(विभिन्न
क्षेत्रों पर इसका सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभाव, भारत में एफडीआई
और एफआईआई के मुद्दे)
वैश्वीकरण
वैश्वीकरण
वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं का समन्वय किया
जाता है ताकि वस्तुओं एवं सेवाओं, टैक्नोलॉजी, पूंजी और श्रम या मानवीय पूंजी का
भी निर्बाध प्रवाह हो सके। अतः अर्थशास्त्रियों के अनुसार वैश्वीकरण के चार अंग
हैं :-
1.
व्यापार-अवरोधकों (Trade barriers) को कम करना ताकि वस्तुओं एवं
सेवाओं का बेरोक-टोक आदान प्रदान हो सके।
2.
ऐसी परिस्थिति कायम करना जिसमें विभिन्न देशों में पूंजी का स्वतंत्र
रूप से प्रवाह हो सके;
3.
ऐसा वातावरण कायम करना कि टैक्नोलॉजी का निर्बाध प्रवाह हो सके
और
4.
ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें विश्व के विभिन्न देशों में श्रम का
निर्बाध प्रवाह हो सके।
वैश्वीकरण
के समर्थक, विशेषकर विकसित देशों से, वैश्वीकरण की परिभाषा को पहले तीन अंगों तक
सीमित कर देते हैं अर्थात् निर्बाध व्यापार-प्रवाह, निर्बाध पूंजी-प्रवाह और
निर्बाध टैकनोलॉजी-प्रवाह। वे विकासशील देशों पर वैश्वीकरण की इस परिभाषा को
स्वीकार करने के लिए दबाव डालते हैं और उनके द्वारा तय की गई परिधि में वैश्वीकरण
के बारे में विचार-विमर्श करने पर बल देते हैं। परन्तु विकासशील देशों के बहुत से
अर्थशास्त्री यह मत रखते हैं कि यह परिभाषा संपूर्ण नहीं है और यदि वैश्वीकरण के
समर्थकों का अन्तिम लक्ष्य समस्त संसार को एक 'सार्वभौम ग्राम' (Global village)
के रूप में कल्पित करना है, तो इसके चौथे अंग अर्थात् श्रम के निर्बाध प्रवाह की
उपेक्षा नहीं की जा सकती। परन्तु इस सारे मसले पर चाहे यह विवाद विश्व बैंक,
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष या विश्व व्यापार संगठन या अन्य मंचों पर किया गया
परन्तु श्रम-प्रवाहों की पूर्णतया उपेक्षा की गयी, भले ही यह वैश्वीकरण का
अनिवार्य अंग है। हाल ही में, अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ द्वारा स्थापित वैश्वीकरण
के सामाजिक आयाम (Social dimension of globalisation) पर विश्व आयोग ने अपनी
रिपोर्ट में मानवीय पूंजी के प्रवाहों के प्रश्न पर ध्यान दिया है और इसके
परिणामस्वरूप विकासशील देशों की सहायता के लिए इसके कार्यभाग पर विचार किया है।
इसके कारण बहुत से प्रश्न उठाए गए हैं जिनका उल्लेख बाद में किया जाएगा।
अतः
बुनियादी तौर पर वैश्वीकरण का अर्थ अन्तर्राष्ट्रीयकरण (Internationalisation)
और उदारीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देना है। स्टिग्लिट्ज़ के
अनुसार "वैश्वीकरण दुनिया के विभिन्न देशों और लोगों का घनिष्ठ समन्वय है जो
परिवहन एवं संचार की लागतों में लाई गयी भारी कमी के परिणामस्वरूप हो पाया है, और
इसके फलस्वरूप वस्तुओं तथा सेवाओं के प्रवाहों में कृत्रिम रूकावटें समाप्त की गयी
हैं और (एक सीमा तक) अपनी सीमा के परे लोगों का आना-जाना बढ़ा है।"
जगदीश
भगवती के अनुसार वैश्वीकरण की परिभाषा इस प्रकार की गयी है : “आर्थिक वैश्वीकरण
(Economic globalisation) में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को अन्तर्राष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था में जोड़ने की प्रक्रिया समविष्ट है और यह व्यापार, प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश (निगमों या बहुराष्ट्रीय उद्यमों), अल्पकालीन पूंजी प्रवाहों, श्रम तथा
सामान्यतः मानवजाति के अन्तर्राष्ट्रीय प्रवाह और टैकनोलॉजी के प्रवाह द्वारा सम्पन्न
किया जाता है।"
वैश्वीकरण के समर्थक वैश्वीकरण के पक्ष में निम्नलिखित तर्क देते
हैं-
(i)
वैश्वीकरण से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश प्रोत्साहित होगा और परिणामतः
विकासशील देश बिना अन्तर्राष्ट्रीय ऋणग्रस्तता कायम किए अपने विकास के लिए पूंजी
प्राप्त कर सकेंगे।
(ii)
वैश्वीकरण विकासशील देशों को उन्नत देशों द्वारा विकसित की गयी
टैकनोलॉजी के प्रयोग में सहायता प्रदान करता है।
(iii)
वैश्वीकरण विकासशील देशों को विकसित देशों में अपनी उपज का
निर्यात करने की पहुंच का विस्तार करता है। साथ ही यह विकासशील देशों को अच्छी
क्वालिटी की उपयोगी वस्तुओं, विशेषकर चिरकालीन उपभोग वस्तुओं को सापेक्षतः कहीं कम
कीमत पर प्राप्त करने योग्य बनाता है।
(iv)
वैश्वीकरण से ज्ञान का तेजी से प्रसार होता है और इसके परिणामस्वरूप
विकासशील देश अपने उत्पादन और उत्पादिता के स्तर को उन्नत कर सकते हैं। अतः यह
उत्पादिता के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर प्राप्त करने के लिए गति प्रदान करता है।
(v)
वैश्वीकरण से परिवहन एवं संचार की लागत कम हो जाती है। इससे
टैरिफ भी कम हो जाते हैं और इससे सकल देशीय उत्पाद (Gross Domestic
Product) में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को अन्तर्राष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था से जोड़ने की प्रक्रिया समाविष्ट है।
सार
रूप में यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण को विकास के लिए तकनीकीय प्रगति,
उत्पादिता में वृद्धि का इंजन समझा जा सकता है और यह रोजगार के विस्तार के साथ
गरीबी कम करने और आधुनिकीकरण का कारक तत्व बन जाता है।
वैश्वीकरण का विकासशील देशों, विशेषकर भारत पर प्रभाव
वैश्वीकरण
के समर्थकों के दावों का विभिन्न देशों में कई शोधकर्ताओं ने परीक्षण किया है।
वैश्वीकरण की कड़ी आलोचना अर्थशास्त्र में 2001 में प्राप्त नोबेल पुरस्कार विजेता
और विश्व बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री जोजेफ स्टिग्लिट्ज़ ने अपनी पुस्तक
"वैश्वीकरण और इसकी निराशाएं" (Globalization and its
Disconents) में प्रस्तुत की हैं। वैश्वीकरण के सामाजिक आयाम पर
विश्व आयोग (World Commission) ने भी विश्व भर में वैश्वीकरण के अनुभव पर विचार
किया है और कई चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं।
विश्व
आयोग ने स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया : "वैश्वीकरण का मौजूदा मार्ग बदलना
होगा। इससे बहुत थोड़े लोगों को लाभ होता है।"
हम
वैश्वीकरण को मानवीय कल्याण और स्वतंत्रता के विस्तार का साधन बनाना चाहते हैं और
स्थानीय समुदायों के पास जहां वे निवास करते हैं, लोकतन्त्र और विकास लाना चाहते
हैं।।
वैश्वीकरण
का मुख्य उद्देश्य वस्तुओं एवं सेवाओं के व्यापार का विस्तार करना है। इस संदर्भ
में विश्व आयोग ने उल्लेख किया : "यह व्यापार विस्तार सभी देशों में समान रूप
में नहीं हुआ है और इसका अधिकतर भाग औद्योगीकृत देशों और 12 विकासशील देशों के
समूह को प्राप्त हुआ। इसके विपरीत, बहुसंख्य विकासशील देशों के व्यापार-विस्तार
में इसका योगदान महत्वपूर्ण माना नहीं जा सकता। वास्तव में, सबसे कम विकसित देशों
के समूह (जिसमें सब-सहारा अफ्रीका के अधिकतर देश शामिल हैं) के विश्व व्यापार के
भाग में आनुपातिक गिरावट अनुभव की गई, इसके बावजूद कि इन देशों ने व्यापार
उदारीकरण के उपाय कार्यान्वित किए थे।
1995-2008
की 13 वर्षीय अवधि के दौरान, भारत के विश्व वस्तु-निर्यात में
14.43 प्रतिशत प्रतिवर्ष की वृद्धि हुई (30.63 अरब डालर से 176.8 अरब डालर) जबकि
चीन के निर्यात में 19.0 प्रतिशत की अपेक्षाकृत तेज वृद्धि हुई और मैक्सिको के
निर्यात में 10.5 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई। किन्तु इस अवधि के दौरान विश्व
निर्यात में 9.1 प्रतिशत औसत वार्षिक वृद्धि की तुलना में, भारत को वैश्वीकरण के
परिणामस्वरूप अपनी निर्यात वृद्धि दर बढ़ाने में लाभ प्राप्त हुआ। विश्व वस्तु
व्यापार में भारत के भाग में भी वृद्धि हुई और यह 1950 में 0.52 प्रतिशत से बढ़ कर
2006 में 1.10 प्रतिशत हो गया।
सेवा
क्षेत्र निर्यात (Service sector exports) में भारत का निष्पादन सापेक्षतः कहीं
बेहतर था। इसका मुख्य कारण साफ्टवेयर निर्यात का विकसित देशों को बहिर्जातीकरण
(Outsourcing) था, विशेषकर यू.एस.ए. और कुछ हद तक यूरोपीय संघ के देशों का।
वाणिज्यिक सेवाओं में विश्व की औसत वार्षिक वृद्धि की तुलना में, भारत को
सेवा-क्षेत्र निर्यात में महत्वपूर्ण लाभ हुआ।
निर्यात की तुलना में आयात की वृद्धि कहीं ज्यादा
वैश्वीकरण
के समर्थकों ने उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की नयी रणनीति को स्वीकार करने की वकालत इस
आधार पर की थी कि इससे भारत की विदेशी बाजारों में पहुंच अधिक प्रभावी हो जाएगी।
यह
कटु-सत्य है कि विदेशी भारतीय बाजार में अपनी पहुंच अधिक प्रभावी रूप में कर पाए
हैं, इसकी बजाए भारतीय विदेशी बाजारों में अपनी पहुँच कम बढ़ा पाए हैं।
किन्तु
भारत द्वारा शुद्ध अदृश्य मदों में सकारात्मक अतिरेक प्राप्त करने के परिणामस्वरूप
व्यापार-घाटे के बहुत बड़े भाग को समाप्त कर दिया। 2002 03 के दौरान,
शुद्ध अदृश्य मदों (Net invisibles) से सकारात्मक अतिरेक सकल
देशीय उत्पाद का 3.4 प्रतिशत हो गया जिसने न केवल व्यापार घाटे को ही समाप्त किया
बल्कि चालू खाते के भुगतान शेष को सकल देशीय उत्पाद के 1.3 प्रतिशत तक सकारात्मक
बना दिया। वर्तमान स्थिति में मुख्य योगदान सॉफ्टवेयर सेवाओं के निर्यात द्वारा
विदेशी मुद्रा का भारी अन्तर्प्रवाह था।
भारत में एफडीआई और एफआईआई के मुद्दे
यह
प्रायः दावा किया जाता है कि वैश्वीकरण के कारण विदेशी निवेश के अधिक प्रवाह की
प्राप्ति होती है जिससे व्यापक अर्थव्यवस्था की उत्पादिता को बढ़ाने में सहायता
मिलती है। भारत के संदर्भ में इस पर विचार करना उचित होगा।
विदेशी
निवेश दो रूप धारण करता है-विदेशी प्रत्यक्ष निवेश और विदेशी पोर्टफोलिया निवेश
(Portfolio investment)। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश से अर्थव्यवस्था की उत्पादन
क्षमता को बढ़ाने में सहायता प्राप्त होती है, जबकि विदेशी पोर्टफोलियो निवेश की
प्रकृति परिकल्पी होती है और यह बहुत चचल होती है। विदेशी निवेश सम्बन्धी आंकड़ों
पर ध्यान पूर्वक विचार करने से पता चलता है कि 1990-91 और 1994-95 के दौरान कुल
विदेशी निवेश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का भाग 24.2 प्रतिशत था और पोर्टफोलियो
निवेश का भाग 75.8 प्रतिशत था। अत: कुल विदेशी निवेश का केवल चौथा भाग उत्पादन
क्षमता बढ़ाने के लिए उपलब्ध था जबकि तीन चौथाई बहुत चंचल एवं अस्थिर था। 1995-96
से 1999-2000 की 5-वर्षीय अवधि के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का कुल निवेश में भाग
बढ़ कर 55 प्रतिशत हो गया। किन्तु विदेशी पोर्टफोलियो निवेश का भाग लगभग 45
प्रतिशत के स्तर पर अभी भी ऊंचा था। अगले 10 वर्षों की अवधि (2000-01 से 2010-11)
के दौरान, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का भाग 60.3 प्रतिशत था और विदेशी पोर्टफोलियो
निवेश का 39.2 प्रतिशत रहा अर्थात् यह पिछले 10 वर्षों की अवधि में विदेशी
प्रत्यक्ष निवेश में वृद्धि हुई है।
पिछले तीन वर्षों में सरकार ने कई सुधार जैसे बौद्धिक सम्पित अधिकार नीति की घोषणा, वस्तु एवं सेवा कर का क्रियान्वयन एवं व्यवसाय को सुगम बनाना आदि सुधार किए हैं। इन सुधारों के स्तर का पता इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस अवधि के दौरान, सेवा कार्यकलापों को भी शामिल करते हुए कुल 25 क्षेत्रों और FDI अन्तर्वाह स्वतः मार्ग के जरिए आते हैं।
किन्तु
इन आंकड़ों का वर्षानुसार अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
की तुलना में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश में उच्चावचन कहीं अधिक तीव्र थे।
उदाहरणर्थ, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश में 1995-96 से 1998-99 के दौरान लगातार
गिरावट आई यह 1994-95 में 274.8 करोड़ डालर से गिरता हुआ 1998-99 में 6.1 करोड़
डालर के नकारात्मक स्तर पर पहुंच गया किन्तु यह 1999-00 में फिर जीवित होकर 302.6
करोड़ डालर हो गया। यह इसके अति अस्थिर होने और फिर पुनर्जीवित हो जाने का संकेत
है। इसके बाद फिर विदेशी पोर्टफोलियो निवेश में गिरावट आयी और यह 2002-03 में 97.9
करोड़ डालर के नीचे स्तर पर पहुंच गया, परन्तु फिर पुनर्जीवित होकर 2003-04 में
1,137.7 करोड़ डालर के उच्च स्तर पर पहुंच गया। विदेशी पोर्टफोलियो निवेश का कुल निवेश में भाग जो 2002-03 में 16.3 प्रतिशत के निम्न स्तर
पर पहुंच गया था फिर तेजी से बढ़ कर 2010-11 में लगभग 55.6 प्रतिशत हो गया। इससे
साफ जाहिर है कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेश अविश्वसनीय है।
इसकी
तुलना में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आंकड़ों से इसकी धीरे-धीरे वृद्धि का संकेत
मिलता है। यह निवेश 1991-92 में 12.9 करोड़ डालर था जो बढ़कर 1994-95 में 131.4
करोंड़ डालर हो गया और फिर और बढ़कर 1997-98 में 355.7 करोड़ डालर पर पहुंच गया।
तत्पश्चात् यह 2001-02 में 613 करोड़ डालर के शिखर पर पहुंच गया। इसके
बाद इसमें गिरावट आयी और यह 2003-04 में कम होकर 432.2 करोड़ डालर
हो गया। 2008-09 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 3,776 करोड़ डॉलर के रिकार्ड स्तर पर
पहुंच गया कुल विदेशी निवेश का 53.8 प्रतिशत। हालांकि यह 2010-11 में घटकर 2702
करोड़ डालर रह गया। अप्रैल 2000 से दिसंबर 2017 के मध्य देश में शीर्ष 10 सेवा
क्षेत्रों की हिस्सेदारी संचयी FDI इक्विटी अन्तर्वाह का 64.00
प्रतिशत है।
अप्रैल
200 से दिसंबर 2017 के मध्य तक देश में कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आधार पर
मॉशिशस के बाद 17.34 फीसदी योगदान के साथ सिंगापुर का स्थान था। सिंगापुर ने पिछले
17 वर्ष में भारत में 63.8 अरब डालर का प्रत्यक्ष निवेश किया था।
जापान का 7.32 फीसदी योगदान के साथ तीसरा स्थान था। जापान ने इस
दौरान 26.93 अरब डॉलर निवेश किया था जबकि 25.31 अरब डॉलर एफडीआई के साथ ब्रिटेन
चौथे स्थान पर था।
लेकिन
फिर भी स्पष्ट है कि नीति निर्माण के लिए मेजबान देश विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के
नियमित अन्तप्रवाह पर भरोसा कर सकता है यदि इस उद्देश्य के लिए प्रोत्साहक वातावरण
कायम कर दे।
यह
समझना अत्यन्त वांछनीय होगा कि वे कौन से क्षेत्र हैं जिनमें प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश हो रहा है ताकि यह विश्लेषण किया जा सके कि क्या इनसे अर्थव्यवस्था की
उत्पादन क्षमता का विस्तार होता है। जनवरी 1991 से मार्च 2004 तक कुल
स्वीकृत विदेशी निवेश का लगभग 69 प्रतिशत पांच उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से सम्बन्धित
है। ये क्षेत्र हैं : ऊर्जा, टेलीसंचार, बिजली के उपकरण, परिवहन
और धातुकर्म उद्योग। परन्तु वास्तविक अन्तर्ग्रवाहों से पता चलता है कि प्रत्यक्ष
विदेशी निवेश की स्वीकृतियों एवं वास्तविक अन्तर्ग्रवाहों में भारी अन्तर हैं। उदाहरणार्थ,
ऊर्जा क्षेत्र में 77,825 करोड़ रुपये की कुल स्वीकृतियों के विरुद्ध, वास्तविक
अन्तर्ग्रवाह (Inflow) केवल 9,802 करोड़ रुपये था अर्थात् केवल 12.6 प्रतिशत।
टेलीसंचार में भी परिस्थिति उतनी ही निराशाजनक थी और अन्तर्ग्रवाह का अनुपात 18.7
प्रतिशत था। बिजली के उपकरणों, परिवहन, रसायन एवं सेवा क्षेत्र में निष्पादन बेहतर
था और वास्तविक अन्तर्प्रवाह 42 से 53 प्रतिशत के बीच रहा। परन्तु कुल रूप में
254,131 करोड़ रुपये की स्वीकृतियों (Approvals) के विरूद्ध वास्तविक अन्तर्ग्रवाह
केवल 67462 करोड़ रुपये अर्थात 26.8 प्रतिशत था। 2000 से 2017 के वर्षों में
क्षेत्रवार सबसे ज्यादा 17.42 फीसदी एफ, डी.आई. निवेश वित बैंकिंग बीमा जैसे
टेलीकम्युनीकेशन का था। तीसरा स्थान 8.18 फीसदी के साथ साफ्टवेयर और हार्डवेयर
क्षेत्र का था जहां 8.11 प्रतिशत FDI आया था । निर्माण परियोजना क्षेत्र का
चौथा स्थान (6.71%) था। ऑटोमोबाइल उद्योग में 5000 फीसदी एफडीआई निवेश हुआ है और यह पांचवें स्थान पर है।
इसमें
सन्देह नहीं कि स्वीकृतियों एवं वास्तविक अन्तर्ग्रवाहों में कुछ अन्तर तो रहता ही
है परन्तु इनमें इतनी बड़ी खाई का विद्यमान होना यह संकेत देता है कि विदेशी
प्रत्यक्ष निवेश के रूप में प्राप्त वास्तविक सहायता में बहुत धीमी प्रगति हुई और
इस प्रकार इससे भारत जैसे अल्पविकसित देश के विकास में प्रोत्साहन भी बहुत सीमित
हो जाता है। यदि वैश्वीकरण को अपनी प्रभाविता सिद्ध करनी है, तो स्वीकृत प्रत्यक्ष
विदेशी निवेश और वास्तविक अन्तर्ग्रवाहों के अन्तर को दूर करना होगा।
वैश्वीकरण के युग में भारत में रोज़गार की स्थिति
वैश्वीकरण
के युग में रोजगार की स्थिति बदतर हो गयी है। इसका मुख्य कारण कृषि-रोज़गार में
वृद्धि-दर का नकारात्मक हो जाना था जो कुल श्रमिकों के लगभग 65 प्रतिशत को रोजगार
उपलब्ध कराती है। इसके साथ-साथ सामुदायिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक सेवाओं की वृद्धि
दर में तीव्र गिरावट आयी। इसका मुख्य कारण कृषि की उपेक्षा और सार्वजनिक क्षेत्र
में रोजगार के बोझ को कम करना था और इसके लिए एक और नयी भर्ती पर लगातार पाबन्दी
लगा दी गयी और सार्वजनिक क्षेत्र में सेवानिवृत्ति के कारण खाली हुई नौकरियों को न
भरना था।
संगठित
क्षेत्र (Organised sector) जो विकास का इंजन समझा जाता है पर्याप्त मात्रा में
रोजगार कायम करने में विफल हुआ।
वैश्वीकरण
ने श्रमिकों को संगठित क्षेत्र (Organised sector) से धकेल कर असंगठित क्षेत्र
(Unorganised sector) के श्रमिकों की फौज को बढ़ा दिया। यह सर्वविदित है कि संगठित
क्षेत्र में श्रमिकों को असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की अपेक्षा अधिक वेतन
मिलता है, उन्हें नौकरी-सुरक्षा (Job security) एवं अन्य लाभ भी प्राप्त हैं।
संगठित क्षेत्र के भीतर भी सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में कहीं अधिक मजदूरी एवं
अन्य लाभ प्राप्त होते हैं जब उसी कुशलता वाली नौकरियों में निजी क्षेत्र में कम
मजदूरी मिलती है। इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक क्षेत्र नौकरी की सुरक्षा प्रदान करता
है।
अत:
वैश्वीकरण में अर्थव्यवस्था के अनौपचारीकरण (Informalisation) की प्रक्रिया को
बढ़ावा दिया है। उदाहरणार्थ, इससे श्रम के अनियतीकरण
(Casualisation) की प्रक्रिया बढ़ी है।
असमानता और गरीबी
आई.एल.ओ.
रिपोर्ट (2004) ने साफ शब्दों में उल्लेख किया है : "कुछ औद्योगिकृत देशों
में आय की असमानताएं बढ़ी हैं और इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय में पूंजी के भाग
में वृद्धि हुई है और इसके साथ साथ अस्सी के दशक के मध्य और नब्बे दशक के मध्य
मजदूरी की असमानता में भी वृद्धि हुई है। संयुक्त राज्य अमेरिका जिसने वैश्वीकरण
का झंडा उठा रखा है, में उच्चतम आय कमाने वाली 1 प्रतिशत जनसंख्या को 2000 में
कुल
आय का 17 प्रतिशत प्राप्त हुआ यह स्तर इससे पहले केवल 1920 के दशक में अनुभव किया
गया। सम्पत्ति के संकेन्द्रण में वृद्धि असमानता की वृद्धि का मुख्य कारणत्व है।
परिणामतः निम्नतम 10 प्रतिशत मजदूरी कमाने वालों के भाग में कमी हुई है।
बढ़ती
हुई असमानता का कारण बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा बहुत ऊंचे वेतन और अन्य भत्ते
देना है, ऐसे व्यवसायों का विकास करना जिनकी पहुंच विश्वभर में हो और जिनसे
वैश्विक सुपर-स्टारडम (World super-stardom) कायम किया जा सके।
बढ़ती हुई असमानताओं के संबंध में भारत में की स्थिति
अर्थशास्त्रियों
में इस बात पर सहमत है कि असमानता या सापेक्ष वंचन (Relative
deprivation) में वृद्धि हुई है। 1993-94 से 1999-00 के बीच
प्रति व्यक्ति व्यय सम्बन्धी वृद्धि दरों के अनुमान इस बात की और संकेत करते हैं
कि अखिल भारतीय स्तर पर ग्रामों एवं शहरों के बीच असमानताओं में महत्त्वपूर्ण
वृद्धि हुई है और ऐसा अधिकतर राज्यों में भी हुआ है। मजदूरी या वेतन रूपी आय में
असमानता ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है। (डीटन एवं
ड्रेज़, 2003)
जहां
तक सामाजिक वंचन का सम्बन्ध है, यह ध्यान देना आवश्यक होगा कि 1993-94 और 1999-00
के दौरान अन्य वर्गों की तुलना में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के बीच गरीबी
में कमी बहुत मन्द गति से हुई है। वर्ष 1999-00 में अनुसूचित जातियों एवं
जनजातियों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली जनसंख्या का अनुपात क्रमशः 36 प्रतिशत
और 44 प्रतिशत था जबकि यह अन्य वर्गों में 16 प्रतिशत था। वन-भूमि एवं वनों पर
जनजातियों के स्वभाविक अधिकार बड़ी तेज़ी से भारतीय एवं बहुराष्ट्रीय निगमों
द्वारा हथियाए जा रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप जनजातियों की आय एवं रोजगार पर
दुष्प्रभाव पड़ा है। वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के नतीजे के तौर पर जनजातियों के
सिलसिलेवार शोषण (Systematic exploitation) की प्रक्रिया को
छूट मिल गयी है जिसके लिए सुधार प्रक्रिया औचित्य रूप प्रदान
करती है।
विश्व
बैंक के गौरव दत्त, वैलरी कोजल और मार्टिन रेविलयन ने अपने अध्ययन के आधार पर यह
उल्लेख किया है कि राज्यीय स्तर पर निर्धनता घटाने के मुख्य निर्धारक हैं : कृषि
उत्पादिता, गैर-फार्म क्षेत्र की वृद्धि (राज्य की आरंभिक परिस्थितियों पर
निर्भरता) विकास सम्बन्धी व्यय और स्फीति। उनके विश्लेषण से निम्नलिखित निष्कर्ष
प्राप्त होते हैं :
1.
1990 के दशक में गरीबी कम करने की दर 1980 के दशक की तुलना में
थोड़ी कम थी।
राष्ट्रीय
: 1 प्रतिशत के विरुद्ध 0.8 प्रतिशत
ग्रामीण
: 09 प्रतिशत के विरुद्ध 0.7 प्रतिशत
जबकि
सुधार-पूर्व काल, में 1.6 प्रतिशत की दर से गरीबी में कमी हुई, वहां 1990 के दशक
में यह मन्द होकर 0.8 प्रतिशत रह गयी।
ध्यान देने योग्य बात यह है 1980 के दशक की तुलना में 1990 के दशक के दौरान सकल देशीय उत्पाद की वृद्धि दर अधिक थी। सकल देशीय उत्पाद की अधिक वृद्धि-दर के बावजूद गरीबी में कमी की मन्द गति का विरोधाभास जनसंख्या के समृद्ध वर्गों और हाशिए पर रहने वाले कमजोर वर्गों के बीच आय की असमानता का प्रत्यक्ष परिणाम है। इसके अतिरिक्त, गरीबी में कमी की मन्द दर का मुख्य कारण उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की नीतियों द्वारा प्रोन्नत विकास का भौगोलिक ढांचा है। वैश्वीकरण की नीतियों ने पहले ही औद्योगीकृत राज्यों की कहीं अधिक सहायता की और पिछड़े राज्यों की उपेक्षा की और यदि इसके साथ कृषि के प्रति उदासीन दृष्टि को ध्यान में रखा जाए, तो इससे सुधार उपरान्त काल में आर्थिक विकास के भौगोलिक दृष्टि से असमान ढांचे का उत्तरदायित्व स्पष्ट हो जाता है।