JPSC_ Inflation_(मुद्रास्फीति)

JPSC_ Inflation_(मुद्रास्फीति)


(अवधारणा, मुद्रास्फीति पर नियंत्रण : मौद्रिक, राजकोषीय और प्रत्यक्ष मापन)

मुद्रास्फीति, बाज़ार की एक ऐसी स्थिति है जिसमें वस्तुओं और सेवाओं की कीमत एक समयावधि में लगातार बढ़ती जाती हैं. अतः मुद्रा स्फीति की स्थिति में मुद्रा की कीमत कम हो जाती है। मुद्रा स्फीति की गणना करने के लिए बहुत सी विधियां इस्तेमाल की जाती हैं

पीटरसन के शब्दों में, ‘‘मुद्रास्फीति का कारण वर्तमान कीमतों पर उपलब्ध वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति की तुलना में मांग का अधिक होना है।’’

जान मेनार्ड किन्स ने स्फीति की धारणा की व्याख्या अपनी 1940 में प्रकाशित पुस्तक ‘हाउ टू पे फार वार’ में की।

उल्लेखनीय है कि किन्स की जेनरेल थियरी आन एम्प्लायमेंट, इंटरेस्ट एंड मनी, (1936) के पूर्व किन्स ने ट्रेक्ट ऑन मांटेरी रिफॉर्म (1923) ,ट्रेटजी आन मनी (1930) इकोनॉमिक कानसीक्वेंसेज आफ मिस्टर चर्चिल (1925) में प्रकाशित की ।

किन्स ने अर्थव्यवस्था में व्यय प्रवाह तथा समग्र मांग की वृद्धि को मूल्य स्तर में वृद्धि तथा मुद्रा स्फीति के कारण के रूप में स्वीकार किया

मुद्रास्फीति के कारण (Reason of Inflation)

भारत में प्रमुख रूप से मुद्रास्फीति के दो कारण-

मांग जनित मुद्रास्फीति

लागत जनित मुद्रास्फीति

1.  मांग प्रेरित मुद्रा – मांग प्रेरित मुद्रास्फीति का सिद्धांत कीमत वृद्धि का सबसे पुराना सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार, मुद्रास्फीति वह स्थिति है जिसमें वर्तमान कीमत स्तर पर कुल मांग, कुल पूर्ति से अधिक होती है। पूर्ण रोजगार से पहले जब कुल मांग बढ़ती है तो उत्पादन में वृद्धि होने के कारण कुल पूर्ति में वृद्धि नहीं होने पाती इसलिए कीमत स्तर बढ़ने लगता है। अतएव, मांग प्रेरित मुद्रास्फीति की स्थिति में कुल मांग बढ़ती है। परंतु उत्पादन के कुल मांग की तुलना में कम बढ़ने के कारण कीमतें बढ़ती हैं।

मांग प्रेरित मुद्रास्फीति के कारणों से सम्बन्धित तीन सिद्धांत –

a.  मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार पूर्ण रोजगार की स्थिति के पश्चात जब मुद्रा की मात्रा में वृद्धि की जाती है तो कीमत स्तर बढ़ने लगता है।

b. केन्ज का सिद्धान्त – लार्ड केन्ज के अनुसार जब कुल मांग, कुल पूर्ति से अधिक हो जाती है तो कीमतें बढ़ने लगती हैं।

c. मुद्रा का आधुनिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मिल्टन फ्रिडमेन आदि ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार मांग प्रेरित मुद्रास्फीति का मुख्य कारण मुद्रा की पूर्ति में आवश्यकता से अधिक वृद्धि का होना है।

मांग जनित मुद्रास्फीति के अन्तर्गत साधन लागत एक समान रहती है जबकि उपभोक्ताओं द्वारा वस्तुओं की मांग में सापेक्षिक रूप से पूर्ति से अधिकता होने से विक्रेता या उत्पादक कीमतें बढ़ा देते हैं। इस स्थिति में मांग में वृद्धि हो जाती है, परन्तु आपूर्ति स्थिर रहती है।

पिछले कुछ दशकों में मांग में तीव्र वृद्धि के प्रमुख कारक इस प्रकार से है-

a.  मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि

b. सरकारी व्यय में तीव्र वृद्धि

c. जनसंख्या में तीव्र वृद्धि

d. काले धन में तीव्र वृद्धि इत्यादि

2. लागत धक्का मुद्रास्फीति या लागत जनित मुद्रास्फीति –  लागत धक्का मुद्रास्फीति का सिद्धान्त मुद्रास्फीति का एक नवीन सिद्धान्त है। इस सिद्धांत के रूप में इसका प्रतिपादन मुख्य रूप से सन् 1960 के पश्चात अमेरिका तथा दूसरे विकसित देशों में पाई जाने वाली कुछ विशेष परिस्थितियों के फलस्वरूप हुआ है। दूसरी ओर मांग तथा उत्पादन में कमी हो रही थी। अतएव उत्पादन लागतों में वृद्धि होने के फलस्वरूप जो मुद्रास्फीति होती है उसे लागत धक्का स्फीति कहा जाता है। इस स्थिति में एक ओर कीमतें बढ़ती हैं दूसरी ओर उत्पादन तथा रोजगार कम हो जाता है।

प्रो. ए. एस. कैम्पना के अनुसार, ‘‘लागत प्रेरित स्फीति लागतों में होने वाली वृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। इस स्थिति में कुल मांग अपर्याप्त होती है। साधन बेरोजगार होते हैं तथा उत्पादन क्षमता आवश्यकता से अधिक होती है।’’

इस प्रकार की मुद्रास्फीति साधनों की लागतों में वृद्धि के कारण उत्पन्न होती है। परम्परागत आर्थिक सिद्धांत के अनुसार उत्पादन के तीन साधन-भूमि, श्रम और पूंजी होते हैं, जबकि वर्तमान समय में उत्पादन के बहुत सारे साधन प्रयुक्त होते हैं, जैसे:- मकान-किराया, बिजली, कच्चा माल, तेल एवं स्टील इत्यादि।

इनमें से एक या एक से अधिक साधनों की कीमत वृद्धि से उत्पादक वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतें बढ़ा देते हैं, इस प्रक्रिया को लागत जनित मुद्रास्फीति कहते हैं।

उत्पादन लागत बढ़ने के कुछ महत्त्वपूर्ण कारक इस प्रकार हैं-

a.  उत्पादन एवं पूर्ति के उतार चढ़ाव।

b. करों में वृद्धि , जिससे लागतें एवं कीमतें बढ़ जाती है।

c. प्रशासनिक कीमतों में परिवर्तन।

d. तेल की कीमतें में वृद्धि एवं वैश्विक मुद्रास्फीति।

मुद्रास्फीति के कारणों से सम्बन्धित सिद्धांत –

मजदूरी की दर में वृद्धि या मजदूरी प्रेरक मुद्रास्फीति – जब श्रम बाजार अपूर्ण होता है तथा श्रम संगठनशक्तिशाली होते हैं तो वे श्रम की उत्पादकता में वृद्धि हुए बिना भी मजदूरी दर में वृद्धि कराने में सफल हो जाते हैं। इस प्रकार की मुद्रास्फीति को मजदूरी प्रेरित मुद्रास्फीति कहा जाता है। मौद्रिक मजदूरी मुद्रास्फीति के दौरान बढ़ती जाती है। जिसके फलस्वरूप कीमतें और भी अधिक बढ़ जाती हैं। जब मजदूर संघों के रूप में सगठित मजदूर अपनी मजदूरी की दर बढ़वाने में सफल हो जाते हैं तो असंगठित मजदूर भी मजदूरी की अधिक दर मांगने लगते हैं।

लाभ की दर में वृद्धि – अपूर्ण प्रतियोगी बाजार में विशेष रूप से एकाधिकार या अल्पाधिकार की स्थिति में फर्में अपना उत्पादन मांग की तुलना में कम करती हैं। परन्तु लाभ की दर बढ़ा देती है। लाभ की दर बढ़ने के कारण कीमतें बढ़ जाती हैं परन्तु उत्पादन पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में होने वाले उत्पादन की तुलना में कम होता है।

प्रमुख कच्चे माल की लागत में वृद्धि – जब घरेलू तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार दशाओं के कारण प्रमुख कच्चे माल जैसे – कोयले, इस्पात तथा पैट्रोल आदि की कीमतेंं कई गुणा बढ़ जाती हैं तो इसके फलस्वरूप लागत बढ़ जाती है तथा तैयार वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं।

मुद्रास्फीति के कारण

1. मांग पक्ष – मांग से अभिप्राय वस्तुओं के लिए मुद्रा की मांग से है। मुद्रा की मांग में इन कारणों से वृद्धि होती है।

a. सार्वजनिक व्यय में वृद्धि – जब भी देश में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती है तो उससे देश में क्रय शक्ति बढ़ जाती है। क्रय शक्ति के बढ़ने से वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग भी बढ़ जाती है। यह स्थिति पूर्ण रोजगार बिंदु के पूर्व भी हो सकती है। जबकि अर्थव्यवस्था में कई अवरोधों के कारण उत्पादन बढ़ने की गति धीमी हो जाती है।

b. घाटे की वित्त व्यवस्था – सरकार अपनी आय तथा खर्च के घाटे को पूरा करने के लिए घाटे की वित्त व्यवस्था की नीति भी अपनाती है। घाटे की वित्त व्यवस्था के फलस्वरूप लोगोंं की मौद्रिक आय बढ़ जाती है। परंतु उत्पादन उस सीमा तक नहीं बढ़ने पाता। इस कारण कीमत स्तर बढ़ जाता है। इसलिए आजकल भारत जैसे देशों में मुद्रास्फीति का मुख्य कारण घाटे की वित्त व्यवस्था है।

c. सस्ती मौद्रिक नीति – सरकार की सस्ती मौद्रिक तथा साख नीति के कारण मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि हो जाती है जिससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ती है परन्तु उनकी पूर्ति उस अनुपात में नहीं बढ़ने पाती इसलिए उनकी कीमतों में वृद्धि हो जाती है। जिससे मौद्रिक आय बढ़ती है और इसके फलस्वरूप भी कीमतों में वृद्धि हो होती है।

d. व्यय योग्य आय में वृद्धि – मुद्रास्फीति का दूसरा कारण उपभोक्ता की व्यय योग्य आय में होने वाली वृद्धि है। जब कुछ लोग अधिक वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोग करके जीवन स्तर अपेक्षाकृत ऊंचा कर लेते हैं तो इसका प्रदर्शन प्रभाव पड़ता है, दूसरे लोग भी उसका अनुसरण करते हैं इससे मांग बढ़ती है परंतु पूर्ति में मांग की तुलना में वृद्धि कम होती है इसलिए कीमतें बढ़ जाती हैं।

e. काला धन – काला धन वह आय है जिसका सरकार को कोई हिसाब नहीं दिया जाता ताकि आय पर लगाए जाने वाले कर को बचाया जा सके। काले धन के स्वामी उस धन को विलासिता की वस्तुओं तथा दिखावे की वस्तुओं पर खर्च करते हैं। इससे मांग में वृद्धि होती है तथा कीमतें बढ़ती हैं।

f. करों में कमी – कई बार सरकार जब करों में कमी कर देती है तो उससे लोगों की वास्तविक तथा मौद्रिक आय में वृद्धि होने के कारण प्रभावपूर्ण मांग में वृद्धि होती है। इस अतिरिक्त क्रय शक्ति के द्वारा लोग अधिक वस्तुओं की मांग करते हैं। फलस्वरूप कीमतें बढ़ने लगती हैं। सट्टेबाजी की क्रियाएं बढ़ने के कारण मांग बढ़ जाती है और वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों में वृद्धि हो जाती है।

g. सार्वजनिक ऋण में कमी – जब सरकार जनता से कम ऋण लेती या जनता के ऋण को वापस कर देती है तो ऐसी दशा में जनता के पास अधिक क्रय शक्ति बनी रहती है इससे भी वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ती है। इसके फलस्वरूप कीमतें बढ़ने लगती हैं।

h. जनसंख्या में वृद्धि – किसी भी देश में जब जनसंख्या के बढ़ने की दर उत्पादन की दर से अधिक होती है तो वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग अधिक होने के कारण कीमतों में वृद्धि हो जाती है।

i. निर्यात में वृद्धि – जब देश के निर्यात में वृद्धि होती है तो इसके फलस्वरूप भी दो कारणों से कीमतों में वृद्धि हो सकती है एक तो निर्यात में वृद्धि होने के कारण आय में वृद्धि होती है। दूसरे उपभोक्ता वस्तुओं का अधिक निर्यात होने के कारण देश में उनकी पूर्ति कम हो जाती है जिससे कीमतों में वृद्धि हो जाती है।

2. पूर्ति पक्ष – पूर्ति पक्ष से अभिप्राय वस्तुओं की वह उपलबध मात्रा है जिस पर लोग अपनी आय व्यय कर सकते हैं। इसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में असंतुलन आ जाता है। पूर्ति पक्ष पर मुख्य रूप से इन तत्वों का प्रभाव पड़ता हैं

a. उत्पादन में कमी – पूर्ति में होने वाली कमी का सबसे मुख्य कारण उत्पादन में होने वाली कमी है। उत्पादन में कमी के कई कारण हो सकते है। जैसे – मजदूरी तथा मालिकों के झगड़े, प्राकृति विपत्तियां आदि।

b. कृत्रिम अभाव – मुद्रास्फीति का एक कारण यह भी है कि देश में जमाखोर और मुनाफाखोर लोग वस्तुओं को अपने पास जमा करके रख लेते हैं। उनकी खुले बाजार में पूर्ति कम हो जाती है तथा वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं।

c. सरकार की कर नीति – सरकार की कर नीति भी पूर्ति को निरुत्साहित करने के लिए जिम्मेदार हो सकती हैं। जब सरकार इस प्रकार के कर लगाती है जैसे ऊंची दर पर बिक्री कर, उत्पादन कर, निगम कर, ब्याज कर आदि जिससे उत्पादन निरुत्साहित हो, तो उत्पादन की मांग स्थिर रहने पर भी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार उत्पादन कम हो जाने से मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

d. खाद्यान्न में कमी – जब देश में अनाज, दालों, खाने के तेल का उत्पादन कम होता है तो कीमतों में बहुत अधिक वृद्धि होती है। खाद्यान्न में कमी कई कारणों से हो सकती है। जैसे – वर्षा की कमी, खाद्यान्न फसलों के स्थान पर व्यापारिक फसलों का अधिक उत्पादन आदि।

e. औद्योगिक झगड़े– कई बार उद्योगोंं में श्रमिकों तथा मालिकों में झगड़ा होने के कारण कारखानों में हड़ताल या तालाबंदी हो जाती है। इससे उत्पादन में कमी हो जाती है और कीमतों में वृद्धि।

f. तकनीकी परिवर्तन – विज्ञान के इस परिवर्तनशील युग में नए-नए अविष्कार होते रहते हैं। तकनीकी परिवर्तन में समय लगने के कारण कई बार उत्पादन कम हो जाता है। परंतु काम पर लगे हुए श्रमिकों तथा तकनीकी विशेषज्ञों को वेतन देना ही पड़ता है। इसके फलस्वरूप उत्पादन लागत बढ़ती है तथा पूर्ति कम होती है।

g. कच्चे माल की कमी – जब उत्पादन को बढ़ाने के लिए देश में कच्चा माल उपलब्ध न हो और न ही विदेशों से आयात करने की संभावना हो तो उत्पादन कम हो जाता है। इसके फलस्वरूप कीमतें बढ़ती हैं और मुद्रास्फीति की स्थिति पैदा होती है।

h. प्राकृतिक विपत्तियां – समय-समय पर देश में प्राकृतिक विपत्तियां जैसे – भूकम्प, बाढ़, सूखा आदि आती रहती हैं जिसके कारण विशेष रूप से कृषि उत्पादन में काफी कमी हो जाती हैं।

i. उत्पादन का ढांचा – कई बार देश में उत्पादन का ढांचा इस प्रकार का बन जाता है कि उत्पादक साधारण उपभोग की वस्तुओं के स्थान पर विलासितापूर्ण वस्तुओं या भारी तथा आधारभूत वस्तुएं अधिक बनाने लगते हैं क्योंकि उनमें उन्हें अधिक लाभ मिलता है। उनकी पूर्ति कम हो जाने से कीमतें बढ़ जाती हैं।

j. युद्ध – युद्ध के समय में भी उपयोग वस्तुओं के उत्पादन में कमी हो जाती है क्योंकि साधनों का प्रयोग युद्ध साम्रग्री के उत्पादन में होने लगता है। इससे कीमतों में वृद्धि होने लगती है।

k. अन्तर्राष्ट्रीय कारण – आजकल विभिन्न देशों में एक दूसरे के साथ व्यापारिक सम्बन्ध होते हैं। इनमें से किसी एक देश में कीमतों में वृद्धि होने के कारण इसका सहानुभूतिपूर्ण प्रभाव अन्य देशों की कीमतों पर भी पड़ता है और दूसरे देशों में भी कीमतें बढ़ने लगती हैं। इससे संसार के लगभग सभी देशों में कीमत स्तर बढ़ गये हैं।

l. सरकार की औद्योगिक नीति – सरकार की औद्योगिक नीति का भी मुद्रास्फीति पर प्रभाव पड़ता है। यदि औद्योगिक नीति प्रतिबंधात्मक है तो इसका पूर्ति पर विपरीत प्रभाव पडे़गा। यदि सरकार का नए उद्योगों की स्थापना पर कड़ा नियंत्रण हो या नए उद्योगों की स्थापना को हतोत्साहित किया जाए तो इसके कारण उत्पादन में मांग के अनुसार वृद्धि नहीं हो पाएगी तथा वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाएंगी।

m. उत्पादन में गतिरोध – जब किसी देश में बिजली, कोयले आदि की पूर्ति कम हो जाती है। यातायात के साधनों की उपलब्धि में कमी आ जाती है तो उत्पादन में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। इससे पूर्ति कम तथा कीमतें बढ़ जाती हैं।

मुद्रास्फीति के प्रकार

1. खुली मुद्रास्फीति – खुली मुद्रास्फीति वह स्थिति है जिसमें कीमतों में होने वाली वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिये कोई उपाय नहीं अपनाए जाते। मिल्टन फ्रीडमैन के अनुसार, ‘‘खुली मुद्रास्फीति वह प्रक्रिया है जिसमें कीमतों को बिना सरकारी नियन्त्रणों के या इसी प्रकार की तकनीकों के, बढ़ने दिया जाता है।’’ खुली मुद्रास्फीति में कीमत संयंत्रा वस्तुओं के वितरण का कार्य करता है। जर्मनी में प्रथम महायुद्ध के पश्चात होने वाली, मुद्रास्फीति, खुली मुद्रास्फीति का महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।

2. दबी मुद्रास्फीति – जब बढ़ती हुई कीमतों को प्रशासनिक उपायों जैसे-राशनिंग, कीमत नियन्त्रण इत्यादि द्वारा सरकार दबा देती है अर्थात् कीमतों को नहीं बढ़ने देती तो इसे दबी मुद्रास्फीति कहते हैं। अतएव दबी हुई मुद्रास्फीति वह स्फीति है जिसमें वर्तमान समय में कीमतों में होने वाली वृद्धि को सरकार ने दबा दिया है। परन्तु भविष्य में जैसे ही सरकारी नियंत्रण समाप्त हो जाते हैं कीमतें तेजी से बढ़ने लगती हैं। दबी मुद्रास्फीति में, मूल्य नियंत्रण व राशनिंग प्रशासकों के भ्रष्ट तथा अनुभवहीन होने के कारण काले बाजार को प्रोत्साहन मिलता है। दबी स्फीति में कीमत संयंत्रा अपना कार्य नहीं कर पाती। इसका कारण यह है कि दबी मुद्रास्फीति में राशनिंग और कीमत नियंत्रण के फलस्वरूप चोर बाजारी, भ्रष्टाचार तथा रिश्वत में वृद्धि होती है और साधनों का अनुचित बंटवारा होता है।

3. युद्धकालीन मुद्रास्फीति – युद्ध के खर्चों को पूरा करने के लिए सरकार मुद्रा की पूर्ति में बहुत अधिक वृद्धि कर देती है। इस प्रकार आम जनता के उपभोग के लिये बहुत कम वस्तुयें उपलब्ध होती हैं। इसके कारण कीमतें बढ़ जाती हैं। इस कारण युद्ध के समय जो मुद्रास्फीति होती है उसे युद्धकालीन मुद्रास्फीति कहते हैं।

4. युद्धोत्तर मुद्रास्फीति – युद्ध के पश्चात भी मुख्य रूप से दो कारणों से मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति जारी रह सकती है। युठ्ठ के दौरान लगाए गए कर इत्यादि युद्ध के पश्चात हटाए जाने के कारण तथा सरकारी ऋणों की वापसी के फलस्वरूप लोगोंं के पास भी मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है। परंतु वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन इसकी तुलना में कम बढ़ता है।

5. शांतिकालीन मुद्रास्फीति – अविकसित देशों को आर्थिक नियोजन तथा विकास कार्यक्रमों के लिये अत्याधिक साधनों की आवश्यकता होती है। इसके लिए सरकार को घाटे की वित्त व्यवस्था अपनानी पड़ती है। इसके फलस्वरूप कीमतों में जो वृद्धि होती है, उसे शांतिकालीन स्फीति कहा जाता है।

6. रेंगती मुद्रास्फीति – रेंगती मुद्रास्फीति उस समय होती है जबकि कीमतों में वृद्धि धीरे-धीरे हो। इस प्रकार की स्फीति आर्थिक विकास के लिये उपयुक्त तथा किसी सीमा तक आवश्यक समझी जाती है। कुछ अर्थशािस्त्रायों के अनुसार कीमत स्तर में तीन प्रतिशत वृद्धि तक को रेंगती हुई मुद्रास्फीति कहा जाता है। इसके विपरीत कई अर्थशािस्त्रायों के अनुसार रेंगती मुद्रास्फीति भी हानिकारक हो सकती है। क्योंकि यह मुद्रास्फीति धीरे-धीरे भयंकर रूप धारण कर सकती है।

7. चलती मुद्रास्फीति – जब कीमतों में वृद्धि की गति बढ़ने लगती है और मुद्रास्फीति की मात्रा में कुछ तेजी आ जाती है तो इसे चलती मुद्रास्फीति कहा जाता है। जब किसी दशक में कीमतों में होने वाली वृद्धि 30 : से 40: हो जाती है तो उसे चलती मुद्रास्फीति कहते हैं।

8. दौड़ती मुद्रास्फीति – जब कीमतों में वृद्धि की गति अत्याधिक तीव्र हो जाती है और थोड़े ही समय में कीमतों में पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हो जाती है तो उसे दौड़ती हुई मुद्रास्फीति कहा जाता है। इस अवस्था में मुद्रास्फीति 80 से 100 प्रतिशत हो सकती है। यह स्थिति बचत को भी हतोत्साहित करती है।

9. सरपट दौड़ती मुद्रास्फीति या अति मुद्रास्फीति – मुद्रास्फीति की यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें कीमतों में अप्रत्याशित तीव्र गति से वृद्धि होती है। इस अवस्था को मुद्रास्फीति का ‘भयंकर राक्षस’ कहते हैं। जर्मनी में 1923 के पश्चात इसी प्रकार की मुद्रास्फीति ने लोगों का जर्मनी की करेन्सी में विश्वास बिल्कुल समाप्त कर दिया था। जर्मनी में तो कीमतें एक दफा एक साल की अवधि में दस लाख गुणा अधिक हो गई थीं। समाज का निश्चित आय वाला वर्ग तथा निर्धन वर्ग बिल्कुल तबाह हो जाता हैं।

10. क्षेत्रीय या विकीर्ण मुद्रास्फीति – जब मुद्रास्फीति का चुनाव देश के किसी एक भाग में या किन्हीं एक या दो प्रकार की वस्तुओं जैसे – दालें, पैट्रोल इत्यादि पर हो तो इसे विकीर्ण मुद्रास्फीति कहा जाता है।

11. व्यापक मुद्रास्फीति – मुद्रास्फीति का प्रभाव जब केवल एक क्षेत्र में तथा वस्तुओं पर न रहकर सारे देश में तथा सभी वस्तुओं पर दिखाई देता है तो उसे व्यापक मुद्रास्फीति कहते हैं।

12. मजदूरी प्रेरित मुद्रास्फीति – श्रमिकों के संगठन शक्तिशाली होने के कारण उनकी सौदा करने की शक्ति बढ़ जाती है और श्रमिक अधिक मजदूरी की मांग करते हैं।

13. लाभ प्रेरित या ‘मार्क अप’ मुद्रास्फीति – विकसित देशों में बड़ी-बड़ी कम्पनियां अपनी वस्तुओं की कीमत निर्धारित करते समय उनकी लागत के ऊपर एक निश्चित प्रतिशत लाभ के रूप में बढ़ा देती है। ये कम्पनियाँ ‘मार्क अप’ को काफी ऊंचा रखती है। इस प्रकार की मुद्रास्फीति को ‘मार्क अप’ स्फीति कहा जाता है।

14. घाटा प्रेरित मुद्रास्फीति – सरकार की धाटे की वित्त व्यवस्था के फलस्वरूप जो मुद्रास्फीति होती है, उसे घाटा जवित मुद्रास्फीति कहते हैं। यह स्थिति उस समय होती है, जब घाटे की वित्त व्यवस्था के फलस्वरूप मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है परन्तु वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति उस अनुपात में नहीं बढ़ती।

15. अवरोध गति मुद्रास्फीति – सन् 1970 के पश्चात संसार के विकसित देशों में एक नई प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। साधारणतया मुद्रास्फीति की स्थिति में एक ओर कीमतें बढ़ती हैं तो दूसरी ओर उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि होती है परन्तु इस नई स्थिति में एक ओर कीमतें तो बढ़ रही थीं परंतु दूसरी ओर उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि नहीं हो पा रही थी।

प्रो. सैम्यूअलसन के अनुसार, ‘‘गतिरोध स्फीति एक ऐसी स्फीति है, जहां कीमतों तथा मजदूरी में वृद्धि होने पर भी अधिकतर व्यक्ति रोजगार पाने में असमर्थ होते हैं तथा फर्मे अपने कारखानों में उत्पन्न माल को बेचने में असमर्थ होती हैं।’’

मुद्रास्फीति का मापन

थोक मूल्य सूचकांक ( WPI ) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ( CPI ) देश में मुद्रास्फीति की गणना के लिए दो व्यापक रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले सूचकांक हैं।

भारत मुद्रास्फीति की गणना करने के लिए थोक मूल्य सूचकांक का उपयोग करता है, जबकि अधिकांश देशों में मुद्रास्फीति नापने के लिए CPI का इस्तेमाल किया जाता है।

मुद्रास्फीति का मापन निम्नलिखित प्रकार से किया जाता हैः

a. थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index—WPI)

b. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index—CPI)

c. राष्ट्रीय आय विचलन (National Income Deflation—NID)

थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index—WPI)

लेकिन थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का इस्तेमाल पूरी दुनिया में सबसे अधिक किया जाता है। भारत में मुद्रास्फीति की गणना के लिए ‘थोक मूल्य सूचकांक’ का प्रयोग किया जाता है।

अभिजीत सेन समिति (2008) की अनुसंशा के आधार पर 15 नवंबर, 2009 को ‘New Wholesale Price Index’ का प्रकाशन किया गया और सितम्बर, 2010 में इस नए थोक मूल्य सूचकांक को पूरी तरह से जारी कर दिया गया।

इसमें पुराने सूचकांक के अप्रासंगिक मदों, जैसे- टाइपराइटर, वीसीआर, आदि को हटाया गया और उनके स्थान पर कम्प्यूटर, फ्रिज, डिश एंटिना, वी-सी-डी-, माइक्रोवेव ओवन और मिनरल वाटर जैसी नई उपभोक्तावादी वस्तुओं को शामिल किया गया।

थोक मूल्य सूचकांक वस्तुओं एवं उनके मूल्यों की एक सूची होती है जिसमें वस्तुओं को तीन श्रेणियों में बांटा गया हैः-

(i) प्राथमिक वस्तुएं

(ii) ईंधन व विद्युत संवर्ग

(iii) विनिर्मित वस्तुएं

नोटः दुनिया के अधिकांश देशों, विशेषकर विकसित देशों में मुद्रास्फीति की दर ज्ञात करने के लिए ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ का प्रयोग किया जाता है। ये देश हैं—जापान, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा, सिंगापुर व चीन।

भारत में पहली थोक मूल्य सूची 10 जनवरी, 1942 को हफ्ते के लिए बनी थी। इसे भारत सरकार (उद्योग मंत्रालय) के आर्थिक सलाहकार के कार्यालय की तरफ से प्रकाशित किया गया था। स्वतंत्र भारत में भी इसी श्रृंखला का पालन किया गया और इस सूची में अधिक कमोडिटीज को शामिल किया गया। कमोडिटीज को शामिल किए जाने, उन्हें एक तार्किक महत्व दिए जाने के संदर्भ में कई बदलाव आने वाले वक्त में हुए जिनमें थोक मूल्य सूचकांक के लिए आधार वर्ष का पुनर्लेखन भी शामिल था।

अभी तक थोक मूल्य सूचकांक आधार वर्ष 7 बार संशोधित किया जा चुका है। आधार वर्ष नीचे इस रूप में दिए गए हैं :

(i) 1952-53 आधार वर्ष (112 वस्तुएं) जून 1952 से जारी।

(ii) 1961-62 आधार वर्ष (139 वस्तुएं) जुलाई 1969 से जारी।

(iii) 1970-71 आधार वर्ष (360 वस्तुएं) जनवरी 1977 से जारी।

(iv) 1981-82 आधार वर्ष (447 वस्तुएं) जनवरी 1989 से जारी।

(v) 1993-94 आधार वर्ष (435 वस्तुएं) जुलाई 1999 से जारी।

(vi) 2004-05 आधार वर्ष (676 वस्तुएं) सितम्बर 2011 से जारी।

(vii) 2011-12 आधार वर्ष (697 वस्तुएं) मई 2017 से जारी।

संशोधित थोक मूल्य सूचकांक (Revised Wholesale Price Index)

आधार वर्ष 2011-12 की नई थोक मूल्य सूचकांक की शृंखला का सरकार द्वारा घोषणा कर दी गई है। पुरानी शृंखला का आधार वर्ष 2004-05 था। सकल घरेलू उत्पाद (GDP) तथा औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) का वर्तमान आधार वर्ष भी 2011-12 ही है। नई श्रृंखला संबंधी सलाह देने के लिए सरकार द्वारा मार्च 2012 में एक कार्य दल की स्थापना की गई थी (तत्कालीन योजना आयोग के सदस्य सौमित्र चौधरी की अध्यक्षता में)। थोक मूल्य सूचकांक की नई श्रृंखला से जुड़े प्रमुख बिन्दु निम्न प्रकार हैं :

* सूचकांक के तीन प्रमुख समूहों को यथावत् रखा गया है, जो हैं-प्राथमिक वस्तुएं, ईंधन एवं ऊर्जा तथा विनिर्मित उत्पाद। मदों की संख्या बढ़कर 697 (676 से) हो गई है, कुल 146 पुरानी मदों को हटाकर इसमें 199 नई मदों को जोड़ा गया है।

* मूल्य कोटेशन (Quotation) की संख्या में वृद्धि (52 प्रतिशत) किए जाने से यह सूचकांक पहले से अधिक प्रतिनिधित्वकारी है-कोटेशन की संख्या 5482 से बढ़ाकर 8331 की गई।

* वस्तुओं के मूल्यों की गणना में अप्रत्यक्ष करों (Indirect xes) को शामिल नहीं किया गया है। इस प्रकार यह सूचकांक अंतर्राष्ट्रीय तौर पर अवधारणात्मक रूप से उत्पादक मूल्य सूचकांक (Producer Price Index) के समान हो गया है।

* मदों के कुलों (Aggregates) की गणना के लिए गुणात्मक माध्य (Geometric Mean) का उपयोग किया गया है जो पुनः एक अंतर्राष्ट्रीय मान्य प्रक्रिया है। नये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) में भी इसी विधि का उपयोग किया गया है।

* खाद्य पदार्थों (प्राथमिक समूह के) एवं खाद्य उत्पादों (विनिर्मित‌ उत्पादों के) को सम्मिलित करके पहली बार एक नये थोक खाद्य मूल्य सूचकांक (Wholesale Food Price Index) की शुरुआत की गई है। सी.एस.ओ. (CSO) द्वारा पहले से जारी किए जा रहे उपभोक्ता खाद्य मूल्य सूचकांक (CFPI) के साथ मिलकर यह सूचकांक खाद्य पदार्थों के मूल्यों के प्रबोधन को बेहतर बनाएगा।

अर्थव्यवस्था की बदलती संरचना के मद्देनजर इस सूचकांक की समीक्षा की एक गतिज व्यवस्था का होना आवश्यक है। इस बात को ध्यान में रखकर सरकार द्वारा इस कार्य के लिए एक उच्चस्तरीय तकनीकी समीक्षा समिति (TRC) की स्थापना की गई है (पहली बार) जिसकी अध्यक्षता औद्योगिक नीति एवं प्रोत्साहन विभाग के सचिव द्वारा की जाएगी।

थोक मूल्य निर्देशांक प्रत्येक सप्ताह के लिए तैयार किया जाता है  यदि प्रथम सप्ताह में  थोक मूल्य निर्देशांक P1 है तथा द्वितीय सप्ताह में थोक कीमत निर्देशांक P2 है तो प्रथम तथा द्वितीय सप्ताह के बीच मुद्रास्फीति की दर का निम्न सूत्र से अनुमान लगाया जा सकता है

`=\frac{P_2-P_1}{P_1}\times100`

या`=[\frac{P_2}{P_1}-1]\times100`

या`=[(\frac{P_2}{P_1}\times100)-100]`

प्रश्न :- वर्ष 2011-12 में थोक मूल्य निर्देशां (2004-05=100) 235 था जो वर्ष 2015-16 में बढ़कर 258 स्तर पर पहुंच गया। मुद्रास्फीति की दर की गणना कीजिए

उत्तर :- थोक मूल्य निर्देशांक के आधार पर मुद्रास्फीति की दर की गणना निम्न प्रकार से की जा सकती है :

मुद्रास्फीति की दर 

`=\frac{258-235}{235}\times100=\frac{23}{235}\times100=9.787%`

या, मुद्रास्फीति की दर

`=[(\frac{258}{235}\times100)-100]`

=109.787-100=9.787%

स्पष्ट है कि थोक मूल्य निर्देशांक अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की स्थिति को प्रकट करते हैं।

थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale price index – WPI)

थोक मूल्य सूचकांक (WPI) की गणना थोक बाजार में उत्पादकों और बड़े व्यापारियों द्वारा किये गए भुगतान के आधार पर की जाती है। इसमें उत्पादन के प्रथम चरण में अदा किये गए मूल्यों की गणना की जाती है भारत में मुद्रा स्फीति की गणना इसी सूचकांक के आधार पर की जाती है

WPI-आर्थिक सलाहकार कार्यालय (वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय) प्रकाशित करता है

WPI-केवल वस्तुओं का मूल्य नापा जाता है

WPI-पहले चरण के भुगतान के आधार पर  मुद्रास्फीति की  गणना की जाती है

WPI-उत्पादक और थोक व्यापारी भुगतान को ध्यान में रखा जाता है

WPI-697 (प्राथमिक वस्तुएं, ईंधन और बिजली और विनिर्मित उत्पाद) वस्तुओं का मूल्य गिना जाता है

WPI-औद्योगिक वस्तुएं और मध्यवर्ती वस्तुएं जैसे खनिज, मशीनरी, बुनियादी धातु आदि प्रकार की वस्तुएं शामिल की जातीं हैं

WPI-2011-12 आधार वर्ष हैं भारत सहित केवल कुछ देशों में इस्तेमाल  किया जाता है

WPI-प्राथमिक वस्तुएं, ईंधन और बिजली (साप्ताहिक आधार पर), अन्य सभी वस्तुओं पर या ओवरआल (एक महीने में) आंकड़े प्रकाशित किये जाते हैं

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक

सामूहिक व्यय विधि
 
`=\frac{\Sigma P_1q_0}{\Sigma P_0q_0}\times100=\frac{507}{400}\times100=126.8`

पारिवारिक बजट विधि 

`=\frac{\Sigma RW}{\Sigma W}=\frac{50705}{400}=126.8`

डब्ल्यूपीआई के अलावा भारत उपभोक्ताओं के स्तर पर भी मुद्रास्फीति की गणना करता है, ठीक वैसे ही जैसे दुनिया की दूसरी अर्थव्यवस्थाएं करती हैं। क्योंकि भारत में उपभोक्ताओं की खपत और क्रयशक्ति आदि में व्यापक अंतर दिखाई देता है, एक अकेला उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) अब तक संभव नहीं हो पाया है जो भारत के सभी उपभोक्ताओं को अपने में समेट ले।

उपभोक्ताओं के सामाजिक आर्थिक अंतर पर निर्भर करते हुए भारत में सीपीआई के चार सेट हैं जिनमें अलग-अलग सेट को अलॉट की गई कमोडिटी बास्केट में थोड़ा बहुत अंतर है। यद्यपि आने वाले वक्त में इन चार तरह के सीपीआई को वापस ले लिए जाने का प्रस्ताव है, लेकिन उनके लिए डाटा अभी भी जारी किया जाता है। इन चारों सीपीआई का

संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है :

1. सीपीआई-आईडब्ल्यू (CPI-IW): औद्योगिक मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-आईडब्ल्यू) की बास्केट में 260 आइटम (और सेवाएं) हैं और इसका आधार वर्ष 2001 है (पहला आधार वर्ष 1958-59) था। 76 केंद्रों से इसके आंकड़े हर महीने लिए जाते हैं और सूचकांक में एक महीने की देरी (लैग) है।

मूल रूप से ये सूचकांक सरकारी कर्मचारियों (बैंक और दूतावासों में काम करने वालों को छोड़कर) के लिए है। इस सूचकांक में होने वाले बदलावों के आधार पर केंद्र सरकार द्वारा कर्मचारियों की मजदूरी/तनख्वाह संशोधित की जाती हैं। महंगाई भत्ता (डीए) साल में दो बार घोषित किया जाता है। जब वेतन आयोग (पे कमीशन) वेतन का पुनरीक्षण करता है तो उसका आधार सीपीआई-आईडब्ल्यू ही होता है।

2. सीपीआई-यूएनएमई (CPI-UNME): अर्बन नॉन-मैनुअल इंप्लॉयी के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-यूएनएमई) का आधार वर्ष 1984-85 (पहला आधार वर्ष 1958-59 था) है और इसकी बास्केट में 146-365 कमोडिटी है। इसके लिए देशभर के 59 केंद्रों से आंकड़े लिए जाते हैं। आंकड़े मासिक आधार पर लिए जाते हैं और इसमें दो हफ्तों की देरी (लैग) होती है।

इस मूल्य सूचकांक का सीमित इस्तेमाल है और मूल रूप से इसका इस्तेमाल भारत में संचालन कर रही विदेशी कंपनियों (जैसे-एयरलाइंस, कम्युनिकेशन, बैंकिंग, इंश्योरेंस, दूतावास और दूसरी वित्तीय सेवाएं) के कर्मचारियों के लिए महंगाई भत्ते (डीए) के निर्धारण में होता है। इसका इस्तेमाल आयकर अधिनियम के तहत कैपिटल गेन्स के निर्धारण में भी होता है और केंद्रीय सांख्यिकी संगठन भी इसका इस्तेमाल कुछ मामलों में करता है। सी.पी.आई. (यू) के प्रकाशन के बाद इस सूचकांक का जनवरी 2011 से प्रकाशन बंद कर दिया गया है।

3. सीपीआई-एएल (CPI-AL): खेतिहर मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-एएल) का आधार वर्ष 1986-87 है और इसकी बास्केट में 260 कमोडिटी हैं। हर महीने 600 गांवों में इसके लिए आंकड़े जुटाए जाते हैं और इसमें तीन हफ्तों की देरी (टाइम लैग) है। इस सूचकांक का इस्तेमाल विभिन्न राज्यों में खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी के संशोधन के लिए किया जाता है क्योंकि 1986-87 (इसके आधार वर्ष) से खेतिहर मजदूरों के खपत के पैटर्न में बदलाव हुआ है इसलिए लेबर ब्यूरो ने इसके मौजूदा आधार वर्ष में संशोधन का प्रस्ताव रखा है।

इस सूचकांक में बदलावों के संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारें सजग रहती हैं क्योंकि समाज के सबसे संवेदनशील वर्ग पर दामों के प्रभाव को दर्शाता है। ये वर्ग अपनी कुल कमाई का करीब 75 प्रतिशत हिस्सा खाने की वस्तुओं की खरीद पर खर्च कर देता है। लंबी अवधि में सरकार के इस सूचकांक को स्थिर रखने में विफल रहने पर ये इन्हें राजनीतिक रूप से अस्थिर बना सकता है जो राजनीतिक शिकस्त में बदल सकती है। यही वजह है कि अनाजों के दामों में वृद्धि की स्थिति को देखते हुए एफसीआई को हमेशा सस्ती दर पर अनाजों की आपूर्ति के लिए तैयार रखा जाता है।

4. सीपीआई-आरएल (CPI-RL): ग्रामीण क्षेत्र के मजदूरों के लिए एक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-आरएल) है, जिसका आधार वर्ष 1983 है। इसके लिए भी 600 गांवों से हर महीने डाटा इकट्ठा किया जाता है और इसमें भी तीन महीने की देरी (टाइम लैग) है। इस सीपीआई बास्केट में 260 कमोडिटी रखी गई है।

भारत में खेतिहर और ग्रामीण मजदूर आपस में परस्पर ओवरलैप कर जाते हैं जैसे कई खेतिहर मजदूर खेतों का काम पूरा हो जाने या फिर खेत में काम न होने की सूरत में ग्रामीण मजदूर के तौर पर काम करने लगते हैं। संभवत: इसी कारण से सरकार ने 2001-02 में इस सूचकांक को वापस ले लिया। लेकिन केंद्र में सरकार बदलने के बाद इसे फिर से चालू कर दिया गया।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक; घरेलू उपभोक्ताओं द्वारा खरीदी गयी वस्तुओं और सेवाओं (goods and services) के औसत मूल्य को मापने वाला एक सूचकांक है। इसकी गणना उपभोक्ताओं द्वारा बाजार में किये गए भुगतान के आधार पर की जाती है।

हम लोग रोजमर्रा की जिंदगी में आटा, दाल, चावल, ट्यूशन फीस आदि पर जो खर्च करते है;  इस पूरे खर्च के औसत को ही उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के माध्यम से दर्शाया जाता है। इसमें 8 प्रकार के खर्चों को शामिल किया जाता है. ये हैं; शिक्षा, संचार, परिवहन, मनोरंजन, कपडे, खाद्य & पेय पदार्थ, आवास और चिकित्सा खर्च।

CPI-केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय) प्रकाशित करता है

CPI-वस्तुओं और सेवाओं दोनों का मूल्य नापा जाता है

CPI-सबसे आखिरी चरण के भुगतान के आधार पर  मुद्रास्फीति की  गणना  की जाती है

CPI-उपभोक्ता भुगतान को ध्यान में रखा जाता है

CPI-448 (ग्रामीण) & 460 (शहरी) वस्तुओं का मूल्य गिना जाता है

CPI- शिक्षा_संचार_परिवहन_मनोरंजन_कपड़े_खाद्य और पेय पदार्थ_आवास और चिकित्सा खर्च प्रकार की वस्तुएं शामिल की जातीं हैं

CPI- 2012 आधार वर्ष हैं अमेरिका सहित विश्व के 157 देशों में इस्तेमाल  किया जाता है

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) का पुनरीक्षण

2011 में भारत सरकार ने एक नए सी.पी.आई. की घोषणा की-सी. पी.आई. (ग्रामीण), सी.पी.आई. (शहरी) तथा दोनों को जोड़कर एक राष्ट्रीय सी.पी.आई.-सी (जहां सी संयुक्त को इंगित करता है)। इस बीच पहले से विद्यमान चारों सी.पी.आई. से संबंधित आंकड़े सी.एस.ओ. द्वारा प्रकाशित किए गए। आधार वर्ष में भी परिवर्तन करके 2004-05 को 2010-11 किया गया।

फरवरी 2015 में सी.पी.आई. को सी.एस.ओ. द्वारा पुनः पुनरीक्षित किया गया। इस पुनरीक्षण में आधार वर्ष में परिवर्तन के साथ ही अनेक पद्धति मूलक परिवर्तन भी किए गए ताकि सूचकांकों को अधिक ठोस बनाया जा सके। पुनरीक्षित श्रृंखला में जिन बड़े परिवर्तनों की शुरूआत की गई, वे हैं

1. आधार वर्ष 2010-11 से बदलकर 2012-13 कर दिया गया।

2. सामग्रियों की टोकरी एवं उनका भार-चित्र तैयार किया गया जिसमें संशोधित, मिश्रित संदर्भ अवधि (Modified, Mixed Reference Period-MMRP) आंकड़ों का उपयोग किया गया। ये आंकड़े उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (Consumer Expenditure Survey-CES), 2011-12 द्वारा राष्ट्रीय निर्देशन सर्वेक्षण, एन.एस.एस. की 68वीं बैठक के पश्चात् तैयार किए गए। ऐसा अंतर्राष्ट्रीय प्रचलनों के अनुरूप साम्यता स्थापित करने के लिए किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिकांश खाद्य सामग्रियों के लिए कहीं छोटी संदर्भ अवधि तथा विरल उपभोग वाली वस्तुओं के लिए लंबी संदर्भ अवधि रखने का अंतर्राष्ट्रीय प्रचलन है। सी.पी.आई. की पुरानी श्रृंखला के भार-चित्र एक समान संदर्भ अवधि (Uniform Reference Period-URF) पर आधारित है, जो कि सी.ई.एस., 2004-05 द्वारा एन.एस.एस. की 61वीं बैठक के बाद बनाए गए।

भार-चित्रों में इस परिवर्तन के साथ भार-संदर्भ वर्ष तथा मूल्य संदर्भ वर्ष (आधार वर्ष) के बीच का अंतर जो कि पुरानी शृंखला के अंतर्गत 6 वर्ष था, वह अब घटकर मात्र 6 माह रह गया।

3. समूहों की संख्या जो कि पुरानी शृंखला में पांच श्री, अब बढ़कर छह हो गई है। पान-तंबाकू आदि को अब एक नये समूह में रखा गया है। इसलिए 'खाद्य, पेय एवं तंबाकू' को बदलकर अब-'खाद्य एवं पेय' कर दिया गया है।

4. अंडा जो कि पुरानी श्रृंखला में 'अंडा, मछली एंव मांस' के उप-समूह के अंतर्गत था अब एक अलग उप-समूह बना दिया गया है। उसी अनुसार पहले के उप-समूह को संशोधित कर अब 'मांस एवं मछली' बना दिया गया है।

5. प्रारंभिक सूचकांकों की गणना ज्यामितीय मान (Geometric Mean- GM) का उपयोग कर की जा रही है, जो कि अंतर्राष्ट्रीय प्रचलनों के हिसाब से विभिन्न बाजारों के आधार मूल्यों से संबंधित वर्तमान मूल्यों के 'प्राइस रिलेटिव्स' पर आधारित होता है। पुरानी श्रृंखला में इस कार्य के लिए अंकगणितीय मान (Arithmetic Mean, AM) का उपयोग किया जाता है। ज्यामितीय मान का लाभ यह है कि यह आत्यंतिक मूल्यों से कम प्रभावित होता है और सूचकांकों के व्यापक उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करता है।

6. अंत्योदय अन्न योजना के अंतर्गत सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की वस्तुओं का मूल्य भी पी.डी.एस. आयटमों को सूचकांकों में शामिल किया गया है और यह पुरानी शृंखला में ए.पी.एल. तथा बी.पी.एल. मूल्यों के अतिरिक्त है।

7. मकान किराया सूचकांक के लिए मकान किराया आंकड़ा एकत्रित करने के लिए निदर्शन के आकार (Sample Size), जो कि पहले 6,684 था, को बढ़ाकर दोगुणा यानी 13,368 कर दिया गया।

8. उप-समूह, समूह तथा सामान्य सूचकांक (समस्त समूह) के लिए अखिल भारतीय सी.पी.आई. (ग्रामीण एवं शहरी को मिलाकर) जो कि पुरानी श्रृंखला के लिए विमुक्त किया गया था, के अलावा अब अखिल भारतीय आयटम सी.पी.आई. (संयुक्त) को भी उपलब्ध कराया गया।

9. उपभोक्ता खाद्य मूल्य सूचकांक (ग्रामीण, शहरी, संयुक्त) को निम्नलिखित उप-समूहों के सूचकांकों के भारयुक्त औसत (Weightage Average) के रूप में संकलित किया गया, जैसा कि पुरानी शृंखला में प्रचलित था (केवल भार को पुनरीक्षित किया गया)।

भारत में मुद्रास्फीति की प्रवृत्तियों के विश्लेषण से यह स्पष्ट नहीं होता कि मुद्रास्फीति का कोई एक कारण अर्थशास्त्रियों ने सभी संभावित कारणों का उल्लेख किया है (तथाकथित 'अच्छे' तथा 'खराब') जिसे संक्षिप्त रूप में निम्नवत् देखा जा सकता है :

1. संरचनात्मक मुद्रास्फीति (Structural Inflation): अपवाद स्वरूप कुछ वर्षों को छोड़ दें तो भारत एक विशेष किस्म के गत्यारोधक मुद्रास्फीति की समस्या का सामना करता रहा है (अर्थात् संरचनात्मकमुद्रास्फीति) और इसका कारण रहे हैं-वस्तुओं की आपूर्ति में कमी, विकासशील अर्थव्यवस्था का सामान्य संकट, बढ़ती हुई मांग लेकिन निर्वश योग्य पूंजी के अभाव में वांछित स्तर तक वस्तुओं का उत्पादन न कर पाना आदि। जब कभी उच्चतर निवेश योग्य पूंजी का प्रबंध कर सरकार ने उच्चतर वृद्धि के लिए प्रयास किए, अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीति पर दबाव बन गया (विशेषकर 1970 तथा 1980 के दशक में) और इसका परिणाम यह हुआ कि मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए वृद्धि का बलिदान करना पड़ा। इस प्रकार भारत में उच्च मुद्रास्फीति के लिए आपूर्ति पक्ष का बेमेल रहना एक समस्या रही है। कुछ समय बाद जब सरकार ने अधिक खर्च का प्रबंध किया तब भी इसका बहुलांश गैर-विकासात्मक क्षेत्रों द्वारा सोख लिया गया और उच्च मुद्रास्फीति के साथ धीमी वृद्धि की समस्या बनी रही जो कि एक अवरुद्ध अर्थव्यवस्था का लक्षण है।

2. लागत-दबाव मुद्रास्फीति (Cost-Push Inflation): 'मुद्रास्फीति कर' के कारण भारत में वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य बढ़ता रहा है, क्योंकि सरकार राजस्व प्राप्ति को बढ़ाने के लिए वैकल्पिक उपायों का सहारा लेती रही है। हम कच्चे माल पर अधिक आयात कर लगाने के कारण भी ऐसा होता है। भारत में पूर्व में गैर-वैट (Non- Vat) कर ढांचे के कारण वस्तुओं के मूल्यों पर प्रपाती प्रभावी पड़ता रहा है। सरकार द्वारा अपने नियोजित विकास के वित्तीयन के लिए अधिक राजस्व की जरूरत थी और इसीलिए ऊपर वर्णित कारकों से बचना आसान नहीं था।

3. राजकोषीय नीति (Fiscal Policy): अर्थव्यवस्था की विकासात्मक जरूरतों के वित्तीय संपोषण के प्रयास में सरकारी अति मुद्रा आपूर्ति की चक्रीय प्रक्रिया में फंस गई। सबसे पहले तो ऐसा बाहरी लेनदारी के कारण हुआ, लेकिन 1960 के दशक के बाद से जबकि घाटे के बजट को विश्व भर में स्वीकृति मिल गई। सरकार ने भारी आंतरिक लेनदारी तथा मुद्राएं छापकर इस स्थिति से पार पाने का प्रयास किया। सरकार की आंतरिक लेनदारी में भारतीय रिजर्व बैंक का बड़ा योगदान होता है, जिससे कि कीमतें बढ़ती हैं। किसी भी सरकारी घाटे के लिए अगर केन्द्रीय बैंक अर्थात् भारतीय रिजर्व बैंक सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद कर रहा है अथवा सरकार के लिए नए अग्रिम सृजन कर रहा है तो इनके सम्मिलित प्रभाव से उच्च मुद्रास्फीति निम्न बचत दर तथा निम्न आर्थिक वृद्धि की स्थिति बनती है, जो कि एक अस्थिर राजाकोषीय नीति का दुर्गुण माना जाता है। उच्च राजकोषीय घाटा उच्च ब्याज दर ले आता है, क्योंकि निधि की मांग बढ़ती है और अत्यधिक मांग से अपेक्षित मुद्रास्फीति बढ़ाती है। साथ ही मुद्रा दर में गिरावट में भी बढ़ोतरी होती है। एक बार जब वर्ष 2000-01 की शुरुआत में विदेशी मुद्रा भंडार में तीव्र गति से बढ़ोतरी हुई तो इसकी अनुरक्षण लागत अधिक मूल्य वृद्धि के रूप में सामने आई, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा की खरीद रूपये के समतुल्य मूल्य पर ही करता है, जिससे कि अतिरिक्त मांग सृजित होती है और कीमतें बढ़ जाती हैं।

उच्च राजस्व घाटा (उच्च ब्याज भुगतान, सब्सिडी, तनख्वाह और पेंशन की वजह से) और राजकोषीय घाटे के चलते सरकार और मुद्रा की आपूर्ति करती है जो अर्थव्यवस्था को और ऊपर की तरफ ले जाता है। एक बार 2003 में जब राजकोषीय और बजट प्रबंधन अधिनियम प्रभावी हुआ उसके बाद से आने वाले समय में इस परिदृश्य में सुधार हुआ। हालांकि 1999 से 2003 के बीच के वक्त में कम मुद्रास्फीति के साथ उच्च वृद्धि दिखाई दी और इस दौरान भारत में ब्याज दर निम्नतम थी।

मुद्रास्फीति के प्रभाव (Influence of Inflation)

भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति का प्रभाव मुख्यतया उत्पादन एवं आय के वितरण पर पड़ता है-

(1) उत्पादन पर प्रभाव –

>मुद्रास्फीति की तीव्र गति से कुछ महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता वस्तुओं जैसे कपड़ा इत्यादि की कीमतें बढ़ने से इनकी मांग कम हो जाती है।विशेष तौर पर गरीब आम जनता की पहुँच से बाहर हो जाती हैं।

>इसी प्रकार अनिवार्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ने से अन्य वस्तुओं पर व्यय कम हो जाता है।

> जिससे उत्पादन प्रभावित होता है, जिससे रोजगार के अवसर एवं मजदूरी की दर कम हो जाती है, हड़ताल एवं तालाबन्दी की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं।

>इसका प्रभाव वास्तविक निवेश पर प्रतिकूल पड़ता है, जिससे आर्थिक मंदी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

(2) आय के वितरण पर प्रभाव –

>मुद्रास्फीति की तीव्र वृद्धि से इसका प्रभाव मजदूरों एवं वेतनभोगी कर्मचारियों पर ऋणात्मक पड़ता है क्योंकि उनका वेतन स्थिर होता है।

>जबकि व्यवसायी मुद्रास्फीति की स्थिति में अधिक लाभ अर्जित करते हैं।

>इस प्रकार आय का वितरण धनी व्यक्ति के पक्ष में अधिक होता है।

>मुद्रास्फीति की तीव्र वृद्धि में निर्धन एवं धनी व्यक्ति के बीच की असमानता बढ़ती जाती है। अर्थात धनी व्यक्ति अधिक धनी एवं निर्धन व्यक्ति , अधिक निर्धन हो जाता है।

(3) ऋणी और ऋणदाताओं पर प्रभाव – मुद्रास्फीति में ऋणदाताओं को हानि और ऋणी वर्ग को लाभ हाता है। माना एक व्यक्ति ने 2000 रु. की राशि एक साल के लिए उधार पर ली। एक साल बीतने पर मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो गई। अब ऋण जो 2000 रु. राशि ऋणदाता को वापस करेगा, उसका वास्तविक मूल्य पहले से कम होगा। मान लिया इस उधार को लेते समय इस राशि से 40 क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता था, परंतु मुद्रास्फीति के पश्चात गेहूं की कीमत दोगुनी हो गई और अब केवल 80 क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता है। इस प्रकार ऋणदाता को इससे हानि और ऋणी को लाभ होगा।

(4) निवेशकर्ता पर प्रभाव – निवेशकर्ता प्रभाव को दो भागा प्रभाव में बाटा जा सकता है ;(i) एक वे जिन्हानें सरकारी प्रतिभूतियां, डिबचें जर्, बॉण्डस आदि में जिससे कि एक निश्चित आय होती है, पूँजी लगा रखी होती है और दूसरे वे जिन्होंने संयुक्त पूंजी कम्पनियों के हिस्से खरीदे होते हैं इन दोनों वर्गों में से मुद्रास्फीति के कारण पहले वर्ग को हानि और दूसरे वर्ग को लाभ होता है।

(5) निश्चित आय के वर्ग पर प्रभाव – निश्चित आय के वर्ग में श्रमिकों, कर्मचारियों, अध्यापकों तथा अन्य सभी नौकरी पेशा लोगों को शामिल किया जाता है। इन्हें मुद्रास्फीति के कारण सबसे अधिक हानि उठानी पड़ती है। मुद्रास्फीति के कारण मुद्रा का मूल्य कम हो जाता है। इसलिए यदि आय में थोड़ी वृद्धि हो भी जाती है तो भी कीमतों के बढ़ने के कारण वे पहले की तुलना में कम वस्तुएं और सेवाएं खरीद पाते हैं।

(6) उत्पादकों प्रभाव या उद्यामियों प्रभाव पर प्रभाव – उत्पादक वर्ग एक ऐसा वर्ग है जिसे मुद्रास्फीति से लाभ होता है। इस वर्ग को होने वाले लाभ के निम्न कारण हैं। (i) वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है। इससे वे वस्तुएं ऊंची कीमत पर बेचते हैं। (ii) कच्चा माल उन्होंने मुद्रास्फीति से पहले ही खरीदा होता है, (iii) जो उद्यमी अथवा व्यापारी ऋण लेते हैं उन्हें भी मुद्रास्फीति से लाभ होता है।

कृषकों पर प्रभाव – कृषक वर्ग पर मुद्रास्फीति का प्रभाव अनुकूल है क्योंकि वे उत्पादक वर्ग में आते हैं।

(7) मध्यम वर्ग पर प्रभाव – मुद्रास्फीति के कारण सबसे अधिक हानि मध्यम वर्ग को होती है। यह एक ऐसा वर्ग है कि जिसे रहन सहन का अपना एक विशेष स्तर रखना पड़ता है, परन्तु इसकी आय के साधन निश्चित होते हैं। इसलिए वे अपनी वर्तमान आय से अपने जीवन स्तर को कायम नहीं रख पाते। उन्हें कर्ज लेकर या पिछली बचत खर्च करके जीवन स्तर को बनाए रखना पड़ता है।

(8) बचत पर प्रभाव – मुद्रास्फीति का बचत पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। एक तो वस्तुओं की कीमतें अधिक होने के कारण लोगोंं को व्यय अधिक करना पड़ता है, इसलिए बचत की सम्भावना कम हो जाती है। दूसरे मुद्रा का मूल्य कम होने के कारण लोगों का मुद्रा पर विश्वास कम हो जाता है। इसलिए वे मुद्रा को बचाकर नहीं रखना चाहते।

(9) रोजगार पर प्रभाव – मुद्रास्फीति की प्रारम्भिक स्थितियों में रोजगार पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। कीमतें अधिक होने से उत्पादक उत्पादन भी अधिक करता है। परंतु पूर्ण रोजगार की अवस्था के पश्चात कीमतें तेजी से बढ़ने लगती है और सरपट दौड़ने वाली मुद्रास्फीति की अवस्था आ जाती है। इससे लोग वस्तुएं खरीदना कम कर देते हैं। जिससे मांग कम हो जाती है और परिणामस्वरूप बेरोजगारी फैल जाती है।

(10) भुगतान संतुलन पर प्रभाव – मुद्रास्फीति के समय में वस्तु प्रभाव की कीमत प्रभाव बढ़ जाती है इसलिए आयात में वृद्धि आरै नियार्त में कमी आने से भुगतान संतुलन प्रतिकूल हो जाता है।

(11) सार्वजनिक ऋणों प्रभाव पर प्रभाव – कीमतों में वृद्धि होने के कारण सरकार द्वारा प्रारंभ की गई योजनाओं पर किए जाने वाला व्यय बढ़ जाता है। इसी कारण सरकार को जनता से ऋण लेना पड़ता है जिससे सार्वजनिक ऋणों में वृद्धि हो जाती है।

(12) बैकों नियंत्रण तथा बीमा कंपनियों नियंत्रण पर प्रभाव – मुद्रास्फीति के कारण व्यापारियों, उद्यमियों तथा कृषकों की आय में वृद्धि होती है इसलिए वे लोग अधिक पैसा बैंक में जमा करते हैं इससे बैंकिंग संस्थाओं का विकास होता है। नए उद्योग स्थापित होने से जोखिम में भी वृद्धि होती है जिससे बीमा कम्पनियों का विकास होता है।

(13) करों नियंत्रण पर प्रभाव – कीमतों में वृद्धि होने के कारण सरकार का व्यय काफी बढ़ जाता है। सरकार उस बढ़े हुए व्यय को पूरा करने के लिए कर बढ़ा देती है।

(14) साधनों नियंत्रण के बंटवारे पर प्रभाव – मुद्रास्फीति का साधनों के बंटवारे पर भी प्रभाव पड़ता है। जब किसी वस्तु का मूल्य अपेक्षाकृत अधिक हो जाता है तो उसकी मांग कम हो जाती है तथा उससे संबंधित वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है। इससे महंगी वस्तुओं का उत्पादन कम किया जाएगा तथा सस्ती वस्तुओं का उत्पादन अधिक किया जाएगा। इस प्रकार मुद्रा स्फीति का साधनों के बंटवारे पर प्रभाव पड़ता है।

(15) नैतिक प्रभाव – मुद्रास्फीति के कारण नैतिकता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। व्यापारी वगर् अधिक धन सचं य के लालच में अन्धा होकर मुनाफाखोरी, जमाखोरी तथा मिलावट इत्यादि जैसी बुरी आदतों का सहारा लेते हैं। एन्ड्रयु डी व्हाइट ने अपनी पुस्तक “Fiat Money Inflation in France” में लिखा है कि, ‘‘फ्रांसीसी क्रान्ति काल में मुद्रा प्रसार के कारण फ्रांस के प्रमुख शहरों में विलासिता तथा दुराचार, जो लूटने की अपेक्षा गम्भीर दोष थे, चारो ओर फैल गए थे।’’ देश में रिश्वतखोर तथा नैतिक मूल्यों का पतन हो जाता है।

(16) सामाजिक एवं राजनैतिक प्रभाव – मुद्रास्फीति के सामाजिक तथा राजनैतिक प्रभाव आर्थिक प्रभावों से भी अधिक खतरनाक हैं। सन् 1923.1933 के बीच जर्मनी में हिटलर तथा उसकी नाजी पार्टी के सत्ता हथियाने का एक प्रमुख कारण उस समय विद्यमान मुद्रास्फीति की भयानक बाढ़ थी। डा. डी. बी. टूरोनी (Turroni) के अनुसार, ‘‘हिटलर मुद्रास्फीति की दत्तक संतान था।’’ प्रो.. गेलब्रेथ के अनुसार, ‘‘मौद्रिक आय की दृष्टि से यदि विचार किया जाए तो जिस समाज में निरंतर मुद्रास्फीति रहती है उसमें नि:संदेह शिक्षक, धर्मगुरु या पुलिस का कार्य करने की अपेक्षा सट्टे बाजी या वेश्यावृत्ति करना अधिक लाभदायक है।

मुद्रास्फीति नियंत्रण के उपाय

मुद्रास्फीति होने के कारणों को जानने के बाद प्रश्न यह उठता है कि सरकारें इसे नियंत्रित करने के लिए कैसे कदम उठा सकती हैं। विश्व की सरकारों द्वारा इसे नियंत्रित करने के लिए हर संभव कदम उठाए जाते हैं जिन्हें हम निम्न प्रकार देख सकते हैं

(i) आपूर्ति पक्ष संबंधी उपाय (Supply Side Measures) : अगर‌ अर्थव्यवस्था महंगाई का कारण कुछ वस्तुओं की आपूर्ति की कमीहै तो ऐसी स्थिति में सरकारें उक्त वस्तु का आयात करती है।भारत में 'प्याज' तथा 'चीनी' की कमी को पूरा करने के लिए ऐसा किया जाता रहा है, लेकिन यह लघु-अवधि के उपाय हैं। मुद्रास्फीति दीर्घावधिक काल में नियंत्रण हो सके इसके लिए उक्त वस्तुओं का देश में उत्पादन ही अंतिम विकल्प है। इसी तरह सेइसके अंतर्गत और भी कई उपाय आते हैं, जैसे-भंडारण, परिवहन तथा वितरण की बेहतर व्यवस्था, जमाखोरी (Hoarding) पर नियंत्रण,आदि।

(ii) लागत पक्ष संबंधी उपाय (Cost Side Measures) : इसके अंतर्गत सरकारें उन वस्तुओं पर लगने वाले अप्रत्यक्ष करों में कमी करतीहै जिनके मूल्यों में वृद्धि आने से मुद्रास्फीति बढ़ती है। इसकेअंतर्गत आयात शुल्क (Custom Duty), उत्पाद शुल्क (Excise‌ Duty), राज्यों के 'वैट' इत्यादि में कमी लाकर मुद्रास्फीति को‌ नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है। भारत सरकार द्वारा इस तरह के कदम 2003 के मध्य में उठाए गए जब कच्चे तेल और इस्पात के मूल्य में वृद्धि आने लगी। इसी प्रकार वर्ष 2009 एवं 2010 में बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण लगाने के लिए सरकार द्वारा इस प्रकार के कदम उठाए गए खाद्यान्न, चीनी आदि पर आयात शुल्क में कमी; एल.पी.जी. एवं पेट्रोल तथा डीजल पर राज्यों के 'वैट' में कमी आदि। लेकिन उपरोक्त सभी मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के छोटी अवधि के उपाय हैं। मुद्रास्फीति करने के छोटी अवधि के उपाय हैं। मुद्रास्फीति रूप से नियंत्रित रहे इसके लिए संबंधित वस्तुओं का आवश्यकतानुसार उत्पादन और उनका बेहतर वितरण ही अंतिम उपाय है।

(iii) मौद्रिक उपाय (Monetary Measures) : उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त सरकारें 'मांग-जनित' या 'लागत-जनित' दोनों प्रकार की मुद्रास्फीतियों पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए मौद्रिक उपाय का सहारा भी ले सकती है। इसके अंतर्गत इस प्रकार की मौद्रिक नीति की घोषणा की जाती है ताकि अर्थव्यवस्था में मुद्रा की आपूर्ति/प्रचलन घटायी जा सके अर्थात् उपभोक्ता के पास धन की कमी करके उसकी मांग पर अंकुश लगाने की कोशिश की जाती है ताकि निम्न मांग से मुद्रास्फीति घटे। वर्ष 2009 एवं 2010 में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए भारत में RBI द्वारा अपनी मौद्रिक एवं साख नीति में कई बार परिवर्तन किया गया जिसके अंतर्गत CRR, SLR, बैंक दर, रिपो दर में वृद्धि की गई। लेकिन इन उपायों से मुद्रास्फीति को लघु अवधि के लिए ही नियंत्रित किया जा सकता है। इसका बेहतर उपाय है कि जल्द-से-जल्द उक्त वस्तुओं के बेहतर उत्पादन से बढ़ी हुई मांग को पूरी की जाए अन्यथा इसका आर्थिक वृद्धि दर पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है।

राजकोषीय उपाय: व्यय को कम करने और आपूर्ति प्रेरित मुद्रास्फीति का प्रबंधन करने के लिए सरकार द्वारा अपनाए गए राजकोषीय उपायों में सम्मिलित हैं

a. व्यय में कमी: सरकार मुद्रास्फीति के नियंत्रित होने तक गैर-विकासकात्मक गतिविधियों पर

अनावश्यक व्यय को कम कर सकती है, सार्वजनिक ऋण की चुकौती को स्थगित कर सकती है, आदि।

b. करों में वृद्धि: इससे अल्प प्रयोज्य आय के कारण व्यक्तिगत उपभोग व्यय में कटौती होती है। साथ ही इससे अर्थव्यवस्था में समग्र मांग को कम करने में भी सहायता प्राप्त होती है।

c. अधिशेष बजट: अधिशेष बजट का अर्थ यह होता है कि सरकार द्वारा व्ययों के माध्यम से धन की आपूर्ति की अपेक्षा करों के माध्यम से जनता के पास उपलब्ध अधिशेष तरलता में कमी अधिक की गई है। इसके परिणामस्वरूप मांग कम हो जाती है।

d. संरक्षणवादी उपाय: सरकार घरेलू खपत को सहायता प्रदान करने के लिए दाल, तेल आदि आवश्यक वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबंध अधिरोपित करके तथा शुल्कों को कम करके आयातों को प्रोत्साहित करने जैसे कुछ संरक्षणवादी उपाय अपना सकती है।

 

पुनः यह उपाय उस स्थिति असफल हो जाती है जब मूल्य वृद्धि दिन-प्रतिदिन की वस्तुओं की मूल्यों में होने वाली वृद्धि के कारण हो रहा हो, क्योंकि इनकी खरीद करने के लिए आम आदमी बैंकों से लिए गए ऋणों पर निर्भर नहीं होता। हां, अगर महंगाई इस्पात, लोहा, सीमेंट इत्यादि की मांग में आई वृद्धि से बढ़ रही हो तो यह उपाय कारगर सिद्ध होता है, क्योंकि भवन निर्माण की इन सामग्रियों का आवासीय ऋणों से प्रत्यक्ष संबंध होता है।

यदि सरकार आवश्यक समझे तो मुद्रास्फीति एवं कीमत प्रबंधन नीति को प्रभावी बनाने के लिए उपरोक्त तीनों मात्रकों को उपयोग में ला सकती है।

रेपो रेट और मुद्रास्फीति में संबंध (Relationship between repo rate and inflation)

बैंकों को अपने काम-काज़ के लिये अक्सर बड़ी रकम की ज़रूरत होती है। बैंक इसके लिये आरबीआई से अल्पकाल के लिये कर्ज़ मांगते हैं और इस कर्ज़ पर रिज़र्व बैंक को उन्हें जिस दर से ब्याज देना पड़ता है, उसे ही रेपो रेट कहते हैं। रेपो रेट कम होने से बैंकों के लिये रिज़र्व बैंक से कर्ज़ लेना सस्ता हो जाता है और तभी बैंक ब्याज दरों में भी कटौती करते हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा रकम कर्ज़ के तौर पर दी जा सके।

मुद्रास्फीति बढ़ने का एक मतलब यह भी है कि वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में वृद्धि के कारण, बढ़ी हुई क्रय शक्ति के बावजूद लोग पहले की तुलना में वर्तमान में कम वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग कर पा रहें हैं। आरबीआई का कार्य यह है कि वह बढ़ती हुई मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखने के लिये बाज़ार से पैसे को अपनी तरफ खींच ले।

अतः आरबीआई रेपो रेट में बढ़ोतरी कर देता है, ताकि बैंकों के लिये कर्ज़ लेना महँगा हो जाए और वे अपने बैंक दरों को बढ़ा दे जिससे कि लोग कर्ज़ न ले सकें।

पिछले कुछ समय से मुद्रास्फीति में गिरावट देखी जा रही है फिर भी आरबीआई रेपो रेट में परिवर्तन के लिये तैयार नहीं दिख रहा है। दरों में कटौती नहीं करना उचित क्यों

जीएसटी लागू होने के बाद सेवा क्षेत्र के लिये 18 प्रतिशत का स्लैब तय किया गया है, जो कि पहले 15 प्रतिशत था।

7वें वेतन आयोग के भत्ते लागू हो जाने के बाद उपभोक्ता की क्रय शक्ति में वृद्धि देखने को मिलेगी।

दरों में कटौती करने को उचित नहीं कहा जा सकता है।                                                                          

उच्च दरों के कारण निवेशकों को कर्ज़ नहीं मिल पा रहा है और इससे निवेश भी प्रभावित हो रहा है।

मुद्रास्फीति की दर में जो यह गिरावट देखने को मिल रही है वह खाद्य वस्तुओं के मूल्यों में कमी के कारण है और इस बात कि कोई गारंटी नहीं है कि मूल्यों में यह गिरावट बनी ही रहेगी।

खाद्य वस्तुओं के मूल्य में त्वरित परिवर्तन की आशंका लगातार बनी रहती है।

मान लिया जाए कि खाद्य वस्तुओं एवं कच्चे तेल के मूल्यों में कमी के आधार पर मुद्रास्फीति में आई कमी को ध्यान में रखकर केन्द्रीय बैंक द्वारा दरों में कटौती कर दी जाती है और तभी बाढ़ या सूखे जैसी प्राकृतिक आपदा के कारण खाद्य वस्तुओं के मूल्यों में फिर से उछाल आ जाता है या किन्हीं परिस्थितियों में कच्चे तेल के दामों में वृद्धि होती है तो ऐसी स्थिति में दरों में साप्ताहिक या अर्द्धमासिक परिवर्तन की ज़रूरत होगी, जिसे व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता।

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