सूती वस्त्र उद्योग (COTTON TEXTILES INDUSTRY)

सूती वस्त्र उद्योग (COTTON TEXTILES INDUSTRY)

संक्षिप्त इतिहास (Brief History)-कलकत्ता (कोलकाता) के पास घुमरी नामक स्थान पर 1818 में भारत में प्रथम सूती वस्त्र कारखाना स्थापित किया गया था परन्तु यह सफल न हो सका। तत्पश्चात् 1854 में कवास जी. एन. डाबर द्वारा सूर्ती वस्त्र का दूसरा कारखाना बम्बई (मुम्बई) में स्थापित किया गया। इसके बाद सूती वस्त्र के कारखानों की संख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी। 1914 में इन कारखानों की संख्या 264 हो गयी। जापान व अमेरिका की प्रतिस्पर्धा के कारण 1930 में इस उद्योग को संरक्षण (Protection) दिया गया।

द्वितीय विश्वयुद्ध काल में इस उद्योग ने खूब प्रगति की परन्तु 1947 में देश के विभाजन का इस उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। उस समय देश में सूती कारखानों की संख्या 391 थी जिनमें से 14 पाकिस्तान में चले गये तथा शेष 377 भारत में रह गये परन्तु कपास उत्पादन का 10 प्रतिशत भाग पाकिस्तान में चला गया जिस कारण भारत में कपास का अभाव हो गया और उद्योग को प्रगति धीमी हो गयी। 31 मार्च, 1999 तक देश में 1,824 सूती व कृत्रिम धागों की मिलें थीं जिसमें से 192 सार्वजनिक क्षेत्र में, 153 सहकारी क्षेत्र में तथा 1.479 निजी क्षेत्र में हैं।

पंचवर्षीय योजनाओं में उद्योग का विकास व वर्तमान स्थिति (Development of Industries under Five Year Plans and Present Position)

योजना काल में इस उद्योग को विकसित करने के तीन उद्देश्य रहे हैं-(i) उद्योग देश की आन्तरिक माँग को पूरा करे, (ii) प्रति व्यक्ति कपड़े के उपभोग में वृद्धि हो, (iii) पर्याप्त मात्रा में वस्तुओं का निर्यात करने में समर्थ हो परन्तु दुर्भाग्यवश इन उद्देश्यों की पूर्ति न हो सकी।

1. उत्पादन (Production)-वस्त्र उद्योग के दो हिस्से हैं-मिल क्षेत्र तथा विकेन्द्रीकृत क्षेत्र। विकेन्द्रीकृत क्षेत्र में बिजलीकरघा, हथकरघा और हौजरी क्षेत्र' (Hosiery Sector) को शामिल किया जाता है। सरकार ने समय के साथ विकेन्द्रीकृत क्षेत्र को कई रियायतें व छूटें दी हैं जिनके परिणामस्वरूप कुल उत्पादन में इस क्षेत्र का हिस्सा बढ़ा है तथा मिल क्षेत्र का हिस्सा कम हुआ है।

सारणी 1-भारत में वस्त्र उत्पादन (मिलियन वर्ग मीटर)

क्षेत्र

2013-14

2014-15

(अप्रैल-फरवरी)

मिल क्षेत्र

2,531

2,290

विद्युत् क्षेत्र

35,693

34,462

हौजरी

16,199

16,455

हथकरघा

7,104

6,596

कुल वस्त्र उत्पादन

61,526

58,803


2. मिलों की संख्या (No. of Mills)-नवम्बर 1 में देश में वस्त्र उद्योग में कुल 1969 मिलें थीं। जिनमें 1,771 कताई, 198 कम्पोजिट मिले हैं। संगठित क्षेत्र में करों की संख्या GG,000 है, जो देश में 4 प्रतिशत फेब्रिक का उत्पादन कर रहे हैं।

3. सकल घरेलू उत्पाद, कुल औद्योगिक उत्पादन व निर्यात में हिस्सा (Share in Gross Domestic Product, Total Industrial Production and Export)-वस्त्र उद्योग आधुनिक भारत का सबसे बड़ा उद्योग है। यह सकल घरेलू उत्पाद का 4.0 प्रतिशत तथा औद्योगिक उत्पादन का 14 प्रतिशत प्रदान करता है। यह लगभग 3.5 करोड़ लोगों को रोजगार देता है तथा निर्यात आय का लगभग 16.6 प्रतिशत हिस्सा प्रदान करता है।

4. कपड़े और सिले-सिलाए कपड़ों का निर्यात (Export of Textile and Readymade Garments)-भारत सूती कपड़े और सिले-सिलाए कपड़े का मुख्य निर्यातक है। 1970-71 में कपड़े का निर्यात र 65 करोड़ तक मयादित था परन्तु 2009-10 में यह बढ़कर 23.49 अरब डॉलर हो गया।

5. स्थानीकरण (Localisation)-कपड़े की मिलें मुख्य रूप से महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में हैं। केवल हाल के वर्षों में हो बिजली करमों की तमिलनाडु और कुछ अन्य राज्यों में तेजी से स्थापना हुई है

6. प्रति व्यक्ति उपलब्धता (Per Person Availability)-वर्ष 1993-91 में कपड़े की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 26.22 वर्ग मीटर थी जो 2011-12 में बढ़कर 43.1 वर्ग मीटर हो गयी है।

राष्ट्रीय कपड़ा नीति, 2000 (National Textile Policy, 2000)

राष्ट्रीय कपड़ा नीति की घोषणा 2 नवम्बर, 2000 को की गयी। इसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक स्तर पर घरेलू वस्त्र उद्योग को चुनौतियों से सामना करने को ध्यान में रखना है। इसमें मात्रात्मक प्रतिबन्धों को धीरे-धीरे समाप्त कर 2004 तक विश्व बाजार के साथ अपने को एकीकृत करने के लिए टैरिफ स्तरों को कम करने की व्यवस्था है। इसके अतिरिका कपड़ा व परिधानों के निर्यात स्तर को 11 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 2010 तक 50 बिलियन डॉलर करना है जिसमें वस्त्रों का हिस्सा 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर होगा।

कपास फसल उत्पादकता को 50 प्रतिशत बढ़ाना। पटसन की उत्पादकता बढ़ाने के लिए पटसन प्रौद्योगिकी मिशन की स्थापना करना। दसवीं पंचवर्षीय योजनावधि में हथकरघा, रेशम कीट उत्पादन, हस्तशिल्प व पटसन क्षेत्र में प्रारम्भ की गयी योजनाओं का क्रियान्वयन व सुधार करना। कपड़ा मन्त्रालय के अधीन सभी क्षेत्र संगठनों को रूपान्तरित करना, सही आकार व व्यावसायिक रूप देना।

देश के विभिन्न भागों में विश्वस्तरीय पर्यावरण के अनुकूल समेकित वस्त्र परिसरों व समेकित यूनिटों की स्थापना करना आदि।

भारतीय सूती वस्त्र उद्योग की मुख्य समस्याएँ (Main Problems of Indian Cotton Textile Industry)

इस समय हमारे यहाँ सूती वस्त्र उद्योग के समक्ष निम्नलिखित समस्याएँ हैं जिनके समाधान से ही इस उद्योग की आशातीत उन्नति की जा सकती है-

1. पुरानी मशीनों के प्रतिस्थापना की समस्या (Problem of ReplaceTTIEent ofohsolete Machines)—द्वितीय विश्वयुद्ध-काल में सूती वस्त्र मिलों में दो-दो अथवा तीन-तीन पालियों तक काम हुआ जिसमें अधिकांश मशीनें प्रायः जीर्ण शीर्ण हो अत: मिलों की सबसे बड़ी समस्या पुरानी मशीनों के प्रतिस्थापना की है।

2. वैज्ञानिकीकरण और आधुनिकीकरण (Rationalisation and Modernisation)—हमारी वर्तमान मशीनें न केवल पुरानी हैं बल्कि पुराने दंग को भी हैं। विदेशी प्रतियोगिता का सामना करने के लिए पुरानी मशीनों का आधुनिकीकरण अत्यन्त आवश्यक है परन्तु इस सम्बन्ध में तीन कठिनाइयाँ हैं- पहली तो यह कि मिलों के पास आधुनिकीकरण के लिए पर्याप्त कोष नहीं है। हर्ष का विषय है कि राष्ट्रीय औद्योगिक विकास निगम की ओर से नई मशीनें लगाने के लिए पूँजी की व्यवस्था की जा रही है। दूसरी बड़ी कठिनाई सूती वस्त्र उद्योग सम्बन्धी मशीनों की उपलब्धि है। निर्यात सहायता योजना के अधीन आधुनिकीकरण के लिए सूती कपड़ा उद्योग को मशीनरी के आयात के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है। तीसरी बड़ी कठिनाई यह है कि वैज्ञानिकीकरण तथा आधुनिकीकरण कार्यक्रम का विरोध स्वयं संगठित श्रम द्वारा किया जा रहा है, क्योंकि इससे बेरोजगारी बढ़ जाने की सम्भावना है।

3. विदेशी प्रतियोगिता तथा निर्यात (Foreign Competition and Export)- विदेशी बाजार में स्पर्धा बढ़ रही है। गत कुछ वर्षों से जापान, हांगकांग, पाकिस्तान और ग्रेट ब्रिटेन से प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है। भारतीय कपड़ा हांगकांग, ताइवान, पाकिस्तान, कोरिया आदि तुलना में 15 प्रतिशत महँगा होने से विदेशों में उसको माँग घटती जा रही है। निर्यात जिस तेजी से घट रहे हैं, उससे उद्योग व सरकार दोनों ही चिन्तित हैं। निर्यात में कमी का मुख्य कारण है उत्पादन की लागत में वृद्धि, रुई की कीमत व ईधन आदि की लागत में लगातार वृद्धि।

4. कच्चे माल का अभाव (Lack of Raw Material)- कपास के सम्बन्ध में आज भी हमारा देश स्वावलम्बी नहीं हो पाया है। देश-विभाजन के कारण भारत में कपास का अभाव हो गया है जिससे भारतीय सूती वस्त्र उद्योग को कपास के अभाव का सामना करना पड़ रहा है।

5. हथकरघा एवं मिल उद्योग के समन्वय की समस्या (Problem of Co-ordination between Handloom and Mills)- भारत में कुल सूती वस्त्र के उत्पादन का प्राय: 45 प्रतिशत भाग बिकेन्द्रित क्षेत्र, विशेषत: हथकरघा व बिजली से चलने वाले करघा उद्योग द्वारा उत्पन्न किया जाता है। हथकरघा उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार द्वारा मिल उद्योग के कपड़े के मूल्य, उत्पादन तथा किस्म पर कई प्रकार से प्रतिबन्ध लगाये गये जिससे प्राप्त आय का उपयोग हथकरघा उद्योग के विकास के लिए किया जाता है। हथकरघा उद्योग को प्रोत्साहन देना उचित है परन्तु मिल उद्योग के मालिकों का कहना है कि मिलों की उत्पादन की सीमा निर्धारित करके व कर लगाकर हथकरघा उद्योग का विकास करना उचित नहीं है। मिल उद्योगों के हितों की भी रक्षा की जानी चाहिए। अतः सूती कपड़ा उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता है।

6.अकुशल तथा बीमार मिलों की समस्या (Problem of Inefficient and Sick Mills)- भारत में सूती वस्त्र उद्योग में 125 मिलें ऐसी हैं जिनका आकार छोटा है तथा जिनकी उत्पादन लागत अधिक है और उत्पादित कपड़े का गुण न्यून है। आर्थिक दृष्टि से ये अलाभप्रद इकाइयाँ मानी जाती हैं। इस कारण जब औद्योगिक इकाई अपने श्रमिकों, लेनदारों तथा अंशधारियों के प्रति दायित्वों को पूरा करने की स्थिति में नहीं रहती, तब वह रुग्ण इकाई के नाम से सम्बोधित की जाती है। वस्त्र उद्योग की रुग्ण इकाइयों के पुनर्वास तथा संचालन का कार्य सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है। अधिगृहीत रुग्ण इकाइयों की प्रबन्ध व्यवस्था के लिए राष्ट्रीय वस्त्र निगम' की स्थापना की गई है। रुग्ण सूती उपक्रम (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1974 के अधीन सरकार ने अब तक वस्त्र उद्योग की 105 रुग्ण इकाइयों की प्रबन्ध व्यवस्था राष्ट्रीय वस्त्र निगम को सौंप दी है। इस प्रकार सूती वस्त्र उद्योग का लगभग 20 प्रतिशत भाग झाण होकर राष्ट्रीय वस्त्र निगम के नियन्त्रण व प्रबन्ध व्यवस्था में आ गया है।

7. पूँजी में कमी (Shortage of Capital)- वर्तमान में सूती मिलों के सामने एक महत्वपूर्ण समस्या पूँजी की कमी है जिसके कारण इन मिलों का विकास नहीं हो पा रहा है। यद्यपि व्यापारिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण एवं औद्योगिक वित्तीय व्यवस्थाओं की स्थापना से इस समस्या का कुछ हद तक समाधान हुआ फिर भी यह समस्या बनी हुई है, अत: सरकार को इस ओर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।

8. केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति (Tendency of Concentration)- अधिकांश सूती मिलें भारत में तमिलनाडु, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में स्थित हैं, फलत: यहाँ से उत्पादित कपड़ा दूसरे राज्यों में जाकर उपभोक्ताओं को महँगा मिलता है। इस समस्या का समाधान इस उद्योग के विकेन्द्रीकरण से हो सकता है।

9. ऊँची लागत की समस्या (Problem of High Cost)- भारतीय सूती वस्त्र मिलों में जिन कपड़ों का उत्पादन किया जाता है, उनकी लागत बहुत अधिक आती है जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-(i) पुरानी व घिसी-पिटी मशीनें, (ii) लम्बे रेशे वाले कपास का अभाव, (iii) अस्थायी व अकुशल श्रमिक, (iv) आयातित कपास का महँगा होना, (v) यातायात व सन्देशवाहन के पर्याप्त साधन न होना, (vi) तकनीकी सुविधाओं का अभाव। लागत अधिक होने के परिणामस्वरूप अपने देश में उत्पादित माल विदेशी प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पाता है और निर्यातों में निरन्तर कमी होती जा रही है।

10. विपणन अनुसन्धान की कमी (Lack of Marketing Research)—भारत में विपणन अनुसन्धान का सर्वथा अभाव है जिससे सूती वस्त्र बाजार का विस्तार नहीं हो पाया है। विदेशों में सूती वस्त्रों की बिक्री बढ़ाने हेतु भारत में 'सूती वस्त्र निर्यात साबर्द्धन परिषद्' की स्थापना 1955 में की गयी थी जिसने विदेशों में भारतीय वस्त्रों व धागों का काफी प्रचार किया है। इसी प्रकार अन्य संस्थाएँ स्थापित की जानी चाहिए जिससे विदेशों में भारतीय सूती वस्त्र की माँग में वृद्धि हो सके।

11. अन्य समस्याएँ व कठिनाइयाँ (Other Problems) (i) सरकार सूती कपड़े पर उत्पादन शुल्क में निरन्तर वृद्धि करती जा रही है जिससे इसके मूल्य में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। (ii) भारतीय सूती वस्त्र उद्योग के श्रमिकों की उत्पादकता अत्यन्त न्यून है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में एक हजार तकुओं की देखभाल के लिए दो श्रमिकों को आवश्यकता होती है, जबकि भारत में इसी कार्य के लिए 10 श्रमिक रखे जाते हैं। (iii) भारतीय सूती वस्त्र उद्योग के सामने एक समस्या प्राविधिक जानकारी की कमी है। इसके लिए नयी प्राविधिक उद्योग प्रशिक्षण संस्थाएँ स्थापित की जानी चाहिए। (iv) सूती कपड़ा उद्योग को पर्याप्त तथा निरन्तर बिजली व शक्ति न मिलने के कारण भी बहुत-सी कठिनाइयाँ होती हैं। (v) सूती वस्त्र उद्योग को कृत्रिम रेशा वस्त्रोद्योग, जैसे-टेरीकॉट, टैरीलीन इत्यादि से काफी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है क्योंकि कृत्रिम रेशों का उपयोग और उत्पादन बढ़ रहा है। (vi) श्रमिक संकट महँगाई के कारण दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। (vii) इस उद्योग को ऋण देने की नीति बहुत कठोर बना दी गई है। ऋणों की मार्जिन और ब्याज की दरें काफी बढ़ गई हैं। फलत: उद्योगों के सामने वित्तीय कठिनाइयाँ उपस्थित हो गई हैं। (viii) वर्तमान में राष्ट्रीयकृत मिलों के पास अर्थात् राष्ट्रीय वस्त्र निगम के पास बिना बिके कपड़े का अम्बार लगा हुआ है।

समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव (Suggestions for Solution of Problems)

सूती वस्त्र उद्योग की समस्याओं के समाधान के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये जा सकते हैं-

1. आधुनिकीकरण को प्रोत्साहन (Encouragement of Modernisation)—प्रत्येक सुदृढ़ मिल के लिए कानूनी रूप से यह आवश्यक कर दिया जाना चाहिए कि वह अगले दस वर्षों में अपना आधुनिकीकरण करने की योजना बनाये और सरकार से स्वीकार कराकर इस सन्दर्भ में उचित कदम उठाये। इसके लिए केन्द्र व राज्यों में आवश्यक सरकारों मशीनरी की व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए।

2. बीमार मिलों का निदान (Solution of Sick Mills) बीमार मिलों को सुदृढ़ मिलों में मिलाने की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे कि वे भी सुदृढ़ मिलों के साथ मिलकर अपना कार्य कर सकें। इनकी व्यवस्था सरकार को भी अपने हाथों में ले लेनी चाहिए ताकि इनकी उत्पादन क्षमता में वृद्धि की जा सके और उत्पादन को लाभदायक बनाया जा सके।

3. लागत की कमी (Reduction in Cost) ऊँची को कम करने और उद्योग की लाभदायकता को बढ़ाने के लिए उद्योग को आधुनिकीकरण लिए सभी आवश्यक सुविधाएँ, जैसे- मशीनरी आयात, विदेशी मुद्रा, वित्तीय प्रबन्ध आदि उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

4. कपास उत्पादन हेतु प्रोत्साहन (Encouragement to Cotton Production) कपास को पूर्ति में वृद्धि करने के लिए किसानों को अधिक कपास उत्पादन की प्रेरणा दी जानी चाहिए। देश में कपास की सामान्यतया कमी रहती है। अत: उसको समय से पूर्व आयात करके, भण्डारण के रूप में रखने की व्यवस्था 'भारतीय कपास निगम के द्वारा प्रभावी ढंग से की जानी चाहिए जिससे कि मिलों को कपास निरन्तर अपनी आवश्यकतानुसार मिलती रहे।

5. शक्ति की पर्याप्त मात्रा में व्यवस्था (Proper Arrangement of Power)—उद्योगों को शक्ति की पर्याप्त मात्रा में व्यवस्था की जानी चाहिए। ईंधन और विद्युत् समयान्तर्गत पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया जाना चाहिए। विद्युत् कटौतों की प्रथा समाप्त की जानी चाहिए।

6. उत्पादन करों में छूट (Relaxation in Excise Duties)—सूती वस्त्रों पर उत्पादन करों का बोझ अधिक है, अत: उन्हें उत्पादन करों से भी छूट प्रदान की जानी चाहिए जिससे कि सूती कपड़ा सस्ता हो सके और माँग में वृद्धि होने से उद्योग भी अपनी उत्पादकता व लाभदायकता में वृद्धि कर सके।

7. विनियोग एवं विकास में छूट प्रदान करना (Exemption for Investment and Development)—जो मिल आधुनिकीकरण में जितना धन लगाये, उस पर आयकर अधिनियम के अन्तर्गत ऊँची दर से विनियोग या विकास छूट दी जानी चाहिए।

8. निर्यात वृद्धि हेतु प्रोत्साहन (Encouragement for Increase in Export)—निर्यात में वृद्धि के लिए प्रोत्साहन कार्यक्रम अपनाया जाना चाहिए। विदेशों में सर्वेक्षण कराया जाना चाहिए, ताकि सूचियों एवं माँग के अनुरूप उत्पादन को समायोजित किया जा सके।

वस्त्र उद्योग के विकास के लिए सरकार ने निम्नलिखित योजनाएँ प्रारम्भ की हैं-

(1) 1 अप्रैल, 1999 को कपड़ा मन्त्रालय द्वारा तकनीकी उन्नयन निधि योजना (Technology Upgradation Fund Scheme : TUFS) की शुरुआत पाँच वर्षों की अवधि के लिए की गई थी जिसे 31 मार्च, 2007 तक बढ़ा दिया गया था।

(2) फरवरी 2006 में प्रारम्भ किए गए कपास प्रौद्योगिकी मिशन (Technology Mission on Cotton) को 31 मार्च, 2007 के बाद भी जारी रखने की घोषणा की गई है।

(3) हथकरघा गतिविधियों के विस्तार हेतु वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए अप्रैल 2000 से 'दीनदयाल हथकरघा प्रोत्साहन योजनाएँ' प्रारम्भ की गईं।

(4) सरकार ने कपड़ा उद्योग की बुनियादी सम्भावनाओं के क्षेत्र के विकास के लिए अगस्त 2005 में समेकित कपड़ा स्कीम (Scheme for Integrated Textile Parks : SITP) लागू की गई।

बदलता अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश-बहुफाइबर समझौते की समाप्ति (Changing International Scenario : End of MFA)

1 जनवरी, 1974 को बहुफाइबर समझौता (Multi-Fibre Agreement) लागू किया गया जिसके अन्तर्गत वस्त्र निर्यातक देशों के निर्यात कोटे (Export Quotas) को निश्चित कर दिया गया। परन्तु 1 जनवरी, 2005 से टैक्सटाइल एण्ड क्लोदिंग' समझौते (Agreement on Textiles and Clothing), 1995 के अनुरूप (जो विश्व व्यापार संगठन के अधीन किए गए समझौतों में से एक समझौता है।) बहुफाइबर समझौते को समाप्त कर दिया गया।

टेक्सटाइल कपड़े की अवधि समाप्त होने के पश्चात् और कोटा (Quota) प्रणाली को खत्म करने के बाद टेक्सटाइल क्षेत्र में नयी वैश्विक व्यापार की प्रणाली (New System of Global Trade) आरम्भ हो गई। भारत को चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश तथा पाकिस्तान के साथ प्रतिस्पर्धा का सामना करना होगा।

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