कार्ल मार्क्स का आर्थिक विकास सिद्धांत(Karl Marx Theory of Economic Development)

कार्ल मार्क्स का आर्थिक विकास सिद्धांत(Karl Marx Theory of Economic Development)

कार्ल मार्क्स सिद्धांत की प्रस्तावना (Introduction to Karl Marx Theory);

कार्ल मार्क्स का जन्म 1818 में ट्रायर में हुआ | उन्होंने बोन विश्वविद्यालय तथा बर्लिन विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया तथा जेना से डाकरेक्ट की उपाधि प्राप्त की | 1843 में वह पेरिस चले गये जहाँ उनकी मित्रता फेड्रिक एनजल्स से हुई जिसने उन्हें राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन की प्रेरणा दी 1848 में उनका एंजल्स के साथ मिलकर लिखा ग्रंथ The communist Manifesto प्रकाशित हुआ | 1859 में उनका ग्रंथ The Critique of Political Economy व 1845 में Das Kapital प्रकाशित हुआ । मार्क्स की मृत्यु 1883 में हुई | Das Kapital के अन्य अध्याय उनकी मृत्यु के उपरांत 1885 व 1894 में छपे ।

मार्क्सवादी सिद्धान्त(The Marxian Theory)

कार्ल मार्क्स के दर्शन को, जिस पर उसका आर्थिक विकास का सिद्धान्त आधारित है, निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है :

(1) इतिहास की भौतिकतावादी व्याख्या (Materialistic Inter-pretation of History) — मार्क्स की धारणा थी कि समाज की दशाओं में प्राचीन युग से जो भी परिवर्तन हुए है अथवा हो रहे हैं यह आर्थिक कारणों से ही हो रहे है। उनके अनुसार, "भौतिक जीवन में उत्पादन की प्रणाली जीवन के सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक कृत्यों को निर्धारित करती है।" पुनः सम्पूर्ण इतिहास के विकास की आधारशिला आर्थिक कारणों से उत्पन्न किया (Thesis) तथा प्रतिक्रिया (Anti- Thesis) का परिणाम है। अन्य शब्दों में, ऐतिहासिक घटनाएं समाज के विभिन्न वर्गों के बीच लगातार आर्थिक संघर्ष का परिणाम हैं और इस संघर्ष का मुख्य कारण उत्पादन की विधि तथा उत्पादन के सम्बन्धों' के बीच विरोध का पाया जाना है। मार्क्स के शब्दों में, "सामाजिक परिवर्तनों का कारण उत्पादन एवं विनिमय की रीतियों में निहित है।" उत्पादन समाज के वर्ग-ढांचे से सम्बद्ध होता है और यह ढांचा धनी (पूंजीपतियों) तथा निर्धन (श्रमिकों) वर्गों से बना होता है। चूंकि उत्पादन की विधियों में परिवर्तन होता रहता है अतः सामाजिक विकास की एक ऐसी अवस्था आती है जब उत्पादन की शक्तियां समाज के वर्ग ढांचे से टकराती हैं। ऐसी स्थिति में 'सम्पत्ति सम्बन्ध' उत्पादन की शक्तियों के लिए 'बेड़ियों का कार्य करते हैं जिसका अन्त 'सामाजिक क्रान्ति के रूप में होता है। धनी और निर्धनों के बीच का वर्ग-संघर्ष सामाजिक प्रणाली को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है और इस प्रकार प्रसव पीडा' की भांति उत्पीड़न के पश्चात नए सम्बन्ध स्थापित होने लगते हैं। मार्स के अनुसार, “उत्पादन के नए तथा उच्चतर सम्बन्ध तब तक प्रकट नहीं होते जब तक उनके अस्तित्व के लिए आवश्यक भौतिक दशाएं पुराने समाज के गर्भ में परिपक्व नहीं हो जाती।"

(2) अतिरेक मूल्य का सिद्धान्त (Theory of Surplus Value)

मार्क्स द्वारा प्रस्तुत अतिरेक मूल्य का सिद्धान्त उसके विकास विश्लेषण का आधार है और वर्ग संघर्ष इसी अतिरेक मूल्य के संचय का परिणाम है। उनके अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में सम्पूर्ण समाज दो वों में विभाजित होता है पूंजीपति, जिनके पास समस्त साधन होते हैं तथा श्रमिक, जो अपना श्रम बेचते हैं तथा साधन रहित होते हैं। पूजीपति अपने पास उपलब्ध प्राकृतिक साधनों तथा पूंजीगत साधनों से उत्पादन बढ़ाते हैं जो श्रमिकों के पारिश्रमिक से कहीं अधिक होता है अर्थात् पूंजीपति श्रमिकों को जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं तथा कच्चे माल और यन्त्रों के मूल्य की अपेक्षा कहीं अधिक उत्पादन करते है। अन्य शब्दों में जब पूंजीपति श्रमिक की सहायता से किसी वस्तु का उत्पादन प्रारम्भ करता है तब श्रमिक कुछ ही घण्टे काम करके अपने को जीवित रखने योग्य अर्थात् अपनी मजदूरी के बराबर उत्पादन कर लेता है, परन्तु श्रमिक काम करना बन्द नहीं करता अपितु कार्य करता रहता है जिसके बदले में उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। श्रमिक द्वारा उत्पादित मूल्य और श्रमिक को दी गई मजदूरी के बीच का अन्तर पूंजीपति अपने पास रख लेता है। मार्क्स ने इसे ही ‘अतिरेक मूल्य' की संज्ञा दी है। जो श्रमिक वर्ग का शोषण है। यह अतिरेक मूल्य पूंजीपतियों द्वारा शुद्ध लाभ, व्यान तथा लगान के रूप में प्राप्त कर लिया जाता है। इस अतिरिक्त श्रम को जो मजदूर करता है, परन्तु जिसके बदले उसे कुछ भुगतान नहीं किया जाता, मार्क्स के अनुसार वही 'अतिरेक

(3) पूंजी संचय - मार्क्स का विचार है कि अतिरेक श्रम द्वारा ही पूंजी संचय होता है। यह अतिरेक श्रम पूंजीपतियों के लाभों में वृद्धि करता है। पूंजीपति का प्रमुख उद्देश्य इस अतिरेक मूल्य को अधिकतम करना होता है। इसके लिए वह निम्नलिखित उपायों को प्रयोग में लाता

(i) श्रमिकों द्वारा किए जाने वाले कार्य के घण्टों में वृद्धि करके।

(ii) श्रमिकों को इस योग्य बना करके कि वह कम समय में ही अनिवार्य आवश्यकताओं (जीवन निर्वाह की वस्तुओं) को पूरा कर ले। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह नवीन मशीनों का प्रयोग करता है‌अथवा स्त्रियों एवं बच्चों को कार्य पर रखता है। प्रौद्योगिकीय परिवर्तन अथवा मशीनरी का प्रयोग कुल उत्पादन बढ़ाने तथा उत्पादन लागत घटाने में सहायक होता है। मशीनरी के प्रयोग से औरतें और बच्चे भी काम पर लगाए जाते हैं जिससे पूंजीपति के अतिरेक मूल्य में वृद्धि हो जाती है।

(iii) श्रमिकों की मजदूरी को घटाकर।

मार्क्स के अनुसार पूंजीपति प्रायः श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के तरीके का चुनाव करता है, क्योंकि कार्यकारी घण्टों के बढ़ाने और मजदूरी घटाने की अपनी सीमाएं हैं। श्रम की उत्पादकता में सुधार के लिए पूंजीपति अतिरेक मूल्य की बचत करते हैं और पूंजी का बड़ा स्टॉक प्राप्त करने के लिए उसे पुनः निवेश करते हैं और इस तरह पूंजी संचय करते हैं।

पूंजी की मात्रा भी लाभ का निर्धारण करती है। मार्क्स का कथन है कि, "पूंजी ही वह मृत श्रम है, जो एक मांसभक्षी जन्तु की भांति जीवित श्रम का खून चूसकर ही जीवित रहती है। वह जितना अधिक श्रम को चूसती है, उतना ही अधिक जीवित रहती है।" लाभ की उत्पत्ति को समझाने तथा मजदूरी एवं लाभ के सम्बन्ध का विश्लेषण करने के लिए मार्क्स ने पूंजी को स्थिर पूंजी तथा परिवर्तनशील पूंजी में विभक्त किया है।

मार्क्स के अनुसार,

वस्तु का कुल मूल्य = स्थिर पूंजी (c) + परिवर्तनशील पूंजी (v) + अतिरेक मूल्य (s)

= (c+v)+ (s)

इस तरह मार्क्स ने पूंजी को स्थिर पूंजी तथा परिवर्तनशील पूंजी में विभक्त किया है। स्थिर पूंजी (c) वह है जो श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने में प्रत्यक्ष रूप से सहायक है यथा—मशीन, उपकरण, यन्त्र, आदि। मजदूरी अथवा श्रम-शक्ति को खरीदने में लगी पूंजी को मार्क्स ने परिवर्तनशील पूंजी (v) कहा है। अतिरेक मूल्य को (s) द्वारा प्रदर्शित किया गया है।

पुनः मार्क्स के अनुसार - (i) स्थिर पूंजी का परिवर्तनशील पूंजी से अनुपात (c/v) = पूंजी की संगठित संरचना (organic composition of capital), (ii) अतिरेक मूल्य का परिवर्तनशील पूंजी से अथवा लाभों का मजूदरी से अनुपात (s/v) = अतिरेक मूल्य की दर अथवा शोषण की कोटि (degree of exploitation)

(4) लाभ की दर की घटती प्रवृत्ति — मार्क्स के अनुसार लाभ की दर एकमात्र अतिरेक मूल्य की दर पर ही निर्भर नहीं करती। यदि पूंजी की संगठित संरचना में परिवर्तन हो जाए तो लाभ की दर में परिवर्तन हो सकता है, भले ही अतिरेक मूल्य स्थिर रहे। लाभ की दर और पूंजी की संगठित संरचना में परस्पर विपरीत सम्बन्ध होता है। c/v के बढ़ने पर लाभ की दर (r) कम हो जाती है। तकनीकी प्रगति की प्रवृत्ति लाभ की दर को घटाने की होती है। जब पूंजीपति श्रमिकों के स्थान पर मशीनों का स्थानापन्न करता है तो अतिरेक मूल्य लगातार घटता जाता है। मार्क्स का विश्वास था कि प्रौद्योगिकीय प्रगति से पूंजी की संगठित संरचना (c/v) बढ़ने लगती है। चूंकि लाभ की दर का पूंजी की संगठित संरचना के साथ विपरीत सम्बन्ध होता है अतः पूंजी संचय के साथ लाभों की दर घटने लगती है। मार्क्स ने लाभों की घटती दर की इस प्रवृत्ति की व्याख्या के लिए निम्नलिखित सूत्र प्रस्तुत किया :

`r=\frac s{c+v}=\frac{\frac sv}{\frac cv+1}`

उपरोक्त सूत्र से स्पष्ट है कि लाभ की दर (r) का पूंजी की संगठित संरचना (c/v) के साथ विपरीत सम्बन्ध होता है जबकि उसका अतिरेक मूल्य की दर अथवा शोषण की दर (s/v) के साथ सीधा सम्बन्ध होता है। स्पष्टतया लाभ की दर (r) अतिरेक मूल्य की दर (s/v) के साथ बढ़ती है और पूंजी की संगठित संरचना (c/v) के साथ गिरती है। इस तरह, जैसे-जैसे तकनीकी प्रगति सजीव श्रम के स्थान पर एकत्रित श्रम को स्थानापन्न करती जाएगी, वैसे-वैसे अतिरेक मूल्य की दी हुई दर द्वारा प्रदान की गई लाभों की दर घटती जाएगी, अर्थात् यदि सजीव श्रम की शोषण दर में तद्नुरूप वृद्धि नहीं होती तो लाभों की दर घटती जाएगी। मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में लाभ का गिरना उसके पतन का द्योतक है।

(5) पूंजी संचय का परिणाम - पूंजी संचय के फलस्वरूप भारी उद्योगों में पूंजी का केन्द्रीकरण होने लगता है। पूंजीपतियों के बीच प्रतियोगिता उन्हें अपनी वस्तुओं का मूल्य घटाने पर विवश करती है। वे पूंजीपति जो उन्नत तकनीक का प्रयोग नहीं करते और श्रम बचतकारी मशीनों का प्रयोग नहीं करते, बाहर धकेल दिए जाते हैं और बड़े पूंजीपति उनके उद्यमों को हथिया लेते हैं। पूंजी संचय तथा संकेन्द्रण स्थिर पूंजी में वृद्धि और परिवर्तनशील पूंजी में कमी लाते हैं। इसके फलस्वरूप श्रम की मांग में सापेक्ष कमी आ जाती है। मशीनों द्वारा श्रम के प्रतिस्थापन से 'औद्योगिक रक्षित सेना' (Industrial Reserve Army or Surplus Man Power) उत्पन्न हो जाती है जो पूंजीवाद के विकास के साथ-साथ बढ़ती जाती है। औद्योगिक रक्षित सेना जितनी अधिक बड़ी होती है, रोजगार पर लगे श्रमिकों की स्थिति उतनी ही अधिक खराब होती है। पूंजीपति असन्तुष्ट श्रमिकों को हटाकर उनके स्थान पर रक्षित सेना में,श्रमिकों को लगा सकता है। पूंजीपति मजदूरी को घटाकर भुखमरी के स्तर तक भी ला सकते हैं और अधिकाधिक अतिरेक मूल्य का निवेश कर सकते हैं। यह पूंजीवाद के अन्तर्गत “जनसाधारण की बढ़ती विपत्ति का नियम' है।

(6) पूंजीवादी संकट - मार्क्स का कथन है कि पूंजीवादी प्रणाली की सबसे बड़ी कमी यह भी है कि वस्तुओं के उत्पादन पर तो ध्यान केन्द्रित रखा जाता है, परन्तु उपभोग पर ध्यान नहीं दिया जाता। इसका कारण यह है कि पूंजीपति का लक्ष्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना होता है चाहे वह उसे उत्पादन में वृद्धि के जरिए प्राप्त करे अथवा श्रमिकों की मजदूरी में कटौती करके। उत्पादन में वृद्धि के लिए वह नई मशीनों का प्रयोग करता है जिससे छोटे उद्योग वाले श्रमिकों का कार्य ठप हो जाने से वे बेरोजगार तो हो ही जाते हैं साथ ही उन्नत मशीनों के कारण भी कारखाने में अपेक्षाकृत कम श्रमिकों की आवश्यकता होती है। श्रमिकों को कम मजदूरी मिलना और उनमें बेरोजगारी होना, आदि। कारणों का परिणाम यह होता है कि उनकी क्रय शक्ति कम हो जाती है और उनका कुल उपभोग घट जाता है। चूंकि पूंजीपति धन-संचय की और अधिक ध्यान देते हैं और उनकी उपभोग प्रवृत्ति कम होती है अतः कुल मिलाकर परिणाम यह होता है कुल राष्ट्रीय उपभोग से कम रहने पर आर्थिक संकट उत्पन्न होने लगते हैं।

मार्क्स के अनुसार,समस्त आर्थिक संकट का कारण जन-साधारण की गरीबी तथा सीमित क्रय शक्ति है। वस्तुओं के अति उत्पादन, बाजार खोजने में अत्यधिक कठिनाइयों, कीमतों में कमी, घटते लाभों और उत्पादन में की जाने वाली व्यापक कटौती के रूप में आर्थिक संकट उत्पन्न होते हैं। संकट के समय में बेरोजगारी बहुत बढ़ जाती है, श्रमिकों की मजदूरी और घटा दी जाती है, ऋण की सुविधाएं समाप्त हो जाती हैं और छोटे पूंजीपति प्रतियोगिता के कारण तबाह हो जाते हैं। निर्धनता और व्यापक हो जाती है। मार्क्स के शब्दों में, "पूंजीपति एक बड़ी चमगादड़ है जो दूसरों के खून पर जिन्दा रहता है और जितना अधिक खून चूसता है, उतना ही और अधिक खून चूसने के लिए उतावला होता जाता है।'' मार्क्स का कथन है कि यह स्थिति पूंजीवादी शोषण व पतन की चरम सीमा है। यह संकट पूंजीवादी व्यवस्था को नष्ट करने में सहयोग प्रदान करता है। एक तरफ भूख, शोषण और अत्याचार से पीड़ित श्रमिक वर्ग प्रतिकार की भावना से आगे बढ़ता है और दूसरी ओर छोटे-छोटे पूंजीपति उत्पीड़न के फलस्वरूप श्रमिक वर्ग के साथ मिलकर एकाधिकारी पूंजीपतियों को समूल नष्ट करने के लिए उतावले हो उठते हैं। इन दोनों की शक्तियां क्रान्ति को जन्म देती हैं, जो पूंजीवाद को उखाड़ फेंकती है और इस प्रकार शोषणकर्ताओं का अन्त हो जाता है। मार्क्स का कथन है कि पूंजीवाद अपनी कब्र स्वयं खोदता है।

(7) उत्पादन के साधन — मार्क्स उत्पत्ति के साधनों में श्रम, पूंजी, साहस व संगठन को सम्मिलित करते हैं, परन्तु उनके अनुसार श्रम उत्पत्ति का एक सर्वोपरि व महत्वपूर्ण साधन है और सम्पूर्ण आर्थिक उत्पादन का आधार है।

(8) निवेश — मार्क्स का मत था कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में निवेश लाभ से प्रेरित होता है। लाभ की अधिक सम्भावना होने पर पूंजीपति अधिक मात्रा में निवेश को तत्पर होता है। निवेश वृद्धि से पूंजीपति को दो तरफ का लाभ प्राप्त होता है। निवेश में वृद्धि से एक-तरफ लाभ की मात्रा में वृद्धि होती है तो दूसरी तरफ अतिरेक मूल्य में वृद्धि होती है।

मार्क्स की विकास अवस्थाएं

मार्क्स ने आर्थिक विकास की प्रमुख निम्न अवस्थाएं बताई हैं :

(1) प्राथमिक साम्यवाद-असभ्य स्थिति में मनुष्य जो पाता था उसी पर निर्वाह करता था, समस्त उत्पादन एवं वितरण सामूहिक ढंग से किया जाता था।

(2) दास प्रथा-भूमि कुछ व्यक्तियों के पास रहती है तथा कृषि का उत्पादन दासों द्वारा किया जाता है व श्रमिक अथवा दास मालिक की सम्पत्ति माना जाता है।

(3) सामन्तवादी समाज- इसमें श्रमिक वेतन के बदले रखे जाते थे तथा भूमि के मालिक जमींदारों के रूप में कार्य करते थे। इस समय कुटीर व लघु उद्योगों का विकास हो गया रहता है।

(4) पूंजीवादी व्यवस्था- इसमें उत्पत्ति के साधनों पर उनका अधिकार होता था जो मेहनत नहीं करते थे। श्रमिकों के रोजगार के स्वामी पूजीपति होते है तथा थमिक को मजदूरी देने के उपरान्त शेष लाभ पूंजीपति द्वारा प्राप्त किए जाते हैं।

(5) साम्राज्यवाद- पूंजीवाद का रूप अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचने के पश्चात् साम्राज्यवाद का रूप स्थापित हो जाता है। पूंजीपति वर्ग अपनी सम्पत्ति गरीब राष्ट्रों में लगाकर वहां के कच्चे माल आदि का शोषण करते है तथा श्रम का शोषण करके उसे जीवन निर्वाह के बराबर ही मजदूरी देते हैं।

(6) समाजवाद- देश के समस्त उत्पत्ति के साधन राज्य के अधिकार में आ जाते हैं। राज्य द्वारा प्रशासन व सुरक्षा पर व्यय करने के पश्चात् शेष राशि से पूंजी का निर्माण किया जाता है। ऐसी दशा में देश का आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक विकास होता है एवं वर्ग-संघर्ष व शोषण आदि समाप्त हो जाएगा।

(7) साम्यवाद- इसमें व्यक्तियों को आवश्यकतानुसार वेतन मिलता है जिससे सभी व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके।

कार्ल मार्क्स के विकास मॉडल का बेंजामिन हिगिन्स (Higgins)‌द्वारा प्रस्तुत समीकरणों की सहायता से स्पष्टीकरण

प्रो. हिगिन्स ने अपनी पुस्तक में कार्ल मार्क्स के विकास मॉडल का विवेचन कुछ समीकरणों की सहायता से किया है। यह उल्लेख‌संक्षिप्त तथा प्रभावशाली है अतः उसका विवरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

साध्य 1: उत्पादन फलन :-  कार्ल मार्क्स के उत्पादन फलन के सम्बन्ध में विचार काफी कुछ प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों से मिलते-जुलते ही थे। अतः उत्पादन फलन सम्बन्धी उनके विचारों को निम्नलिखित समीकरणों की सहायता से प्रस्तुत किया जा सकता है

O = (L, K,Q.T) ………...(1)

उपरोक्त समीकरण में O = कुल उत्पादन, L = श्रम, K = पूंजी, Q = भूमि तथा T = तकनीकी प्रगति

साध्य 2: यान्त्रिक प्रगति विनियोजन की मात्रा पर निर्भर

करती है :-  मार्क्स के अनुसार यान्त्रिक प्रगति विनियोजन की मात्रा पर निर्भर करती है अतः इसे निम्न समीकरण की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है:

T=T (I) ----------(2)

T= यान्त्रिक प्रगति; I = विनियोजन की मात्रा

साध्य 3: विनियोजन लाभ की दर पर निर्भर करता है :-  कार्ल मार्क्स का विनियोजन सम्बन्धी सिद्धान्त भी प्रतिक्षित अर्थशास्त्रियों से मिलता-जुलता ही था, किन्तु मार्क्स के विनियोजन सिद्धान्त को हम प्रतिष्ठित सिद्धान के ऊपर एक सुधार के मन स्वीकार कर सकते है। प्रतिक्षित अर्थशास्त्री लाभ को आय का ही भाग मानते थे जो कि पूंजीपतियों को प्राप्त होता है और इसी से बचती तथा विनियोजन के लिए कोष प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत कार्ल का यह विश्वास था कि विनियोजन की मात्रा केवल पूंजीपतियों के आय अथवा लाभ की कम या अधिक मात्रा पर निर्भर नहीं करती बन्चि यह पूंजी पर प्राप्त प्रतिफल की दर पर निर्भर करती है। अतः इस विषय में निम्न समीकरण प्रस्तुत किया जा सकता है

I = I(R') ----------(3)

I = विनियोजन,

R' = पूंजी से प्राप्त होने वाले प्रतिफल की दर

साध्य 4: मजदूरी बिल तथा पूंजीगत लागत पर लाभों का अनुपात लाभों की दर होता है।

इस साध्य के द्वारा नाम सर्वसमता अथवा परिभाषा प्रस्तुत करते हैं।

`R^'=\frac{O-W}{O+Q}=\frac R{W+Q}` .....(4)

R' = पूंजी से प्राप्त होने वाले प्रतिफल की दर; O = उत्पादन W = मजदूरी बिल; R = लाभ की मात्रा; Q’ = विविध प्रकार की पूंजीगत वस्तुएं तथा कारखाने इत्यादि जो चालू उत्पादन में प्रयोग होते हैं।

यहां विशेष रूप से उल्लेखनीय एक बात यह है कि मार्क्स ने यान्त्रिक प्रगति को श्रम बचत तथा पूंजी गहन उपायों के रूप में ही स्वीकार किया था। नवीन प्रविधियों का लाभ उसी समय हो पाता है जब श्रम बचत उपायों का प्रयोग किया जाता है।

साध्य 5: मजदूरियां विनियोजन की मात्रा पर निर्भर करती हैं :-  कार्ल मार्क्स का भी यही विश्वास था कि मजदूरी दरें विनियोजन की मात्रा पर निर्भर करती है। अतः इसे निम्न समीकरण की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है:

W = W (I) --------(5)

साध्य 6: रोजगार विनियोजन की मात्रा पर निर्भर करता है :-  कार्ल मार्क्स के अनुसार मजदूरी दरों की भांति रोजगार की मात्रा भी विनियोजन की मात्रा पर निर्भर करती है। अतः इसको निम्न समीकरण की सहायता से स्पष्ट किया गया है :

`L=L\frac IQ` ........(6)

L-श्रम शक्ति की मात्रा; । = विनियोजन की मात्रा; Q=पूंजी की मात्रा।

साध्य 7: उपभोग मजदूरी बिल पर निर्भर करता है :-  मार्क्स का विचार था कि कोई भी विनियोजन उस समय तक लाभदायक नहीं हो सकता जब तक कि उपभोग में इतनी वृद्धि नहीं होती कि बढ़े हुए उत्पादन की खपत हो सके। उनका यह भी विश्वास था कि पूजीपति चाहे कितना विलासितापूर्वक जीवन क्यों न व्यतीत करे कुल उपभोग की मात्रा में वृद्धि तो उसी समय सम्भव हो सकेगी जब मजदूरी द्वारा मांगी जाने वाली उपभोग की मात्रा में वृद्धि होती है। उनका विश्वास था कि उपभोग मजदूरी बिल की मात्रा पर निर्भर है। यह निम्न समीकरण की सहायता से स्पष्ट किया गया है :

C=C (W) …………(7)

C =  उपभोग तथा; W = मजदूरी

साध्य 8: लाभों की मात्रा यान्त्रिक स्तर तथा उपभोक्ताओं के व्यय स्तर पर निर्भर करती है :- मार्क्स के विकास मॉडल में यह स्वीकार किया गया है कि श्रमिक अपनी मजदूरियों का अधिकांश भाग व्यय कर देते हैं इसलिए उत्पादन को श्रम लागतों को कम करने से लाभों की मात्रा में वृद्धि किसी भी प्रकार से नहीं होगी। यदि श्रमिकों की व्यय शक्ति अथवा क्षमता में कमी आएगी तो इसके पश्चात् कुल उत्पादन का बिकना अपेक्षाकृत कठिन हो जाएगा और लाभों की अधिक मात्रा के लिए कुल उत्पादन का बिक जाना एक आवश्यक शर्त है। अतः लाभों की मात्रा को निर्धारित करने वाला वास्तविक समीकरण (4) नहीं है बल्कि (8) है जो इस प्रकार है :

R = R (T,C)  …..........(8)

R = लाभ की मात्रा; T= तकनीकी प्रगति; C = उपभोग

प्रो. बेंजामिन हिगिन्स ने मार्क्स के विकास मॉडल का विवरण समाप्त करने से पहले तीन सर्वसमताओं (Identity) को भी प्रस्तुत किया है। पहली सर्वसमता वही है जो प्रतिष्ठित विकास मॉडल में थी।

अर्थात् : O = R+W …....(9)

O = उत्पादन; R = लाभ की मात्रा; W = मजदूरी बिल

कार्ल मार्क्स ने अर्थव्यवस्था को दो क्षेत्रों में विभाजित किया है : पूंजीगत वस्तु क्षेत्र तथा उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र। यही इसकी सर्वसमता है और इसे हम निम्न समीकरण की सहायता से स्पष्ट कर सकते हैं :

O = C+I ……....(10)

O= उत्पादन; C = उपभोग; I = विनियोजन की मात्रा

अन्तिम सर्वसमता इस प्रकार है :

Q'=μQ   ………....(11)

Q' = पूंजीगत लागते

μQ = पूंजीगत स्टाक (User cost lo produce goods and Services)

इस अन्तिम सर्वसमता में चालू पूंजीगत लागतों का पूंजीगत स्टॉक के साथ एक स्थिर सम्बन्ध स्वीकार किया गया है और इसको । की सहायता से दर्शाया गया है जो उपभोग लागत को दर्शा रहा है। यह पूजी के उत्पादन के क्षेत्र में वास्तविक प्रयोग को ही दर्शाता है न कि केवल पूंजी संचय को

इस प्रकार प्रो. हिगिन्स ने कार्ल मार्क्स के विकास मॉडल के सन्दर्भ में 11 समीकरणों और 11 अज्ञात राशियों को प्रस्तुत किया है। सम्पूर्ण विकास मॉडल को एक साथ रखने पर,

O = (L, K,Q.T) ………...(1)

T=T (I) ----------(2)

I = I(R') ----------(3)

`R^'=\frac{O-W}{O+Q}=\frac R{W+Q}` .....(4)
W = W (I) --------(5)
`L=L\frac IQ` ........(6)
C=C (W) …………(7)
R = R (T,C)  …..........(8)

तीन सर्वसमताएं

O = R+W …....(9)
O = C+I ……....(10)
Q'=μQ   ………....(11)

आलोचनात्मक मूल्यांकन (A CRITICAL APPRAISAL)

इस सिद्धान्त के प्रमुख गुण निम्न हैं :

सिद्धान्त के गुण (Merits of the Theory)

(1) अध्ययन में सहायक—इसके अध्ययन से किसी भी देश के विकास को समझने में सहायता प्राप्त होती है।

(2) बेरोजगारी की समस्या- बेरोजगारी की समस्या को विकास सिद्धान्त में सर्वप्रमुख स्थान प्रदान किया गया।

(3) स्थायी विकास- देश में स्थायी विकास लाने के उद्देश्य से बचत एवं विनियोजन के सन्तुलन स्थापित करने के प्रयास किए गए।

सिद्धान्त की आलोचनाएं (Criticisms of Theory)

मार्क्स के अनुयायी पूंजीवादी विकास के सिद्धान्त को बाइबिल के समान सत्य मानते हैं, जबकि उसके विरोधियों ने उसके सिद्धान्त की कड़ी आलोचना की है। मार्क्स के विकास की प्रमुख आलोचनाएं निम्न प्रकार हैं:

(1) वास्तविकता से विपरीत—मार्क्स का सिद्धान्त वास्तविकता से विपरीत माना जाता है, क्योंकि मशीनें अल्पकाल में बेरोजगारी उत्पन्न करती हैं, परन्तु दीर्घकाल में स्थिति में सुधार हो जाता है।

(2) स्थैतिक विश्लेषण —मार्क्स आर्थिक विकास की समस्याओं का अध्ययन जिन औजारों (मूल्य का श्रम सिद्धान्त तथा मजदूरी का जीवन निर्वाह सिद्धान्त) की सहायता से करते हैं वे अनिवार्य रूप से स्थैतिक आर्थिक विश्लेषण के लिए उपयुक्त थे न कि प्रावैगिक आर्थिक विश्लेषण के लिए।

(3) श्रमिक संघर्ष- समाजवादी राष्ट्रों में भी श्रमिक स्वयं संघर्ष करते हैं तथा राजनीतिज्ञ ही बड़े पूंजीपति का रूप धारण कर लेते हैं।

(4) समाजवाद व पूंजीवाद का सम्बन्ध-मार्क्स का विचार था कि पूंजीवाद के चरम विकास की अवस्था में पहुंच जाने पर ही समाजवाद का उदय होगा, परन्तु वास्तव में समाजवाद उन राष्ट्रों में आया है, जहां पूंजीवाद उदय भी नहीं हुआ है।

(5) जनसंख्या सम्बन्धी त्रुटिपूर्ण विचार- मार्क्स जनसंख्या को ही पूंजीवाद की समस्या मानते थे, परन्तु आज समाजवादी राष्ट्रों में भी जनसंख्या नियन्त्रण पर विचार किया जाता है।

(6) साम्राज्यवाद हटने से विकास- मार्क्स का मत था कि साम्राज्यवाद के हटने से विकास स्वयं प्रारम्भ हो जाएगा, परन्तु यह विचारधारा भ्रमात्मक है, क्योंकि साम्राज्यवाद के समाप्त होने पर वे अपनी पूंजी भी वापस ले जाते हैं।

(7) सिद्धान्त का अभाव- आलोचकों का विचार है कि मार्क्स अर्थशास्त्री नहीं थे तथा उनके द्वारा कोई सिद्धान्त ही नहीं दिया गया।

(8) राज्य की उपेक्षा- मार्क्स ने आर्थिक समस्याओं का समाधान वर्ग संघर्ष द्वारा करना चाहा और राज्य के योगदान की उपेक्षा की। राज्य इस सम्बन्ध में अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकता है।

(9) एकाधिकार का अभाव-मार्क्स का विचार था कि पूंजीवाद में एकाधिकार की स्थापना की जाती है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि समस्त राष्ट्रों में एकाधिकार की स्थापना ही हो।

(10) असत्य भविष्यवाणी—मार्क्स की भविष्यवाणी असत्य निकली, क्योंकि मजदूरी का निर्धारण श्रम-संघों की सहायता से जीवन-निर्वाह से अधिक स्तर पर निर्धारित किया जाता है। वर्तमान समय में उत्पादन में श्रमिकों को भी लाभ प्राप्त होते हैं तथा सामाजिक सुरक्षा आदि के नियम भी बनाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त मार्क्स की यह भविष्यवाणी कि पूंजीवाद का शीघ्र पतन हो जाएगा, गलत सिद्ध हो चुकी है। समाजवाद का क्रमिक विकास मार्क्स के द्वारा बताए गए ढंग से नहीं हुआ।

(11) समस्त लाभ श्रम से प्राप्त होना—मार्क्स का विचार है कि पूजीपति को समस्त लाभ श्रम से ही प्राप्त होते हैं, पूंजी या किसी अन्य साधन से नहीं, परन्तु वास्तव में पूंजीपति का लाभ पूंजी की मात्रा पर निर्भर करता है न कि श्रमिकों की दर पर। जितनी अधिक मात्रा में पूंजी का विनियोग किया जाएगा, उतना ही अधिक लाभ पूंजीपतियों को प्राप्त होगा।

निष्कर्ष के रूप में “औपचारिक मॉडल के रूप में मार्क्स का अर्थशास्त्र निर्बल है। जिन आन्तरिक विरोधों का यह प्रणाली उद्देश्यपूर्वक विश्लेषण करती है, वे पूंजीवाद के होने की अपेक्षा मार्क्स की प्रणाली के ही साधक हैं।"

मार्क्स का मॉडल एवं अल्पविकसित देश (THE MARXIAN MODEL AND UNDERDEVELOPED COUNTRIES)

मार्क्स का मॉडल प्रत्यक्ष रूप से अल्पविकसित देशों पर लागू नहीं होता, क्योंकि मार्क्स ने ऐसे देशों की समस्याओं के बारे में सोचा भी नहीं था। “पश्चिम एशिया या भारत जैसे क्षेत्रों में आर्थिक विकास हेतु अपने निर्धारक संकेत के लिए प्रशंसनीय कुछ भ्रान्तियों को छोड़कर, अल्पविकसित देशों में परिवर्तन की समस्याओं की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।"

मार्क्स यह समझने में सक्षम नहीं रहे कि आर्थिक विकास होई पर न तो यह आवश्यक है कि कुल आय मे से मजदूरी का भाग कम हो जाए और न उपभोक्ता वस्तुओं के लिए मांग कम होना आवश्यक है। यह सही है कि मार्क्स की विचारधारा ने समाजवादी समाज के स्थापना को जन्म दिया। पर इसके साथ यह भी स्पष्ट हो गया है कि व्यवस्था का विकास मार्क्स के बताए हुए तरीके से नहीं हुआ है। माई की विचारधारा को विशेष रूप से उन देशों ने अपनाया जो पूंजीवादी विकास में बहुत पीछे थे। यह तथ्य भी सही नहीं है कि पूंजीवादी देशी में श्रमिकों की मजदूरी में वृद्धि नहीं हुई है। विकास के साथ-साथ हुन देशों में श्रमिक निरन्तर सम्पन्न हुए हैं। साथ ही मध्यम वर्ग भी अधिक सम्पन्न तथा प्रबल हुआ है।

यह बात स्पष्ट है कि मार्क्स का विकास मॉडल सर्वाधिक क्रान्तिकारी मॉडलों में से एक है। इसलिए मेयर तथा बाल्डविन (Meter and Baldwin) ने यहां तक लिख दिया कि मार्क्स की यह बात है पसन्द नहीं करते कि देश में सभी परिवर्तन संघर्ष तथा घृणा के वातावरण उत्पन्न करने से ही आते हैं और न वे यह मानने को तैयार हैं कि मास का सिद्धान्त वास्तविकता का प्रतीक है। उनके अनुसार मार्क्स का मॉडल बहुत कुछ भावात्मक है और उसमें उनकी क्रोधात्मक भावनाओं का पुट है। मार्क्स यही कहते थे कि पूंजीवाद तथा साम्राज्यवाद के पश्चात् समाजवाद आता है, पर यह बात आज विपरीत सिद्ध हो गई है।

इस प्रकार मार्क्स का मॉडल सही रूप से उन देशों पर लागू नहीं होता जो अर्द्ध-विकसित थे। मार्क्स ने वास्तव में इन देशों का अध्ययन ही नहीं किया। विदेशी शासन के कारण संसार के बहुत-से उपनिवेश आर्थिक पिछड़ेपन का कारण बने और इन उपनिवेशों के लिए एक ही उपाय था कि वे राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़े होकर विकास कार्य में जुट जाएं। अल्प उपभोग की समस्या व्यापक होने पर समाज स्पष्ट रूप से दो वर्गों में विभक्त हो जाता है और मध्यम वर्ग अस्तित्वहीन हो जाता है। इसमें वर्ग-संघर्ष छिड़ सकता है और श्रमजीवी एकाधिकार की स्थापना हो सकती है।

फिर भी यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि मार्क्स ने अपने सिद्धान्त को तर्कपूर्ण ढंग से रखा है। यह बात शुम्पीटर (Schumpetet ने स्पष्ट कही है कि मार्क्स ने वह मार्ग प्रशस्त किया है जिससे तकनीकी तथा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में किस प्रकार मानवीय सभ्यता परिवर्तित की जा सकती है। मार्क्स ने बेरोजगारी की समस्या की उग्रता को भली प्रकार समझा और विकास के लिए उपभोग, विनियोग तथा बचत के सन्तुलन को उचित महत्व दिया। यह सही है कि उन्होंने 19वी शताब्दी के परिवर्तन काल में पूंजीवाद के ऐतिहासिक पहलुओं को भली प्रकार समझा और उसका सन्तुलित विश्लेषण अपने विकास सिद्धान्त में सचेष्ट अध्ययन करने का सामयिक प्रयास किया।

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