SOLOW'S MODEL OF LONG-RUN GROWTH ( सोलो का दीर्घकालीन विकास मॉडल )

SOLOW'S MODEL OF LONG-RUN GROWTH ( सोलो का दीर्घकालीन विकास मॉडल )

रॉबर्ट सोलो,1987 - अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार "आर्थिक विकास के सिद्धांत में मौलिक अनुसंधान के लिए"

र्हैरोड-डोमर मॉडल के आलोचकों में नव-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों में प्रो. राबर्ट एम. सोलो का नाम प्रमुख है। प्रो. सोलो ने हैरोड-डोमर मॉडल की स्थिर पूँजी-श्रम अनुपात (Capital-Labour Ratio) को स्वीकार नहीं किया है। युद्धोत्तर वर्षों में अमेरिका तथा ब्रिटेन दोनों में यह पाया गया कि राष्ट्रीय आय में श्रम का सापेक्ष भाग बढ़ता रहा है और स्थिर नहीं रहा है। अत: सोलो ने 1956 में प्रकाशित अपने लेख "A Contribution to the Theory of Economic Growth" में स्थिर पूँजी-श्रम अनुपात मान्यता को अस्वीकार करते हुए कहा कि पूँजी तथा श्रम के प्रयोग में परिवर्तन करके अर्थात् पूँजी-श्रम अनुपात में अदला-बदली करके उत्पादन में परिवर्तन लाया जा सकता है। अत: सोलो ने हैरोड-डोमर की "स्थिर अनुपातों' वाली मान्यता को नकार दिया।

सोलो मॉडल की मान्यताएँ (ASSUMPTIONS OF SOLOW'S MODEL)

सोलो ने हैरोड-डोमर की स्थिर अनुपातों की मान्यता को छोड़कर, शेष सभी मान्यताओं को अपने मॉडल में शामिल किया है। यह मान्यताएँ इस प्रकार हैं:

(1) अर्थव्यवस्था में वैकल्पिक प्रयोग में आने वाली केवल एक ही वस्तु का उत्पादन किया जाता है जिसका कुछ भाग उपभोग कर लिया जाता है और बाकी भाग को निवेश कर दिया जाता है।

(2) बचते उत्पादन स्तर का एक निश्चित अनुपात हैं अर्थात् समाज में बचत प्रवृत्ति स्थिर है। दूसरे शब्दों में, बचत (S) कुल उत्पादन (Y) के निश्चित भाग (S) के बराबर की जाती है अर्थात् :

S = sy      (s = बचत की दर)

(3) पूँजी का मूल्य-ह्यास नहीं होता जिसके फलस्वरूप निवेश = बचते और यह पूँजी-कोष में होने वाले परिवर्तन (K) के बराबर होती है अर्थात्

I=sY=K

(4) जनसंख्या अर्थात् श्रम-शक्ति की वृद्धि-दर बहर्जात (Exogenous) तत्वों द्वारा निर्धारित होती है और निश्चित आनुपातिक दर (n) के हिसाब से बढ़ती है अर्थात् :

L/L=n     (L/L = श्रम शक्ति की आनुपातिक दर)

(5) उत्पादन के दोनों साधनों— श्रम तथा पूँजी को उनकी सीमान्त वस्तु उत्पादकताओं के अनुसार भुगतान किया जाता है।

(6) पूँजी का उपलब्ध स्टॉक भी पूर्ण नियुक्त रहता है।

(7) श्रम-शक्ति की वृद्धि दर बहिजीनत निर्धारित होती है।

(8) श्रम स्थायी रूप से पूर्ण रोजगार में रहता है।

(9) कीमते तथा मजदूरी लोचशील होती है।

(10) तकनीकी प्रगति तटस्थ है।

(11) श्रम तथा पूँजी को परस्पर स्थानापन्न किया जा सकता है।

(12) बचत अनुपात स्थिर है।

(13) पैमाने के स्थिर प्रतिफल होते हैं। दूसरे शब्दों में, उत्पादन फलन प्रथम कोटि का समरूप होता है। उपर्युक्त इन मान्यताओं के दिये हुए होने पर सोलो ने अपने मॉडल में स्पष्ट किया है कि :

(1) यदि तकनीकी गुणक परिवर्ती हो तो पूँजी-श्रम अनुपात की प्रवृत्ति यह होगी कि वह अपने आपको समय बीतने पर सन्तुलन अनुपात की दिशा में समायोजित कर लेगा।

(2) यदि श्रम से पूँजी का प्रारम्भिक अनुपात अधिक होगा तो श्रम शक्ति की तुलना में पूँजी तथा उत्पादन की वृद्धि अधिक धीरे होगी और विलोमशः भी।

(3) सोलो का विश्लेषण सन्तुलन पश्च (स्थिर अवस्था) की ओर केन्द्रित है चाहे वह किसी भी पूँजी-श्रम अनुपात से क्यों न प्रारम्भ हो।

सोलो मॉडल (THE SOLOW MODEL)

सोलो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में केवल एक ही वस्तु का उत्पादन मानकर चलते हैं। सोलो का यह भी मानना है कि उत्पादन की दर Y(t) ही अर्थव्यवस्था की वास्तविक आय है। इस आय (या उत्पादन) का कुछ भाग उपभोग कर लिया जाता है और शेष भाग को बचाकर विनियोग में लगा दिया जाता है। अन्य शब्दों में, एक स्थिर पूँजी-श्रम अनुपात बनाये रखने के लिए इच्छित बचत का भाग अवश्य ही विनियोग के बराबर होना चाहिए। वह शुद्ध विनियोग अथवा पूँजी स्टॉक को K(T) एवं बचत की दर को SY(t ) दर्शाता है जो आपस में बराबर है लेकिन पूँजी स्टॉक को बढ़ाने की दर पर शुद्ध विनियोग K से दिखाया जाता है। विनियोग बचत समीकरण यह है     I=S अथवा

 k = sy [`\because\frac{\Delta K}{\Delta t}`] ------------(1)

उत्पादन के साधन पूँजी (K) व श्रम (L) को उत्पादन फलन में दिखाने से,

Y=F (K, L) -----------------(2)

जो पैमाने के स्थिर प्रतिफल दर्शाता है।

समीकरण (2) को समीकरण (1) में रख देने से, हमें प्राप्त होता है

K= sF (K,L) ------------(3)

समीकरण (3) तकनीकी सम्भावनाओं को व्यक्त करता है, L कुल रोजगार के स्तर को क्योंकि बहिर्जनित (Exogenously) रूप से जनसंख्या में वृद्धि होती रहती है। अत: श्रम-शक्ति भी एक स्थिर सापेक्ष दर से बढ़ती जाती है। इस प्रकार

L(t) = Loent ---------------(4)

तकनीकी उन्नति के अभाव में n हैरोड़ की विकास की प्राकृतिक दर होगी। समय (t) में L श्रम को कार्यरत किया जायेगा, जबकि समय 0 से लेकर समय t तक श्रम-शक्ति एक घातांकीय (Exponentially) रूप से बढ़ती हुई पूर्णत: बेलोचदार श्रम की माँग है अर्थात् श्रम पूर्ति वक्र Y-अक्ष के समानान्तर होगा। पैमाने के स्थिर प्रतिफल के दिये होने पर यदि पूँजी और श्रम पूर्ति तीव्रता से बढ़ते हैं, तब उत्पादन और बचत भी उसी अनुपात में बढ़ते हैं। ऐसी स्थिति में सन्तुलित विकास सम्भव है। समीकरण (4) को समीकरण (3) में रख देने से सोलो का मूल समीकरण निम्न प्रकार प्राप्त होगा :

K=sF (K, Loent) --------------(5)

विकास के सम्भव स्वरूप (Possible Growth Patterns) — यह मालूम करने के लिए कि क्या सदैव कोई ऐसा पूँजी संचय पथ होता है या नहीं जो सतत् अवस्था की ओर श्रम शक्ति के विकास के अनुरूप हो। इस हेतु प्रो. सोलो ने आधारभूत समीकरण में एक नया चर (Variable) r श्रम से पूँजी का अनुपात (K/L) लिया है और समय के साथ r में आनुपातिक परिवर्तन को निम्न प्रकार निरूपित किया है :

`\frac rr=\frac KK-\frac LL` --------(6)

समय के साथ r में आनुपातिक परिवर्तन = समय के साथ पूँजी स्टॉक में आनुपातिक परिवर्तन - साथ के साथ श्रम-शक्ति में आनुपातिक परिवर्तन।

समीकरण (3) से K = sF (K, L) एवं =n को समीकरण (6) में प्रतिस्थापन करने से

`\frac rr=\frac{sF(K,L)}K-n`

अथवा, `r=r=\frac{sF(K,L)}K-nr` --------------(7)

पैमाने का स्थिर प्रतिफल है जिसका अर्थ यह है कि उत्पादन फलन प्रथम कोटि के समरूप है। इसलिए एक बार L से गुणा एवं L से विभाजित करने से समीकरण (7) का स्वरूप बदलने से,

`r=r\frac{sFL(\frac KL,1)}K-nr`

अथवा, `r=r\frac LKsF(\frac KL,1)-nr`

जैसाकि ऊपर बताया गया है कि सोलो `r=\frac KL` मानता है। इसी प्रकार   `\frac 1r=\frac LK` होगा। 

अत: सोलो का आधारभूत समीकरण

r = r `\frac 1r` sF (r,1) – nr

अथवा  r = sF (r,1) – nr -----------(8)

समीकरण 8 में r मे पूँजी-श्रम अनुपात की परिवर्तन दर है जबकि दायीं तरफ का फलन sF (r, I ) प्रति श्रमिक पूँजी फलन के रूप में प्रति व्यक्ति उत्पादकता या उत्पादन को दर्शाता है। अन्य शब्दों में, यह कुल उत्पादकता वक्र है जो श्रम की एक इकाई के साथ पूँजी (r)  की विभिन्न मात्राओं को दर्शाता है।

nr यह व्यक्त करता है कि पूँजी-श्रम अनुपात के किसी भी मूल्य पर प्रति श्रमिक कितना विनियोग किया जाय जिससे पूँजी श्रम अनुपात में परिवर्तन को स्थिर बनाये रखा जा सके।

आधारभूत समीकरण का रेखाचित्र द्वारा विश्लेषण (Graphic Analysis of the Basic Equation) - आधारभूत समीकरण (8) में r = 0 रखने से sF (r, I) = nr होंगे, तब पूँजी-श्रम अनुपात स्थिरांक (Constant) अर्थात् पूँजी स्टॉक में वृद्धि आवश्यक रूप से उसी दर से होगी जिस दर से श्रम-शक्ति बढ़ेगी या श्रम-शक्ति का प्रति श्रमिक उत्पादन स्थिर रहेगा। यह स्थिति सन्तुलित विकास (Balanced Growth) को व्यक्त करती है। इसी स्थिति को रेखाचित्र  द्वारा निरूपित किया गया है।

(अ) मूल बिन्दु में से गुजरने वाली रेखा nr है। एक वक्र sF (r, I) इस ढंग से खींचा गया है कि पूँजी की घटती सीमान्त उत्पादकता को व्यक्त करे। जय r = 0, तब ऐसी स्थिति में दोनों वक्र एक दूसरे को e' बिन्दु पर काटते है।

(ब) अस्थिरता की स्थितियाँ (Unstable Situations) यदि sF (F, I) nr से, ऐसी स्थिति में पूँजी एवं उत्पादन में वृद्धि श्रम-शक्ति की अपेक्षा अधिक होगी जब तक पूँजी का प्रारम्भिक स्टॉक सन्तुलन मूल्य r  के बराबर नहीं आ जाता। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है कि r1 >r और बचत की पूर्ति Ar1 > Br1 निवेश की मात्रा से। बिन्दु A से बिन्दु eI तक पूँजी में वृद्धि तीव्र रहेगी। इसके विपरीत, यदि nr sF (r, I), तब ऐसी स्थिति में, चित्र निवेश की मात्रा Cr2 > Dr2. बचत की पूर्ति से क्योंकि r2>r से। सन्तुलित विकास के लिए पूँजी-श्रम अनुपात (r2) के मूल्य को कम करके rI के बराबर रखना होगा।

स्थिरता की स्थिति (Stable Situation) वस्तुत: स्थिरता की स्थिति उत्पादकता वक्र (sF (r, I) की ढाल पर निर्भर करती है जैसा कि चित्र से स्पष्ट किया गया है। चित्र

में उत्पादकता वक्र sF (r, I) बिन्दु 0 से खींची गई रेखा nr को तीन बिन्दु e1 , e2 व e3 पर काटता है। बिन्दु 0 से बिन्दु e1 तक उत्पादकता वक्र की ढाल बता रही है कि पूँजी में वृद्धि धीमी है। अन्य बिन्दु e2, सन्तुलन का नहीं हो सकता क्योंकि उत्पादकता वक्र sF (r, I) श्रम वृद्धि रेखा को नीचे से काटता है। बिन्दु e2 से बिन्दु e3, तक पूँजी में वृद्धि अधिक तीव्र है। अत: पूँजी-श्रम अनुपात r1 , या r3 , पर सन्तुलित वृद्धि होगी तो वास्तव में दोनों में से किसी भी स्थिति में श्रम की पूर्ति व पूँजी स्टॉक एवं वास्तविक उत्पादन भी प्राकृतिक वृद्धि दर (n) पर विस्तार करेगी।

आगे प्रो. सोलो यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि चित्र में विकास की सभी सम्भावनाओं को समाप्त नहीं कर देता। वे दो अन्य सम्भावनाओं पर भी प्रकाश डालते हैं जिन्हें नीचे की  चित्र की सहायता से स्पष्ट किया गया है।

चित्र में (i) इसमें किरण nr सन्तुलन विकास पथ दर्शाता है जहाँ अभीष्ट (Warranted) एवं प्राकृतिक (Natural) विकास दरे बराबर

(ii) प्रथम सम्भावना-उत्पादकीय व्यवस्था sF'(r. I) क्र जो nr से ऊपर है, एक बहुत उत्पादकीय व्यवस्था को व्यक्त करता है जिसमें पूँजी और आय में श्रम पूर्ति की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से वृद्धि होती है। इस व्यवस्था में जो कि निरन्तर पूर्ण रोजगार है, आय और बचत इतनी बढ़ती है कि पूँजी श्रम अनुपात सीमारहित बढ़ती है।

(iii) द्वितीय सम्भावना-अनुत्पादकीय व्यवस्था S2F" (r, I) वक्र एक अनुत्पादकीय (Unproductive) स्थिति को प्रदर्शित करता है जिसके अन्तर्गत पूर्ण रोजगार पथ सदैव कम हो रही प्रति व्यक्ति आय की ओर ले जाता है क्योंकि यह nr से नीचे है। फिर भी इस व्यवस्था में कुल आय बढ़ती है क्योंकि शुद्ध विनियोग सदैव धनात्मक होती है तथा श्रम पूर्ति बढ़ रही है। यह उल्लेखनीय है कि दोनों व्यवस्थाओं में निरन्तर घटती सीमान्त उत्पादकता (Diminishing Marginal Productivity) पायी जाती है।

सोलो मॉडल का सार (SUBSTANCE OF SOLOW MODEL)

(1) सोलो मॉडल हैरोड-डोमर मॉडल का ही एक वैकल्पिक प्रारूप है जिसमें नव-प्रतिष्ठित उत्पादन फलन (Production Function) का प्रयोग किया गया है।

(2) सोलो मॉडल में हैरोड-डोमर मॉडल की स्थिर अनुपातों (Fixed Proportions) वाली मान्यता को छोड़कर, शेष सभी पूर्व-कल्पनाओं को स्वीकार किया गया है।

(3) सोलो ने अपने मॉडल में साधनों के प्रतिस्थापन और घटते हुए प्रतिफल की सम्भावनाओं को शामिल करके हैरोडियन सतत् विकास के मार्ग में अन्तर्निहित अस्थिरता को दूर कर दिया है।

(4) इस मॉडल ने अपने सरलतम रूप में निम्न दो उपमेयों (Propositions) को जन्म दिया है :

(अ) अर्थव्यवस्था दीर्घकाल में एक ऐसी सन्तुलित विकास दर से प्रगति करती है जो श्रम-शक्ति की वृद्धि दर के बराबर होती है।

(ब) सन्तुलन-दर स्थायित्व की विशेषता से सम्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में, यदि किन्हीं कारणों से बचत दर अथवा श्रम-शक्ति दर में परिवर्तन होने से अर्थव्यवस्था सन्तुलित विकास-पथ से भटक जाती है तो उसकी पुन: सन्तुलित विकास-पथ पर लौटने की सम्भावना, पूँजी श्रम अनुपात और पूँजी-उत्पाद अनुपात में आवश्यक परिवर्तनों की समायोजन-प्रक्रिया पर आश्रित होती है।

प्रोफेसर सोलो ने अपने मॉडल का निष्कर्ष यो प्रस्तुत किया है, “जब परिवर्ती समानुपातों तथा पैमाने के स्थिर प्रतिफलों की सामान्य नवक्लासिकी परिस्थितियों के अन्तर्गत उत्पादन होता है तो वृद्धि की प्राकृतिक तथा अभीष्ट (Warranted) दरों में कोई साधारण विरोध सम्भव नहीं है। कोई छुरी-धार सन्तुलन नहीं भी हो सकता। व्यवस्था श्रम-शक्ति की वृद्धि की किसी भी दी हुई दर से समायोजन कर सकती है और अन्तत: स्थिर समानुपातिक विस्तार की अवस्था तक पहुँच सकती है'' अर्थात्

`\frac{\Delta K}K=\frac{\Delta L}L=\frac{\Delta Y}Y`

सोलो मॉडल की हैरोड-डोमर मॉडल से तुलना

(COMPARISON OF SOLOW MODEL WITH HARROD-DOMAR MODEL)

(अ) समानताएँ (Similarities)

(i) सोलो मॉडल हैरोड-डोमर मॉडल का ही एक वैकल्पिक प्रारूप है जिसमें नव-प्रतिष्ठित उत्पादन फलन (Production Function) का प्रयोग किया गया है।

(ii) सोलो मॉडल में हैरोड-डोमर मॉडल की स्थिर अनुपातों (Fixed Proportions) वाली मान्यता को छोड़कर, शेष सभी पूर्व कल्पनाओं को स्वीकार किया गया है।

(ब) असमानताएँ (Dissimilarities)

(i) हैरोड-डोमर मॉडल को दीर्घकालीन आर्थिक व्यवस्था में अधिक से अधिक छुरी-धार (Knife-edge) सन्तुलन कहा जा सकता है जिसमें बचत अनुपात, पूँजी-उत्पादन अनुपात और श्रम-शक्ति के बढ़ने की दर प्रमुख प्राचल (Parameters) हैं। यदि इन प्राचलों के परिणाम निश्चित केन्द्र से जरा-सा भी खिसके तो परिणाम यह होगा कि या तो बढ़ती हुई बेरोजगारी या दीर्घकालीन स्फीति आ जायेगी। सोलो ने इसके विपरीत उत्पादन में स्थिर अनुपातों वाली मान्यता का ही परित्याग करके सतत् विकास का अधिक स्थायी एवं मजबूत (निर्विघ्न) पथ खोजने का प्रयास किया है।

(ii) सोलो मॉडल में, सन्तुलित विकास दर (हैरोड मॉडल के अनुसार Gw) श्रम-पूँजी अनुपात में आवश्यक परिवर्तनों की सहायता से श्रम-शक्ति की वृद्धि दर (हैरोड मॉडल के अनुसार Gn) के अनुरूप सदैव समायोजन कर लेती है, जबकि हैरोड मॉडल में ऐसा होना सम्भव नहीं है।

(iii) हैरोड के विपरीत सोलो का मानना है कि पूँजी एवं श्रम के बीच प्रतिस्थापन की सम्भावना के कारण विकास प्रक्रिया में समायोजनशीलता बढ़ जाती है। साथ ही, उपलब्ध संसाधनों के तदनुरूप उत्पादन की कम या अधिक पूँजी-श्रम अनुपात वाली तकनीक का चयन करना सम्भव हो जाता है।

(iv) विकास की दीर्घकालीन दर को विस्तारशील श्रम-शक्ति तथा तकनीकी प्रगति निर्धारित करते है परन्तु हैरोड-डोमर ने श्रम-शक्ति और तकनीकी प्रगति को स्थिर मान लिया है परन्तु तकनीकी प्रगति द्वारा निर्धारित होती है, जबकि हैरोडियन मॉडल इन दोनों प्राचलों को स्थिर मानता है, परन्तु सोलो मॉडल में इनको स्थिर नहीं माना गया बल्कि इन कठोरताओं एवं रुकावटों का सफलतापूर्वक समाधान किया है जिससे यह मॉडल अधिक वास्तविकएवं व्यावहारिक जान पड़ता है।

सोलो मॉडल के गुण-हैरोड-डोमर मॉडल पर सुधार (Merits of Solow Model or Improvement over Harrod-Domar Model) — सोलो का दीर्घकालीन विकास मॉडल हैरोड-डोमर मॉडल पर एक प्रमुख सुधार है जैसा कि निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट हो जायेगा

(i) सोलो ने अपने मॉडल में श्रम एवं पूँजी के बीच प्रतिस्थापना की सम्भावना को शामिल करके विकास प्रक्रिया को अधिक सपाट (Smooth) एवं समंजनीय (Adjustable) बना दिया है जिसके फलस्वरूप उनका विकास मॉडल अधिक तर्कसंगत एवं व्यावहारिक जान पड़ता है।

(ii) सतत् विकास के मार्गों का स्पष्ट प्रदर्शन सोलो मॉडल की एक ऐसी अनूठी विशेषता है जो उसे नव-प्रतिष्ठित विचारधारा में एक अग्रणी एवं विशिष्ट स्थान प्रदान करती है।

(iii) इसके अतिरिक्त यह मॉडल आधुनिक कीन्सवादी आय विश्लेषण की समस्त कठिनाइयों एवं दृढ़ताओं को काफी हद तक दूर करने में सफल रहा है।

सोलो मॉडल की आलोचनाएँ (CRITICISMS OF SOLOW'S MODEL)

(1) अवास्तविक मान्यताएँ (Unrealsitic Assumptions) — यह मॉडल अवास्तविक मान्यताओं (अ) अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है और (ब) विनियोग बचत पर निर्भर करता है परन्तु जब तक इस मॉडल में श्रम एवं वित्त बाजारों के कार्यकरण को स्पष्टतया शामिल नहीं किया जाता, तब तक यह समझना बहुत कठिन है कि श्रम एवं बचत सम्बन्धी परिवर्तनों के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था की समायोजना प्रक्रिया अपने आप कैसे काम कर सकती है।

(2) निवेश-फलन की अनुपस्थिति (Absence of Investment Function) - सोलो मॉडल में विनियोग फलन नहीं है और यदि इसे एक बार सम्मिलित कर लिया जाए तो सोलो के मॉडल में भी अस्थिरता की हैरोडीय समस्या पुन: प्रकट हो जाती है।

(3) वास्तविक वृद्धि दर और आवश्यक वृद्धि दर के बीच सन्तुलन की उपेक्षा (Neglect of Equilibrium between Actual and Warranted Growth Rate) - सोलो का मॉडल हैरोड के Gw तथा Gn में सन्तुलन की समस्या भर को ही लेता है और G तथा Gw में सन्तुलन की समस्या को छोड़ देता है।

(4) श्रम एवं पूँजी का प्रतिस्थापना (Substitution of Labour and Capital) — इसमें कोई संदेह नहीं कि दीर्घकाल में पूँजी एवं श्रम को कुछ सीमा तक एक-दूसरे के स्थान पर घटा-बढ़ाकर इस्तेमाल किया जा सकता है परन्तु यह मान लेना कि प्रतिस्थापन की यह सम्भावना सदैव पायी जाती है, वास्तविकता से सरासर परे है।

(5) पूँजी की समरूपता एवं लोचशीलता (Homogeneity and Flexibility of Capital) — सोलो मॉडल पूँजी की समानता एवं लोचशीलता की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। वास्तव में, पूँजी पदार्थों में बहुत भिन्नता पायी जाती है। इसलिए वे समूहीकरण (Aggregation) की समस्या उत्पन्न करते हैं। परिणामत: जब पूँजी पदार्थ भिन्न प्रकार के हों सतत् विस्तार के पथ पर पहुँचना आसान नहीं है।

(6) अन्य आलोचनाएँ (Other Criticisms) - (i) सोलो तकनीकी प्रगति का उत्पादक तत्व छोड़ देता है और इसे विकास प्रक्रिया का बाहा कारक मानता है। इस प्रकार वह ज्ञानवर्द्धन की प्रक्रिया, अनुसंधान में विनियोग और पूँजी संचय द्वारा तकनीकी प्रगति को प्रेरित करने की समस्याओं की उपेक्षा करता है।

(ii) सोलो मॉडल श्रम-वर्द्धक (Labour-augmenting) तकनीकी प्रगति की मान्यता पर आधारित है। यह हैरोड की तटस्थ तकनीकी प्रगति की एक विशेष स्थिति है जिसका कोई आनुभविक (Empirical) औचित्य नहीं है।

सोलो मॉडल और विकासशील देश (SOLOW'S MODEL AND DEVELOPING COUNTRIES)

सोले मॉडल मोटे तौर पर विकासशील देशों में लागू नहीं होता। इसका स्पष्ट कारण यह है कि यह मॉडल एक आत्म-निर्भर अर्थात् स्वयं पोषित (Self-substaining) अर्थव्यवस्था की स्थिर विशेषताओं का वर्णन करता है, जबकि विकासशील देश पूर्व स्फूर्ति अथवा स्फूर्ति (Take of Stage) की अवस्था में है। फलतः विकास स्तर की भिन्नता के कारण ही इन देशों में सोलो मॉडल का नीति निर्माण के लिए प्रयोग सम्भव नहीं हो पाता। फिर भी सोलो मॉडल के कुछ अंश ऐसे हैं जहाँ इस मॉडल से प्रासंगिकता का आभास होता है, जैसाकि

निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट होता है

(1) तकनीकी द्वैतवाद (Technological Dualism) सोलो का मॉडल अल्पविकसित देशों में तकनीकी द्वैतवाद के तत्व की व्याख्या करने में सहायक होता है। अर्थव्यवस्था के दोनों क्षेत्रों में उत्पादन के तकनीकी गुणको को परिवर्तनशील मानकर भी यह मॉडल तकनीकी द्वैतवाद (Dualism) का वर्णन करने में सफल होता है।

(2) अदृश्य बेरोजगारी (Disguised Unemployment)- (अ) सोलो के मॉडल में जब तक आय धनात्मक रहती है, बचतें और पूँजी स्टॉक बढ़ता है परन्तु सोलो मॉडल यह भी बताता है कि अर्थव्यवस्था में यह भी सम्भावना पायी जाती है जबकि आय धनात्मक होने पर भी बचत शून्य हो जाय। ऐसी स्थिति में और विनियोग नहीं होगा तथा पूँजी स्टॉक स्थिर रहेगा परन्तु श्रम शक्ति बढ़ती रहेगी श्रम की सीमान्त उत्पादकता कम हो जायेगी जिससे उत्पादकता न्यूनतम वास्तविक मजदूरी दर से नीचे आ जायेगी। ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था में अदृश्य बेरोजगारी (Disguised Unemployment) प्रकट हो जायेगी। यह पूरी कहानी विकासशील देशों में लागू होती है क्योंकि यही इन देशों की मुख्य विशेषता है।

(ब) सोलो मॉडल के अनुसार यदि वास्तविक मजदूरी दर किसी निश्चित स्तर पर स्थिर रखी जाती है तो रोजगार का ऐसा स्तर होना चाहिए जिस पर श्रम की सीमान्त उत्पादकता कायम रखी जाती है। यदि मजदूरी दर पूँजी-श्रम अनुपान की कमी के साथ सम्बन्धित होती है तो बेरोजगारी उत्पन्न होगी। ऐसा विकासशील अर्थव्यवस्था के कृषि क्षेत्र में अक्सर होता है। जनसंख्या में वृद्धि से भूमि सापेक्षतया दुर्लभ हो जाती है तथा वास्तविक मजदूरी दर निर्वाह स्तर पर निश्चित हो जाती है जिससे श्रम की सीमान्त उत्पादकता कम हो जाती है तथा अदृश्य बेरोजगारी का पाया जाना स्वाभाविक है।

Rostow Growth Model

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