LIEBENSTEIN'S-CRITICAL-MINIMUM-EFFORT-THESIS (लीबिन्स्टीन का क्रान्तिक-न्यूनतम प्रयास सिद्धान्त )

LIEBENSTEIN'S-CRITICAL-MINIMUM-EFFORT-THESIS (लीबिन्स्टीन का क्रान्तिक-न्यूनतम प्रयास सिद्धान्त )

प्रो. हार्वे लीबिन्स्टीन (Prof. Harvey Liebenstein) ने अपनी पुस्तक "Economic Back- wardness and Economic Growth" में यह विचार प्रकट किया है कि अल्प-विकसित देशों में दरिद्रता का दुश्चक्र पाया जाता है, जो उन्हें प्रति व्यक्ति निम्न आय-सन्तुलन की स्थिति के आस-पास बनाये रखता है। इस दलदल से निकलने की एक निश्चित पद्धति क्रान्तिक-न्यूनतम प्रयास है, जो प्रति व्यक्ति आय को उस स्तर तक बढ़ा दें, जिस पर सतत विकास कायम रह सके। पिछड़ेपन की स्थिति से अधिक विकसित अवस्था में पहुँचने हेतु यह एक आवश्यक स्थिति है। लीबिन्स्टीन का मत है कि प्रत्येक अर्थव्यवस्था 'झटकों' तथा 'प्रोत्साहनों' के अधीन काम करती है। 'झटका" प्रति व्यक्ति आय को घटाने का प्रभाव है, जबकि 'प्रोत्साहन' उसे बढ़ाने में सहायक है। विश्व में कुछ देश इस कारण अल्प-विकसित रहे हैं कि वहाँ प्रोत्साहनों का आकार अधिक रहा है। उस समय केवल आय क्रान्तिक-न्यूनतम प्रयत्न और अर्थव्यवस्था विकास के मार्ग पर प्रशस्त होगी, जब आय अवसादी साधनों की अपेक्षा आय-वर्द्धक-साधन अधिक प्रेरित हो जायें। आवश्यक न्यूनतम प्रयास द्वारा अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया जा सकता है क्योंकि उस परिस्थिति में आय अवसादी साधनों की अपेक्षा आय-वर्द्धक साधन अधिक प्रेरित होंगे। लीबिन्स्टीन ने यह विचार भारत, इण्डोनेशिया जैसे अर्द्ध-विकसित देशों की समस्याओं का अध्ययन करने के पश्चात् प्रकट किये जाते हैं। इन देशों में जनसंख्या अधिक है।

अविकसित राष्ट्रों के आर्थिक विकास के लिए आवश्यक न्यूनतम प्रयास को अपरिहार्य माना गया। इस मॉडल की प्रमुख बातें निम्न हैं-

(1) मुख्य बातें-(i) पिछड़ेपन से मुक्ति-इसमें पिछड़ेपन से मुक्ति प्राप्त करने के प्रयासों का अध्ययन किया गया।

(ii) समस्याओं का अध्ययन-इसमें समस्याओं के निराकरण के स्थान पर समस्याओं के समझने का अध्ययन किया गया।

(iii) विकास का प्रयास- इसमें विकास के लिए आवश्यक न्यूनतम प्रयासों को समझाया गया है।

(2) विशेषताएँ-इसमें अविकसित राष्ट्रों की विशेषताओं को कई भागों में विभाजित किया गया। जैसे- (i) कृषि की विशेषताएँ, (ii) सांस्कृतिक व राजनीतिक विशेषताएँ, (iii) तकनीकी व अन्य विशेषताएँ, (iv) जनसंख्या सम्बन्धी विशेषताएँ एवं (v) अन्य आर्थिक विशेषताएँ।

(3) सिद्धान्त-देश में प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक न्यूनतम मात्रा से कम विनियोजन नहीं किया जाना चाहिए जिससे आय में वृद्धि होकर बचत स्तर बढ़े व आर्थिक दुश्चक्र समाप्त हो जाये। विनियोजन की मात्रा को एक वर्ष में करने के स्थान पर उसे 8-10 वर्षों में फैलाकर विनियोजन करना चाहिए तथा हर विनियोजन की न्यूनतम मात्रा का एक अनुकूलतम स्तर होना चाहिए।

(4) आवश्यकता-विकास का यह मॉडल निम्न कारणों से आवश्यक है-

(i) सन्तुलित विकास-इस अवस्था में देश में सन्तुलित विकास सम्भव किया जा सकता है। न्यूनतम आवश्यक प्रयास की विभिन्न अवस्थाएँ हो सकती हैं और प्रत्येक चरण में न्यूनतम विनियोजन के द्वारा यह प्रयास सुलभ हो सकता है कि आर्थिक विकास शनैः-शनै: सन्तुलन की और बनता चले। सन्तुलित विकास करने के लिए आवश्यक न्यूनतम प्रयास ही एकमात्र उपाय है।

(ii) प्राचीन प्रथाओं की समाप्ति-देश में प्राचीन प्रथाओं की समाप्ति के लिए न्यूनतम विनियोजन आवश्यक है। आर्थिक विकास के लिए यह अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है कि पुरानी विचारधारा, रीति-रिवाज तथा अवस्थाओं को समाप्त करके नये विचारों के अनुसार विकास कार्य किया जाय जिसके लिए न्यूनतम प्रयास ही एकमात्र आश्रय है। इससे कम विनियोजन से विकास में सफलता नहीं मिलती है।

(iii) बाह्य मितव्ययिताएँ-बड़ी मात्रा में विनियोजन से ही बाह्य मितव्ययिताएँ प्राप्त की जा सकती हैं।

(iv) बाधाओं को हटाना-विकास के परिणामस्वरूप जो बाधाएँ उपस्थित हों, उन्हें दूर करने के लिए न्यूनतम विनियोजन आवश्यक है। प्रत्येक अर्द्ध-विकसित अर्थव्यवस्था में दो तत्व विद्यमान होते हैं-एक तो प्रोत्साहनवर्द्धक तथा दूसरे बाधामूलक तत्व। इस प्रकार कुछ तत्व ऐसे होते हैं जो प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि में सहायक होते हैं और अन्य विकास को पीछे धकेलने वाले होते हैं। अविकसित देशों में प्रोत्साहनवर्द्धक तत्वों का अभाव होता है और बाधामूलक तत्व अधिक पाये जाते हैं। आवश्यक न्यूनतम प्रयास के द्वारा ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में बाधक तत्वों को अधिक प्रोत्साहन किया जा सकता है। बाधक तत्वों को दूर करने में भी आवश्यक न्यूनतम प्रयास सहायक हो सकता है।

जनसंख्या वृद्धि : प्रति व्यक्ति आय का फलन (POPULATION GROWTH: A FUNCTION OF PER CAPITA INCOME)

लीबिन्स्टीन की थीसिस की प्रमुख मान्यता यह है कि जनसंख्या में वृद्धि दर प्रति व्यक्ति आय के स्तर का फलन होती है जिसका विकास विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। ये अवस्थाएँ हैं-

(1) प्रथम अवस्था (First Stage)-प्रारम्भिक अवस्था में आय स्तर के जीवन निर्वाह साम्य स्तर (Subsistance level of income level) पर जन्म-दर तथा मृत्यु-दर अधिकतम होती है। प्रति व्यक्ति आय को जीवन निर्वाह स्तर से अधिक कर देने पर मृत्यु-दर तो कम हो जाती है, किन्तु जन्म-दर में कोई कमी नहीं होती जिसके परिणामस्वरूप, जनसंख्या में वृद्धि होती है।। इस प्रकार प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि जनसंख्या वृद्धि का कारण बन जाती है, किन्तु एक निश्चित सीमा तक ऐसा ही होता है और उसके बाद प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि जन्म-दर को घटा देती है विकास को गति बढ़ने के साथ-साथ जनसंख्या की वृद्धि-दर गिर जाती है। लीबिन्स्टीन का यह तर्क ड्यूमोण्ट (Dumont) के सामाजिक कुशलता थीसिस' (Social Capillarities Thesis) पर आधारित है।

(2) द्वितीय अवस्था (Second Stage)-प्रति व्यक्ति आय में जैसे-जैसे वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे मृत्यु-दर गिरने लग जाती है, परन्तु जन्म-दर एकदम नहीं गिरती और जनसंख्या बढ़ने लग जाती है। मृत्यु-दर घटने से बच्चों की अनुत्पादक आयु की तुलना में उत्पादक आयु में बढ़ जाती है। बच्चे की उत्पादन-उपयोगिता बढ़ जाती है और जन्म-दर बढ़ाने के लिए कोई प्रेरणा नहीं रह जाती है।

(3) तृतीय अवस्था (Third Stage)-यह अवस्था उत्तरोत्तर आय की वृद्धि की अवस्था है अधिक आय वृद्धि से बच्चों की उपभोग उपयोगिता घट जाती है। अधिक आय वाले धनी व्यक्तियों के बच्चे अपनी अधिक उत्पादन उपयोगिता को भी नहीं बनाए रख पाते। प्रतिस्पर्धा में वृद्धि होती है और पालन-पोषण एक समस्या बन जाती है। शिक्षा व स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे बढ़ जाते हैं और परिणामस्वरूप लागतें भी बढ़ जाती हैं। जब लागते लाभ से अधिक हो जाती हैं तो जन्म-दर कम करने की भावना प्रबल हो जाती है।

(4) चतुर्थ अवस्था (Forth Stage)-अधिकतम आय की अवस्था में जन्म तथा मृत्यु-दरें दोनों ही कम हो जाती हैं और इस प्रकार जनसंख्या में बहुत थोड़ी ही वृद्धि होती है। लीबिन्स्टीन का विचार है कि जनसंख्या की वृद्धि अधिकतम 3 प्रतिशत से 4 प्रतिशत के बीच होती है।

सिद्धान्त की व्याख्या (Explanation of the Theory)

लीबिन्स्टीन की आवश्यक न्यूनतम प्रयास की विचारधारा यह स्पष्ट करती है कि अल्प-विकसित अर्थव्यवस्थाएँ गरीबी के दुश्चक्रों में फंसी रहती है जिसके कारण इन देशों में पूँजी निर्माण निम्न स्तर पर बना रहता है पिछड़े देशों की इन अर्थव्यवस्थाओं में एक ऐसे साम्य की स्थिति बनी रहती है जिसमें प्रति व्यक्ति आय के सम्बन्ध में 'अर्द्ध-स्थिरता' (Quasi-Stability) का अंश पाया जाता है। यदि पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था के इस साम्य को विचलित किया जाता है तो वे ही शक्तियाँ जो प्रतिव्यक्ति आय को बढ़ाने की प्रवृत्ति रखती है आय को गिराने वाली शक्तियों को भी जन्म देती है। आय के कम स्तरों पर आय को गिराने वाली शक्तियाँ आय को बढ़ाने वाली शक्तियों से अधिक शक्तिशाली होती हैं जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक विकास नहीं हो पाता। आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है कि इन देशों में अर्द्ध-स्थैतिक साम्य (Quasi-Static Equilibrium) को तोड़ा जाए यह तभी सम्भव है कि एक आवश्यक न्यूनतम प्रयास द्वारा आय में वृद्धि करने वाले तत्वों को आय में गिरावट करने वाले तत्वों से अधिक उत्तेजित किया जाता है।

लीबिन्स्टीन के शब्दों में, "एक सामान्य अल्प-विकसित देश के लिए प्रति व्यक्ति आय का एक निर्णायक स्तर तथा इससे सम्बन्धित प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि का स्तर होता है जिससे ऊपर अर्थव्यवस्था संतुलन वाली न रहकर असंतुलन वाली अर्थव्यवस्था में बदल जाती है।" इस प्रकार लीबिन्स्टीन की न्यूनतम प्रयास की विचारधारा यह स्पष्ट करती है कि अर्द्ध-विकसित देशों में गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए एक न्यूनतम आवश्यक प्रयास की जरूरत होती है अर्थव्यवस्था को आत्मस्फूर्ति प्रदान करने और सतत् प्रगति योग्य बनाने के लिए प्रति व्यक्ति आय का एक न्यूनतम स्तर प्राप्त किया जाना आवश्यक है। लीबिन्स्टीन की आवश्यक प्रयास की विचारधारा को चित्र में प्रदर्शित किया गया है-

इस चित्र में,

II II = प्रोत्साहनवर्धक तत्व।

Id Id = बाधामूलक तत्व।

OA = जीवन-निर्वाह स्तर।

OA स्तर जीवन-निर्वाह स्तर पर IIII तथा IdId प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने वाली व प्रति व्यक्ति घटाने वाली शक्तियाँ बराबर हैं, यदि व्यक्ति आय बढ़ाने वाली शक्तियाँ सन्तुलन बिन्दु को 0A से बढ़ाकर OB कर देती हैं तो ऐसी स्थिति में प्रति व्यक्ति आय में DE वृद्धि होती है, किन्तु इस स्तर पर आय घटाने वाली शक्तियाँ HG; आय बढ़ाने वाली शक्तियाँ EG की तुलना में अधिक शक्तिशाली हैं जिसके कारण आय नीचे ही गिरेगी जो EHIJK से स्पष्ट किया गया है। यह प्रक्रिया उस समय तक चलती रह सकती है जब तक कि आय स्तर पुन: A बिन्दु पर नहीं पहुँच जाता। यदि विनियोजन की मात्रा में OB के बजाय 0C तक वृद्धि की जाए तो ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं होती। विनियोजन की मात्रा में OC तक वृद्धि की जाने की स्थिति में आय बढ़ाने वाली शक्तियाँ आय स्तर को MF बढ़ायेंगी और साथ-साथ इसमें स्थायी वृद्धि की शक्तियों का संचार करेंगी जो FNP से स्पष्ट किया गया है।

प्रो. हार्वे लीबिन्स्टीन के अनुसार, अर्द्धविकसित देशों के लिए गरीबी के दुश्चक्र से पीछा छुड़ाने का एकमात्र उपाय आवश्यक न्यूनतम प्रयास' ही है। आवश्यक न्यूनतम मात्रा के अनुरूप प्रति व्यक्ति आय या राष्ट्रीय आय अथवा विनियोजन की मात्रा में वृद्धि करने के उपरान्त ही दीर्घकालीन, स्थायी तथा स्वतः स्फूर्ति विकास की स्थिति सम्भव हो सकेगी। आवश्यक न्यूनतम मात्रा में विनियोजन किए जाने पर ही आय बढ़ाने वाली शक्तियाँ इतनी प्रबल हो जाती हैं कि स्थायी व स्वतः स्फूर्ति दशाओं का उत्पन्न होना अनिवार्य होता है। अनेक अर्द्ध-विकसित देश काफी विनियोजन करने के बाद भी गरीबी के इस दुश्चक्र पर नियन्त्रण प्राप्त करने में इसलिए सफल नहीं हो पाते कि वे एक बार में आवश्यक मात्रा में विनियोजन नहीं कर पाते। विनियोजन के लिए यह आवश्यक है कि वह उपयुक्त समय पर स्थायी रूप से होता रहे।

अन्य तत्व-जनसंख्या के अतिरिक्त, अन्य कारण भी हैं जो कि न्यूनतम आवश्यक प्रयास को आवश्यक बना देते हैं। ये तत्व हैं-साधनों की आन्तरिक मितव्ययिताएँ, बाह्य परस्पर-निर्भरता के कारण बाह्य अमितव्ययिताएँ, सांस्कृतिक एवं संस्थागत रुकावटें-यह अल्प-विकसित देशों में पायी जाती हैं। इन दोषों को दूर करने हेतु उसे न्यूनतम प्रयास के रूप में काफी धन व्यय करना होता है, परन्तु यह निर्वाह-आय-स्तर पर नहीं हो सकता, क्योंकि अल्प-विकसित देशों में निर्वाह-आय-स्तर पर चालू उपभोग हेतु ही व्यय किया जाता है।

अतः आवश्यक न्यूनतम प्रयास ही देश को विकास की ओर ले जा सकता है। इसके लिए प्रारम्भिक पूँजी विनियोग पर्याप्त होना चाहिए जो अस्थायी हानियों को पूरा कर सके तथा आय-वृद्धि की शक्तियों को उत्पन्न कर सके और विकास के लिए आधिक्य प्रदान कर सके। (In sum the initial stimulant has to be sufficiently large to cover temporary losses and generate income increasing forces and also to provide a surplus for growth.)

लीबिन्स्टीन का मत है कि यदि अर्द्धविकसित देशों के पास पर्याप्त आय के साधन न हों, तो इनमें विकास तब ही सम्भव है जब अर्थव्यवस्था के बाहर से पूँजी की व्यवस्था हो। यह विनियोजन विदेशी सहायता के द्वारा ही हो सकता है। यह विनियोजन पूरा एक साथ या भिन्न-भिन्न किस्तों में किया जा सकता है। लीबिन्स्टीन का विश्वास है कि विनियोजन का इन्जेक्शन इस प्रकार दिया जाय कि एक इन्जेक्शन का प्रभाव समाप्त होने पर दूसरा लगा दिया जाय। इस निरन्तरता के साथ विकास की गति स्थिर तथा सन्तुलित न्यूनतम आवश्यक प्रति रखी जा सकती है। इस तत्व को  चित्र के द्वारा प्रगट किया जा सकता है।

यदि पहली बार में ही विनियोजन इतना अधिक कर दिया जाय कि प्रति व्यक्ति आय OM हो जाय तो अर्थव्यवस्था आर्थिक दुश्चक्र के जाल से निकल सकती है और आर्थिक विकास निरन्तर चलता रहेगा। पर यदि एकदम विनियोजन की शक्ति न हो, तो फिर प्रति व्यक्ति आय Ob के बराबर करने योग्य विनियोजन किया जाना चाहिए और दूसरी किस्त में विनियोजन इतना बढ़ा देना चाहिए कि प्रति व्यक्ति आय cd से बढ़ जाय।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अर्द्ध-विकसित देशों में,(1) तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या को नियन्त्रित करने के लिए, (2) उत्पादन के साधनों की अविभाज्यता के कारण होने वाली आन्तरिक मितव्ययिताएँ व बाहरी परस्पर निर्भरता के कारण होने वाली बाह्य मितव्ययिताओं को प्राप्त करने के लिए तथा (3) सांस्कृतिक, सामाजिक और संस्थागत बाधाओं की उपस्थिति को दूर करने के लिए बड़ी मात्रा में आवश्यक न्यूनतम प्रयत्नों की आवश्यकता होती है।

विकास के अभिकर्ता (GrowthAgents)-लीबिन्स्टीन का मत है कि विकास; विकास के अभिकर्ता का कार्य है। विकास अभिकर्ता का अर्थ,"जनसंख्या में निहित उन क्षमताओं से है, जो विकास करती हैं। जब देश में उन क्षमताओं का परिमाणात्मक व गुणात्मक विकास होता है तो देश के इन विकास अभिकर्ताओं का विकास होता है।" विकास अभिकर्ता ही विकास में योग के देने वाली क्रियाओं को संचालित करते हैं। उपक्रमी, विनियोजक एवं नवप्रवर्तक आदि उल्लेखनीय विकास अभिकर्ता हैं। इनके कारण ही पूँजी-निर्माण, श्रम-शक्ति की कुशलता, ज्ञान और जोखिम की मात्रा में वृद्धि होती है।

प्रेरणाएँ (Incentives)-लीबिन्स्टीन के अनुसार, "वृद्धि-कारणों का विस्तार होगा या नहीं, यह बात ऐसी क्रियाओं के प्रत्याशित फल, वास्तविक परिणाम एवं प्रत्याशाओं, क्रियाओं तथा परिणामों की अन्योन्य क्रिया द्वारा प्रजनित अतिरिक्त विस्तार या संकुचन के प्रोत्साहनों पर निर्भर रहेगी।" लीबिन्स्टीन के अनुसार, अर्द्ध-विकसित देशों में दो प्रकार की प्रेरणाएँ होती हैं जो अग्र हैं-

(i) शून्य-राशि प्रेरणा (Zero-sum incentives)-अर्द्ध-विकसित देशों में उत्पादन में वितरण की अपेक्षा कम व्यक्ति लगे होते हैं। इस प्रकार की स्थिति में देश की वास्तविक आय नहीं बढ़ती है वरन् केवल भाग्यहीनों से धन भाग्यशाली साहसियों को हस्तान्तरित होता है। इस प्रकार शून्य-राशि प्रेरणाओं के व्यक्तिगत लाभ कम या अधिक हो सकते हैं पर सामाजिक लाभ नहीं होते।

(ii) धनात्मक-राशि प्रेरणाएँ (Positive-sum incentives)-ये प्रेरणाएँ विकास का आधार बनती हैं और राष्ट्रीय आय में इनसे वृद्धि होती है। ये कार्य उत्पादन-कार्य हैं जिनमें व्यापारिक तथा उत्पादन सम्बन्धी जोखिम बनी रहती है, पर जब देश में धनात्मक कार्य या जोखिम विकसित होते हैं, तब ही विकास सम्भव होता है।

अर्द्ध-विकसित देशों में शून्य-राशि प्रेरणाएँ कम होनी चाहिए और धनात्मक-राशि प्रेरणाएँ तथा कार्य अधिक हों तो विकास शीघ्र हो सकता है।

समीक्षात्मक मूल्यांकन (CRITICAL APPRAISAL)

मॉडल के गुण (Merits of Model)-अपनी पुस्तक के आमुख में लीबिन्स्टीन ने लिखा है कि उसका लक्ष्य नुस्खा बनाना न होकर व्याख्या करना एवं समझना है, परन्तु रोस्टोव की आत्मस्फूर्ति अवस्था की भाँति उसके क्रान्तिक-न्यूनतम प्रयत्न थीसिस ने अर्थशास्त्रियों तथा अल्पविकसित देशों में योजना बनाने वालों का ध्यान आकर्षित किया और इसे आर्थिक पिछड़ेपन का नुस्खा समझा जाता है। रोदान के 'प्रबल प्रयास' सिद्धान्त की अपेक्षा लीबिन्स्टीन थीसिस अधिक वास्तविक मानी जाती है क्योंकि अल्प-विकसित देशों में प्रबल प्रयास' सम्भव नहीं है।

'आवश्यक न्यूनतम प्रयास' बहुत कुछ रोडान के सिद्धान्त 'प्रबल प्रयास' से मिलता-जुलता है। जैसा कि स्पष्ट है, लीबिन्स्टीन का सिद्धान्त अधिक व्यावहारिक तथा वास्तविक प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि 'प्रबल प्रयास' या 'बड़े-धक्के' के सिद्धान्त को अपनाने के लिए एकदम पर्याप्त विनियोजन कम विकसित देशों में उपलब्ध नहीं हो सकता।

मॉडल की त्रुटियाँ (Defects of Model)

फिर भी, जैसा कि लीबिन्स्टीन ने स्वयं स्वीकार किया है, राजकोषीय, मौद्रिक नीति, बाह्य व्यापर व विदेशी सहायता आदि नीतियों के विकास पर प्रभाव का इस मॉडल में अध्ययन नहीं किया गया है। इस मॉडल की अन्य त्रुटियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) आय बढ़ने के साथ जनसंख्या का बढ़ना (Increase of population with income)- लीबिन्स्टीन का कथन है कि प्रारम्भ में आय की वृद्धि के साथ-साथ जनसंख्या बढ़ती है और एक सीमा के पश्चात् जनसंख्या आय की वृद्धि के साथ-साथ घट जाती है। पर वास्तव में पहली अवस्था में प्रति व्यक्ति आय के स्तर तथा वृद्धि में सम्बन्ध नहीं है। इसके विपरीत, चिकित्सा सुविधाओं में वृद्धि के कारण मृत्यु-दर में कमी होना है और जन्म-दर पूर्ववत् बनी रहती है। अत: जनसंख्या बढ़ती है। भारत इसका उदाहरण है।

(2) जन्म-दर में कमी तर्कपूर्ण नहीं है (Decrease in Birth rate not logical)-लीबिन्स्टीन का यह विश्वास भी है कि एक सीमा के पश्चात् जन्म-दर में कमी का श्रेय जो उन्होंने न्यूनतम आवश्यक स्तर पर प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को दिया है उचित तथा तर्कपूर्ण प्रतीत नहीं होता है। विकसित देशों-फ्रांस व जापान में यह बात सही हो सकती है। पर अर्द्ध-विकसित देशों में जन्म-दर में कमी करने के लिए देशवासियों की भावना को बदलना अत्यन्त आवश्यक होता है। यह बात वास्तविकता पर आधारित नहीं प्रतीत होती कि जन्म-दर में कमी होने से तथा प्रति व्यक्ति आय बढ़ने पर जनसंख्या की वृद्धि दर घट जाती है।

(3) राज्य प्रयासों की उपेक्षा (Neglect of state efforts)-लीबिन्स्टीन ने राज्य के प्रयासों की उपेक्षा की है जिनसे जन्म-दर कम हो सकती है।

(4) समय-तत्त्व की व्याख्या नहीं (No explanation of time element)-लीबिन्स्टीन ने समय-तत्व की कोई स्पष्ट व्याख्या अपने मॉडल में नहीं की है। अर्द्ध-विकसित देशों के लिए उनके दीर्घकालीन विकास के हित में कहाँ तक यह मॉडल सहायक होगा, यह शंकापूर्ण है।

(5) बन्द अर्थव्यवस्था (Closed economy)- लीबिन्स्टीन का सिद्धान्त आय, बचत तथा निवेश के स्तरों पर विदेशी पूँजी तथा अन्य बाह्य शक्ति के प्रभाव की व्याख्या नहीं करता। इस प्रकार यह बन्द अर्थव्यवस्था पर लागू होने के कारण अवास्तविक है।

(6) प्रति व्यक्ति आय तथा वृद्धि दर में जटिल सम्बन्ध (Critical relation between per capita income and growth rate)-प्रो. मिल का मत है कि प्रति व्यक्ति आय के स्तर एवं कुल आय में वृद्धि की दर के मध्य फलनात्मक सम्बन्ध अपेक्षाकृत अधिक जटिल है। इसके मुख्य कारण हैं-

(i) प्रति व्यक्ति आय का सम्बन्ध आय के वितरणात्मक आदर्श तथा बचतों को जुटाने में वित्तीय संस्थाओं की प्रभावशीलता पर निर्भर है।

(ii) विनियोग तथा परिणामी उत्पादन के मध्य सम्बन्ध को स्थिर पूँजी-उत्पादन अनुपात निर्धारित करता है।

(7) जनसंख्या वृद्धि-दर मरण-दर से सम्बन्धित (Population growth rate related to death rate)- यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि जनसंख्या की वृद्धि की दर एक बिन्दु तक बढ़ती है, परन्तु उसके बाद यह प्रति व्यक्ति आय का घटता फल होता है। प्रक्रिया का सम्बन्ध प्रति व्यक्ति आय के स्तर में वृद्धि से नहीं, बल्कि मरण-दर में कमी से है जिसका कारण चिकित्सा विज्ञान की उन्नति एवं अल्प-विकसित देशों में उसका व्यवहार व सार्वजनिक स्वास्थ्य-कार्यों में सुधार है।

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