(कृषि क्षेत्र में सुधार और विकास पर इसका प्रभाव,
कृषि पर सब्सिडी और सार्वजनिक निवेश, सुधार एवं कृषि जन्य संकट)
कृषि क्षेत्र में सुधार और विकास पर इसका प्रभाव
भारत
का कृषि व्यापार मौजूदा दौर में राज्यों के जरिए लागू कृषि उत्पादन बाजार समिति (एपीएमसी)
कानून के तहत संचालित होता है। तकरीबन 2,377 प्रमुख नियंत्रित कृषि
बाजार और 4,843 उप-बाजार क्षेत्र एपीएमसी के तहत भारत में
संचालित होते हैं। यह कानून क्षेत्र में उत्पादित होने वाली वस्तुओं जैसे कि अनाज,
दालें, खाद्य तेल, फल और सब्जियों यहां तक कि चिकन, बकरी, भेड़, चीनी, मछली आदि को
अधिसूचित करता है। साथ ही यह कानून व्यवस्था करता है कि इन वस्तुओं की पहली बिक्री
एपीएमसी के संरक्षण में एपीएमसी के तहत लाइसेंसधारी दलालों के जरिए ही हो।
एपीएमसी
में या इसके चारों ओर मौजूद विशिष्ट सुविधाएं हैं नीलामी के लिए हॉल, वजन के लिए
चबूतरे, गोदाम, थोक विक्रेताओं के लिए दुकान, कैंटीन, सड़कें, रोशनी, पेय जल,
पुलिस स्टेशन, पोस्ट ऑफिस, कुएं, माल गोदाम, किसान सहायता केंद्र, टैंक, जल शोधन
संयंत्र, मृदा परीक्षण प्रयोगशाला, शौचालय आदि। मंडी के अंदर संचालित व्यापार पर
कई प्रकार के कर, शुल्क और वसूली को भी इस कानून के तहत अधूिचित किया गया है।
राज्यों
के एपीएमसी में विविध तरह के बड़े आकार के शुल्कों की उगाही की जाती है, जो
अपारदर्शी है और फिर सत्ता की शक्ति के स्रोत के रूप में काम करती है। नीति बनाने
वाले और विशेषज्ञों में एपीएमसी की कार्यविधि, हमेशा बहस का विषय रही है। इसके
प्रमुख मुद्दे इस प्रकार हैं :
•
वे खरीदारों से बाजार शुल्क वसूलते हैं, और दलालों से लाइसेंस शुल्क वसूलते हैं, जो खरीदारों और किसानों के बीच मध्यस्थता करते हैं।
•
वे इस प्रक्रिया में शामिल सभी इकाइयों से एक छोटा लाइसेंस शुल्क भी वसूलते हैं (माल गोदाम के दलाल, ढुलाई के दलाल आदि)।
•
इसके साथ ही कमीशन एजेंट, यात्री दलाल खरीदार और किसानों के बीच
लेन-देन पर कमीशन शुल्क वसूलते हैं।
•
कर और दूसरे बाजार शुल्क राज्यों द्वारा व्यापक स्तर पर लगाए
जाते हैं। वैधानिक कर, मंडी के शुल्क, वैट आदि बाजार को बिगाड़ने के बड़े स्रोत
हैं।
•
व्यापार के पहले चरण में इस तरह के बड़े कर वस्तु की कीमतों पर
बड़ा प्रभाव डालते हैं क्योंकि ये वस्तुएं आपूर्ति श्रृंखला के कई चरणों से होकर
गुजरती हैं। उदाहरण के लिए चावल के लिए ये सभी शुल्क आंध्र प्रदेश में 14.5 फीसदी
तक की ऊंची दर तक पहुंच जाते हैं (राज्य के बैट के अलावा) तथा ओडिशा एवं पंजाब में
ये 10 फीसदी तक होते हैं।
•
यहां तक कि आदर्श एपीएमसी कानून (जिसका विवरण आगे दिया गया है)
एपीएमसी को राज्य की भुजा की तरह मानता है कि उन सेवाओं को मुहैया कराने के एवज
में लिए जा रहे शुल्क के अलावा बाजार शुल्क, राज्यों द्वारा लगाए गए कर की
व्यवस्था करता है। कृषि उत्पादों में राष्ट्रीय समान बाजार बनाने की दिशा में ये
कठिन व्यवस्था अवरोध की तरह काम करती है। इस तरह के प्रावधानों को खत्म कर
प्रतिस्पर्धा के रास्ते खोले जा सकते हैं और कृषि उत्पादों के लिए एक समान
राष्ट्रीय बाजार का निर्माण किया जा सकता है।
•
इससे अधिक, क्योंकि बाजार शुल्क एक कर के रूप में इकट्ठा किया जाता
है, एपीएमसी के जरिए हासिल किया गया राजस्व राज्य के खजाने में नहीं जाता और इस
प्रकार इकट्ठा किए गए धन के उपयोग के लिए राज्य विधानसभा की अनुमति की जरूरत नहीं
पड़ती। इसलिए एपीएमसी की कार्यविधि किसी तरह भी पड़ताल से छिपी रहती है।
•
माना जाता है कि बाजार समिति (राज्य के स्तर पर) और बाजार बोर्ड,
जो बाजार समितियों की निगरानी करता है, में पदों पर व्यापक राजनीतिक रूप से
प्रभावित करने वाले भरे पड़े हैं। वे लाइसेंसधारी दलालों से बढ़िया रिश्तों का
फायदा उठाते हैं जो तय क्षेत्र में एकाधिकार हासिल कर उसका अनुचित इस्तेमाल करते
हैं, एपीएमसी को दोबारा तैयार करने में बाधा कथित तौर पर इन तथ्यों को निकाल कर ही
दूर की जा सकती है।
आवश्यक
वस्तु अधिनियम, 1955 (ईसी कानून) का दायरा एपीएमसी की तुलना में व्यापक है। ये कुछ
निश्चित वस्तुओं के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण के लिए केंद्र और राज्य सरकार का
अधिक अधिकार देता है, जिसमें मूल्य निर्धारण, माल भंडारण, वह मियाद जब तक भंडार को
रखा जा सकता है और कर लगाने के लिए अधिकृत करता है, शामिल हैं। दूसरी तरफ, एपीएमसी
एक्ट कृषि उत्पाद की सिर्फ पहली बिक्री को नियंत्रित करता है। खाद्य पदार्थों के
अलावा जो कि एपीएमसी एक्ट के तहत आते हैं, इसी एक्ट में आने वाली वस्तुएं
हैं-दवाइयां, खाद, कपड़े और कोयला।
आदर्श एपीएमसी कानून
चूंकि
राज्य एपीएमसी कानून ने कृषि उत्पादों के लिए बिखरे हुए बाजारों की रचना की है और
सिर्फ लाइसेंसधारी दलालों और दूसरी इकाइयों जिन्हें एपीएमसी ने लाइसेंस दिया है,
के द्वारा ही कृषि पैदावार बेचने की शर्त के साथ अपना उत्पाद बेचने की किसानों की
स्वतंत्रता को कम कर दिया है, कृषि मंत्रालय (भारत सरकार) ने आदर्श एपीएमसी कानून,
2003 को बनाया और राज्य सरकारों को अनुमति दी कि वह अपने हिसाब से कानून में बदलाव
कर सकती हैं। आदर्श एपीएमसी कानून निम्न व्यवस्था देता है :
(i)
किसान अपने कृषि उत्पादों को सीधे ठेके पर कृषि प्रायोजकों को बेच
सकते हैं;
(ii)
विशिष्ट कृषि उत्पादों के लिए खास बाजार की व्यवस्था करना खासतौर
पर जल्द नष्ट होने वाली उपज के लिए:
(iii)
निजी व्यक्तियों, किसानों और उपभोक्ताओं को कृषि उत्पादों के लिए
नए बाजार के निर्माण की अनुमति देना;
(iv)
बाजार क्षेत्र में बेचे जा रहे कृषि उत्पादों पर एक बाजार शुल्क की व्यवस्था करना;
(v)
बाजार में कार्य कर रहे लोगों के लाइसेंस की जगह पंजीकरण की
व्यवस्था करना ताकि उन्हें एक या एक से अधिक बाजार में संचालन की अनुमति मिल सके;
(vi)
उपभोक्ता और किसानों के लिए बाजार का निर्माण करना; जिसमें उन्हें
कृषि उत्पादों को ग्राहकों को प्रत्यक्ष बिक्री की सुविधा मिल सके;
(vii)
एपीएमसी के जरिए कमाए गए राजस्व से बाजार के आधारभूत ढांचे का
निर्माण करना;
(viii)
किसानों को इतनी स्वतंत्रता प्रदान करना कि वह अपनी पैदावार सीधे
तौर पर ठेका-प्रायोजकों या निजी लोगों के जरिए स्थापित किए गए बाजार उपभोक्ता या
ग्राहक को बेच सकें;
(ix)
बाजार में मध्यवर्ती संस्थाओं के समान पंजीकरण की अनुमति देकर कृषि
उत्पाद के बाजार में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना;
इनमें
से बहुत सारे राज्यों ने आदर्श एपीएमसी कानून के प्रावधानों को आंशिक तौर पर
अपनाया है और अपने एपीएमसी कानून में बदलाव किए हैं। कुछ राज्यों ने संशोधन के
प्रावधान को लागू करने का नियम नहीं बनाया है, जो राज्य सरकारों की ओर से
हिचकिचाहट को दर्शाता है ताकि एपीएमसी के जरिए अपना उत्पाद बेचने की किसानों को
स्वतंत्र करने वाली संवैधानिक शर्तों को लागू नहीं किया जा सके। कुछ राज्य
(जैसे-कर्नाटक) ने राज्य में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए जरूरी बदलाव किए हैं, जिसे लोकप्रिय तौर पर कर्नाटक मॉडल के रूप में
जाना जाता है।
केंद्र
सरकार सभी राज्य सरकारों के साथ मिलकर घनिष्ठता से काम कर रही है ताकि निजी बाजार
क्षेत्र निजी बाजार को स्थापित करने के लिए राज्य के एपीएमसी कानून को फिर से
प्रभावी बनाया जा सके। संघीय बजट 2017-18 एवं आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 के मुताबिक,
इस दिशा में की गई कुछ ताजा पहलें इस तरह हैं :
(i)
एक विस्तृत परामर्श राज्यों को जारी किया गया ताकि वे आदर्श कानून
के प्रावधानों से आगे जाकर सभी राज्यों को एक ही बाजार घोषित करें, सभी राज्यों
में एक ही लाइसेंस मान्य हो और राज्य के सभी कृषि उत्पादों की गति में आने वाली
तमाम बाधाओं को दूर करें।
(ii)
जुलाई, 2015 में सरकार ने कृषि-प्रौद्यौगिकी इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड (एटीआईएफ) के जरिये
एनएएम (राष्ट्रीय कृषि बाजार) की स्थापना की। एनएएम राज्यों अथवा
केंद्र शासित प्रदेशों (शामिल होने के इच्छुक) में विनियमित थोक बाजार का कॉमन
ई-मार्केटप्लेटफॉर्म उपलब्ध है। एसएफएसी (लघु कृषक
कृषि-व्यापार संघ) इस ई-प्लेटफॉर्म को क्रियान्वित किया है।
एनएएम
के साथ एकीकृत होने के लिए राज्यों अथवा केंद्र शासित प्रदेशों की एपीएमसी को पहले
कुछ शर्ते पूरी करनी होंगी, जो नीचे दी गई हैं :
(a)
राज्य भर में एक लाइसेंस मान्य करना होगा।
(b)
बाजार शुल्क की एक जगह वसूली करनी होगी।
(c)
इलेक्ट्रॉनिक नीलामी का प्रावधान करना होगा।
ज्यादातर
राज्यों व सभी केंद्रशासित प्रदेशों ने ई-प्लेटफॉर्म से जुड़ने की अपनी रुचि दिखाई
है।
(iii)
केंद्र सरकार की अपील पर, कई राज्य सरकारों ने फलों और सब्जियों
के बाजार को एपीएमसी कानून की परिधि से बाहर जाकर छूट प्रदान की। दिल्ली की एनसीटी
ने फलों और सब्जियों को एपीएमसी से बाहर रखा है। छोटे किसान कृषि व्यापार सहायता
संघ (एसएफएसी) ने दिल्ली में किसान मंडी को विकसित करने के लिए पहल की, जिससे एफपीओ को अपने उत्पादों को संबंधित खरीदारों को सीधे
बेचने के लिए मंच प्रदान किया जा सके, जिससे इस प्रक्रिया में आने वाले गैर-जरूरी
मध्यस्थों की परत छाटी जा सके। एसएफएसी की योजना है कि दिल्ली किसान मंडली के अनुभव
से मिले ज्ञान के आधार पर दूसरे राज्यों में भी इस तरह की गतिविधि की जा सके।
ऊधर्व प्रवाह, अनुप्रवाह एवं आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन में एफडीआई
भारत
में सुधार काल में भी इस क्षेत्र में संगठित ढंग का विकास बहुत कम हुआ है। कृषि
उत्पादों के क्षेत्र में उपयुक्त बाजारवादी सुधारों के अभाव में (क्योंकि राज्यों
के एपीएमसी विकल का विकास नहीं हो पाया) भंडारण, श्रेणीकरण, पैकेजिंग आदि का कार्य
बाधित हुआ। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस क्षेत्र के कॉरपोरेट क्षेत्र की ओर से
भारी निवेश की जरूरत है जिसे अभी तक पर्याप्त रूप से आकर्षित नहीं किया गया है। निजी
क्षेत्र इस क्षेत्रक में निवेश की अनिच्छा के प्रमुख कारण हैं-पूंजी, संचार तंत्र,
अनुभव का अभाव तथा कृषि बाजार का असहायक नीतिगत ढांचा। यही कारण है कि भारत सरकार
ने खुदरा शृंखला विकास में एफडीआई में अधिक आजादी देने का निश्चिय किया है। उम्मीद
है कि इच्छुक विदेशी कम्पनियां केवल निधि ही नहीं उपलब्ध कराएंगी बल्कि भारत को इस
क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय अनुभव का भी लाभ मिलेगा, विशेषकर
संगठित
खुदरा बाजार, उपयुक्त स्तर का संचार तंत्र, कच्चे माल, उत्पादन, शस्य प्रतिरूप आदि
के पूर्णतया अद्यतन आंकड़े, अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पैकेजिंग, पादप-स्वच्छता
इत्यादि से।
ऐसा
माना जाता है कि उपरोक्त का प्रबंध करना, शीर्ष वैश्विक संस्थाओं के लिए कठिन नहीं
होगा क्योंकि उनके पास विधि है। अनुभव है और अपने व्यवसाय को दुनिया के आगे बढ़ते
इलाकों में विस्तारित करने की इच्छा है।
बाजार
को और व्यापक और मजबूत बनाने के लिए वायदा बाजार आयोग, जो वायदा अनुबंध (विनियमन)
कानून, 1952 के तहत वायदा बाजार में सौदे का नियंत्रक है, ने कई सारी पहल की, जैसे
:
(i)
2011 में जागरूकता कार्यक्रम चलाया गया, जैसे कि जागो ग्राहक जागा,
कार्यक्रम के तहत मीडिया में अभियान चलाया गया, जिसमें वायदा बाजार में सौदे में
क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए के बारे में जानकारी दी गई।
(ii)
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और दिल्ली में डिब्बा व्यापार अवैध
व्यापार के चलते पुलिस प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कियागया।
(iii)
साझेदारों के समूह, जिनमें प्राथमिक तौर पर किसानों पर ध्यान दिया
गया, इनके लिए एक बड़ा जागरूकता और क्षमता विकास कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
(iv)
नियंत्रक के मोर्चे पर, एफएमसी ने वस्तु वायदा बाजार के विकास के
लिए जरूरी कदम उठाए, जिसमें कि एक्सचेंज के सदस्यों का प्रभावी परीक्षण सुनिश्चित
किया गया और नियंत्रक से जुड़ी व्यवस्था के सभी पहलुओं पर व्यापक तरीके से पहुंचा
जा सके।
(v)
लेखा परीक्षण से जुड़े अभ्यास को बेहतर बनाने के लिए. ग्राहक कोड
संशोधन और व्यापार के निष्पादन के लिए दंड की व्यवस्था को निर्धारित करने के लिए
दिशा-निर्देश नियमावली लाई जाए।
कृषि अपशिष्ट विमर्श
सेंट्रल
इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी
(CIPLIET) के एक नवीनतम अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया कि भारत
में कृषि अपशिष्ट का मूल्य 92,651 करोड़ रुपए (2014 की कीमतों पर) है जो कि कुल
उत्पाद का 9 प्रतिशत है। हालांकि इसमें गेहूं और चावल, दालें एवं तिलहन के अपशिष्ट
का प्रतिशत दो तिहाई है. फलों-सब्जियों की क्षति सबसे अधिक 18 प्रतिशत है (कुल
उत्पाद का)।
भंडारण
एवं प्रसंस्करण सुविधाओं को बढ़ाकर अपशिष्ट का यह स्तर बहुत कम किया जा सकता है। ऐसा
भारत सरकार का विचार है जिससे कि पिछले दो वर्षों की अनाज एवं फलों-सब्जियों की
बार-बार की मूल्य वृद्धि को नियंत्रित किया जा सकता है।
सिंचाई
योजना
आयोग ने भारत की सिंचाई परियोजनाओं/योजनाओं को निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया
है :
(i)
वृहद् सिंचाई परियोजनाएँ : इन परियोजनाओं का खेती योग्य कमांड क्षेत्र
(Cultivable Command Area CCA) 10,000 हैक्टेयर से अधिक होता है।
(ii)
मध्य सिंचाई परियोजनाएँ : इन परियोजनाओं का खेती योग्य कमांड क्षेत्र
2,000 से 10,000 हैक्टेयर के बीच होता है।
(iii)
लघु सिंचाई परियोजनाएँ : इन परियोजनाओं का खेती योग्य कमांड क्षेत्र
2,000 हैक्टेयर या उससे कम होता है।
देश
में खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि करने के लिए वर्तमान प्रणालियों के सुदृढ़ीकरण
सहित सिंचाई सुविधाओं का विस्तार मूल रणनीति का भाग रहा है। सिंचाई के सतत् और
सुचारू विकास के चलते वृहद्, मध्यम और लघु सिंचाई परियोजनाओं के जरिए देश में
सिंचाई की क्षमता में व्यापक वृद्धि हुई है। सिंचाई परियोजनाओं को शीघ्र पूरा करने
के लिए ग्रामीण आधारभूत संरचना विकास निधि (Rural Infrastructure Development
Fund-RIDF) 1995-96 से ही संचालन में है। सरकार ने 1996-97 में
त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (Accelerated Irrigation Benefits
Programme-AIBP) की शुरुआत की। यह कार्यक्रम ऐसे राज्यों को ऋण
सहायता उपलब्ध कराने के लिए शुरू किया गया था, जिनकी अधूरी वृहद् मध्यम सिंचाई
परियोजनाएं पूरी होने के अग्रिम चरणों में थी। वर्तमान में प्रधानमंत्री कृषि
सिंचाई योजना भी इस दिशा में महत्वपूर्ण पहल है।
सिंचित
कृषि क्षेत्र को बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही पानी के समुचित उपयोग के लिए मुनासिब
तकनीक अपनानी होगी। यथा
(i)
ऐसे परिदृश्य में जहां सिंचाई पानी की बरबादी में बदल जाती है, वहां
पानी के समुचित उपयोग के लिए सिंचाई प्रौद्योगिकी को अपनाने की जरूरत है।
(ii)
पानी की बढ़ती किल्लत के साथ कुशल सिंचाई तकनीक पर जोर जरूरी हो
गया है।
कृषि
उत्पादों को बढ़ाने के लिए कुशल सिंचाई तकनीक के जरिये
'मोर क्रॉप, पर ड्रॉप' अधिक उपज, प्रति बूंद पर जोर होना चाहिए, जिससे भविष्य में खाद्य व जल सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
भारत
का कुल यूआईपी (वास्तविक सिंचाई सामर्थ्य) करीब 14 करोड़ हेक्टेयर का है। आईपीसी
(निर्मित सिंचाई सामर्थ्य) और आईपीयू (प्रयुक्त सिंचाई सामर्थ्य) के बीच चौड़ी खाई
है। आईपीसी की तुलना में आईपीयू में प्रत्यक्ष गिरावट मुख्य रूप इन कारणों से आई
है
(i)
उचित परिचालन व रखरखाव का अभाव
(ii)
अपूर्ण वितरण तंत्र;
(iii)
सिंचाई परियोजना से क्षेत्र को नहीं जोड़ा जाना;
(iv)
खेती के तौर-तरीके बदले हैं, और
(v)
दूसरे कारणों से सिंचित क्षेत्र से अलग पानी का इस्तेमाल होने से।
सिंचाई
सामर्थ्य के सही उपयोग की प्रवृत्ति घटती जा रही है, इसे रोकने और बदलने की जरूरत
है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) और रोजगार पैदा
करने वाली दूसरी योजनाओं को सिंचाई बढ़ाने के काम में लगाया जाना चाहिए। इससे
सामुदायिक परिसंपत्तियों का निर्माण और रखरखाव हो पाएगा, जल संग्रह करने वाले साधनों,
जैसे कि तालाब, वगैरह की तलछट से गाद हटेगी और उनकी सफाई होगी।
सिंचाई
क्षमता को बढ़ाकर कृषि उत्पादों को बढ़ाया जा सकता है। समय के साथ कई कारणों से
भारत के कई क्षेत्रों में सिंचाई का पारंपरिक तंत्र अलाभकारी बन चुका है
(i)
पानी की कमी बढ़ती जा रही है।
(ii)
कई जगहों पर अधिक सिंचाई से पानी की बरबादी होती है, और
(iii)
जमीन में लवण की बढ़ती मात्रा से जुड़ी चिंताएं भी हैं।
सस्ती
व तकनीकी रूप से कुशल सिंचाई प्रौद्योगिकियाँ, जैसे-टपक
(ड्रिप) व छिड़क (स्प्रिंकलर) सिंचाई पानी के समुचित इस्तेमाल का प्रतिशत बढ़ा सकती हैं, ऊर्जा खपत तथा मजदूरी लागत घटाकर उत्पादन मूल्य
कम कर सकती हैं। पीएमकेएसवाई (प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना) के उद्देश्यों में
से एक है-ड्रिप, स्प्रिकल आदि सिंचाई प्रयोगों के जरिये स्थान और सामाजिक
दृष्टिकोण से खेतों में डब्ल्यूयूई (जल उपयोग क्षमता) को बढ़ाना।
सूक्ष्म
सिंचाई (एमआई) के अच्छे साधनों ने लगात मूल्य घटाया और सिंचाई कुशलता बढ़ाई है :
उदाहरण
के लिए गुजरात, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में मूंगफली और कपास की खेती में
स्प्रिंकल (छिड़क) सिंचाई को अपनाने से 35 से 40 प्रतिशत सिंचाई पानी की बचत हुई।
सब्जियों की खेती में ड्रिप (टपक) सिंचाई को अपनाने से 40 से 65 प्रतिशत
पानी की बचत हुई। ऐसे उदाहरणों को दूसरी जगहों अथवा दूसरी फसलों
पर अपनाने की जरूरत है।
जल उत्पादकता
भारत
में जल उत्पादकता काफी कम है। बड़ी व मध्यम श्रेणी की सिंचाई परियोजनाओं की सिंचाई
क्षमता करीब 38 प्रतिशत आकी गई है। नीति आयोग के अनुसार, सतह सिंचाई प्रणाली को
35-40 प्रतिशत से करीब 60 प्रतिशत तक और भू-जल सिंचाई को 65-70 से
75 प्रतिशत तक करने की जरूरत है। जल उत्पादकता को निम्नांकित
तरीकों से बढ़ाया जाना चाहिए :
(i)
बचे हुए पानी को निकालना, उसको जमा करना और फिर से उसका इस्तेमाल
करना।
(ii)
खेती में बेहतर जल प्रबंधन अभ्यासों को कुशलता से अपनाना।
(iii)
सूक्ष्म सिंचाई।
(iv)
बेकार पानी का इस्तेमाल करना।
(v)
संसाधन संरक्षण तकनीकों का इस्तेमाल करना।
पानी
के विवेकपूर्ण इस्तेमाल से खेती में 'अधिक उपज, प्रति बूंद' सुनिश्चित हो पाएगी और
सूखे से निजात भी मिलेगी। भारत सरकार ने पीएमकेएसवाई योजना शुरू की है, जिसका
उद्देश्य हर खेतिहर जमीन को पानी दिलाना है।
कृषि मशीनीकरण
श्रम
व समय बचाने, उत्पादन बढ़ाने, बरबादी कम करने और मजदूरी घटाने के लिए भारत को हर
खेति प्रणाली में बेहतर औजार लाने होंगे। भारत के मामले में कृषि मशीनीकरण की
जरूरत बढ़ती जा रही है
(i)
गांवों से शहरों की तरफ बढ़ते पलायन के कारण खेतिहर कामों के लिए
मजदूर घटते जा रहे हैं। लोग कृषि छोड़कर दूसरे कामों में जा रहे हैं। इसके अलावा,
गैर-कृषि कामों में मजदूरों की मांग बढ़ी है। ऐसे में, कृषि कार्यों में श्रम का
विवेकपूर्ण इस्तेमाल होना चाहिए, जो कृषि मशीनीकरण के लिए मजबूत आधार बनाता है।
(ii)
खेती और प्रसंस्करण चरणों में महिला कार्यशक्ति का अनुपात भारतीय
कृषि में काफी ज्यादा है। श्रम-दक्षता की दृष्टि से तैयार औजार व साधन असाध्य
मेहनत घटाते हैं, सुरक्षा व सहूलियत बढ़ाते हैं, जो महिला मजदूरों के लिए जरूरी
है।
भारत
में कृषि क्षेत्र के मशीनीकरण के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हैं :
(i)
हालांकि कृषि उत्पादन में भारत शीर्ष देशों में शामिल है, लेकिन कृषि
मशीनीकरण का मौजूदा स्तर (जो अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है), 50 प्रतिशत से भी
कम है, जबकि विकसित देशों में यह 90 प्रतिशत से भी ज्यादा है (आर्थिक सर्वेक्षण
2015-16)
(ii)
पिछले दो दशकों से भारत में कृषि मशीनीकरण पांच प्रतिशत से भी कम
दर से बढ़ रहा है (आर्थिक सर्वेक्षण 2014-15)
(iii)
बड़े किसानों (20 एकड़ से अधिक जमीन वाले किसानों) के लिए ट्रैक्टर
का इस्तेमाल 38 प्रतिशत होता है, बीच के किसानों (पांच से 20 एकड़ जमीन वाले) के
लिए 18 प्रतिशत और हाशिये पर रह रहे किसानों के लिए सिर्फ एक प्रतिशत होता है।
(iv)
बेहतर साधन अपनाने का आर्थिक लाभ करीब 83,000 करोड़ रुपये सालाना
है, जो कि पूरे सामर्थ्य का सिर्फ छोटा हिस्सा है (नीति आयोग, 2016)।
(v)
ग्रामीण युवाओं और कारीगरों के लिए कृषि मशीनीकरण ने रोजगार बढ़ाए
हैं, वे मशीनों को बनाने, चलाने और उसकी देखरेख से जुड़े हैं (आर्थिक सर्वेक्षण
2013-14)।
इस संबंध में दो महत्वपूर्ण वर्तमान योजना-परामर्श
(i)
जमीन की जोत छोटी होती जा रही है और ट्रैक्टर का इस्तेमाल भी कम
होता जा रहा है। ऐसे में, एक बाजार की जरूरत है, जहां छोटे किसानों को ट्रैक्टर कम
किराए पर मिलें। इसमें निजी भागीदारी शामिल हो।
(ii)
उचित खेतिहर औजार, जो कि टिकाऊ, हल्का और कम कीमत का हो, जिससे
फसल की कम बर्बादी हो, जिसमें स्वदेशी तकनीक अपनाई गई हो, ये तकनीके छोटे व हाशिये
पर अश्रिति किसानों को उपलब्ध कराने की जरूरत है।
बीज विकास
कृषि
में उत्पादन बढ़ाने के लिए बीज बुनियादी निवेश है। ऐसा आकलन है कि कुल उत्पादन का
20 से 25 प्रतिशत बीज की गुणवत्ता से बढ़ता है। इसलिए भारत में गुणवत्ता युक्त बीज
को बढ़ावा देने की जरूरत है। गुणवत्तापूर्ण बीज को अपनाने और बढ़ाने के क्रम में
कई सारी चुनौतियां हैं :
(i)
नए बीजों के विकास के लिए अपर्याप्त शोध है;
(ii)
फलों का जल्दी पकना और कीट, नमी, वगैरह से प्रतिरोधी किस्मों का
होना
(ii)
छोटे व सीमांत किसानों के लिए बीजों का अधिक मूल्य होना;
(iv)
गुणवत्तायुक्त बीजों की आपूर्ति में कमी;
(v)
जैनेटिकली मोडिफाइड, यानी आनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों के
मसले पर अनिर्णय की स्थिति, और;
(vi)
कम हिस्सेधारकों के होने से प्रतिस्पर्धी माहौल का न बन पाना।
वे मसले जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है :
(i)
सामर्थ्य : बीजों की खुली परागण किस्मों को किसान अपनी ही फसलों
के दौरान तैयार कर सकते हैं। हालांकि ज्यादातर पैदावार वाले संकर बीजों के लिए
किसानों को बाजार पर ही निर्भर रहना होता है, जो कि छोटे व सीमांत किसानों के लिए
महंगा पड़ता
(ii)
उपलब्धता : गुणवत्तायुक्त बीजों की आपूर्ति में कमी रहती है। जहां एक तरफ गैर-प्रमाणित बीजों पर पाबंदी की मांग हो रही है, वहीं प्रमाण-पत्र
गुणवत्तायुक्त बीजों की गारंटी नहीं है। बीज के बाजार में ज्यादा हिस्सेधारकों
(सरकारी व निजी) के होने और प्रतिस्पर्धा रहने से स्थिति सुधर सकती है।
(iii)
बीज व बीज प्रौद्योगिकी का निर्माण व शोध : धान व गेहूं के स्वदेशी
उन्नत बीजों को पाने के रूप में पहली हरित क्रांति हुई। लेकिन बीते कुछ दशकों में
बीज व बीज प्रौद्योगिकी के विकास में अपर्याप्त शोध व जेनेटिक इंजीनियरिंग बाधा
बने हुए हैं। इसलिए निजी और सरकारी क्षेत्रों, दोनों में बीज प्रौद्योगिकी के
विकास को बढ़ावा देने की जरूरत है, ताकि हरित क्रांति का दूसरा चरण शुरू हो सके।
इस विकास में सभी कृषि क्षेत्रों को शामिल किया जाना चाहिए।
(iv)
जीएम फसल और बीज : इनके सामर्थ्य, पर्यावरणीय और नैतिक प्रभाव,
खाद्य, श्रृंखला के लिए जोखिम होने की आशंका, रोग फैलने और पार-परागण के मसलों को
देखते हुए इसे नहीं अपनाया गया है।
उर्वरक
खेतिहर
उत्पाद सुधारने की दशा में खाद एक महत्वपूर्ण और महंगा निवेश है। हरित क्रांति
(1960 के दश्का के मध्य) से भारत में खाद के इस्तेमाल में काफी तेजी आई। खादों के
इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने किसानों को खाद सब्सिडी देनी शुरू की। आज
खाद सब्सिडी कुल कृषि जीडीपी का लगभग 10 प्रतिशत है।
हालांकि,
खाद के इस्तेमाल के अनुरूप कृषि उत्पादन में वृद्धि नहीं हुई। खाद के इस्तेमाल के
एवज में उत्पादन का न बढ़ना इस बात का सूचक है कि भारतीय कृषि में इसका अकुशल
इस्तेमाल होता है। देश में 2010-11 एवं 2011-12 में उर्वरकों की खपत क्रमश 28.12
तथा मिलियन टन था। यह खपत वर्ष 2015-16 में कम होकर 20.75 मिलियन टन हो गया। भारत
में अभी भी नाइट्रोजनी उर्वरकों की अपनी खपत का 94 प्रतिशत व फास्फेटी
उर्वरकों की खपत का 82 प्रतिशत ही उत्पादन कर पाता है।
हरित क्रांति के बाद की खेती में खाद के इस्तेमाल में असंतुलन आया
है. जैसे-
(i)
यूरिया पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता हुई। इससे क्षेत्रीय व उपज असंतुलन
पैदा हुआ, अन्य खादों के दाम गिरे।
(ii)
कूड़ा खाद, गोबर खाद और प्राकृतिक रूप से फसल को पोषण देने वाले
तरीकों को नजरअंदाज किया गया।
(iii)
चक्रीय फसल उत्पादन और दो फसलों के बीच दलहन लगाने के अभ्यास को
खत्म कर दिया गया।
(iv)
इसके अलावा, सब्सिडीयुक्त खादों का इस्तेमाल गैर कृषि कार्यों में
भी होने लगा।
(v)
खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से न केवल उपज सुधरी, बल्कि कई क्षेत्रो
में भूमि में लवण को मात्रा बढ़ी और भूमि की उर्वरता भी घटी।
भारतीय कृषि क्षेत्र को उपजाऊ बनाने के मामले में कुछ सुधार की जरूरत
है, जिनका सार नीचे है
(i) फसल संवेदनशील खाद व खाद का संतुलित इस्तेमाल : मिट्टी
की सेहत और उर्वरक स्थिति को देखते हुए खाद के सर्वोत्कृष्ट उपयोग
को बढ़ावा देने की जरूरत है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड को खाद से जोड़ना होगा, ताकि
जमीन को जो खाद चाहिए, वही खाद मिले।
(ii) सूक्ष्म पोषक व जैविक खाद : भारत के कई हिस्सों
की मिट्टी सूक्ष्म पोषकों (जैसे-बोरीन, जिंक, तांबा और लोहा) की
कमी दर्शाती है। इससे उपज बढ़ नहीं पाती है। ऐसे में सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान
करने वाले खाद की पूर्ति कर सकते हैं। इससे 0.3 से 0.6 टन प्रति हेक्टेयर अनाज
उत्पादन बढ़ सकता है। जैविक खादों के उपयोग को बढ़ाकर भी यह कमी दूर की जा सकती
है। इसके अलावा, जैविक खाद, कूड़ा-खाद और गोबर-खाद का इस्तेमाल सस्ता पड़ता है और
इसमें मिट्टी की उर्वरता की बढ़ती है। जैविक खादों के उपयोग को बढ़ाने का बड़ा
अवसर है, क्योंकि करीब 67 प्रतिशत भारतीय मिट्टी में कम ऑर्गनिक कार्बन है।
(iii) पोषण प्रबंधन : मिट्टी की सेहत और उत्पादकता
बढ़ाने, रासायनिक खाद, जैविक खाद व स्थानीय स्तर पर उपलब्ध
ऑर्गेनिक खाद, जैसे-खेतिहर अपशिष्टों से बनी खाद, कूड़ा-खाद, वर्मी कंपोस्ट और
हरित खाद के विवेकपूर्ण इस्तेमाल के लिए मिट्टी की जांच जरूरी है।
भारत
में 12 करोड़ से अधिक जोतों के साथ मिट्टी की जांच की सुविधा को पाना एक बड़ी
चुनौती है। लेकिन कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए मिट्टी में पोषक तत्वों को कमी को
जानना भी जरूरी है। सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से और किसानों को मिट्टी
उर्वरता का नक्शा प्रदान कर प्रभावी पोषण प्रबंधन की तरफ काफी दूर तक जाया जा सकता
है।
(iv)
खाद खपत में क्षेत्रीय असंतुलन : खाद की खपत के मामले में भारत में
काफी क्षेत्रीय असंतुलन है। यही कारण है कि सिंचाई सुविधा वालों राज्यों में इसकी
खपत ज्यादा है (क्योंकि सिंचाई उर्वरक के उचित अवशोषण के लिए जरूरी है)। पर्याप्त
मिट्टी-परीक्षण सुविधाओं और नीतिगत उपायों के जरिये इस विषमता को दूर करना जरूरी
है।
कृषि विस्तार सेवाएं (एईएस)
कृषि
क्षेत्र के लिए एक और बड़ी चीज है-कृषि विस्तार सेवाएं (एईएस)। ये सेवाएं समय पर
परामर्श सेवाएं देकर किसानों का उत्पादन बढ़ा सकती हैं। ये सेवाएं खेती के अच्छे
तरीकों, तकनीकों, समस्याओं से निपटने, बाजार की जानकारी देने का काम कर सकती हैं।
एईएस (इसे ग्रामीण परामर्श सेवाएं भी कहते हैं) को इस तरह परिभाषित किया गया कि,
"किसानों द्वारा मांगी गई व जरूरी सभी सूचनाओं व सेवाओं को उपलब्ध कराना तथा
उनके अपने तकनीकी कौशल, सांगठनिक व प्रबंधकीय कौशल के निर्माण में ग्रामीण
क्षेत्रों को ही दूसरे किरदारों द्वारा मदद मिलना, ताकि इनका जीवन स्तर सुधरे और
वे संपन्न हों।''
हालांकि, भारत में कई सारी एजेंजियां कृषि परामर्श सेवाएं देती
हैं, लेकिन यह तंत्र निम्नांकित कारणों से पूरी तरह सक्षम नहीं हो पाया है :
(i)
कामकाजी स्वायत्तता का अभाव;
(ii)
सख्त श्रेणीबद्ध संरचना है, जिसके कारण नए तौर-तरीकों को अपनाने
में कमी आती है, और
(iii)
कई स्तरों पर सामंजस्य नहीं है।
देश
में एईएस को सुधारने के लिए कुछ नीतिगत कदम सुझाए गए हैं :
(i)
एक नई योजना को लागू करना होगा या मौजूदा योजना में ही अतिरिक्त
खर्च की जरूरत है।
(ii)
'वन-स्टॉप-शाप' की जरूरत है, जो सभी तरह का समाधान दे, ताकि
किसानों की आमदनी बढ़े, खास तौर पर छोटे व सीमांत किसानों की।
(iii)
एक ऐसे दृष्टिकोण की जरूरत, जो कि 'निवेश, फसल और क्षेत्र से
तटस्थ' हो।
(iv)
लागत और उत्पादन में कम से कम बर्बादी हो, कम से कम खेत-खलिहान
छोड़ने तक।
(v)
फसल कटाई के बाद प्रसंस्करण अथवा मूल्य संवर्द्धित क्रिया-कलापों को बढ़ाने का प्रयास हो।
(vi)
उपज बढ़ाने और फसल को कम से कम नुकसान के लिए मौसम की जानकारी
किसानों तक पहुंचाने की जरूरत है।
(vii)
चक्रीय खेती हो और दो फसलों के बीच दलहन फसल को लगाने का काम हो।
खेती में जो भी निवेश हुआ हो, उसका समुचित इस्तेमाल किया जाए।
(viii)
मांग संचालित कृषि परामर्श सेवाओं की तरफ जाने की जरूरत है।
(ix)
सूचना प्रौद्योगिकी (मोबाइल व इंटरनेट) के इस्तेमाल से एक आभासी
जुड़ाव तथा कृषि विस्तार सेवाओं को एकीकृत रखने की आवश्यकता है।
समय
के साथ भारत सरकार ने देश में एईएस को मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए हैं। उनमें
से प्रमुख हैं-किसान टीवी की स्थापना, ऑल इंडिया रेडियो द्वारा कृषि सूचनाओं का
प्रसारण करना, एग्रो-क्लिनिक और एग्रो-बिजनेस (कृषि स्नातकों) की शुरुआत, शैक्षणिक
संस्थानों की स्थापना, बागवानी, पशुपालन, वगैरह के लिए मॉडल ट्रेनिंग कोर्स,
राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के वरिष्ठ व मध्यम श्रेणी के अधिकारियों को
प्रशिक्षित करने के लिए शीर्ष संस्थान के रूप में नेशनल सेंटर फॉर मैनेजमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल
एक्सटेंशन (संक्षेप में मैनेज) की स्थापना, वगैरह।
पीएमएफबीवाई
भारत
सरकार ने जनवरी 2016 में एक नई कृषि बीमा योजना शुरू को नई योजना प्रधानमंत्री फसल
बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) को किसानों के कल्याण की राह में युगांतकारी योजना माना
गया है। इस योजना के प्रमुख अंश हैं :
•
सभी खरीफ फसलों के लिए किसानों को सिर्फ दो प्रतिशत प्रीमियम देना
होगा और रबी फसलों के लिए 1.5 प्रतिशत।
•
वार्षिक नकदी फसलों व फूलों की खेती के मामले में किसानों को
सिर्फ पांच प्रतिशत प्रीमियम देना है।
•
किसानों द्वारा चुकाई जाने वाली प्रोमियम-दर काफी कम है और बाकी
प्रीमियम सरकार देती है ताकि फसलों की प्राकृतिक आपदा से किसी भी तरह के नुकसान
में पूर्ण बीमा राशि किसानों को मिले।
•
सरकारी सब्सिडी की कोई ऊपरी सीमा नहीं है। अगर बाकी प्रीमियम
90 प्रतिशत तक रहता है, तब भी इसे सरकार देगी।
•
दावे की 25 प्रतिशत राशि सीधे किसानों के खाते में जाएगी और पूरे
राज्य के लिए एक ही बीमा कंपनी होगी। स्थानीय जोखिम से किसानों की खेती को कितना
नुकसान होगा और फसल कटाई के बाद के नुकसान का मूल्यांकन भी यही कंपनी करेगी।
•
शुरू में प्रीमियम दर की कैपिंग का प्रावधान था, जिसके कारण किसानों
को कम राशि का भुगतान हुआ। यह कैपिंग प्रीमियम सब्सिडी पर सरकार के खर्च को सीमित
करने के लिए थी। अब इस कैपिंग (ऊपरी सीमा) को हटा दिया गया और किसान बगैर किसी
कटौती के अपनी पूरी बीमा राशि पाएंगे।
कृषि सब्सिडी
कृषि
सब्सिडी सरकार के बजट का एक अभिन्न अंग है। भारत में यह जीडीपी का लगभग 8 प्रतिशत
के आसपास है। कृषि सब्सिडी के दो प्रकार है। प्रत्यक्ष कृषि सब्सिडी एवं
अप्रत्यक्ष कृषि सब्सिडी।
प्रत्यक्ष
कृषि सब्सिडी में किसानों को प्रत्यक्ष नकद प्रोत्साहन दिया जाता है। जिससे कि
उनके उत्पाद विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा कर सकें। अप्रत्यक्ष कृषि सब्सिडी ऐसी
सब्सिडी है जो सस्ती ऋण सुविधा, कर्ज माफी, बिजली बिल में कमी आदि के रूप में
प्रदान की जाती है।
कृषि में सार्वजनिक निवेश
कृषि
विकास तथा कृषि वित्त में गहरा सम्बंध है, समय पर तथा साथ ही उचित ब्याज दर पर ऋण
की उपलब्धता कृषि उत्पादन में वृद्धि लाती है। भारतीय कृषि क्षेत्र में वित्त की
समस्या मुख्य रूप से ग्रामीण साहूकारों के कारण है जो कृषकों को अत्यंत ऊँची ब्याज
दर पर ऋण देते हैं।
जिन
विभिन्न स्रोतों से भारतीय कृषक ऋण प्राप्त करते हैं, उनकों दो वर्गों में रखा जा
सकता है- (क) गैर-संस्थागत ऋण जिसमें ग्रामीण साहूकार, जमींदार, कमीशन एजेंट आदि
है। (ख) संस्थागत ऋण जिसमें सहकारी समितियां, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंड, नावाई आदि
है।
कृषि
विकास में वित्त की भूमिका को ध्यान में रखते हुए सरकार ने किसानों को उचित ब्याज
दर पर सही समय पर ऋण उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत, बैंको के
राष्ट्रीयकरण, नावार्ड व क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना जैसे प्रभावी कदम
उठाए गए।
साथ
ही बिचौलियों के मकड़जाल से किसानों को मुक्त करवाने तथा विपणन व्यवस्था में सुधार
लाने हेतु सरकार ने नियंत्रित मंडियों के विस्तार, माल गोदामों की व्यवस्था,
सहकारी विपणन व्यवस्था का प्रबंधन जैसे महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
वर्तमान
में केंद्रीय बजट 2020 - 21 में 'आकांक्षी भारत' योजना के तहत कृषि, सिंचाई और
संबद्ध कार्यों (ग्रामीण विकास सहित) पर 2.83 लाख करोड़ रुपए खर्च किए जाने का
अनुमान है। इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण प्रयास निम्नलिखित है-
•
किसानों को प्राकृतिक आपदा से सुरक्षा हेतु 'राष्ट्रीय कृषि बीमा
योजना' क्रियान्वित की जा रही है।
•
फसल को कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिए पौधा संरक्षण कार्यक्रम चलाया
जा रहा है।
•
बागवानी उत्पादों को प्रोत्साहित 9 प्रेरित करने तथा बागवानी क्षेत्र के समग्र विकास हेतु 'राष्ट्रीय बागवानी मिशन' चलाया जा रहा है।
कृषि आय दोहरीकरण
लाभकारी
खेती कृषक समुदाय की समृद्धि का ही एक जरिया नहीं है बल्कि यह कृषि उत्पाद को
बढ़ाने का भी सबसे अच्छा तरीका है। इसीलिए पिछले कुछ समय में कृषि
आय बढ़ाना सरकार के नीतिगत सरोकारों के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। हाल ही
में कृषि क्षेत्र को लेकर सरकार की रणनीति में एक बदलाव देखा गया है-कृषि उत्पादन बढ़ाने से कृषि आय बढ़ाने की ओर। 2022 तक कृषकों की आय
को दोगुना करने के लक्ष्य के साथ भारत सरकार ने एक 'सात बिंदुओं वाली रणनीति' की
घोषणा की है। इसका ब्यौरा नीचे दिया गया है :
(i)
बड़े बजट के साथ सिंचाई पर ध्यान देना जिसका लक्ष्य होगा, 'हर बूंद, ज्यादा फसल'।
(ii)
मिट्टी की सेहत के आधार पर अच्छी गुणवत्ता वाले बीज और पोषक
तत्वों का प्रावधान करना।
(iii)
कटाई के बाद फसल के नुकसान को रोकने के लिए गोदामों और कोल्ड
स्टोरेज की श्रृंखला को मजबूत करना।
(iv)
खाद्य प्रसंस्करण के माध्यम से उत्पाद की मूल्य वृद्धि को बढ़ाना।
(v)
राष्ट्रीय कृषि बाजार बनाना, संबद्ध विकृतियों को दूर करना और ई-प्लेटफॉर्म
उपलब्ध करवाना।
(vi)
वहन करने योग्य लागत में उचित प्रकार के कृषि बीमा के माध्यम से
जोखिम को कम करना।
(vii)
कुक्कुट पालन, मधुमक्खी पालन और मत्स्य पालन जैसी सहायक कृषि
गतिविधियां को बढ़ावा देना।
सर्वश्रेष्ठ
कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन के साथ कृषि-विशेषज्ञों ने सरकार की पहल की
प्रशंसा की है। अच्छी रणनीति, अच्छी तरह तैयार योजनाओं पर्याप्त संसाधनों और अच्छे
प्रशासन के साथ निश्चित समय में किसानों की आय दोगुना करने की चुनौती को पार पाना काफी
हद तक संभव है।
सुधार एवं कृषिजन्य संकट
कृषि
क्षेत्र में उत्पादकता तकनीकी कारकों जैसे- भूमि की उर्वरता तथा उर्वरक, उत्तम बीज
का प्रयोग, सिंचाई सुविधाएं, कृषि मशीनरी आदि के साथ-साथ संस्थानात्मक कारकों जैसे
भूमिपति तथा कृषक के आपसी संबंधों, जोत के आकार, पट्टेदारी व्यवस्था आदि पर भी
निर्भर करता है।
अतः
कृषि क्षेत्र में उत्पादकता को बढ़ाने हेतु तकनीकी प्रगति के साथ-साथ संस्थानात्मक
सुधार की आवश्यक है। इसके अंतर्गत एक ओर जहाँ कृषकों को भूमि का स्वामित्व प्रदान
कर उसकी खेती करने और खेती में उत्पादन बढ़ाने की इच्छा जाग्रत की जा सकती है,
वहीं तकनीकी प्रगति द्वारा उसे कृषि संबंधी नए औजार और उर्वरक आदि प्रदान कर उत्पादकता
को बढ़ाने में सहयोग दी जा सकती है।