लोहा एवं इस्पात उद्योग भारत के सबसे महत्वपूर्ण और आधारभूत उद्योगों में से एक है। देश की औद्योगिक प्रगति के लिए इस उद्योग का विकास अनिवार्य है। देश की सुरक्षा की दृष्टि से भी इस उद्योग का बहुत महत्व है, क्योंकि प्रत्येक प्रकार की लड़ाई के अस्त्र शस्त्रों में लोहे का प्रयोग होता है। इसलिए यदि वर्तमान युग को 'लोहा इस्पात का युग' कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
संक्षिप्त इतिहास (Brief Ilistory)
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हमारा देश लोहे व इस्पात के उद्योगों के लिए प्राचीन काल से
प्रसिद्ध रहा है। दिल्ली का लौह स्तम्भ विश्व के वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों के
लिए सदैव आश्चर्य को वस्तु रहा है। प्रो. विल्सन के शब्दों में, "लौहे की
ढलाई तो इंग्लैण्ड में थोड़े ही वर्षों से आरम्भ की गई है, परन्तु हिन्दू लोग लोहा
गलाने, ढालने और इस्पात बनाने की कला का ज्ञान प्राचीन काल से रखते हैं।"
वाडिया व मर्चेण्ट के अनुसार, "भारत में चौथी व पाँचवीं शताब्दी से ही टिकाऊ
व सुन्दर लोहे की वस्तुओं का उत्पादन होता था तथा ये वस्तुएँ विदेशों को पर्याप्त
मात्रा में निर्यात को जाती थीं।" इस प्रकार भारत प्राचीन काल से ही लोहा
बनाने की पद्धति से परिचित था परन्तु आधुनिक ढंग से लोहा बनाने का प्रथम प्रयास
सन् 1830 में किया गया जो कि असफल रहा। 1847 में बंगाल में बराकर आयरन वर्क्स की
स्थापना की गई, परन्तु यहाँ केवल लोहा ही बनाया जा सकता था, इस्पात नहीं। इसके
पश्चात् निम्न कारखानों की स्थापना की गई-
1857—आसनसोल-बंगाल
आयरन कम्पनी, 1875–बंगाल आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, 1907 जमशेदपुर—टाटा आयरन एण्ड स्टोल
कम्पनी, 1918–हीरापुर—इण्डियन आयरन एण्ड स्टील कम्पनी,
1923–भद्रावती–मैसूर आयरन एण्ड स्टील वर्क्स ।
पंचवर्षीय योजनाओं में विकास (Development. in Five Year Plans)
स्वतन्त्रता
के पश्चात् लोहा व इस्पात उद्योग के विकास के सम्बन्ध में पहली पंचवर्षीय योजना
में विचार किया गया परन्तु इसका काम दूसरी पंचवर्षीय योजना से हो प्रारम्भ हो सका।
दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) टूसरी पंचवर्षीय योजना
में इस उद्योग को प्राथमिकता दी गई। इस योजना के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र में
निम्न तीन लोहा-इस्पात कारखानों की स्थापना की गई है-
1.
राउरकेला (ओडिशा) में पश्चिम जर्मनी के सहयोग से।
2.
भिलाई (छत्तीसगढ़) में रूस के सहयोग से।
3.
दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में ग्रेट ब्रिटेन के सहयोग से।
इसी
योजना में निजी क्षेत्र के दो कारखाने टिस्को तथा इस्को (TISco and IISCO) की उत्पादन
क्षमता दोगुनी कर दी गई।
तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) इस योजना में सार्वजनिक
क्षेत्र के तीनों-भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर के कारखानों का विस्तार किया गया तथा
सोवियत संघ की सहायता से 1966 ई. में बोकारो इस्पात कारखाना स्थापित किया गया।
चौथी पंचवर्षीय योजना ( 1969-74) इस पंचवर्षीय योजना
में पहला तटवर्ती इस्पात संयन्त्र विशाखापट्टनम में स्थापित किया गया और साथ ही साथ
सलेम (तमिलनाडु) तथा विजयनगर (कर्नाटक) में नए इस्पात कारखाने स्थापित करने का लक्ष्य
रखा गया।
पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79) इस योजना के दौरान
भिलाई और बोकारो संयन्त्रों का विस्तार किया गया और विशाखापट्टनम और विजयनगर कारखानों
को स्थापना और विकास किया गया।
छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) इस योजना काल में इस उद्योग
के विकास के लिए कोयले की उपलब्धि, संचालन शक्ति और रेल्ल परिवहन क्षमता में वृद्धि
के लिए विशेष प्रयास किए गए।
सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) इस योजना काल में लौह-इस्पात
कारखानों में मशीनों की प्रतिस्थानापन्नता, आधुनिकीकरण एवं तकनीकी रूप से उन्नत बनाने
का लक्ष्य रखा गया जिसे योजना के समाप्त होते-होते पूरा कर लिया गया।
आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) इस पंचवर्षीय योजना
में ही देश में उदारीकरण की प्रक्रिया अपनाई गई जिसके कारण लौह एवं इस्पात उद्योग के
लिए औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रणाली समाप्त कर दी गई।
नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) इस योजना के दौरान
निजी क्षेत्र में लघु इस्पात संयन्त्रों की स्थापना के कारण इस क्षेत्र की विकास दर
में काफी वृद्धि हुई है।
दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) इस योजना के दौरान
सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों का आधुनिकीकरण करके उनकी उत्पादन क्षमता को बढ़ाने तथा
निजी क्षेत्र के अधिक-से-अधिक लौह एवं इस्पात उद्योगों को स्थापित करने का लक्ष्य रखा
गया।
वर्तमान स्थिति (Present Position)
1. वर्तमान में कारखानों की संख्या (Number of Mills in Present)
भारत में इस्पात के कारखाने दो प्रकार के हैं-
(अ)
एकीकृत इस्पात प्लांट्स (Integrated Steel Plants)—इनके अन्तर्गत इस्पात के बड़े कारखाने
सम्मिलित किए जाते हैं जो निम्नलिखित हैं-
(I)
भारतीय इस्पात प्राधिकरण लिमिटेड (SAIL) के स्वामित्व-
1.
दुर्गापुर एकीकृत इस्पात संयन्त्र, दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल)।
2.
राउरकेला एकीकृत इस्पात संयन्त्र, राउरकेला (ओडिशा)।
3.
भिलाई एकीकृत इस्पात संयन्त्र, भिलाई (मध्य प्रदेश)।
4.
बोकारो एकीकृत इस्पात संयत्र, बोकारो (झारखंड)।
5.
इण्डियन आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, बर्नपुर (पश्चिम बंगाल)।
6.
विशेष और मिश्र इस्पात तथा लौह मिश्र कारखाना, दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल)।
7.
विशेष और मिश्र इस्पात तथा लौह मिश्र कारखाना, सलेम (तमिलनाडु)।
8.
महाराष्ट्र इलेक्ट्रो स्लेम लि. चन्द्रपुर (महाराष्ट्र)।
9.
विश्वेश्वरैया आयरन एण्ड स्टील कम्पनी, भद्रावती (कर्नाटक)।
(II)
टाटा आयरन एण्ड स्टील कं. (टिस्को), जमशेदपुर (निजी क्षेत्र)।
(III)
राष्ट्रीय इस्पात निगम लि. (RINL) (सार्वजनिक क्षेत्र)।
(IV)
विशाखापट्टनम इस्पात संयन्त्र, विशाखापट्टनम (आन्ध्र प्रदेश)।
निजी
क्षेत्र में सृजित अतिरिक्त क्षमता 1991 ई. से भारतीय लौह और इस्पात उद्योग को लाइसेंस
मुक्त किए जाने तथा निजी क्षेत्र में अतिरिक्त उत्पादन क्षमता के सृजन के लिए उठाए
गए उपायों के कारण लगभग 130 लाख टन वार्षिक क्षमता के ₹ 30.835 करोड़ के कुल निवेश
से 19 परियोजनाएं पहले ही स्वीकृत की जा चुकी हैं जो लागू होने के विभिन्न चरणों में
हैं। लौह एवं इस्पात उद्योग के निजी क्षेत्र में आराश हो चुके आठ संयन्त्र, जिनकी कुल
उत्पादन क्षमता लगभग 54.5 लाख टन है, पहले ही आरम्भ हो गए हैं।
(ब)
लघु इस्पात संयन्त्र (Mini Steel Plants)—बिजली की इस्पात भट्टियों वाले कारखानों को
लघु इस्पात संयन्त्र कहा जाता है। इनमें रद्दी (स्क्रेप) धातु और स्पंज लोहे से इस्पात
तैयार किया जाता है। ये नरम इस्पात के साथ साथ मिश्र इस्पात भी तैयार करते हैं। इस
समय देश में 196 लघु इस्पात संयन्त्र हैं। इनमें से 179 इकाइयों में उत्पादन हो रहा
है।
जुलाई
1991 में घोषित नई औद्योगिक नीति में लौह और इस्पात को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित
उद्योगों की सूची से निकाल दिया गया है और इसके लिए लाइसेंस की अनिवार्यता भी समाप्त
कर दी गई है।
2. उत्पादन (Production) भारत में स्टील का उत्पादन
86.5 मिलियन टन है, जो विश्व के कुल स्टील उत्पादन का 5% है। इस हिस्सेदारी के साथ
भारत विश्व का चौथा बड़ा स्टील उत्पादक देश है।
भारत,
चीन, जापान तथा अमेरिका के बाद विश्व का चौथा सबसे | इस्पात उत्पादक देश है- जबकि स्पंज
आयरन के उत्पादन में विश्व में भारत का स्थान प्रथम है।
3. लौह एवं इस्पात का निर्यात (Export of Iron and Steel) नई
आर्थिक नीति 1991 ई. के फलस्वरूप भारत लौह एवं इस्पात का निर्यातक राष्ट्र बनता जा
रहा है। वर्ष 2013-14 में भारत में इस्पात का कुल नियांत 5.39 मिलियन टन तथा कुल आयात
5.44 मिलियन टन रहा।
4. पूँजी व रोजगार (Capital and Employment) यह
उद्योग भारत का विशालतम एवं महत्वपूर्ण उद्योग है। इसमें र 1,20,000 करोड़ की पूँजी
बिनियोजित है तथा 5 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है।
5. घरेलू (Domestic) स्टील उपभोग भारत में
2014-15 के दौरान 76.99 मिलियन टन था जो वर्ष 2013-14 के स्तर पर 3.9 प्रतिशत वृद्धि
को दर्शाता है। विश्व इस्पात संघ के प्रक्षेपण के अनुसार भारत में स्टील के उपभोग में
वर्ष 2015 तथा 2016 में क्रमश: 6.2% तथा 7.3% वृद्धि का अनुमान लगाया गया है।
शहरीकरण
में वृद्धि और ग्रामीण क्षेत्रों में सम्पन्नता आने के फलस्वरूप इस्पात की माँग में
वृद्धि होना स्वाभाविक है।
6. स्थानीयकरण (Localization) भारतीय लौह एवं इस्पात उद्योग
मुख्यतः बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश व ओडिशा में केन्द्रित हो गया है। इसका प्रमुख
कारण यह है कि इस उद्योग के लिए आवश्यक कच्चा लोहा, चूना, कोयला तथा मैंगनीज आदि इन
स्थानों पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं नये कारखानों की स्थापना करते समय भी कच्चे
माल की प्राप्ति पर विशेष ध्यान दिया गया है।
उद्योग की प्रमुख समस्याएँ व समाधान(Main
Problems and Solution of the Industry)
1. कोयले की कमी (Shortage of Coal)- भारत
में लोहे को ग्लाने के लिए कच्चे कोयले का बहुत अभाव है। इस्पात उद्योग की प्रगति के
साथ-साथ कच्चे कोयले की माँग, पूर्ति की अपेक्षा अधिक बढ़ रही है। अच्छे कोयले की कमी
के कारण घटिया किस्म के कोयले को उपयोग में लाना पड़ता है जिसमें राख का अंश अधिक होता
है। इससे उत्पादन कम होता है तथा लागत में वृद्धि होती है।
उपाय (Measures)- इस समस्या को हल करने के लिए कोयला धोने
वाले कारखानों को स्थापित किया जा रहा है। बिजली को भट्टियाँ तैयार करके ईंधन की समस्या
का आंशिक समाधान सम्भव है। सरकार क्षेत्र में इस्पात कारखानों को धुला कोयला उपलब्ध
कराने के लिए हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड के दुर्गापुर, दुगड़ा, पाथरडीह तथा भोजूडीह
में अपने कोयला धुलाईघर हैं।
2. परिवहन समस्या (Transportation Problem)-अच्छी
परिवहन सुविधाओं के अभाव के कारण कच्चे मालों की पूर्ति में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती
हैं।
उपाय (Measures)- उद्योग में प्रयुक्त खनिज लोहा, कोयला,
चूना, मैंगनीज आदि को ढोने के लिए रेलवे या जल यातायात की व्यवस्था आवश्यक है, क्योंकि
ये सभी भारी कच्चे माल हैं। कोयला तथा खनिज लोहे की लगातार कुशल पूर्ति के लिए अधिक
रेलवे वैगनों की व्यवस्था की जाये। बार-बार रेलवे परिवहन में आने वाली रुकावटों को
दूर करने की आवश्यकता है। पिछले दो वर्षों में कोयले की ढुलाई व्यवस्था में पर्याप्त
सुधार हुआ है।
3. तकनीकी व प्रशिक्षित कर्मचारियों का अभाव (Shortage of
Technical and Trained Employees) इस उद्योग के लिए उच्च कोटि
की तकनीक व प्रशिक्षित कर्मचारी देश में नहीं मिल पाते, फलस्वरूप बहुत अधिक वेतन देकर
इन्हें विदेशों से बुलाना पड़ता है।
उपाय (Measures)- ज्यों-ज्यों देश में प्रशिक्षण की सुविधाएं
बढ़ती जायेंगी, यह समस्या इतनी गम्भीर नहीं रहेगी। हमारी योजनाओं के अन्तर्गत इस दिशा
में महत्वपूर्ण कार्य किये जा रहे हैं।
4. सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों में अप्रयुक्त क्षमता का अधिक होना
(Existence of Unutilised Capacity in Public Sector)
Millsदेश में एक तरफ इस्पात की कमी है तो दूसरी तरफ सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े कारखानों
में अप्रयुक्त क्षमता बनी हुई है।
उपाय (Measures)-अप्रयुक्त क्षमता के प्रयोग के उपाय किये
गये हैं परन्तु अभी भी 35-40 प्रतिशत क्षमता अप्रयुक्त है। अतः प्रयुक्त क्षमता के
उपयोग के लिए प्रभावशाली प्रबन्धन किया जाना चाहिए।
5. ऊँची लागत समस्या (High Cost Problems)-भारत
में इस्पात निर्माण की लागत दुनिया के अन्य देशों की तुलना में अधिक है, जबकि खनिज
पदार्थों की उपलब्धि को देखते हुए यह बहुत कम होनी चाहिए। खनिज लोहे में ऐल्यूमिनियम
तत्व अधिक होने, कोकिंग कोयले का अभाव, श्रमिकों की उत्पादकता कम होने आदि के कारण
लागत अधिक है। मुद्रा-स्फीति, उत्पादन कर, भाड़ा व कस्टम आदि में वृद्धि के कारण भी
लागत बढ़ी है, अत: इन तत्वों पर सख्त नियन्त्रण की आवश्यकता है।
6. श्रम अशान्ति (Labour Unrest) भारत में लौह एवं इस्पात
उद्योग में श्रम अशान्ति को एक विकट समस्या है। श्रम अशान्ति सार्वजनिक क्षेत्र के
कारखानों में और विशेषतः दुर्गापुर संयन्त्र से अधिक है।
उपाय (Measures)- श्रम संघों से इस समस्या के समाधान के
लिए दीर्घकालीन समझौते किये जायें तथा मजदूरी को उत्पादकता से सम्बन्धित कर दिया जाना
चाहिए। श्रम संघों को समय की पुकार समझकर उत्पादन बढ़ाने एवं शान्ति बनाये रखने में
अपना योगदान देना चाहिए।
7. सरकारी क्षेत्र की इकाइयों की अकुशलता (Inefficieney of Public
Sector Units)- सबसे मुख्य समस्या सरकारी क्षेत्रों की इकाइयों की स्थापना
के पश्चात् इनकी अकुशलता की है। ये इकाइयाँ अधिकतर घाटे में चल रही हैं। इसके मुख्य
कारण हैं सामाजिक ऊपरी व्यय (Social Overheads) पर भारी विनियोग, दोषपूर्ण श्रम सम्बन्ध,
दोषपूर्ण एवं अकुशल उच्च प्रबन्ध, क्षमता का अल्प प्रयोग आदि।
8. उत्पादन की नयी दिशा व इसके छीजन (Waste Material) के
उपयोग की समस्या-इस उद्योग की एक अन्य महत्वपूर्ण समस्या उत्पादन को नयी दिशा देने
व इसके छीजन (Waste Material) के उपयोग की है। उत्पादन वस्तुओं को इस प्रकार ढालने
की जरूरत है जिससे कि छोटे उद्योगों के लिए मूल पूँजीगत वस्तुएँ और ग्रामीण क्षेत्र
के लिए आधारित संरचना की वस्तुएँ उपलब्ध हो सकें तथा साथ हो उपभोक्ता की जरूरतें पूरी
हो सकें इसके छीजन (धातुमल) के इस्तेमाल से सीमेन्ट के उत्पादन में भारो मदद मिल सकेगी
और इस्पात की लागत में भी कमी लायी जा सकेगी। इस प्रकार इस उद्योग पर और देश की अर्थव्यवस्था
पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा।
9. इस्पात के मूल्यों में वृद्धि (Increase in Steel Prices)- इस्पात
के मूल्यों में विगत वर्षों के दौरान महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। इससे इस्पात को माँग
में कमी तथा फलस्वरूप उत्पादन में कमी हुई है। इस्पात एक आधारभूत वस्तु है जिसके उत्पादन
तथा मूल्य पर अनेक उद्योगों का विकास निर्भर करता है। अतः यदि इस्पात के मूल्यों में
वृद्धि होगी तो उस पर आश्रित उद्योगों के उत्पादों में भी वृद्धि होगी परिणामतः सम्पूर्ण
अर्थव्यवस्था में मूल्य वृद्धि की समस्या उत्पन्न हो जायेगी।
10. निर्यात एवं आयात व्यापार (Export and Import Trade) भारतीय
अर्थव्यवस्था में लौह तथा इस्पात उद्योग को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होने के बावजूद
भी सन् 1971-72 के बाद इस्पात के आयातों में निरन्तर वृद्धि हुई है जबकि इस्पात के
नियांतों में पर्याप्त वृद्धि नहीं की जा सकी है। इस्पात उद्योग एक आधारभूत उद्योग
होने के कारण उत्पादन माँग के अन्तर को भारी मात्रा में, आयात करके पूर किया जाता है।
उपाय (Measures)- इस समस्या के समाधान के लिए इस्पात उद्योग
की निर्धारित क्षमता का पूरा उपयोग अरने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस्पात कारखानों
को पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल उपलब्ध करवाने का प्रयास करना चाहिए।
11. अन्य समस्याएँ !Other Problems)- लौह
और इस्पात उद्योग को कुछ अन्य समस्याएँ निम्न प्रकार हैं-
(i)
विदेशी निवेश पर निर्भरता,
(ii)
आवश्यकता से अधिक स्टाफ,
(iii)
इस्पात स्क्रेप की कीमतों में वृद्धि
(iv)
अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से चुनौती।
बारहवीं
पंचवर्षीय योजना में इस्पात उद्योग को पेश आ रही निम्न समस्याओं की चर्चा की गई है-लौह
अयस्क (Iron ore) के घटते स्रोत, कोयले की अपर्याप्त उपलब्धता, अपर्याप्त निसादीकरण
तथा पिण्डीकरण क्षमताएँ (Inadequate Sintering and Pelletization Capacities) और कच्चे
माल की ढुलाई के लिए यातायात का घटिया आधारभूत ढाँचा। इस्पात उद्योग के लिए ग्यारहवीं
पंचवर्षीय योजना में ₹ 37,818 करोड़ का परिव्यय रखा गया है।
राष्ट्रीय इस्पात नीति, 2005 (National
Steel Policy, 2005)
इस
नीति का उद्देश्य भारत के इस्पात उद्योग को गुणवत्ता एवं लागत की दृष्टि से अधिक प्रतिस्पर्धी
व शक्तिशाली बनाना है। इस नीति में राज्य की भूमिका को तीन तरीकों से परिभाषित किया
गया है-(1) घरेलू उपभोग को बढ़ाने में सहयोग, (2) पूर्ति पक्ष पर आने वाली रुकावटों
को दूर करने में सहयोग (जिसमें वित्तीय रूकावटें भी शामिल हैं), तथा (8) विदेशी प्रतिस्पर्धा
में इस्पात उद्योग को सक्षम बनाने में सहयोग।
भविष्य (Future) इस उद्योग का भविष्य उज्ज्वल है। इस्पात उद्योग के विकास के लिए सभी प्रकार का कच्चा माल देश में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। नये इस्पात कारखानों के लिए तकनीकी कुशलता भी देश के अन्दर विकसित हो चुकी है। इस्पात कारखानों के लिए आवश्यक यन्त्रों और उपकरणों का निर्माण भी देश में होने लगा है और योजनाबद्ध रीति से इस्पात के उत्पादन को बढ़ाने के लिए कार्यक्रम भी चल रहा है।