JPSC_Planning_Strategy (योजना की रणनीति)

Planning Strategy (योजना की रणनीति)

(भारतीय पंचवर्षीय योजनाओं के उद्देश्य और रणनीति, राष्ट्रीय विकास परिषद, योजना आयोग के कार्य और भूमिका)

आर्थिक नियोजन का अर्थ

वर्तमान युग में आर्थिक नियोजन आर्थिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन चुका है। विशेषकर अल्पविकसित देशों की विभिन्न आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं को हल करने में आर्थिक नियोजन को भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि अर्थशास्त्रियों में आर्थिक नियोजन की संकल्पना के सम्बन्ध में सहमति नहीं है और फिर भी विभिन्न देशों में आर्थिक नियोजन का स्वरूप अलग अलग रहा है। जिन अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक विकास राज्य द्वारा संचालित एवं नियंत्रित शक्तियों के माध्यम से होता है उसे नियोजन या समाजवादी अर्थव्यवस्था कहते हैं। जबकि बाजार या कीमत तंत्र द्वारा संचालित आर्थिक विकास को 'अनियोजित या पूँजीवादी अर्थव्यवस्था' कहते हैं।

जब सरकार द्वारा देश के आर्थिक संसाधनों का आंकलन कर, उसका उपयोग किन्हीं पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को एक निश्चित समय में प्राप्त करने के लिए तार्किक ढंग से किया जाता है तो इसे आर्थिक नियोजन कहते हैं। आर्थिक नियोजन एक तकनीक है जिसके माध्यम से राज्य अर्थव्यवस्था के प्रमुख साधनों को प्राप्त करने, उसका प्रयोग करने तथा उसका विकास करने से संबंधित निर्णयों तथा नीतियों को, एक निश्चित समयावधि में अपने पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयोग करता है।

कुछ अर्थशास्त्री सरकारी हस्तक्षेप को ही नियोजन मानते हैं, परन्तु बिना नियोजन के भी बाजार तंत्र में सरकारी हस्तक्षेप हो सकता है। प्रो. डी.आर, गाडगिल के अनुसार, "आर्थिक विकास के लिए आयोजन का अर्थ है योजना प्राधिकरण, जो अधिकांश अवस्थाओं में राज्य की सरकार ही होती है, के द्वारा आर्थिक क्रिया का बाह्य निदेशन या नियमन करना।" एम.डी. डिकिन्सन के अनुसार, 'आर्थिक नियोजन प्रमुख आर्थिक निर्णयों का निर्माण है जिसमें सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में विस्तृत सर्वेक्षण के आधार पर, एक निर्धारक सत्ता द्वारा सोच-विचार कर, यह निर्णय किया जाता है कि क्या एवं कितना उत्पादन किया जाएगा और उनका वितरण किसको होगा।"

इस प्रकार नियोजन निश्चित संसाधनों के द्वारा पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने की एक सुविचारित तकनीक है, जिसके अंतर्गत एक निश्चित समयावधि और क्षेत्र के लिए योजना बनाई जाती है।

आर्थिक नियोजन का महत्व एवं प्रासंगिकता

अनेक कारणों से नियोजन, विशेषकर अल्प विकसित देशों के, विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण है।

बाजार तंत्र की कमजोरियाँ

बाजार तंत्र की सीमाओं तथा कमियों को देखते हुए आर्थिक नियोजन आवश्यक हो जाता है। विशेषकर ऐसे देश में जहां जनसंख्या में बड़े तबके की क्रयशक्ति क्षमता काफी कम हो, लोग गरीब हों तथा अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा गैर-मौद्रिक हो। ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में नियोजन के जरिए संसाधनों का अधिसंख्य गरीब व कम आय वाली जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति में प्रयोग सम्भव हो पाता है। यहां आयोजनmबाजार तंत्र की कमियों व सीमाओं को कम करके उसे मजबूत करता है और उसमें सुधार लाता है।

संतुलित विकास की आवश्यकता

अर्थव्यवस्था के संतुलित विकास के लिए नियोजन आवश्यक है। बाजार तंत्र सिर्फ लाभ वाले क्षेत्रों में अधिक निवेश करता है जिससे अर्थव्यवस्था का असंतुलित विकास होता है तथा उत्पादन का वितरण भी काफीmअसमान होता है। नियोजन के माध्यम से राज्य दुर्लभ संसाधनों का उपयोग राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप अर्थव्यवस्था के संतुलित विकास के लिए करता है।

अल्प विकसित देशों में आर्थिक विकास के लिए आवश्यक विभिन्न कारकों तथा क्षेत्रों का समन्वय नियोजन के द्वारा ही सम्भव है।

आधारिक संरचना का विकास

विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में आवश्यक मात्रा में संसाधन जुटाने तथा आर्थिक व सामाजिक आधारिक संरचना का निर्माण करने में नियोजन की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। परिवहन, सिंचाई, ऊर्जा, बंदरगाह जैसी आर्थिक आधारिक सुविधाओं के विकास के बिना औद्योगिक तथा कृषि क्षेत्र की वृद्धि सम्भव नहीं है। इसी प्रकार शिक्षा, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य इत्यादि सामाजिक आधारित संरचना का विकास भी तीव्र आर्थिक विकास के लिए अनिवार्य है। आधारिक संरचना का विकास सामाजिक हित से जुड़ा हो न कि व्यक्तिगत लाभ से। इसलिए नियोजन द्वारा इसका विकास अर्थव्यवस्था में संतुलित व न्यायोचित विकास सुनिश्चित कर सकता है।

सामाजिक न्याय की आवश्यकता

बाजार तंत्र में उद्यमी उन आर्थिक गतिविधियों में संसाधनों को लगाता है जो शीघ्न और अधिक लाभ दे सकें। इसलिए वे अधिक आय वर्ग के लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उपयोग वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। वस्तुतः बाजार की शक्तियाँ इस प्रकार कार्य करती हैं कि आर्थिक शक्ति का संकेन्द्रण होता जाता है तथा समाज में आर्थिक विषमताएं बढ़ती जाती हैं। स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था का न्यायोचित विकास बाजार तंत्र के जरिए सम्भव नहीं है।

आर्थिक विकास के साथ सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना आर्थिक नियोजन का एक प्रमुख उद्देश्य होता है। अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में आय व धन की विषमताओं को कम करने, बेरोजगारी तथा प्रछन्न बेरोजगारी दूर करने और गरीबी को समाप्त करने में नियोजन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत में सामाजिक न्याय की दृष्टि रोजगार सृजन करने वाले तथा गरीबी निवारण कार्यक्रमों का विशेष महत्व रहा है।

उत्पादन तकनीकी

अल्पविकसित देशों में आर्थिक नियोजन का महत्व उत्पादन की तकनीकी समस्या से भी जुड़ा है। एक ओर नियोजित अर्थव्यवस्था में उद्यमी अपने लाभ को अधिकतम करने की प्रक्रिया में अत्यधिक पूँजी प्रधान तकनीकों का प्रयोग करते हैं। इसलिए बेरोजगारी की समस्या और गंभीर होती जाती है। वस्तुतः बाजार तंत्र रोजगारविहीन संवृद्धि को ही बढ़ावा देता है। विशेषकर अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में, जहां पूँजी की कमी तथा श्रम की अधिकता होती है, श्रम प्रधान तकनीकों के उपयोग को बढ़ावा देने में नियोजन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। देश में मानवीय संसाधनों का उचित इस्तेमाल तभी सम्भव है जब वैज्ञानिक ढंग से, नियोजन के माध्यम से मानव शक्ति का उपयोग किया जाए।

संसाधनों का न्यायोचित आवंटन

अल्पविकसित देशों में संसाधनों की कमी होती है। बाजार तंत्र

संसाधनों का विभिन्न उपयोगों में आवंटन निजी लाभ के आधार पर करता है, जिससे विलासिता की अनावश्यक वस्तुओं का उत्पादन बढ़ता है। नियोजन के माध्यम से सामाजिक लाभ को ध्यान में रखकर संसाधनों का आवंटन किया जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के संदर्भ में दीर्घकालिक विकास के लिए संसाधनों का न्यायोचित तथा अनुकूलतम आवंटन नियोजन के माध्यम से संभव हो जाता है।

स्थिरता के साथ आर्थिक विकास

विकास के साथ-साथ कीमत वृद्धि पर नियंत्रण के लिए आर्थिक नियोजनmआवश्यक है। बाजार तंत्र में व्यापार चक्रों के उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करने के लिए नियोजन की भूमिका महत्वपूर्ण है। अनियोजित अर्थव्यवस्था में विभिन्न वर्गों तथा क्षेत्रों के उत्पादन सम्बन्धी निर्णयों व नीतियों को एक साथ समन्वित करने की व्यवस्था न होने से अर्थव्यवस्था में स्थायित्व नहीं होता।

संसाधनों की व्यवस्था

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था मूलत: अधिक मांग या उपभोग पर आधारित होती है परन्तु अल्पविकसित देशों में आय कम होने के कारण मांग व उपभोग के साथ-साथ बचत का स्तर भी निम्न होता है। इन अर्थव्यवस्थाओं में बचत बढ़ाकर निवेश बढ़ाने के लिए मांग तथा उपभोग पर नियंत्रण जरूरी है जो कि नियोजन के माध्यम से ही सम्भव है। नियोजन के माध्यम से सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर मांग तथा उपभोग के नियंत्रण तथा नियमन के द्वारा संसाधनों का गतिशीलन इन अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक विकास का आधार है।

अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास को प्रारम्भ तथा तीव्र करना अल्पविकसित देशों में गरीबी के दुष्चक्र को समाप्त करने तथा आर्थिक विकास की प्रक्रिया शुरू करने और उसे तीव्र करने में नियोजन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐतिहासिक दृष्टि से इन अर्थव्यवस्थाओं मेंmस्वतः विकास सम्भव नहीं है। इसलिए विकास की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए संसाधनों के गतिशीलन से लेकर आधारिक संरचना के निर्माण तक नियोजन की भूमिका उल्लेखनीय हो जाती है। इससे विकास का एक वातावरण बनता है और निजी निवेश भी प्रोत्साहित होता है। जिससे आगे चलकर विकास की गति भी तेजी होती है।

अल्पविकसित देशों की विशिष्ट दशाएँ

विभिन्न अल्पविकसित देशों की अपनी विशिष्ट दशाओं तथा समस्याओं के कारण सरकारी हस्तक्षेप तथा आर्थिक नियोजन आवश्यक हो जाता है। इन देशों का सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक तथा आर्थिक ढांचा इस तरह का होता है तथा इनकी समस्याएं इतनी व्यापक होती है कि बिना नियोजन की इस अर्थव्यवस्थाओं को आधारभूत समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। यही नहीं, आर्थिक विकास के तेज होने की दशा में भी सामाजिक न्याय के साथ सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के तेज तथा स्थायित्वपूर्ण विकास के लिए नियोजन के द्वारा अर्थव्यवस्था का पथ-प्रदर्शन, निर्देशन, नियमन तथा नियंत्रण अत्यंत आवश्यक व अनिवार्य है।

भारत में आर्थिक नियोजन की आवश्यकता

लम्बे औपनिवेशिक शासन के पश्चात जब 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली तो अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक शोषण के कारण गतिहीन थी तथा अल्पविकास के कारण यहां बेरोजगारी, गरीबी, असमानता जैसी अनेकों आर्थिक समस्याएं मौजूद थीं। आर्थिक पिछड़ेपन के इस दुष्चक्र से निकलना बाजार तंत्र के भरोसे सम्भव नहीं था। भारत के प्रमुख उद्योगपतियों द्वारा तैयार 'बाम्बे योजना' में भी आर्थिक नियोजन की आवश्यकता को स्वीकार किया गया। आधारिक संरचना के निर्माण, पूँजीगत तथा भारी आधारभूत उद्योगों की स्थापना आदि में राज्य द्वारा नियोजन के माध्यम से पहल आवश्यक थी।

विकास की प्रारम्भिक अवस्था में देश में उपलब्ध संसाधनों की पर्याप्त जानकारी तथा उसका उचित प्रयोग करने के लिए आयोजन आवश्यक था। निवेश के लिए आवश्यक जानकारी तथा आंकड़ों के अभाव के साथ-साथ उद्यमिता तथा कुशल प्रबन्धन का भी अभाव था। इन अभावों को नियोजित निवेश के जरिए विकास की प्रक्रिया शुरू करके ही दूर किया जा सकता था।

स्वतंत्रता के समय देश विभाजन से उत्पन्न अनेक गम्भीर समस्याओं से निपटने के लिए भी नियोजन आवश्यक था। नियोजन को देश की मूल आर्थिक समस्याओं के समाधान का सहायक उपकरण माना गया। आर्थिक विकास की गति को तेज करने, उत्पादन तथा निवेश की मात्रा को बढ़ाने, जनसंख्या नियंत्रण इत्यादि के अतिरिक्त विदेशी व्यापार बढ़ाने जैसी अनेक समस्याओं के लिए नियोजन आवश्यक समझा गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय ही देश में नियोजित विकास के लिए पहले से ही थोड़ा बहुत अनुकूल वातावरण का निर्माण हो चुका था। भारत संभवत: पहला अल्पविकसित प्रजातान्त्रिक देश था जिसने आर्थिक विकास के लिए नियोजन का रास्ता चुना। देश में बाजार तंत्र और आर्थिक नियोजन की भूमिकाएं परस्पर पूरक रही हैं।

आर्थिक सुधारों के दौर में नियोजन की प्रासंगिकता

1991 में उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरु होने के बाद से सरकार ने नियोजन में सरकारी क्रियाकलापों में कटौती की है तथा निजी क्षेत्र की भूमिका का तेजी से विस्तार हुआ है। परन्तु नियोजन का महत्व अब भी बना हुआ है। आज विविध प्रकार की आर्थिक क्रियाओं को संचालित तथा समन्वित करने के लिए नियोजन जरूरी है। बाजार तंत्र की अनिवार्य अपूर्णताओं तथा कमियों से बचाकर अर्थव्यवस्था में तेज तथा स्थायित्व के साथ विकास करने के लिए नियोजन व राज्य की भूमिका आज भी महत्वपूर्ण है। सार्वजनिक तथा मेरिट वस्तुएं उपलब्ध कराने में राज्य की जिम्मेदारी आज कहीं और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। उदारीकरण के दौर में बढ़ती विषमताओं को कम करके सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने तथा गरीबी को कम करने में नियोजन की भूमिका आज कहीं अधिक प्रासंगिक है।

भारत में आर्थिक नियोजन की पृष्ठभूमि

भारत में स्वतंत्रता के समय, नेताओं तथा नीति-निर्माताओं के लिए नियोजन की अवधारणा नई नहीं थी। 1934 में एम. विश्वेसरैया की पुस्तक "प्लान्ड इकोनॉमी फॉर इण्डिया" में भारत के नियोजित विकास हेतु एक 10 वर्षीय आयोजन का प्रस्ताव था। 1938 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस द्वारा 'राष्ट्रीय नियोजन समिति' गठित की गई थी। इस समिति ने आयोजन के लिए सामग्री एकत्र करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। देश के प्रमुख आठ उद्योगपतियों ने 1943 में 'ए प्लान फॉर इकोनॉमिक डेवलेपमेंट फॉर इण्डिया' नामक शीर्षक से एक योजना तैयार की, जिसे 'बॉम्बे प्लान' कहा जाता है। स्पष्ट था कि भारत के उद्योगपतियों ने भी आर्थिक नियोजन की आवश्यकता को स्वीकार किया।

स्वतंत्रता के पूर्व कई अन्य व्यक्तियों द्वारा भी विकास योजनाएं प्रस्तुत की गई। साम्यवादी दल के नेता श्री एम.एन. राय द्वारा अप्रैल, 1944 में 10 वर्षीय 'पीपुल्स प्लान' प्रकाशित किया गया। इसी समय श्रीमननारायण ने गांधी जी के विचारों पर आधारित 'गांधियन प्लान' प्रस्तुत किया। उपरोक्त योजनाएं विभिन्न विचारधाराओं को परिलक्षित करती थी। इनमें से कोई भी योजना औपचारिक या आधिकारिक नहीं थी। इन सभी का उद्देश्य देश या आर्थिक विकास नियोजन के द्वारा किया जाए।

अगस्त 1944 में भारत सरकार ने आयोजन एवं विकास विभाग स्थापित किया और उसकी जिम्मेदारी सर ए, दलाल को सौंपी। इस विभाग ने अर्थव्यवस्था के पुर्ननिर्माण के लिए एक अल्पकालीन योजना तथा देश के आर्थिक विकास के लिए दीर्घकालीन योजना बनाई। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद नवम्बर, 1947 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने आर्थिकmप्रोग्नाम समिति की स्थापना की जिसके अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू थे। सितम्बर, 1946 में देश में अन्तरिम सरकार की स्थापना की गई और उसके तुरन्त बाद ही श्री के.सी. नियोगी की अध्यक्षता में एक सलाहकार योजना बोर्ड की स्थापना की गई जिसने अपना प्रतिवेदन दिसम्बर, 1946 में प्रस्तुत किया और सिफारिश की कि देश में नियोजन आवश्यक है। अतः एक स्थायी एवं स्वतंत्र योजना आयोग एवं सलाहकार समिति की स्थापना की जाए।

नीति आयोग की स्थापना

केंद्र सरकार द्वारा सरकार के थिंक टैंक के रूप में उसे नीतिगत एवं निर्देशात्मक गतिशीलता प्रदान करने तथा केंद्र और राज्य स्तरों पर सरकार को नीति के प्रमुख कारकों के संबंध में प्रासंगिक, महत्वपूर्ण, रणनीतिक एवं तकनीकी परामर्श उपलब्ध कराने के मूल उद्देश्यों के साथ योजना आयोग का स्थान लेने के लिए 'नीति आयोग' का गठन किया गया है।

• 1 जनवरी, 2015 को केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा एक प्रस्ताव के माध्यम से योजना आयोग पर 'नीति आयोग' (पूरा नाम 'राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान' (NITI: National Institution for Transforming India) की स्थापना किए जाने की घोषणा की गई। ज्ञातव्य है कि योजना आयोग का गठन भी 15 मार्च, 1950 को मंत्रिमंडलीय प्रस्ताव के माध्यम से ही किया गया था।

• प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गत वर्ष 68वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर की गई महत्वपूर्ण घोषणा के अनुरूप केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न राज्य सरकारों, संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञों और प्रासंगिक संस्थानों सहित सभी हितधारकों से व्यापक विचार-विमर्श के पश्चात् 'नीति आयोग' का गठन किया गया है। इससे संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु अग्रलिखित शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत किए जा रहे हैं-

नीति आयोग : गठन की आवश्यकता

• नए भारत के परिवर्तित माहौल में शासन और नीति-निर्माण संस्थानों को नई चुनौतियों को अपनाने और तद्नुसार शासन और गतिशील नीति परिवर्तनों में संस्थागत सुधारों की आवश्यकता है ताकि अभूतपूर्व सकारात्मक बदलावों की रूपरेखा तैयार हो सके और उसका पोषण हो सके।

• नए भारत को ऐसे प्रशासनिक प्रतिमानों की आवश्यकता है जिसमें सरकार 'सक्षमकारी' हो न कि पहली और अंतिम उपाय या प्रश्रय। औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्रों में एक 'कंपनी' के रूप में सरकार की भूमिका को कम करते हुए सरकार को कानून बनाने, नीति-निर्माण करने और विनियमन पर ही मुख्य ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

• देश में केंद्र से राज्य की ओर नीतियों के एकतरफा प्रवाह (जो कि योजना आयोग काल की विशिष्टता रही है) के स्थान पर एक महत्वपूर्ण विकासवादी परिवर्तन के रूप में राज्यों की वास्तविक और सतत भागीदारी और राज्यों के साथ सतत आधार पर संरचनात्मक सहयोग के साथ सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने की जरूरत है।

• बेहतर अंतर्मंत्रालयी समन्वय और बेहतर केंद्र राज्य समन्वय को त्वरित करके नीतियों के धीमे और विलंबित क्रियान्वयन की स्थिति को समाप्त किए जाने की आवश्यकता है।

खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़ते हुए अब कृषि उत्पादन के मिश्रण के साथ किसानों को अपने उत्पादों से प्राप्त होने वाले वास्तविक प्रतिफलों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।

• आर्थिक रूप से जीवंत मध्यम वर्ग की भागीदारी बनाए रखने हेतु इसकी क्षमता का पूर्ण दोहन तथा देश की उद्यमशीलता, वैज्ञानिक और बौद्धिक मानव पूंजी का पूर्ण लाभ उठाने के साथ आज शासन में जटिलताओं और परेशानियों की संभावनाओं को कम करने हेतु प्रौद्योगिकी का अधिकाधिक उपयोग सुनिश्चित किए जाने की जरूरत भी है।

नीति आयोग के गठन का उद्देश्य

• राष्ट्रीय उद्देश्यों के प्रकाश में राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं, क्षेत्रों और रणनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करना। नीति आयोग गतिशक्ति उपलब्ध कराने हेतु प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्रियों को एक 'राष्ट्रीय एजेंडा' फ्रेमवर्क उपलब्ध कराने के विजन के साथ कार्य करेगा।

सशक्त राज्य ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं, इस तथ्य को स्वीकार करते हुए राज्यों के साथ सतत आधार पर संरचित समर्थन पहलों और प्रणालियों के माध्यम से सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) को बढ़ावा देना।

ग्राम स्तर पर विश्वसनीय योजनाएं तैयार करने के लिए प्रणालियों का विकास करना और उन्हें उत्तरोत्तर संयोजित कर सरकार के उच्चतर स्तरों तक पहुंचाना।

• जो क्षेत्र इसे विशिष्ट रूप से संदर्भित किए जाएं, उनके संबंध में आर्थिक रणनीति एवं नीतियों में राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को शामिल किया जाना सुनिश्चित करना।

समाज के उन वर्गों पर विशेष रूप से ध्यान देना, जिसके आर्थिक प्रगति से पर्याप्त रूप से लाभान्वित न हो पाने का जोखिम हो।

नीति आयोग के स्तंभ

नीति आयोग प्रभावी सुशासन के 7 स्तंभों-लोगों के लिए (Pro-People), अग्रसक्रियता (Pro-Activity), सशक्तिकरण (EM-Powering), सभी के समावेशन (Inclusion of All), समानता (Equality) तथा पारदर्शिता (Transparency) पर आधारित होगा। त्वरित गति से कार्य करने हेतु और सरकार को नीति दृष्टिकोण उपलब्ध कराने के साथ साथ प्रासंगिक विषयों के संदर्भ में 'राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान' के पास आवश्यक संसाधन, ज्ञान, कौशल और क्षमता उपलब्ध होगी। यह भारत के जनांकिकीय लाभांश (Demography Dividend) का लाभ उठाने के साथ शिक्षा, कौशल विकास, लैंगिक पूर्वाग्रहों के उन्मूलन और रोजगार के माध्यम से युवाओं, पुरुषों और महिलाओं की संभाव्यता की प्राप्ति का साधन बनेगा तथा निर्धनता उन्मूलन एवं असमानताओं में कमी करने की दशा में कार्य करेगा। यह देश के 50 मिलियन से अधिक छोटे व्यवसायों, जो रोजगार सृजन का प्रमुख स्त्रोत हैं, को नीति समर्थन भी प्रदान करेगा तथा यह हमारी पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय संपत्तियों के संरक्षण हेतु भी कार्य करेगा।

• रणनीतिक और दीर्घावधिक नीति एवं कार्यक्रम रूपरेखाओं तथा पहलों को प्रारूपित करना तथा उनकी प्रगति और प्रभावोत्पादकता की निगरानी करना। निगरानी और फीडबैक के आधार पर आवश्यक मध्यावधि संशोधनों सहित नवाचारी सुधार किए जाएंगे।

• प्रमुख हितधारकों तथा समान विचारधारा वाले राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय थिंक टैंकों के साथ शैक्षिक और नीति अनुसंधान संस्थानों के मध्य भागीदारी को प्रोत्साहन और सलाह उपलब्ध कराना।

• राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों, पेशेवरों और अन्य भागीदारों के सहयोगी समुदाय के माध्यम से एक ज्ञान, नवप्रवर्तन और उद्यमिता समर्थन प्रणाली का सृजन करना।

विकास एजेंडे के क्रियान्वयन को त्वरित करने के क्रम में अंतर्खेत्रीय और अंतर्विभागीय मुद्दों के समाधान के लिए मंच उपलब्ध कराना।

सुशासन (Good Governance) पर अनुसंधान और सतत एवं न्यायसंगत विकास को सर्वश्रेष्ठ कार्यप्रणालियों के संग्राहक के साथ-साथ उनके हितधारकों में प्रसार में सहायता हेतु एक अत्याधुनिक संसाधन केंद्र का अनुरक्षण करना।

आवश्यक संसाधनों की पहचान करने सहित कार्यक्रमों और पहलों के क्रियान्वयन की सक्रिय निगरानी एवं मूल्यांकन करना ताकि डिलीवरी के अवसर पर सफलता की संभाव्यता को सुदृढ़ किया जा सके।

• कार्यक्रमों और पहलों के क्रियान्वयन के लिए प्रौद्योगिकी उन्नयन एवं क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना।

• राष्ट्रीय विकास एजेंडा और उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य आवश्यक गतिविधियां संपादित करना।

पहलों के क्रियान्वयन की सक्रिय निगरानी एवं मूल्यांकन करना ताकि डिलीवरी के अवसर पर सफलता की संभाव्यता को सुदृढ़ किया जा सके।

• कार्यक्रमों और पहलों के क्रियान्वयन के लिए प्रौद्योगिकी उन्नयन एवं क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना।

नीति आयोग का संगठन

नीति आयोग का संघटन इस प्रकार निर्धारित किया जाता है-

1. अध्यक्ष (Chairperson): प्रधानमंत्री

2. शासी परिषद् (Regional Council): यह सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और संघीय क्षेत्रों के उप राज्यपालों से मिलकर बनेगी।

3. क्षेत्रीय परिषदें (Regional Council): ऐसे विशिष्ट मुद्दों और आकस्मिक मामलों, जो एक से अधिक राज्यों या एक क्षेत्र को प्रभावित करते हों, के संदर्भ में ये परिषदें आवश्यकता-आधार और विशिष्ट कार्यकाल हेतु गठित की जाएंगी। इसमें संबंधित क्षेत्र के राज्यों के मुख्यमंत्री एवं संघीय क्षेत्रों के राज्यपाल शामिल होंगे। इनका संयोजन प्रधानमंत्री द्वारा किया जाएगा तथा इनकी अध्यक्षता नीति आयोग के अध्यक्ष या उनके द्वारा नामित व्यक्ति द्वारा की जाएगी।

4. विशेष आमंत्रित (Special Invitiees): नीति आयोग में संबद्ध कार्यक्षेत्र का ज्ञान रखने वाले विशेषज्ञ, विशेष जानकार और पेशेवर विशेष आमंत्रित के रूप में प्रधानमंत्री द्वारा नामित किए जाएंगे।

5. पूर्णकालिक संगठनात्मक ढांचा (Full-time Organizational Structure): अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री के अतिरिक्त नीति आयोग के पूर्णकालिक संगठनात्मक ढांचे में निम्नलिखित शामिल होंगे-

(a) उपाध्यक्ष (Vice-Chairperson): प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त किया जाएगा।

(b) पूर्णकालिक सदस्य (Full Time Members): प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त किए जाएंगे।

(c) अंशकालिक सदस्य (Part-time Members): अग्रणी विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों एवं अन्य प्रासंगिक संस्थानों से अधिकतम 2 पदेन क्षमता में सदस्य जो कि चक्रीय आधार पर होंगे।

(d) पदेन सदस्य (Ex-officio Members): प्रधानमंत्री द्वारा नामित केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के अधिकतम 4 सदस्य।

(e) मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO:Chief Executive Officer): प्रधानमंत्री द्वारा नियत कार्यकाल के लिए, भारत सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी को सीईओ नियुक्त किया जाएगा।

(f) सचिवालय (Secretariat): आवश्यकता के अनुसार होगा।

राष्ट्रीय विकास एजेंडा और उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य आवश्यक गतिविधियां संपादित करना।

   
   
योजना आयोग    नीति आयोग   
   
संरचना   
   
अध्यक्ष-प्रधानमंत्री   
   
अध्यक्ष-प्रधानमंत्री   
   
   
   
उपाध्यक्ष-प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त   
   
उपाध्यक्ष-प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त   
   
   
   
पृथक् राष्ट्रीय विकास परिषद्-प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रिमंडल सदस्य, राज्यों के मुख्यमंत्री और वित्त मंत्रीगण (राज्यों का प्रतिनिधित्व नहीं) प्रावधान नहीं   
   
शासी परिषद्-राज्यों के मुख्यमंत्री एवं संघीय क्षेत्रों के उपराज्यपाल (राज्यों का पूरा प्रतिनिधित्व)   
   
   
   
पदेन   सदस्य-आयोजना मंत्री, योजना आयोग के सचिव   
   
क्षेत्रीय परिषदें-प्रधानमंत्री एवं राज्यों के मुख्यमंत्री   
   
   
   
   
   
पदेन सदस्य-अधिकतम 4 केंद्रीय मंत्री प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त सी.ई.ओ.   
   
   
   
पूर्णकालिक सदस्य-विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ   
   
पूर्णकालिक सदस्य- -पूर्णकालिक संगठनात्मक ढांचा   
   
कार्यप्रणाली   
   
• पंचवर्षीय योजना उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का निर्माण एवं पुनरीक्षण, विशिष्ट मुद्दों पर सलाह सरकारों के लिए ऊपर से नीचे (Top Down) उपागम   आधारित आयोजना जिसके निर्माण में राज्यों की भागीदारी नहीं, राज्यों के साथ नियमित जुड़ाव की कोई संरचित प्रणाली नहीं तथा क्रियान्वयन, निगरानी एवं मूल्यांकन की कमजोर व्यवस्था   
   
• 'राष्ट्रीय एजेंडे' का निर्माण और केंद्र एवं राज्यों के मध्य सहकारी संघवाद को प्रोत्साहन वैश्वीकृत दृनिया के साथ एकीकृत बाजार अर्थव्यवस्था के लिए राज्यों से सलाह और सहभागिता के आधार पर एक से दो दशक के दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ मध्यावधि एवं दीर्घावधि राष्ट्रीय विकास रणनीति का निर्माण और उसके क्रियान्वयन की सतत निगरानी और आकलन ताकि उसमें बीच में सुधार किए जा सकें।   
   
   
   
* केंद्र द्वारा संचालित योजनाओं (सीएसएस) के लिए प्रत्येक राज्य को कितना धन दिया जाए।   
   
• मुख्यत: नीति-निर्माण हब के रूप में कार्य करना। धन अथवा वित्त के मामले में अभी कुछ जानकारी नहीं है। संभव है कि यह वित्त मंत्रालय पर छोड़ा जाए।   
   
   
   
• राज्यों की अपनी पंचवर्षीय योजना के लिए प्रत्येक राज्य को कितना धन दिया जाए।   
   
• कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि राज्यों को धन के बंटवारे का निर्णय अंतर्राज्यीय परिषद् करेगी। उसके बाद वित्त मंत्रालय वित्त जारी करेगा।   
   
   
   
• राज्य केंद्रशासित प्रदेश राज्य विकास परिषद् में प्रतिनिधित्व करते थे।   
   
• गवर्निंग काउंसिल में राज्य केंद्रशासित प्रदेश का प्रतिनिधित्व होगा, लेकिन यह स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है कि वे नीति आयोग के प्रस्तावों का अनुमोदन/निरस्त/संशोधन कर सकते हैं या नहीं।   
   
   
   
• योजना आयोग पंचवर्षीय योजना का खाका तैयार करता था। यह खाका मंत्रीमंडल के पास जाता था। राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा इसका अनुमोदन किया जाता था। इसके पंचवर्षीय योजना को संसद में प्रस्तुत किया जाता था।   
   
• प्रेस विज्ञप्ति सहभागिता संबंधी योजना की जानकारी देती है, परंतु ठीक-ठीक यह कैसे काम करेगी, इसके बारे में कोई विस्तृत उल्लेख नहीं है।   
   
   
   
• नेहरूवादी अर्थशास्त्रियों   और आईइएस (भारतीय आर्थिक सेवा) के नेतृत्व में ऊपर से नीचे की समाजवादी योजना इसकी को सबके लिए एक समान रूप से बनाया गया।   
   
• बाजार विशेषज्ञों और टेक्नोक्रेट को मुफ्त प्रवेश दिया जाता है। इसकी ज्यादा संभावना है कि यह सांकेतिक योजना + कोर क्षेत्र योजना अर्थात् राज्य सरकारों के परिणामों, चुनिंदा लक्ष्यों के साथ एक विस्तृत रूपरेखा, सीमित सब्सिडी और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से निगरानी करेगी।   
   

योजना आयोग

स्वतंत्रता के बाद नवम्बर, 1947 में कांग्रेस ने पं. जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में आर्थिक कार्यक्रम समिति को नियुक्ति को जिसने अपना प्रतिवेदन जनवरी, 1948 में प्रस्तुत किया, जिसमें एक स्थायी योजना आयोग के स्थापना की सिफारिश की गई। भारत सरकार के 15 मार्च, 1950 के एक संकल्प के द्वारा योजना आयोग की स्थापना की गई।

योजना आयोग की सरकार के लिए सलाहकारी भूमिका होती है। प्रधानमंत्री इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं। आयोग का उद्देश्य देश के संसाधनों का प्रभावी दोहन करके दीर्घकालिक सामाजिक तथा आर्थिक विकास के लिए योजनाओं का प्रस्ताव करना है। इसे देश के समस्त संसाधनों का मूल्यांकन करके, कमी वाले संसाधनों को बढ़ा करके, संसाधनों के अत्यधिक प्रभावी और संतुलित उपयोग के लिए योजनाएं बनाने और प्राथमिकताएं निश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। भारत में प्रथम पंचवर्षीय योजना 1951 में आरम्भ की गई।

योजना आयोग राष्ट्रीय विकास परिषद के व्यापक मार्ग निर्देशन के अंतर्गत कार्य करता है। यह मानव विकास तथा आर्थिक विकास के अति महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए नीति तैयार करने हेतु व्यापक दृष्टिकोण पैदा करने के लिए एकीकृत भूमिका निभाता है। आयोग इस बात पर भी जोर देता है कि देश के सीमित संसाधनों का उपयोग इस प्रकार हो कि उससे देश का उत्पादन अधिकतम हो सके।

आयोग के उपाध्यक्ष और पूर्वकालिक सदस्य के संगठित निकाय के रूप में पंचवर्षीय योजनाओं, वार्षिक योजनाओं, राज्य योजनाओं, निगरानी योजनाओं और स्कीमों को तैयार करने के लिए विषय प्रयोगों का परामर्श और मार्ग निर्देश देते हैं। आयोग अनेक प्रभागों के माध्यम से कार्य करता है। प्रत्येक प्रभाग एक वरिष्ठ अधिकारी अधीन होता है।

राष्ट्रीय विकास परिषद

समय-समय पर योजनाओं की कार्यविधि के विभिन्न पक्षों की पुनरीक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा अगस्त, 1952 के प्रस्ताव के अनुरूप राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थापना की गई। भारत के प्रधानमंत्री, सभी राज्यों के मुख्यमंत्री तथा योजना के सदस्य इसके सदस्य हैं। परिषद का मुख्य कार्ययोजना आयोग द्वारा तैयार की गई योजनाओं पर विचार-विमर्श करना और उसकी स्वीकृति देना है। परिषद की स्वीकृति के बाद ही योजना के मसौदे को संसद के समक्ष उसकी स्वीकृति के लिए रखा जाता है।

भारत में आर्थिक नियोजन की प्रमुख विशेषताएँ

भारत में नियोजन को सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन के उपकरण के रूप में लागू किया गया। नियोजन का विशेष महत्व भारत में इसलिए था क्योंकि नियोजन का कार्य एक लोकतांत्रिक और संघीय प्रणाली के दायरे में किया जाने वाला था। नियोजन आत्मनिर्भरता, आर्थिक स्वाधीनता और सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए भारत के संघर्ष में पर्याय बन गया। लोकतांत्रिक ढांचे के अंतर्गत 'समाजवादी ढंग के समाज' की स्थापना का सपना हमारे नीति-निर्माताओं ने देखा था। इसीलिए मिश्रित अर्थव्यवस्था केश्रअंतर्गत 'लोकतांत्रिक समाजवाद' की स्थापना के लिए भारत ने आर्थिक नियोजन का रास्ता चुना। इसीलिए यह नियोजन समाजवादी देशों के आदेशात्मक नियोजन से भिन्न था, दूसरी तरफ पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत निजी क्षेत्र तथा बाजार तंत्र पर नियंत्रण और नियमन के लिए अनेक उपाय भी किए गए।

भारतीय नियोजन की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

सांकेतिक आयोजन

भारतीय नियोजन का स्वरूप सांकेतिक या निर्देशात्मक है। ऐसी मिश्रित अर्थव्यवस्था जिसमें सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र दोनों का सहअस्तित्व है, की प्रणाली के कारण है। यह विभिन्न आर्थिक एजेण्टों को उन उद्देश्यों से अवगत कराती है जिसे प्राप्त करने का प्रयास करना है। साथ ही उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयुक्त तथा उपलब्ध साधनों का भी बोध करती है। योजना में उस समयावधि का भी उल्लेख किया जाता है जिसके भीतर वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति की जानी है।

इस प्रकार भारतीय नियोजन के अंतर्गत किसी भी कार्य के लिए अनिवार्यता का तत्व निहित नहीं होता है। भारतीय योजनाएं उन क्षेत्रों के लिए भी लक्ष्यों को निर्धारित करती हैं जिन पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है। सरकार निजी क्षेत्र को विभिन्न प्रकार की प्रोत्साहनात्मक कार्यवाही द्वारा सुविधाएं प्रदान करती हैं और आधारिक संरचना का सृजन कराती है। सरकार निजी क्षेत्र को स्पष्ट आदेश न देकर केवल उनकी कार्यदशा और कार्य पद्धति के प्रति संकेत करती है। यद्यपि कुछ आर्थिक क्रियाओं पर नियमन और नियंत्रण की व्यवस्था होती है परन्तु सामान्यतया निजी क्षेत्र पर नियंत्रण काफी कम होते हैं।

राज्य की भूमिका

उदारीकरण की शुरुआत से पूर्व सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी। नियोजन की शुरुआत में सार्वजनिक क्षेत्र को "नियंत्रणकारी ऊँचाई" पर पहुँचाने की बात कही गई, जहां से यह सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को नियंत्रित व नियमित कर सके।

आयोजनागत विकास की प्रारम्भिक अवस्था में राज्य से यह अपेक्षा की गई कि वह अपने न्यूनतम अपेक्षित कार्यों यथा, सामाजिक तथा आर्थिक आधारिक संरचना का प्रावधान, से आगे आकर अर्थव्यवस्था में 'सक्रिय' हस्तक्षेप करेगा और निम्नलिखित तरीकों से बाजार तंत्र को नियमित तथा नियंत्रित करेगा-

आक्रामक राजकोषीय तथा मौद्रिक नीतियों के द्वारा,

• बिना प्रत्यक्ष रूप से उत्पादन गतिविधियों में आग लिए बाजार में हस्तक्षेप के द्वारा,

• सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से प्रत्यक्षतः उत्पादक आर्थिक गतिविधियों में आग लेकर, अर्थात् उत्पादन के संसाधनों पर अपने स्वामित्व के विस्तार के द्वारा।

इसका मुख्य मन्तव्य यह था कि सरकार निजी क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों की गति, साथ ही उसकी संरचना को निर्यात्रत करके अपने सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त कर सके। परन्तु उदारीकरण के दौर में आयोजन बाजारोन्मुख हो गया है। अब सरकार भी अधिकतर निर्णय बाजार के नियमों के अनुसार ही लेती है। निजी क्षेत्र के छूट का काफी विस्तार हुआ है और सार्वजनिक क्षेत्र में हिस्से में लगातार कटौती की गयी है। राज्य की भूमिका कम होने के साथ साथ आयोजन की व्याप्ति और तकनीकी में बदलाव आया है। इसके बावजूद आज भी सभी राजनीतिक दल सामाजिक आर्थिक विकास के एक वांछित और आवश्यक साधन के रूप में नियोजन की धारणा से प्रतिबद्ध हैं।

व्यापक योजनाएँ

भारतीय नियोजन अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को अपने अन्दर समाहित करने का प्रयास करता है। इस अर्थ में इसकी व्यापकता काफी महत्वपूर्ण है। इसमें कृषि, उद्योग तथा सेवा क्षेत्र, सभी से संबंधित आर्थिक गतिविधियों के सम्बन्ध में लक्ष्य निर्धारण किए जाते हैं तथा सम्बन्धित नीतियाँ बनाई जाती हैं। इस दृष्टि से इसका स्वरूप कुछ-कुछ समाजवादी नियोजन से मिलता है।

विकेन्द्रिक आयोजन

भारत में योजनाओं को बनाने एवं उसके क्रियान्वयन में व्यापक विकेन्द्रीकरण है। इस विकेन्द्रित स्वरूप के कारण केन्द्र व राज्यों के अतिरिक्त विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ व्यापक स्तर पर लोगों की भागीदारी योजनाओं में होती है। विभिन्न विषयों और क्षेत्रों से सम्बन्धित विशेषज्ञों की एजेन्सियाँ जो योजनाएँ तैयार करती हैं, उन पर जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से विचार विनिमय करती हैं और अपना मत देती हैं। आयोजन तंत्र में केन्द्रीय स्तर पर योजना आयोग, राज्य स्तर पर योजना विभाग और स्थानीय स्तर पर नगर निगम और ग्राम पंचायत सम्मिलित हैं। इस प्रक्रिया में गैर सरकारी संगठन भी भाग लेते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय विकास परिषद जिसमें केन्द्र तथा राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं, इन योजनाओं की जांच करती है और आवश्यक संशोधन करती है। विशेषकर हाल के वर्षों में योजना का विकेन्द्रित स्वरूप और स्पष्टता के साथ सामने आया है।

भौतिक आयोजन

नियोजन के प्रारम्भ में हमारे नीति-निर्माताओं का यह मानना था कि जो कुछ भौतिक दृष्टि से संभव है वह वित्तीय दृष्टि से भी सम्भव होगा। इसलिए योजनाओं में वित्तीय नियोजन की जगह भौतिक नियोजन को अधिक महत्व दिया गया। अर्थात योजना के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संसाधनों का आवंटन श्रम, पदार्थ, ऊर्जा आदि के रूप में किया गया न कि वित्तीय साधनों के रूप में। इससे नियोजन के दौरान वित्तीय मोर्चे पर परेशानियों का सामना करना पड़ा।

विकासोन्मुख आयोजन

भारतीय योजनाएं अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता बढ़ाकर लोगों में रहन-सहन के स्तर को सुधारने पर जोर देती हैं। आर्थिक एवं सामाजिक आधारिक संरचना के निर्माण तथा पूँजीगत वस्तु उद्योगों के विकास में योजनाओं की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। प्रत्येक योजना में अत्यधिक पूँजीनिर्माण पर जोर दिया जाता रहा है जिससे अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता में वृद्धि हो। हाल के वर्षों में इस प्रवृत्ति में थोड़ा अन्तर दिखाई देता है।

सामाजिक आयोजन

भारतीय नियोजन का स्वरूप सामाजिक है। यहां योजनाओं पर राजनीतिक वातावरण को प्रभावित करने वाले कारकों का प्रभाव बड़ा ही स्पष्ट में देखा जा सकता है। सरकारी नीतियाँ विभिन्न दबाव समूहों के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती रही हैं जिससे प्रायः योजना की वास्तविक उपलब्धि, उसके निर्धारित उद्देश्यों से भिन्न रही है।

सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक संवृद्धि

अर्थव्यवस्था में उत्पादन वृद्धि के साथ साथ बेरोजगारी, गरीबी तथा असमानताओं में कमी, भारतीय नियोजन की प्रमुख विशेषता रही है। प्रारम्भिक योजनाओं, हालांकि संवृद्धि पर विशेष जोर रहा, लेकिन 'रिसन-प्रभाव' की असफलता के कारण बाद में रोजगार सृजन से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम चालू किए गए और गरीबी उन्मूलन पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया।

आंकड़ों की अविश्वसनीयता

भारत में आंकड़ों की गुणवत्ता अच्छी नहीं है। पर्याप्त विश्वसनीय आंकड़ों के प्रभाव में नियोजन की सफलता अटकलबाजी मात्र हो जाती है। आंकड़ों के संकलन और विश्लेषण में अधिक समय लगने से भी उनका महत्व कम हो जाता है।

आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

किसी भी नियोजन का उद्देश्य देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है। भारतीय योजनाओं में भी देश की आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुरूप उद्देश्य का निर्धारण किया गया, फिर भी भारतीय संविधान के नीति-निदेशक सिद्धान्तों के अनुरूप भारतीय आर्थिक नियोजन के दीर्घकालिक उद्देश्य काफी स्पष्ट हैं। अलग-अलग योजनाओं में निर्धारित उद्देश्यों में भिन्नता होने के बावजूद ये दीर्घकालिक उद्देश्य प्रत्येक योजना के मूल में रहे हैं।

भारतीय पंचवर्षीय योजनाओं के उद्देश्य

आर्थिक संवृद्धि

भारत की सभी पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों के विकास के द्वारा आर्थिक संवृद्धि की दर को तेज करना रहा है। जिससे राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति आय में तीन हो सके। प्रारम्भिक योजनाओं में इस मान्यता के साथ संवृद्धि दर को तेज करने के प्रयास किए गए कि इसका लाभ रिस-रिसकर समाज के निचले, कमजोर और उपेक्षित तबके तक पहुंचेगा और गरीबी दूर होगी तथा आम लोगों के जीवन के रहन-सहन के स्तर में सुधार होगा। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हुआ और गरीबी, बेरोजगारी तथा आर्थिक असमानता में कमी नहीं आई। क्योंकि संवृद्धि अर्थात उत्पादन वृद्धि के लाभ समाज के ऊँचे अर्थात सम्पन्न तबके तक ही सीमित रहे।

भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के स्वरूप तथा उनके अंतर्गत निर्धारित उद्देश्यों और साधनों के विभिन्न क्षेत्रों के बीच आवंटन से भी यह बात स्पष्ट हो जाती हैं कि योजनाओं ने उत्पादन वृद्धि पर ही अधिक ध्यान दिया। योजनाओं की सफलता और असफलता का मूल्यांकन भी आर्थिक संवृद्धि की दर से ही किया जाता रहा है। योजनाओं में संवृद्धि का उद्देश्य इतना महत्त्वपूर्ण रहा है कि उसको संरचना पर ध्यान नहीं दिया गया। इसीलिए बढ़ती गरीबी और असमानता के लिए 1970 के बाद 'गरीबी हटाओ' तथा 'सामाजिक न्याय के साथ विकास' का नारा देना पड़ा।

पूर्ण रोजगार

रोजगार के अवसरों को बढ़ाकर बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराना तथा अल्प रोजगार वालों को पूरा रोजगार दिलाना, जिससे गरीबी दूर हो सके, योजनाओं का प्रमुख उद्देश्य रहा है। यद्यपि सभी पंचवर्षीय योजनाओं में आर्थिक नियोजन का एक प्रमुख उद्देश्य रोजगार में वृद्धि रही है। परन्तु किसी भी योजना में इसे मुख्य उद्देश्य के रूप में प्राथमिकता नहीं दी गई। अनेक अर्थशास्त्रियों का मत है कि भारत में कोई रोजगार युक्ति रहो ही नहीं है। प्रारम्भ में यह मान लिया गया कि निवेश में वृद्धि से रोजगार में राष्ट्रीय आय में साथ-साथ वृद्धि होगी।

पहली बार जनता सरकार द्वारा तैयार की गई छठी योजना (1978-83) में रोजगार को संवृद्धि के ऊपर प्राथमिकता देते हुए मुख्य उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया, परन्तु वास्तविक छठी योजना (1980-85) में पुनः रोजगार एक गौण उद्देश्य के रूप में ही सामने आया। सातवीं और फिर आठवीं पंचवर्षीय योजना में रोजगार को प्राथमिकता दी गई, परन्तु विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार सृजन के लिए किसी स्पष्ट रोजगार युक्ति का अभाव रहा। उदारीकरण के बाद के वर्षों में रोजगार सृजन मुख्यतः अर्थव्यवस्था कीर्तन संवृद्धि व विकास से जुड़ा है जो कि मुख्यत: बाजार अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। सरकार ने विभिन्न रोजगार सृजन योजनाओं के माध्यम से अकुशल रोजगार सृजित करने का प्रयास किया है परन्तु बढ़ती श्रमशक्ति को देखते ये अपर्याप्त है।

गरीबी निवारण

सामाजिक न्याय सुनिश्चित कर 'समाजवादी ढंग के समान' ही स्थापना की ओर प्रयास सभी योजनाओं का एक प्रमुख उद्देश्य रहा है। गरीबी और आर्थिक असमानताओं में कमी अल्प सामाजिक न्याय की मांग है।

प्रारम्भ में 'रिसन प्रभाव' की परिकल्पना के कारण योजनाकारों ने गरीबी निराकरण को आर्थिक नियोजन का उद्देश्य नहीं माना। परन्तु संवृद्धि के लाभ गरीबों तक नहीं पहुंचने के कारण पहली बार पांचवों पंचवर्षीय योजना में गरीबी हटाने की बात कही गई और गरीबी निवारण सम्बन्धी कार्यक्रमों की शुरुआत हुई। आगे की योजनाओं में इस तरह के कार्यक्रमों की व्यापकता बढ़ी और समय-समय पर नए कार्यक्रम भी चालू किए गए। परन्तु आयोजन के छ: दशक बाद भी लगभग एक-तिहाई से अधिक जनसंख्या (योजना आयोग द्वारा गठित तेन्दुलकर समिति के अनुसार 2004-05 में 37.2%) गरीबी रेखा के नीचे है।

आर्थिक समानताओं में कमी

सामाजिक न्याय का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू आर्थिक असमानताओं में कमी करना है। यद्यपि विभिन्न योजनाओं में, विशेषकर प्रारम्भिक योजनाओं में, असमानताओं में कमी का उल्लेख किया गया है। परन्तु किसी भी योजना का यह मुख्य उद्देश्य नहीं रहा। किसी भी पंचवर्षीय योजना में देश में आय व सम्पत्ति की असमानताओं के अनुमान नहीं दिए गए हैं। इसका प्रमुख कारण 'रिसन प्रभाव' की परिकल्पना थी। आय व सम्पत्ति की असमानताओं को कम करने के लिए भी तेज आर्थिक संवृद्धि को जरूरी समझा गया। पांचवीं पंचवर्षीय योजना के बाद गरीबी निवारण के उद्देश्यों में कुछ प्राथमिकता दी गयी परन्तु असमानताओं में कमी के उद्देश्य को नजरअंदाज किया गया। उदारीकरण की नीति के पश्चात् तो आर्थिक नीतियों में इस उद्देश्य की चर्चा करना भी बेमानी है। आय व धन का संकेन्द्रण आज कहीं अधिक तेजी से बढ़ता जा रहा है।

आत्मनिर्भरता

भारत में आर्थिक नियोजन का उद्देश्य तेज आर्थिक विकास के साथ-साथ आत्मनिर्भरता के उद्देश्य को प्राप्त करना रहा है। परन्तु आत्मनिर्भरता का लक्ष्य बदलता रहा है। यह आत्मनिर्भरता खाद्यान्नों और मशीनों तथा अन्य उपकरणों के साथ-साथ विदेशी सहायता के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण रही है। पहली बार तीसरी पंचवर्षीय योजना में विदेशी सहायता से मुक्ति के रूप में आत्मनिर्भरता का स्पष्ट उल्लेख किया गया। बाद की योजनाओं में खाद्यान्न उत्पादक से लेकर विभिन्न प्रकार के उपकरणों, मशीनों व पूंजीगत साधनों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया। आत्मनिर्भरता को योजना आयोग ने बाद की योजना में प्रावैगिक अर्थों में प्रयुक्त किया। इस बात पर जोर दिया गया कि हमारे निर्यात इतने अधिक हों कि हम अपनी आयात जरूरतों तथा विदेशी लक्ष्यों से सम्बन्धित दायित्वों को पूरा कर सकें। इस उद्देश्य की प्राप्ति में भारत को काफी हद तक सफलता भी मिली। हरित क्रांति की सफलता तथा एक मजबूत व विविधीकृत औद्योगिक तथा पूंजीगत आधार इसका प्रमाण है।

आधुनिकीकरण-आर्थिक नियोजन का एक प्रमुख उद्देश्य अर्थव्यवस्था को आधुनिक रूप देना है। अर्थात् अर्थव्यवस्था में इस प्रकार के संरचनात्मक एवं संस्थागत परिवर्तन लाए जाएं कि अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर एवं प्रगतिशील बन सके। आयोजकों ने हमेशा ही आर्थिक विकास के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी तथा वैज्ञानिक मनोवृत्ति को महत्वपूर्ण माना। परन्तु छठी पंचवर्षीय योजना से पहले कभी भी आधुनिकीकरण को नियोजन के लक्ष्य के रूप में नहीं रखा गया। छठी योजना में आधुनिकीकरण, आर्थिक क्रिया के रूप में अनेक ढांचागत और संस्थागत परिवर्तनों की ओर इशारा करता है। सातवीं योजना से आधुनिकीकरण का प्रयोग मुख्य रूप से प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के संदर्भ में किया गया। हालांकि सिर्फ इस अर्थ में उन्नत पूँजी प्रधान तकनीक से अनेकों श्रमिक बेरोजगार हो सकते हैं।

आर्थिक नियोजन का मूल्यांकन

भारत में नियोजन का एक ठोस आर्थिक आधार है। दुर्लभ संसाधनों और विपुल आवश्यकताओं की स्थिति में आवश्यक है कि संसाधनों और खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के संसाधनों, के आवंटन में विकास के उद्देश्य और प्रार्थामकताएं प्रतिबिम्बित हों। इन संसाधनों के लिए आपस में टकराने वाली तथा प्रतियोगी क्षेत्रीय मांगें भी सामने आती हैं। इस कारण यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि इन संसाधनों का आवंटन राज्यों के साथ विचार-विमर्श की प्रक्रिया को संस्थागत रूप देने और परस्पर विरोधी हितों और आपस में टकराने वाली मांगों में संतुलन स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई है।

भारत में नियोजन की उपलब्धियाँ काफी महत्वपूर्ण रही हैं। लेकिन नियोजन की युक्ति की अनेक कमियों के आधार पर इसकी आलोचना की जाती रही है। साथ ही योजनाओं का कार्यान्वयन भी बेहतर नहीं रहा है।

नियोजन रणनीति-भारतीय नियोजन का एक स्पष्ट नीतिगत ढांचा नहीं है इसीलिए राज्य प्रायः गलत दिशाओं में प्रयास करता रहा और अपने निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने में योजनाएं असफल रहीं। इससे एक तरफ राज्य के हस्तक्षेप की गुणवत्ता में गिरावट आई, दूसरी ओर अर्थव्यवस्थाश्रबिना राज्य के हस्तक्षेप के अपना काम करती रहीं। किसी ठोस और स्पष्ट रणनीति के न होने के कारण राज्य निजी क्षेत्र को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप ढालने में असफल रहा तथा निजी क्षेत्र में इन प्राथमिकताओं का उल्लंघन करके आयोजन प्रक्रिया को एक हद तक विकृत किया।

प्रारम्भिक योजनाओं में भारी उद्योगों में निवेश के लिए अत्यधिक पूँजी की आवश्यकता थी, परन्तु वित्तीय साधनों के गतिशीलन के लिए कोई ठोस वित्तीय नीति नहीं बनाई गई। घरेलू स्तर पर संसाधनों को इकट्ठा करने या उपभोग को नियंत्रित करने जैसे तार्किक व स्थायी नीति न अपनाने के कारण ऋण तथा घाटे की वित्त व्यवस्था पर सरकार की निर्भरता बढ़ी। जिससे अर्थव्यवस्था में कीमतों में तेज वृद्धि हुई और योजना प्रक्रिया में अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। प्रारम्भिक योजनाओं में निर्यात के प्रति उदासीनता के चलते विदेशी साधनों से संसाधनों को जुटाने के प्रति भी राज्य के प्रयास तदर्थ नीति के रूप में ही रहे।

निवेश दर में वृद्धि को ही आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण कारक माना गया तथा अन्य महत्वपूर्ण तत्वों जैसे बेहतर प्रबन्धन, मानवीय पूंजी की गुणवत्ता, उत्पादन की संरचना, निवेश की संरचना, उचित व प्रभावी क्रियान्वयन इत्यादि पर ध्यान नहीं दिया गया। निवेश की संरचना पर ध्यान न देने के कारण 1965 के बाद औद्योगिक क्षेत्र में निवेश धनी आय वर्ग की उपभोग के उत्पादन के लिए अधिक किया गया तथा मूलभूत व पूँजीगत उद्योगों की वृद्धि दर अपेक्षाकृत कम रही।

'रिसन प्रभाव' के ठीक से कार्य करने की मान्यता के कारण प्रारम्भिक योजनाओं में रोजगार बढ़ाने, गरीबी दूर करने आय व धन की असमानताओं में कमी करने की किसी ठोस नीति का स्पष्ट अभाव दिखता है। यह मान लिया गया कि आर्थिक संवृद्धि अर्थात् उत्पादन वृद्धि से रोजगार बढ़ेगा और संवृद्धि का लाभ समाज के निचले तबके तक पहुंचेगा, जिससे गरीबी और असमानता में कमी आएगी। लेकिन संवृद्धि के अनुपात में रोजगार नहीं बढ़ा तथा संवृद्धि के लाभ समान के थोड़े से उच्च वर्ग को ही ज्यादा हुआ तथा असमानाएं बढ़ी। श्रम को आसानी से उपलब्ध मानते हुए इसे नियोजन के माडलों में महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया गया।

नियोजन के उद्देश्य-नियोजन का मूल तत्व यह होना चाहिए कि निर्धारित उद्देश्यों तथा उपलब्ध संसाधनों में सामंजस्य हो। भारत में जिनमुख्य उद्देश्यों का विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में उल्लेख किया गया है उनको हासिल करना काफी मुश्किल है, क्योंकि उन उद्देश्यों की प्राप्तिके लिए संसाधनों का उचित आकलन न होने से योजना का कार्यान्वयन दोषपूर्ण रहा। चूंकि संसाधनों का आकलन, उद्देश्यानुसार नहीं किया गया इसलिए निर्धारित उद्देश्यों की संख्या भी काफी अधिक रही।

विभिन्न उद्देश्यों के बीच परस्पर विरोध तथा असंगति को देखते हुए भी इसे हासिल करना मुश्किल था। भारतीय अर्थव्यवस्था में नियोजन को जिस रूप में लागू किया गया उसमें हमेशा ही आर्थिक संवृद्धि तथा आर्थिक समानता के उद्देश्यों में टकराव होता रहा है। परन्तु सभी पंचवर्षीय योजनाओं में अंततः आर्थिक संवृद्धि को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हुए, अन्य सभी महत्वपूर्ण उद्देश्यों को संवृद्धि के भरोसे छोड़ दिया जाता रहा है। योजनाओं में उद्देश्यों की लम्बी सूचियां हैं। इससे स्पष्ट है कि योजनाओं में उद्देश्य निर्धारण को कितनी कम गम्भीरता से लिया जाता है। आर्थिक संवृद्धि पर सरकार का ध्यान इतना अधिक है कि उत्पादन की संरचना रोजगार संवृद्धि, सामाजिक न्याय, रोजगार सृजन तथा गरीबी निवारण जैसे उद्देश्यों के प्रति योजना को प्रतिबद्धता बिल्कुल दिखाई नहीं देती है।

योजनाओं का प्रयास उत्पादन के लक्ष्य निर्धारित करने से अधिक रहा है और इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक नीतियों या कार्यक्रमों के संकेत देने से उतना नहीं रहा। संवृद्धि के लक्ष्यों और अंत:क्षेत्रीय संतुलनों के प्रति आवश्यकता से अधिक ध्यान दिया गया है जबकि इससे संबंधित निर्णयों के लिए प्रारंभिक आंकड़े तक उपलब्ध नहीं हैं उदाहरण के लिए, पिछली योजनाओं में दिए गए पूंजी निर्गत अनुपातों, बचत के अनुपातों तथा मांग सापेक्षताओं के प्रक्षेपण बहुत अधिक अवास्तविक सिद्ध हुए हैं। उत्पादन और निवेश के लक्ष्यों का निर्धारण आगत-निर्गत संबंधों पर अपर्याप्त और अविश्वसनीय आंकड़ों तथा व्यवहार प्रतिमानों संबंधी अनुमानित मान्यताओं के आधार पर किया जाता रहा है। आयोजना के मॉडलों के विकास में तकनीकी परिष्कार तो बढ़ा है, लेकिन आंकड़ा-आधार कमजोर हुआ योजनाओं में वादे भी बढ़ा चढ़ा कर किए जाते रहे हैं और सीमित संसाधनों को अनेक कार्यक्रमों के लिए थोड़ी थोड़ी राशियों में आवंटित किया जाता रहा है। इससे किसी एक (जैसे, साक्षरता के) क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हो पायी। आयोजना से बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि योजनाओं में समूची अर्थव्यवस्था के लिए निवेश की विस्तृत आयोजना प्रस्तुत करने का प्रयास न किया जाए। किसी मिश्रित अर्थव्यवस्था में जहां एक बड़ा असंगठित, अवित्तीय और आंतरिक क्षेत्र मौजूद हो, यह व्यावहारिक है ही नहीं। जो भी हो, यह काम आज कारगरश्रढंग से नहीं किया जा रहा है।

हमारी योजनाओं ने समूची अर्थव्यवस्था के लिए निवेश की आयोजना प्रस्तुत करने की दिशा में अतिशय प्रयास किए हैं लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की आयोजना के लिए बहुत कम प्रयास किया है। वर्तमान में, हालांकि प्रत्येक योजना में क्षेत्रवार लक्ष्यों का निर्धारण किया जाता है मगर सही अर्थों में दीर्घकालिक निवेश की आयोजना का काम बहुत कम होता है। नतीजा यह होता है कि वास्तविक निवेश के निर्णय क्षेत्रीय और अन्य दबावों के अंतर्गत अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग मामले के लिए अलग-अलग लिए जाते हैं। यह विभिन्न क्षेत्रों के निवेश के बीच पर्याप्त असंतुलन, क्रियान्वयन में विलंब, संसाधनों के बारे में अतिशय वचनबद्धता और परियोजनाओं के लिए धन की कमी का कारण बना है।

कृषि क्षेत्र तथा ग्रामीण उद्योगों की उपेक्षा-नियोजन के दौरान भारी तथा पूंजीगत उद्योगों को इतना अधिक महत्व दिया गया कि कृषि तथा ग्रामीण उद्योगों की उपेक्षा की गई। इसीलिए स्थानीय कच्चे माल तथा मानव शक्ति का बेहतर इस्तेमाल नहीं हो सका और बेरोजगारी में वृद्धि हुई। लघु व ग्रामीण उद्योगों की उपेक्षा के कारण आयोजन प्रक्रिया उत्पादन को तो बढ़ाने में काफी हद तक सफल रहो पर यह उत्पादन वृद्धि रोजगारोन्मुख नहीं हो सकी। इसमें निर्धनता तथा क्षेत्रीय और अंतवैयक्तिक असमानताएं भी बढ़ी।

कृषि क्षेत्र में संस्थागत सुधारों की गति भी योजनावधि के दौरान अत्यंत धीमी रही है। भूमि सुधारों को सीमित सफलता ने न सिर्फ कृषि उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा को कमजोर किया है बल्कि प्रगतिशील कृषि के विकास का मार्ग भी अवरुद्ध किया है। लघु व सीमांत कृषकों तक संस्थागत साख की पहुंच अभी भी काफी असंतोषजनक है। विपणन सुविधाओं का अभाव भी कृषि तथा लघु व ग्रामीण उद्योगों के विकास में एक बड़ी बाधा रहा है।

व्यापक गरीबी-आयोजन का मूल उद्देश्य देश के सभी नागरिकों को न्यूनतम जीवन स्तर की व्यवस्था करना है। परन्तु आयोजन के लगभग 6 दशकों बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा तबका निरपेक्ष रूप से गरीब है और अपनी न्यूनतम मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हैं। लकड़वाला समिति के अनुसार 1973-74 में जनसंख्या का 55 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे था जो कि कम होकर भी 1978-78 में 39.3 प्रतिशत था। योजना आयोग द्वारा गठित तेन्दुलकर समिति के अनुसार 2004-05 में 37.2 प्रतिशत जनसंख्या। गरीबी रेखा के नीचे थी-41.8 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या तथा 25.7 प्रतिशत शहरी जनसंख्या गरीबी के ये आंकड़े आयोजन की कार्य प्रणाली और उसकी सफलता पर गम्भीर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। वास्तव में नियोजन देश में पोषणीय रोजगार के सृजन में असफल रहा है।

रोजगार में धीमी वृद्धि-कृषि व लघु तथा कुटीर उद्योगों की उपेक्षा तथा बड़े उद्योगों में पूंजी प्रधान तकनीकी के प्रयोग से रोजगार में वृद्धि धीमी हुई और बेरोजगारी बढ़ी। 1951 से 1969 के बीच फैक्ट्री उत्पादन में 7 प्रतिशत वार्षिक दर से वृद्धि हुई जबकि रोजगार की वृद्धि दर मात्र 3 प्रतिशत वार्षिक थी। 1961 से 1979 के बीच फैक्ट्री क्षेत्र में निवेश 139 प्रतिशत और उत्पादन 161 प्रतिशत बढ़ा जबकि रोजगार मात्र 71 प्रतिशत ही बढ़ा। 1983 से 1999-2000 के बीच रोजगार लोच में भारी कमी आयी। 1983 से 1993-94 के बीच रोजगार लोच (0.52 थी जो कि 1993-94 से 1999-2000 के बीच 0.16 रह गई। अत: जहां 1983 से 1993-94 के बीच रोजगार विस्तार की वार्षिक दर 2.7 प्रतिशत थी, वहीं 1993-94 से 1999-2000 के बीच 1.07 प्रतिशत वार्षिक हो गई। स्पष्ट है कि रोजगारोन्मुख रणनीति के अभाव के कारण योजनाएं पर्याप्त रोजगार सृजन में असफल रही है।

आय व धन की असमानताओं में वृद्धि-नियोजन काल में आय तथा धन की असमानताओं में निरन्तर वृद्धि हुई है। जनसंख्या के लगभग 40 प्रतिशत हिस्से की आर्थिक स्थिति अवरुद्ध रही है। थोड़े से उच्च आय वर्ग के हाथों में आर्थिक शकित का संकेन्द्रण बढ़ा है। आर्थिक सुधारों के काल में असमानताओं में वृद्धि और अधिक तेज हुई है। घरेलू पारिवारिक व्यय में सबसे धनी 10 प्रतिशत जनसंख्या का हिस्सा जो किश्र1989-90 में 27.1 प्रतिशत था, बढ़कर 2004-05 में 31.1 प्रतिशत से 45.3 प्रतिशत हो गया। अर्जुन सेन गुप्ता समिति के अनुसार 2006 में भारत की 78 प्रतिशत जनस का प्रतिदिन का व्यय रु. 20 से कम थ। स्पष्टतः संवृद्धि का लाभ समाज के एक विशिष्ट वर्ग को ही हुआ है। इस वर्ग ने अवैध तरीके से भी आय प्राप्त करके अपनी आर्थिक शक्ति मजबूत की है। 1960 के दशक में काले धन की अनुमानित मात्रा सकल घरेलू उत्पाद की 7 प्रतिशत थी जो कि बढ़कर 1981 में 20 प्रतिशत, 1990-91 में 35 प्रतिशत तथा 1995-96 में 40 प्रतिशत हो गई। काले धन की इस समानान्तर अर्थव्यवस्था ने गैर आवश्यक उपभोग वस्तुओं के उपभोग को बढ़ाया है।

कार्यान्वयन की विफलता-योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी पूरीक्षतरह से प्रशासन की मानकर उस पर विचार नहीं किया गया। कार्यान्वयन के आयोजन के अभाव से योजनाओं की प्रभाविता काफी कम हो गई। भ्रष्ट तथा अकुशल प्रशासन ने राज्य के हस्तक्षेप तथा योजनाओं की गुणवत्ता में काफी कमी लाई। व्यष्टि स्तर पर आंकड़ों के अभाव तथा राज्य व जिला स्तर पर नियोजन की उचित व्यवस्था न होने के कारण क्रियान्वयन का संकट और बढ़ा।

नियोजन के उद्देश्यों तथा आर्थिक नीतियों में सामंजस्य का अभाव हमारी आयोजना प्रणाली समय के साथ-साथ इस प्रकार विकसित हुई है कि योजना की प्राथमिकताओं और उन प्राथमिकताओं के लिए बनी समष्टि आर्थिक नीतियों के बीच तालमेल का अभाव उसका एक प्रमुख दोष बन गया है। ये तकनीकें सोवियत संघ में विकसित निर्देशमूलक आयोजना प्रणाली से ली गयी थीं। ये तकनीकें एक ऐसी अर्थव्यवस्था में निवेश का मार्गदर्शन करने के लिए अनुपयुक्त सिद्ध हुई हैं जिसका एक बड़ा निजी भाग निजी स्वामित्व में है और जहां राजनीतिक और न्यायिक प्रणालियां उपभोक्ताओं और उद्यमियों के लिए चयन की अपेक्षतया अधिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करती हैं। नियंत्रण और नियमन की यह प्रणाली मूलत: दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान की गयी व्यवस्थाओं से उत्पन्न हुई है। यह निवेश का 'वांछित' दिशाओं में मार्गदर्शन करने की अपेक्षा प्रतियोगिता को रोकने और एक नाकारा आयात प्रतिस्थापन को प्रोत्साहित करने में अधिक सफल रही है। अर्थव्यवस्था में काले धन तथा तस्करी की वृद्धि का नतीजा यह हुआ है कि अर्थव्यवस्था में प्रभावी उपभोक्ता मांग के अनुरूप और आय की संवृद्धि के स्वरूप का योजना की प्राथमिकताओं से कोई खास संबंध नहीं रहा। इसका एक स्पष्ट उदाहरण यह है कि भारत स्वचालित वाहनों के उत्पादन में पर्याप्त आत्मनिर्भर माना जा सकता है जिसका योजनाओं की प्राथमिकताओं में कोई स्थान नहीं है जबकि वह उर्वरकों और खाद्य तेलों का बहुत बड़ा आयातक है यद्यपि ये दोनों वस्तुएं योजनाओं में अत्यधिक प्राथमिकता पाती रही हैं।

समष्टिगत आर्थिक नीतियों, खासकर प्रशुल्क और राजकोषीय नीतियों तथा योजनाओं के अंत:क्षेत्रीय लक्ष्यों के बीच जो क्षीण संबंध हैं, उसके फलस्वरूप औद्योगिक संरचना में महत्वपूर्ण विसंगतियां पैदा हो गई हैं। मिसाल के लिए, आज व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है पूँजीगत माल, अन्य अभियांत्रिकी उद्योगों, परिवर्तन के उपकरणों आदि के धातु आधारित क्षेत्रों के बड़े हिस्से को बहुत कम या नकारात्मक संरक्षण मिला है। ऐसा इसके बावजूद है कि योजनाओं में पूजीगत माल के उत्पादन को हमेशा ही उच्चतम प्राथमिकता दी जाती रही है। दूसरी ओर, रसायन-आधारित उद्योगों को दिए गए संरक्षण की दरें बहुत अधिक नहीं हैं। नतीजा यह हुआ है कि पिछले 15 वर्षों में रसायन आधारित उद्योगों में अच्छी संवृद्धि देखी गयी है जबकि अभियांत्रिकी क्षेत्र की संवृद्धि कम रही है। इस प्रकार की विसंगत राजकोषीय संरचना का एक और नतीजा यह है कि अभियांत्रिकी उद्योगों जैसे श्रम प्रधान उद्योगों के साथ भेदभाव हुआ है जबकि पेट्रोरसायन जैसे पूंजी प्रधान उद्योगों को बहुत अधिक संरक्षण मिलता है। धातु-आधारित उद्योगों के विरुद्ध पूर्वग्रह के कारण पश्चिमी क्षेत्र की तुलना में पूर्वी क्षेत्र की उपेक्षा हुई है-उल्लेखनीय है कि रसायन और पेट्रोरसायन उद्योग इसी पश्चिमी क्षेत्र में आधारित है।

भारत में नियोजन आर्थिक तथा सामाजिक आधारिक संरचना के निर्माण तथा मजबूत औद्योगिक ढांचे के निर्माण में एक हद सफल रहा है परन्तु नियोजन की मूल विफलता इस बात में निहित है कि इसके महत्वपूर्ण उद्देश्य आज भी उतने ही अप्राप्य हैं जितना कि नियोजन की शुरुआत में थे। वस्तुतः सामाजिक न्याय के साथ विकास के अपने लक्ष्य से नियोजन और दूर हटा है। जैसा कि गरीबी, बेरोजगारी तथा असमानता के बढ़े स्तर को देखकर स्पष्ट है। भारत में आर्थिक नियोजन बाजार तंत्र की असफलताओं को दूर कर विकास की गति को तेज करने तथा उसके लाभ को समान रूप से समाज के सभी वर्गों में वितरित करने के लिए अपनाया गया था। परन्तु नियोजन की मूल विफलताओं से यह स्पष्ट हो गया कि राज्य भी बाजार तंत्र की तरह अनेक उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल हो सकता है। राज्य के हस्तक्षेप की गुणवत्ता खराब होने से संसाधनों का कुशल आवंटन नहीं हो सका।

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