम्य-वश में करना; युक्तः-एक हो जाना; आसीत-स्थित होना चाहिए; मत्-परः-मुझमें (श्रीकृष्ण); वशे–वश में; हि-निश्चय ही; यस्य–जिसकी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; तस्य-उनकी; प्रज्ञा–पूर्ण ज्ञान प्रतिष्ठिता-स्थिर।

वे जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं और अपने मन को मुझमें स्थिर कर देते हैं, वे दिव्य ज्ञान में स्थित होते हैं।

योग्यस्य वैशिष्ट्‌यम पाठ्यांश:

हिन्दी-अनुवादः -

(कक्षायाः दृश्यम् - अद्य कक्षा विशेषरूपेण सुसज्जिता अस्ति। भित्तिषु योगविषयस्य विविध - चित्राणि सज्जितानि सन्ति । )

हिन्दी अनुवाद :-

(कक्षा का दृश्य: कक्षा को आज विशेष रूप से सजाया गया है। दीवारों को योग विषय पर विभिन्न चित्रों से सजाया गया है।)

स्वप्निलः - बलराम ! अद्य कक्षायां कोऽपि विशिष्टः कार्यक्रम: ?

बलरामः - अरे मित्र ! त्वं न जानासि ? इदानीं तु योगशिक्षायाः कालांश: ।।

मोहिनी - एषः तु नूतनः विषयः । किं प्रतिदिनम् ईदृशी कक्षा प्रचलिष्यति ?

बलरामः - आम्, अधुना तु अस्माकं कृते योगशिक्षा अतीव उपयोगिनी अस्ति।

सागरिका - अहो! सुखदमाश्चर्यम्। अहमपि गृहे मातुः मुखाद् योगशिक्षायाः विषये श्रुतवती। तया उक्तम्– ‘योगः स्वास्थ्यकरः।'

सागर: - किं विद्याध्ययनेऽपि अस्योपयोगः वर्तते ?

मोहिनी - आम्, अस्मिन् विषये योगशिक्षकः, विशेषरूपेण वदिष्यति । ( योगशिक्षकः कक्षायां प्रविशति )

छात्रा: - नमो नमः आचार्य ! स्वागतम् अत्रभवतां कक्षायाम्।

योगाचार्यः - छात्राः! भवन्तः सम्प्रति समुत्सुकाः दृश्यन्ते । काऽपि विशिष्टा जिज्ञासा अस्ति किम् ?

सागर: - भो आचार्य! वयं सर्वे योगस्य उपयोगितायाः विषये सम्यग्रूपेण ज्ञातुम् उत्सुकाः स्मः ।

हिन्दी अनुवाद :-

स्वप्निल : बलराम !  आज कक्षा में कोई विशेष कार्यक्रम: ?

बलराम : हे मित्र !  आप नहीं जानते?  अब योग सिखाने का समय आ गया है

मोहिनी: यह एक नया विषय है।  क्या ऐसी क्लास रोज लगेगी?

बलराम : हाँ, लेकिन अब योग शिक्षण हमारे लिए बहुत उपयोगी है।

सागरिका - ओह!  सुखद आश्चर्य।  मैंने घर पर अपनी माँ से योग सिखाने के बारे में भी सुना।  उन्होंने कहा, 'योग स्वस्थ है।

सागर :- क्या इसका उपयोग पढ़ाई में भी होता है ?

मोहिनी : जी हां, योग टीचर इस बारे में खास बात करेंगे।  (योग शिक्षक कक्षा में प्रवेश करता है)

जिज्ञासुः- नमो नमः आचार्य !  यहां आपकी कक्षा में आपका स्वागत है।

योग शिक्षक: छात्र!  आप अभी उत्साहित लग रहे हैं।  क्या कोई विशेष जिज्ञासा है?

सागर:- अरे गुरु!  हम सभी योग की उपयोगिता के बारे में जानने के लिए उत्सुक हैं।

योगाचार्यः - प्रियच्छात्राः ! किं भवन्तः जानन्ति यत् योगशास्त्रे शरीरस्य मनसः च नियमनं प्रतिपादतं वर्तते । अस्य ज्ञानेन अभ्यासेन च भवन्तः स्वाध्यायेऽपि एकाग्रतां वर्धयितुम् सक्षमाः भविष्यन्ति ।

मनीष: - अस्माभिः समाचारपत्रेषु पठितम् यत् विश्वेऽपि योगदिवसः सोत्साहम् मान्यते ।

योगाचार्यः - साधूक्तम्। जूनमासस्य एकविंशतितमः दिवसः तु अन्ताराष्ट्रिययोगदिवसरूपेण सर्वत्र मान्यते ।

मोहिनी - आचार्य ! सम्प्रति वयं योगविषये सविस्तरं ज्ञातुम् इच्छामः ।

(योगाचार्यः पाठमाध्यमेन योगशिक्षां शिक्षयति)

योगाचार्यः  -  प्रियच्छात्राः ध्यानेन शृणुत ।

                   योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।

मोहन: - चित्तवृत्तिनिरोधः ! अथ किं तात्पर्यम् अस्य ?

योगाचार्यः - चित्तवृत्तीनां भेद: लक्षणम् चावगच्छन्तु प्रथमं तत: विस्तरेण बोधयामि - 'प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः' इति

प्रमाणम् - अर्थात् प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ।

विपर्ययः - अर्थात् विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।

विकल्प: - अर्थात् शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ।

निद्रा - अभावप्रत्ययालम्बनावृत्तिर्निद्रा ।

स्मृति: - अनुभूतविषयासम्प्रमोष: स्मृतिः ।

( एतत् सर्वं श्यामपट्टे योगाचार्यः लिखति अवबोधयति च, छात्राः च प्रसन्नमनसा अवगच्छन्ति, स्वपुस्तिकासु चाऽपि लिखन्ति)

सागर: - आचार्य ! अन्यदपि ज्ञातुमुत्सुकाः वयं विस्तरेण ।

योगाचार्य: - अधुना योगाङ्गानां नामानि लक्षणानि चावबोधयामि

‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहार धारणा ध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि '

सागरिका - कः तात्पर्यः अस्य एतादृशस्य दीर्घवाक्यस्य ? किञ्चिदपि नावगम्यते..

हिन्दी अनुवाद -

योग शिक्षक: - प्रिय छात्रों!  क्या आप जानते हैं कि योग शरीर और मन का नियमन सिखाता है?  इसे जानने और अभ्यास करने से आप अपनी पढ़ाई में भी अपनी एकाग्रता को बढ़ा पाएंगे।

मनीष : - हमने अखबारों में पढ़ा है कि योग दिवस पूरी दुनिया में उत्साह के साथ मनाया जाता है.

योग शिक्षक: - यह सही है।  21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मोहिनी - आचार्य !  अब हम योग के बारे में और जानना चाहते हैं।

(योग शिक्षक पाठ के माध्यम से योग सिखाते हैं)

योग शिक्षक: - प्रिय छात्रों, ध्यान से सुनो।

                    योग मन की वृत्ति का संयम है।

मोहन : - ध्यान का निषेध !  अच्छा तो इसका क्या मतलब है?

योग शिक्षक: - उन्हें मन-प्रवृत्ति के अंतर और विशेषताओं को समझने दें

प्रमाण: - अर्थात् प्रत्यक्ष अनुमान और अनुमान प्रमाण हैं।

अन्तर्विरोध : - अर्थात् अन्तर्विरोध मिथ्या अज्ञान और उसके स्वरूप की स्थापना है।

वैकल्पिक: - अर्थात शब्द ज्ञान के समानुपाती वस्तु रहित विकल्प।

नींद - नींद अनुपस्थिति और विश्वास पर निर्भरता की वृत्ति है।

स्मृति: - स्मृति अनुभव की गई वस्तुओं की अस्वीकृति है।

 (योग शिक्षक ब्लैकबोर्ड पर यह सब लिखता और समझाता है, और छात्र इसे खुशी से समझते हैं और अपनी नोटबुक में लिखते हैं।)

सागर :- आचार्य !  हम कुछ और विस्तार से जानने के लिए उत्सुक हैं।

योग शिक्षक: - अब मैं योग के अंगों के नाम और विशेषताओं के बारे में बताता हूँ

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ अंग

सागरिका: - इतने लंबे वाक्य का क्या मतलब है?  कुछ समझ नहीं आता।

योगाचार्यः - अलं चिन्तया, एकैकं कृत्वा बोधयामि ।

यमः - अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः ।

नियमः - शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।

आसनम् - स्थिरसुखमासनम्।

प्राणायामः - तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ।

प्रत्याहारः -  स्वविषयसम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ।

धारणा - देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।

ध्यानम् - तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।

समाधिः - तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः एतत्सर्वमपि योगाचार्य: श्यामपट्टे लिखित्वा बोधयति छात्राश्च स्वस्वपुस्तिकासु लिखन्ति, अवबुध्यन्ति च ।

स्वप्निलः - आचार्य । योगाङ्गानां नामानि तु अस्माभिः सुष्ठु ज्ञातानि अवबुद्धानि चाऽपि ।

साम्प्रतं योगाङ्गानां फलमपि ज्ञातुं महती उत्कण्ठा वर्तते ।

योगाचार्यः - आम् आम् तदपि बोधयामि । शृण्वन्तु, लिखन्तु अवबुध्यन्तु च तावत्

यम: -

अहिंसा - अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।

सत्यम् - सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।

अस्तेयम् - अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।

ब्रह्मचर्यम् - ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ।

अपरिग्रहः - अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः ।

बलरामः - अतीव ज्ञानवर्धिका एषा कक्षा । पुस्तकालयं गत्वाऽपि एतावत् ज्ञानं प्राप्तुमशक्यमासीत्यादृशम् अद्य अस्यां कक्षायां प्राप्तम् ।

नियम:

शौचम् - शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः । सत्त्वशुद्धिसौमनस्यऐकाग्येन्द्रियजयत् आत्मदर्शनयोग्यत्वानि च।

हिन्दी अनुवाद -

योग शिक्षक: बहुत चिंता की बात है, मैं तुम्हें एक-एक करके सिखाता हूँ।

 यम: यम अहिंसा, सत्यवादिता, चोरी, ब्रह्मचर्य और विवाह हैं।

 नियम हैं स्वच्छता, संतोष, तपस्या, अध्ययन, भगवान का ध्यान।

 आसन - एक स्थिर आरामदायक आसन।

 प्राणायाम: उस स्थिति में, श्वास और समाप्ति की गति में रुकावट को प्राणायाम कहा जाता है।

 प्रत्यावर्तन: इंद्रियों का प्रत्यावर्तन, जैसे किसी की अपनी वस्तुओं के उपयोग में मन के रूप की नकल करना।

 प्रतिधारण - देश बंधन मन की अवधारण है।

 ध्यान: विश्वास, ध्यान की विलक्षणता है।

 समाधि - यही समाधि का अर्थ है, जैसे कि यह प्रकाश और निराकार से रहित थी। योग शिक्षक यह सब एक ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं और छात्र इसे अपनी नोटबुक में लिखते हैं और समझते हैं।

 स्वप्निल: शिक्षक।  योग के अंगों के नाम, हालांकि, हम अच्छी तरह से जानते और समझते हैं।

 वर्तमान में योग के अंगों का फल जानने की बड़ी चिंता है।

 योग शिक्षक: हाँ, हाँ, मैं उसे भी समझाता हूँ।  बहुत कुछ सुनें, लिखें और समझें

 यम:-

 अहिंसा - अहिंसा की स्थापना में, उसकी उपस्थिति में शत्रुता का त्याग।

 सत्य - सत्य की स्थापना में कर्मफल पर आश्रित रहना।

 चुपके - चुपके की स्थापना में सभी रत्नों का स्थान।

 ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य की स्थापना में शक्ति प्राप्त करना।

 अपरिग्रह - अपरिग्रह स्थिरता में जन्म कथा का संदर्भ।

 बलराम : यह बहुत ज्ञानवर्धक वर्ग है।  आज मैंने इस कक्षा में कुछ ऐसा पाया है जो पुस्तकालय में जाकर भी प्राप्त नहीं हो सकता था

 नियम:

 स्वच्छता - स्वच्छता से स्वयं के लिए अवमानना ​​और दूसरों से संपर्क न होने की स्थिति आती है।  और सत्व के गुण, पवित्रता, नम्रता, एकाग्रता से इंद्रियों पर विजय, और आत्म-साक्षात्कार की योग्यता।

सन्तोष: - सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः ।

तपः - कार्येन्द्रियसिद्धिः अशुद्द्धिाक्षयात्तपः ।

स्वाध्यायः - स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ।

ईश्वरप्रणिधानम् - समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ।

(तदैव घण्टावादनम् भवति)

सर्वे छात्राः - आचार्य! कृपया आसन-प्राणायामेत्यादिकं स्पष्टीकृत्य एव कक्षां समापयतु। अर्धे मा त्यजतु ।

योगाचार्यः - आम् आम् बोधयामि अग्रे अपि ।

आसनम् - ततो द्वन्द्वानभिघातः

प्राणायामः - ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् । धारणासु च योग्यता मनसः ।

प्रत्याहारः - ततः परमावश्यतेन्द्रियाणाम्।

धारणा - ध्यान-समाधिः- त्रयमेकत्र संयमः । तज्जयात्प्रज्ञालोकः ।

योगाचार्यः - शोभनम्। श्वः प्रायोगिकं व्यवहारं करिष्यामः, येन भवन्तः यमनियमेत्यादीनां प्रत्यक्षमनुभवं विधास्यन्ति।

( एवं कथयित्वा कक्षातः प्रस्थानं करोति आचार्य: । छात्राः अपि हृष्टमनसा परस्परं योगचर्चा कुर्वाणः सन्ति।)

हिन्दी अनुवाद -

तृप्ति :- संतोष से परम सुख की प्राप्ति।

 तपस - कर्मेन्द्रियों की सिद्धि अपवित्रता के नाश के लिए तपस्या है।

 स्वाध्याय - अध्ययन के लिए वांछित देवता का उपयोग।

 ईश्वर पर ध्यान - ध्यान की पूर्णता ईश्वर के ध्यान से है।

 (तभी घंटी बजती है)

 सभी छात्र - शिक्षक!  कृपया आसन और प्राणायाम समझाकर कक्षा समाप्त करें।  आधा मत छोड़ो।

 योग शिक्षक: हाँ, हाँ, मैं आपको आगे सिखाऊँगा।

 आसन - फिर दोहरा आक्रमण

 प्राणायाम: तब प्रकाश आवरण गायब हो जाता है।  और मन की देखने की क्षमता।

 प्रत्यावर्तन: तब इंद्रियों की सर्वोच्च आवश्यकता।

 धारणा - ध्यान-समाधि - तीनों का एक साथ संयम।  वही ज्ञान की दुनिया है।

 योग शिक्षक: सुंदर।  कल हम एक प्रायोगिक अभ्यास करेंगे, ताकि आपको यम और नियम का प्रत्यक्ष अनुभव हो सके।

 (यह कहकर शिक्षक कक्षा से निकल जाते हैं। छात्र भी खुशी-खुशी आपस में योग की चर्चा कर रहे हैं।)

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