
वैदिक काल
सिन्धु
सभ्यता के पतन के बाद एक नई सभ्यता प्रकाश में आयी, जो पूर्णत: एक ग्रामीण सभ्यता
थी जिसकी जानकारी हमें वैदिक ग्रन्थों, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद से
मिलती है। इसलिए इस सभ्यता को वैदिक सभ्यता और इस काल को वैदिक काल के नाम से जाना
जाता है।
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आर्यों द्वारा प्रवर्तित होने के कारण इस सभ्यता को आर्य सभ्यता भी कहा जाता है।
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आर्य शब्द संस्कृत भाषा का है जिसका अर्थ उत्तम, श्रेष्ठ या उच्च कुल में उत्पन्न
माना जाता है।
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वैदिक काल को दो भागों बाँटा गया है–
1.
ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)
2.
उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)
1. ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)
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इस काल में लोग मुख्यत: पशुपालन पर निर्भर थे, कृषि का स्थान गौण था।
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इस काल तक लोगों को लोहे का ज्ञान नहीं था।
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इस काल की सभी जानकारी का एकमात्र स्रोत ऋग्वेद है।
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ऋग्वेद आर्यों का प्राचीनतम एवं पवित्रतम ग्रन्थ है।
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ऋग्वेद और ईरानी ग्रन्थ जेंद अवेस्ता (Zenda Avesta) में काफी समानता पायी जाती है।
राजनीतिक अवस्था
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सर्वप्रथम जब आर्य भारत में आये तो उनका यहाँ के दास अथवा दस्यु कहे जाने वाले लोगों
से संघर्ष हुआ। अन्त में आर्यों की विजय हुई।
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ऋग्वेद में आर्यों के पाँच कबीले होने के कारण इन्हें पंचजन्य कहा गया। ये थे- पुरू,
यदु, अनु, तुर्वशु एवं द्रहयु।
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भरत, क्रिवि एवं त्रित्स आर्य शासक वंश के थे। भरत कुल के नाम से ही इस देश का नाम
भारतवर्ष पड़ा।
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भरत कुल के पुरोहित ऋषि वशिष्ठ थे।
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कालांतर में भरत वंश के राजा सुदास तथा अन्य दस जनों के मध्य दाशराज्ञ युद्ध अर्थात्
दस राजाओं का युद्ध (Battle of ten Kings) पुरुष्णी नदी (रावी नदी) के तट पर लड़ा गया,
जिसमें सुदास की विजय हुई।
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कुछ समय बाद पराजित राजा पुरूओं और भरतों के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से एक
नवीन कुरूवंश की स्थापना हुई। यह वंश उत्तर वैदिक काल में प्रसिद्ध हुआ।
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ऋग्वैदिक काल में समाज कबीले के रूप में संगठित था, कबीले को जन भी कहा जाता था।
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आरम्भ में आर्यों के कुटुम्ब, कुल या परिवार (गृह) रक्त सम्बन्धों पर आधारित थे जिसका
प्रधान कुलप या कुलपति कहलाता था। कुलप परिवार का मुखिया होता था।
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अनेक परिवारों को मिलाकर ग्राम बनता था, जिसका प्रधान ग्रामणी कहलाता था तथा अनेक ग्रामों
को मिलाकर विश बनता था, जिसका प्रधान विशपति होता था। कुटुम्ब (गृह) ही सबसे छोटी प्रशासनिक
इकाई थी।
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अनेक विशों का समूह जन या कबीला कहलाता था जिसका प्रधान राजा/राजन या गोप होता था।
शासन का प्रधान राजन हुआ करता था।
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इस काल में राजा भूमि का स्वामी न होकर प्रधानत: युद्ध का नेता होता था तथा व्यक्तिगत
रूप से युद्धों में भाग लेता था।
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राजा की सहायता हेतु इस काल में तीन अधिकारियों- पुरोहित, सेनानी एवं ग्रामीणी का वर्णन
मिलता है। प्राय: पुरोहित का पद वंशानुगत होता था।
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राज्याभिषेक के अवसर पर ग्रामीणी, रथकार तथा कम्मादि आदि उपस्थित रहते थे। इन्हें
‘रत्नी’ कहा जाता था। इनकी संख्या राजा सहित लगभग 12 होती थी।
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इस काल के अन्य पदाधिकारियों में पुरप तथा दूत उल्लेखनीय हैं। इनमें पुरप दुर्गपति
होते थे। दूत के कार्य राजनीतिक थे जो समय पर संधि-विग्रह के प्रस्तावों को लेकर अन्य
राज्यों में जाते थे।
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ऋग्वैदिक काल में अनेक जनतान्त्रिक संस्थाओं का विकास हुआ, जिनमें सभा, समिति एवं विदथ
प्रमुख हैं।
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सभा- यह श्रेष्ठ एवं संभ्रांत लोगों की संस्था थी।
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समिति- यह केन्द्रीय राजनीतिक संस्था थी तथा सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी।
इसे राजा को चुनने एवं पदच्युत करने का भी अधिकार था। समिति में स्त्रियाँ भी भाग लेती
थीं। समिति के अध्यक्ष को ईशान कहा जाता था।
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विदथ- यह आर्यों की सर्वाधिक प्राचीन संस्था थी। इसे जनसभा कहा जाता था। विदथ धार्मिक
तथा सैनिक महत्त्व का कार्य भी करती थी।
आर्यों
के आदिस्थल/मूल निवास से सम्बद्ध विभिन्न मत
आदिस्थल |
मत |
सप्तसैन्धव
क्षेत्र |
डॉ.
अविनाश चन्द्र, डॉ. सम्पूर्णानन्द |
ब्रह्मर्षि
देश |
पं.
गंगानाथ झा |
मध्य
देश |
डॉ.
राजवली पाण्डेय |
कश्मीर |
एल.
डी. कल्ल |
देविका
प्रदेश (मुल्तान) |
डी.
एस. त्रिदेव |
उत्तरी ध्रुव प्रदेश |
बाल
गंगाधर तिलक |
हंगरी
(डेन्यूव नदी की घाटी) |
प्रो.
गाइल्स |
दक्षिणी
रूस |
मेयर,
पीक व गार्डन चाइल्ड्स |
जर्मनी |
पेनका, हर्ट |
मध्य
एशिया* |
मैक्समूलर |
*
सर्वाधिक मान्य मत।
सामाजिक जीवन
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ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार या कुल होती थी। ऋग्वेद में कुल शब्द का उल्लेख
नहीं है।
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परिवार के लिए ऋग्वेद में गृह शब्द का प्रयोग हुआ है।
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ऋग्वेद में जन शब्द का लगभग 275 बार एवं विश शब्द का 170 बार उल्लेख हुआ है।
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ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। पिता ही परिवार का मुखिया होता था।
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पितृसत्तात्मक तत्त्व की प्रधानता होते हुए भी परिवार में स्त्रियों को यथोचित आदर
एवं सम्मान दिया जाता था।
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स्त्रियों को विवाह सम्बन्धी स्वतन्त्रता प्राप्त थी। उन्हें शिक्षा पाने तथा राजनीतिक
संस्थाओं में हिस्सा लेने का भी अधिकार था। लोपामुद्रा, सिकता विश्वास, अपाला और घोषा
इस काल की ऐसी ही विदूषी महिलाएँ थी।
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आर्य लोगों का विवाह दास तथा दस्युओं के साथ निषि था।
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ऋग्वेद में ऐसी कन्याओं का उल्लेख मिलता है जो दीर्घकाल तक अथवा आजीवन अविवाहित रहती
थी। ऐसी कन्याओं को अमाजु कहते थे।
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सामान्यत: परिवार में एक पत्नी विवाह प्रथा प्रचलित थी। यद्यपि कुलीन वर्ग के लोग कई-कई
पत्नियाँ रखते थे। बाल-विवाह की प्रथा नहीं थी। अन्तर्जातीय विवाह होते थे।
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समाज में सती-प्रथा के प्रचलित होने का उदाहरण नहीं मिलता। स्त्रियों को राजनीति में
भाग लेने का अधिकार था परन्तु सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे।
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आर्यों का प्रारम्भिक सामाजिक वर्गीकरण वर्ण एवं कर्म के आधार पर हुआ था। आर्यों के
तीन प्रमुख वर्ग थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य । यह वर्गीकरण जन्मजात या जातिगत
न होकर कर्म के आधार पर निश्चित किया गया था।
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ऋग्वेद काल में वर्ण व्यवस्था के चिह्न दिखायी पड़ते हैं। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के
पुरुष सूक्त में चतुर्वर्णों का उल्लेख मिलता है। इस सूक्त में कहा गया है कि ब्राह्मण
परम-पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जाँघों से एवं शूद्र उसके
पैरों से उत्पन्न हुए थे। ऋग्वेद के शेष भाग में कहीं भी वैश्य और शूद्र का वर्णन नहीं
है।
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ऋग्वैदिक समाज में दास अथवा दस्युओं का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें आर्यों का प्रबल
शत्रु बताया गया है एवं अमानुष कहा गया है।
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ऋग्वैदिक काल के लोगों का सोम मुख्य पेय पदार्थ था।
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इस काल में मांसाहारी एवं शाकाहारी दोनों तरह के भोजन किये जाते थे।
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वेश-भूषा में सूती, उनी व रंगीन कपड़ों का प्रचलन था।
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स्त्री एवं पुरुष दोनों आभूषण प्रेमी थे। आभूषण सोने, चाँदी, ताँबे, हाथीदाँत व मूल्यवान
पत्थरों आदि से निर्मित होते थे।
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मनोरंजन के साधनों में संगीत-गायन, संगीत-वादन, नृत्य, चौपड़, शिकार, अश्व-धावन आदि
शामिल थे।
आर्थिक जीवन
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ऋग्वैदिक सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी।
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ऋग्वेद में आर्यों के मुख्य व्यवसाय के रूप में पशुपालन एवं कृषि का विवरण मिलता है
किन्तु पशुपालन को ही ऋग्वैदिक आर्यों ने अपना मुख्य व्यवसाय बनाया था।
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ऋग्वेद में गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त हुआ है।
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इस काल में गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप में ही होता था।
➤ अवि (भेड़) , अजा (बकरी) का ऋग्वेद में अनेक बार
उल्लेख हुआ है। इस काल के लोग हाथी, बाघ, बत्तख एवं गिद्ध से अपरिचित थे।
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ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख मात्र 24 बार ही हुआ है। इसमें अनेक स्थानों पर यव एवं धान्य
शब्द का उल्लेख मिलता है।
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गो शब्द का ऋग्वेद में 174 बार प्रयोग हुआ है। इस काल में युद्ध का मुख्य कारण गायों
की गवेष्णा अर्थात् गाविष्टि (गाय का अन्वेषण) था।
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ऋग्वैदिक काल में वस्त्र धुलने वाले, वस्त्र बनाने वाले, लकड़ी एवं धातु का काम करने
वाले एवं बर्तन बनाने वाले शिल्पों के विकास के बारे में विवरण मिलता है। चर्मकार एवं
कुम्हार का भी उल्लेख मिलता है।
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इस काल में अयस शब्द का उपयोग सम्भवत: ताँबे एवं काँसे के लिए किया गया था।
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ऋग्वेद में कपास का उल्लेख नहीं मिलता है।
➤
ऋग्वैदिक काल में क्रय-विक्रय हेतु विनिमय प्रणाली का शुभारंभ हो चुका था। इस प्रणाली
में वस्तु विनिमय के साथ गाय, घोड़े एवं सुवर्ण से भी क्रय-विक्रय किया जाता था।
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इस काल में व्यापार करने वाले व्यापारियों एवं व्यापार हेतु सुदूरवर्ती प्रदेशों में
भ्रमण करने वाले व्यक्ति को पणि कहा जाता था।
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इस काल में व्यापार, स्थल एवं जल दोनों रास्तों से होता था। आंतरिक व्यापार बहुधा गाड़ियों,
रथों एवं पशुओं द्वारा होता था।
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आर्यों को समुद्र के विषय में जानकारी थी या नहीं यह बात अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया
है।
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इस काल में ऋण देकर ब्याज लेने वाले वर्ग को वेकनाट अर्थात् सूदखोर कहा जाता था।
धार्मिक जीवन
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ऋग्वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया। इस समय बहुदेववाद का प्रचलन
था।
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ऋग्वैदिक आर्यों की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी। ये हैं- आकाश के देवता, अंतरिक्ष
के देवता और पृथ्वी के देवता।
➤
ऋग्वैदिक काल में अग्नि, इंद्र, वरुण, सूर्य, सवितु, ऋतु, यम, रूद्र, अश्विनी आदि प्रमुख
देवता एवं उषा, आदिति, रात्रि, संध्या आदि प्रमुख देवियाँ थीं।
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ऋग्वेद में इंद्र का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है। ऋग्वेद
के लगभग 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हें आर्यों का युद्ध नेता (पुरंदर) एवं
वर्षा का देवता माना जाता है।
➤
ऋग्वेद में दूसरा महत्त्वपूर्ण देवता अग्नि था। ऋग्वेद के लगभग 200 सूक्तों में इसका
वर्णन है। अग्नि का काम था मनुष्य और देवताओं के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना।
➤
ऋग्वेद में तीसरा स्थान वरुण देवता का था। ऋग्वेद के लगभग 30 सूक्तों में इसका वर्णन
है। वरुण को ईरान में अहुरमज्दा तथा यूनान में ओरनोज के नाम से जाना जाता है।
➤
इस समय देवों की पूजा की प्रधान विधि थी- स्तुति पाठ करना एवं यज्ञ से बलि चढ़ाना।
ऋग्वैदिक
देवी-देवता : एक नजर में
वरुण |
सकल
ब्रह्माण्ड का अधिपति, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, नियामक, प्रजारक्षक तथा ऋतस्य |
इंद्र |
आँधी,
तूफान, बिजली और वर्षा के देवता, युद्धों में विजय दिलाने वाला पराक्रमी देव |
विष्णु |
संसार
का संरक्षक |
मरुत |
आँधी
के देवता |
उषा |
सूर्योदय-पूर्व
की अवस्था की द्योतक |
अदिति |
आर्यों
की सार्वभौम भावना की देवी |
सोम |
वनस्पतियों,
औषधियों के अधिपति |
2. उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)
➤
भारतीय इतिहास में उस काल को, जिसमें सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों,
आरण्यकों एवं उपनिषद् की रचना हुई, को उत्तर वैदिक काल कहा जाता है।
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चित्रित धूसर मृदमांड (Painted Grey Ware-PGW) इस काल की विशिष्टता थी, क्योंकि यहाँ
के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों तथा थालियों का प्रयोग करते थे।
वे लोहे के हथियारों का भी प्रयोग करते थे।
➤
उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता का मुख्य केन्द्र मध्यदेश था जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर
गंगा-यमुना दोआब (कुरूक्षेत्र) तक था। यहीं पर कुरू एवं पंचाल जैसे विशाल राज्य थे।
यहीं से आर्य संस्कृति पूर्व की ओर प्रस्थान कर कोशल, काशी एवं विदेह तक फैली।
➤
मगध एवं अंग प्रदेश आर्य सभ्यता के क्षेत्र के बाहर थे। मगध में निवास करने वाले लोगों
को अथर्ववेद में व्रात्य कहा गया है। ये प्राकृत भाषा बोलते थे।
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उत्तर वैदिक काल तक आते-आते पंचजनों का लोप हो गया तथा उनके स्थान पर विशाल राज्यों
की स्थापना हुई, जिनमें कुरू तथा पंचाल सबसे अधिक प्रसिद्ध थे।
➤
उत्तर वैदिक काल में पांचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था।
➤
उत्तर वैदिक काल की मुख्य विशेषता थी- कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था का उदय, कबायली संरचना
में दरार, वर्ण व्यवस्था की जटिलता में वृद्धि, क्षेत्रगत राज्यों का उदय तथा धार्मिक
कर्मकांडों की प्रधानता।
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तकनीकी विकास की दृष्टि से इस काल की महत्त्वपूर्ण घटना है- लोहे का प्रयोग । आरंभ
में लोहे का उपयोग हथियारों के निर्माण में हुआ परन्तु धीरे-धीरे इसका व्यवहार कृषि
एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों में होने लगा।
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उत्तर वैदिक ग्रन्थों में लोहे का उल्लेख कृष्ण-अयस या श्याम-अयस के नाम से हुआ है।
राजनीतिक अवस्था
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इस काल में ऋग्वैदिक कालीन अनेक छोटे-छोटे कबीले एक-दूसरे में विलीन होकर क्षेत्रगत
जनपदों में बदलने लगे थे।
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इस काल में राजतन्त्र ही शासन व्यवस्था का आधार था, किन्तु कहीं-कहीं पर गणराज्यों
के उदाहरण भी मिलते हैं।
➤
इस काल में राजा का अधिकार ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा कुछ बढ़ा। अब उसे बड़ी-बड़ी उपाधियाँ
मिलने लगी जैसे- अधिराज, सम्राट, एकराट, राजाधिराज।
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प्रदेश का संकेत करने वाला शब्द राष्ट्र उत्तर वैदिक काल में ही सर्वप्रथम प्रयोग किया
गया।
➤
राजा मन्त्रियों की सहायता से समस्त राज्य का प्रशासन करता था। इन मन्त्रियों को उत्तर
वैदिक काल में रत्निन कहा जाता था। शतपथ ब्राह्मण 12 प्रकार के रत्नियो का विवरण दिया
गया है।
➤
इस काल में राजा की शक्ति में वृद्धि होने से सभा और समिति नामक संस्थाओं की स्थिति
में थोड़ा-सा बदलाव आया।
➤
अथर्ववेद में सभा एवं समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है।
➤
सभा एक ग्राम संस्था थी। वह ग्राम के सभी स्थानीय विवादों का निर्णय करती थी। सभा में
स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था।
➤
समिति एक केन्द्रीय संस्था थी। अथर्ववेद में राजा के लिए समिति का सहयोग आवश्यक बताया
गया है। सम्भवत: समिति का राजा ही अध्यक्ष होता था, पर समिति का राजा पर अंकुश होता
था।
उत्तर
वैदिककालीन प्रमुख पदाधिकारी
पदनाम |
कार्य |
पुरोहित |
राजा
का प्रमुख सलाहकार, युद्ध में राजा के साथ जाता था, समस्त धार्मिक कार्य-कलापों में
सहभागी। |
महिषी |
राजा
की पटरानी महिषी कहलाती थी, जो प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायक एवं सलाहकार
के रूप में कार्य करती थी। |
युवराज |
राजा
अपने ज्येष्ठ पुत्र को इस पद पर आसीन कर उसे उत्तराधिकारी के रूप में प्रशासनिक कार्यों
में निपुण करने का प्रयास करता था। |
सुत |
रथों
के निर्माण, रख-रखाव हेतु पदाधिकारी। |
सेनानी |
सेना
का प्रधान पदाधिकारी |
ग्रामिणी |
ग्राम
शासन का प्रधान पदाधिकारी। |
क्षत्रि |
राजप्रसादों
की सुरक्षा हेतु पदाधिकारी। |
संग्रहीतृ |
राज्य
का कोषाध्यक्ष। |
भागदुध |
भूमि
कर की वसूली हेतु पदाधिकारी। |
अक्षवाप |
जुआ
आदि पर निगरानी रखने वाला। |
सामाजिक जीवन
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इस काल में धीरे-धीरे बड़े ग्राम नगरों में विकसित होने लगे थे।
➤
इस समय गृह निर्माण कच्ची एवं पक्की इर्टों, मिट्टी, बाँस एवं लकड़ी से किया जाता था।
➤
संयुक्त एवं पितृसत्तात्मक परिवार की प्रथा उत्तरवैदिक काल में भी विद्यमान रही जिसमें
पिता के असीमित अधिकार होते थे।
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उत्तर वैदिक काल में ही सर्वप्रथम कुल शब्द का उल्लेख मिलता है।
➤
इस काल में वर्ण आधारित जाति व्यवस्था स्थापित हो चुका था।
➤
इस काल तक समाज स्पष्टत: चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में विभाजित
हो चुका था। किन्तु इस काल में जाति प्रथा उतनी कठोर नहीं थी जितनी की सूत्रों के काल
में थी।
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इस काल में अस्पृश्यता की भावना का उदय नहीं हुआ था।
➤
ऐतरेय ब्राह्मण में सर्वप्रथम चारों वर्णों के कर्मों के विषय में विवरण मिलता है।
➤
इस काल में ही सर्वप्रथम गोत्र व्यवस्था प्रचलन में आयी। गोत्र का शाब्दिक अर्थ है
गोष्ठ अर्थात् वह स्थान जहाँ समूचे कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था। परन्तु कालांतर
में गोत्र का अर्थ एक मूल पुरुष के वंशज से हो गया। एक ही गोत्र के लोगों के परस्पर
विवाह पर प्रतिबन्ध लग गया।
➤
मानव जीवन को सुव्यवस्थित बनाने वाले चार आश्रमों का विधान इस काल में मिलता है। ये
हैं- ब्रह्मचर्य (25 वर्ष की आयु तक) , गृहस्थ (25 से 50 वर्ष की आयु तक) , वानप्रस्थ
(50 से 75 वर्ष की आयु तक) और संन्यास आश्रम (75 से 100 वर्ष की आयु तक) ।
➤
स्पष्टत: उत्तर वैदिक काल में उपर्युक्त प्रथम तीन आश्रमों का उल्लेख है। अंतिम आश्रम
इस काल में विशेष महत्त्व नहीं पा सका था। इस समय गृहस्थ आश्रम को विशेष महत्त्व दिया
जाता था।
➤
इस काल में शिक्षा का माध्यम गुरुकुल परम्परा पर आधारित था।
➤
इस काल में अन्तर्वर्णीय विवाह, बहुविवाह, विधवा विवाह, नियोग प्रथा, दहेज प्रथा का
प्रचलन था। बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा का उल्लेख उत्तर वैदिक काल में नहीं
मिलता है।
➤
स्त्रियों की दशा उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक काल की तुलना में अच्छी नहीं थी।
➤
इस काल में मनोरंजन के साधन में लोकनृत्य, संगीत, जुआ एवं युद्ध मुख्य थे।
➤
मनुस्मृति में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है।
विवाह
के प्रकार
1
ब्रह्म विवाह |
कन्या के वयस्क होने पर उसके माता-पिता द्वारा
योग्य वर खोजकर उससे अपनी कन्या का विवाह करना। |
2 दैव विवाह |
यज्ञ
करने वाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह। |
3
आर्ष विवाह |
कन्या
के पिता द्वारा यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय के बदले में अपनी कन्या का विवाह
करना। |
4
प्रजापत्य विवाह |
वर
स्वयं कन्या के पिता से कन्या माँग का विवाह करता था। |
5
गंधर्व विवाह |
कन्या
तथा वर प्रेम अथवा कामुकता में वशीभूत होकर विवाह करते थे। |
6 असुर विवाह |
कन्या
के पिता द्वारा धन के बदले में कन्या का विक्रय। |
7
पैशाच विवाह |
सोई
अथवा पागल कन्या के साथ सहवास कर विवाह करना। |
8 राक्षस विवाह |
बलपूर्वक कन्या को छीनकर उससे विवाह करना। |
नोट:
स्मृतियों में ब्रह्म, दैव, आर्ष एवं प्रजापत्य विवाह ही मान्यता प्राप्त है।
आर्थिक जीवन
➤
उत्तरवैदिक काल के लोगों के आर्थिक जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उनके स्थायित्व
में देखने को मिलता है जो कृषि के अधिकाधिक प्रसार का परिणाम था।
➤
इस काल में आर्यों का प्रमुख व्यावसाय कृषि था।
➤
कृषि की समस्त प्रक्रियाओं का उल्लेख सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।
➤
यजुर्ववेद में व्रीहि/ब्रीहि (धान) , यव (जौ) , माण (उड़द) , मृद्ग (मूँग) , गोंधूम
(गेहूँ) , मसूर आदि अनाजों का वर्णन मिलता है।
➤
अथर्ववेद में दो तरह के धान-ब्रीहि एवं तण्डुल तथा ईक्षु (ईख) का उल्लेख मिलता है।
➤
अथर्ववेद में ही सिंचाई के साधन के रूप में वर्ष कूप एवं नहर का उल्लेख किया गया है।
➤
इस काल में कृषि तथा पशुपालन, मछुआ, सारथी, गड़रिया, स्वर्णकार, मणिकार, रस्सी बटने
वाले, टोकरी बुनने वाले, धोबी, लुहार, जुलाहा आदि व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है।
➤
इस काल के मुख्य पालतू पशु गाय, बैल, घोड़ा, हाथी, भैंस, भेड़, बकरी, गधा, उँट, शूकर
आदि थे।
➤
इस काल में महत्त्वपूर्ण पशु के रूप में गाय को पाला जाता था। बड़े बैल को इस काल में
महोक्ष कहा जाता था।
➤
इस समय मिट्टी के एक विशेष प्रकार के बर्तन बनाये जाते थे, जिन्हे चित्रित धूसर मृदमांड
( Painted Grey Ware-PGW) कहा जाता है।
➤
सूत कातने एवं वस्त्र बुनने का व्यवसाय इस काल में बहुत अधिक विकसित था।
➤
ब्राह्मण एवं क्षत्रिय अधिकांशत: राजकीय करों से मुक्त थे। राज्य को कर का अधिकांश
भाग वैश्यों से ही प्राप्त होता था।
➤
व्यापार-वाणिज्य विनिमय के आधार पर छोटे पैमाने पर होता था।
➤
ऋण देने एवं ब्याज लेने की प्रथा प्रचलित हो चुकी थी।
➤
यद्यपि शतमान, निष्क, कृष्णल एवं पाद्य शब्दों का उल्लेख मिलता है। तथापि सिक्कों के
प्रचलन का कोई पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिलता है।
➤
इस काल की अर्थव्यवस्था को मोटे तौर पर प्राक्-शहरी (Proto-Urban) कहा जा सकता है,
क्योंकि ये न तो पूरी तरह ग्रामीण थी और न ही शहरी।
धार्मिक जीवन
➤
इस काल के धर्म की प्रमुख विशेषता यज्ञों की जटिलता एवं कर्मकांडों की दुरूहता थी।
यज्ञों में शुद्ध मन्त्रोच्चारण पर विशेष बल दिया गया।
➤
ऋग्वैदिक 7 पुरोहितों की जगह उत्तरवैदिक काल में 14 पुरोहितों का उल्लेख मिलता है।
➤
गृहस्थ आर्यों को पाँच महायज्ञों का अनुष्ठान करना पड़ता था जो निम्नवत् है-
1.
ब्रह्मयज्ञ- प्राचीन ऋषियों के प्रति कृतज्ञता।
2.
देवयज्ञ- देवताओं के प्रति कृतज्ञता।
3.
पितृयज्ञ- पितरों का तर्पण।
4.
मनुष्य यज्ञ- अतिथि सत्कार।
5.
भूतयज्ञ/बलियज्ञ- समस्त जीवों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के तौर पर चीटियों, पक्षियों,
स्वानों आदि को भोजन देना।
षडदर्शन
एवं उसके प्रवर्तक
दर्शन |
प्रवर्तक |
1.
सांख्य |
कपिल |
2. योग |
पतंजलि
(योगसूत्र) |
3.
न्याय |
गौतम
(न्यायसूत्र) |
4. पूर्वमीमांसा |
जैमिनी |
5. उत्तरमीमांसा (वेदांत) |
बादरायण
(ब्रह्मसूत्र) |
6. वैशेषिक |
कणाद
या उलूक |
नोट-
सांख्य दर्शन भारत के सभी दर्शनों में सबसे प्राचीन है। इसके अनुसार मूल तत्त्व 25
है, जिनमें प्रकृति पहला तत्त्व है।
➤
ऋग्वेद के देवता इन्द्र एवं अग्नि अब प्रमुख नहीं रहे। उनके स्थान पर इस काल में प्रजापति
को सर्वोच्च स्थान मिला। इस काल में विष्णु को संरक्षक के रूप में पूजा जाता था। ऋग्वेद
में पशुओं के रक्षक देवता पूषन इस काल में शूद्रों के देवता के रूप में प्रतिष्ठापित
हुए।
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इस काल में राजा के राज्याभिषेक के समय राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता था।
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उत्तरवैदिक काल में ही बहुदेववाद, मूर्तिपूजा, वासुदेव सम्प्रदाय एवं षडदर्शनों का
बीजारोपण हुआ समाज में ब्राह्मणों का प्रभुत्व काफी बढ़ गया क्योंकि सिर्फ वे ही धार्मिक
अनुष्ठान करा सकते थे। जादू-टोने में विश्वास भी बढ़ गया था।
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इस काल में मनुष्य के भौतिक सुख एवं आध्यात्मिक सुखों के मध्य तालमेल स्थापित करने
के लिए पुरुषार्थ का विधान किया गया। पुरुषार्थों की संख्या चार है- 1. धर्म, 2. अर्थ,
3. काम और 4. मोक्ष।
विभिन्न
प्रकार के यज्ञ
राजसूय |
राजा
के राज्याभिषेक हेतु सम्पादित होता था। ऐसा माना जाता था कि इससे राजा को दिव्य शक्ति
प्राप्त होगी। |
अश्वमेघ |
अन्य
राज्यों को चुनौती देने के उद्देश्य से एक अभिषिक्त घोड़े को छोड़कर सम्पादित किया
जाता था जो राजा के प्रभुत्व का प्रतीक था। |
वाजपेय |
राजा
रथों की दौड़ का आयोजन करता था जिसका उद्देश्य प्रजा के मनोरंजन के साथ शौर्य प्रदर्शन
था। |
अग्निष्टोम |
इस
यज्ञ में प्रात:, दोपहर तथा शाम को सोम पीसा जाता था तथा अग्नि को पशु बलि दी जाती
थी। |