वितरण का कालडर मॉडल (Kaldor Model of Distribution)

वितरण का कालडर मॉडल (Kaldor Model of Distribution)
प्रो. निकोलस कालडोर

प्रो. निकोलस कालडोर ने अपने शोध लेख "Alternative Theories of Distribution" (1955-56) में वितरण के एक व्यापक मॉडल को प्रस्तुत किया जिसके आधार पर उन्होंने 1957 में आर्थिक वृद्धि के एक मॉडल का विवेचन किया । प्रो. कालडोर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

हैरड-डोमर मॉडल स्थिर बचत-आय अनुपात की प्रतिबंधित मान्यता पर आधारित है। कालडर ने 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "Essays on Value and Distribution" में विकास प्रक्रिया में बचत-आय अनुपात को परिवर्तनशील बनाने का एक प्रयास किया है। यह 'क्लासिकी बचत फलन पर आधारित है जिसका अभिप्राय है कि बचत, लाभ और राष्ट्रीय आय के अनुपात के बराबर होती है, अर्थात् . S = P/Y, प्रोफेसर कालडर का कहना है कि कीमतों और मजदूरी के बीच सम्बन्ध निर्धारण के लिए गुणक के नियम का प्रयोग हो सकता है, जबकि उत्पादन और रोजगार के स्तर दिए हुए हो।

मान्यताएँ (Assumptions)

प्रोफेसर कालडर अपने मॉडल का निर्माण निम्नलिखित मानताओं पर करता है:

(1) पूर्ण रोजगार की स्थिति है जिसमें कुल उत्पादन या आय (Y) दी हुई है।

(ii) राष्ट्रीय आय या उत्पाद में केवल मजदूरी (W) और लाभ (P) शामिल होते हैं। (W) में शारीरिक श्रम और वेतन दोनों आते हैं, जबकि P में सम्पत्ति-स्वामियों और उद्यमियों की आय सम्मिलित है।

(iii) पूँजीपतियों की अपेक्षा मजदूरों की सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति अधिक होती है जिसके परिणामस्वरूप पूँजीपतियों की अपेक्षा मजदूरों की सीमान्त बचत प्रवृत्ति थोड़ी होती है।

(iv) निवेश-उत्पादन अनुपात (I/Y) एक स्वतंत्र चर है।

(v) अपूर्ण प्रतियोगता अथवा एकाधिकार शक्ति के तत्व पाए जाते हैं ।

मॉडल (The Model)

प्रोफेसर कालडर के अनुसार शुद्ध राष्ट्रीय आय (Y) कुल मजदूरी (W) जमा कुल लाभों (P) का जोड़ है। अतः Y= W+ P. अथवा W = Y-P.

अर्थव्यवस्था की समस्त बचत (S), मजदूरी में से समस्त बचते (Sw) एवं लाभों में से समस्त बचतों (Sp) के समान है। अतः S = Sw + Sp

निवेश दिया होने पर और साथ ही मजदूरी में से सीमांत बचत प्रवृत्ति (sw) और लाभों में से सीमांत बचत प्रवृत्ति (sp) मान लें तो आनुपातिक बचत फलन Sw= swW और Sp = spP से हमें यह समीकरण प्राप्त होता है :

I = spP + swW

अथवा I = spP + sw (Y-P) [ क्योंकि W =Y-P]

         I = spP + sw Y- swP

         I = (spPsw P) + swY

         I = (sp - sw)P+ swY

निवेश का राष्ट्रीय आय से अनुपात जानने के लिए दोनों ओर Y से विभक्त करने से समीकरण इस प्रकार व्यक्त किया जाता है:

`\frac IY=\frac{\left(sp-sw\right)\ P}Y+\frac{swY}Y`

अथवा = (sp – sw) `\frac PY` + sw ……..(1)

समीकरण (1) से लाभ का राष्ट्रीय आय से अनुपातः

(sp – sw) `\frac PY=\frac IY` sw

इस प्रकार मजदूरों और पूँजीपतियों की सीमान्त बचत प्रवृत्तियाॅं दी हुई होने पर, राष्ट्रीय आय में लाभ का भाग कुल उत्पादन से निवेश के अनुपात पर निर्भर करता है। जब तक sp > sw है तो I/Y में वृद्धि होने से राष्ट्रीय आय में लाभों के भाग में वृद्धि होगी। इसकी चित्र द्वारा व्याख्या की गई है।

आय का पूर्ण रोजगार स्तर Y0 दिया होने पर बचत आय अनुपात व निवेश आय अनुपात क्रमशः S/Y0 पर हैं। स्थिर लाभ-आय अनुपात रेखा P और Y है बिन्दु E पर अर्थव्यवस्था संतुलन में है। यदि आय में वृद्धि होती है तो S/Y0 तथा I/Y0 वक्र ऊपर को सरक कर S/Y1 तथा I/Y1 बिंदु F पर पहुंचते हैं। परन्तु राष्ट्रीय आय में लाभ का भाग स्थिर ही रहता है जैसा कि P/Y रेखा द्वारा दिखाया गया है। यदि केवल I/Y वक्र ही सरक कर तथा बचत-आय अनुपात S/Y0 स्तर पर ही रहता है तो कीमतों में स्फीतिकारी वृद्धि होगी तथा अर्थव्यवस्था E पर संतुलन में होगी। इससे लाभ आय अनुपात बढ़कर P/Y1 हो जाएगा और बचत-आय वक्र ऊपर सरक कर S/Y1 हो जाएगा। यदि निवेश-आय अनुपात तथा बचत-आय अनुपात वक्रों में ऐसा सम्बन्ध चलता रहता है तो अर्थव्यवस्था अपने आपको पूर्ण रोजगार के स्तर पर कायम रखेगी तथा आय में लाभ का भाग स्थिर रहेगा।

प्रोफेसर कालडर के अनुसार इस मॉडल का व्याख्यात्मक मूल्य इस बात पर निर्भर करता है कि निवेश को या बल्कि निवेश का उत्पादन से अनुपात I/Y को, sp और sw के संबंध में निश्चल, एक स्वतंत्र चर के रूप में समझा जाए। पूर्ण रोजगार की धारणा के साथ-साथ यह इस बात को प्रकट करता है कि नकद मजदूरी के स्तर के संबंध में कीमतों के स्तर को मांग निर्धारित करती है। निवेश के स्तर में वृद्धि, मांग और कीमतों के स्तर को बढ़ा देगी, मुद्रा मजदूरी स्थिर रहने पर । परिणामस्वरूप, राष्ट्रीय आय में लाभ का भाग बढ़ेगा परन्तु मजदूरी का भाग कम होगा। इसके विपरीत, निवेश में कमी कुल मांग को कम कर देगी, कीमतों और लाभ सीमाओं में गिरावट लाएगी, परन्तु मजदूरी का भाग बढ़ा देगी। अतः लचीली कीमतें या बल्कि लचीली लाभ सीमाएं मानते हुए व्यवस्था पूर्ण रोजगार पर स्थिर होती है।"

यह मॉडल उस समय क्रियाशील होती है, जब दोनों बचत प्रवृत्तियां विभिन्न (sp ¹ sw) हों, और मजदूरी में से सीमान्त बचत प्रवृत्ति sw की अपेक्षा लाभों में से सीमान्त बचत प्रवृति sp बड़ी हो, sp>sw स्थिरता की अवस्था है। यदि sw से sp कम हो, कीमतों से कम होने से मांग में कमी होगी और कीमतों में संचयी गिरावट आएगी। इसी प्रकार कीमतों में वृद्धि भी संचयी होगी।

फिर, व्यवस्था की 'स्थिरता की कोटि' सीमान्त बचत प्रवृत्तियों के अन्तर पर निर्भर करती है अर्थात् I/(sp - sw) पर जो कालडर की परिभाषा के अनुसार 'आय वितरण की संवेदनशीलता का गुणांक है। यदि दोनों सीमान्त प्रवृत्तियों (sp और sw) में थोड़ा अन्तर हो, तो गुणांक (I/sp - sw) बड़ा होगा और निवेश-उत्पादन अनुपात (I/Y) मैं थोड़े परिवर्तनों से आय वितरण (P/Y) में अपेक्षाकृत बड़े परिवर्तन होंगे, और विलोमशः । यदि मजदूरी में से सीमान्त बचत प्रवृत्ति शून्य (sw = o) हो, तो लाभों की मात्रा निवेश की राशि तथा पूँजीपति उपभोग के बराबर होगी, अर्थात् `P=\frac1{sp}I` यह 'अक्षय भण्डार (widow's cruse) है जहां उद्यमियों के उपभोग में वृद्धि उनके कुल लाभ को बिल्कुल उपभोग के बराबर बढ़ा देती है।

प्रोफेसर कालडर के सिद्धान्त में Sw= 0 एक विशिष्ट स्थिति' है जिसमें 'मजदूरी अवशिष्ट’ (residue) है तथा लाभ निवेश की प्रवृत्ति और पूँजीपति के उपभोग के प्रवृत्ति से शासित होने के कारण राष्ट्रीय आय पर एक प्रकार के 'पूर्व प्रभार' (prior charge) को प्रकट करते हैं । यदि किसी दीर्घकालिक समय में I/Y और Sp को स्थिर मान लिया जाए तो मजदूरी का भाग भी स्थिर होगा। दूसरे शब्दों में, जब उत्पादन प्रति व्यक्ति बढ़ता है, तो वास्तविक मजदूरी अपने आप बढ़ जाएगी। यदि मजदूरी में से बचत की प्रवृत्ति, Sw धनात्मक हो तो कुल लाभों की मात्रा में Sw की कमी हो जाएगी (जोकि मजदूरों की बचतों की राशि है)। जब मजदूरों की बचतें घट जाती हैं, तो कुल लाभ निवेश में परिवर्तन की अपेक्षा, अधिक मात्रा में बढ़ जाता है, और आय में मजदूरी का भाग कम हो जाएगा। दूसरी ओर जब श्रमिकों की बचतें बढ़ती हैं निवेश में परिवर्तन की अपेक्षा कुल लाभ अधिक मात्रा में कम होते हैं और आय में मजदूरी का भाग बढ़ जाता है।

फिर भी, प्रोफेसर कालडर संकेत करता है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में एक सपाट (smooth) वृद्धि-दर की प्रवृत्ति अन्तर्निहित नहीं होगी वास्तव में, चक्रीय गतियों के कारण, अभीष्ट और वास्तविक वृद्धि दरों में असमन्वय पाये जाते हैं।

कालडर के मूल समीकरण (2) के साथ दो बाधाएं जोड़ी जा सकती हैं, अर्थात् sw <I/Y, और sp> I/Y बाधा sw < I/Y लाभ के ऋणात्मक भाग वाले गत्यात्मक संतुलन को अपवर्जित (exclude) करती है, और sp > I/Y मजदूरी के ऋणात्मक भाग वाले गत्यात्मक संतुलन को अपवर्जित करती है। यदि पहली बाधा पूरी नहीं होती तो व्यवस्था दीर्घकालिक अल्परोजगार की अवस्था में प्रवेश करेगी। इसी प्रकार, यदि दूसरी बाधा पूरी नहीं होती तो व्यवस्था दीर्घकालिक स्फीति की अवस्था में प्रवेश करेगी। कालडर मॉडल इन दो सीमाओं में क्रियाशील होता है और यह दर्शाता है कि किस प्रकार आय का वितरण और लाभ की दर दीर्घावधि में व्यवस्था को संतुलन में रखेंगे।

कालडर मॉडल की हैरेंड-डोमर मॉडल से तुलना

(COMPARISON OF KALDOR MODEL WITH HARROD-DOMAR MODEL)

कालडर के अनुसार निवेश को पूँजी स्टाक में परिवर्तन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो निवेश का राष्ट्रीय आय से अनुपात है।

`\frac IY=s=\frac{\Delta K}Y`

ऊपर के समीकरण को ΔY से गुणा और ΔY से विभक्त करने से

`\frac IY=s=\frac{\Delta K}{\Delta Y}.\frac{\Delta Y}{\Delta Y}`

समीकरण में `\frac{\Delta Y}Y` हैरेड की अभीष्ट वृद्धि दर (Gw) को व्यक्त करता है जिसे कालडर G के रूप में वर्णित करता है और `\frac{\Delta K}{\Delta Y}` पूंजी उत्पादन अनुपात को V के रूप में । अतः `\frac IY` = s = Gv हेरैड के अभीष्ट वृद्धि दर के समीकरण को दिखाने के लिए कालडर के समीकरण (2) को पुनः लिखने से

`\frac PY=\frac1{\left(sp-sw\right)}\times\frac IY-\frac{sw}{\left(sp-sw\right)}`

अथवा `\frac PY=\frac1{sp}.\frac IY\left[\because sw=0\right]`

`\because\frac IY=G_v=G_wC_r`

`\because\frac PY=\frac1{sp}.G_wC_r`

प्रोफेसर कालडर निष्कर्ष देता है: “अतः 'अभीष्ट' और 'प्राकृतिक वृद्धि की दरें एक-दूसरे से स्वतंत्र नहीं हैं; यदि लाभ सीमाएँ लचीली हों तो P/Y में परिणामी परिवर्तन द्वारा पहली दूसरे के साथ अपने आपको समायोजित करेगी।

इसकी आलोचनाएँ (Its Criticisms)

कालडर के आय-वितरण के सिद्धान्त की निम्नलिखित कारणों से आलोचना की गई है:

(1) कालडर यह मानता है कि लाभ और मजदूरी के भाग निवेश-आय अनुपात I/Y पर निर्भर करते हैं। परन्तु कालडर के अनुसार यह धारणा कुछ विशेष स्थितियों में ही सही रहती है: प्रथम, कि वास्तविक मजदूरी की दर एक निश्चित न्यूनतम निर्वाह दर से कम नहीं हो सकती। दूसरे, लाभों का भाग जोखिम बीमा दर से कम नहीं हो सकता जोकि पूँजीपतियों को निवेश की प्रेरणा देने के लिए लाभ की न्यूनतम दर होती है। तीसरे, लाभ का भाग 'एकाधिकार कोटि की दर से कम नहीं हो सकता अर्थात् अपूर्ण प्रतियोगिता, गुटबन्दी समझौता आदि के कारण उत्पादन पर लाभ की न्यूनतम दर । दूसरी और तीसरी बातें वैकल्पिक सीमाएं हैं, दोनों में से जो अधिक होगी वही लागू होगी । अन्तिम, पूँजी-उत्पादन अनुपात लाभ की दर से स्वतन्त्र होना चाहिए अन्यथा I/Y स्वयं लाभ की दर पर निर्भर हो जाएगा। यदि ये शर्ते पूरी नहीं होती हैं तो निवेश-आय अनुपात (I/Y) स्वयं लाभ की दर (P/Y) पर निर्भर करेगा।

(2) कालडर का सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की धारणा पर आधारित है। यह अवास्तविक है क्योंकि यह सिद्धान्त पूर्ण रोजगार के स्तर से नीचे आय के फलनात्मक वितरण को समझाने में असमर्थ है।

(3) कालडर का सिद्धान्त वितरण पर तकनीकी उन्नति के प्रभाव की उपेक्षा करता है। यह मान लेने पर भी कि मजदूर अपनी मजदूरी में से बचत नहीं करते (Sw= 0) उद्यमियों के कुल लाभों को अक्षय भण्डार' द्वारा बिल्कुल समान राशि से बढ़ाना सम्भव नहीं । वास्तव में तकनीकी प्रगति लाभों को बढ़ाने में सहायक होती है।

(4) कालडर मॉडल की अन्य कमजोरी यह है कि सभी लाभों को पूँजीपतियों के कारण ही बताता है। इस तरह इसका अभिप्राय यह कि मजदूरों की बचतें पूर्ण रूप से पूंजीपतियों को उपहार के रूप में हस्तांरित की जाती हैं । यह स्पष्टतया असंगत है क्योंकि ऐसी हालत में कोई भी व्यक्ति बिल्कुल बचत नहीं करेगा।

(5) कालडर का सिद्धान्त इस बात में भी कमजोर है कि यह लगान और ब्याज के रूप में भूमि और पूँजी के सापेक्ष भागों की उपेक्षा करता है।

(6) कालडर अपने सिद्धान्त में कीमतों को इस प्रकार लेता है कि वे लागतों को पूरा करती हैं और लाभ की एक समान दर प्रदान करती हैं। परन्तु लाभ का एक हिस्सा निर्धारित किए बिना लाभ की दर नहीं जानी जा सकती है। इसीलिए, सापेक्ष हिस्से श्रम द्वारा मांग निर्धारित करती है। यदि मजदूरी दी हुई हो तो कीमतें एक समान लाभ की दर द्वारा निर्धारित होती हैं। इसलिए मांग की शक्तियां सापेक्ष हिस्सों को निर्धारित करती हैं न कि कीमतें।

(7) प्रो. मीड के अनुसार, कालडर का वितरण सिद्धान्त अल्पकालीन स्फीति के लिए अधिक उपयुक्त है न कि दीर्घकालीन वृद्धि के लिए। लीजिए कि रोजगार की स्थिति में उद्यमी पूँजी विकास पर अधिक व्यय करने का निर्णय लेते हैं। यह गुणक द्वारा मांग में तथा कीमतों में वृद्धि का कारण बनेगा।

(8) कालडर का आय-वितरण का सिद्धान्त इसलिए भी अवास्तविक है क्योंकि यह मानव पूंजी को नहीं लेता जो राष्ट्रीय आय में वितरणात्मक हिस्से निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। यह सिद्धान्त बताता है कि I/Y में वृद्धि होने से राष्ट्रीय आय में लाभ का भाग बढ़ता है परन्तु मजदूरी का भाग कम होता है। श्रम का भाग मजदूरी कम होने से, श्रमिकों की अवस्था शोचनीय हो जाएगी। इससे अर्थव्यवस्था की वास्तविक आय तथा उत्पादन कम हो जाएगा। मैक्कोरमिक (McCormik) के शब्दों में, सिद्धान्त की मानव पूंजी न समावेश कर सकने की कमी सिद्धान्त को अत्यधिक साधारण बना देती है, जो वास्तविक जगत की जटिलताओं को समझना कठिन कर देती है।"

जे० पैन यह निष्कर्ष देते हैं कि कालडर का आय-वितरण का सिद्धान्त बहुत भ्रान्तिजनक है। इसका बीजगणित सही है परन्तु तर्क की बनावट झूठी है।

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