जोन रॉबिन्सन का पूँजी-संचय का सिद्धान्त (Joan Robinson's Theory of Capital Accumulation)

जोन रॉबिन्सन का पूँजी-संचय का सिद्धान्त (Joan Robinson's Theory of Capital Accumulation)

श्रीमती जोन रॉबिन्सन 

श्रीमती जोन रॉबिन्सन ने 1956 में अपने ग्रंथ The Accumulation of Capital में आर्थिक वृद्धि से सम्बन्धित व्याख्या जटिल रूप से प्रस्तुत की । इसमें पूँजी संचय बनाम आर्थिक वृद्धि से सम्बन्धित पक्षों को ध्यान में रखा गया था । बाद में अपनी पुस्तक Essays in the Theory of Economic Growth (1963) में उन्होंने अपने विश्लेषण की अपेक्षाकृत सरल व्याख्या प्रस्तुत की ।

श्रीमती जोन रॉबिन्सन ने प्रतिष्ठित मूल्य एवं वितरण सिद्धान्त को कींज के बचत-विनियोग सिद्धांत के साथ सम्बन्धित करते हुए आर्थिक वृद्धि का विश्लेषण किया । इनके मॉडल में वितरण एवं वृद्धि का सम्बन्ध, अंशत: लाभ की दर एवं पूँजी संचय की दशा से एवं अंशत: आय के वितरण के बचायी गयी आय के अनुपातों पर पड़े प्रभाव द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ।

मान्यताएँ (Assumptions)

श्रीमती रोबिन्सन का मॉडल निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:

(i) अबंध एवं बन्द अर्थव्यवस्था है।

(ii) ऐसी अर्थव्यवस्था में केवल पूँजी और श्रम ही उत्पादकीय साधन हैं।

(iii) दिए हुए उत्पाद का उत्पादन करने के लिए पूँजी तथा श्रम स्थिर अनुपातों में लगाए जाते हैं।

(iv) तकनीकी प्रगति तटस्थ होती है।

(v) श्रम की कमी नहीं होती, और उद्यमी जितना चाहें, श्रम को रोजगार पर लगा सकते हैं।

(vi) केवल दो ही वर्ग होते हैं-श्रमिक तथा उद्यमी-जिनके बीच आय वितरण होता है।

(vii) श्रमिक कुछ बचत नहीं करते और अपनी मजदूरी-आय को उपभोग पर व्यय करते हैं।

(vii) बचत करने और लाभों से प्राप्त अपनी समस्त आय को पूँजी- निर्माण के लिए निवेश करने के सिवाय उद्यमी कुछ नहीं उपभोग करते।

(ix) कीमत-स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होता।

श्रीमती जोन रॉबिन्सन के विश्लेषण को प्रो.के.के. कुरीहारा ने अपने अध्ययन The Keynesian Theory of Economic Development (1959) में गणितीय मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया ।

श्रीमती जोन रॉबिन्सन के अनुसार राष्ट्रीय आय कुल मजदूरी बिल एवं कुल लाभ का योग होता है । अर्थव्यवस्था में आय का वितरण उपक्रमियों एवं मजदूरी अर्जकों के मध्य होता है । विशुद्ध राष्ट्रीय आय इस प्रकार कुल लाभ (लाभ की दर से विनियोग की गयी पूँजी को गुणा कर) एवं कुल मजदूरी बिल (मजदूरी की दर से श्रमिकों की संख्या को गुणा कर) का योग होती है । यदि

Y = शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद

N = रोजगार में लगे श्रमिकों की संख्या

K = पूँजी स्टॉक की मात्रा

W = मौद्रिक मजदूरी दर

π = सकल लाभ दर

P = उत्पादन की औसत कीमत

तब आय के वितरण को निम्न सूत्र द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है:

pY = wN + πpK             .......... (1)

समीकरण 1 को निम्न प्रकार लिखा जा सकता है

πpK = pY – wN

या   π `=\frac{pY-wN}{pK}`

      π `=\frac{Y-\frac wpN}K`

या   π `=\frac{\frac YN-\frac wp}{\frac KN}`

यदि ρ `=\frac YN` या श्रम उत्पादकता (Labour productivity)

`\theta=\frac KN` या पूँजी श्रम अनुपात (Capital-labour productivity) हो तब

`\pi=\frac{\rho-\frac w\rho}\theta` ............(2)

समीकरण (2) से स्पष्ट है कि लाभ की दर, श्रम उत्पादकता (𝛒) वास्तविक मजदूरी दर (wl𝛒) एवं पूँजी श्रम अनुपात q का फलन होता है। लाभ की दर में तब वृद्धि सम्भव है, जबकि श्रम उत्पादकता में वृद्धि हो तथा वास्तविक मजदूरी दरों एवं पूंजी श्रम-अनुपात में कमी आए।

अर्थव्यवस्था के व्यय पक्ष (Expenditure side) को उपभोग (C), बचत (S) एवं विनियोग (I) के सम्बन्ध द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

Y =C+I ………..(3)

S = I ……………(4)

श्रीमती जोन रॉबिन्सन यह मान कर चलती हैं कि उपभोग केवल मजदूरी प्राप्त कर्ताओं द्वारा तथा बचतें उपक्रमियों द्वारा प्राप्त लाभ से की जाती हैं । अतः

C = Cn .`\frac w\rho`.N .....(5)

S = SK = πK ….(6)

जहाँ Cn श्रम आय से किया उपभोग एवं SK लाभ आय से प्राप्त बचत है। शुद्ध विनियोग से अभिप्राय है वास्तविक पूँजी में होने वाली वृद्धि अर्थात् I = ΔK

S एवं I के मूल्यों को समीकरण (5) एवं (6) में प्रतिस्थापित करने पर

ΔK = πK …....(7)

समीकरण (7) के दोनों पक्षों को K से भाग देने पर

`\frac{\Delta K}K=\frac{\pi K}K=\pi`

π के इस मान को समीकरण (2) में प्रतिस्थापित करने पर

`\frac{\Delta K}K=\pi=\frac{\rho-\frac w\rho}\theta`........(8)

समीकरण (8) में K/K, पूँजी की वृद्धि दर, (ρ – w/ρ) पूँजी के शुद्ध प्रतिफल एवं θ पूँजी-श्रम अनुपात को प्रदर्शित करता है । इससे स्पष्ट होता है कि पूँजी में वृद्धि की दर तब उच्च होगी यदि पूँजी का शुद्ध प्रतिफल पूँजी-श्रम दर के सापेक्ष अधिक अनुपात में बड़े ।

सन्तुलन की दशा लाभ की दर एवं पूंजी संचय के मध्य द्रि-पक्षीय सम्बन्ध को अभिव्यक्त करती है । यह स्पष्ट करती है कि किया जाने वाला पूँजी संचय मुख्यत: लाभ की उस दर को निर्दिष्ट करता है जिसे उपक्रमी अपने विनियोग से प्राप्त करने की आशा करते हैं । दूसरी तरफ सन्तुलन की दशा यह बताती है कि लाभ की दर स्वयं पूँजी संचय की दर को निदेशित करती है । इस प्रकार पूँजी संचय एवं लाभ एक दूसरे से चक्रीय रूप से सम्बन्धित हैं ।

स्वर्णयुग (Golden Age)

इस प्रकार एक ओर पूंजी की वृद्धि-दर `\frac{\Delta K}K` और दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि-दर`\frac{\Delta N}N` है,जो अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को निर्धारित करती है। जब जनसंख्या की वृद्धि-दर पूंजी की वृद्धि-दर के बराबर हो जाती है, तो अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार सन्तुलन में होती है `\frac{\Delta N}{\ N}=\frac{\Delta K}K` ऐसी स्थिति में पूंजी तथा श्रम का पूर्ण नियोजन होता है और इस आधार पर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर निर्धारित होती है। जब ये दोनों दरें समान होती हैं, तो देश की अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार के सन्तुलन पर होती है। रॉबिन्सन के अनुसार यही स्वर्णयुग (The Golden Age) है।

अर्थात् `\frac{\Delta N}{\ N}=\frac{\Delta K}K`: (स्वर्णयुग)

इस स्वर्णयुग के विषय में श्रीमती रॉबिन्सन ने लिखा है कि जब यान्त्रिक प्रगति धीरे-धीरे होती रहती है, तब बिना उत्पादन व्यवस्थाओं में आमूल परिवर्तन के, प्रतियोगितात्मक व्यवस्था स्वतन्त्र रूप से कार्य करती है, जनसंख्या मन्द गति से बढ़ती है और पूंजी संचय, श्रम की पूर्ति तथा उत्पादन क्षमता की तुलना में अधिक तेजी से होता है। लाभ की दर भी लगभग स्थिर रहती है और प्रति व्यक्ति उत्पादन के साथ वास्तविक मजदूरियों में वृद्धि होती है। ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था में कोई आन्तरिक अव्यवस्था उत्पन्न नहीं होने पाती। साहसियों को भविष्य के विषय में निश्चितता होती है, उनकी संचय प्रवृत्ति यथास्थिर पूर्ववत् बनी रहती है। कुल वार्षिक उत्पादन और पूंजी की मात्रा (वस्तुओं के रूप में मूल्यांकित किए जाने पर), श्रम शक्ति तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि के सन्दर्भ में स्थिर अनुपात से बढ़ती रहती है। इसी को श्रीमती रॉबिन्सन ने स्वर्णयुग कहा है। संक्षिप्त रूप में यह एक ऐसी आदर्श अवस्था है जिसमें न तो जनसंख्या और न ही उत्पादन अथवा पूंजी संचय में कमी या अधिकता जैसी कोई असामान्य स्थिति उत्पन्न होने पाती है।

स्वर्णयुग की स्थापना के लिए लाभ तथा मजदूरी का सामंजस्य आवश्यक है। लाभों की दर स्थिर रहने के लिए निम्न बातें आवश्यक हैं :

(1) जनसंख्या का स्थिर अनुपात में बढ़ना,

(2) श्रम-आधिक्य के लिए पूंजी-संचय काफी तेजी से बढ़ना,

(3) प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि के साथ वास्तविक मजदूरी का स्तर बढ़ना।

इस व्यवस्था में पारस्परिक विरोध नहीं होता, क्योंकि कुल वार्षिक आय तथा पूंजी-स्टॉक समान रहते हैं। यह स्थिति ‘स्वर्ण युग' कहलाती है।

स्वर्णयुग से विचलन

अर्थव्यवस्था 'स्वर्णयुग' के इस रास्ते अथवा बिन्दु से यदि हटती है तो भी इस बात की काफी सम्भावनाएं रहती हैं कि वह पुनः सन्तुलन की स्थिति प्राप्त कर लेगी। यहां पर एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि यदि यह सन्तुलन भंग हो जाए तो क्या अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई विकल्प है जिसकी सहायता से इसे पुनः प्राप्त किया जा सके? इस विषय का अध्ययन करने से पहले यह बता देना उचित होगा कि दो ऐसी स्थितियां हो सकती हैं, जिनमें यह सन्तुलित स्थिति (स्वर्णयुग) नहीं पाई जाती।

ये स्थितियां इस प्रकार हैं :

यदि जनसंख्या वृद्धि की दर पूंजी की वृद्धि दर से अधिक है, `\frac{\Delta N}{\ N}>\frac{\Delta K}K` अर्थात् तो वह अल्प रोजगार की स्थिति को जन्म देती है। इस स्थिति में श्रमिकों की अधिकता मजदूरी की दर को घटा देती है और कीमतों में स्थिरता रहने से वास्तविक मजदूरी कम हो जाती है। इसका परिणाम यह होगा कि लाभ की दर बढ़ जाएगी जो पूंजी की वृद्धि-दर को जनसंख्या स्तर तक बढ़ा देगी।

इसके विपरीत, यदि पूंजी की वृद्धि-दर जनसंख्या की वृद्धि-दर से अधिक है (अर्थात् `\frac{\Delta K}{\ K}>\frac{\Delta N}N`) तो प्राविधिक सुधारों एवं पूंजी-श्रम अनुपात या उत्पादकता में परिवर्तनों के द्वारा साम्य की स्थिति लाई जा सकती है।

जॉन रॉबिन्सन के मॉडल की व्याख्या संलग्न चित्र द्वारा की जा सकती है।

चित्र में OP उत्पादन फलन को व्यक्त करता है जिसका प्रत्येक बिन्दु श्रम व पूंजी के अनुपात को प्रदर्शित करता है। पूंजी-श्रम अनुपात मजदूरी-लाभ सम्बन्ध को ज्ञात करने हेतु OP बक्र पर एक स्पर्श रेखा BT खींची जाती है जो OP को G बिन्दु पर काटती है तथा खड़े अक्ष को W पर काटती है। G बिन्दु स्वर्णयुग का पूंजी-श्रम अनुपात है जो OK के बराबर है। प्रति व्यक्ति उत्पादन OA के बराबर है जिसमें से OW मजदूरी दे दी जाती है तथा AW अतिरिक्त है जो पूंजी पर लाभ की दर बताता है। इससे सिद्ध होता है कि पूंजी की वृद्धि दर श्रम की वृद्धि दर के बराबर है, अतः पूंजी की वृद्धि दर `\left(\frac{\Delta K}K\right)` श्रम की वृद्धि-दर  `\left(\frac{\Delta N}N\right)` के बाराबर हो जाती है। EG/EW व्यक्त करता है, `\left(\frac{\Delta K}K\right)` और OW/ON व्यक्त करता है, `\left(\frac{\Delta N}N\right)` को अतः

`\frac{\EG}{\ EW}>\frac{\OW}{\ON}` क्योंकि tan α = tan β

रॉबिन्सन के अनुसार स्वर्ण युग की स्थिति ‘सम्भाव्य वृद्धि अनुपात' (Potential growth rate) में ही बन सकती है। 'सम्भाव्य वृद्धि अनुपात' पूंजी संचय की चरम सीमा को प्रकट करता है जो लाभ की स्थिर दर पर सदैव ही निर्धारित की जा सकती है। अतः वृद्धि अनुपात में स्थिरता बनी रहने से ही स्वर्ण युग की स्थिति बन सकती है, अन्यथा नहीं। परिस्थितियों में परिवर्तन होने से स्वर्ण युग की स्थिति भी बदलती है। स्थिर अवस्था स्वर्ण युग की एक विशिष्ट अवस्था है। इसमें विकास अनुपात शून्य होता है, लाभ की दर शून्य होती है और उद्योगों के उत्पादन का कुल भाग मजदूरियों के रूप में ही समाप्त हो जाता है। इस अवस्था को श्रीमती रॉबिन्सन ने आर्थिक मोक्ष की अवस्था कहा है क्योंकि इस अवस्था में उपभोग अपने अधिकतम स्तर पर होता है और ऐसा स्थायी रूप से दी हुई यान्त्रिक दशाओं में भी सम्भव हो सकता है।

श्रीमती रॉबिन्सन ने स्वर्णयुग के कुछ अन्य रूपों का भी उल्लेख किया है

1. पंगु स्वर्णयुग (Limping Golden Age)- यह वह स्थिति है जब पूंजी-संचय की दर पूर्ण रोजगार के लिए आवश्यक दर से कम होती परन्तु फिर भी वह जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक होती है। यह अवस्था अर्थव्यवस्था का धीरे-धीरे स्वर्ण युग की तरफ बढ़ने का संकेत करती है।

2. सीसा युग (A Leaden Age)- यह पंगु स्वर्णयुग की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इसमें पूंजी संचय की दर जनसंख्या की वृद्धि दर से कम होती है। बेरोजगारी में वृद्धि होती है,तथा तकनीकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।

3. प्रतिबन्धित स्वर्णयुग (Restrained Golden Age)- इस अवस्था में पूर्ण रोजगार भी विद्यमान रहता है और पूंजी संचय भी परन्तु साम्य की यह स्थिति ΔN/N=ΔK/K के कारण न उत्पन्न होकर किन्हीं अन्य कारणों यथा श्रम संघों के दबाव अथवा सरकारी प्रतिबन्धों व आदेशों के फलस्वरूप होती है।

4. रेंगता हुआ प्लैटिनम युग (Creeping Platinum Age)- इस अवस्था में पूर्ण रोजगार होता है। पूंजी गहन तकनीकें अपनाई जाती हैं। फिर भी लाभ घटने लगते हैं और जब यह घटकर मजदूरी दर के बराबर हो जाते हैं तब पूंजी संचय और पूंजी स्टॉक का समायोजन होने पर अर्थव्यवस्था स्थैतिक रूप ग्रहण कर लेती है।

5. उछलता-कूदता प्लेटिनम युग (Galloping Platinum Age)- इस अवस्था के प्रारम्भ में बेरोजगारी होती है, परन्तु लाभों के बढ़ने के कारण रोजगार बढ़ने लगता है। तीव्र लाभ लालसा पूंजीगत निदेश को बढ़ावा देती है जिसके फलस्वरूप लाभ तथा रोजगार दोनों बढ़ते हैं। विकास की गति भी बढ़ती है, परन्तु धीरे-धीरे पूंजी निवेश पर मिलने वाला लाभ घट जाता है और अंततः यह अवस्था समाप्त हो जाती है।

6. दोगला स्वर्णयुग (Bastard Golden Age)- यह वह युग है, जिसमें बेरोजगारी विद्यमान रहती है। फिर भी संगठित होने के कारण श्रमिक काम करने तथा उत्पादकता बढ़ाने को तैयार नहीं होते। फलस्वरूप पूंजी संचय तथा तकनीकी प्रगति का कार्य रुक जाता है। बेरोजगारी के साथ-साथ मुद्रास्फीति भी बढ़ती है। अर्थव्यवस्था में नरक सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा ऊंची मौद्रिक तथा वास्तविक मजदूरी विकास में बाधक सिद्ध होने लगती है।

7. दोगला प्लैटिनम युग (Bastard Platinum Age)- यह वह युग है जिसमें तकनीकी प्रगति होती है, पूंजी संचय भी होता है तथा पूर्ण रोजगार भी विद्यमान रहता है, परन्तु इसके बावजूद श्रमिकों की= वास्तविक आय नहीं बढ़ने पाती है।

रॉबिन्सन तथा हैरङ-डोमर मॉडल में सम्बन्ध

प्रो. कुरिहारा ने रॉबिन्सन एवं हैरङ-डोमर मॉडलों के बीच सम्बन्ध को निम्नवत् व्यक्त किया है :

`P=\frac{\Delta K}K=\frac{Y-WN}K`

या  `P=\frac Y Y.\frac{Y-WN} K` (समीकरण के दायीं तरफ के भाग को Y से गुणा तथा भाग देने पर)

या  `P=\frac YK.\left(\frac{Y-WN}K\right)`

या  `P=\frac YK.\left(\frac SK\right)` (`\because` Y आय तथा WN व्यय को व्यक्त करता है। अतः इनका अन्तर ही बचत (S) है )

यहां `\frac YK` पूंजी की उत्पादकता अर्थात् s तथा `\frac SK` औसत बचत प्रवृत्ति अर्थात् α है। `\because``\frac{\Delta K}K` = s.α  (`\because`डोमर के मॉडल में `\frac{\Delta K}{\ K}>\frac{\Delta Y}Y`)

इस तरह, यह डोमर का वृद्धि समीकरण है।

तथा G = `\frac SC`

पुनः, `\frac{\Delta K}K` = G

  α = S   ;  s = `\frac 1C`

यह हैरड का वृद्धि समीकरण है।

समानताएं- उपरोक्त सम्बन्ध यह स्पष्ट करता है कि दोनों मॉडल प्रकृति में समान हैं तथा समान परिणाम देते हैं; अर्थात् अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर बचत-आय अनुपात तथा पूंजी की उत्पादकता पर निर्भर करती है। दोनों मॉडलों में स्थिर पूंजी गुणांक तथा तकनीकी तटस्थता की धारणा को अंगीकार किया गया है।

असमानताएं-

(1) हैरड डोमर मॉडल में पूंजी संचय का निर्धारण बचत-आय अनुपात तथा पूंजी की उत्पादकता द्वारा होता है जबकि जोन रॉबिन्सन के मॉडल में पूंजी संचय को लाभ-मजदूरी सम्बन्ध तथा श्रम की उत्पादकता द्वारा निर्धारित किया गया है।

(2) हैरड-डोमर मॉडल में पूंजी ही पूंजी-संचय का प्रमुख कारक है, जबकि जॉन रॉबिन्सन के मॉडल में श्रम को पूंजी संचय का कारक माना गया है।

(3) हैरड-डोमर मॉडल व्यापार चक्रों की समुचित व्याख्या करता है जबकि रॉबिन्सन का मॉडल व्यापार चक्रों के स्पष्टीकरण की उपेक्षा करता है।

जोन रोबिंसन के मॉडल की विशेषताएँ

 श्रीमती जोन रोविंसन के मॉडल की मुख्य विशेषताएं निम्नांकित हैं:

1. श्रीमती जोन रोबिंसन का मॉडल प्रतिष्ठित मूल्य एवं वितरण सिद्धांत को कींज के बचत- विनियोग सिद्धान्त से सम्बन्धित करता है । उन्होंने वितरण एवं वृद्धि के घनिष्ट सम्बन्ध को आय वितरण के प्रभावों एवं आय में से बचायी गयी बचतों के अनुपात द्वारा एवं लाभ की दर एवं पूँजी संचय के मर्ध्य सम्बन्धों द्वारा अभिव्यक्त किया ।

2. श्रीमती जोन रोबिंसन ने पूँजी के मापन एवं पूंजी की संरचना सम्बन्धी पक्षों पर विशेष ध्यान दिया । उन्होंने पूँजी की एक रूपता एवं आघातवर्ध्यता के विचार को अनुचित माना ।

3. श्रीमती जोन रोबिंसन ने सतत् या अविरत वृद्धि की दशाओं के वास्तविक विवेचन को प्रस्तुत किया । उन्होंने तुलनात्मक प्रावैगिकी के आधार पर व्याख्या प्रस्तुत की ।

4. श्रीमती जोन रोबिंसन ने लाभ-मजदूरी सम्बन्ध एवं श्रम उत्पादकता के आधार पर विश्लेषण किया । इस कारण उनकी व्याख्या वास्तविक बाजार अर्थव्यवस्था के अधिक समीप हो जाती है ।

5. श्रीमती जोन रोबिंसन ने अर्द्धविकसित देशों को व्यावहारिक सलाह दी कि वह खेल के पूंजीवादी नियमों का अनुसरण न करें बल्कि एक मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाएं जहाँ मौद्रिक व वित्तीय नीतियों के द्वारा स्वायत्त विनियोग में वृद्धि की जानी सम्भव हो ।

समीक्षात्मक मूल्यांकन (CRITICAL APPRAISAL)

1. रोबिन्सन का मॉडल हैरड के मॉडल का विस्तार है। रोबिन्सन का 'सम्भाव्य वृद्धि अनुपात' (potential growth rate) हैरोड के द्वारा प्रतिपादित प्राकृतिक वृद्धि दर (natural growth rate) है। अन्तर यह है कि रॉबिन्सन का पूंजी संचय का सिद्धान्त लाभ-मजदूरी सम्बन्धों और श्रम की उत्पादकता पर आधारित है, जबकि हैरड का मॉडल बचत आय अनुपात तथा पूंजी उत्पादकता पर आधारित है। इस प्रकार रॉबिन्सन पूंजी संचय में श्रम के महत्व को अधिक गम्भीरता से लेते हैं और हैरड पूंजी को अधिक महत्व देते हैं।

2. अर्द्ध-विकसित देशों के लिए रॉबिन्सन ने जनसंख्या की वृद्धि के पूंजी संचय पर होने वाले प्रभाव को अच्छा समझाया है। उन्होंने ‘स्वर्ण युग' की कल्पना की थी जिसको उनके द्वारा प्रतिपादित योजनायुक्त आर्थिक विकास के द्वारा प्रत्येक देश प्राप्त कर सकता है। यह ‘स्वर्णयुग' वृद्धि अनुपात पर निर्भर करता है जो बहुत महत्वपूर्ण है।

3. रॉबिन्सन के समीकरण के अनुसार यह बात-ध्यान देने योग्य है कि अर्द्ध-विकसित देशों में पूंजी संचय की दर काफी मन्द होती है और श्रम-शक्ति का आधिक्य बना रहता है, चाहे जितना भी योग्य योजना अधिकारी हो, वह पूंजी-संचय तथा श्रम-शक्ति में समानता तथा सामंजस्य नहीं ला सकता।

4. रॉबिन्सन की विचारधारा के अनुसार अर्द्ध-विकसित देशों की अर्थव्यवस्था न तो बन्द (Closed) हो सकती है और न उनमें कीमतों का स्तर ही स्थिर रखा जा सकता है। ये दोनों ही मान्यताएं इस मॉडल का प्रमुख आधार मानी जाती हैं। निष्कर्ष यह है कि इन मान्यताओं के सहारे अर्द्ध विकसित देश स्वर्णयुग की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

अल्पविकसित देशों में मॉडल की उपयोगिता (APPLICABILITY OF THE MODEL IN UNDER-DEVELOPED COUNTRIES)

अल्पविकसित देशों के लिए जॉन रॉबिन्सन के मॉडल में निम्नलिखित गुण एवं दोष पाए जाते हैं :

मॉडल के गुण (Merits of the Model)

अल्पविकसित देशों के लिए इस मॉडल में अग्रलिखित गुण पाए जाते हैं:

(1) विकासशील अर्थव्यवस्था- इस सिद्धान्त में विकासशील अर्थव्यवस्था में जनसंख्या का पूंजी-संचय की दर पर प्रभाव का अध्ययन किया गया है। योजनाबद्ध आर्थिक विकास की सहायता से कोई भी देश 'स्वर्णयुग' को प्राप्त कर सकता है।

(2) सम्भाव्य वृद्धि- अनुपात-स्वर्णयुग वृद्धि अनुपात पर निर्भर करता है। श्रम-शक्ति की वृद्धि दर एवं प्रति व्यक्ति उत्पादन के आधार पर सम्भाव्य वृद्धि अनुपात का हिसाब ठीक ढंग से लगाकर योजना कार्य आसान किया जा सकता है।

(3) अल्प-रोजगार की प्रवृत्ति- पूंजी दर की अपेक्षा जनसंख्या की वृद्धि अधिक होने से अल्प-रोजगार की प्रवृत्ति का सामना करना पड़ता है अर्थात् ΔN/N > ΔK/K ऐसी अवस्था है, जो अल्प-रोजगार की प्रवृत्ति में वृद्धि को प्रकट करती है।

मॉडल की कमियां (Weaknesses of the Model)

अल्पविकसित देशों के लिए इस मॉडल की निम्नांकित कमियां

(1) पूंजी संचय की कम दर- अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में पूंजी संचय की दर हमेशा सम्भाव्य वृद्धि अनुपात से कम होती है। पूंजीवादी नियमों का अनुसरण करके अल्पविकसित देश दोनों को बराबर नहीं कर पाते।

(2) संस्थापक साधनों की उपेक्षा अर्थव्यवस्थाका विकास काफी हद तक सामाजिक, सांस्कृतिक तथा संस्थात्मक परिवर्तनों पर निर्भर करता है। परन्तु किसी भी मॉडल में आर्थिक विकास के एक निर्धारक के रूप में संस्थापक साधनों के कार्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

(3) स्थिर मूल्य स्तर- यह मॉडल स्थिर कीमत स्तर की मान्यता पर आधारित है, परन्तु यह मान्यता अवास्तविक है। इस कारण मूल्यों में वृद्धि होती जाती है, अतः विकास के साथ मूल्यों में वृद्धि होना अनिवार्य है।

(4) बन्द अर्थव्यवस्था- जॉन रॉबिन्सन का मॉडल बन्द अर्थव्यवस्था की मान्यता पर आधारित है, परन्तु अल्पविकसित राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाएं बन्द नहीं बल्कि खुली होती हैं और विदेशी व्यापार विकास की दर को बढ़ाने का कार्य करता है।

निष्कर्ष- विकास योजना की समस्या हल करने में स्वर्णयुग' की धारणा का प्रयोग नहीं हो सकता क्योंकि स्वर्णयुग के लिए आवश्यक अपरिवर्ती निरन्तरता अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में उपलब्ध नहीं होती।

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