आर्थिक
विकास के लिए उपयुक्त उपरिढाँचे में जिन तत्वों को शामिल किया जाता है वे है:
निरन्तर जल की आपूर्ति, शक्ति की आपूर्ति, रेल एवं सड़क परिवहन, डाक व तथा टेलीफोन
के रूप में दूर संचार सेवाओं की उपलब्धि, उत्पादन की बिक्री की उचित व्यवस्था,
कृषि उत्पाद और सहायक क्रियाओं के विघटन और गोदामों की व्यवस्था, डेयर और दूध
आपूर्ति समितियों के रूप में दूध बेचने की व्यवस्था, पशु चिकित्सा के लिए प्रबन्ध,
पशुपालन केन्द्र, औद्योगिक बस्तियाँ, बीज़ कच्चे माल, आदान एवं औजारों की आपूर्ति
को उचित व्यवस्था और अनेक ऐसी सेवाओं का प्रबन्ध जो कि भूमि जोतने का काम आरम्भ करने
से पहले से लेकर कृषि उत्पाद के बेचने तक चाहिए होती है। स्पष्ट है कि ऊपरिढांचा शब्द
का बहुत विस्तृत तथा व्यापक रूप में प्रयोग किया जा सकता
प्रस्तुत
अध्याय में ग्रामीण आधारभूत ढाँचे के अन्तर्गत ग्रामीण सड़के, ग्रामीण बाजार,
ग्रामीण विद्युतीकरण, ग्रामीण जल आपूर्ति, ग्रामीण शिक्षा एवं स्वास्थ्य का
विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।
(1) ग्रामीण सड़के (Rural Roads)
महत्व (Importance)
राष्ट्र
की आर्थिक समृद्धि और विकास में सड़कों का विशेष महत्व है। भारतीय ग्रामीण
अर्थव्यवस्था में तो इनका महत्व और भी अधिक है क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास
सड़कों के विकास में निहित है। कृषि आयोग के शब्दों में, "यातायात प्रणाली विपणन
का एक अभिन्न अंग है और आधुनिक व्यापारिक विकास सर्वत्र ही अच्छी सड़को के महत्व
में वृद्धि कर रहा है। अच्छी सड़के कृषि उत्पादन में वृद्धि और जीवन निर्वाह कृषि
को व्यापारिक कृषि द्वारा प्रतिस्थापित करके ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन स्तर को
ऊँचा उठाने का एक अचूक साधन है। यह बोझ ढोने वाले पशुओं के स्वास्थ्य पर अधिक भार
पड़ने से बचाता है, उनकी कुशलता में वृद्धि करता है, वाहनों की विसाई कम करता है
तथा समय बचाता है। यही नहीं निर्यात अथवा आन्तरिक उपयोग के पदार्थों के विधायन
करने वाले उद्योगों के विकास में भी अच्छी सड़के विशेष सहायक होती है। वे उद्योग
के विकेन्द्रीकरण को सुविधाजनक बनाती है तथा समाज की केन्द्रीयकरण के अनेक सामाजिक
आर्थिक दोषों से रक्षा करती है।" डा. रामनाथन ने स्पष्टतः कहा था,
"हमारी कृषि की शक्ति सड़कों में है।" ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सड़कों
के महत्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:
(1) कृषि क्षेत्र में वृद्धि (Increase in Cultivation Area): ग्रामीण
क्षेत्र में अच्छी सड़कों के निर्माण से कृषि क्षेत्र में वृद्धि
होगी। हमारे देश में ऐसी बहुत सी भूमि है। जिस पर सड़कों के अभाव में खेती नहीं की
जा सकती। इसका कारण यह है कि वहाँ तक पहुंचना और कृषि औजारों व उपकरणों को ले जाना
सम्भव नहीं है। भारतीय सड़क एवं यातायात विकास संस्थान द्वारा किये गये सर्वेक्षण
से पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में सड़के बनाने से हम
कृषि क्षेत्र में 25 प्रतिशत की वृद्धि कर सकते हैं।
(2) सधन कृषि में सहायक (Helpful in Intensive Cultivation): ग्रामीण
क्षेत्रों में अच्छी सड़को के निर्माण से गहन कृषि भी सम्भव होती
है क्योंकि अच्छी सड़कों द्वारा खाद, उर्वरक, उत्तम बीज और उन्नत कृषि यन्त्रों को
खेती तक पहुँचाना सरल होता है आगतों द्वारा भूमि का पूर्ण विदोहन किया जा सकता है।
परन्तु जैसे जैसे हम सड़कों से दूर होते जाते है, कृषि क्रिया को गहनता और क्षमता
घटती चली जाती है। अधिक दूर जाने पर गहन कृषि करना लाभप्रद नहीं रहता क्योंकि
यातायात व्यय बहुत अधिक बढ़ जाता है जिससे लागत व्यय भी बढ़ जाता है।
(3) कृषि के स्वरूप में परिवर्तन (Changes in Crop-pattern): सड़कों
के विकास से कृषि का स्वरूप भी बदला जा सकता है। जीवन निर्वाह
कृषि का प्रतिस्थापन व्यापारिक कृषि से किया जा सकता है। खाद्यान्न फसलों को बोने
के स्थान पर व्यापारिक फसलों को उगाया जा सकता है। इस प्रकार कृषि को एक लाभदायक
व्यवसाय बनाने में सड़के महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
(4) कृषि उपज के विपणन में सहायक (Hélpful in Marketing
Agricultural Produce): देश के उपज का अधिकांश भाग गाँवों में ही होता
है और उसे मण्डियों तक ले जाने के लिए अच्छी सड़कों की आवश्यकता
होती है। भारत में सड़कों की बहुत कमी है। यही कारण है कि गांवों में रहने वाले
कृषक को उसकी उपज का वास्तविक मूल्य नहीं मिल पाता उसे शहर की मण्डियों तक अपना
सामान बिक्री के लिये ले जाने में सड़कों की कमी के कारण बड़ी कठिनाई का सामना
करना पड़ता है। एक अनुमान के अनुसार अच्छी सड़कों के अभाव में अपनी उपज को गाँव से
24 से 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मण्डी तक ले जाने में कृषि उपज के मूल्य का
लगभग 1/5 भाग यातायात व्यय में । अत: किसान विवश होकर अपनी उपज को कम मूल्य पर ही
ग्रामों में बेच देता है। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का जाल बिछा दिया जाये
और सभी गाँव मण्डियों से जोड़ दिये जायें तो भारतीय कृषक अपनी उपज का उचित मूल्य
प्राप्त कर सकता है।
(5) पशुपालकों के लिए महत्व (Helpful in Cattle Rearing): पशुपालकों
के लिये भी सड़कों का भारी महत्व है। अच्छी नस्ल के पशुओं को
सड़क परिवहन द्वारा शीघ्रता से ले जाया जा सकता है तथा पशु मेलों व प्रदर्शनियों
में भाग लिया जा सकता है। यांत्रिक यातायात के अभाव में उन्हें अपने पशु पैदल ले
जाने पड़ते है जिससे निदिष्ठ स्थान पर पहुँचाने में अधिक समय लगता है। रास्ते में
रात्रि में इधर उधर रूकना पड़ता है जहाँ पशुओं को अच्छा चारा उपलब्ध नहीं होता।
अतः पशु थक जाते हैं तथा हार जाते हैं और उनके मूल्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(6) कृषि यन्त्रीकरण में सहायक (Helpful in Mechanisation of
Agriculture): कृषि का यन्त्रीकरण करने के लिए यह आवश्यक है कि ग्रामीण
क्षेत्रों में पक्की सड़कें हो क्योंकि भारी कृषि यन्त्र
(ट्रेक्टर, प्रेशर आदि) ले जाने के लिये कच्ची सड़के व दलदली भूमि उपयुक्त नहीं
होती।
(7) ग्रामीणों की आवश्यकता की वस्तुओं की पूर्ति में सहायक (Supply
of Commoditics of Rural Inhabitants): ग्रामीणों
को अपने उपयोग की अनेक वस्तुओं को खरीदने के लिये कस्बों या शहरों में जाना पड़ता
है। दूसरे ग्रामीण जन मुकदमेबाजी के शौकीन होते है। अतः मुकदमें की सुनवाई के लिये
शहरों में स्थित अदालतों में भी उन्हें जाना पड़ता है। अतः यह आवश्यक है कि
ग्रामीण क्षेत्रों को शहरों से मिलाने वाली सड़कों का विस्तार किया जाये।
(8) ग्रामीण दृष्टिकोण को विस्तृत करने में सहायक (Broders Rural
Approach): वह समाज जो सांस्कृतिक दृष्टिकोण से पिछड़ा हुआ है उन्हें
प्रगतिशील समाज के व्यक्तियों से सम्बन्ध रखना आवश्यक होता है।
अतः प्रगतिशील समाज से सम्बन्ध रखने के लिये परिवहन सुविधाओं का विकास होना
चाहिये। सम्पर्क में आने पर लोग एक दूसरे से विचार विमर्श कर सकेंगे जिससे उनकी
सामाजिक कुरीतियाँ दूर करने तथा विस्तृत दृष्टिकोण बनाने में सहायता मिलेगी।
सड़कों का विकास रूढ़िवादिता और अन्धविश्वास को समाप्त करने में भी सहायक होगा।
(9) ग्रमीण धन्धों के विकास में सहायक (Develops Rural
Industries): ग्रामीण उद्योगों के विकास में भी
सड़कों का महत्व उल्लेखनीय है। कारीगर लोग सड़कों द्वारा कच्चा माल शहरों से
ग्रामों में ला सकेंगें तथा अपना निर्मित माल मण्डियों तथा शहरों तक पहुँचा
सकेंगे।
(10) विदेशी व्यापार में सहायक (Increases in Foreign Trade): निर्यात
किया हुआ माल, जो बन्दरगाहों पर विदेशों से आता है, शहरों तक
लाने तथा फिर ग्रामों में पहुँचाने के लिये सड़कों की आवश्यकता होती है। इसी
प्रकार जो माल निर्यात किया जाता है उसे ग्रामों से शहरों तक तथा शहरों से
बन्दरगाहों तक पहुचाने के लिये सड़के ही आवश्यक भूमिका निभाती है।
(11) ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुननिर्माण में सहायक (Rebuilds
Rural Economy): ग्रामीण पुनर्निर्माण की विभिन्न योजनाओं की
सफलता सड़कों के विकास पर निर्भर है। सड़के ऐसी सुदृढ़ धुरी के
समान है जिसके चारों और खेती, काश्तकार तथा सम्पूर्ण ग्रामीण जीवन चक्कर काटता है।
अच्छी सड़कों के निर्माण से किसान मिश्रित खेती को अपना सकता है। वह सब्जी, फल,
दूध, अण्डे तथा मक्खन आदि का उत्पादन करके उन्हें निकटतम मण्डियों में ले जाकर
शीघ्र ऊंची कीमत पर बेचकर लाभ कमा सकता है। इस अतिरिक्त आय से वह अपनी खेती में
उत्पादन की नवीन विधियाँ अपना सकता है और अपने रहन सहन के स्तर में सुधार कर सकता
है। इस प्रकार सड़के सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र की उन्नति के विकास की कुंजी है। ये
रक्तवाहिनी धमनियों और शिराओं के समान है, जिनके द्वारा प्रत्येक सुधार प्रवाहित
होता है। अत: ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सड़कों का बड़ा महत्व है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवहन के साधन (Means of Transport in Rural Economy)
ग्रामीण
अर्थव्यवस्था में परिवहन का प्रमुख साधन सड़के एवं सड़क यातायात ही है। दूर अंदाज
व भारी आबादी वाले क्षेत्रों में सड़कें ही जा सकती है तथा किसी अन्य साधन की
कल्पना नहीं की जा सकती। रेलें केवल गांवों को बड़े शहरों से मिला सकती है लेकिन उसके
लिए भी यह आवश्यक है कि गांवों को रेल स्टेशन से मिलाने वाली सड़के हो। अत: ग्रामीण
अर्थव्यवस्था में यातायात का प्रमुख साधन सड़के ही है।
जब
हम सड़कों की बात करते हैं तो भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हमारा ध्यान पशुओं
द्वारा चलायी जाने वाली गाड़ियों की तरफ चला जाता है। निःसन्देह पिछले कुछ वर्षों
के दौरान इस दिशा में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए है। डीजल और पेट्रोल से चलने वाली विभिन्न
तरह की गाड़ियों का अद्वितीय विकास हुआ है। गांवों में इस तरह की व्यवस्था का पाया
जाना कोई विशेष आश्चर्य की बात नहीं समझी जाती है। किन्तु फिर भी कुल मिलाकर ग्रामीण
अर्थव्यवस्था में पशु गाड़ी और विशेषकर बैल गाड़ी का प्रभुत्व है।
ग्रामीण
सड़क जुड़ाव भारत में केवल ग्रामीण विकास का ही प्रमुख तत्व नहीं वरन् ग्रामीण
सड़क निर्माण कार्यक्रम को भारत में एक प्रमुख/प्रभावशाली निर्धनता कम करने वाले कार्यक्रम
के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों
के माध्यम से वर्षों से प्रयास किये जाने के बावजूद तथा यहाँ तक की स्वतन्त्रता के
पश्चात् नियोजित आर्थिक विकास के पाँच दशक व्यतीत हो जाने के बावजूद आज भी भारत के
40 प्रतिशत गाँव उपयुक्त सड़क जुड़ाव की सुविधा से वंचित है।
इस
तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि ग्रामीण सड़कों का आर्थिक संवृद्धि तथा ग्रामीण
निर्धनता उन्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका है। पूर्व सरकार तथा वर्तमान सरकार द्वारा
अनेक मंचों से सरकार द्वारा ग्रमीण क्षेत्रों को सभी मौसम में अनुकूल सड़कों
द्वारा जोड़ने की घोषणाएँ कि गयी है। ग्रामीण सड़क निर्माण कार्यक्रम को
प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना के एक महत्वपूर्ण संगठक के रूप में घोषणा कि गयी है।
इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री ग्राम सड़क योजना 25 दिसम्बर 2000 को प्रारम्भ कि
गयी। इस योजना का संक्षिप्त विवरण तथा प्रगति निम्न प्रकार है।
(2) ग्रामीण बाजार (Rural Market)
यह
सर्वमान्य है कि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की विकास प्रक्रिया के दौरान ग्रामीण
बाजारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। विकास प्रक्रिया की हाल की कुछ
प्रवृत्तियों से ही ग्रामीण बाजार के विकास को बल मिला है। ये प्रवृत्तियां हैं :
(1) जनसंख्या की ऊँची वृद्धि दर तथा ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की
जनसंख्या का प्रवसन, (2) ग्रामीण क्षेत्रों में हरित तथा श्वेत क्रान्ति का होना,
(3) ग्रामीण एवं शहरी आय के स्तर में वृद्धि, (4) आधुनिक टेक्नोलॉजी के
अपनाए जाने के परिणामस्वरूप बिक्री योग्य कृषिगत अतिरेक की मात्रा में वृद्धि, तथा
(5) सभ्य जीवन के लिए उपलब्ध सविधाओं तथा सेवाओं की जानकारी में विस्तार।
ग्रामीण
क्षेत्रों में परम्परागत वस्तुओं जैसे खाद्यान्न और दस्तकारियों के वितरण का विस्तार
करने की संभावनाएं बढ़ी है। इसी प्रकार सुधरे हुए कृषि आदानों की व्यवस्था करने की
भी आवश्यकता है। हरित क्रान्ति, श्वेत क्रान्ति, पशुपालन आदि में हुए सुधारों और विकास
के परिणामस्वरूप रोजगार के अवसरों तथा आय के स्तर में निरन्तर विस्तार हो रहा है। परिणामस्वरूप
विभिन्न प्रकार की उत्पादक तथा उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में भी निरन्तर वृद्धि हो
रही है। इससे ग्रामीण बाजार का आकार विस्तृत होता जा रहा है और विकास कार्यक्रम में
इसकी भूमिका बढ़ती जा रही है।
ग्रामीण बाजार का आकार (Size of Rural Market)
ग्रामीण
बाजार के आकार को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारण निम्नलिखित है:
(1) उपभोक्ता वस्तुओं तथा कृषि आदानों की माँग (Demand for
Consumer goods and Agricultural inputs): विभिन्न कृषि आदानों तथा उपकरणों
की मांग में वृद्धि दर इस प्रकार थी, उर्वरक 10 प्रतिशत, कीटाणु नाशक दवाइयाँ 12 प्रतिशत,
उन्नत बीज 11 प्रतिशत, ट्रेक्टर 15 प्रतिशत, तथा पम्प एवं नलकुप 11 प्रतिशत। हिन्दुस्तान
लीवर द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि जिन किसानों से बात की गई थी उनमें
से 90 प्रतिशत किसान कृषि की विकसित नई से नई रीतियों तथा तकनीकों को अपनाने के लिए
तैयार थे, जबकि 65 से 70 प्रतिशत नई टेक्नोलॉजी से सम्बन्धित जोखिम भी सहन करने को
तैयार थे। ऐसे वातावरण में कृषि आदानों की माँग बढ़ेगी यही आशा करनी चाहिए।
(2) ग्रामीण जनसंख्या के पास उपलब्ध क्रय शक्ति (Purchasing Power
of the Rural Population): ग्रामीण जनसंख्या के पास उपलब्ध क्रय शक्ति
निम्न दो कारकों पर निर्भर करती है: (1) बिक्री योग्य अतिरेक, एवं (2) कृषि पदार्थों
की कीमतें। किए गए सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हुआ है कि बिक्री योग्य अतिरेक में 1 प्रतिशत
की वृद्धि के परिणामस्वरूप निर्मित उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में 0.7 प्रतिशत की दर
से वृद्धि हो जाती है। कृषि के विकास के साथ साथ यह आशा की जानी चाहिए कि बिक्री योग्य
अतिरेक में वृद्धि होगी और उसके साथ ही निर्मित उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में, कृषि
आदानों की मांग उनकी कीमत तथा उत्पादों की बिक्री से प्राप्त होने वाली आय पर निर्भर
करती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन आदानों की मांग बढ़ती जा रही है। आने वाले वर्षों
में इसकी मांग में वृद्धि की दर तेज हो जाने के अनुमान हैं जिससे ग्रामीण बाजारों का
विस्तार होगा।
(3) जनसंख्या का प्रवसन (Migration of Population): रोजगार
की खोज में बड़ी संख्या में ग्रामीण युवक शहरों और विदेशों की ओर जाते रहे हैं। अपने
परिवार को आवश्यकताओं के लिए यह अपनी बचत गाँवों में भेजते रहते हैं। राष्ट्रीय स्तर
पर तो यह प्रवाह और भी महत्वपूर्ण होगा। परिणामतः निर्मित उपभोक्ता वस्तुओं की मांग
बढ़ती जाती है।
(4) ग्रामीण विकास (Rural Development): इधर
पिछले कुछ वर्षों के दौरान ग्रामीण विकास के अनेक कार्यक्रम आरम्भ किये गए हैं। इन
कार्यक्रमों से ग्रामीण क्षेत्रों में अतिरिक्त आय का प्रवाह हो रहा है। फलस्वरूप उपभोक्ता
वस्तुओं की माँग में वृद्धि अपेक्षित है।
बाधाएं (Constraints)
ग्रामीण
बाजार के समुचित विकास में कुछ बाधाएँ सामने आई हैं जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं:
(1)
वितरण की ऊँची लागतें
(2)
बाजार के विस्तार पर होने वाले आरम्भिक खर्च की बड़ी राशि.
(3)
वित्तीय सहायता के अभाव में खुदरा व्यापारियों द्वारा वस्तुओं के बड़े स्टॉक अपने पास
रखने की अयोग्यता,
(4)
सड़क गोदाम वेयरहाऊस आदि उपरिढाँचे का अभाव। ग्रामीण बाजार के विकास के लिए उपरोक्त
बाधाओं को दूर करना होगा।
भारत में कृषि विपणन प्रणाली (System of Agricultural Marketing in
India)
भारत
में कृषि विपणन प्रणाली की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया
जा सकता है:
(I)
कृषि बाजारों के रूप, (II) बिक्री की विधियाँ, तथा (III) विपणन एजेन्सियाँ।
(I) कृषि बाजारों के रूप (Types of Agricultural Markets): भारत
में प्रमुख रूप से निम्नलिखित कृषि बाजार पाये जाते हैं :
(1) प्राथमिक अथवा स्थानीय बाजार (Primary or Local Markets): प्राथमिक
अथवा स्थानीय बाजार जिनको मन्डी के नाम से भी जाना जाता है किसी गाँव के नजदीक सप्ताह
में एक या दो बार लगाए जाते हैं। यह प्रत्येक बाजार औसतन 8 से 16 किलोमीटर धैरे के
क्षेत्र में कार्यशील रहता है। भारत में अधिकांश किसान इन्हीं बाजारों में अपनी उपज
को बेचते हैं। कुल बिक्री योग्य अधिशेष का 50 प्रतिशत से भी अधिक भाग इन्हीं बाजारों
में बेचा जाता है। इन बाजरों का संचालन ग्राम पंचायतों के द्वारा किया जाता है, जोकि
दुकानदारों से बिक्री के स्थान के लिए कुछ किराया भी वसूल करती है। इन बाजारों में
बहुत अधिक सौदे-बाजी होती है। गाँव का महाजन इन बाजारों में बिचौलिये का काम करता
(2) सहायक या गौण बाजार (Secondary Markets): इनको
थोक बाज़ार या मन्डिया कहा जाता है। ये बाजार प्रकृति में स्थायी होते हैं, तथा इनमें
वर्ष भर कृषि पदार्थों के सौदे किये जाते हैं। उपज का बड़ी मात्रा में क्रय विक्रय
किया जाता है, और विभिन्न सेवाओं को प्रदान करने के लिए विशेष संचालकों की आवश्यकता
होती है। ये बाजार संग्रहण, बैंकिग सेवाएँ, आदि की सुविधाएँ प्रदान करते इन बाजारों
को देश के शेष भागों से. जोड़ने के लिए सड़क और रेलों की सुविधाएं उपलब्ध होती है।
इन बाजारों में बहुत से मध्यस्थ या बिचौलिये कार्य करते है।
(3) अन्तिम बाजार (Terminal Marketso: ये
बाजार वस्तुओं को अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का कार्य करते हैं। ये बाजार कच्चे
माल को विधायन केन्द्रों तक पहुचाने का भी कार्य करते हैं। इस तरह के बाजार बड़े शहरों
या बन्दरगाहों के समीप स्थित होते हैं । इन बाजारों का कार्य क्षेत्र एक राज्य या उससे
भी अधिक क्षेत्र में फैला होता है।
(4) मेले (Fairs): भारत में कृषि उपज के विपणन
के लिए धार्मिक स्थानों पर धार्मिक अवसरों पर लगाए गए मेंलों का महत्वपूर्ण स्थान है।
ये मेले वर्ष भर में एक बार लगाए जाते हैं और इसका संचालन जिला अधिकारियों, स्थानीय
संस्थाओं अथवा निजी एजेन्सियों के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार के मेले बिहार, उड़ीसा,
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र पश्चिमी बंगाल और राजस्थान में बहुत लोकप्रिय है।
(5) नियमित बाजार (Regulated Markets): इस
प्रकार के बाजारों को स्थापना सरकार के द्वारा की जाती है। इन बाजारों का उद्देश्य
प्राथमिक और गौण बाजार में व्यापारियों की कपटपूर्ण गतिविधियों तथा कार्यवाहियों को
रोकना है। इन बाजारों में सरकार के द्वारा निर्धारित विपणन के नियमों के अनुसार ही
विपणन किया जाता 11951 में भारत में नियन्त्रित बाजारों की संख्या 200 थी। द्वितीय
योजना के अन्त अर्थात 1961 के अन्त में भारत में 1000 नियन्त्रित बाजार थे। इन बाजारों
की संख्या में लगातार वृद्धि के फलस्वरूप मार्च 1998 तक भारत में 7060 कृषि बाजारों
को नियन्त्रित किया जा चुका था।
(6) सहकारी विपणन (Co-operative Marketing): ये
बाजार सहकारिता के सिद्धान्त के आधार पर कार्य करते हैं। सहकारी विपणन समिति कृषि पदार्थों
को सीधे उपभोक्ताओं तक ले जा सकती है, और इस प्रकार मध्यस्थों और बिचौलियों की बड़ी
श्रृखंला को समाप्त कर देती है। कृषि वस्तुओं का सहकारिता के माध्यम से विक्रय में
विगत वर्षों के दौरान महत्वपूर्ण वृद्धि हुयी है। उदाहरण के लिए सहकारी विपणन समितियों
द्वारा 1960-61 में 169 करोड़ रूपये के कृषि पदार्थों का विपणन किया गया, 1980-81 में
यह बढ़कर 1950 करोड़ रूपये से अधिक का हो गया तथा 1995-96 में बढ़कर 11,500 करोड़ रूपये
हो गया।
(7) राज्य व्यापार (State Trading): भारत में राज्य द्वारा
कृषि पदार्थों का विपणन भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किए हुए है। राज्य की एजेन्सियाँ
जैसे भारतीय खाद्य निगम, फसल तैयार होने के समय ग्रामीण क्षेत्रों या मण्डियों के निकट
अपने विशेष केन्द्र स्थापित करता है, जहाँ सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों पर उपज को
खरीदा जा सकता है।
(II) बिक्री की विधियाँ (Methods of Sale): कृषि
पदार्थों का विपणन निम्नलिखित विधियों में से किसी एक विधि के रूप में किया जा सकता
है:
(1) आवरण के अन्दर अथवा हाट प्रणाली (Under Cover or the Hatra
System):
इस प्रणाली के अन्तर्गत विक्रयकर्ता के एजेन्ट की अंगुली को किसी कपडे के आवरण में
दबाकर अथवा मरोड़ कर सौदे किए जाते हैं। कृषक को उस समय तक इसके बारे में नहीं बताया
जाता, जब तक कि सौदा पक्का नहीं हो जाता।
(2) खुली नीलामी प्रणाली (Open Auction System): इस
प्रणाली के अन्तर्गत एजेन्ट उपज की बोली को आमंत्रित करता है और सबसे अधिक बोली लगाने
वाले व्यक्ति को उपज बेच दी जाती है।
(3)
धड़ा प्रणाली (Dara System): इसके अन्तर्गत अनाज के विभिन्न मात्रा के ढेर लगा दिए
जाते हैं और फिर बिना तौल किये ही समान दरों पर इनको बेच दिया जाता है।
(4) मोघूम बिक्री (Moghum Sale): इस प्रणाली में बिना
किसी मूल्य को प्रकट किए ही क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच सहमति के आधार पर जबानी
सौदे किए जाते हैं, तथा यह आशा की जाती है कि क्रेता प्रचलित कीमतों के अनुसार भुगतान
करेगा।
(5) भाव बताकर अथवा निजी समझौते के द्वारा (By Quoting or by
Private Agreement): विक्रेता अपनी उपज के लिए प्रस्तावित भाव आमंत्रित
करता है और अधिकतम भाव बताने वाले को उपज देता है।
(6) सरकारी खरीद (Government Purchase): सहकारी
एजेन्सिया कृषि की विभिन्न उपजों के निर्दिष्ट मूल्य निर्धारित करती हैं। उपज का श्रेणीकरण
और तौल के उपरान्त ही इसे खरीदा जाता है। इसी विधि को सहकारी बाजारों और नियमित बाजारों
में अपनाया जाता है।
3. विपणन की एजेन्सियों (Marketing Agencies): कृषि
उपज के विपणन में संलग्न विभिन्न एजेन्सियों को प्रमुख रूप से दो भागों में वर्गीकृत
किया जा सकता है: (1) सरकारी तथा अर्द्ध निजी एजेन्सियाँ, जैसे सहकारी समितियाँ, तथा
(2) निजी एजेन्सियां । सरकारी और निजी एजेन्सियो दोनों में ही बिचौलिये विद्यमान होते
हैं। इनमें प्रमुख बिचौलिये निम्नलिखित है : (क) सौदागर, यह उपज का सामान्य रूप से
सबसे महत्वपूर्ण क्रेता होता है, जोकि स्वयं ही सौदे पक्के करता है। (ख) भ्रमणशील व्यापारी,
जोकि विभिन्न स्थानों या गाँवों का भ्रमण करता है, उपज एकत्रित करता है और निकटतम बाजार
में इसे बिक्री के लिए ले जाता है। (ग) तौल करने वाला व्यक्ति गाँवों से उपज के नमूने
एकत्रित करता है और इन्हें शहरों या मण्डियों में व्यापारियों के पास | जाता है। (घ)
एजेन्ट जो उपज को एकत्रित और वितरित करते हैं।
कृषि विपणन के दोष (Defects of Agricultural Marketing)
भारत
में विद्यमान कृषि विपणन प्रणाली में प्रमुख रूप से निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं:
(1) बाधित बिक्री (Forced Sales): भारत में किसान अपनी
दुर्बल आर्थिक स्थिति के कारण फसल तैयार होने के बाद उसे अधिक समय तक अपने पास संग्रहित
नहीं कर सकता। उसे फसल को तुरन्त इसलिए बेचना पड़ता है क्योंकि उसने विभिन्न कार्यों
के लिए ऋण लिए होते हैं, और उनका भुगतान करना आवश्यक होता है। श्री एस. एस. शिवकुमार
ने मद्रास के दो गांवों में ऋणों का अध्ययन करके इसके निम्न कारणों पर प्रकाश डाला
है: (अ) उपभोग के लिए ऋण, (ब) किराये के श्रमिकों की मजदूरी के भुगतान के लिए प्राप्त
किये गये ऋण (स) रासायनिक उर्वरकों को बाधित क्रय के लिए ऋण, (द) पहले वर्षों में शादी-ब्याह,
उपभोग, तथा पशु खरीदने के लिए ऋण आदि। कृषक इन ऋणों के बोझ से इतने अधिक दबे होते हैं
कि विक्रय अतिरेक न होने पर भी उनको अपनी फसल का एक बड़ा भाग तत्काल किसी भी कीमत पर
बेचना पड़ता है। ज्यादातर ये फसलें गाँवों के प्राथमिक बाजारों में या स्थानीय महाजनों
को बेची जाती है। कुछ परिस्थितियों में महाजन खड़ी फसलों की प्रतिभूति पर ऋण प्रदान
करते है, और इस प्रकार फसल को सर्वप्रथम खरीदने का अधिकार रखते हैं। ऋण से दबे किसान
को अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।
संकटपूर्ण
बिक्री का एक अन्य रूप भी दृष्टिगत होता है। नकद मूल्य प्राप्त करने के लिए किसान फसल
तैयार होने के तुरन्त बाद उपज को लेकर सहायक या गौण बाजारों में पहुंच जाते हैं। एक
साथ बाजार में बहुत सारे किसानों की उपस्थिति से सहज उपज की पूर्ति बढ़ जाती है और
इसके मूल्य कम हो जाते हैं। संक्षेप में, किसान की कठिन आर्थिक स्थिति ही इस संकट की
स्थिति के लिए जिम्मेदार है। ग्रामीण साख सर्वे समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया है
कि सामान्यतया उत्पादक अपनी उपज को प्रतिकूल स्थानों और प्रतिकूल शर्तों पर सौदे करने
पड़ते हैं।
2. अपर्याप्त संग्रह क्षमता (Inadequate Storage Capacity): जिन
क्षेत्रों में किसानों की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी होती है, और वे उस समय तक
उपज को अपने पास रोककर रख सकते हैं, जब तक कि उन्हें उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो जाता,
वे उपज को संग्रहित करने में अनेक कठिनाइयाँ अनुभव करते हैं। किसानों के पास खत्तियों,
कच्चे गोदाम, कोठियाँ, आदि ही उपज के संग्रह के लिए उपलब्ध होती हैं, और इनमें उपज
को अधिक समय तक बिना किसी क्षति के संग्रह करना सम्भव नहीं है। संग्रह के उपरोक्त स्थानों
में सीलन, धुन, कीड़े, चुहे, आदि की उपस्थिति के कारण उपज की बड़ी मात्रा में क्षति
होती है। इन क्षतियों के बारे में विभिन्न अनुमान लगाये गये हैं। खाद्यान्न निरीक्षण
समिति के अनुसार ये क्षतियाँ कुल उपज का 15 प्रतिशत, कीमत उपसमिति के अनुसार 22.6 प्रतिशत,
तथा डॉ. बलजीत सिंह के अनुसार यह 5 प्रतिशत तक होती है। यदि इस क्षति' को 5 प्रतिशत
मान लिया जाये तो प्रतिवर्ष होने वाली हानि लगभग 400 करोड़ रूपये होगी। स्पष्ट है कि
इस क्षति से सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को हानि होती है, और किसान के लिए तो यह संकट का
कारण बन जाती है।
3. यातायात के मँहगे साधन (Expensive Means of Transportation): संकट
पूर्ण बिक्री का एक अन्य कारण यह भी है कि किसानों को पर्याप्त मात्रा में और समय पर
उपयुक्त यातायात के साधन उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। किसान अपनी उपज को बाजार तक ले जाने
के लिए प्रमुख रूप से बैलगाड़ी पर ही आश्रित रहता है, यद्यपि अब इनमें टायर लग गये
हैं। यद्यपि योजनाकाल में यातायात के यन्त्रीकरण साधनों का पर्याप्त मात्रा में विकास
हुआ है, लेकिन ये इतने मँहगे है, कि छोटे किसान इनकी सेवाओं का लाभ प्राप्त करने में
असमर्थ है। कृषि उपज के मूल्यों में माल-भाड़े की मात्रा पहले से बहुत अधिक है। इस
सम्बन्ध "Policy Committee on Agriculture, Forestry and Fisheries" की विपणन
उप समिति का यह अनुमान है कि कृषि उपज के मूल्यों पर माल-भाड़े का भार गेहूं की उपज
पर 2.1 से 21.7 प्रतिशत, चावल पर 0.7 से 13.2 प्रतिशत, अलसी पर 1.2 से 15.4 प्रतिशत,
तथा आलू पर लगभग 6.2 प्रतिशत है। ऊँची माल-ढुलाई लागत के कारण किसान अपनी उपज को बाजार
तक ले जाने में असमर्थ रहते है।
4. फालतू मध्यस्थ एवं अनाचार (Superfluous Middlemen and
Malpractices): कृषि बाजारों में विद्यमान मध्यस्थ गरीब किसानों
का शोषण करके समृद्ध हो रहे है। ये मध्यस्थ कृषि उपज के एकत्रीकरण से लेकर वितरण की
विभिन्न अवस्थाओं में मौजूद रहते हैं। मध्यस्थों की लम्बी श्रृखंला के कारण उपभोक्ताओं
से प्राप्त होने वाले मूल्य का एक छोटा भाग ही किसानों को उपलब्ध होता है, अधिकांश
लाभ मध्यस्थों के द्वारा हड़प लिये जाते है। मध्यस्थों के द्वारा विभिन्न प्रकार के
अनाचार किये जाते हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित है: (अ) तराजू और बाटों को विक्रेताओं
के विपक्ष में घोखेबाजी से प्रयुक्त किया जाता है; (ब) धमार्थ खाते, आदि के लिए मनमानी
कटौतियों की जाती है (स) कीमतों का निर्धारण किसी आवरण के अन्तर्गत ही किया जाता है।
प्रायः मध्यस्थ धोखेबाजी से किसानों का शोषण करते हैं और इसीलिए किसान इन बाजारों में
बिक्री के लिए अपनी उपज को लाने से कतराते हैं।
5.अवैध कटौतियाँ एवं बहुरूपीय शुल्क (Unauthorised Deductions and
Multiplicity of Charges): किसानों को उपज की बिक्री के लिए विभिन्न प्रकार
के कई विपणन शुल्कों का भुगतान करना पड़ता है। ये शुल्क प्रत्येक बाजार के लिए भिन्न
होते है तथा यह भी अस्पष्ट होता है कि कौन से शुल्क क्रेता को और कौन से विक्रेता को
देने हैं कुछ बाजारों में बाजार शुल्क किस्म के रूप में प्राप्त की जाती है। इस सन्दर्भ
में, “Report on Marketing of Wheat in India” में बताया गया है कि केवल एजेन्ट ही
नहीं अपितु मुनिम, चपरासी, जमादार, पानी पिलाने वाला, एजेन्ट तथा रसोइयां, आदि भिखारियों
की तरह किसान के चारों और जमघट लगा देते हैं। उसकी उपज में से हिस्से को अपना अधिकार
समझते है। ये विभिन्न प्रकार के बाजार शुल्क किसान के लिए खर्चे होते हैं, जिसका अर्थ
यह है कि उसकी उपज का कुल मूल्य कम हो जाता है।
6.श्रेणीकरण एवं प्रमापीकरण का अभाव (Absence of Grading and
Standardisation): किसान के लिए कृषि उपज की बिक्री में एक अन्य
कठिनाई उपयुक्त श्रेणीकरण एवं प्रमापीकरण के अभाव के कारण उपस्थित होती है। इस स्थिति
का लाभ बाजार में उपस्थित बेईमान व्यापारी, एजेन्ट और तौल करने वाले उठाते हैं। वे
किसी भी उपज को निकृष्ट घोषित करके उसकी कम कीमत आँक सकते है। यह प्रथा निजी और सरकारी
दोनो ही एजेन्सियों में विद्यमान होती है। एक अध्ययन में यह बताया गया है कि किसान
अक्सर बिक्री से सम्बन्धित अधिकारियों के खिलाफ यह शिकायत करते हैं कि वे टाट की नकृष्ट
किस्म, धूल मिट्टी या चावल में अन्य मिलावटों का बहाना करके अनावश्यक कटौतियाँ करते
है। इसीलिए किसान सरकारी एजेन्सियों की बजाय निजी एजेन्सियों को अपनी उपज बेचना पसन्द
करते है।
7. बाजार में निरीक्षण का अभाव (Lack of Market Intelligence): जब
तक एक किसान को बाजार की अवस्था का पूर्ण ज्ञान न हो, सामान्य रूप से विपणन प्रणाली
में धोखा खा सकता है। जब कृषक को उपज की माँग और पूर्ति की पूर्ण जानकारी नहीं होती
और वह उपज को बाजार में बिक्री के लिए ले जाता है, तो उसे वहां एक विरोध से परिपूर्ण
वातावरण का सामना करना पड़ता है। वह प्रायः मध्यस्थ के द्वारा प्रदान की गई सूचना पर
ही विश्वास करता है। यह सूचना प्रायः मन्डी या बाजार में स्थित व्यापारी के पक्ष में
होती है, जिसके परिणामस्वरूप किसान को अपनी उपज की उचित कीमत प्राप्त नहीं होती है।
उपरोक्त
दोषों के अलावा सबसे बड़ी कमी यह है कि कृषक वर्ग पूर्णतया असंगठित है। छोटे किसान
को एक ऐसे वातावरण में अकेले ही जुझना पड़ता है जोकि प्रणाली में एक ओर बड़े और अमीर
व्यापरी है, जोकि संगठित है, और दूसरी तरफ गरीब एवं असंगठित किसान है, जिनमें होने
वाले संघर्ष में बड़े व्यापारियों की ही विजय होती है। स्पष्ट है कि कृषि विपणन प्रणाली
किसानों के हितों के संरक्षण में असमर्थ है, और इसी कारण उन्हें परिश्रम से तैयार की
गई उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता।
कृषि विपणन प्रणाली में सुधार के लिए सुझाव एवं सरकारी उपाय
(Suggestions and Government Steps to Improve Agricultural Marketing System)
यह
एक निर्विवाद सत्य है कि कृषि एवं कृषकों की दशा सुधारने के लिए यह बहुत आवश्यक है
कि कृषि पदार्थों की विपणन प्रणाली काफी कुशल, न्यायपूर्ण एवं विकसित होनी चाहिए। उपभोक्ताओं
से प्रापत किये गये कृषि उपज के मूल्य तथा किसान को प्राप्त होने वाले मूल्य का अन्तर
न्यूनतम होना चाहिए। इस सन्दर्भ में जो सुझाव दिये गये हैं और सरकार ने सुधार के लिए
जो उपाय अपनाये हैं उनका ब्यौरा निम्न प्रकार दिया जा सकता है:
1. नियमित बाजारों की स्थापना (Establishment of Regulated
Markets): जैसा कि हम पहले भी स्पष्ट कर चुके है कि अधिकांश बाजारों
में प्रचलित अनुपयुक्त क्रियाओं के कारण उपभोक्ताओं के द्वारा दी गई कीमत का एक बड़ा
भाग व्यापारियों के पास चला जाता है, जिससे किसानों को हानि होती है, और संगठित व्यापारी
वर्ग को लाभ होता है। नियमित बाजारों की स्थापना के बाद इन क्रियाओं को अवैध घोषित
कर दिया गया है। नियमित बाजारों से आशय उन स्थानों से है, जहाँ निर्दिष्ट नियम या कानून
के अनुसार ही सौदे किये जाते है। बाजारों की स्थानीय संस्थाओं अथवा राज्य विधान के
द्वारा नियमित किया जा सकता है। इन बाजारों का संचालन एक समिति के द्वारा किया जाता
है जिनमें उत्पादकों, व्यापारियों और सरकार के प्रतिनिधि होते। यह समिति ही इन बाजारों
में उचित श्रेणीकरण, बाजार के कार्यकर्ताओं को लाइसेंस देने, अवैध कटौतियों को लागू
करने और बाजार शुल्कों को रोकने, बिक्री की खुली नीलामी प्रणाली, प्रमापीकृत माप-तौल
की व्यवस्था आदि के लिए उत्तरदायी होती है, तथा विभिन्न पक्षों में उत्पन्न होने वाले
झगड़ों का भी फैसला करती है। इन बाजारों में गोदामों, आहातों और छप्परों की भी व्यवस्था
की जाती है। इन बाजारों में क्रय विक्रय की उचित शतों को आसानी से लागू किया जा सकता
है। कृषकों को नवीनतम और विश्वसनीय बाजार सूचनाएं उपलब्ध करायी जाती है। संक्षेप में,
नियमित बाजार विभिन्न दोषों को दूर करने के लिए बहुत से उपाय प्रस्तुत करते है।
प्रगति (Progress): कृषि बाजार एक्ट के अन्तर्गत
बाजारों और बाजार क्रियाओं को नियमित किया जाता है। इस सन्दर्भ में विपणन एवं निरीक्षण
निदेशालय राज्यों को आवश्यक सलाह और सहायता प्रदान करता है। लगभग सभी राज्यों के बाजारों
में नियमन से सम्बन्धित कानून पास कर दिये गए है। भारत में वर्तमान में लगभग 7062 नियन्त्रित
बाजार है।
पंचवर्षीय
योजनाओं में नियमित बाजारों की स्थापना की और बहुत ध्यान दिया गया यह विश्वास प्रकट
किया गया है कि नियमित बाजारों को सम्पूर्ण ग्रामीण ढाँचे के पुनर्निर्माण का महत्वपूर्ण
उपकरण बनाया जा सकता है। विशेष रूप से उन क्षेत्रों में इन बाजारों का विकास, जहाँ
कपास, जुट, तम्बाकू जैसी परम्परागत फसलें और महत्वपूर्ण गैर- परम्परागत फसलें उत्पन्न
की जाती है तथा साप्ताहिक बाजारों में बेची जाती है।
2. संग्रह एवं गोदाम की सुविधाओं का प्रावधान (Provision for
Storage and Warehousing Facilities): बाजारों में कृषकों और उपभोक्ताओं
की दृष्टि से संग्रह की उचित व्यवस्था का होना नितान्त आवश्यक है। इससे उपज की अनावश्यक
बर्बादी को समाप्त किया जा सकता है, अथवा कम किया जा सकता है। इसके द्वारा उपज की पूर्ति
को माँग के अनुसार समायोजित किया जा सकता है। कृषि के व्यापारीकरण के लिए भी संग्रह
की सृविधाओं का विकास आवश्यक है।
प्रगति (Progress): सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र
दोनों में ही व्यापारिक दृष्टि से कृषि उपज के लिए संग्रह और गोदामों की सुविधाएँ उपलब्ध
है। अर्थव्यवस्था में कुल उपलब्ध संग्रह क्षमता में सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान बहुत
अधिक है। सार्वजनिक क्षेत्र में संग्रह और गोदामों की सुविधाएँ प्रदान करने वाली संस्थाओं
में केन्द्रीय एवं राज्य गोदाम निगम, भारतीय खाद्य निगम, तथा सहकारिताएँ प्रमुख हैं।
केन्द्रिय गोदाम निगम की स्थापना 1962 में निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए की गई:
(1) उपयुक्त स्थानों पर गोदामों एवं भण्डारगृहों को प्राप्त करना, (2) कृषि उपज एवं
आगतों के लिए यातायात की सुविधाएँ उपलब्ध करना, (3) राज्य गोदाम निगमों की अंश पूर्ति
में हिस्सा लेना, तथा (4) कृषि फसलों और उपज को खरीदने, बेचने, संग्रह एवं वितरण के
लिए सरकार के एजेन्ट के रूप में कार्य करना।
राज्य
गोदाम निगमों की स्थापना राज्य एवं जिला स्तर के महत्वपूर्ण स्थानों पर की गई है। इन
निगमों को राज्य स्तर पर वही कार्य सम्पन्न करने पड़ते हैं, जोकि राष्ट्रीय स्तर पर
सीडब्ल्यूसी के द्वारा सम्पन्न किए जाते है।
भारतीय
खाद्य निगम की स्थापना सन् 1965 में संग्रह की उचित सुविधाओं के विकास के लिए की गई।
ये सुविधाएँ व्यक्तिगत कृषकों तथा सहकारी समितियों को उपलब्ध हो सकती है।
सहकारी
क्षेत्र में जिन गोदामों का निर्माण किया गया है उनको दो भागो में वर्गीकृत किया जा
सकता है: (1) मण्डी के स्तर पर गोदाम, तथा (2) ग्रामीण गोदाम। पहले प्रकार के गोदामों
का निर्माण उच्च स्तर की विपणन समितियों के द्वारा किया जाता है, जिस प्रकार जिला क्षेत्र
तथा सर्वोपरि विपणन संघ। ग्रामीण गोदाम पर ग्राम सेवा समितियों का स्वामित्व होता है।
सहकारी क्षेत्र में दो प्रमुख संस्थाएँ कार्यशील हैं, वे राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम
तथा राष्ट्रीय सहकारी कृषि विपणन संघ है। भारत में वर्तमान में लगभग 701 लाख टन संग्रह
की सुविधा उपलब्ध है। वर्ष 2000 के अन्त में 137 लाख टन से अधिक संग्रह क्षमता योजनाओं
के दौरान विभिन्न संगठनों द्वारा 2000 के अन्त तक लगभग 701 टन की क्षमता सहकारी क्षेत्र
में उपलब्ध थी। नियमित प्रयासों के कारण ही भारत में विभिन्न पंचवर्षीय विकसित कि जा
चुकी थी। इसे तालिका -1 में दर्शाया गया है:
तालिका-1 विभिन्न संगठनों द्वारा 2000 के अन्त तक निर्मित संचयी वेयरहाऊसिंग
क्षमता
संगठन |
कुल क्षमता |
कुल का प्रतिशत |
एफ सी आई |
150.4 |
21.4 |
सी डब्ल्यू सी |
64.0 |
9.1 |
एस डब्ल्यू सी |
111.4 |
15.9 |
एन सी डी सी के माध्यम से सहकार क्षेत्र |
137.4 |
19.6 |
ग्रामीण विकास विभाग |
21.3 |
3.0 |
विभिन्न निकायों के माध्यम से नाबार्ड द्वारा |
135.0 |
19.2 |
अन्य ऐजेन्सीयाँ |
82.1 |
11.7 |
कुल |
701.6 |
100.0 |
वेयरहाऊसिंग
एवं व्यावसायिक बैंक (Warehousing and Commercial Banks): सन. 1954 में प्रकाशित रिजर्व
बैंक की अखिल भारतीय साख सर्वेक्षण रिपोर्ट में वेयरहाऊसिंग तथा साख सुविधाअों के एकीकरण
की सिफारिश की गई थी। इस आधार पर कानूनी आधार पर वेयरहाऊस की रसीदों को विनिमय प्रपत्रों
का दर्जा प्रदान किया गया था। किसान को दिए जाने वाले ऋणों के बदले में इन रसीदों को
व्यावसायिक बैंकों द्वारा जमानत के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। हालांकि यह योजना
बड़े उत्साह से आरम्भ हुई किन्तु आने वाले वर्षों में इस योजना ने कोई उल्लेखनीय प्रगति
नहीं की।नाबार्ड
एवं वेयरहाऊसिंग (NABARD and Warehousing): देश में वेयर हाऊसिंग सुविधाओं के विस्तार
में नाबार्ड महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। नाबार्ड द्वारा राज्य वेयर हाऊसिंग निगम
को नए गोदाम बनाने के वास्ते सभी सम्भव सहायता दी जानी चाहिए। नाबार्ड इस वास्ते डिबेंचर
जारी कर आवश्यक साधन जुटा सकने में समर्थ है। वेयरहाऊसिंग को प्राथमिकता क्षेत्र की
सूची में सम्मिलित किया गया है, अत: नाबार्ड द्वारा इस प्रयोजनार्थ जारी किये गए डिबेंचर
के लिए सरकार की स्वीकृति सुलभ होगी।
इस
बारे में बैंकों के अनुभव यह रहे है कि वेयरहाऊस की रसीद के बदले दिए गए ऋण के वापिस
न होने की स्थिति में जब भी वेयरहाउस निगमों के पास उचित कार्यवाही के लिए गए है इन
निगमों ने असहयोगपूर्ण रवैया अपनाया है और इस बात पर बल दिया है कि इन निगमों की सहायता से किसी भी कदम
को उठाने से पहले बैंकों को सभी सम्भव प्रयास, जिसमें कानूनी कार्यवाही भी शामिल है,
अपने-आप कर लेनी चाहिये। बैंक इस व्यवहार से सन्तुष्ट नहीं है। अत: जमानत के रूप में
वेयरहाऊस रसीद बहु प्रचलित नहीं हो पाई।
3. प्रमापित वजन एवं श्रेणीकरण (Standard Weights and Grading) : प्रमापित
वजन और तौल का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से विपणन प्रणाली पर पड़ता है। एक बार यदि किसान
को वजन और तौल के बारे में सही जानकारी हो जाती है तो वह किसी प्रकार के छल को स्वीकार
नहीं करेगा। प्रमापित वजन की भाँति उपज का श्रेणीकरण भी बहुत आवश्यक है। श्रेणीकरण
होने पर ग्राहक दूरस्थ स्थानों से वस्तु के सौदे कर सकते है। कुछ अवस्थाओं में ग्राहक
के लिय व्यक्तिगत रूप से बाजार में आना सम्भव नहीं होता, तो ऐसी स्थिति में प्रमापित
श्रेणी में वस्तुओं के वर्गीकरण से ऐसे सौदे सुलभता से सम्पन्न किये जा सकते है। उपयुक्त
श्रेणीकरण से उत्पादन बढ़ता है और अनावश्यक बर्बादी कम हो जाती है।
प्रगति (Progress): सन् 1958 में प्रमापित वजन
और तौल एक्ट को लागू किया गया। इस एक्ट के अनुसार केवल सरकारी बाटों और मापों का ही
सौदों के लिए प्रयोग किया जा सकेगा। सम्पूर्ण देश में 1963 में वजन की मैट्रिक प्रणाली
को अपनाया गया। कृषि उपज (श्रेणीकरण एवं विपणन) एक्ट 1937, के अन्तर्गत कृषि उपज का
श्रेणीकरण किया जाता है। सरकार द्वारा घी, आटा, अण्डे इत्यादि के लिए ग्रेडीग स्टेशन
की स्थापना की गयी है। श्रेणीकरण कृषि पदार्थों पर कृषि विपणन विभाग द्वारा एगमार्का
इत्यादि स्टाम्प लगायी जाती है। एगमार्का वस्तुओं का बाजार विस्तृत है तथा इनका मूल्य
भी श्रेष्ठ प्राप्त होता है। नागपुर में एक केन्द्रिय गुणवत्ता नियन्त्रण प्रयोगशाला
तथा देश के विभिन्न स्थानों पर क्षेत्रीय प्रयोगशालाएँ स्थापित की गयी है
4. बाजार सम्बन्धी सूचनाओं की व्यवस्था (Arrangements for Market
Information): बाजार सूचना उसी समय उपयोगी हो सकती है जबकि यह समय पर उपलब्ध
हो। कीमतों में बहुत उच्चावचन हो सकते हैं और उपज नष्ट हो सकती है। क्रेताओं और विक्रेताओं
को बाजार की नवीनतम सूचना उपलब्ध होनी चाहिये, कुछ दशाओं में तो एक दिन के विशेष क्षण
की सूचना भी आवश्यक होती है। कृषक को यह पता होना चाहिये कि उपज का सरकार द्वारा निर्धारित
मूल्य क्या है और बाजार में प्रचलित मूल्य क्या है। जिन स्थानों पर कृषि मूल्यों पर
यातायात लागत का बहुत प्रभाव पड़ता है वहाँ कृषक के लिए यह सम्भव होना चाहिए कि वह
सरकार द्वारा घोषित मूल्य के अनुसार यातायात लागत को व्यवस्थित करके अपनी उपज की कीमत
को निर्धारित कर सके।
प्रगति (Progress): कृषि पदार्थों से सम्बन्धित
बाजार सूचना सार्वजनिक एजेन्सियों तथा सहकारिताओं के द्वारा एकत्रित की जाती है और
रेड़ियों, अखबार, टेलीविजन आदि के माध्यम से कृषकों तक पहुँचाई जाती है। बाजार में
उपज के आगमन, कीमतों, बाजार अवस्था आदि के बारे में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक
सूचनायें एकत्रित की जाती है और प्रकशित एवं प्रचारित की जाती है। बाजारों के कुशल
संचालन के लिए इस प्रकार की सूचनाओं की पर्याप्त मात्रा में उचित समय पर उपलब्धि आवश्यक
है।
5. बेहतर यातायात की व्यवस्था (Better Transport Arrangements): सस्ते
और सुविधाजनक यातायात के साधनों की उपलब्धि से कृषक के लिये यह सम्भव होता है वह अपनी
इच्छानुसार किसी भी समय उपज को बाजार में बिक्री के लिये ले जा सकता है। यातायात के
सुविधाजनक साधनों से कृषक की मोल भाव करने की शक्ति बढ़ती है। यातायात के साधनों में
सड़कों का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि गांवों और विक्री केन्द्रों के बीच
यही सम्पर्क का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम होती है।
प्रगति (Progress): समन्वित सड़क विकास कार्यक्रम
में ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों के विकास को उच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है ताकि
देश के लाखों गाँवों को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में शामिल किया जा सके।
6. वित्त की व्यवस्था (Provision for Finance): ग्रामीण
क्षेत्रों में वित्तीय सुविधाओं का पर्याप्त मात्रा में विकास एक महत्वपूर्ण प्रश्न
है। बहुत सी सार्वजनिक एजेन्सियाँ कृषकों को पर्याप्त मात्रा में वित्तीय सुविधायें
प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील है।
7. खाद्यान्नों का राजकीय व्यापार (State Trading in Foodgrains): खाद्यान्नों
के राजकीय व्यापार का मुख्य उद्देश्य घाटे वाले क्षेत्रों में अनाज को पर्याप्त मात्रा
में उपलब्ध कराना । इसका एक और उद्देश्य कृषक को उसकी फसल का उचित मूल्य प्रदान कराना
भी है। अनाज के उत्पादन में कमी और इसकी बढ़ती हुई कीमतों के कारण सरकार ने अनेक बार
के खाद्यान्नों के व्यापार में हिस्सा लेने का निर्णय किया।
प्रगति (Progress): खाद्यान्नों का राज्य व्यापार
सबसे पहले केन्द्र एवं राज्य सरकारों के खाद्य विभागों ने आरम्भ किया। सन् 1965 में
भारतीय खाद्य निगम की स्थापना की गई। इस निगम को खाद्यान्नों की खरीद, संग्रह यातायात,
वितरण और विक्रय का कार्य सौंपा गया। यह आशा व्यक्त की गई है कि खाद्यान्नों के विपणन
में एफसीआई एक महत्वपूर्णभूमिका निभायेगा। खाद्य निगमों द्वारा सम्पन्न किये गये कुछ
कार्य भी एफसीआई को सौंपदिए गये है।
8. बाजार निरीक्षण, शोध एवं प्रशिक्षण (Market Inspections,
Research and Training): विपणन प्रणाली को कुशल बनाने में बाजार निरीक्षण,
शोध और प्रशिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान है। बाजारों के समय समय
पर सर्वेक्षणों से बाजार की विधियों, बदलती हुई माँग की दशाओं, कीमतों, लागत आदि का
अध्ययन और निरीक्षण आवश्यक है। विपणन क्रियाओं से सम्बन्धित अधिकारियों का प्रशिक्षित
होना आवश्यक है और इसके साथ यह भी आवश्यक है कि कृषकों की आवश्यकताओं और समस्याओं की
पूर्ण जानकारी हो।
प्रगति (Progress): सरकार ने इन समस्याओं की ओर
ध्यान देना प्रारम्भ किया है। विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय सम्पूर्ण देश में प्रमुख
कृषि उपजों के सम्बन्ध में निरीक्षण का काम करता है। निदेशालय विपणन की विभिन्न समस्याओं
के बारे में शोध भी करता है।
(3) ग्रामीण विद्युतीकरण (Rural Electrification)
ग्रामीण
विद्युतीकरण कार्यक्रम को ग्रामीण विकास हेतु प्रमुख गत्यात्मक घटक के रूप में स्वीकार
किया गया है। विद्युत केवल उद्योगों की ही आधारभूत आवश्यकता नही है, वरन् इसकी पर्याप्त
आपूर्ति कृषि उत्पादकता में वृद्धि एवं अन्य कार्यों तथा आय सृजन गतिविधियों में भी
महत्वपूर्ण रूप में योगदान प्रदान करती है। विद्युत की पर्याप्त तथा ग्रामीण जनसंख्या
मूल्य सहनिय क्षमता पर पूर्ति ग्रामीण जनसंख्या की जीवन शैली में वृद्धि अथवा सुधार
तथा ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों को तरफ ग्रामीण जनसंख्या के पलायन पर रोक
में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है। वर्तमान में विद्युत अन्य आधारभूत आवश्यकताओं
जैसे आवास, पेयजल, स्वास्थ्य तथा शिक्षा के समान महत्वपूर्ण वर्ग में ही रखा जाता है।
आने वाले समय में "सब के लिए विद्युत" जीवन की वास्तविकता के रूप में उभरेगी।
यद्यपि यह प्रमुख रूप से विद्युत उत्पादन को प्रदत्त वरियता, संसाधन आबंटन, राजनीतिक
इच्छाशक्ति, प्रशासनिक दक्षता तथा उन समस्त निकायों तथा व्यक्तियों की सजीव अभिरूचि
पर निर्भर करेगा जो देश के आर्थिक विकास के प्रति वास्तविक अर्थों में चिन्तीत है।
ग्रामीण
विद्युतीकरण एक परम आवश्यकता है। वास्तविक भारत गाँवों में निवास करता है। अतः ग्रामीण
विद्युतीकरण से ही भारत में प्रकाश सम्भव है। इस तथ्य को भारत के आयोजना निर्माताओं
द्वारा विशेष महत्व प्रदान करते हुए सम्पूर्ण ग्रामीण विद्युतीकरण की दिशा में प्रयास
निरन्तर है। भारत की विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामीण विद्युतीकरण के विशेष लक्ष्य
निर्धारित किये गये हैं। प्रत्येक राज्य अपने सम्पूर्ण ग्रामीण विद्युतीकरण की प्रतिस्पर्धा
में सजग रूप से सम्मिलित हो गया है। यह गर्व का विषय तथा सुखद अनुभव है कि अनेक राज्यों
ने इस लक्ष्य अथवा आदर्श को प्राप्त भी कर लिया है तथा शेष इस दिशा में सक्रिय रूप
से सजग तथा प्रयत्नशील है।
1991
की जनगणना के अनुसार भारत में लगभग 5,87,000 गाँव है जिनमें से वर्तमान परिभाषा के
अनुसार अब तक लगभग 5,00,000 अर्थात 86 प्रतिशत विद्युतीकृत हो चुके है। भारत में वर्तमान
में लगभग 13 प्रतिशत राज्यों के गाँव "सम्पूर्ण ग्रामीण विद्युतीकरण" की
प्राप्ति कर चुके है। राज्य जिनके ग्रामों को अभी विद्युतीकृत किया जाना शेष है वे
अधिकांशतः आसाम, अरूणाचल प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, मेघालय, उड़िसा, राजस्थान,
उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल तथा पश्चिमी बंगाल राज्यों के है। यद्यपि इस उपलब्धि को ग्रामीण
विद्युतीकरण की विद्यमान परिभाषा के परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए कि "एक गाँव
यदि विद्युतीकृत हो जाय तथा किसी कार्य के लिए विद्युत प्रयोग करे तो ऐसा उस गाँव को
आगम परिधि (Revenue Boundary) के अन्तर्गत होना चाहिए।। अतः समस्त विद्युतीकृत गाँवों
में, विद्युत कनेक्सन माँग पर उपलब्ध हो भी सकता है अथवा नहीं भी। आज भी गावों के पास
को बसावट हुयी हरिजन बस्तियाँ विद्युतीकृत होने से वंचित है।
अतः
ग्रामीण विद्युतीकरण की उपर्युक्त वर्णित परिभाषा अपूर्ण है क्योंकि यह ग्रामीण आवश्यकता
की पूर्ति करने में अक्षम है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा विद्युतीकृत
गाँव की संशोधित परिभाषा निम्न प्रकार प्रस्तुत कि है:
एक
गाँव को विद्युतीकृत माना जायेगा यदि आवासिय बसावट में विद्युत का प्रयोग चाहे किसी
कार्य के लिए प्रयोग किया जाय वह उस गाँव की आगम परिधि के अन्तर्गत हो। एक गाँव को
विद्युतीकृत के रूप में वर्गीकृत किया जाय यदि विद्युत का प्रया चाहे किसी भी प्रयोजन
हेतु इसके आगम क्षेत्र के अन्तर्गत हो रहा है।"
अतः
ग्रामीण विद्युतीकरण की विद्यमान परिभाषा में संशोधन की आवश्यकता है कि किसी गाँव को
विद्युतीकृत घोषित करने के लिए उस गाँव में न्यूनतम संख्या में उपभोक्ताओं को विद्युत
कनेक्सन प्रदान किये जाने का बन्धन हो।
भारत
में ग्रामीण विद्युतीकरण की नवीन संशोधित परिभाषा के अनुसार अब भी 80,000 गाँवों विद्युतीकरण
होना शेष है। केवल 13 राज्य ही ऐसे है जिनके द्वारा सम्पूर्ण ग्रामीण विद्युतीकरण की
घोषणा की जा चुकि है।
इसके
अतिरिक्त उपलब्ध आंकड़े दर्शाते हैं कि केवल 31 प्रतिशत परिवार विद्युतीकृत है। देश
में सिंचाई के लिए विद्युतीकृत पम्पसैटो की संख्या लगभग 19.5 मिलियन है, जिनमें से
लगभग 12 मिलियन पम्पसैट उर्जीकृत हो चुके हैं। उर्जीकृत पम्पसेटों के विस्तार कार्यक्रम
को उर्जा संरक्षण, जल संरक्षण, वाटरशैड प्रबन्ध, वर्षा जल प्रवन्धन तथा सतही जल के
अति उत्तम प्रयोग से सम्बन्धित अन्य मामलों तथा सीमित साधनों के अति विदोहन के खतरों
के परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
व्यूह रचना (Strategy)
ग्रामीण
विद्युतीकरण वर्तमान में देश के आर्थिक विकास की महत्वपूर्ण योजना स्वीकार की जा चुकि
है। आगामी वर्षों में ग्रामीण विद्युतीकरण की जो व्यूहरचना अपनाई जानी प्रस्तावित है
उसके प्रमुख बिन्दु निम्न प्रकार है:
(1)
दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के अन्तर्गत उन समस्त 62000 गाँवों का विद्युतीकरण
किया जाना प्रस्तावित है जिनका ग्रीड विस्तार द्वारा विद्युतीकरण किया जाना सम्भव है।
शेष बचे गाँवों का गैर-परम्परागत तकनिक के माध्यम से 18,000 दुर्गम गांवों का
2011-12 तक विद्युतीकरण किया जायेगा। इन गांवों को किसी सर्वेक्षण द्वारा चिन्हित किया
जाना आवश्यक है।
(2)
ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रमों हेतु कोषों की सहज उपलब्धि की दृष्टि 2001-02 वर्ष
में इसे प्रधानमन्त्री ग्रामोदय योजना बना दिया गया है। विशिष्ट वर्ग के योग्य राज्यों
द्वारा इस प्रयोजन हेतु १० प्रतिशत अनुदान तथा 10 प्रतिशत ऋण के रूप में प्राप्त कोषों
में अनुदान ऋण अनुपात 30 :70 होगा।
(3)
स्थानीय क्षेत्रों में कार्यक्रमों तथा जवाहर ग्राम समृद्धि योजना के अन्तर्गत जो कोष
उपलब्ध होंगे उनका प्रयोग भी ग्रामीण विद्युतीकरण हेतु कोषों के पृथक के रूप में से
प्राप्त कर सकेंगें। अन्य राज्यों के लिए इस प्रयोजन हेतु किया जायेगा।
(4)
संसद सदस्यों की जिला स्तरिय समिति के माध्यम से ग्रामीण विद्युतीकरण अनुवर्तन में
भागीदारी को अनिवार्य बनाया जायेगा।
(5)
राज्य के विद्युत मण्डलों को ग्रामीण विद्युतीकरण हेतु उगाये ऋणों पर किये ब्याज के
भुगतान पर अनुदान प्रदान किया जायेगा।
(6)
ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रम के अन्तर्गत दलित/आदिवासी बस्तीयों का विद्युतीकरण भी
सम्मिलित किया जायेगा।
(7)
कुटीर ज्योती कार्यक्रम, जिसके अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा के नीचे
यापन करने वाले परिवारों को एक प्वाइन्ट का कनेक्शन दिया जायेगा उसमें सुधार करते हुए
2012 तक शत प्रतिशत परिवारों को विद्युतीकृत किये जाने के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया
जायेगा।
(8)
दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों का विद्युतीकरण गैर-परम्परागत साधनों के माध्यम से किया जायेगा।
ग्रामीण ऊर्जा (Rural Energy)
उर्जा
आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण घटक है तथा विश्व के समस्त राष्ट्रों के विकास का इतिहास
उर्जा आवश्यकता की बढ़ती हुई माँग से निकटतम सम्बन्धित रहा है।भारत में स्वतन्त्रता
के पश्चात् 50 वर्षे की अवधि के दौरान सम्पूर्ण उर्जा के विस्तार का परिदृश्य दृष्टिगत
हुआ है साथ गैर वाणिज्य उर्जा स्त्रोत से वाणिज्य उर्जा स्त्रोत की दशा में परिवर्तन
हुआ। यह उल्लेख करना आवश्यक है कि भारत में प्रति व्यक्ति उर्जा का प्रयोग अत्यन्त
नीचा रहा है तथा इसमें वृद्धि हेतु वाणिज्य ऊर्जा में वृद्धि की आवश्यकता है। इसके
लिए ऊर्जा उत्पादन की क्षमता में वृद्धि करना आवश्यक है। राष्ट्र के भावी आर्थिक विकास
हेतु वाणिज्यक ऊर्जा का स्वदेशी उत्पादन महत्वपूर्ण आगत स्वीकार किया गया है। अपने
प्रत्येक सम्भावित प्रयासों के बावजूद भारत एक ऊर्जा अभाव वाला राष्ट्र है तथा इस अभाव
की पूर्ति कच्चा तेल तथा पेट्रोलियम उत्पाद एवं कोयला आयात करके किया जा रहा है। ऊर्जा
की बढ़ती हुई शहरी ग्रामीण जनसंख्या की आवश्यकता को देखते हुए देश में ऊर्जा उपलब्धि
विवेकपूर्ण ऊर्जा मूल्य नीति को अपनाकर सम्भव है।
गैर वाणिज्यक प्राथमिक ऊर्जा स्त्रोत (Non-Commercial Primary
Energy Resources)
जलाने
योग्य लकड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में, तथा कुछ सीमा तक शहरी क्षेत्रों में भी, खाना पकाने
एवं गर्मी उत्पन्न करने का प्रमुख ऊर्जा स्त्रोत है। ऐसा अनुमानीत है कि भारत में लगभग
75 मिलियन हैक्टेयर जंगलात क्षेत्र है। वार्षिक रूप से स्थानीय संसाधनों तथा सामाजिक
वानिकी योजना से जो लकड़ी की प्राप्ति होती है उसकी तुलना में उद्योग, निर्माण कार्य
तथा खाना पकाने इत्यादि हेतु लकड़ी की माँग कहीं अधिक है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव शनेः
शने: जंगलों के विनाश के कारण पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव के रूप में परिलक्षित हुआ
है।
वाणिज्य प्राथमिक ऊर्जा स्त्रोत (Commercial Primary Energy
Resources)
भारत
में जो वाणिज्यिक प्राथमिक ऊर्जा के स्त्रोत उपलब्ध है। उनमें प्रमुखतः कोयला, लिगनाईट
तेल तथा प्राकृतिक गैस, हाईड्रो शक्ति, अणु शक्ति आदि है।
भारत
में गैर वाणिज्यिक ऊर्जा स्त्रोतों का भण्डार विद्यमान है। इनमें प्रमुख गोबर गैस संयन्त्र,
बायो मास्क आधारित शक्ति, कार्यकुशल लकड़ी स्टोव, सौर ऊर्जा, लघु हाइड्रो, वायु शक्ति,
समुद्री थर्मल, सागर तरंग शक्ति, ज्वारीय शक्ति है इन संसाधनों का भारत में वर्तमान आंकलन तथा दोहन की स्थिति को तालिका -2
में दर्शाया गया है:
तालिका-2 नवीनीकरणीय ऊर्जा क्षमता
स्त्रोत/तकनीक |
उपलब्ध क्षमता |
विदोहित क्षमता |
गोबर गैस संयन्त्र |
12 मिलियन |
2.7 मिलियन |
बायो मास्क आधारित शक्ति |
17 हजार मेगावॉट |
69.5 मेगावॉट |
कार्यकुशल लकड़ी स्टोव |
120 मिलियन |
20 मिलियन |
सौर ऊर्जा |
5x 1015 मेगावॉट |
25 मेगावॉट |
लघु हाइड्रो |
10 हजार मेगावॉट |
250 मेगावॉट |
वायु शक्ति |
20 हजार मेगावॉट |
1000 मेगावॉट |
समुद्री थर्मल |
50 हजार मेगावॉट |
|
सागर तरंग शक्ति |
20 हजार मेगावॉट |
|
ज्वारीय शक्ति |
9 हजार मेगावौट |
|
(4) ग्रामीण जल आपूर्ति (Rural Water Supply): सरकार
के गर्वनेन्स के राष्ट्रीय एजेन्डे के अनुरूप मार्च 2004 तक निर्धारित मापदण्डों के
अनुरूप समस्त आवासियों को पीने के पानी की सुविधा मुहैया करवाई जायेगी। राष्ट्रीय सेम्पल
सर्वे के पेयजल पर 54 वे राऊण्ड (जुलाई, 1999) द्वारा पेयजल सुविधाओं की उपलब्धि पर
जो आंकड़े प्रस्तुत किये गये वे यह दर्शाते है कि 50 प्रतिशत जनसंख्या को पेयजल ट्यूबवेल/हैण्डपम्प
से, 26 प्रतिशत को कुओं से तथा 19 प्रतिशत को नलों से प्राप्त होता है। केवल 31 प्रतिशत
ग्रामीण परिवारों द्वारा यह सूचित किया गया कि उन्हें अपने आवासीय परिसर में जल की
सुविधा उपलब्ध है, शेष को पेयजल के लिए आवास से बाहर जाना पड़ता है।
ग्रामीण
विकास मंत्रालय को वर्ष 2004 तक सभी ग्रामीण बसावटों में साफ पेयजल मुहैया कराने का
कार्य सौंपा गया है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए और ग्रामीण
ग्रामीण आधारभूत ढाँचा बसावटों में पेयजल की समस्या
को हल करने के लिए त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम और प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना-ग्रामीण
पेयजल जैसे अनेक कार्यक्रमों को कार्यान्वित किया जा रहा है। 1.4.2002 से प्रधानमंत्री
ग्रामोदय योजना-ग्रामीण पेयजल योजना आयोग को अंतरित कर दी गई है। इन कार्यक्रमों में
वर्षा जल संग्रहण, स्त्रोतों के स्थायित्व और सामुदायिक भागीदारी को भी महत्व दिया
गया है।
केन्द्र
सरकार को इन वर्षों में ग्रामीण लोगों की पेयजल की जरूरतों को पूरा करने में पर्याप्त
सफलता मिली है। ग्रामीण पेयजल आपूर्ति पर 40,000 करोड़ रूपये से ज्यादा के निवेश से
91.06 प्रतिशत ग्रामीण बसावटों में पेयजल सुविधा पूर्णत: उपलब्ध करा दी गई और 7.93
प्रतिशत बसावटों को अंशतः कवर किया गया है। विवरण में दिया गया है।
पेयजल
आपूर्ति क्षेत्र में दृष्टिकोणगत प्रमुख बदलाव आया है तथा देश के चुने गए 67 जिलों
में क्षेत्र सुधार दृष्टिकोण को अपनाया गया है। हार्डवेयर सहायता को सामाजिक जागरूकता,
क्षमता निर्माण, सूचना, शिक्षा एवं संचार तथा प्रबन्ध सूचना प्रणाली जैसी अन्य सहायक
सेवाओं के द्वारा पूरा किया जाता है। इन सुधारों को प्रयोगिक आधार पर देश भर के 67
जिलों में कार्यान्वित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम का स्वजलधारा के रूप में विस्तार
किया जा रहा है जिसे पेयजल आपूर्ति के लिए तत्कालीन माननीय प्रधानमंत्री द्वारा 25
दिसम्बर, 2002 को शुरू किया गया है। स्वजलधारा योजना की मुख्य विशेषता यह है कि पेयजल
योजनाओं को समुदाय द्वारा कार्यान्वयन ओर रख-रखाव किया जाएगा तथा उनके ही स्वामित्व
में रहेगी। इन परियोजनाओं में समुदाय की भागीदारी प्रमुख घटक है जो योजना कार्यान्वयन,
संचालन और रख रखाव को सुनिश्चित करने के लिए है। समुदाय द्वारा 10 प्रतिशत का अंशदान
किया जाता है। 90 प्रतिशत निधियां भारत सरकार देती है। अनुसूचित जाति तथा अनु. जनजाति
के मामले में समुदाय का अंशदान 5 प्रतिशत है।
त्वरित
ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम (ए.आर.डब्ल्यू. एस. पी) : ग्रामीण जल आपूर्ति राज्यों
का विषय है। राज्य अपने निजी संसाधनों से साफ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए परियोजनाएं
और योजनाएं चलाते रहे हैं। तथापि, ग्रामीण बसावटों में साफ पेयजल मुहैया कराने के महत्व
को स्वीकार करते हुए भारत सरकार राज्य सरकारों को सहायता प्रदान करती रही है।
उद्देश्य (Objectives)
त्वरित
ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है:
1.
स्वच्छ पेयजल के साथ सभी ग्रामीण बस्रावटों की कवरेज सुनिश्चित करना।
2.
पेयजल प्रणालियों एवं स्त्रोतों का स्थायित्व सुनिश्चित करना।
3.
प्रभावित बसावटों में जलगुणता की समस्या का निराकरण करना।
4.
ग्रामीण जल आपूर्ति क्षेत्र में क्षेत्र सुधार पहलों को संस्थागत बनाना।
कार्यान्वयन एजेंसियां (Implementing Agencies)
एजेंसियां
निम्नलिखित हो सकती हैं
राज्य
सरकारें कार्यक्रम की कार्यान्वयन एजेंसियों के संबंध में निर्णय लेती है। ये जल स्वास्थ्य
तथा इंजीनियरिंग विभाग, ग्रामीण विकास विभाग अथवा पंचायती राज विभाग आदि। कुछेक राज्यों
में कार्यान्वयन सरकारी में बोडों/निगमों/एजेंसियों द्वारा किया जाता है, उदाहरणार्थ-
गुजरात में गुजरात जल आपूर्ति एवं सीवरेज बोर्ड कार्यान्वयन एजेंसी है। इसी प्रकार
उत्तर प्रदेश में, उत्तर प्रदेश जल निगम तथा तमिलनाडु में टी. डब्ल्यू. ए. डी. बोर्ड
कार्यान्वयन एजेंसी है।
वित्तीय प्रगति (Financial Progress)
भारत
सरकार ने अभी तक ग्रामीण पेयजल आपूर्ति योजनाओं पर 40,000 करोड़ रूपये से ज्यादा का
निवेश किया है। वर्ष 2002-03 के लिए ग्रामीण जल आपूर्ति संबंधी केन्द्रीय परिव्यय
2110 करोड़ रूपये है।
शक्तियों का प्रत्यायोजन (Delegation of Authority)
शक्तियों
के विकेन्द्रीकरण की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने राज्यों को शक्तियां
प्रत्यायोजित की है। त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रस्तावित सभी
परियोजनाओं और योजनाओं को राज्य स्तरीय योजना स्वीकृति समिति द्वारा अनुमोदित किया
जाता है। क्षेत्र सुधार प्रायोगिक परियोजनाओं के तहत परियोजनाओं एवं योजनाओं को तैयार
करने तथा उनका कार्यान्वयन करने की शक्तियां समुदायों को प्रत्यायोजित कर दी गई है
जो प्रणालियों का स्वयं संचालन एवं रख रखाव करेंगे। समुदायों को अपनी प्राथमिकताओं
की प्रणालियों का चयन करने की भी शक्तियां हैं।
पंचायतों की भूमिका ( (Role of Panchayat)
भारत
के 73 वें संविधान संशोधन के अनुसार ग्रामीण जल आपूर्ति का विषय पंचायती राज संस्थाओं
को दे दिया गया है। पंचायतों को अपने क्षेत्रों में साफ पेयजल मुहैया कराने तथा प्रणालियों
तथा स्त्रोतों के प्रबंधन में प्रमुख भूमिका निभानी है। उन्हें योजनाओं के कार्यान्वयन
में भागीदार बनाया जा सकता है, विशेषकर हैण्डपम्पों, स्टैण्ड पोस्टों तथा स्पॉट स्त्रोतों
के स्थान का चयन करने में तथा संचालन व रख रखाव आदि में। इसके अतिरिक्त, भारत सरकार
पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाने तथा उनकी क्षमता निर्माण पर भी बल देता है ताकि
वे पेयजल आपूर्ति में अपने दायित्व का निर्वाह करने में सक्षम बन सकें।
कवरेज के मानदण्ड (Criterion of Coverage)
इस
योजना के अन्तर्गत सम्मिलित होने के लिए कतिपय कवरेज के मापदण्ड निर्धारित किये गये
जिनका विवरण निम्न प्रकार है:
1.
मानव उपयोग के लिए 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पेयजल उपलब्ध कराना।
2.
मरूभूमि विकास कार्यक्रम क्षेत्रों में पशुओं के लिए 30 लीटर प्रति पशु प्रतिदिन अतिरिक्त
जल उपलब्ध कराना।
3.
प्रति 250 व्यक्तियों के लिए एक हैण्डपम्प अथवा स्टैण्ड पोस्ट की व्यवस्था करना।
4.
मैदानी क्षेत्रों में 1.6 कि. मी. की दूरी के भीतर तथा पहाड़ी क्षेत्रों में 100 मीटर
की ऊँचाई के अन्तर पर जल स्त्रोत उपलब्ध कराना।
उप-मिशन (Sub-Mission)
राज्यों
को उपमिशन परियोजनायें स्वीकृत करने की शक्तियां प्रत्यायोजित की गई हैं। राज्यों/संघ
राज्य क्षेत्रों को उस प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए उपमिशन परियोजनाएं स्वीकृत करने
की शक्तियां हैं जो सामान्य त्व. ग्रा. ज. आ. कार्यक्रम को स्वीकृत करने के लिए कवरेज
स्थायित्व तथा गुणवत्ता पहलुओं को क्षति पहुंचाए बगैर अपनायी गई हैं।
डब्ल्यू. एच. ओ. की घोषणा : भारत गिनीकृमि से मुक्त
विश्व
स्वास्थ्य संगठन ने भारत को गिनीकृमि बीमारी मुक्त देश के रूप में प्रमाणित किया है।
यह घोषणा फरवरी, 2000 में विश्व स्वास्थ्य संगठन, जिनेवा ने की। गिनीकृमि एक जलजनित
बीमारी है जो ड्रैकुन्कलैसिस मेडिनसिस से फैलता है। भारत सरकार 80 के दशक के पूर्वार्ध
से इस बीमारी को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही है तथापि, वर्ष 2000 तक इस बीमारी
को नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ कम्यूनिकेशन डिसीज (एन.आई.सी.डी.), विश्व स्वास्थ्य संगठन
तथा यूनीसेफ जैसे संगठनों की मदद से पूर्णत: समाप्त कर दिया गया था। इसके लिए प्रारम्भ
किए जाने वाले मुख्य नियंत्रण उपायों में कुओं को बन्द करना तथा ट्यूबवेल और पाइप से
जल आपूर्ति का प्रावधान करना था।
उप-मिशन कार्यक्रम के अन्तर्गत संसाधनों का आबंटन
राज्यों
को निम्नलिखित के लिए केन्द्रिय सहायता दी जाती है:
1.
खारापन, फ्लोराइड, संखिया तथा लौह दूर करने वाले जलशोधन संयत्रों को अनुमोदित पूंजी
लागत।
2.
खारापन दूर करने वाले सयंत्रों की संचालन एवं रखरखाव लागत।
3.
जलसंरक्षण उपायों की लागत ।
4.
जागरूकता शिविरों के आयोजन, क्षेत्रीय बीमारियों के सर्वेक्षण तथा जलगुणता परीक्षणों
की लागत।
5.
जल परीक्षण प्रयोगशालाएँ उपस्करों की गैर-आवर्ती लागत तथा तकनीकी स्टाफ, रसायनों आदि
की आवर्ती लागत और
6.
चलती-फिरती जल गुणवता परीक्षण प्रयोगशालाएँ।
क्षेत्र सुधार (Sector Reforms)
ऐसा
अनुभव किया गया है कि ग्रामीण भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को नहीं है। लोगों की
सहभागिता की शक्ति को स्वीकार और उसे ग्रामीण जल आपूर्ति में अच्छी सुदृढ़ करने के
लिए केवल प्रशासन का विकेन्द्रीकरण अथवा निवेश संबंधी बढ़ोतरी ही पर्याप प्रगति और
निवेश तथा विशेषकर विगत एक दशक में, सरकार द्वारा बढ़ाए गए परिव्यय के बावजूद सामुदायिक
स्तर पर स्थिति सामान्य सन्तुष्टि तक सीमित है। पहले ट्यूबवेलों और बोरवेलों के साथ
लगे हैण्डपम्पों पर जोर दिया जाता था लेकिन प्रोद्योगिकी में बदलाव के फलस्वरूप सम्पूर्ण
ग्रामीण जल आपूर्ति के कवरेज में उत्साहवर्धक वृद्धि सामने आई है। तथापि, ग्रामीण क्षेत्रों
में, विशेषकर गर्मी के महीनों में पयेजल की उपलब्धता अभी भी सन्तोषजनक नहीं है। यद्यपि
प्रति वर्ष लाख बसावटों को कवर किया जाता है लेकिन समस्याग्रस्त बसावटों की संख्या
उस अनुपात में कम नहीं हुई है। इसलिए भारत सरकार यह माना है कि स्त्रोतों और प्रणाली
का स्थायित्व लोगों की सन्तुष्टि की कुंजी है। प्रणालिया बेकार और मरम्मत के अयोग्य
हो रही है। यह ग्रामीण लोगों की इस अवधारणा की वजह से है कि पानी एक सामाजिक अधिकार
है और सरकार द्वारा उसे मुफ्त प्रदान किया जाना चाहिए। सरकार ने इस सिद्धान्त को घर-घर
पहुंचाने की कोशिश की कि जल एक आर्थि एवं सामाजिक भलाई की वस्तु है और इसे उसी रूप
में समझा जाना चाहिए। इसे निम्नतम उपयुक्तता के साथ तथा परियोजनाओं की आयोजना एवं कार्यान्वयन
में उपभोक्ताओं को भागीदारी को रखते हुए भारत सरकार ने ग्रामीण पेयजल आपूर्ती के क्षेत्र
में नीतिगत परिवर्तन एवं महत्वपूर्ण बदलाव किए है। त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम
में अप्रैल, 1999 में सुधार किया गया जिससे ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम में सामुदायिक
भागीदारी को सक्रिय बनाने के प्रस्तावों को सम्मिलित किया जा सके और ऐसी परियोजनाओं
के लिए निधियां प्रदान करने हेतु वार्षिक परिव्यय का 20 प्रतिशत निर्धारित किया गया
है।
इस
बदलाव में पयेजल आपूर्ति योजनाओं के कार्यान्वयन और संचालन में भाग आधारित दृष्टिकोण,
सामुदायिक भागीदारी और शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की परिकल्पना की गई है। लोगों की
भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए केन्द्र सरकार तीन मूलभुत सिद्धान्तों का अनुसरण कर
रही है:
1.
ग्रामीणों के सशक्तीकरण पर आधारित मांग आधारित एवं अनुकूलनीय दृष्टिकोण को अपनाना जिससे
योजना की डिजाइन के चुनाव, वित्तपोषण के नियंत्रण और प्रबंधन व्यवस्था में उनकी निर्णायक
भूमिका के माध्यम से परियोजनाओं में उनकी पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित हो सके।
2.
सरकारी की सीधे सेवा सुपूर्दगी की बजाय आयोजना, नीति बनाने, निगरानी तथा मूल्याकंन
और आंशिक वित्तीय सहायता करने की बदली हुई भुमिका ।
3.
उपभोक्ताओं द्वारा नकद अथवा सामान अथवा दोनों रूप में आंशिक पूंजी लागत हिस्सेदारी
और संचालन और रखरखाव की शतप्रतिशत जिम्मेवारी।
तदनुसार,
क्षेत्र सुधार परियोजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए प्रायोगिक आधार पर 26 राज्यों
में 67 जिलों की पहचान की गई है। 67 परियोजनाओं की कुल लागत 2060.45 करोड़ रूपये आंकी
गई है। भारत सरकार का अंश 1992.85 करोड़ रूपये है। 67 परियोजनाओं के लिए 631 करोड़
रूपये से ज्यादा जारी किया जा चुका है।
इस
नए दृष्टिकोण में सरकार सुविधाप्रदाता की भूमिका निभाती है। इस कार्यक्रम में उनकी
सक्रिय भागीदारी संबंधी जरूरत के बारे में लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए
सूचना, शिक्षा व संचार के माध्यम से प्रयास किए जा रहे हैं। समुदायों को जल आपूर्ति
योजनाओं के कार्यान्वयन में भागीदार होने का इच्छुक होना चाहिए जिसके लिए उनमें सृजित
परिसम्पत्तियों हेतु स्वामित्व की भावना भी होनी चाहिए।
स्वजलधारा
भारत
सरकार समुदाय आधारित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रमों को प्रारम्भ करने की आवश्यकता
पर जोर दे रही है तथा अब देश भर में ग्रामीण पेयजल आपूर्ती क्षेत्र में सुधार पहल करने
का निर्णय लिया गया है। यह कार्यक्रम स्वजलधारा है। इस कार्यक्रम के मुख्य घटक हैं:
(1) मांग आधारित तथा समुदाय भागीदारी दृष्टिकोण, (2) पंचायतों/समुदायों द्वारा सभी
पेयजल योजनाओं की आयोजना, कार्यान्वयन, संचालन, रख रखाव और प्रबन्ध, (3) समुदायों द्वारा
नकद के रूप में आंशिक पूंजी लागत को वहन करना, (4) ग्राम पंचायतों के साथ पेयजल परिसम्पत्तियों
का पूर्ण स्वामित्व, तथा (5) प्रयोक्ताओं/पंचायतों द्वारा पूर्ण संचालन एवं रख रखाव।
सुधार
सिद्धांतों को अपनाने वाले लाभार्थी समूह, ग्राम पंचायत और ब्लॉक स्वजलधारा परियोजनाओं
के लिए पात्र होंगे। योजनाओं की अनुमानित पूंजी लागत का 10 प्रतिशत (2001 जनगणना के
अनुसार मुख्य रूप से अ.जा./अ.ज.जा बसावटों के मामले में 5 प्रतिशत) सामुदायिक अंशदान
परियोजना का एक अभिन्न अंग होगा। सामुदायिक अंशदान को छोड़कर परियोजना लागत का वहन
भारत सरकार द्वारा किया जाएगा।
इस
योजना की मुख्य विशेषता यह है कि ग्रामीण जनता अपने आप को योजना के स्वामी के रूप में
अनुभव करेगी। इसके अतिरिक्त, जनता एवं ग्राम पंचायतों को योजनाओं के संचालन एवं रखरखाव
की सम्पूर्ण जिम्मेदारी लेनी होगी। योजनाओं के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए निम्नलिखित
प्रक्रिया अपनाई जाती है:
1.
ग्राम पंचायत, ग्राम सभा की बैठक बुलाएगी, जहाँ लोगों की पसंद की पेयजल आपूर्ति योजना
इसकी डिजाइन और लागत आदि को अंतिम रूप दिया जाएगा। लाभार्थियों/प्रयोत्ताओं से पूंजी
लागत का 10 प्रतिशत या 5 प्रतिशत अंशदान लेने के लिए ग्राम पंचायत की बैठक में एक संकल्प
पारित किया जाना चाहिए। ग्राम पंचायत सामुदायिक अंशदान का रिकार्ड रखेगी और अंशदाताओं/प्रयोक्ताओं
को आवश्यक पावतियां देगी। योजना पूरा होने के बाद और इसे ग्राम पंचायत को सौंपे जाने
के बाद, ग्राम पंचायत में संचालन एवं रखरखाव की जिम्मेदारी उठाने की भी इच्छा होनी
चाहिए। ग्राम पंचायत की बैठक में योजना की कार्यकारी एजेंसी पर भी निर्णय किया जाना
चाहिए अर्थात् क्या पंचायत योजना का निष्पादन स्वयं करना चाहती है या राज्य सरकारी
एजेंसी द्वारा इसे निष्पादन करना चाहती हैं।
2.
इसके अतिरिक्त, पंचायत को समुदाय से प्रयोक्ता प्रभारों के बारे में भी निर्णय लेना
चाहिए ताकि संचालन एवं रखरखाव के लिए पंचायत के पास पर्याप्त निधियां उपलब्ध हो सकें।
3.
विभाग द्वारा स्वीकृति के लिए विचार की जाने वाली योजना के अधिक से अधिक लाभार्थी/प्रयोक्ताओं
से (कुल जनसंख्या का न्यूनतम 33 प्रतिशत) 10 प्रतिशत का प्रयोक्ता अंशदान प्राप्त किया
जाना चाहिए।
4.
लाभार्थी समूह के मामले में, लाभार्थी समूह के सभी सदस्य बैठक करेंगे, डिजाइन और लागत
सहित प्रस्ताव पर विचार करेंगे और ग्राम पंचायत को प्रस्ताव प्रस्तुत करने से पहले
संकल्प पारित करेंगे।
यह
नोट करना आवश्यक है कि आवेदक बी. जी./जी.पी./बी.पी. राष्ट्रीय/सहकारी बैंक में अलग
और विशिष्ट बचत बैंक खाता खोलेंगे। सभी सामुदायिक अंशदान उस खाते में जमा किए जाएंगे।
भारत सरकार से स्वजलधारा निधियां प्राप्त करने और उसे आवेदक के 'स्वजलधारा खाते"
में जमा करने के लिए जिला कार्यान्वयन एजेंसी के लिए एक अलग खाता भी होना चाहिए।
स्वजलधारा
योजना केवल साधारण और मुख्य रूप से समुदाय उन्मुख योजनाओं को प्रारम्भ करने के लिए
है। यह व्यापक पूंजी वाली, लाखों रूपए की परियोजना लागत वाली जटिल योजना नहीं है। ऐसी
अधिक पूंजी वाली योजनाओं का संचालन एवं रखरखाव ग्राम पंचायतों के साधन की सीमा से बाहर
होगा। इससे योजना अपने आप असफल हो सकती है। सामान्य नियम के रूप में, किसी एक गांव
के लिए 25 लाख या उसके अधिक के पूंजी निवेश वाली योजनाओं को त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति
कार्यक्रम के अंतर्गत प्रारम्भ किया जा सकता है।
सिद्धान्त (Principles)
1.
राज्य सभी मौलिक सुधार सिद्धान्तों को अनुपालन करते हुए ब्लॉकों/ग्राम पंचायतों/लाभार्थी
समूहों में स्वजलधारा कार्यान्वित कर सकते हैं।
2.
समस्त जिले को चरणों में लिया जा सकता है।
3.
ग्राम पंचायत/ब्लॉक पंचायत/लाभार्थी समूह उम्मीदवार हो सकते हैं।
4.
लाभार्थी समूह के मामले में यह पंजीकृत सोसाईटी होनी चाहिए और यह ग्राम पंचायत या ब्लॉक
पंचायत जैसा भी मामला हो, के माध्यम से प्रस्ताव प्रस्तुत करेगी।
5.
संबंधित राज्य/संघ राज्य क्षेत्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट जिला पंचायत, जिला जल और स्वच्छता
मिशन प्रस्ताव को अधिप्रमाणित करती है और राज्य सरकार को उसकी सिफारिश करती है।
6.
ग्रामीण पेयजल आपूर्ति के प्रभारी सचिव संवीक्षा के बाद प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते
हैं और इसकी सिफारिश करते हैं तथा पेयजल आपूर्ति विभाग, ग्रामीण विकास मंत्रालय को
केवल वे प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं जो स्वजलधारा दिशा निर्देशों के अनुरूप हैं।
7.
पात्र प्रस्तावों की फिर पेयजल आपूर्ति विभाग के तकनीकी अधिकारियों द्वारा पुनः संवीक्षा
की जाती है और इन्हें अनुमोदन हेतु राष्ट्रीय योजना स्वीकृति समिति के समक्ष प्रस्तुत
किया जाता है।
8.
स्वजलधारा प्रस्तावों को केवल तभी अनुमोदित एवं स्वीकृत किया जाएगा, जब प्रस्तावों
में निम्नलिखित उपस्थित हों (क) सुधार सिद्धान्तों को अनुपालन करने में संबंधित जिला
कार्यान्वयन एजेंसी और राज्य सरकार की वचनबद्धता, और (ख) समुदाय द्वारा अपने अंशदान
के रूप में, नकद में योजनाओं की अनुमानित पूंजी लागत के 10 प्रतिशत का भुगतान (अ.जा.
और अ.ज.जा. ग्राम पंचायतों/गांवों, जहाँ 2001 जनगणना के अनुसार अ.जा. और अ.ज.जा. की
जनसंख्या 50 प्रतिशत है, के मामले में 5 प्रतिशत किया जाता है।
9.
लाभार्थियों से नकद में 10 प्रतिशत को स्वजलधारा बचत बैंक खाते में दिखाया जाना चाहिए
और आवेदक द्वारा इसकी एक प्रति प्रस्तावों के साथ संलग्न की जानी चाहिए।
10.
मौजूदा जल आपूर्ति को केवल कवर न किया गया या आंशिक रूप से कवर किए गए गांवों में
40 लि. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के प्रस्तावित जल आपूर्ति तक बढ़ाने के लिए ही प्रस्ताव
बनाए जाने चाहिए।
11.
प्रारंभिक तौर पर परियोजना परिव्यय को केवल 25 लाख रू. तक सीमित किया गया है।
12.
परियोजना की अवधि स्वीकृति की तारीख से एक वर्ष तक की है।
13.
सामुदायिक अंशदान को छोड़कर परियोजना की लागत पूरी तरह भारत सरकार द्वारा वहन की जाएगी।
सामुदयिक
अंशदान केवल प्रयोक्ताओं से प्राप्त होने चाहिए। पंचायतों एवं राज्य सरकारों को सामुदायिक
अंशदान के विकल्प के रूप में कोई अन्य सरकारी निधि प्रदान नहीं करनी चाहिए, क्योंकि
यह स्वजलधारा के सिद्धान्तों के अनुरूप नही होगा। प्रयोक्ता केवल तभी योजना को कार्यान्वित
करेंगे और इसके संचालन एवं रखरखाव की जिम्मेदारी लेंगे, जब वे परियोजना लागत में अंशदान
करेंगे। इसलिए लोगों का अंशदान स्वजलधारा का एक अविनिमेय अंग है।
स्वजल
धारा के अंतर्गत पेयजल स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए विद्यालयों और कवर न की गई,
आंशिक रूप से कवर की गई एवं जल अभाव वाली बसावटों में पयेजल सुविधाएं प्रदान करने की
तथा पारंपरिक जल स्त्रोतों को फिर से चालू करने की योजनाएं भी कर्यान्वित की जा सकती
हैं। स्वजलधारा परियोजनाएँ ग्राम/बसावटों/खेड़ा स्तरों पर कार्यान्ति की जा सकती है।
भारत
सरकार द्वारा उन विद्यालयों में, प्रथमिकता के आधार पर पेयजल सुविधाएं उपलब्ध कराने
का निर्णय लिया गया है जहां फिलहाल ऐसी सुविधा नहीं है। समुदाय, माता पिता और विद्यलाय
के शिक्षक योजना की पूंजी लागत के 10 प्रतिशत में अपना अंशदान कर सकते हैं। यदि कुछ
विद्यालयों में पेयजल उपलब्ध कराने के लिए सामुदायकि अंशदान जुटाने में कोई समस्या
होती है तो, स्थानीय संसद सदस्य एम.पी.एल.ए.डी. निधि से 10 प्रतिशत अंशदान उपलब्ध कराना
एक सामान्य प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए। 20 फरवरी, 2003 तक आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र,
मध्यप्रदेश, हरियाणा, पश्चिमी बंगाल, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, हिमाचल
प्रदेश, असम, केरल, कर्नाटक राज्य तथा दादर व नगर हवेली संघ राज्य क्षेत्र के लिए पेयजल
आपर्ती विभाग की राष्ट्रीय योजना स्वीकृति समति द्वारा लगभग 21.73 करोड़ रू. के सामुदायिक
अंशदान के साथ लगभग 241.43 करोड़ रूपये के प्रस्तावों को अनुमोदित किया गया है।
तालिका-3 आठवीं एन.एस.सी. बैठक तक अनुमोदित स्वजलधारा प्रस्तावों के जिले वार व्यौरे
राज्य |
स्वीकृत प्रस्तावों की संख्या |
कुल परिव्यय |
सामुदायिक अंशदान |
भारत सरकार का वित्तपोषण |
अंशदाताओं की सं. |
|
10 प्रतिशत आधार पर |
5 प्रतिशत आधार पर |
|||||
आन्ध्र प्रदेश |
976 |
6561.8 |
646.75 |
165.89 |
5905.62 |
183918 |
असम |
38 |
465.12 |
38.855 |
0.05 |
418.608 |
54641 |
गुजरात |
30 |
184/424 |
16.294 |
46.475 |
166.116 |
11504 |
हरियाणा |
2 |
26.94 |
2.23 |
0.23 |
24.48 |
|
हिमाचल प्रदेश |
473 |
1898.75 |
74.72 |
11.86 |
1708.87 |
16031 |
कर्नाटक |
60 |
411.03 |
34.369 |
5.47 |
369.927 |
13409 |
केरल |
128 |
923.109 |
76.908 |
14.5635 |
830.7985 |
99069 |
मध्य प्रदेश |
44 |
201.38 |
16.61 |
46.805 |
182.44 |
4481 |
महाराष्ट्र |
786 |
9423 |
938 |
18.151 |
8480.7 |
301909 |
उड़ीसा |
309 |
901.438 |
26.534 |
5.73 |
811.3432 |
15547 |
राजस्थान |
35 |
412.51 |
35.74 |
2.82 |
371.259 |
3052 |
तमिलनाडु |
238 |
1002.46 |
58.82 |
29.242 |
902.214 |
35848 |
उत्तरप्रदेश |
666 |
1690.51 |
134.68 |
112.59 |
1521.459 |
80492 |
पं. बंगाल |
5 |
30.9 |
2.46 |
0.32 |
28.121 |
5474 |
दादर व नगर हवेली |
1 |
9.983 |
|
0.09984 |
8.9847 |
|
कुल योग |
3791 |
24143.4 |
2102.9 |
460.478 |
21730.95 |
825375 |
सिंचाई (Irrigation)
ग्रामीण
क्षेत्रों में ग्रामीण जनसंख्या के साथ-साथ जल की आपूर्ति कृषि को भी समान रूप से महत्वपूर्ण
है। कृषि की सफलता के लिए उपजाऊ मिट्टी, जलवायु तथा पर्याप्त मात्रा में जल की आवश्यकता
होती है। कृषि को जल साधन दो प्रकार से प्राप्त होते हैं : (1) वर्षा द्वारा, (ब) कृत्रिम
साधनों (कुओं, तालाबों व नहरों) द्वारा। खेतों में कृत्रिम साधनों द्वारा जल पहुँचाना
सिंचाई कहलाता है और जल पहुँचाने वाले इन कृत्रिम साधनों को सिंचाई के साधन कहा जाता
है।
भारत में सिंचाई का महत्व (Importance of Irrigation in India)
भारतीय
कृषि के लिये सिंचाई के महत्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:
(1) अनिश्चित वर्षा (Uncertainty in Rains): भारत
में वर्षा का रूप अनिश्चित है। यह कभी समय से पूर्व और कभी समय के बाद होती है। किसी
वर्ष वर्षा बहुत अधिक समय तक तथा अधिक मात्रा में होती है किन्तु कभी कहीं-कहीं एक
दम सूखा पड़ जाता है। अतः यह कहा जाता है कि "भारतीय कृषि मानसून पर जुआ है।"
सिचाई की व्यवस्था से ही मानसून की अनिश्चितता से मुक्ति मिल सकती है।
(2) वर्षा का असमान वितरण (Unequal Distribution of Rains): भारत
में वर्षा का वितरण सब स्थानों पर एक सा नहीं है। एक और चेरापूँजी 1980 से. मी. वर्षा
होती है तो दूसरी ओर पश्चिमी राजस्थान में 26 से.मी. से भी कम वर्षा होती है। अत: कम
वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा होने से ही खेती की जा सकती है।
(3) अधिकांश वर्षा एक ही मौसम में होना (Rains in One Season): भारत
में वर्षा का काल भी अल्प होता है। 9 प्रतिशत वर्षा जुलाई से सितम्बर तक तीनों महीनों
में होती है। जाड़ों में वर्षा केवल 10 प्रतिशत ही होती है। कुछ माह तो सूखा ही रहता
है। अतः वर्ष भर कृषि करने के लिये सिंचाई की उचित व्यवस्था होनी आवश्यक है।
(4) विशेष फसलों के लिये (For Particular Crops): कुछ
फसलों के लिये वर्षा द्वारा प्राप्त पानी की अपेक्षा अधिक पानी की आवश्यकता रहती है।
यह कमी सिंचाई द्वारा पूरी की जा सकती है।
(5) नई भूमि पर कृषि करने के लिये (For Cultivation on New Land): भारत
में बहुत सी कृषि योग्य बंजर भूमि है। सिंचाई के साधनों का विकास करके उसे कृषि योग्य
बनाया जा सकता है। इन्दिरा गाँधी नहर बन जाने के कारण नई भूमि में कृषि करना सम्भव
हो गया है।
(6) गहन कृषि के लिये (For Intensive Cultivation): भारत
में तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्नों सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति
के लिये गहन कृषि आवश्यक है। गहन कृषि के कार्यक्रम में प्रधान स्थान सिंचाई को दिया
गया है। कृषि विकास की नई नीति में भी सिंचाई का स्थान केन्द्रित है। अधिक उपज देने
वाले बीज आवश्यक मात्राओं में उर्वरकों के साथ सिंचित क्षेत्रों में ही प्रयोग किये
जा सकते है।
(7) अकाल निवारण के लिये (For Eradication of Famines): सिंचाई
की सुविधाओं के विकास से देश में अकालों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। देश के कुछ
भागों में अकाल पड़ने का प्रमुख कारण सिंचाई के साधनों का अभाव होता है।
(8) बाढ़ों पर नियन्त्रण के लिये (For Flood Control): भारत
की बारहमासी नदियों में वर्षा ऋतु में अधिक वर्षा होने पर बाढ़ आ जाती है। यदि इन नदियों
से सिंचाई के लिये नहरें निकाल दी जायें तो दो लाभ होंगे: (1) बाढ़ों पर नियन्त्रण
हो सकेगा तथा (2) अतिरिक्त पानी का सदुपयोग भी हो सकेगा।
(9) चरागाहों के विकास के लिये (For Development of Pastures): भारत
में जहाँ एक ओर पशुओं की अधिक संख्या है वहाँ दूसरी और चारागाहों की कमी के कारण चारे
का अभाव है। अतः चरागाहों के विकास के लिये सिंचाई की पर्यास व्यवस्था होना आवश्यक
है।
(10) अन्य महत्व (Miscellaneous): (1) नहरों के निर्माण
से आन्तरिक जल यातायात का विकास होता है। (2) सिंचाई के बहुउद्देशीय योजनाओं से विद्युत
शक्ति और मछली उद्योग का विकास होता है। (3) सिंचाई के साधनों के निर्माण से रोजगार
बढ़ता है। (4) सिंचाई के साधनों के विकास से सरकार की आय में वृद्धि होती है।
भारत में सिंचाई के साधन (Means of Irrigation in India)
योजना
आयोग ने सिंचाई के साधनों को तीन वर्गों में विभाजित किया है:
(1) वृहद् सिंचाई योजनायें (Large Irrigation Projects): इस
योजना में 5 करोड़ रूपये से अधिक व्यय वाली योजनाओं को सम्मिलित किया जाता है, जैसे
बड़ी बड़ी नहरें तथा बहुउद्देशीय सिंचाई योजनायें।
(2) मध्यम सिंचाई योजनायें (Medium Irrigation Projects):
25 लाख रूपये से 5 करोड़ रूपये तक व्यय होने वाली योजनायें इसमें सम्मिलित की जाती
है, जैसे मध्यम श्रेणी की नहरे।
(3) लघु सिंचाई योजनायें (Small Irrigation Projects):
25 लाख रूपये से कम व्यय वाली योजनायें इसमें सम्मिलित की जाती है, जैसे छोटी नहरें,
नलकूप, कुएँ तथा तालाब आदि।
अध्ययन
की सुविधा की दृष्टि से सिचाई के साधनों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है : (अ)
कुएँ, (ब) तालाब, तथा (स) नहरें।
(अ) कुएँ (Wells): भारत में सिंचाई के साधनों
में कुओं का पर्याप्त महत्व है। धरती के अन्दर छिपे जल का प्रयोग कुओं के माध्यम से
ही किया जाता है। आजकल भारत में सीची गाने वाली भूमि का लगभग 55 प्रतिशत भाग कुओं द्वारा
ही सींचा जाता है। कुए सिंचाई के सबसे सस्ते साधन हैं और अधिकांश किसान अपने ही साधनों
से कुएँ खुदवा सकते हैं। कुएँ दो प्रकार के होते हैं : (1) कच्चे व पक्के साधारण कुएँ,
(2) नलकूप
(1) कच्चे व पक्के कुएँ (Kuchcha and Pukka Wells): अपने
देश में कच्चे कुओं की संख्या अधिक है। इनके खुदवाने में 700-800 रू. की लागत आती है
और इससे लगभग 1 हैक्टर भूमि पर सिंचाई की जा सकती है। इसी प्रकार पक्के कुएं के निर्माण
में 7000-5000 रू. व्यय होता है और उससे 6 या 7 हैक्टर भूमि पर हरट, चरस तथा टेकली
द्वारा सिंचाई होती है। उत्तरी भारत में कुओं की संख्या बहुत अधिक है जबकि दक्षिणी
भारत में इन कुओं की संख्या अधिक है।
(2) नलकूप (Tubc-Wells): यह नवीनतम एवं महत्वपूर्ण
सिंचाई के साधन है। नलकूपों से विद्युत शक्ति द्वारा सिंचाई के लिये पानी निकाला जाता
है। जहाँ पर विद्युत शक्ति प्राप्त नहीं होती वहाँ पर डीजल इंजन द्वारा पानी निकाला
जाने लगा है। नलकूपों द्वारा सिंचाई में उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा का मुख्य स्थान
है। नलकूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र का 88.3 प्रतिशत भाग इन तीनों राज्यों में ही है।
नलकूपों द्वारा सिंचाई के लाभ (Advantages)
(1)
एक बार पूँजी लगाई जाती है परन्तु इसका संचालन व प्रबन्ध व्यय कम होता है। (2) नलकूपों
द्वारा कुओं की अपेक्षा अधिक सिंचाई होती है। (3) नहरों को अपेक्षा नलकूपों का पानी
फसल के लिये अच्छा होता है। (4) कृषक के श्रम व बैलों की बचत होती है। (5) कृषक को
आवश्यकतानुसार पानी मिल जाता है। (6) नलकूप शहरों के पूरक के रूप में कार्य करते हैं।
(ब)
तालाब (Tanks): भूमि पर अपने आप बने हुये या कृत्रिम ढंग से बनाये गढ्ढे, जिनमें वर्षा
का जल भर जाता है, तालाब कहलाते हैं। निर्माण की दृष्टि से तालाब दो प्रकार के होते
है: कृत्रिम और प्राकृतिक। कृत्रिम तालाब कच्चे और पक्के दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
पक्के तालाब सतह के नीचे और ऊपर दोनों प्रकार के बनाये जा सकते है।
भारत
में कुल सिंचित क्षेत्र का लगभग 5 प्रतिशत भाग तालाबों द्वारा सींचा जाता है। तमिलनाडु,
आन्ध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश तालाबों की सिंचाई के मुख्य क्षेत्र हैं।
इनके अतिरिक्त राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कुछ भागों में भी तालाबों द्वारा
सिंचाई की जाती है। दक्षिणी भारत में निचली भूमि पर स्थित तालाबों के जल को विद्युत
शक्ति द्वारा चालित नलकूपों एवं पम्प सैटों द्वारा ऊपर उठाकर ऊँची भूमि पर सिंचाई के
लिये प्रयोग किया जाता है।
कुओं
के पानी की तरह तालाब का पानी भी बहुत उपजाऊ होता है क्योंकि इसमें पानी तथा कीचड़
होती है। तालाबों को सिंचाई में एक बड़ी कठिनाई यह आती है कि जिस वर्ष वर्षा कम होती
है उस वर्ष इनमें पानी कम भरता तथा उसमें मिट्टी भी जम जाती है। अतः पुराने तालाबों
को गहरा करवाया जाये तथा उनमें मिट्टी का भरना रोका जाये।
(स)
नहरें (Canals): भारत में नहरें सिंचाई का सबसे प्रमुख साधन है। उत्तर के विशाल मैदान
में नहरों द्वारा सर्वाधिक सिंचाई की जाती है। उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा नहरों
द्वारा सिंचाई के प्रमुख क्षेत्र है। इन राज्यों में सिंचाई की नहरों का जल बिछा है।
इनके अतिरिक्त बिहार, राजस्थान तथा पश्चिमी बंगाल के कुछ भागों में नहरों द्वारा सिंचाई
की जाती है। दक्षिणी भारत में डेल्टा क्षेत्रों तथा नदी घाटियों में भी नहरों द्वारा
कुछ सिंचाई की जाती है। भारत में कुल सिंचित क्षेत्र का 32 प्रतिशत भाग नहरों द्वारा
सींचा जाता है।
नहरों का वर्गीकरण (Classification of Canals)
आजकल
भारत में दो प्रकार की नहरें हैं :
(अ) सदावाहिनी (बारहमासी) नहरें : ये ऐसी नदियों से निकाली
जाती है जिनमें वर्ष पर्यन्त जल रहता है।
(ब) बाढ़ की नहरें: ये उन नदियों से निकाली जाती
है जिनमें वर्षा ऋतु में बाढ़ के कारण पानी रहता है, किन्तु शेष दिनों में सूख जाती
है।
नहरों की लम्बाई (Length of Canals)
भारत
में नहरों की लम्बाई 1.5 लाख किलोमीटर है। इतनी विस्तृत नहर प्रणाली किसी भी देश में
नहीं है। इनमें 200 करोड़ रूपये की पूँजी विनियोजित है और इनसे लगभग 2 करोड़ हैक्टर
भूमि की सिंचाई की जाती है।
नहरों द्वारा सिचाई के लाभ (Advantages)
(1)
यह सिंचाई की स्थायी व्यवस्था है,
(2)
समतल मैदानों में शीघ्र व सस्ती दर पर सिंचाई की सुविधा प्रस्तुत करती है,
(3)
ये भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है,
(4)
अकाल का भय समाप्त हो जाता है,
(5)
यातायात की सुविधा प्रस्तुत करती है,
(6)
शुष्क प्रदेशों में खेती सम्भव बनाती है,
(7)
बाढ़ के अतिरिक्त पानी को बहा ले जाती है,
(8)
वर्ष में कई फसलें प्राप्त की जा सकती है,
(9)
नहरी क्षेत्रों में उपनिवेश बन सकते हैं,
(10)
राज्य को आय प्राप्त होती है।
नहरों द्वारा सिंचाई के दोष (Defects)
(1)
नहरी क्षेत्रों में प्रायः मलेरिया फैल जाता
(2)
नहरी पानी पर किसानों में झगड़े होते है,
(3)
नहरों के टूटने पर निकटवर्ती क्षेत्रों में पानी भर जाता है,
(4)
इसमें आवश्यकतानुसार एवं नियमित रूप से पानी नहीं मिल पाता।
योजना काल में सिंचाई की प्रगति (Irrigation During Plans)
(अ) योजनाओं में सिंचाई पर व्यय राशि (Outlay)
1950-51
से अब तक विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं की अवधि में बड़ी, मध्यम तथा लघु सिंचाई परियोजनाओं
पर निम्न तालिका के अनुसार धनराशि व्यय की गई :
तालिका-4 योजनाओं में सिंचाई एवं बाढ़ नियन्त्रण (करोड़ रू.)
योजनायें |
सिंचाई एवं बाढ़ नियन्त्रण पर व्यय की गई धनराशियाँ |
प्रथम छ: योजनाएँ (1951-1985) |
1,25,560 |
सातवीं योजना
(1985-1990) |
37,570 |
वार्षिक योजना
(1990-1992) |
14,240 |
आठवीं योजना
(1992-1997) |
54,010 |
नौवी योजना
(1997-2002) |
56,440 |
(ब) बड़ी तथा मध्यम सिंचाई परियोजनाये (Large and Medium
Irrigation Projects)
1951
में बड़ी तथा मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के द्वारा 97 लाख हैक्टर भूमि में सिंचाई की
जाती थी। 1951 से मार्च 1982 तक शुरू की गई 1,027 बड़ी तथा मध्यम परियोजनाओं में से
506 परियोजनाओं पर काम पूरा हो चुका था तथा 17 परियोजनाओं का कार्य भी पूर्णता के निकट
पहुँच गया था। 1982-83 तक इन परियोजनाओं द्वारा सिंचाई क्षेत्र 97 लाख हैक्टर से बढ़कर
291 लाख हैक्टर हो गया था। 1999-2000 के अन्त तक बड़े तथा मध्यम आकार की सिंचाई परियोजनाओं
की 353 लाख हैक्टेयर क्षमता सृजीत कि गयी।
(स) लघु सिंचाई (Small Irigation)
इस
कार्यक्रम के अन्तर्गत सिंचाई के लिये बिजली तथा डीजल देने की व्यवस्था की गई। कुओं
व नलकूपों के निर्माण के लिये बैंकों द्वारा ऋण दिये गये। लघु सिंचाई कार्यक्रमों के
अन्तर्गत 1951 में 129 लाख हैक्टर भूमि सींची जाती थी जो बढ़कर 1982-83 में 342 लाख
हैक्टर हो गई। 1999-2000 के अन्त तक लघु सिंचाई के अन्तर्गत सृजीत क्षमता 594 लाख हैक्टेयर
तथा प्रयुक्त क्षमता 542 लाख हैक्टेयर थी।
(द) प्रत्येक योजना में सिंचाई का विकास (Irrigation Outlay)
तालिका-5 (लाख हैक्टर में)
योजनायें |
कुल सिंचित क्षेत्र |
1950-51 |
226 |
1955-56 |
256 |
1960-61 |
280 |
1968-69 |
370 |
1973-74 |
422 |
1978-79 |
484 |
1982-83 |
633 |
1984-85 |
680 |
1990-00 |
947 |
भारत में सिंचाई की समस्यायें (Problems of Irrigation in India): भारत
में सिंचाई से सम्बन्धित कतिपय समस्यायें निम्नलिखित हैं
(1) कुल कृषि क्षेत्र के कम भाग में सिंचाई की सुविधा (Lesser
Facilites for Irrigation): भारत में कुल कृषि क्षेत्र के केवल 35
प्रतिशत भाग में सिंचाई की सुविधा है और 65 प्रतिशत भाग अब भी मानसून पर जुआ है। भारत
में केवल 847 लाख हैक्टर पर सिंचाई की जाती है। अन्य देशों की तुलना में यह प्रतिशत
बहुत कम है। मिश्र में 100 प्रतिशत, जापान में 70 प्रतिशत तथा पाकिस्तान में 50 प्रतिशत
कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है।
(2) सिंचाई क्षमता और उपयोग में अन्तर (Difference in
Utilisation): योजना काल में सिंचाई की क्षमता 226 लाख हैक्टर से बढ़ाकर
1999-2000 के अन्त तक 947 लाख हैक्टर कर दी गई है परन्तु उपयोग 847 लाख हैक्टर भूमि
में ही हो रहा है अर्थात् सिंचाई की पूरी क्षमता का लाभ नहीं उठाया गया है।
(3) सिंचाई की सुविधाओं का असमान वितरण (Unequal Distribution): देश
के विभिन्न भागों में सिंचाई सुविधायें समान रूप से विकसित नहीं हो पाई हैं। पंजाब,
हरियाणा, उत्तर प्रदेश व तमिलनाडु में सिंचाई की व्यवस्था अच्छी है, जबकि महाराष्ट्र,
गुजरात और मध्य प्रदेश में सिंचाई की सुविधा कम हैं। जैसा कि अग्रांकित तालिका से स्पष्ट
हैं :
तालिका-6 राज्यों में सिचाई क्षमता (प्रतिशत में)
राज्य |
कुल कृषि भूमि में सिंचित भूमि का प्रतिशत |
राज्य |
कुल कृषि भूमि में सिंचित भूमि का प्रतिशत |
पंजाब |
75 |
राजस्थान |
29 |
हरियाणा |
53 |
उड़ीसा |
20 |
तमिलनाडु |
52 |
गुजरात |
15 |
उत्तर प्रदेश |
43 |
कर्नाटक |
14 |
आन्ध्र व बिहार |
35 |
केरल |
13 |
पं. बंगाल |
30 |
महाराष्ट्र |
12 |
(4) वित्तीय समस्या (Problem of Finance): सिंचाई
की बड़ी योजनाओं का लागत व्यय महंगाई वृद्धि के कारण बढ़ता जा रहा है जिस कारण उनके
निर्माण में वित्तीय कठिनाई उपस्थित होती है। दूसरे उनके प्रबन्ध आदि में भी समस्या
उत्पन्न होती है। इस कारण आजकल हमारे देश में लघु सिंचाई के विकास पर अधिक बल दिया
जा रहा है।
(5) पानी के उपयोग में अपव्ययता (Wastage): नहर
द्वारा सिंचाई की सुविधा होने पर किसान पानी के उपयोग में सावधानी नहीं बरतते जिससे
पानी के प्रयोग में अपव्ययिता होती है। इसका घातक प्रभाव यह होता है कि सिंचित भूमि
में क्षार व लवण की मात्रा बढ़ जाती है और उत्पादन घट जाता है।
(6) सिंचाई की ऊँची दरें (High Rates of Irrigation): अनेक
राज्यों में सिंचाई की दरों को बहुत बढ़ा दिया गया है जिसका भार उठाने में लघु व मध्यम
किसान असमर्थ है।
(7) आन्तरिक जल स्रोतों का कम उपयोग (Lesser Utilisation): भूमि
के अन्दर विद्यमान जल साधनों के केवल 40 प्रतिशत भाग को ही कुँओं द्वारा सिंचाई के
उपयोग में ला पाये है। शेष जल का उपयोग करना आवश्यक है।
जल के बेहतर उपयोग के लिये सुझाव (Suggestions for the Better Use
of Water)
जल
कृषि के लिये अपरिहार्य है। अत: कृषि विकास के लिये यह आवश्यक है कि जल की प्रति इकाई
उत्पादकता में तेजी से वृद्धि की जाये। इसके लिये उपलबध जल व सिंचाई की सुविधाओं का
ईटतम उपयोग किया जाना चाहिये। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये निम्न सुझाव दिये जा सकते
हैं:
(1) भूमिगत स्रोतों का ईष्टतम प्रयोग (Optimum Utilisation of
Ground Water): सिंचाई के लिये जिन कुओं का निर्माण किया जा चुका है, उनका
बेहतर प्रयोग किया जाना चाहिये। वर्तमान समय में इस साधन का पूर्ण उपयोग नहीं हो रहा
है। इसके प्रमुख कारण है: शक्ति के साधनो का अभाव, किसानों में परस्पर सहयोग का अभाव,
फसलों की गहनता में कमी।
(2) भूमि के आकार को ठीक करना (Land Shaping): हमारे
देश में का आकार सिंचाई के अनुकूल नहीं है। भूमि में कहीं गड्ढे हैं तो कही टीले हैं।
ऊबड़ खाबड़ जमीन पर सिंचाई की सही व्यवस्था नहीं हो सकती । साथ ही नालियों का सही प्रबन्ध
नहीं है।
(3) चकबन्दी (Consolidation of Holdings): हमारे
देश में कृषि जोतों के आकार छोटे व बिखरे हुये है। अधिक लम्बी व घुमावदार नालियों के
कारण पानी का अत्यधिक अपव्यय होता है। चकबन्दी द्वारा खेतों के आकार को सही करके पानी
के इस दुरूपयोग को रोका जा सकता है।
(4) अनुकूल फसल प्रतिरूप (Appropriate Crop pattern): फसलों
का प्रतिरूप ऐसा होना चाहिये कि वर्षा के पानी और सिंचाई सुविधा का समुचित उपयोग किया
जा सके। इसके लिये बहु फसलीय कार्यक्रम अपनाया जाना चाहिये।
(5) पानी का उचित प्रबन्ध (Proper Management of Water): इसके
लिये निम्न बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिये:
(1)
नालियाँ पक्की बनायी जाये।
(2)
फसलों को पानी नियमित रूप से एवं उपयुक्त समय से दिया जाये।
(3)
सिंचाई विकास के लिये योजना बद्ध कार्यक्रम बनाया जाये।
बाढ़ नियन्त्रण (Flood Control)
वर्षा
कृषि फसलों के लिये वरदान होती है किन्तु अतिवृष्टि बाढ़ का रूप लेकर विनाशकारी अभिशाप
बन जाती है। बाढ़ आने पर ग्रामों में पानी भर जाता है, पशु व झोपड़ियों बाढ़ के पानी
में बह जाती है, कच्चे मकान गिर जाते हैं, खड़ी फसलें नष्ट हो जाती है, सड़के टूट जाती
हैं, पटरियाँ उखड़ जाती है, भूमि-क्षरण बढ़ जाता है, कृषि कार्य रूक जाता है और बाढ़ग्रस्त
क्षेत्र भयंकर रोगों का शिकार हो जाता है। अतः बाढ़ों पर नियन्त्रण पाना अनिवार्य है।
बाढ़ नियन्त्रण के उपाय (Measures of Flood Control)
सन्
1947 तक बाढ़ नियन्त्रण के लिये विभिन्न नदियों पर कुल मिलाकर 5,300 कि. मी. लम्बाई
के तटबन्ध बनाये गये थे। स्वतन्त्रता के पश्चात सर्वप्रथम 1954 में बाढ़ नियन्त्रण
के लिये एक राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम तैयार किया गया। इस योजना को तीन भागों में
बाँट दिया गयाः
(1) तत्कालीन कार्य : अंकों का संग्रहण तथा बाढ़
सुरक्षा उपाय कार्यान्वत करना।
(2) अल्पकालीन कार्य : तटबन्ध बनाना, कुछ नगरों को
सुरक्षा प्रदान करना तथा ग्रामों को ऊँचे पर बसाना आदि।
(3) दीर्घकालीन कार्य : बांध बनाना, चालू कार्यों
को स्थिरता प्रदान करना, अतिरिक्त तटबन्ध बनाना तथा जल निकासी की खराब व्यवस्था में
सुधार करना।
इस
कार्यक्रम के क्रियान्वयन हेतु राज्य बाढ़ नियन्त्रण परिषदें स्थापित की गयी है। राष्ट्रीय
स्तर पर केन्द्रीय जल आयोग, गंगा बाढ़ नियन्त्रण आदि द्वारा
बाढ़ नियन्त्रण की योजनायें बनायी जाती है और योजना आयोग द्वारा अनुमोदन प्राप्त हो
जाने पर उनहें क्रियान्वित किया जाता है। केन्द्रीय सरकार द्वारा ब्रह्मपुत्र घाटी
की बाढ़ को नियन्त्रित करने के लिये ब्रह्मपुत्र बोर्ड स्थापित किया गया। अब तक लगभग
13,000 कि. मी. तटबन्ध बनाये जा चुके हैं, 300 से अधिक नगरों को बाढ़ सुरक्षा प्रदान
की जा चुकी है, 5,000 से भी अधिक ग्रामों को ऊँचे पर बसाया जा चुका है तथा 122,57 लाख
है. क्षेत्र की बाढ़ से सुरक्षा की गयी है। केरल के 320 कि. मी. समुद्र तट की बाढ़ों
से सुरक्षा प्रदान की जा चुकी है। बाढ़ों के बारे में अग्रिम सूचना देने हेतु बाढ़
पूर्वानुमान कार्यालय स्थापित किये गये हैं जो महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
बाढ़ नियन्त्रण उपायों के दोष (Defects of Flood Control Measures)
भारत
सरकार की बाढ़ नियन्त्रण योजनायें बाढ़ों से होने वाली जन धन की क्षति को रोकने में
असफल रही है। बाढ़ नियन्त्रण कार्यक्रमों के प्रमुख दोष निम्नलिखित है:
(1)
बाढ़ नियन्त्रण की दिशा में वास्तविक कार्य न होकर कागजी कार्य अधिक हुआ है।
(2)
समुचित सांख्यिकी के अभाव के कारण बाढ़ नियन्त्रण के कार्य विफल रहे हैं।
(3)
बाढ़ों को रोकने के लिये बांध बनाने का कार्य दोषपूर्ण रहा है ।
(4)
पुराने बांधों की सुरक्षा पर उचित ध्यान नहीं दिया गया है।
(5)
बाढ़ नियन्त्रण के कार्यक्रमों को कृषि विकास के साथ जोड़ दिया गया है।
अत:
बाढ़ नियन्त्रण के कार्यों पर उचित ध्यान नहीं दिया जा सका है ।
शुष्क खेती (Dry Farming)
जिन
क्षेत्रों में वर्षा पर्याप्त मात्रा में नहीं होती, वे क्षेत्र सुखाग्रस्त क्षेत्र
कहलाते हैं। अनुमान है कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 16 प्रतिशत भाग जिसमें देश
की कुल जनसंख्या का 11 प्रतिशत भाग रहता है, सुखे का सदैव भय रहता है। शुष्क खेती इस
के निराकरण का एक महत्वपूर्ण उपाय है।
शुष्क खेती (Dry Farming): पूर्ण वर्षा पर निर्भर करती
है। शुष्क खेती की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित है:
(1)
कृषि उत्पादकता का स्तर निम्न रहता है।
(2)
कृषि की दशायें अस्थिर होती है।
(3)
कृषि पूर्णतः वर्षा पर निर्भर करती है।
(4)
कृषि मौसम की प्रतिकूलता से सदैव प्रभावित होती है।
(5)
प्रथम वर्षा के तत्काल बाद आवश्यक कृषि क्रियायें सम्पन्न नहीं हो पाती है।
(6)
कृषि सहायतार्थ किसी प्रकार के कोष निर्मित नहीं किये जाते।
(7)
कृषि कला में परम्परागत उत्पादन तकनीकी का ही प्रयोग किया जाता है।
हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान' द्वारा ऐसी तकनीकी का विकास किया
गया है जो शुष्क खेती में सुधार करेगी। इस नई तकनीकी की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित
है:
(1)
वर्षा के पानी को पर्याप्त मात्रा में एकत्र करने की व्यवस्था की जाये। इसके लिये खेत
जोतने और जल वाष्प संरक्षण की अनुकूल तकनीकें विकसित की गयी हैं।
(2)
बहुफसलीय खेती को अपनाने के लिये शीघ्र तैयार होने वाली फसलों की खेती करना।
(3)
पौधों को पौष्टिक आहार देना।
(4)
उर्वरण की नई तकनीकी का विकास करना।
(5)
भू-संरक्षण एवं जल वाष्प संरक्षण के लिये आवश्यक प्रबन्ध करना।
सूखाग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम (Drought Prone Area Programme-DPAP)
यह
कार्यक्रम 1970-71 में आरम्भ किया गया। इस कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित
है:
(1)
सूख के निराकरण के लिये धीरे धीरे प्रयास करना।
(2)
सूखा ग्रस्त क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों का अनुकूल प्रयोग करना।
(3)
सूखा पीड़ित ग्रामीणों को शीघ्र राहत पहुँचाना।
उपर्युक्त
उद्देश्यों की पूर्ति के लिये निम्न कार्यक्रमों पर बल दिया गया है:
(अ)
सिंचाई के साधनों का विकास एवं उनका प्रबन्ध करना।
(ब)
भू-संरक्षण, जल वाष्प संरक्षण एवं वनारोपण के कार्यक्रम।
(स)
फसल के प्रतिरूप में परिवर्तन लाना।
(द)
चरागाहों का विकास।
(य)
पशु धन का विकास।
(र)
लघु एवं सीमान्त कृषकों का उत्थान ।
यह
कार्यक्रम उन स्थानों पर लागू किया जाता है जहाँ पर निरन्तर सूखा पड़ता है अथवा जिस
क्षेत्र में सिंचाई के साधन अपर्याप्त है।
(5) ग्रामीण स्वास्थ्य (Rural Health)
स्वतन्त्रता
के समय भारत में स्वास्थ्य रक्षा सेवाएँ प्रमुख रूप शहरों में केन्द्रित तथा अस्पताल
आधारित थी। कार्यात्मक प्राथमिक स्वास्थ्य रक्षा आधारभूत ढाँचे के सृजन के महत्व की
आवश्यकता अनुभव करते हुए प्राथमिक स्वास्थ्य रक्षा आधारभूत ढाँचा तैयार करने से सम्बन्धित
मापदण्ड तैयार किये गये। ऐसा करते समय जनसंख्या, जनसंख्या घनत्व तथा भूभाग को आधार
बनाया गया। राज्यों के संसाधन आबंटन में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के अन्तर्गत कोषों
को इस प्रयोजन हेतु चिन्हित किया गया। बाहरी सहायतार्थ परियोजनाओं के माध्यम से परिवार
कल्याण विभाग द्वारा प्राप्त होने वाले कोषों का प्रयोग ग्रामीण स्वास्थ्य आधारभूत
संरचना तैयार करने हेतु किया गया। प्राथमिक स्वास्थ्य रक्षा आधारभूत संरचना की तत्कालीन
कार्यात्मक स्थिति (उप-केन्द्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तथा सामुदायिक स्वास्थ्य
केन्द्र) तथा जनगणना में निर्धारित मापदण्डों के अनुरूप जहाँ भी आवश्यक हो अतिरिक्त
सुविधाएँ जुटाने हेतु प्रयास किये गये।
जनसंख्या
स्वास्थ्य तथा पोषाहार स्थिति में सुधार भारत के सामाजिक विकास कार्यक्रम का प्रमुख
केन्द्र बिन्दु रहा है। इस उद्देश्य की पूर्ति भारत की गैर पहुँच गैर-वरियता प्राप्त
जनसंख्या के भाग को स्वास्थ्य, परिवार कल्याण एवं पोषहार सेवाओं की उपलब्धि द्वारा
किया जाना है। विगत पाँच वर्षों के दौरान, भारत में विशाल स्वास्थ्य सरकारी आधारभूत
ढाँचा, प्राथमिक, द्वितीयक तथा टेरीटरी क्षेत्र में तथा साथ ही स्वेच्छिक तथा निजी
क्षेत्र में विशाल स्वास्थ्य आधारभूत ढाँचा खड़ा करके किया गया है। स्वास्थ्य सेवाओं
से सम्बन्धित इन संस्थानों में मेडिकल कालेजों तथा अर्द्ध पेशेवर संस्थानों में आधुनिक
औषधि से पारगंत प्राप्त पेशेवर तथा अर्द्ध पेशेवर नियुक्त है। भारत की जनसंख्या को
उपचार हेतु स्वास्थ्य सम्बन्धि तकनिक से सूपरिचित, जिसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के
रोगों का शीघ्र पता लगाना तथा उपचार किया जाना सम्भव हो, अब लोगों की सहज पहुँच में
है।
स्वास्थ्य रक्षण प्रणाली (Health Care System)
भारत
में जो ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था विद्यमान है। उसे निम्न प्रकार विभाजित करके
प्रस्तुत किया जा सकता है:
1.
प्राथमिक स्वास्थ्य रक्षण सेवा (Primary Health Care Services)
2.
उप-केन्द्र (Sub-Centre)
3.
सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र (Community Health Centres)
प्राथमिक
स्वास्थ्य सेवा का आधारभूत ढाँचा जनसंख्या को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के हेतु प्रथम
स्तर का सम्पर्क है। इन केन्द्रों की स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने में भूमिका किया
गया है। इससे नि:सन्देह उपरिव्यय ढाँचे तथा मानवशक्ति नियोजन में राशि का को दृष्टिगत
रखते हुए केन्द्र, राज्य तथा अन्य अनेक सरकार से सम्बन्धित निकायों द्वारा एक साथ प्राथमिक
स्वास्थ्य सेवा, आधारभूत ढाँचे तथा मानवशक्ति को विकसित करना प्रारम्भ दोहरापन पनपा
ऐसे
प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र जिनका संचालन सरकारी धन से होता है, निम्नलिखित है।
ग्रामीण
क्षेत्रों में आधुनिक औषध प्राथमिक केन्द्र जिनका आधारभूत ढांचा राज्य सरकार द्वारा
विकसित किया गया इस ढाँचे का निर्माण निम्न से हुआ है:
उपकेन्द्र
- 137271
प्राथमिक
स्वास्थ्य केन्द्र - 22975
सामुदायिक
स्वास्थ्य केन्द्र - 2935
ग्रामीण
कल्याण केन्द्र- 5435
सभी
अस्पताल , यहाँ तक कि जो द्वितीयक अथवा टेरीटरी सेवा केन्द्र के रूप में स्थापित किये
गये है वे भी ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करते हैं।
उप-केन्द्र (Sub-Centre)
उप-केन्द्र
ग्रामीण जनसंख्या को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने वाला अत्यन्त प्राथमिक स्वास्थ्य
संस्थान है।
आदिवासी स्वास्थ्य (Tribal Health)
भारत
की आदिवासी जनसंख्या की स्वास्थ्य सेवाओं तक सहज पहुँच आश्वस्त करको के उद्धेश्य से
वर्तमान में 20,769 स्वास्थ्य उप केन्द, 328 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, 541 सामुदायिक
स्वास्थ्य केन्द्र, 142 अस्पताल, 78 चलायमान क्लिनिक तथा 2305 डिसपेन्सरिया आदिवासी
क्षेत्रों में स्थापित कि गयी है। इसके अतिरिक्त 16,845 उप केन्द्र, 5,987 प्राथमिक
स्वास्थ्य केन्द्र तथा 373 सामुदायिक केन्द्र ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित किये
गये हैं जिनमें 20 प्रतिशत अथवा इससे अधिक अनुसूचित जाति की जनसंख्या निवास करती है।
अधिकांश केन्द्रिय प्रायोजित रोग नियन्त्रण कार्यक्रम का केन्द्र बिन्दु आदिवासी क्षेत्रों
में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की सहज उपलब्धि रहा है। राष्ट्रीय मलेरिया विरोधि कार्यक्रम
के आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़िसा तथा राजस्थान के
100 आदिवासी वर्णित समस्त प्रयासों के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी जनसंख्या
की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच दुर्गम ही रही है।
ग्रामीण स्वास्थ्य तथा दसवीं योजना (Rural Health and Tenth Plan)
जीवन
में स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण स्वीकार करते हुए, दसवीं योजना के दौरान इस दिशा में महत्वपूर्ण
प्रस्ताव किये गये है। जहाँ तक की ग्रामीण स्वास्थ्य का प्रश्न है, यह प्रस्तावित किया
गया है कि निर्धनता के नीचे निवास करने वाली जनसंख्या को प्रदान कि जाने वाली सेवाएँ
आवश्यकता उन्मुख (Nced based) होगी न कि लोगों की भुगतान करने की क्षमता उन्मुख
(Ability to Pay for the Service)
पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका (Role of Panchayati Raj
Institutions)
73
वां संवैधानिक संशोधन के अनुच्छेद 243 जी के अन्तर्गत राज्य सरकारों को पंचायती राज
संस्थाओं को पर्याप्त शक्तियां तथा उत्तरदायित्व प्रदान करने हेतु कहा गया है जिससे
वे स्थानीय स्तर की प्रभावशाली संस्थाओं के रूप में उभर सके। ग्रामीण क्षेत्रों के
विकास की दृष्टि से विभिन्न क्षेत्रों के विकास की योजनाएँ तैयार तथा क्रियान्वित करने
की अपेक्षा पंचायती राज संस्थाओं से कि गयी है। इसके लिए इन संस्थाओं को अतिरिक्त वित्तीय
संसाधनों की उपलब्धि होगी। इससे पंचायती राज संस्थाएं ग्रामीण क्षेत्रों में पहले से
बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करवाने में सक्षम होगी।
प्राथमिक स्वास्थ्य रक्षण स्तर पर स्वास्थ्य सेवा सुधार
वर्तमान
युग सुधारों का है तथा स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार भी इससे अछुता नहीं है। ग्रामीण
क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रयास किये गये
है। जिनका विवरण निम्न प्रकार है:
1.
ग्रामीण अस्पतालों का तालुका तथा उप खण्ड स्तर पर एकिकरण, पुनः संगठन तथा पुनः गठन।
2.
न्यूनतम आधारभूत कार्यक्रम के अन्तर्गत कोषों का प्रभावी प्रयोग। प्रधानमन्त्री ग्रामोदय
योजना के अन्तर्गत बेहतर ग्रामीण सेवाओं के लिए अतिरिक्त धनराशि की स्वीकृति।
3.
ग्रामीण क्षेत्रों में चल स्वास्थ्य क्लिीनीकों (Mobile Health Clinics)का संचालन।
अनेक
राज्यों सरकारों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध करवाने
की दृष्टि विदेशी वित्तीय संसाधन प्राप्त करने में भी सफलता प्राप्त कि गयी है। जिससे
स्वयं के पास उपलब्ध साधनों का अधिक फलदायक प्रयोग सम्भव हो सकेगा। ग्रामीण प्राथमिक
स्वास्थ्य रक्षण केन्द्रों की कार्यात्मक स्थिति में सुधार हेतु प्रधानमन्त्री ग्रामोदय
योजना के अन्तर्गत अतिरिक्त कोष उपलब्ध करवाये गये है।
(5) ग्रामीण शिक्षा (Rural Education)
शिक्षा
मानव संसाधन प्रयासों में एक अत्यन्त नाजुक आगत (Sensitive Input) है जो कि राष्ट्र
के आर्थिक विकास हेतु अत्यन्त आवश्यक है। सामाजिक-आर्थिक विकास के महत्वपूर्ण संकेताकों
अर्थात अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर, जन्म दर, मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, साक्षरता
दर सभी आपस में एक दूसरे से निकटतः सम्बन्धित है। साक्षरता दर उपर्युक्त वर्णित संकेताकों
में वृद्धि अथवा गिरावट में प्रमुख निर्णायक होती है। इस बात के पर्यास प्रमाण है की
भारतीय जन्म दर, प्रमुखतः महिला साक्षरता का निम्न जन्म दर से सकारात्मक सम्बन्ध रहा
है। इस तथ्य को महत्व प्रदान करते हुए ने प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम के विकास की दिशा
में अधिक सजगता दशनि पर बल दिया है। शिक्षा का विकास तथा साक्षरता वृद्धि केवल इसलिए
ही आवश्यक नहीं है कि इससे सामाजिक न्याय प्रोत्साहित होगा वरन् आर्थिक संवृद्धि को
त्वरित करने, सामाजिक खुशहाली तथा सामाजिक स्थिरता की दृष्टि से भी एक किया जाना वांछनीय
है।
साक्षरता वृद्धि
विगत
दशकों के दौरान भारत में साक्षरता दर में महत्वपूर्ण वृद्धि दृष्टिगत हुई है। कुल साक्षरता
दर जो 1951 में केवल 16.67 प्रतिशत थी वह 1991 में 52.21 प्रतिशत हो गयी। 2001 की जनगणना
से सम्बन्धित साक्षरता के अनुमानित आंकड़े दर्शाते हैं कि साक्षरता दर बढ़कर 65.37
प्रतिशत तक पहुँच गयी है - 75.85 प्रतिशत पुरूष साक्षरता दर तथा 54.16 प्रतिशत महिला
साक्षरता दर। भारत में यह प्रथम अवशर है जबकि वास्तविक अर्थ में निरक्षरों की संख्या
31.9 मिलियन कम हुयी है। इसके विपरीत साक्षरों की संख्या में 1991 तथा 2001 के मध्य
203.6 मिलियन की वृद्धि दर्ज कि गयी है। इस अवधि के दौरान महिला साक्षरता में
11.72 प्रतिशत की तुलना में 14.87 प्रतिशत हो गयी भारत के प्रत्येक राज्य में बिना
किसी अपवाद के स्त्री तथा पुरूष दोनों ही स्थितियों में साक्षरता दर में विगत दशकों
के दौरान वृद्धि दृष्टिगत हुयी है जैसा कि तालिका -7 में दर्शाया गया है:
तालिका-7 साक्षरता दरें - 1951-2000
वर्ष |
स्त्री |
पुरूष |
कुल |
1951 |
24.95 |
7.93 |
16.67 |
1961 |
34.44 |
12.95 |
24.02 |
1971 |
39.45 |
18.69 |
29.45 |
1981 |
66.50 |
29.85 |
43.67 |
1991 |
64.13 |
39.29 |
52.21 |
2000 |
75.85 |
54.16 |
65.37 |
जनसंख्या
तथा निवासियों की संख्या में महत्वपूर्ण वृद्धि के बाजजूद राष्ट्रिय मापदण्डों के अनुरूप
प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक स्कूलों के क्षेत्र में वृद्धि हुई है। देश में एक मिलियन
ग्रामीण निवासियों में से 5,28,000 को प्राथमिक शिक्षा सुविधा 1993-94 में प्राप्त
थी। इसमें से लगभग 83.4 प्रतिशत को एक किलोमीटर के अन्दर प्राथमिक स्कूल/खण्ड की सुविधा
प्राप्त थी। वर्तमान में निर्धारित मापदण्डों के अनुरूप 1,00,000 आवासियों को प्राथमिक
शिक्षा की सुविधा प्राप्त नहीं है
नवीं योजना की समीक्षा (Review of Ninth Plan)
नवी
योजना में मानव संसाधन विकास पर व्यय को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विनियोग स्वीकार किया
गया। प्रधानमंत्री की विशिष्ट कार्य योजना में असाक्षरता के सम्पूर्ण उन्मुलन, स्कूल
जाने की उम्र तक शिक्षा की समान पहुँच तथा अवशर उपलब्ध करवाना, प्रत्येक स्तर पर शिक्षा
की गुणवत्ता में सुधार तथा आधारभूत सुविधाओं के विस्तार तथा सुधार की आवश्यकता आदि
पक्षों पर बल दिया गया। नवीं योजना के शिक्षा व्यूह रचना का केन्द्र बिन्दु के अन्तर्गत
सम्पूर्ण वृद्धि साक्षरता, प्रत्येक स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार तथा अध्ययनकर्ताओं
की उपलब्धियों में सुधार को महत्त्व प्रदान किया गया। नवीं योजना में सर्वहारा वर्ग,
जिसके अन्तर्गत लड़कियां तथा अयोग्य बच्चों के शिक्षा के स्तर सुधार तथा क्षेत्रीय
विषमताएँ उन्मुलन पर भी बल दिया गया।
इस
योजना में प्राथमिक शिक्षा को उच्च वरियता प्रदान कि गयी। योजना के लक्ष्यों की प्राप्ति
हेतु अनेक उपायों की घोषणा कि गयी जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है:
(1)
प्राथमिक शिक्षा को आधारभूत अधिकार बनाने के उद्देश्य से संविधान में संशोधन करना।
(2)
जिला, खण्ड तथा ग्रामीण स्तर की स्थानिय निकायों की सहायता से शिक्षा की योजना का विकेन्द्रीकरण,
निर्देशन तथा प्रबन्ध करना।
(3)
वृद्धि साक्षरता का प्राथमिकता शिक्षा के प्रचार द्वारा स्थानिय समूदायों का सामाजिक
संघटन।
(4)
गैर-सरकारी संगठनों तथा स्वेच्छिक संगठनों की सुदृढ़ साझेदारी।
नवीं योजना की उपलब्धियाँ (Achievements of Ninth Plan)
विभिन्न
मध्यवर्तीय व्यूह रचना अपनाये जाने के बावजूद शिक्षा की जिन्हें आवश्यकता है उनकी पहुँच
तक शिक्षा को पहुँचाने में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुयी। छठे अखील भारतीय शिक्षा
सर्वेक्षण (1993) के अनुसार ग्रामीण नसंख्या का 94 प्रतिशत भाग जिसके अन्तर्गत
8.84 लाख लोग बसते है उन्हें 1 किलोमीटर की परिधि में प्राथमिक स्कूल की सुविधा प्राप्त
है। नवीं योजना के प्रथम तीन वर्षों (1997-2000) के दौरान 43,000 नवीन स्कूलों को प्रारम्भ
किया गया।
नवीं
योजना के दौरान प्राथमिक तथा प्रोढ़ शिक्षा पर व्यय को तालिका-8 में दर्शाया गया है:
तालिका-8 नवीं योजना का निष्पादन (करोड़ रूपये)
उप-क्षेत्र |
आठवीं योजना व्यय |
नवीं योजना परिव्यय |
नवीं योजना का कुल अनुमानित व्यय |
||
करोड़ रूपये |
प्रतिशत |
करोड़ रूपये |
प्रतिशत |
||
प्रारम्भिक शिक्षा |
4007 |
47.0 |
16,370 |
66 |
14,523.29 |
प्रौढ़ शिक्षा |
718 |
8.4 |
630 |
2.5 |
520.38 |
कार्यक्रम/योजनाएँ (Programmes/Schemes)
सर्वश्रेष्ठ
शिक्षा सुविधाओं का ग्रामीण क्षेत्र में विस्तार ग्रामीण विकास की आधारशिला है। इस
तथ्य को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर शिक्षा सुविधाएं उपलब्ध करवाने
के उद्देश्य से विभिन्न पंचवर्षीय योजना में महत्वपूर्ण प्रयास किये गये है। इन प्रयासों
के क्रियान्वयन को सफल तथा कार्य निष्पादन को प्रभावी बनाने हेतु अनेक कार्यक्रम संचालित
किये जाने है। इन कार्यक्रमों का संक्षप्त विवरण निम्न प्रकार है:
1. शिक्षा कर्मी परियोजना (Shiksha Karmi Project): दुर्गम
तथा सामाजिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में गुणात्मक रूप में प्राथमिक शिक्षा के साधारणीकरण
से
क्रियान्वित
यह एक अनुठी योजना है। शिक्षाकर्मी योजना राजस्थान के 2708 गाँवों के 147
खण्डों
तथा 31 जिलों में फैली हुई है। इस योजना के अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने के
लिए जिन बच्चों को आकर्षिक किया गया उनकि संख्या में विगत वर्षों के दौरान 7 गुना वृद्धि
सम्भव हुयी है।
2. लोक जुम्बीस परियोजना (Lok Jumbish) : बाहरी
वित्तीय सहायता से संचालित आधारभूत शिक्षा प्रदान करने वाली अन्य परियोजना लोक जुम्बीस
है जो राजस्थान राज्य में प्रारम्भ कि गयी। यह परियोजना विकेन्द्रीयकरण तथा अधिकारों
की सुपूर्दगी (Delegation of Authority)के प्रबन्धकिय सिद्धान्त के साथ नवपर्वतनीय
प्रबन्धकीय ढाँचे के अन्तर्गत स्थापित कि गयी योजना है। इस परियोजना के संचालन द्वारा
पहली से आठवी कक्षा तक शिक्षा के गुणात्मक विकास में नवीन विधि द्वारा सकारात्मक सहयोग
प्रदान किया गया। इस योजना के अन्तर्गत 8,921 गाँवों में स्कूल प्रारम्भ किये गये,
2560 सहज शिक्षा केन्द्र स्थापित किये गये जिनमें 47,000 बच्चों को शिक्षा प्रदान कि
गयी। इस परियोजना के अन्तर्गत 529 नवीन प्राथमिक विद्यालय 2683 उच्च प्राथमिक विद्यालय
प्रारम्भ किये गये। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत 239 पूर्व-स्कूल केन्द्रों को क्रमोन्नत
किया गया तथा 7600 से अधिक महिला समूहों का गठन किया गया।
(3) महिला समख्या (Mahila Samakhya) : बाहरी
सहायता से ही प्रारम्भ तथा महिला विकास को केन्द्र बिन्दु बनाकर प्रारम्भ किया गया।
एक अन्य कार्यक्रम महिला समख्या है। यह कार्यक्रम 1989 में पाँच राज्यों में प्रारम्भ
किया गया। इस कार्यक्रम के प्रारम्भ तथा संचालन का प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र
में सामाजिक-आर्थिक रूप से सीमान्त समूह से सम्बन्धित महिलाओं हेतु शिक्षा तथा रोजगार
को प्रोत्साहित करना है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत महिलाओं को सीखने का एक ऐसा वातावरण
प्रदान किया जाता है जिसके अन्तर्गत महिलाए संयुक्त रूप से अपनी योग्यता का प्रदर्शन
करती है। इस प्रकार सुदृढ़ हुआ महिला समख्या समूह निर्धन तथा सीमान्त महिलाओं तक पहुँचकर
उन्हें परम्परागत तथा समाज के विकास में बाधक रीति-रिवाजों जैसे बाल विवाह, बाल श्रम,
तथा महिलाओं के विरूद्ध जबरदस्ती आदि कुरूतियों से निपटने के प्रति प्रोत्साहित करती
है। महिला शिक्षा केन्द्रों के माध्यम से सजग महिलाओं का पूल बना लिया गया है जिनकी
अपनी लड़कियों की साक्षरता तथा शिक्षा के प्रति सजगता, निरन्तर बढ़ती जा रही है। इसके
अनेक सकारात्मक सामाजिक प्रभाव जैसे लड़कियों का विवाह देर से करने के रूप में परिलक्षित
हुआ है। वर्तमान में यह कार्यक्रम भारत के 10 राज्यों के 53 जिलो के 9000 गाँवों में
संचालित हो रहा है।
(4) अपरान्ह भोजन योजना (Mid-Day Meal Scheme) : प्राथमिक
शिक्षा को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया राष्ट्रीय पोषाहार कार्यक्रम
जिसे सामान्य नाम अपरान्ह भोजन योजना के नाम से जाना जाता है, 1995 में प्रारम्भ किया
गया। इस योजना के संचालन का प्रमुख उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा का साधारणीकरण करते हुए
छात्रों की संख्या में वृद्धि करना है, छात्रों को रोकर उनकी उपस्थिति आश्वस्त करने
की दृष्टि से प्राथमिक कक्षा में उन्हें पोषाहार प्रदान किया जाता है। योजना में अन्तर्गत
प्रत्येक छात्र को प्रति स्कूल दिवश में 100 ग्राम कैलोरी के तुल्य का भोजन पके हुए
गेंहुँ अथवा चावल के रूप में परोसा जाता है।
गैर-औपचारिक शिक्षा (Non-Formal Education)
गैर-औपचारिक
शिक्षा योजना को 1997-98 में एक मार्गदर्शी योजना के रूप में प्रारम्भ किया गया तथा
अगामी वर्षों में इसका पर्याप्त विस्तार किया गया। इस योजना के अन्तर्गत 6-14 वर्ष
की आयु वर्ग के उन बच्चों को शिक्षा प्रदान करना है जो किन्हीं सामाजिक-आर्थिक एवं
सासंकृतिक कारणों से औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रहे हो। प्रारम्भिक रूप
में यह योजना दस शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए राज्यों तक ही सीमित थी। इस योजना को
2000 में संशोधित करके नया नाम शिक्षा गॅरण्टि योजना तथा वैकल्पिक नवोन्मुख शिक्षा
कर दिया गया।
दसवीं योजना के लक्ष्य तथा व्यूह रचना (Goal and Strategies for
the Tenth Plan)
ध्येय तथा लक्ष्य (Goals and Targets)
प्राथमिक
शिक्षा के क्षेत्र में सर्व शिक्षा अभियान को कतिपय मध्यकालीन लक्ष्यों के साथ लागू
किया जायेगा। इस योजना के कतिपय उद्देश्य निम्नलिखित है:
(1)
सभी बच्चों का स्कूल में प्रविष्ठ होना, शिक्षा गारण्टी योजना का क्रियान्वयन।
(2)
सभी बच्चें 5 वर्ष की प्राथमिक स्कूलींग 2007 तक पुरा कर लेंगे।
(3)
सभी बच्चे 8 वर्ष की स्कूलींग 2010 तक पूरा कर लेंगे।
उपर्युक्त
वर्णित स्थिति के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा कार्यक्रमों के विस्तार हेतु
सार्वभौमिक पहुँच (Universal Access) सार्वभौमिक नामांकन (Universal Enrolment) सार्वभौमिक
उपलब्धीयों (Universal Achievement) पर भी बल दिया जायेगा। दसवी योजना के अन्तर्गत
अतिरिक्त नामांकन के लक्ष्य को तालिका-9 में दर्शाया गया है।
तालिका-9 प्रतिवर्ष अनुमानित अतिरिक्त नामांकन (मिलियन)
वर्ष |
अतिरिक्त नामांकन |
|||||
प्राथमिक श्रेणी (I-V) |
उच्च प्राथमिक श्रेणी (VI-VIII) |
|||||
लड़के |
लड़कियां |
कुल |
लड़के |
लड़कियां |
कुल |
|
2002-03 |
0.67 |
2.01 |
2.68 |
1.14 |
1.44 |
2.58 |
2003-04 |
0.67 |
2.01 |
2.77 |
1.19 |
1.54 |
2.73 |
2004-05 |
0.67 |
2.18 |
2.85 |
1.25 |
1.67 |
2.92 |
2005-06 |
0.69 |
2.27 |
2.96 |
1.31 |
1.81 |
3.92 |
2006-07 |
0.69 |
2.37 |
3.06 |
1.37 |
1.95 |
3.32 |
Total |
3.39 |
10.93 |
14.32 |
6.26 |
8.41 |
14.67 |
शहरी क्षेत्रों, तथा उसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों की खुशहाली प्रमुख रूप से बेहतर आधारभूत ढाँचे की उपलब्धि पर निर्भर करती है। किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान अर्थव्यवस्था के दो क्षेत्रों-उद्योग तथा कृषि का होता है। कृषि उत्पादन में श्रेष्ठता प्रमुख रूप से शक्ति, साख, परिवहन आदि सुविधाओं पर निर्भर होती सेवाओं का संयुक्त रूप आधारभूत ढाँचे का निर्माण करते हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के ग्रामीण क्षेत्र में आधारभूत ढाँचे को मजबुत बनाने की दिशा में जो प्रयास किये गये है, तथा जिनका विस्तृत वर्णन उपर्युक्त विवेचन में प्रस्तुत किया गया है, वे निःसन्देह सराहनिय है। भारत में ग्रामीण विकास को गति इन प्रयासों को सुदृढ़ बनाने की गति पर ही निर्भर करेगी। ।