JPSC_Industrial Development and Economic Reforms in India(भारत में औद्योगिक विकास और आर्थिक सुधार)

JPSC_Industrial Development and Economic Reforms in India(भारत में औद्योगिक विकास और आर्थिक सुधार)

(औद्योगिक नीति में मुख्य परिवर्तन, औद्योगिक विकास पर इसका प्रभाव, सूक्ष्म व मध्यम उद्यमों की समस्याएँ, उदारीकरण के काल में भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की भूमिका, सार्वजनिक उद्यमों का विनिवेश और निजीकरण)

औद्योगिक नीति में मुख्य परिवर्तन

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 6 अप्रैल, 1948 को भारत सरकार ने अपनी पहली औद्योगिक नीति घोषित की। तब से लेकर आज तक कुल 6 औद्योगिक नीतियों की घोषणा की जा चुकी है। महत्त्वपूर्ण औद्योगिक नीति का विवेचन निम्नवत् है।

औद्योगिक नीति 1948

6 अप्रैल, 1948 को तत्कालीन उद्योग मंत्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारत की प्रथम, औद्योगिक नीति की घोषणा की। औद्योगिक नीति 1948 में मिश्रित अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की गयी थी तथा देश के औद्योगिक विकास हेतु सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र के मिश्रित स्वरूप की अवधारणा की व्यवस्था की गयी थी। इसके अंतर्गत् उद्योगों को 4 भागों में विभाजित किया गया था।

(i) राज्य अधिकृत क्षेत्र-इसके अंतर्गत् सैनिक तथा राष्ट्रीय महत्त्व के तीन उद्योगों-अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण, अणु शक्ति उत्पादन एवं नियंत्रण, डाक तार एवं रेल यातायात स्वामित्व एवं प्रबंधन सम्मिलित किया गया था। इन उद्योगों की स्थापना केवल सरकारी क्षेत्र में ही की जा सकती थी।

(ii) राज्य नियंत्रित उद्योग-6 आधारभूत उद्योगों-कोयला, लोहा, इस्पात, टेलीफोन, तार, बेतार, वायुयान, तथा खनिज तेल उद्योगों की भविष्य में स्थापना तथा विकास का दायित्व पूरी तरह से सरकार पर था।

(iii) मिश्रित उद्योग-इसमें राष्ट्रीय महत्त्व के कुछ आधारभूत उद्योगों एवं उपभोक्ता उद्योगों को सम्मिलित किया गया था। इन उद्योगों की स्थापना संचालन तथा विकास पर राज्य का नियंत्रण होगा। इस वर्ग के उद्योगों में निजी तथा सहकारी क्षेत्र को भी उपक्रम स्थापित करने की पूर्व स्वायत्तता दी गयी थी।

(iv) पूर्णत: निजी क्षेत्र-इस वर्ग में उन उद्योगों को सम्मिलित किया गया था जो प्रथम तीनों वर्ग में नहीं थे। स्थापना केवल निजी क्षेत्र में की जाती थी।

1948 की औद्योगिक नीति की मुख्य सफलता इस बात में है कि इसके अधीन मिश्रित एवं नियंत्रित अर्थव्यवस्था की नींव रखी गई जिसमें निजी व सरकारी उद्यम मिलकर कार्य कर सकें ताकि औद्योगिक विकास तीव्र गति से आगे बढ़ सके।

औद्योगिक नीति 1956

देश की प्रमुख आवश्यकताओं को देखते हुए 30 अप्रैल, 1956 को नई औद्योगिक नीति घोषित की गयी। इसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे-

(i) औद्योगीकरण की प्रक्रिया का विकास करना,

(ii) मुख्यतया भारी तथा मशीन बनाने वाले उद्योगों का विकास करना,

(iii) आय तथा सम्पत्ति में असमानताओं को कम करना,

(iv) एकाधिकार की प्रवृत्ति तथा कुछ हाथों में आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को बढ़ने से रोकना।

इस नीति के अंतर्गत उद्योग को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया-

(i) अनुसूची 'अ' : केन्द्रीय सरकार के एकाधिकार क्षेत्र के उद्योगों को केवल सरकार के लिए सुरक्षित कर दिया गया। इस अनुसूची में 17 उद्योग शामिल किए गए, जिन्हें पांच श्रेणियों में विभाजित किया गया।

(a) सुरक्षा संबंधी उद्योग-अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य युद्ध संबंधी उपकरण तथा परमाणु शक्ति

(b) भारी उद्योग-लोहा व इस्पात तथा इसकी कास्टिंग व फोर्जिंग, बड़ी मशीनों का निर्माण तथा बिजली की मशीनें,

(c) खनिज उद्योग-कोयला व लिग्नाइट, खनिज तेल, लोहा, मैंगनीज, क्रोमियम, जिप्सम, गंधक, सोना, हीरा, तांबा, सीसा, जस्ता, टिन आदि की खानों से खुदाई तथा संसाधन,

(d) परिवहन तथा संचार-वायु परिवहन, वायुयान निर्माण, रेल परिवहन, जलयान निर्माण, टेलीफोन, टेलीग्राफ तथा वायरलैस के उपकरण (रेडियो रिसीविंग सेट छोड़ कर),

(e) शक्ति-बिजली का उत्पादन तथा वितरण।

(ii) अनुसूची 'ब'-सार्वजनिक तथा निजी उद्यम के मिश्रित क्षेत्र में दिये गये उद्योग इस श्रेणी में आते हैं जो कि संख्या में 12 हैं। इनके भावी विकास की दिशा में राज्य को प्रयास करना होगा परन्तु निजी उद्यमियों को स्वतंत्र रूप से अथवा राज्य के साथ सहयोग करते हुए नई इकाईयों की स्थापना के अवसर प्रदान किए जाएंगे। इस श्रेणी में आने वाले उद्योग थे-खनिज, एल्युमोनियम, मशीन औजार, लौह मिश्रित धातु तथा औजार, इस्पात, आधारभूत वस्तुएँ, औषधि का निर्माण, रंग बनाना, उर्वरक, कृत्रिम रबर, सड़क व समुद्री परिवहन आदि।

(iii) निजी उद्योग का क्षेत्र-वर्ग 'अ' और 'ब' में आने वाले उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी उद्योग इसके अंतर्गत आते हैं। सरकार इन उद्योगों की स्थापना में उद्योगपतियों को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न साधनों की व्यवस्था करेगी। यहाँ उल्लेखनीय है कि इन उद्योगों की स्थापना के संबंध में किसी प्रकार का प्रबंध नहीं रखा गया।

1948 को औद्योगिक नीति की तुलना में 1956 की औद्योगिक नीति प्रस्ताव में सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार पर अधिक जोर दिया गया था। राष्ट्रीयकरण की जो 'नीति' 1948 के प्रस्ताव में थी उसे 1956 के प्रस्ताव में हटा लिया गया। 1956 के प्रस्ताव में उद्योगों का विभाजन भी अधिक लोचपूर्ण था। कहा जा सकता है कि इस औद्योगिक नीति ने देश की आर्थिक विचारधारा को ठोस रूप ही नहीं दिया, बल्कि 1948 की नीति को भी और आगे बढ़ाया।

औद्योगिक नीति 1991

यह नीति पूर्व की सभी औद्योगिक नीतियों से इस संदर्भ में अलग थी कि पहली बार 1991 में औद्योगिक तथा लाइसेंसिंग नीति को संयुक्त रूप से घोषित किया गया था।

 इस नीति में मुख्य रूप से विदेशी सहयोग बढ़ाने, अर्थव्यवस्था को अनावश्यक नियंत्रणों से मुक्त करने, सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिस्पर्द्धा योग्य बनाने, रोजगार के अवसर बढ़ाने एवं निरंतरता के साथ परिवर्तन आदि पर विशेष बल दिया गया था।

नई औद्योगिक एवं लाइसेंसिंग नीति 1991 के प्रमुख प्रावधान निम्नवत् हैं-

(i) औद्योगिक लाइसेंसिंग से संबंधित नीति-परिशिष्ट ll में रखे गए केवल 6 उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों के लिए औद्योगिक लाइसेंसिंग को समाप्त कर दिया गया है। उद्योग हैं-शराब, सिगरेट, खतरनाक रसायन, दवाईयां, सुरक्षा का सामान और औद्योगिक विस्फोट।

(ii) सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योग-नई औद्योगिक नीति में देश की सुरक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रमुख 8 उद्योगों को जिन्हें परिशिष्ट 1 में रखा गया है, बाद में 5 और उद्योगों को आरक्षण से मुक्त कर दिया गया। इस प्रकार अब केवल 3 उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित रह गए हैं-

• परमाणु ऊर्जा

परमाणु ऊर्जा (उत्पादन एवं उपभोग नियंत्रण)

• रेल परिवहन।

(iii) उद्योग स्थान-निर्धारण नीति-इस नीति में लाइसेंस की अनिवार्यता वाले उद्योगों को छोड़कर अन्य उद्योगों की स्थापना के लिए केन्द्र सरकार से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है, यदि ये उद्योग 10 लाख से कम जनसंख्या वाले शहरों में स्थापित किए जा रहे हों। 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों में इन्हें शहर से 25 कि.मी. बाहर स्थापित करना होगा।

(iv) विदेशी निवेश से संबंधित नीति-उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में, जिनमें निवेश की बड़ी मात्रा तथा कई उन्नत तकनीक की आवश्यकता है, विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से 51 प्रतिशत विदेशी इक्विटी, जिसे हाल में बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दिया गया है, की अनुमति दी जाएगी। उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों को परिशिष्ट III में रखा गया है और इसमें 34 क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया है। इसमें परिवहन, खाद्य संसाधन, होटल, धातुकर्म, औद्योगिक, मिट्टी हटाने वाली तथा कृषि मशीनरी, उर्वरक, रसायन, प्लेट, ग्लास व बिजली के उपकरण इत्यादि शामिल हैं। बैंकिंग क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दिया गया है। फरवरी, 2005 में दूरसंचार क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की सीमा को 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दिया गया है।

(v) विदेशी प्रौद्योगिकी-विदेशी प्रौद्योगिकी तथा तकनीक के आयात को आसान बनाने के लिए व्यवस्था की गई है। निर्धारित सीमाओं के अंतर्गत, उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में प्रौद्योगिकी संबंधी समझौतों को बे रोकटोक, अनुमति प्रदान की जाएगी। भारतीय कम्पनियों को इस बात की छूट होगी कि वे अपनी समझ बूझ के अनुसार विदेशी कंपनियों से प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण संबंधी शर्तों को तय करें।

(vi) एम.आर.टी.पी. परिसम्पत्ति सीमा समाप्त-इस नई औद्योगिक नीति में एम.आर.टी.पी. अधिनियम के अंतर्गत आने वाली कम्पनियों की परिसम्पत्ति सीमा को समाप्त कर दिया गया, परन्तु एकाधिकारिक प्रतिबंधक व अवांछित व्यापारिक गतिविधियों को रोकने के लिए एकाधिकार और प्रतिबंध व्यापार व्यवहार आयोग (एम.आर.टी.पी. आयोग) की शक्तियों का विस्तार किया गया। दिसम्बर, 2002 में एम.आर.टी.पी. अधिनियम के स्थान पर प्रतिस्पर्धा अधिनियम, 2002 लाया गया है।

(vii) लघु उद्योगों को प्रोत्साहन-लघु उद्योगों को मजबूत और लाभकारी बनाने के उद्देश्य से पुरानी नीति में अनेक परिवर्तन किए गए हैं। लघु उद्योगों की शेयर पूंजी में गैर-लघु क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की 24 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी की अनुमति नीति में दी गई है। इस प्रकार 1991 की नई औद्योगिक नीति में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका घटाकर निजी क्षेत्र को अधिक व्यापक व महत्त्वपूर्ण बना दिया गया है। नई नीति में नियंत्रण और लाइसेन्स प्रणाली को बहुत सीमा तक समाप्त कर दिया गया है, जिससे बाजारतंत्र महत्त्वपूर्ण बन गया है तथा अर्थव्यवस्था ने पर्याप्त खुला रूप धारण कर लिया है, साथ ही घरेलू अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था के काफी नजदीक आ गई है।

औद्योगिक विकास पर औद्योगिक नीतियों का प्रभाव

किसी भी देश के लिए उद्योगों का बहुत महत्व होता है। किसी भी देश की आर्थिक स्थिति कैसी है इसका ज्ञान हमें इस बात से होता है कि उस देश में उद्योगों की क्या स्थिति है। उद्योगों के विकास के लिए औद्योगिक नीतियाँ बनाई जाती हैं। किसी भी देश की औद्योगिक नीति वह नीति है जिसका उद्देश्य उस देश के निर्माण उद्योग का विकास करना एवं उसे वांछित दिशा देना होता है। औद्योगिक नीति का अर्थ सरकार के उन निर्णयों एवं घोषणाओं से है जिसमें उद्योगों के लिए अपनाई जाने वाली नीतियों का उल्लेख होता है। सरकार द्वारा बनाई गई औद्योगिक नीति से उस देश के औद्योगिक विकास के निम्नलिखित तथ्यों का पता चलता है-

औद्योगिक विकास की कार्य योजना एवं कार्य योजना की रणनीति क्या होगी।

औद्योगिक विकास में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की भूमिका क्या होगा।

औद्योगिक विकास में विदेशी उद्यमियों एवं विदेशी पूँजी निवेश की दिशा क्या होगी।

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक भारत 6 बार औद्योगिक नीति की घोषणा कर चुका है, जो कि निम्नलिखित है- (1) औद्योगिक नीति-1948, (2) औद्योगिक नीति-1956, (3) औद्योगिक नीति-1977, (4) औद्योगिक नीति-1980, (5) औद्योगिक नीति-1990 तथा (6) औद्योगिक नीति-1991 भारत में औद्योगिक विकास पर औद्योगिक नीतियों का व्यापक प्रभाव पड़ा है। औद्योगिक नीतियों के स्पष्ट प्रावधानों ने औद्योगिक विकास को बढ़ाया है। विभिन्न औद्योगिक नीतियों में उन समस्याओं को समाप्त करने का प्रयास किया गया है जो औद्योगिक विकास में रूकावट उत्पन्न करती हैं। औद्योगिक नीतियों में उद्योगों के विकास के लिए स्पष्ट नीतियाँ बनाई गई है। जिससे नए-नए उद्योगों की स्थापना की जा सके। उद्योगों का विकास होने से रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि होती है। बढ़ती जनसंख्या की समस्या के कारण बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है, जिसे कृषि अकेले दूर नहीं कर सकती, यहाँ उद्योगों की भूमिका अधिक बढ़ जाती है, उद्योगों का विकास होने से कृषि के विकास पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। इस संदर्भ में औद्योगिक नीतियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। औद्योगिक नीतियों के कारण न केवल उद्योगों का विकास हुआ है बल्कि औद्योगिक संरचना भी काफी मजबूत हुई है।

सूक्ष्म व मध्यम उद्यमों की समस्याएँ

सूक्ष्म व मध्यम उद्यमों की निम्नलिखित समस्याएँ हैं-

1. बड़ी प्रतियोगिता:- सूक्ष्म व मध्यम उद्योगों को बड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है। बड़े उद्योगों से इनकी सीधे प्रतिस्पर्धा होती है।

2. वित्त का प्रभाव:- सूक्ष्म व मध्यम उद्योगों को अक्सर वित्त की कमी का सामना करना पड़ता है। सूक्ष्म व मध्यम उद्योगों को अक्सर सस्ता ऋण भी उपलब्ध नहीं हो पाता। वित्त के अभाव में ये उद्योग बड़े उद्योगों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं।

3. उत्पादन तकनीक का पिछड़ापन:- सूक्ष्म व मध्यम उद्योग परंपरावादी तकनीक से उत्पादन करते हैं। जिससे वस्तु पर उनकी पूर्ति इकाई लागत अधिक आती है। इससे वस्तु की कीमत अधिक हो जाती है। कीमत अधिक होने पर वह वस्तु बड़े उद्योगों में तैयार वस्तु की अपेक्षा अधिक महंगी पड़ती है परिणामस्वरूप सूक्ष्म व मध्यम उद्योग प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाते हैं।

4. विपणन की समस्या:- बाजारों में सूक्ष्म व मध्यम उद्योगों के साथ-साथ बड़े उद्योगों का सामान भी पहुँचता है। बड़े उद्योगों की वस्तुओं की कीमत कम गुणवत्ता अधिक होती है जबकि सूक्ष्म व मध्यम उद्योगों की वस्तुओं की गुणवत्ता कम तथा कीमत अधिक होती है। इससे सूक्ष्म व मध्यम उद्योग विपणन में पिछड़ जाते हैं और पूरा बाजार वृहत उद्योग अपना लेता है।

5. कच्चे माल की समस्याः- बड़े उद्योग अपनी जरूरत से ज्यादा कच्चा माल खरीद लेते हैं और आने वाले कुछ वर्ष के लिए भी कच्चा माल जमा करके रखते हैं। क्योंकि किसी कारणवश यदि कच्चा माल नहीं मिला तो यह उद्योग टिक सके परंतु वित्त की समस्या के कारण सूक्ष्म व मध्यम उद्योग ऐसा नहीं कर पाते।

6. प्रबंधन की समस्याः- सूक्ष्म व मध्यम उद्योगों में अक्सर प्रबंधन की समस्या भी पाई जाती है। छोटे उद्योग होने के कारण इनमें कम लोग काम करते हैं जिसमें एक ही व्यक्ति को कई जिम्मेदारियाँ दे दी जाती है, जिससे उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है।

सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्योग

सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्योग विकास संगठन की स्थापना 1954 में की गई थी। यह संगठन सूक्ष्म एवं मध्यम उद्योग के सतत् एवं संगठित विकास के लिए शीर्ष निकाय के रूप में कार्य करता है। सूक्ष्म लघु तथा मध्यम उद्योग के मध्य निवेश की सीमा के आधार पर अंतर किया जाता है।

राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम लिमिटेड

1955 में अपने अस्तित्व में आने से लेकर अब तक राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम लिमिटेड सूक्ष्म एवं लघु उद्योग के लिए प्रोत्साहन, सहायता एवं पोषण के अपने मिशन के लिए कार्य कर रहा है। यह सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के हितों के प्रोत्साहन के लिए कार्य कर रहा है। निगम सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के बदलते परिदृश्य को पूरा करने के लिए समय-समय पर विभिन्न नई योजनाएं प्रारम्भ करता रहा है। इन सभी योजनाओं का मुख्य उद्देश्य सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के हितों को प्रोत्साहित करना है और उन्हें प्रतिभोगी एनएसआईसी की योजनाएं देश में सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के विकास को बढ़ावा देने में काफी उपयोगी पाई गई हैं। योजनाओं से परे सूचनाएं ग्यारहवीं योजना अवधि में निगम द्वारा सरकारी समर्थन से जारी रखने की है।

इनके अतिरिक्त देश में तीन राष्ट्रीय स्तर के उद्यमशीलता विकास संस्थान हैं- भारतीय उद्यमशीलता संस्थान, गुवाहाटी, राष्ट्रीय उद्यमशीलता एवं लघु विकास व्यापार संस्थान, नोएडा तथा राष्ट्रीय लघु उद्योग विस्तार प्रशिक्षण संस्थान, हैदराबाद।

12वीं पंचवर्षीय योजना एवं उद्योग

भारत सरकार ने देश के सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों को संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से कतिपय उत्पादों का विनिर्माण केवल इन्हीं उद्यमों द्वारा कराए जाने के लिए आरक्षित कर दिया था। 1991 में आर्थिक उदारीकरण के दौर में इस सूची से उत्पादों को बाहर किया जाने लगा। अप्रैल 2015 में सरकार ने अन्ततः उत्पादों के आरक्षण की यह व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त कर दी। ऐसा निवेश एवं प्रौद्योगिकीय उन्नतिकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किया गया है। इस सूची के समाप्त हो जाने से अब इन उत्पादों का विनिर्माण बड़े पैमाने पर होने लगेगा तथा अब अचार, सरसों का तेल, मूंगफली का तेल, लकड़ी का फर्नीचर, पटाखे, काँच की चूड़ियां, दियासलाई, स्टील की कुर्सियाँ-मेज, रोलिंग शटर्स, मोमबत्ती, कपड़े धोने के साबुन विदेशों से आयात किए जाने लगेंगे।

12वीं पंचवर्षीय योजना में प्रावधान-12वीं पंचवर्षीय योजना में भारत सरकार ने अपने प्राथमिकता में सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्योग को शामिल किया है और इसे विनिर्माण क्षेत्र का प्रमुख आधार मानते हुए रोजगार सृजन में इसकी भूमिका को महत्त्वपूर्ण माना है। साथ ही पूँजी एवं साख तक पहुँच बनाए रखने, प्रौद्योगिकी के माध्यम से उत्पादकता को बढ़ाने, विपणन एवं उत्पादन आगत में आने वाली समस्या को दूर करने आदि के लिए अनेक संस्थानों की स्थापना का लक्ष्य रखा है।

वर्तमान परिस्थिति-सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग क्षेत्र (एमएसएमई) देश की जीडीपी में 37.5% का अंशदान करते हैं। इनकी भूमिका 'मेक इन इंडिया' कार्यक्रम को भी मजबूत बनाने में महत्त्वपर्ण है। वर्तमान में नए एमएसएमई स्थापित करने और विद्यमान एमएसएमई की वृद्धि व विकास के लिए अनेक कार्यक्रम किए जा रहे हैं।

1. प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम

2. सूक्ष्म और लघु उद्यम समूह विकास कार्यक्रम

3. लघु और मध्यम उद्यमों के लिए ऋण गारंटी फण्ड

4. निष्पादन और ऋण रेटिंग स्कीम

5. प्रशिक्षण संस्थाओं को सहायता और

6. परंपरागत उद्योगों को उन्नत करने के लिए फण्ड स्कीम

सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम वर्चुअल क्लस्टर-यह उद्योग वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के रीढ़ की हड्डी बना हुआ है। एमएसएमई मंत्रालय ने इस वर्चुअल क्लस्टर की शुरूआत अभी हाल में ही की है। इसके आने से सभी उद्यमी वर्ग एक प्लेटफार्म के माध्यम से एक दूसरे से जुड़ सकते हैं ताकि वे अपने व्यापार को बढ़ा सकें और सूचनाओं का आदान प्रदान कर सकें। इस क्लस्टर डेवलेपमेंट प्रोग्राम के तहत मंत्रालय ने 850 उद्यमियों को सहायता पहुँचाई है।

लघु उद्यमों के विकास हेतु कार्यक्रम

लघु उद्यमों के विकास के लिए भारत सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं-

माइक्रो फाइनेंस कार्यक्रम-एमएसएमई 2003-04 से माइक्रो फाइनेंस कार्यक्रम चला रहा है, जिसे सिडबी के माइक्रो क्रेडिट स्कीम से जोड़ दिया गया है। स्कीम के तहत भारत सरकार सिडबी को पोर्टफोलियो रिस्क फंड' (पीआरएफ) में राशि देती है। जिसे एमएफआई से ऋण आवश्यकताओं के लिए जमानत राशि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। पीआरएफ के तहत माइक्रो फाइनेंस इंस्टीट्यूशन (एमएफआई) एनजीओ की हिस्सेदारी ऋण राशि का 2.5 प्रतिशत 25 प्रतिशत जमानत राशि के बराबर और शेष 7.5 प्रतिशत जमानत राशि) का समायोजन योजना के तहत सरकार द्वारा दी गई राशि से किया जाता है। इस राशि का इस्तेमाल राज्यों को इस संदर्भ में ऋण देने के लिए किया जाता है।

सूक्ष्म एवं लघु उद्योग-क्लस्टर विकास कार्यक्रम (एमएसई-सीडीपी) सूक्ष्म, लघु या मध्यम उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए वर्ष 1998 में एक योजना लागू की गई जिसका नाम था-समेकित तकनीकी उन्नयन तथा प्रबंधन योजना (इंटीग्रेटेड टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन एण्ड मैनेजमेंट प्रोग्राम यानी यूपीटीईसीएच) अगस्त, 2003 में इस योजना का नाम बदल दिया गया और इसका नाम रखा गया 'स्मॉल इंडस्ट्री क्लस्टर्स डेवलपमेंट प्रोग्राम' (एसआईसीडीपी) यानी लघु उद्योग क्लस्टसं डेवलपमेंट प्रोग्राम का उद्देश्य है-क्षमता विकास, मार्केटिंग विकास निर्यात प्रोत्साहन, दक्षता विकास, तकनीकी उन्नयन आदि तथा कॉमन सुविधाएं उपलब्ध करना।

राजीव गांधी उद्यमी मित्र योजना (आरजीयूएमवाई)- राजीव गांधी उद्यमी मित्र योजना (आरजीयूएमवाई) का उद्देश्य पहली सीढ़ी के क्षमतावान उद्यमियों को सहायता प्रदान करना है। यह योजना पंजीकृत उद्यमियों को परियोजना रिपोर्ट तैयार करने, वित्त व्यवस्था, प्रौद्योगिकी चयन, विपणन में सहयोग, संयंत्र और मशीनरी की स्थापना, विभिन्न स्वीकृतियों अनुमतियों और अनापत्ति प्रमाणों को हासिल करने में मदद करती है।

क्रेडिट रेटिंग स्कीम-यह योजना 2005 में शुरू की गई। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) मंत्रालय की ओर से एनएसआईसी योजना का क्रियान्वयन करती है। योजना के तहत सात मान्यता प्राप्त रेटिंग एजेंसियों केयर, क्रिसिल, इन एंड ब्रैडस्ट्रीट (डी एंड बी), एफआईटीसीएच आईसी. आरए, ओएनआईसीआरए और एसएमईआरए को रेटिंग का काम सौंपा गया है। एमएसएमई इनमें से किसी को चुन सकती है। सूक्ष्म और लघु उद्योग (एमएसई), मध्यम उद्योग इस योजना में नहीं है। इसका उद्देश्य इन उद्योगों को वर्तमान प्रचालन की ताकत और कमियों का पता लगाकर अपनी संगठनात्मक शक्ति और ऋण पात्रता को और मजबूत बनाना है। इसके तहत सूक्ष्म और लघु उद्योगों द्वारा भुगतान, की जाने वाली रेटिंग शुल्क पर केवल पहले साल अधिकतम 75 प्रतिशत या 40 प्रतिशत जो भी कम हो की सब्सिडी दी जाती है।

खादी और ग्रामीण उद्योग आयोग (केवीआईसी)-खादी और ग्रामीण उद्योग सरकार के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत काम करता है। आयोग का मुख्यालय मुम्बई और छह क्षेत्रीय कार्यालय नई दिल्ली, भोपाल, बंगलुरु, कोलकाता, मुम्बई और गुवाहाटी में है इसका गठन खादी और ग्रामीण उद्योग आयोग अधिनियम, 1956 (1956-61) के तहत हुआ था। यह मंत्रालय के अंतर्गत संवैधानिक संस्था है। यह खादी और ग्रामीण उद्योगों के संवर्धन में लगा हुआ है जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर मिले और ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत हो। केवीआईसी विकेन्द्रित क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने वाला एक महत्त्वपूर्ण संगठन है। संगठन कौशल सुधार, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, अनुसंधान और विकास विपणन आदि के कार्य करता है और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार/स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में मदद करता है।

केवीआई के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-

(i) ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने का सामाजिक उद्देश्य ।

(ii) बिक्री योग्य वस्तुओं के उत्पादन का आर्थिक उद्देश्य ।

(iii) लोगों में आत्मनिर्भरता और ग्रामीण समुदाय की भावनाओं को मजबूत करना व्यापक उद्देश्य।

लघु उद्योगों पर विभिन्न समितियाँ

लघु उद्योगों की समस्याओं का अध्ययन करने और उनके विकास हेतु सुझाव देने के लिए भारत सरकार द्वारा अनेक समितियों का गठन किया गया है-

1. आबिद हुसैन समिति- इस समिति का गठन दिसंबर 1995 में किया गया था। इस समिति ने अपनी सिफारिशें 1997 में सौंप दी थी। समिति की प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित हैं-

1. लघु उद्योगों में निवेश सीमा को मौजूदा र 60/75 लाख से बढ़ाकर ₹3 करोड़ किया जाए।

2. लघुत्तर इकाइयों (Tiny Units) में निवेश सीमा ₹ 5 लाख से बढ़ाकर ₹ 3 करोड़ किया जाए।

3. लघु उद्योगों के लिए उत्पादों के आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त किया जाए (अक्टूबर 2008 तक 21 उत्पादों का उत्पादन लघु उद्योगों के लिए आरक्षित था)।

4. लघु उद्योगों में विदेशी पूँजी निवेश की 24 प्रतिशत की मौजूदा सीमा को समाप्त किया जाए।

5. लघु उद्योगों के हितों को ध्यान रखना।

6. लघु उद्योगों के वित्तीयन हेतु नायक समिति की सिफारिशों को शीघ्र लागू किया जाए।

7. अति लघु उद्योगों को अधिकाधिक सहायता देने को एक रिवाल्विंग फण्ड की स्थापना की जाए।

8. सेवा क्षेत्र की लघुस्तरीय इकाइयों को भी लघु उद्योग क्षेत्र में शामिल किया जाए तथा लघु उद्योग क्षेत्र को लघुस्तरीय उद्यम क्षेत्र के नाम से जाना जाए।

9. एक प्रकार के एक ही स्थान पर केन्द्रित लघुस्तरीय उद्यम समूहों के लिए 'क्रेडिट रेटिंग' की प्रणाली विकसित की जाए।

2. मीरा सेठ समिति-हथकरघा क्षेत्र से संबंधित मीरा सेठ समिति ने अपनी सिफारिशें 21 जनवरी, 1997 को केन्द्रीय मंत्रालय को प्रस्तुत कर दी थीं। कुछ प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित थीं-

• समिति ने ₹ 500 करोड़ का एक राष्ट्रीय हथकरघा ऋण कोष स्थापित करने का सुझाव दिया था।

गैर-सरकारी क्षेत्र के बुनकरों को इस कोष से ऋण देने की सिफारिश की गई थी।

• बुनकरों को हथकरघा खरीदने, हैंडयान पर सब्सिडी देने आदि के लिए समिति ने एक आपदा राहत योजना लागू की सिफारिश की थी।

3. कपूर समिति की सिफारिशे-कपूर समिति का गठन लघु उद्योगों को ऋण उपलब्ध करवाना एवं उसका वितरण सुनिश्चित करने संबंधी सुझाव देने के लिए किया गया था। समिति की कुल 128 सिफारिशों मैं से भारतीय रिजर्व बैंक ने 35 सिफारिशें स्वीकार की हैं एवं लागू भी कर दी है।

4. टी.के.ए. नायर समिति की सिफारिशें-प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने टी.के.ए. नायर की अध्यक्षता में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों क्षेत्र के लिए कार्य योजना हेतु उच्च स्तरीय कार्यबल का गठन किया था। नायर समिति ने जनवरी 2010 में अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप दी है। समिति ने एम.एस.एम.ई क्षेत्र के विकास और संवर्धन के लिए एक कार्ययोजना प्रस्तुत की है। समिति ने एम.एस.एम.ई. क्षेत्र को बढ़ावा और राहत के लिए (विशेषकर आर्थिक मंदी के प्रभाव से) संस्थागत और कार्यक्रम आधारित कार्यसूची की संस्तुति की है। समिति ने देश के क्षेत्र के उद्यमिता और विकास के लिए सहायक वातावरण के सृजन हेतु अनुकूल विधिक और नियामक ढांचे के गठन करने की सलाह दी है। इसके साथ ही सूक्ष्म उद्यमों के लिए विशिष्ट ऋण हेतु विशेष फण्ड का गठन, सरकारी और सार्वजनिक उपक्रमों के लिए खरीद नीति प्रस्तावित करना, जिसके अंतर्गत इनको कुल खरीद के कम से कम 20 प्रतिशत एम.एस.एम.ई. क्षेत्रों में करने का लक्ष्य अगले पांच वर्ष के लिए हो।

सार्वजनिक उपक्रम

उपक्रमों को उनके अंशधारिता के आधार पर केन्द्रीय सार्वजनिक, उपक्रम, निजी उपक्रम, संयुक्त उपक्रम और सहकारी उपक्रम में विभाजित किया गया है।

केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम

भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित प्रकार की अर्थव्यवस्था है जिसमें सरकार की अंशधारिता अधिक होती है। अतः स्वामित्व भी सरकार के पास ही होता है। 31 मार्च, 2014 के अनुसार विभिन्न मंत्रालयों, विभागों के प्रशासनिक नियंत्रण में कुल 290 केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम (सीपीएसई) विद्यमान थे। इनमें 234 चल रहे थे और 56 निर्माणाधीन थे। उनमें से तेल और प्राकृतिक गैस निगम लि. ONGL कोल इण्डिया लि. (CIL) एनटीपीसी, भारत तेल निगम लि. और एन.एम.डी.सी. लि. वर्ष 2013-14 के दौरान सर्वाधिक लाभ कमाने वाली 5 सीजीएसई थे, इसके अलावा भारत संचार निगम लि. (B.S.N.L.) एयर इंडिया लि., हिन्दुस्तान फोटो फिल्म, मैन्यूफैक्चरिंग केबल लि. और स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लि. सर्वाधिक घाटे वाली 5 सीपीएसई थीं। उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों की कुल बाजार पूँजी में सहभगिता 13.1% -13.44% है।

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का वर्गीकरण

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को सामान्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-

1. महारत्न              2. नवरत्न            3.मिनीरत्न

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम मंत्रालय का प्रबंधन एवं प्रशासनिक नियंत्रण होता है।

1. महारत्न-प्रारंभिक रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की सूची थी। लेकिन 2010 में भारत सरकार ने महारत्न कंपनियों की एक सूची तैयार की। महारत्न दर्जा प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को निम्नलिखित मानदण्ड पूरे करने होते हैं।

1. कंपनी शेयर बाजार में सूचीबद्ध हो।

2. पिछले तीन वर्षों में कंपनी का औसत कारोबार 25,000 करोड़ रुपए रहा हो।

3. इस दौरान कंपनी ने 5,000 करोड़ रुपए का औसत शुद्ध लाभ अर्जित किया हो।

4. तीन वर्षों में कंपनी का नेटवर्थ औसत 15,000 करोड़ रुपए रहा हो।

5. कंपनी के पास नवरत्न का दर्जा हो।

6. कंपनी का विदेश में भी कारोबार हो।

वर्तमान में महारत्न कंपनियों के अंतर्गत 10 कंपनियाँ शामिल है-

1. कोल इण्डिया लिमिटेड (CIL) Coal India Limited.

2. इण्डियन ऑयल कार्पोरेशन लमिटेड (IOC) Indian Oil Corporation Limited

3. एनटीपीसी (National Thermal Power Corporation)

4. सेल (Steel Authority of India Limited)

5. ओएनजीसी (Oil and Natural Gas Corporation)

6. भेल (Bharat heavy Electronics Limited)

7. गेल (Gas Authority of India Limited)

8. भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (Bharat Petroleum Corporation Limited)

9. हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉपोरेशन लिमिटेड (Hindustan Petroleum Corporation Limited)

10. पॉवर ग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (Power Grid Corporation of India Limited)

2. नवरत्न-वर्ष 1997 में भारत सरकार ने नवरत्न योजना शुरू की थी। इन कंपनियों में वे सभी कंपनियाँ शामिल थीं जिनमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशाल उद्यमों के रूप में उभरने की क्षमता थी, नवरत्न योजना शुरू करने के दौरान इसमें 9 कम्पनियाँ शामिल थी। लेकिन महारत्न दर्जा शुरू होने के पश्चात इसकी अनेक कंपनियों को महारत्न में शामिल कर दिया गया। ये 9 कंपनियाँ थीं-वीएचइएल, बीपीसीएल, जीएआईएस, एचपीसीएल, आईओसी, एमटीएनएल, एनटीपीसी, ओएनजीसी से - नवरत्न कंपनियाँ ₹ 1000 करोड़ तक के निवेश के लिए स्वतंत्र होती हैं।

नवरत्न दर्जा हासिल करने के लिए निम्नलिखित मानदण्डों को पूरा करना जरूरी होता है। जैसे-

इन सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को कुल 100 में 60 अंक प्राप्त करने होते हैं। ये अंक छह मानकों द्वारा निर्धारित होते हैं-

1. कुल परिसम्पत्ति की तुलना में विशुद्ध लाभ ।

2. कुल उत्पादन लागत व सेवा लागत की तुलना में लागत।

3. पूंजी-नियोज्य की तुलना में मूल्यह्रास से पूर्व लाभ ब्याज व कर।

4. टर्नओवर की तुलना में मूल्यास से पूर्व लाभ ब्याज व कर।

5. प्रति शेयर अर्जन।

6. अंतःत्रक प्रदर्शन।

वर्तमान में 14 सार्वजनिक कंपनियों को नवरत्न कंपनियों की सूची में शामिल किया गया है।

महानगर टेलीफोन निगम लि. (MTNL)

हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लि. (HAIL)

राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (NMDC)

• नेशनल एल्यूमिनियम कंपनी (NALCO)

• भारतीय नौवहन निगम (SCI)

भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लि. (BPCL)

भारत इलेक्ट्रॉनिक लि. (BEL)

ग्रामीण विद्युतीकरण निगम लि. (REC)

पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन (PEC)

• नैवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन (NLC)

• राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड (RINL)

• नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कार्पोरेशन लि. (NBCCL)

• इंजीनियरिंग इंडिया लिमिटेड (EIL)

कंटेनर कार्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (CONCOR)

3. मिनीरत्न- सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों (PSUs) के लिए महारत्न, नवरत्न के अलावा मिनीरत्न की श्रेणी को बनाया गया है। ये दो रूपों में होती है।

1. मिनीरत्न I 2. मिनीरत्न II

1, मिनीरत्न I-  इसके लिए भारत सरकार ने कुछ मानक तैयार किए हैं-

सार्वजनिक क्षेत्र की ऐसी कंपनियाँ जो लगातार 3 वर्षों से या तो लाभ में रही हों या ₹ 30 करोड़ का कुल लाभ हुआ हो या प्रत्येक वर्ष इससे अधिक का लाभ प्राप्त हुआ हो।

• मिनीरत्न कंपनियाँ ₹ 500 करोड़ तक की धनराशि को या अपनी निवल सम्पत्ति (Net Worth) जो कि कम हो के बराबर बिना सरकार की अनुमति के खर्च कर सकती है। वर्तमान में इसमें 48 सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ शामिल हैं।

2. मिनीरत्न II - इसके लिए भी कुछ मानक बनाए गए हैं।

• ऐसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों जो पिछले तीन वर्षों से लगातार लाभ की स्थिति में रही हों और इन्हें अपनी कुल निवल पूँजी का 50% या ₹ 300 करोड़ की बिना सरकारी स्वीकृति के निवेश की अनुमति प्राप्त होती है। वर्तमान में इस सूची में 15 सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ शामिल हैं।

औद्योगिक क्षेत्र के विकास हेतु पहल

औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिए भारत सरकार द्वारा अनेक कार्यक्रम और रणनीतियाँ बनाई गई हैं। जैसे-मेक-इन इंडिया, डिजीटल इंडिया, राष्ट्रीय औद्योगिक कॉरिडोर प्राधिकरण का सृजन, पर्यावरण और वन संबंधी स्वीकृतियों को सुचारू बनाना तथा श्रम सुधार जैसी गतिविधियाँ ।

मेक इन इंडिया

भारत सरकार द्वारा 25 सितंबर, 2015 को कंपनियों द्वारा भारत में अपने उत्पादों को विनिर्मित करने हेतु इस कार्यक्रम की शुरूआत की गई थी। इसका लोगो 'शेर' को बनाया गया है। इस अभियान को वीडेन केनेडी (Wieden + Kennedy) ने डिजाइन किया है जो कि पूर्व में इनक्रेडिबल इंडिया और भारतीय वायु सेना के लिए भी काम कर चुकी है।

उद्देश्य- 'मेक इन इंडिया' अभियान भारत में पूँजीगत निवेश वस्तु निर्माण और दुनिया भर से व्यवसायों के आकर्षित करने का अभियान है। इस कार्यक्रम के माध्यम से कैपिटल गुडस को बढ़ावा दिया जाना निर्धारित किया गया है। इसके अलावा नवोन्मेष को प्रोत्साहित करना कौशल विकास का संवर्द्धन करना, बौद्धिक संपदा का संरक्षण और बेहतरीन विनिर्माण अवसंरचना का निर्माण करना है। इस कार्यक्रम के तहत निवेशकों की सहायता के लिए इन्वेस्ट इंडिया में एक निवेशक सुविधा केन्द्र स्थापित किया गया है।

इन्वेस्ट इंडिया

निवेश संवर्द्धन प्रयासों को सुदृढ़ करने और विदेशी निवेशकों, विशेषकर लघु और मध्यम उद्यमियों तथा परिवार स्वामित्व वाले विदेशी उद्यमों को संगठित रूप से तात्कालिक सेवाएं प्रदान करने के लिए भारत सरकार ने विशेष प्रयोजन माध्यम अर्थात् 'इन्वेस्ट इंडिया' प्रारंभ किया है, यह वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के डीआईपीपी तथा भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल परिसंघ (फिक्की) और राज्य सरकारों का संयुक्त उद्यम है। 'इन्वेस्ट इंडिया' भारत में व्यापार करने के सभी पहलुओं के बारे में जानकारी प्रदान करने, नीति एवं नियामक मुद्दों के बारे में निवेशकों का मार्गदर्शन करने, भारत के लिए सम्बद्ध क्षेत्रों और प्रौद्योगिकियों के बारे में विशेष अध्ययन करने के लिए प्रथम संदर्भ बिंदु के रूप में काम करता है। यह निवेशकों को त्वरित सेवा प्रदान करता है।

विवरण- मेक इन इंडिया में वृद्धि, कौशल वृद्धि आदि का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस अभियान में इन 25 क्षेत्रों के संदर्भ में पोर्टल भी जारी कर दिए गए हैं ताकि इनके लिए लाइसेंस प्राप्त करने में आसानी हो। साथ ही लाइसेंस की अवधि को 3 वर्ष तक के लिए मान्य किया गया है। अगस्त 2014 में इस अभियान के लिए ही रक्षा क्षेत्र में 49% एफडीआई और रेलवे अद्यः संरचना में 100% एफडीआई की अनुमति प्रदान कर दी गई। जो कि पूर्व में क्रमश: 26% और 0% था। उल्लेखनीय है कि इन अभियान के निर्धारित 25 क्षेत्रों में से अन्तरिक्ष (74%) रक्षा (45%) तथा न्यूज मीडिया (26%) को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों में 100% एफडीआई की अनुमति प्रदान की गई है।

कौशल विकास

औद्योगिक क्षेत्रों के विकास के लिए भारत सरकार ने कौशल विकास पर भी बल दिया है। कौशल और उद्यमशील कार्यकलापों को बढ़ावा देने के लिए कौशल विकास और उद्यमिता का नया मंत्रालय स्थापित करने के बाद विभिन्न केन्द्रीय मंत्रालयों/ विभागों में कौशल प्रशिक्षण से संबंधित सामान्य मापदण्ड तय करने का कार्य किया जा रहा है। वर्तमान में 31 क्षेत्र कौशल परिषदें (एसएससी) अब प्रचलन में है और उन्हें 'मेक इन इंडिया' के 25 क्षेत्रों के साथ एकीकृत कर दिया गया है।

पर्यावरण और वन संबंधी स्वीकृतियों को प्रभावी बनाना

भारत सरकार ने पर्यावरण, तटीय विनियमन क्षेत्र (सीआरजेड) और वन संबंधी स्वीकृतियों के आवेदनों को ऑनलाइन जमा करने की प्रक्रिया शुरू की गई है। साथ ही औद्योगिक शैक्षिक विकास सुनिश्चित करने के लिए ऐसे औद्योगिक शेडों के निर्माण की परियोजना में पर्यावरण संबंधी स्वीकृति लेने की शर्त हटा दी गई है जहाँ संयंत्र, मशीनरी, शैक्षिक संस्थाएं और छात्रावास हों।

श्रम क्षेत्र में सुधार

भारत सरकार द्वारा एक श्रम सुविधा पोर्टल शुरू किया गया है ताकि यूनिटों (इकाईयों) का ऑनलाइन पंजीकरण, यूनिटों द्वारा स्वतः प्रमाणित, सरलीकृत एकल ऑनलाइन रिटर्न जमा करना, जोखिम आधारित मापदण्डों के अनुसार कम्प्यूटरीकृत प्रणाली के जरिए पारदर्शी श्रम निरीक्षण योजना से संबंधित जानकारी को प्रदान करना आदि है। इसके अलावा कर्मचारियों को अपने भविष्य निधि खाते के सफल संचालन के लिए सार्वभौम खाता नंबर दिया गया है। साथ ही प्रशिक्षु' अधिनियम 1961 में संशोधन भी दिया गया है और प्रशिक्षुओं को नियोजित करने के लिए विनिर्माण क्षेत्र में एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम)

की सहायता से प्रशिक्षु प्रोत्साहन योजना की शुरूआत की गई है।

डिजिटल इंडिया

भारत सरकार के सभी विभागों एवं लोगों को एकीकृत करने के लिए प्रारंभ की गई डिजिटल इंडिया पूरी तरह से पेपर वर्क (कागजी कार्य) को समाप्त करके इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्था को स्थापित करने पर आधारित है। इसके अलावा इसमें ग्रामीण क्षेत्रों को हाई स्पीड इन्टरनेट कनेक्शन से जोड़ने की योजना भी शामिल है। डिजिटल इंडिया में 3 घटक शामिल हैं।

1. डिजिटल बुनियादी सेवाओं का विकास

2. डिजिटल सेवाओं का वितरण और

3. डिजिटल साक्षरता।

इस परियोजना के 2015 तक पूरे होने की उम्मीद है। इस परियोजना को पूरी तरह से आई टी और संचार मंत्रालय के अधीन "डिजिटल भारत सलाहकार समूह" द्वारा निगरानी एवं नियंत्रित किया जाएगा।

नेशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क परियोजना

यह परियोजना डिजिटल इंडिया पहल की सबसे महत्त्वपूर्ण एवं चुनौती जन्य परियोजना है। इसका क्रियान्वयन भारत सरकार की इकाई भारत ब्रॉड बैंड नेटवर्क लिमिटेड (BSNL) द्वारा किया जाएगा। एनओएफएन परियोजना ही मूल रूप से डिजिटल इंडिया की संरक्षक है। इस परियोजना में वीवीएनएल ने यूनाइटेड टेलीकॉम लिमिटेड को भारत के 25000 गाँवों को वर्ष 2017 तक इन्टरनेट से जोड़ने का आदेश भी दिया है।

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की भूमिका

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की भूमिका को हम निम्न तथ्यों के द्वारा समझ सकते हैं-(1) रोजगार बढ़ाने में सहायक, (2) शुद्ध घरेलू उत्पाद में महत्वपूर्ण योगदान, (3) प्राकृतिक संसाधनों का अधिक विकास, (4) विकास प्रवृतिक, (5) संरचनात्मक सुविधाओं को बढ़ाने में सहायक, (6) अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण, (7) साधनों की गतिशीलता, (8) सामाजिक कल्याण में सहायक, (9) अनुमाप की मितव्ययताओं की संभावना, (10) रक्षा सम्बन्धी उद्योगों पर नियंत्रण, (11) सन्तुलित आर्थिक विकास, (12) पूँजी निर्माण, (13) विदेशी कमाई का साधन, (14) सन्तुलित क्षेत्रीय विकास।

सार्वजनिक उद्यमों का विनिवेश और निजीकरण

विनिवेश वह प्रक्रिया है, जिसके तहत सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की इक्विटी को सरकार को बेचा जाता है। भारत में विनिवेश तीन मुख्य अतर्सबंन्धित क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है, जो निम्नलिखित हैं-

(i) सार्वजनिक क्षेत्र में सुधारों के साधन के रूप में,

(ii) आर्थिक सुधारों के एक भाग की शुरुआत 1991 के मध्य में हुई। 'उद्योगों को अनारक्षित करने में',

(iii) प्रारंभ में बजट के आवंटन के लिए संसाधनों को बढ़ाने के रूप में इसे प्रोत्साहित किया गया।

1980 के दशक में भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के सुधारों के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों की कार्यात्मक स्वायत्तता को बढ़ाने पर बल दिया गया ताकि उनकी कार्यकुशलता बढ़े।

विनिवेश के प्रकार

(i) सांकेतिक विनिवेश: भारत में विनिवेश की शुरुआत अत्यंत राजनीतिक सावधानी के साथ हुई जिसके कारण इसे एक सांकेतिक विनिवेश कहा गया।

(ii) सामारिक विनिवेश: एक ऐसी प्रक्रिया बनाने के लिए, जिसके द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की कार्यकुशलता को बढ़ाया जा सके तथा सरकार अपने आय को उन क्रियाओं से भार मुक्त कर सके, जिसमें निजी क्षेत्र ने बेहतर कार्यक्षमता विकसित की है।

भारत की वर्तमान विनिवेश नीति की घोषणा यू.पी.एस. सरकार के विनिवेश के लिए निम्नलिखित नीति अपनाने के लिए वचनबद्ध है

(i) नागरिकों को सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (पीएसयू) के शेयर खरीदने का पूरा अधिकार है।

(ii) सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम देश की संपत्ति हैं और इस संपत्ति को लोगों के हाथ में होना चाहिए और कम से कम 51 फीसदी और पीएसयू के प्रबंधन का नियंत्रण।

केंद्रीय सार्वजिनक क्षेत्र के उपक्रम (सीपीएसई)

भारत की विकास-प्रक्रिया में सीपीएसई (केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम), जो पीएसयू के नाम से भी लोकप्रिय क्षेत्र के उपक्रमों, ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विनिवेश के लाभ

विनिवेश के जरिए जनता की समृद्धि में भागीदारी द्वारा जनता में केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उद्योगों के प्रति स्वामित्व का विकास, आर्थिक विकास को गति देने और उच्च स्तर व्यय हेतु सरकार के संसाधनों में विस्तार के लिए सीपीएसई (केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम) में सार्वजनिक निवेश के कुशल प्रबंधन में सक्षमता, सीपीएसई को स्टॉक एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध कराने की प्रक्रिया से संस्कृति के विस्तार में सहयोग प्राप्त होता है और सरकार के लिए बजटीय संसाधनों में वृद्धि होती है।

वर्तमान विनिवेश नीति की मुख्य विशेषताएँ

विनिवेश पर नीति में महत्वपूर्ण विकास हुआ है। इस नीति की मुख्य विशेषताओं में निम्नलिखित शामिल हैं- (क) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम राष्ट्र की संपत्ति है और यह सुनिश्चित करने के लिए कि यह संपत्ति जनता के हाथों में है, सीपीएसई में जनता के स्वामित्व काविकास (ख) सीपीएसई की कम संख्या में शेयर बिक्री द्वारा विनिवेश करते समय सरकार अपने पास शेयर का अधिक हिस्सा रखेगी यानि, शेयरहोल्डिंग का कम-से-कम 51 प्रतिशत और सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रम का प्रबंधकीय नियंत्रण के स्थानांतरण के साथ सरकार की शेयरधारिता सीपीएसई विनिवेश (दिनांक 20 जुलाई, 2016 को)

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