COBWEB-THEOREM-OR-THEORY(मकड़ी जाल प्रमेय या सिद्धान्त)

COBWEB-THEOREM-OR-THEORY(मकड़ी जाल प्रमेय या सिद्धान्त)

मकड़ी जाला सिद्धान्त का प्रतिपादन लगभग एक ही समय पर स्वतन्त्र रूप से हेनरी शुल्ज, जान टिनवर्जन तथा आर्थर हनाउ द्वारा किया गया परन्तु मकड़ी जाला नामकरण 1934 में निकलोस कालडोर द्वारा किया गया।

किसी वस्तु के सन्तुलन कीमत (EquilibriumPrice) की विवेचना स्थैतिक विश्लेषण (StaticAnalysis) पर आधारित है जो यह मान लेता है कि माँग में परिवर्तनों के साथ पूर्ति शीघ्रता से समायोजन कर लेती है। अन्य शब्दों में, स्थैतिक विश्लेषण 'समय' तत्व की पूर्णतया उपेक्षा करता है जोकि व्यावहारिक नहीं है। अतः जब आर्थिक विश्लेषण में समय या समय विलम्बों को सम्मिलित किया जाता है तो ऐसे विश्लेषण को प्रावैगिक विश्लेषण (Dynamic Analysis) कहते हैं। मकड़ी जाल सिद्धान्त एक सरल प्रावैगिक विश्लेषण को प्रस्तुत करता है।

मकड़ी जाल प्रमेय की अवधारणा (The Concept of Cobweb Theorem) — इस सिद्धान्त का प्रयोग विशेष रूप से कृषि वस्तुओं के मूल्यों तथा उत्पादन में होने वाले उच्चावचनों की व्याख्या के लिए किया गया है।

कृषि उत्पादन की एक विशेषता यह है कि उत्पादन का निर्णय लेने में (अर्थात् बीजों को बोने या पौधे को लगाने में) तथा वास्तविक उत्पादन या वस्तु की पूर्ति के बजार में उपलब्ध होने के बीच कुछ समय अन्तर (Time Interval) रहता है। दूसरे शब्दों में, एक कृषि वस्तु एक समय अवधि में बोई जाती है और फसल दूसरी समय अवधि में तैयार होती है व काटी जाती है। इस प्रकार उत्पादन के निर्माण में तथा वस्तु की पूर्ति के बाजार में प्राप्त होने के बीच एक समय विलम्ब (Time Lag) रहता है। यहाँ पर समय विलम्ब से अभिप्राय (Implications) इस प्रकार है कि यदि किसी एक साल या एक समयावधि में फसल के समय पर कीमत औसत लागत से अधिक है तो कृषक यह आशा कर सकते हैं कि दूसरे साल या दूसरी समय अवधि में लगभग वही कीमत रहेगी। फलत: दूसरे वर्ष फसल इतनी अधिक हो जाती है कि जब वह बाजार में आती है तो कीमत औसत लागत से कम हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप अगली समय अवधि में उत्पादन इतना कम हो जाता हैं कि कीमत बढ़ती है और बढ़कर औसत लागत से अधिक हो जाती है। इस प्रकार का चक्र चलता रहता है। इस सिद्धान्त या मॉडल को मकड़ी जाल सिद्धान्त (Cobweb Theorem) या मकड़ी जाल मॉडल (Cobweb Model) कहा जाता है। यह सिद्धान्त कृषि वस्तुओं या ऐसी वस्तुओं जिनका उत्पादन विस्तार (Continuous) नहीं होता है बल्कि जिनमें समय विलम्ब (Time Lag) रहता है, की कीमतों (तथा उत्पादन में) चक्रीय चलन (Exclical Movement) की व्याख्या करता है।

अत: “मकड़ी जाल सिद्धान्त सन्तुलन के स्थायित्व के एक ऐसे विश्लेषण की स्थिति का नाम है जिसमें कि कीमत में परिवर्तनों के उत्तर में पूर्ति का समायोजन विलम्ब (या समय विलम्ब) के साथ होता है।''

मकड़ी जाल सिद्धान्त के उद्देश्य (Objectives of Cobweb Theory) - मकड़ी जाल सिद्धान्त के निम्नलिखित दो उद्देश्य हैं

1. यह माँग, पूर्ति तथा कीमत के प्रावैगिक परिवर्तनों के सरलतम मॉडल को बताता है।

2. स्थायित्व दशाओं (Stability Conditions) के प्रावैगिक विश्लेषण के परिणामस्वरूप मकड़ी जाल सिद्धान्त कृषि वस्तुओं की कीमतों व उत्पादन में चक्रीय उतार-चढ़ाव की एक सरल व्याख्या प्रस्तुत करता है।

मकड़ी जाल सिद्धान्त की मान्यताएँ (Assumptions) — मकड़ी जाल सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

1. बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति है।

2. मूल्य का नियमन चालू अवधि में उपलब्ध पूर्ति के द्वारा होता है।

3. आगामी समयावधि में उत्पादन का नियमन केवल चालू अवधि में प्रचलित मूल्य के द्वारा होता है।

4. माँग तथा पूर्ति रेखाएँ अपरिवर्तित रहती हैं। वे अपनी स्थितियों की नहीं बदलतीं। सुविधा के लिए यह

भी मान लिया गया है कि वे सीधी रेखाएँ होती हैं।

5. उत्पादन यानी पूर्ति एक निश्चित समय अन्तर के बाद प्राप्त होती है।

6. पूर्ति को कीमत व माँग में परिवर्तनों के साथ समायोजन में कुछ समय लगता है।

मकड़ी जाल मॉडल के तीन प्रमापित रूप (THREE IMPORTANT FORMS OF COBWEB MODEL)

बाजार में स्थायित्व की विशेषताओं को मकड़ी जाल सिद्धान्त के तीन रूपों में व्यक्त किया जाता है :

1. सतत् मकड़ी जाला (Continuous Cobweb),

2. अभिबिन्दुग मकड़ी जाला (Convergent Cobweb) एवं

3. अपबिन्दुग मकड़ी जाला (Divergent Cobweb)|

1. सतत मकड़ी जाला (Continuous Cobweb) मकड़ी जाल के इस मॉडल में सन्तुलन की स्थिति के चारों तरफ कीमत का ऊँचे से नीचे को निरन्तर उतार-चढ़ाव होता रहता है तथा उत्पादन का नीचे से ऊँचे की ओर निरन्तर उतार-चढ़ाव होता रहता है परन्तु सन्तुलन की स्थिति कभी प्राप्त नहीं होती हैं।

इस प्रकार की स्थिति तब दृष्टिगोचर होती है जबकि पूर्ति रेखा का ढाल माँग रेखा के ढाल के बराबर होता है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। इसका अर्थ है कि कीमतों में परिवर्तनों के प्रति क्रेताओं और उत्पादकों की प्रतिक्रियाएँ एक समान होती हैं। ऐसे मॉडल को चित्र की सहायता से समझाया गया है।

चित्र के भाग (A) में

(i) माँग और पूर्ति रेखाएँ सामान लोच की है।

(ii) प्रारम्भिक स्थिति में दी हुई माँग और पूर्ति पर निर्धारित कीमत P1 है तथा उससे सम्बन्धित पूर्ति Q1 है।

(iii) दूसरी समय अवधि में ऊँचे मूल्य P1 के कारण उत्पादन में वृद्धि होगी और वह बढ़कर Q2 हो जाता है।

(iv) अब पूर्ति की माँग के ऊपर अतिरेक (पूर्ति Q2 तथा माँग Q1) कीमत में कमी लायेगी और वह कम होकर P2 हो जायेगी। निम्नतर कीमत P2 तीसरी अवधि में उत्पादन में कमी लायेगी और उत्पादन कम होकर Q1 हो जायेगा। इस अवधि में चूँकि पूर्ति माँग से कम है फलत: कीमत बढ़कर P1 हो जायेगी।

(v) P1 कीमत चौथी अवधि में पूर्ति को पुन: बढ़ाकर Q2 कर देगी और यही कीमत तथा पूर्ति का क्रम चलता रहेगा। फलत: कोई सन्तुलन की स्थिति स्थापित नहीं हो सकेगी।

इस प्रकार से कीमत सन्तुलन कीमत E के चारों तरफ चक्कर काटती रहती है जैसा कि चित्र में मोटी रेखाओं तथा तीरों द्वारा दर्शाया गया है।

चित्र के भाग B में कीमत तथा पूर्ति की मात्रा में उच्चावचन को पृथक् से P तथा Q वक्र से प्रदर्शित किया गया है।

2. अभिबिन्दुग मकड़ी जाला (Convergent Cobweb) मकड़ी जाल के इस मॉडल में कीमत के सन्तुलन की स्थिति के चारों तरफ उतार-चढ़ाव (Fluctuation) होते हैं परन्तु उतार-चढ़ाव कमजोर तथा और कमजोर होते जाते हैं अथवा वे परिमन्दित (Demped) हो जाते हैं तथा अन्त में वे बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं और सन्तुलन की स्थिति प्राप्त हो जाती है।

अभिबिन्दुग मकड़ी जाल (Convergent Cobweb) तब उत्पन्न होता है जबकि पूर्ति रेखा का ढाल अधिक होता है माँग रेखा के ढाल से; (ऐसी स्थिति को नीचे के  चित्र में दिखाया गया है)। इस बात का अर्थ है कि कीमत में परिवर्तनों के प्रति उत्पादकों की प्रतिक्रिया (Response) सापेक्षिक रूप से कम होती है उपभोक्ताओं की तुलना में। उत्पादकों की कम प्रतिक्रिया (Lesser Response) अन्त में सन्तुलन की स्थिति में पहुंचने में सहयोग देती है बशर्ते कि माँग व पूर्ति रेखाओं में कोई परिवर्तन न हो।

अभिबिन्दुग मकड़ी जाल को चित्र द्वारा दर्शाया गया है।

चित्र में (i) प्रथम अवधि में कीमत P1 तथा दूसरी अवधि में पूर्ति Q2 है।

(ii) माँग के ऊपर पूर्ति का अतिरेक दूसरी अवधि में कीमत को कम करके P2 पर ला देगी।

(iii) कीमत में कमी तीसरी अवधि में पूर्ति की मात्रा में कमी लायेगी। फलतः तीसरी अवधि में पूर्ति की मात्रा Q1 हो जायेगी। पूर्ति की यह कमी कीमत को पुन: P3 तक बढ़ा देगी। तीसरी अवधि की यह कीमत अर्थात् P3 चौथी अवधि में पूर्ति की मात्रा को बढ़ायेगी और वह बढ़कर Q3 कर देगी। इस प्रकार समायोजन की प्रक्रिया चलती रहेगी और कीमत अन्त में सन्तुलन कीमत E की ओर अभिकरण (Converge) कर जाती है अर्थात् सन्तुलन कीमत पर पहुँच जाती है परन्तु उल्लेखनीय है कि सन्तुलन की स्थिति तक पहुँचने के लिए समायोजन की प्रक्रिया कई समय अवधियाँ लेती है। यह समायोजन की प्रक्रिया एक प्रावैगिक रूप से स्थायी स्थिति को व्यक्त करती है। समायोजन प्रक्रिया का रूप मकड़ी जाल की तरह बन जाता है जिसका मुँह केन्द्र या सन्तुलन की ओर होता है जैसा कि चित्र  के भाग A में मोटी रेखाओं व तीरों द्वारा दर्शाया गया है।

चित्र के भाग (B) में P तथा Q वक्रों के माध्यम से उनमें उच्चावचनों को प्रदर्शित किया गया है। इस चित्र से स्पष्ट है कि समय अवधियों के साथ कीमत के उतार-चढ़ाव घटते जाते हैं और वे सन्तुलन के अधिक निकट आते जाते हैं।

3. अपबिन्दुग मकड़ी जाल (Divergent Cobweb) — मकड़ी जाल के इस मॉडल में सन्तुलन की स्थिति के चारों ओर कीमत व उत्पादन के उतार-चढ़ाव विस्तृत होते जाते हैं और सन्तुलन की स्थिति से दूर होते जाते हैं। दूसरे शब्दों में, कीमत (व उत्पादन) के उतार-चढ़ाव सन्तुलन की स्थिति से दूर होते हुए विस्फोटक (Explosive) होते जाते हैं।

अपबिन्दुग मकड़ी जाल (Divergent Cobweb) तब उत्पन्न होता है जबकि माँग रेखा का ढाल अधिक होता है पूर्ति रेखा के ढाल से (ऐसी स्थिति को चित्र में दिखाया गया है)। इस बात का अर्थ है कि कीमत में परिवर्तनों के प्रति उत्पादकों की प्रतिक्रिया अधिक होती है जो कि उच्चावचनों (Fluctuations) को अधिक विस्तृत कर देती है। उपभोक्ता या क्रेता एक दी हुई कीमत पर, वस्तु की उस समस्त मात्रा को लेने को तैयार रहते हैं जिसकी कि बाजार में पूर्ति की जाती है परन्तु वस्तु की कितनी मात्रा की पूर्ति की जाये, इस बात का निर्णय उत्पादक करते हैं।

चित्र के भाग A में (i) यदि प्रारम्भिक स्थिति में कीमत P1 है तो दूसरी स्थिति में पूर्ति Q1 होगी। माँग के ऊपर पूर्ति का यह अतिरेक दूसरी अवधि में कीमत में कमी लायेगी और कीमत घटकर P2 हो जायेगी।

(ii) तीसरी अवधि में कीमत के घटने के कारण उत्पादन भी घटकर Q2 हो जायेगा।

(iii) चौथी अवधि में कीमत पुनः बढ़कर P3 हो जायेगी और इसके परिणामस्वरूप उत्पादन बढ़कर Q3 हो जायेगा।

उच्चावचन का यह क्रम चलता रहेगा। कीमत, सन्तुलन कीमत से दूर और दूर होती जायेगी। यह समायोजन की प्रक्रिया अपबिन्दुग मकड़ी जाल का रूप धारण कर लेती है जैसा कि चित्र नीचे के भाग A में मोटी रेखाओं व तीरो द्वारा दर्शाया गया है।

चित्र के भाग B में सन्तुलन कीमत के चारों तरफ कीमत के उतार-चढ़ाव को अलग से दर्शाया गया है। चित्र से स्पष्ट है कि समय अवधियों के साथ कीमत के उतार-चढ़ाव बढ़ते जाते हैं तथा वे सन्तुलन की स्थिति से दूर व और दूर होते जाते

मकड़ी जाल मॉडल की आलोचनाएँ (Criticisms of Cobweb Model) — मकड़ी जाल मॉडल की प्रमुख आलोचनाएँ उसकी मान्यताओं को लेकर की जाती हैं। इस सिद्धान्त की मान्यताएँ हैं कि (1) पूर्ति योजनाएँ सदैव पूरी हो जाती हैं अर्थात् नियोजित पूर्ति सदैव वास्तविक पूर्ति के बराबर होती है। (2) एक समय अवधि में नियोजित पूर्ति पिछली समय अवधि की कीमत पर निर्भर करती है और बाजार कीमत सदैव वर्तमान पूर्ति को वर्तमान माँग के बराबर कर देती है।

वास्तविक जीवन में उपर्युक्त मान्यताएँ खरी नहीं उतरी हैं। जैसे :

(i) वास्तविक जगत में प्रायः नियोजित पूर्ति के बराबर ही वास्तविक पूर्ति नहीं होती है। उदाहरण के लिए, खराब मौसम की दशाओं के कारण वास्तविक पूर्ति नियोजित पूर्ति से कम हो सकती है।

(ii) यह आवश्यक नहीं है कि बाजार की कीमत ऐसी हो जोकि सदैव वर्तमान पूर्ति को वर्तमान माँग के बराबर कर दे। विभिन्न कारणों से दोनों में अन्तर हो सकता है।

(iii) मकड़ी जाल सिद्धान्त इस बात की अवहेलना करता है कि उत्पादक अपने अनुभव से भी बहुत कुछ सीखते हैं। यदि कृषक या उत्पादक पिछले अनुभव से सीखते हैं तो नियोजित पूर्ति केवल पिछली कीमत पर ही निर्भर नहीं करेगी बल्कि वह इस बात पर भी निर्भर करेगी कि उत्पादक भविष्य में क्या आशा रखते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion) - उपर्युक्त आलोचनों के होते हुए भी इस सिद्धान्त का महत्व है जैसे :

(i) यह बाजार के प्रावैगिक स्थायित्व या अस्थायित्व के समझने में एक अन्तर्दृष्टि (Insight) प्रदान करता है।

(ii) मकड़ी जाल सिद्धान्त इस बात को बिल्कुल स्पष्ट करता है कि बाजार के स्थायित्व का विश्लेषण, बिना प्रावैगिक विश्लेषण (Dynamic Analysis) के नहीं किया जा सकता अर्थात् बाजार के स्थायित्व को जानने के लिए यह जरूरी है कि कीमत व उत्पादन में ‘समायोजन की प्रक्रिया' अथवा 'समय-रास्ते' (Time Path) की जानकारी प्राप्त की जाये।

(iii) मकड़ी जाल सिद्धान्त बताता है कि कुछ स्थितियों में (अर्थात् जब पूर्ति रेखा का ढाल अधिक होता है माँग रेखा के ढाल से), बाजार में सन्तुलन की स्थिति वास्तव में प्राप्त हो जाती है, परन्तु ‘समायोजन की प्रक्रिया' को कई समयावधियाँ लग जाती हैं सन्तुलन तक पहुँचने में।

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