थॉमस
राबर्ट माल्थस के नाम से ही माल्थस का जनसख्या सिद्धांत जुड़ा है। माल्थस नावकास
के भिन्न एवं व्यवस्थित सिद्धांत को अपने समकालीन अर्थशास्त्रियों की अपेक्षा अधिक
महत्व दिया है। आर्थिक विकास के बारे में उनके विचार 1820 में प्रकाशित पुस्तक
“Principles of Political Economy" में दिए गए हैं।'
सिद्धांत (THE THEORY)
विकास
की धारणा (The concept of development)-माल्थस आर्थिक विकास की प्रक्रिया को
स्वाभाविक नहीं मानते। अपितु इसमें लोगों के सतत प्रयास भी आवश्यक हैं। उन्होंने स्थिर
अवस्था की किसी प्रक्रिया पर विचार नहीं किया परन्तु इस बात पर बल दिया कि अर्थव्यवस्था
विकास के इष्टतम स्तर पर पहुंचने से पूर्व अनेक बार मंदी की अवस्था को प्राप्त करे।
इस प्रकार उनके लिए विकास की प्रक्रिया निर्बाध न होकर आर्थिक गतिविधियों के उतार-चढ़ाव
से भरी थी।
माल्थस
का सिद्धांत देश में होने वाले "धन-वृद्धि' से सम्बन्धित था। धन की वृद्धि से
उनका अभिप्राय: आर्थिक विकास से था और इस आर्थिक विकास को धन में वृद्धि करके
प्राप्त किया जा सकता था। देश का धन आधा इसके श्रम द्वारा प्राप्त उत्पाद की
मात्रा और आधा इस उत्पाद के मूल्य पर निर्भर था। परन्तु "देश का धन हमेशा
मूल्य में वृद्धि के आनुपातिक नहीं बढ़ता है क्योंकि मूल्य में वृद्धि कई बार
वस्तुओं की वास्तविक कमी के अन्तर्गत हो सकती है।"
जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास (Population growth and economic development)-आर्थिक विकास के संदर्भ में जनसंख्या वृद्धि
के विश्लेषण में अपने 'ऐसे ऑफ पॉप्यूलेशन" की अपेक्षा
माल्थस, "प्रिंसिपल ऑफ पालिटिकल इकनामि" में अधिक यथार्थवादी बने। उनके
अनुसार जनसंख्या वृद्धि स्वयं आर्थिक विकास लाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके
विपरीत यह विकास प्रक्रिया का परिणाम है। जैसाकि माल्थस ने लिखा है:
"जनसंख्या में होने वाली वृद्धि आनुपातिक धन की वद्धि के बिना संभव नहीं
है।" पूंजी-संचयन की दर में वृद्धि होने पर श्रम की मांग भी बढ़ती है। इससे
जनसंख्या-विकास को प्रोत्साहन मिलता है परन्तु केवल जनसंख्या विकास से धन में
वृद्धि नहीं होती है। जनसंख्या वृद्धि से धन में वृद्धि केवल तभी होती है जब इससे
प्रभावी-मांग भी बढ़े और यह प्रभावी मांग ही है जिससे धन में वृद्धि होती है।
उत्पादन और वितरण की भूमिका (Role of production and distribution)
- माल्थस ने उत्पादन और वितरण को "धन के दो मुख्य
तत्व' के रूप में स्वीकार किया है। यदि इन दोनों तत्वों को सही अनुपात में मिलाया
जाए तो वे देश के धन को थोड़े समय में ही बढ़ा सकते हैं। परन्तु यदि
इन तत्वों को अलग-अलग लिया जाए या सही अनुपात में न मिलाया जाए तो धन की वृद्धि करने
में इन्हें हजारों साल लग सकते हैं। इसलिए माल्थस ने अल्पावधि में देश का धन बढ़ाने
के लिए अधिकतम उत्पादन और संसाधनों के इष्टतम आवंटन पर बल दिया है।
आर्थिक विकास के तत्व (Factorsineconomic development)-माल्थस
ने आर्थिक विकास की समस्या को संभावित सकल राष्ट्रीय उत्पाद ("धन सम्पत्ति बनाने
की शक्ति") और वास्तविक सकल राष्ट्रीय उत्पाद ("वास्तविक धन-सम्पत्ति') में
होने वाले अन्तर के रूप में स्पष्ट किया गया है। परन्तु मुख्य समस्या संभावित सकल राष्ट्रीय
उत्पाद के उच्च स्तर को प्राप्त करने की है।
माल्थस
के अनुसार, संभावित सकल राष्ट्रीय उत्पाद का आकार भूमि, श्रम, पूंजी और संगठन पर निर्भर
करता है। जब ये चार तत्व सही अनुपात में नियोजित किए जाते हैं तो इनसे अर्थव्यवस्था
के दो प्रमुख क्षेत्रों अर्थात कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में अधिकतम उत्पादन होता है।
पूंजी-संचयन,
भूमि का उपजाऊपन और प्रौद्योगिकीय प्रगति से ही कृषि और औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि
होती है। इनके अलावा माल्थस ने आर्थिक विकास में उन गैर-आर्थिक तत्वों के महत्व पर
भी बल दिया है जो राजनीति और नैतिकता के अन्तर्गत आते हैं। ये गैर-आर्थिक तत्व हैं-सम्पत्ति
के सुरक्षा उत्तम संविधान और सही ढंग से लागू किए सर्वोत्तम कानून तथा मेहनत वाली एवं
नियमित प्रकति एवं चरित्र में सामान्य साधुता का समावेश इत्यादि।
पूंजी-संचयन की प्रक्रिया (Process of capital accumulation)- इन
सभी तत्वों में पूंजी-संचयन ही आर्थिक विकास का अत्यन्त महत्वपूर्ण निर्धारक है। पूंजी
संचयन का स्रोत ऊंचे लाभ हैं। ये लाभ पूँजीपति की बचतों से ही प्राप्त होते हैं क्योंकि
श्रमिक इतने निर्धन होते हैं कि उनके लिए बचत करना संभव नहीं। यदि पँजीपति अधिक बचत
करते हैं और अधिक लाभों के लिए उपभोक्ता वस्तुओं पर कम खर्च करते हैं तो आर्थिक विकास
पिछड़ जाएगा।
वास्तव
में माल्थस ने "बचत की इष्टतम प्रवृत्ति" की धारणा का सुझाव दिया। इसका अर्थ
'उस स्टॉक से बचत जोकि तत्काल उपभोग के लिए नियत की जा सके तथा उससे जोड़ना जिससे
लाभ
मिलना है: अथवा अन्य शब्दों में राजस्व का पूंजी में संपरिवर्तन"। इस प्रकार माल्थस
का निष्कर्ष यह है कि "बचत की अधिकता उत्पादन के उद्देश्य को नष्ट कर देगी"।
प्रभावी मांग की कमी (Deficiency of effective demand)- माल्थस
का यह विचार 'से' के बजार-नियम (Say's Law of Market) को अस्वीकार करने और प्रभावी-मांग
में कमी के विश्वास पर आधारित है। माल्थस से' के इस विचार से सहमत नहीं है कि बाजार
में उत्पादन आधिक्य या भरमार नहीं हो सकती। उनके अनुसार यह बिल्कुल भी सच नहीं है कि
वस्तुओं का विनिमय वस्तुओं में होता है। वास्तव में वस्तुओं की अधिक मात्रा का विनिमय
वस्तुओं की अपेक्षा प्रत्यक्ष तौर पर श्रम से होता है। चूंकि श्रमिक जो उपभोक्ता हैं,
अपने द्वारा उत्पादित उत्पाद के मूल्य से कम पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं। इस प्रकार
बाजार में मांग की तुलना में वस्तुओं की अधिक आपूर्ति है । आपूर्ति और मांग के इस अन्तर
को पूँजीपतियों की मांग से भी पूरा नहीं किया जा सकता। पूँजीपति मितव्ययिता में विश्वास
रखते हैं और राजस्व से बचने एवं अपनी पंजी में वृद्धि करने के लिए स्वयं को रोजमर्रा
की सुविधाओं एवं विलासपूर्ण वस्तुओं से वंचित रखते हैं। मितव्ययी बनने से वे अधिक उत्पादनशील
श्रमिकों को नियोजित करते हैं। इस प्रकार बाजार में प्रभावी मांग की कमी या कम उत्पादन
के कारण बाजार में सामान्य वस्तुओं का उत्पादन-आधिक्य और भरमार हो जाती है। इससे मूल्य,
लाभ, बचत, निवेश और पूँजी संचयन में कमी होती है।
आर्थिक गतिहीनता (Economic stagnation)-माल्थस
का विश्वास था कि अल्पकाल में श्रम की आपूर्ति गैर-सापेक्ष होती है। उन्होंने लिखा
"विशेष मांग के परिणामस्वरूप 16 या 18 वर्षों के अन्तराल के बाद जनसंख्या की प्रकृति
से, बाजार में श्रमिकों की बढ़ोत्तरी नहीं की जा सकती परन्तु पूँजी की आपूर्ति में
जनसंख्या की अपेक्षा अधिक तेजी से वृद्धि हो सकती है। जब पूँजीपति पूँजी की आपूर्ति
बढ़ाने के लिए उत्पादनशील श्रम में निवेश करता है तो प्रतियोगिता के कारण मजदूरी में
वद्धि होती है। मजदूरी में वृद्धि से प्रभावी मांग नहीं बढ़ती क्योंकि श्रमिक बढ़े
हुए उपभोग की अपेक्षा आराम करना अधिक पसन्द करते हैं। इसलिए वस्तुओं की सामान्य भरमार
हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप, मूल्यों में गिरावट आती है, लाभ कम हो जाते हैं, निवेश
भी कम हो जाते हैं तथा संचयन की शक्ति तथा संचयन के उद्देश्य-दोनों पर अंकुश लग जाता
है। इस प्रकार भरमार और कम-उपभोग से आर्थिक स्थिरता आ जाती है।
आर्थिक विकास को उन्नत करने के नीति संबंधी उपाय (Measures to
Promote Economic Development)
तथापि,
माल्थस ने आर्थिक विकास उन्नत करने के लिए कई नीति-सम्बन्धी सिफारिशें कीं।
1. संतुलित विकास (Balanced growth)-माल्थस
की व्यवस्था में अर्थव्यवस्था कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में विभाजित है। प्रौद्योगिकीय
प्रगति से इन दो क्षेत्रों में आर्थिक विकास हो सकता है। पूँजी का निवेश कृषि में तब
तक किया जाता है जब तक सारी कृषि योग्य भूमि को जोता, एकत्र और उन्नत नहीं कर लिया
जाता। इसके बाद घटते हुए प्रतिफल के कारण इस क्षेत्र में लाभ योग्य निवेश के और अवसर
नहीं होते। इसलिए निवेश के अवसर केवल औद्योगिक क्षेत्र में होते हैं। भूमि पर बढ़े
हुए रोजगार के घटते हुए प्रतिफल से केवल तभी बचा जा सकता है जब औद्योगिक क्षेत्र में
तकनीकी प्रगति काफी तेज है और यदि इस निवेश से औद्योगिक क्षेत्र की जनसंख्या वृद्धि
को रोजगार उपलब्ध कराया है और भूमि-श्रमिकों के जीवन-निर्वाह की लागत को कम किया जा
सके और उनकी मजदूरी दरों में कमी की अनुमति ली जा सके। इस प्रकार माल्थस ने देश के
आर्थिक विकास के लिए कृषि और औद्योगिक दोनों क्षेत्रों के संतुलित विकास का समर्थन
किया।
2. प्रभावी मांग को बढ़ाना (Raising effective demand)-तथापि,
तकनीकी प्रगति अकेले ही आर्थिक विकास की ओर तब तक नहीं ले जा सकती जब तक प्रभावी मांग
न बढ़ जाए। माल्थस ने प्रभावी मांग बढ़ाने के लिए अनेक उपाय सुझाए हैं : पहला, धन और
भू-सम्पदा के अधिक समान वितरण से प्रभावी मांग को बढ़ाना संभव है "एक वर्ष में
एक लाख रुपये अजित करने वाले एक मात्र मालिक की अपेक्षा एक वर्ष में एक हजार से पांच
हजार औसतन आय वाले तीस अथवा चालीस मालिक गेहूं, रोटी, बढ़िया गोश्त और तैयार माल के
लिए कहीं अधिक प्रभावी-मांग सृजित करेंगे। इस प्रकार माल्थस का विश्वास था कि गरीब
लोगों में एक करोड़पति की अपेक्षा कुछेक साधारण अमीर लोग प्रभावी मांग को बढ़ा सकते
हैं। इसके अलावा, माल्थस ने भू-सम्पदा के अधिक समान वितरण का समर्थन किया क्योंकि इससे
प्रभावी मांग और उत्पादन दोनों में वृद्धि होगी। माल्थस के अनुसार, यदि भूमि का विभाजन
छोटे मालिकों में अत्यधिक किया जाता है तो इससे उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
दूसरा,
प्रभावी मांग को आन्तरिक और विदेशी-व्यापार का विस्तार करके बढ़ाया जा सकता है। यह
आन्तरिक और विदेशी व्यापार हैं जिनसे आवश्यकताएं और रुचियां तथा उनका उपभोग करने की
इच्छा बलवती होती है। वस्तुओं की बाजार कीमतों को ऊंचा रखने और लाभों में कमी को रोकने
के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। आन्तरिक और विदेशी व्यापार कम मांग-युक्त वस्तु के बदले
अधिक मांग-युक्त वस्तु का विनिमय करके उत्पादों का मूल्य बढ़ाते हैं।
तीसरा,
माल्थस ने प्रभावी मांग बढ़ाने के लिए गैर-उत्पादनशील उपभोक्ताओं के रख-रखाव पर बल
दिया। उन्होंने गैर-उत्पादनशील उपभोक्ताओं की परिभाषा उन व्यक्तियों के रूप में दी
जो भौतिक वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते। यह कम उपभोग ही है जिससे वस्तुओं की भरमार
और स्थिरता आती है। इसलिए, उत्पादन में उपभोग को बढ़ाकर वृद्धि की जा सकती है। चूंकि
पूंजीपति मितव्ययी होते हैं और उत्पादनशील श्रमिक निर्वाह योग्य मजदूरी पर जीवनयापन
करते है, इसलिए गैर-उत्पादनशील श्रमिकों और भू-स्वामियों की ओर से किया गया गैर-उत्पादनशील
उपभोग प्रभावी मांग में वृद्धि करेगा।
अन्त
में, माल्थस ने बेरोजगारी दूर करने और प्रभावी मांग बढ़ाने के लिए लोकनिर्माण योजनाओं
का सुझाव दिया। उत्पाद और उपभोग के संतुलन में होने वाले अवरोध से उत्पन्न होने वाली
बुराई के उपचार के लिए सड़कों और लोकनिर्माण कार्यों में गरीबों को रोजगार तथा भूस्वामियों
तथा संपत्ति वाले व्यक्यिों में अपनी भूमि में सधार करने एवं इसे सुन्दर बनाने की प्रवृत्ति
तथा श्रमिकों एवं निम्न किस्म के नौकरों को रोजगार देना इत्यादि जैसे साधन अपनाए जा
सकते हैं परन्तु माल्थस ने इस उपाय में स्वयं दो कमियां पाई। पहला, इससे श्रमिक स्वयं
को धीरे-धीरे घटी हुई मांग के साथ समायोजित करने में रुकावट अनुभव कर सकता है। उसने
सोचा कि श्रमिकों को कम मजदूरी देकर इस त्रुटि को दूर किया जा सकता है। दूसरा, लोकनिर्माण
कार्यों में धन लगाने के लिए करों में वृद्धि करना अनिवार्य होगा जिसके फलस्वरूप निजी
निवेश में कमी आएगी। परन्तु वस्तुतः यह कमी लोकनिर्माण कार्यों के लिए एक लाभ के रूप
में थी क्योंकि इससे उत्पादनशील श्रम द्वारा नियोजित पूँजी में कमी की प्रवृत्ति नहीं
होगी।
3. स्थिर अवस्था (Stationary state)-माल्थस
के अनुसार, दीर्घकाल में मजदूरी समाज के जीवन स्तरको स्थिर बनाए रखने की प्रवृत्ति
रखती है जिससे श्रमिकों के परिवार इस पर निर्वाह कर सकें। अर्थात जब भी मजदूरी की दर
न्यूनतम से अधिक होगी तो कार्यकारी जनसंख्या तीव्र दर से बढ़ेगी क्योंकि इससे श्रम
शक्ति में वृद्धि होगी व जीवन-स्तर ऊंचा होगा। अन्ततः घटते प्रतिफलों की प्रवृत्ति
लागू होगी और मांग व पूर्ति की स्थिति कार्यकारी जनसंख्या को निर्वाह स्तर
(subsistence level) पर कायम रखेगी।
अंत
में यह कहा जा सकता है कि प्रगतिशील व्यवस्था में निवेश का उच्च स्तर पाया जाता है
जो सामान्यतः कुल उत्पादन को बढ़ाने में सहायक होता है, जो मजदूरी को भी ऊंचा रखता
है और आगे जनसंख्या में वृद्धि लाता है। क्योंकि भूमि स्थिर मात्रा में पाई जाती है
इसी कारण उत्पादन में अतिरिक्त श्रम से घटते औसत प्रतिफल पाए जाते हैं। जब जनसंख्या
बढ़ती है तो मजदूरी निवेश की लाभदायकता को कम करती है जब तक कि निवेश की प्रेरणा समाप्त
नहीं हो जाती है तथा अर्थव्यवस्था स्थिर अवस्था को प्राप्त होती है।
माल्थस की स्थिर अवस्था को चित्र से दिखाया जाता है
जिसमें
देश की जनसंख्या को क्षैतिज अक्ष पर च जीवन स्तर को अनुलंब अक्ष पर मापा गया है। रेखा
SWजीवन के निर्वाह स्तर को दर्शाती है जबकि वक्र LL वास्तविक जीवन स्तर को बताता है
जिसे जनसंख्या की मात्रा को अन्य संसाधनों की स्थिर मात्रा के साथ लागू करके कायम रखा
जाता है। वक्र LL का आकार यह स्पष्ट कर रहा है कि प्रारम्भिक अवस्था में जनसंख्या मजदूरी
के साथ बढ़ती है जिससे जीवन-स्तर ऊंचा होता है। इस वक्र का उच्चतम स्तर बिंदु M है
जहां इष्टतम जनसंख्या OP व PM उच्च जीवन स्तर को दर्शा रहा है। बिंदु M के पश्चात वक्र
I.L) नीचे की ओर गिरता है। इसका कारण जब बढ़ रही जनसंख्या को अन्य संसाधनों की स्थिर
मात्रा पर लागू किया जाता है तब ऐसी स्थिति में, घटते प्रतिफलों की प्रवृत्ति लागू
होने लगती है।
माल्थस
के अनुसार जब कार्यकारी जनसंख्या निर्वाह स्तर पर होती है तो इसके बढ़ने या कम होने
की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। चित्र में OS जीवन का निर्वाह स्तर है जिस पर OP1
जनसंख्या का संतुलन आकार है। यदि जनसंख्या OP1 से बढ़ जाती है तो
वास्तविक जीवन स्तर निर्वाह स्तर से नीचा होगा जिससे जनसंख्या कम हो जायेगी व निर्वाह
स्तर बढ़ेगा। इसके विपरीत, यदि जनसंख्या OP1 से कम होती है तब ऐसी स्थिति
में, वास्तविक जीवन स्तर निर्वाह स्तर से ऊंचा होगा जिसमें जनसंख्या बढ़ेगी व वास्तविक
जीवन-स्तर गिर जायेगा, इस प्रकार निर्वाह स्तर दीर्घकाल में स्थिर अवस्था में प्राप्त
होगा।
निष्कर्ष (Conclusion)' संक्षेप में, माल्थस का विकास
सिद्धान्त - अल्प-उपभोग अथवा प्रभावी मांग में कमी से संबधित है जिससे वस्तुओं की भरमार
होती है और अल्पविकास का यही मुख्य कारण है। विकास के लिए, देश को अर्थव्यवस्था के
कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में अधिक उत्पादन करना चाहिए। इसके लिए तकनीकी प्रगति, धन
और भूमि का एक समान वितरण, आन्तरिक और विदेशी व्यापार का विस्तार, गैर-उत्पादनशील उपभोग
में वृद्धि तथा लोकनिर्माण कार्य योजनाओं के जरिए रोजगार के अवसरों में वृद्धि करने
की आवश्यकता है। इसके अलावा, शिक्षा, नैतिक स्तर, श्रमशील आदतें. सही प्रशासन तथा फलोत्पादक
कानून जैसे गैर-आर्थिक तत्व हैं जो अर्थव्यवस्था के दोनों क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाने
में मदद करते हैं। इस प्रकार ये आर्थिक और गैर-आर्थिक तत्व आर्थिक विकास की ओर ले जाते
हैं।
आलोचनात्मक मूल्यांकन (CRITICAL APPRAISAL)
केन्ज
ने "राबर्ट माल्थस को कैम्ब्रिज अर्थशास्त्रियों में वस्तुतः प्रथम अर्थशास्त्री
के रूप में माना है।" चूंकि वे केन्ज के अग्रदूत थे। उन्होंने क्लेसिकी का पूर्वानुमान
भी किया। यह माल्थस ही थे जिन्होंने 'से के बाजार-नियम' को अस्वीकार किया और प्रभावी
मांग के महत्व पर बल दिया। उन्होंने ऐसे तत्वों का उल्लेख किया जो आर्थिक विकास में
बाधा उत्पन्न करते और उसे उन्नत करते हैं। विशेषतया. माल्थस ने प्रौद्योगिकीय प्रगति,
धन के समान वितरण, आन्तरिक और विदेशी व्यापार, लोकनिर्माण कार्यक्रम, सही प्रशासन,
मेहनत तथा संतुलित विकास के महत्व पर बल दिया। इन उपायों को आधुनिक आर्थिक विकास की
मुख्य घोषणाओं के रूप में मान्यता दी गई है।
इन
सब गुणों के बावजूद, माल्थस के सिद्धांत में कुछ कमियाँ हैं
1 पूँजी संचयन में दीर्घकालिक गतिहीनता निहित नहीं (Secular
stagnation not inherent in capital accumulation)-माल्थस का तर्क है कि
पूँजी-संचयन की प्रक्रिया सहजता से दीर्घकालीन गतिहीनता प्रदान करती है। यह एक गलत
धारणा है जो माल्थस द्वारा 'से' के नियम की विवेचना से उत्पन्न होती है। माल्थस के
अनुसार सभी वस्तुओं के स्थायी अल्पउपभोग की संभावना होती है। परन्तु वास्तविकता यह
है कि यह एक स्थायी न होकर अस्थायी प्रतिभास है। इसलिए पूँजी संचयन की प्रक्रिया में
दीर्घकालिक गतिहीनता है।
2, पूँजी संचयन का नकारात्मक विचार (Negative view of capital
accumulation)-माल्थस का यह विचार अन्य दृष्टि से भी ठीक नहीं है कि पूँजी
संचयन सहजता से दीर्घकालिक गतिहीनता प्रदान करता है। वस्तुतः पूँजी संजयन से उपभोक्ता
वस्तओं की मांग में कमी और लाभ में गिरावट नहीं आती है। पूँजी संचयन में वृद्धि होने
पर कुल आय में मजदूरी और लाभ का भाग भी बढ़ता है और इस तरह उपभोक्ता मांग में भी वृद्धि
होती है । इस प्रकार पूँजी संचयन की प्रक्रिया का माल्थस का विचार नकारात्मक था।
3. वस्तुओं से वस्तुओं का प्रत्यक्ष विनिमय नहीं होता है
(Commodities not exchanged for commodities directly) -इसके
अलावा, माल्थस से के नियम को अस्वीकारते हुए यह तर्क प्रस्तुत करता है कि वस्तुओं से
वस्तुओं का विनिमय नहीं होता है। वास्तव में, श्रम वस्तुओं का सही मापक नहीं है। वास्तविक
दुनिया में, वस्तुओं का माप असली मूर्त वस्तुओं से किया जाता है न कि श्रम द्वारा होता
है।
4. गैर-उत्पादकीय उपभोक्ता प्रगति में पिछड़ापन उत्पन्न करते हैं
(Unproductive consumers retard progress)-माल्थस के सिद्धांत की दूसरी
गंभीर कमी है कि वह अल्पउपभोग को नियन्त्रित करने और प्रभावी मांग बढ़ाने के लिए गैर-उत्पादकीय
उपभोक्ताओं द्वारा धन खर्च करने का सुझाव देता है। यह उपाय श्रमिकों को खैरात देने
एवं निठल्ले लोगों की जान-बूझकर मदद करने के बराबर है। ऐसा उपाय पूँजी संचयन की दर
को कम एवं धीमा कर देता है।
5. एकतरफा बचत आधार (One-sided saving base)-स्मिथ
के समान, माल्थस भी एकतरफा बचत आधार का सर्मथक था। उसका विश्वास था कि केवल जमींदार
लोग ही बचत करते हैं। परन्तु यह एक त्रुटिपूर्ण विचार है क्योंकि समाज में बचत का मुख्य
स्त्रोत आय कमाने वाला वर्ग है न कि लाभ कमाने वाला वर्ग।
माल्थस के सिद्धांत की अल्पविकसित देशों के लिए व्यावहारिकत (ITS
APPLICABILITY TO UDCs)
माल्थस
आर्थिक विकास के प्रणेतों में से थेजिन्होंने अपनी पुस्तक 'प्रिंसीपल ऑफ पोलिटिकल इकनामि'
में अपने समय के अल्पविकसित देशों की गरीबी और अल्पविकास के बारे में लिखा। उन्होंने
लगभग सम्पूर्ण एशिया एवं लेटिन अमेरिकन देशों सहित स्पेन, पुर्तगाल, हंगरी, तुर्की,
आयरलैंड जैसे देशों के आर्थिक पिछड़ेपन के बारे में लिखा। इस प्रकार उनका आर्थिक विकास
का सिद्धांत अन्य प्राचीन लेखकों के सिद्धांतो की अपेक्षा अल्पविकसित देशों के लिए
अधिक प्रासंगिक
1. उत्पादन के नियमों का लागू होना-माल्थस द्वारा एक अर्थव्यवस्था
का कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में विभाजन विश्लेषण अल्पविकसित देशों के संदर्भ में अत्यन्त
यथार्थपूर्ण है। अल्पविकसित देशों में दो प्रकार की अर्थव्यवस्थाएं हैं जहां कृषि क्षेत्र
औद्योगिक क्षेत्र के पीछे रहता है। प्रौद्योगिकीय प्रगति होने के बावजूद, कृषि क्षेत्र
में घटते प्रतिफल का नियम लागू होता है। औद्योगिक क्षेत्र बढ़ते प्रतिफल नियम के अन्तर्गत
कार्य करता है। इसके फलस्वरूप कृषि क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र की प्रगति को पीछे कर
देता है।
2. अल्पविकसित देशों की गरीबी के कारणों की यथार्थ व्याख्या-माल्थस
का गरीबी के कारणों का विश्लेषण मौजूदा अल्पविकसित देशों के संदर्भ में अत्यन्त यथार्थपूर्ण
है। उसके अनुसार कृषक-वर्ग की गरीबी उवर्रक भूमि की कमी के कारण नहीं है। इसका कारण
यह है कि भूमि को उन्नत करने के लिए किसानों के पास पूँजी नहीं है। दूसरी ओर, बड़े
भूस्वामी बाजार का आकार छोटा होने के कारण सघन खेती नहीं अपनाते हैं। चूंकि अधिकांश
जनसंख्या श्रमप्रधान खेती पर गुजारा करती है, इसलिए वह गरीब है। अत: औद्योगिक उत्पादन
की मांग कम है। औद्योगिक क्षेत्र का आकार सीमित होता है, इसलिए यह प्रर्याप्त रोजगार
प्रदान नहीं कर पाता। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र दूसरे के लिए बाधा के रूप में कार्य
करता है। इसके परिणामस्वरूप किसान, जमींदार, श्रमिक और उद्योगपतियों के प्रयास का आपूर्ति
वक्र पीछे की ओर झुका हुआ होता है। माल्थस का उक्त विश्लेषण एशिया, अफ्रीका या लेटिन
अमरीका के किसी पिछड़े देश में व्याप्त परिस्थितियों जैसा प्रतीत होता है।
3. जनसंख्या वृद्धि व आर्थिक विकास की मान्यता-माल्थस
द्वारा स्थापित जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास का सम्बन्ध अल्प विकसित देशों में
पूरी तरह लागू होता है। उनके अनुसार केवल जनसंख्या वृद्धि वाले देशों में धन में वृद्धि
अत्यंत धीमी होती है। एशियाई और अफ्रीका के देशों में यह पूरी तरह सिद्ध हो चुका है।
4. विकास के तत्वों का लागू होना-विकास को उन्नत करने
वाले तत्वों से सम्बन्धित माल्थस के विचार अल्पविकसित देशों में पूर्णतया लागू होते
हैं। ऐसे देशों के विकास को उन्नत करने में उत्पादन, इष्टतम वितरण, पूँजी संचयन, भूमि
का उपजाऊपन, प्रौद्योगिकीय प्रगति और इसी प्रकार के गैर-आर्थिक तत्व जैसेकि सही प्रशासन,
सर्वोत्तम कानून, मेहनत, सद्चरित्र इत्यादि की भूमिका से कोई इन्कार नहीं कर सकता
5. नीति संबंधी उपाय-इसके अलावा माल्थस द्वारा सुझाए
गए कुछ नीति-सम्बन्धी उपाय भी अल्पविकसित देशों में लागू होते हैं। उन्होंने कृषि के
तुलनात्मक महत्व को कम करने के लिए संरचनात्मक परिवर्तन के महत्व पर बल दिया जैसाकि
भूमि सुधार; कृषि और उद्योग का संतुलित विकास; बाजार को बढ़ाने के लिए आन्तरिक और विदेशी-व्यापार
का विस्तार करना, धन और भूमि का समान वितरण तथा लोकनिर्माण कार्यक्रम इत्यादि। ये उपाय
सभी अल्पविकसित देशों की विकास योजनाओं में मिलते हैं।
अव्यवहार्य तथ्य-परन्तु माल्थस के सिद्धांत में कुछ ऐसा
अंश है जो अल्पविकसित देशों पर लागू नहीं होता है। माल्थस का अल्प-उपभोग सिद्धांत ऐसे
देशों में प्रासंगिक नहीं है। माल्थस के विश्लेषण में अल्प-उपभोग से अभिप्रायः प्रभावी
मांग की कमी के कारण न बिकने वाली वस्तुओं की अधिकता है। अल्पविकसित देशों के मामले
में इसका तात्पर्य उत्पादन के कम स्तर के कारण उपभोग का कम स्तर होना है।
दूसरा, माल्थस का मानना था कि प्रभावी मांग की कमी पूँजीपति की मितव्ययिता के कारण थी। इसका उपचार उन्होंने पूँजीपतियों और गैर-उत्पादनशील श्रमिकों द्वारा गैर-उत्पादनशील' उपभोग करना सुझाया। ये सभी अल्पविकसित देशों में व्याप्त परिस्थितियों में लागू नहीं होते हैं। एक अल्पविकसित देश में आय का स्तर अत्यंत कम होता है तथा उपभोग की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है एवं बचतें नगण्य होती हैं। यहां समस्या बढ़े हुए उपभोग के जरिए प्रभावी मांग बढ़ाने की नहीं है क्योंकि इससे मुद्रास्फीति उत्पन्न होगी। इसके विपरीत अल्पविकसित देशों की समस्या तो रोजगार, आय और विकास के लिए बचत बढ़ाने की है।