ग्रामीण ऋणग्रस्तता (RURAL INDEBTEDNESS)

ग्रामीण ऋणग्रस्तता (RURAL INDEBTEDNESS)

ऋणग्रस्तता से आशय उस ऋण राशि से हैं जिसका कृषकों को ऋण देने वालों को भुगतान करना है, अर्थात् यह कृषकों पर ऋण देने वालों की बकाया राशि का संकेतक है। ग्रामीण ऋणग्रस्तता भारतीय कृषि को प्रमुख समस्या है, जिसके बोझ से लदे भारतीय कृषक आज कृषि में सुधार लाने में असमर्थ हैं। शाही कृषि आयोग के अनुसार-"भारतीय किसान ऋण में जन्म लेता है। ऋण में जीवन व्यतीत करता है, ऋण में मर जाता है और ऋण छोड़ जाता है।" इस ऋणग्रस्तता का सम्बन्ध किसानों की आर्थिक स्थिति, कृषि में विनियोग की क्षमता और देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था से हैं। अत: हम ग्रामीण ऋणग्रस्तता के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन सविस्तार करेंगे।

ग्रामीण ऋणग्रस्तता की सीमा (EXTENT OF RURAL INDEBTEDNESS)

भारतीय कृषकों की ऋणग्रस्तता के अनुमान समय-समय पर विभिन्न व्यक्तियों और विशेषज्ञों द्वारा लगाए गये हैं। जैसाकि सारणी 1 में दर्शाया गया है-

सारणी 1 भारत में ग्रामीण ऋणग्रस्तता की सीमा का अनुमान (Extent of Rural Indebtedness in India)

ग्रामीण ऋणग्रस्तता की बदलती हुई तस्वीर (CHANGING PICTURE OF RURAL INDEBTEDNESS)

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (National Sample Survey) के 59वें रौन्ड द्वारा 20 जून. 2002 पर ग्राम ऋणग्रस्तता का अध्ययन किया गया। तुलना के लिए इसमें 1971, 1981, 1991 और 2002 के आँकड़ों सम्बन्धी सूचना उपलब्ध कराई गई।

1. कुल ऋण में वृद्धि- सारणी 1 के अंकों को देखने से पता चलता है कि 1991 में कृषकों की ऋण राशि 17,668 करोड़ रुपए थी, जो कि 2002 में बढ़कर 81,709 करोड़ रुपए हो गई। कुल ऋणों में कृषकों के ऋण का भाग 73.3% था।

सारणी 2 व्यवसायी वर्गों के आधार पर ऋण की राशि

2. 2002 में ऋणग्रस्तता का आपात या भार—सारण के आँकड़ों से स्पष्ट पता चलता है कि 2002 में कुल 26.5% ग्राम परिवार ऋणग्रस्त था।

इस सारणी से यह भी स्पष्ट होता है जैसे-जैसे परिवार की सम्पत्तियों में वृद्धि होती गई है ऋणग्रस्त परिवारों का अनुपात भी बढ़ता गया है। इसका आशय यह है कि निर्धन परिवार जिनके पास सम्पत्ति बहुत कम है। वे गैर संस्थानात्मक स्रोतों की तुलना संस्थानात्मक स्रोतों से कहीं कम लाभ प्राप्त कर पाते हैं। (देखें सारणी-2)

सारणी 3–2002 में ग्रामीण परिवारों की ऋणग्रस्तता का आपात

संस्थानात्मक एजेंसियों का बदलता हुआ भाग

जैसा कि नीचे सारणी के अंकों से स्पष्ट होता है कि संस्थानात्मक एजेंसियाँ सन् 1971 में कुल ग्रामीण ऋण का केवल 29% भाग उपलब्ध कराती थीं जो 2002 में बढ़कर 57% हो गया है। सरल शब्दों में गैर-संस्थानात्मक उधार एजेंसियों के विकास के साथ, ग्राम-परिवारों की साहूकारों और गैर- संस्थानात्मक एजेंसियों पर निर्भरता महत्वपूर्ण रूप में कम हो गयी है। इस प्रवृति का स्वागत करना होगा क्योंकि संस्थानात्मक उधार का ब्याज-रूपी भार गैर-संस्थानात्मक उधार की अपेक्षा कहीं कम होता है।

सारणी 4-संस्थानात्मक एजेंसियों का बदलता हुआ भाग

उद्देश्य के अनुसार लिए गए ऋण-मोटे तौर पर उद्देश्यानुसार लिए गए ऋणों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(अ) उत्पादक, उद्देश्यों के लिए गए ऋण- यह ऋण मुख्य तौर से कृषि से

सम्बन्धित उत्पादक उद्देश्यों के लिए, लिए जाते हैं जिससे पुँजी निर्माण करने में मदद मिलती है।

(ब) अनुत्पादक ऋण-यह ऋण पारिवारिक खचों को पूरा करने, मुकदमें वाजी व अन्य व्यक्तिगत जरूरतों के लिए लिए जाते हैं। यदि ये ऋण बड़ी मात्रा में बार बार लिए जाते हैं तो परिवार की आर्थिक स्थिति गिरती जाती है।

सारणी के अंकों से स्पष्ट होता है कि किसानों द्वारा उत्पादक उद्देश्यों के लिए जो ऋण लिए गए थे, वे 1971 में 50% थे जो 1982 में बढ़कर 69% हो गए। यह एक अविनन्दनीय प्रवृत्ति है जिसके कारण परिवारों के अधिक आय कमाने में सहायता प्राप्त हुई थी, परन्तु इसके बाद उत्पादक ऋण के भाग में कमी आई हैं और यह कम होकर 2002 में 53% हो गया। जिसका ग्रामीण विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

सारणी 5 सभी परिवारों द्वारा उद्देश्य प्राप्त किए गए ऋणों का प्रतिशत वितरण

भारतीय ऋणग्रस्तता के कारण (CAUSES OF RURAL INDEBTEDNESS)

ग्रामीण ऋणग्रस्तता के प्रमुख कारण निम्नलिखित है-

1. भूमि पर जनसंख्या का बहुत अधिक दबाव (Pressure of Population an Land)- भारत में लगभग सम्पूर्ण जनसंख्या 70% भाग कृषि पर निर्भर है। देश में प्रतिवर्ष जनसंख्या में तीन गति से वृद्धि के साथ जनसंख्या का भूमि पर भार बढ़ता जा रहा है। फलतः प्रति ग्रामीण परिवार की आय कम होती जा रही है, क्योंकि जमीन का साधन तो पहले ही जितना या पहले से कम ही है, किन्तु खाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। ग्रामीणों को अपने उपभोग कार्यों के लिए भी ऋण लेना पड़ता है।

2. भूमि का उप-विभाजन एवं अपखण्डन (Sub-division and Fragmentaition of Land) भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाने के कारण जोत का आकार अनार्थिक हो गया है। कृषकों के उस पर उत्पादन बढ़ाने के प्रचत्न सफल नहीं होते। अत: उत्पादन कम मात्रा में होता है। अत: किसानों को अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए ऋण लेना पड़ता है।

3. प्रकृति की अनिश्चितता (Lucertainties of Nalure)—भारतीय कृषि पूर्णरूप से प्रकृति पर निर्भर है, जिससे कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि और कहीं ओले, पाले तथा अन्य कोड़ों आदि से कृषि सदैव अनिश्चित रहती है। इसलिए कहा जाता है-भारतीय कृषि कोई लाभदायक व्यवसाय न होकर जीवनयापन का एक ढंग मात्र रह गई है। इसका प्रभाव उनकी आर्थिक स्थिति पर बुरा पड़ता है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि और असामयिक वृष्टि के कारण फसल मारी जाती है, अत: ऋण की शरण लेकर उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ती है।

4. कृषकों का बुरा स्वास्थ्य (Bad Health of Farmers)—भारतीय कृषक की आय बहुत कम होती है, जिससे उनका उपभोग कम होता है और वे अत्यन्त ही कमजोर हो जाते हैं। अत्यन्त दुर्बल होने से उनकी कार्यक्षमता बहुत कम होती है जिससे उत्पादन भी कम होता है। इसका परिणाम यह होता है कि अवशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें ऋण लेना पड़ता है।

5. कृषकों में अज्ञान व अशिक्षा (Ignorance and Illiteracy of Farmers) भारतीय कृषकों में अज्ञानता और अशिक्षा बहुतायत से पाई जाती है। अशिक्षा एवं अज्ञानता के ही कारण भारतीय किसान सामाजिक तथा धार्मिक अवसरों, जैसे-विवाह, मुण्डन आदि पर कर्ज लेकर भी पैसे को पानी की तरह बहाते हैं वे अपने साधन की सीमा पर ध्यान नहीं देते अत: ऋणग्रस्तता बढ़ जाती है।

6. कृषकों की निर्धनता (Poverty of Farmers) भारतीय कृषक की वार्षिक आय बहुत ही कम होती हैं, जिसके कारण किसान अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साहूकारों तथा महाजनों से ऋण लेता है।

7. मुकदमेबाजी (Litigations) सामाजिक संगठन की दुर्बलता के कारण भारतीय किसान छोटी-छोटी बातों पर दंगा-फसाद करने और मुकदमेबाजी करने से नहीं हिचकते। इस प्रकार मुकदमों में वकीलों को फीस तथा कोर्ट में और अनेक खर्च करने पड़ते हैं जिससे कि उन्हें ऋण लेना पड़ता है।

8. ग्रामीण साख-व्यवस्था का दोषपूर्ण होना (Defective Rural Credit Suructure) भारत में कृषकों को ऋण अधिकांशत: साहूकारों और महाजनों से लेना पड़ता है, क्योंकि सरकार द्वारा उनको प्रचुर मात्रा में ऋण प्रदान करने की कोई उचित व्यवस्था नहीं है। किसानों को कुल ऋण का 3.38 भाग सरकार द्वारा, 3.1% भाग सहकारी संस्थाओं द्वारा तथा शेष 93.6 भाग साहूकारों तथा

महाजनों आदि से प्राप्त होता है। महाजन लोग किसानों की अज्ञानता तथा विवशता का अनुचित लाभ उठाते हैं और किसानों से भारी ब्याज को दर वसूल करते हैं, साथ ही अनेक अनुचित प्रकार से ऋण का भार बढ़ा देते हैं।

9. ऊँची ब्याज दर (High Interest Rate)—कृषकों को ऋणग्रस्तता का एक यह भी मुख्य कारण है कि महाजनों व साहूकारों द्वारा जो ब्याज दर ली जाती है वह बहुत ही ऊँची होती है। बम्बई बैंकिंग जाँच समिति के शब्दों में "ऊँची व्याज की दर तथा महाजनों को शोषण प्रवृत्ति किसान की ऋणग्रस्तता में किसी तरह की कमी नहीं होने देती है।"

10. पैतृक ऋण (Ancestral Loan)—वर्तमान ऋणग्रस्तता का एक मुख्य कारण यह भी है कि ऋण पीढ़ी दर पीड़ी चलता रहता है। मैतृक ऋणों का चुकाना किसान अपना परम कर्तव्य समझता है। इस प्रकार एक बार लिया हुआ ऋण कई पीढ़ियों तक चलता रहता है।

11. भूमि और सिंचाई पर कर की अधिकता {High Rate of Taxes on Land and Irrigation)—भारत में ऋणग्रस्तता का यह भी कारण है कि यहाँ भूमि एवं सिंचाई करों की मात्रा बहुत अधिक है। इसके साथ-ही-साथ ये कर किसानों से कठोरतापूर्वक ऐसे समय में वसूल किये जाते हैं, जबकि उनके पास मुद्रा का अभाव होता है। अत: इन करों का भुगतान करने के लिए उन्हें ऋण लेना पड़ता है जो कि ऋणग्रस्तता को बढ़ा देता है।

12. कृषि में उत्पत्ति-ह्रास नियम का लागू होना (Application of Law of Diminishing Returns in Agriculture) कृषि में सभी साधनों का उपयोग करने पर भी कृषि का उत्पादन इच्छित अनुपात में नहीं होता और क्रमागत उत्पत्ति-यस नियम लागू होता है। किसान को इस कारण भूमि को उत्पादन क्षमता को बनाये रखने के लिए महाजनों से ऋण लेकर अधिक साधन जुटाने पड़ते हैं।

18. अन्य कारण (Other Causes)—ऋणग्रस्तता के कुछ अन्य कारण इस प्रकार हैं-(अ) ग्रामीण उद्योगों का पतन, (ब) पशुधन की हानि, (स) कृषि उपज की दोषपूर्ण विपणन प्रणाली आदि।

ऋणग्रस्तता के दुष्परिणाम (ADVERSE EFFECTS OF RURAL INDEBTEDNESS)

ग्रामीण ऋणग्रस्तता के प्रमुख दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं-

I. आर्थिक दुष्परिणाम (Economic Adverse Effects) आर्थिक दृष्टि से ऋणग्रस्तता के दुष्परिणाम निम्नलिखित हो सकते हैं-

1. भूमि का हस्तान्तरण (Transfer of Land)—किसानों की भूमि का अधिकांश भाग ऋणग्रसित होने के कारण ऐसे लोगों के पास चला जाता है जो स्वयं कृषि नहीं करते, बल्कि ऋण देने और किसानों की भूमि लिखवा लेने का कार्य करते हैं। इसका प्रभाव कृषि पर सभी दृष्टिकोणों से बहुत बुरा पड़ता है।

2. निम्न जीवन-स्तर (Low Living Standard) न्यूनतम आवश्यकताओं को भी पूरा न कर सकने से कृषकों का स्वास्थ्य कमजोर हो जाता है। वे ऋण से कभी ऋण नहीं होते। अत: वे उपार्जन का बड़ा भाग ऋण पटाने में ही व्यय कर देते हैं और अपने रहन सहन, खाने पीने पर व्यय नहीं कर पाते । अत: उनका जीवन स्तर धीरे धीरे नीचा हो जाता है।

3. कृषि विकास में बाधा (Obstacles in Agriculture Developments)—ऋणग्रस्त होने के कारण मशीनों, अच्छे बीज, रासायनिक खाद आदि का प्रयोग करने में अपने को सर्वथा असमर्थ पाता है, क्योंकि ऋण और उसका ब्याज पटाने से ही उसको फुर्सत नहीं मिलती। अत: उसका परिणाम यह होता है कि कृषि में वे विनियोग नहीं कर पाते। अत: कृषि में कोई उन्नति नहीं हो पाती।

4. कृषि उत्पादन के विक्रय में बाधा (Problemsin Sale of Agricultural Production) महाजनों द्वारा कृषकों की उत्पादित फसल को मनमाने भाव पर खरीद लिया जाता है, क्योंकि वे ऋण प्राय: इसी शर्त पर लिये रहते हैं कि फसल तैयार होने पर अनाज उन्हें बेच दिया जायेगा। अत: महाजन मनमाने भाव पर अनाज खरीद लेते हैं और किसानों की अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।

II. सामाजिक दुष्परिणाम (Social Adverse Effects)—ऋणदाता और ऋणी के बीच परस्पर संघर्ष होने से भूमिहित वर्ग बढ़ जाता है और उसके पास आजीविका का कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उसे अपना जीवनयापन करने के लिये बड़े बड़े भूमि स्वामियों पर निर्भर होना पड़ता है। ये लोग कृषक से तरह-तरह की राशियाँ आदि लेते रहते हैं। इन कारणों से सामाजिक असन्तोष बढ़ जाता है, जो कि सामाजिक आन्दोलनों को जन्म देते हैं।

डॉ. थॉमस के शब्दों में "एक ऋणग्रस्त समुदाय निश्चयात्मक रूप में एक सामाजिक चालामुखी है। विभिन्न वर्गों के बीच असन्तोष का उत्पादन होना स्वाभाविक है तथा शनैः-शनै: बढ़ता हुआ असन्तोष एक दिन भयानक सिद्ध होता है।'

III. नैतिक दुष्परिणाम (Moral Adverse Effects)—कृषकों को ऋण के बोझ से दबे होने के कारण दासता का जीवन व्यतीत करना पड़ता है जिसमें उनका जीवन निराशापूर्ण एवं असन्तोषमय हो जाता है तथा वे अनैतिक कार्यों को करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। झूठ, बेईमानी, धोखेबाजी व अनेक दूसरी बुराइयाँ बढ़ती जाती हैं। परिणामतः ग्रामीण जन्ता का चरित्र गिरता जाता है।

ऋणग्रस्तता दूर करने के उपाय (MEASURES TO REMOVE INDEBTEDNESS)

1. ऋण देने वाली संस्थाओं की स्थापना Establishment of Lending Institutions)- देश में ऐसी संस्थाओं की बहुतायत से स्थापना की जाय जहाँ से कृषकों को आसानी से एवं कम तथा उचित ब्याज दर पर आवश्यकतानुसार विभिन्न अवधियों के लिए ऋण प्राप्त हो सके।

2. तकावी ऋणों की उचित व्यवस्था (Proper Arrangement of Takavi Loan) हमारे देश में यद्यपि किसानों को तकावी के रूप में ऋण प्राप्त होने की सुविधाएँ प्राप्त हैं, परन्तु उनमें और सुधार करने की आवश्यकता है।

3. पुराने ऋणों का निपटारा (Settlement of Old Debts)—पुराने ऋणों को समाप्त किये बिना किसान की उन्नति होना असम्भव है। यदि ऋणी की सम्पत्ति इतनी अधिक न हो, जिससे कि उसके ऋणों को चुकाया जा सके, तो वहाँ उसे दिवालिया घोषित करके पुराने ऋणों को समाप्त करना चाहिए।

4. महाजनों पर नियन्त्रण (Control on Money Lenders) महाजनों पर उचित नियन्त्रण लगाये बिना कृषकों को उन्नति सम्भव नहीं है। इसके लिए सरकार को प्रयास करना चाहिये, ताकि महाजन लोग कृषकों का शोषण न कर सकें। यह कार्य ब्याज दर पर नियन्त्रण करके पावती किस्तों का हिसाब रखकर तथा ऋणो से रसीदें बगैरह दिलवाकर किया जा सकता है।

5. नये ऋण लेने पर नियन्त्रण (Control for Taking New Loans)—कृषकों को नये ऋण लेने पर नियन्त्रित किया जाना चाहिये और अनुत्पादक ऋणों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

6. सहकारी साख समितियों का प्रसार (Expansion of Credit Cooperatives) देश में सहकारी साख समितियों की संख्या में और अधिक वृद्धि करके भी इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। इन समितियों द्वारा कृषकों को सभी प्रकार के ऋण दिये जाने की व्यवस्था करनी चाहिए। गाइगिल समिति ने ग्रामीण ऋण की समस्या को हल करने के लिए निम्न सुझाव दिये थे-

(i) ऋणी द्वारा लिये जाने वाले ऋण की मात्रा इस प्रकार निश्चित की जानी चाहिये कि उसे 20 वर्ष में 4% सूद की दर में अथवा अपनी अचल संपत्ति के सामान्य मूल्य के 50% द्वारा अदा करने में समर्थ हो सके।

(ii) कृषि उत्पादन में लगे हुए कृषकों का ऋण अनिवार्य रूप से पुनः निर्धारित किया जाय। का बकाया भी ऋण समझा जाय।

(iii) ऋण देने वालों, अर्थात् महाजनों को अपने आपको रजिस्टर्ड करवाना चाहिये तथा पूँजी आदि का विवरण सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिये।

(iv) बैंक अथवा अन्य एजेन्सी इस रकम को कृषक से 20 किस्तों में वसूल करे।

(v) निश्चित की गई कर्ज राशि भूमि बन्धक बैंक से या इसी प्रकार की अन्य संस्थाओं से लेकर चुका देनी चाहिये।

इस प्रकार उपर्युक्त सुझाव ग्रामीण ऋणग्रस्तता को दूर करने के लिए प्रस्तुत किये गये हैं। इन सभी सुझावों का दृढ़ता से पालन करने पर समस्या का पूर्ण हल हो सकता है।

ऋणग्रस्तता की समस्या को सुलझाने की दिशा में सरकारी प्रयास (GOVERNMENT MEASURES TO REMOVE RURAL INDEBTEDNESS PROBLEM)

1. भूमि के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध (Restriction on 'Transfer of Land) उत्तर प्रदेश, पंजाब और पश्चिमी बंगाल को राज्य सरकारों ने ऐसे कानून बनाये हैं, जिनके अनुसार ऋणदाता अपनी रकम के भुगतान के रूप ऋणी किसानों की भूमि सरलता से नहीं खरीद सकता है।

2. ऋणों की अनिवार्यतः कम करना (Compulsory Reduction of Debts) मध्य प्रदेश, बिहार, मद्रास, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों ने ऐसे कानून बनाये हैं, जिनके अनुसार किसानों के ऋण की रकम अनिवार्य रूप से कम कर दी जाती है।

3.ऋण को तय करने से सम्बन्धित नियम(Law Regarding Determination of Debts)- मध्य प्रदेश, असम, पंजाब, पश्चिमी बंगाल आदि राज्यों ने ऋण की रकम तय करने से सम्बन्धित कानून पास किये हैं, जिनके अनुसार किसान को सम्पत्ति के आधार पर उसके ऋण के भुगतान की किस्तें निर्धारित की जाती हैं।

4. ब्याज की दर के नियमन सम्बन्धी कानून (Law Regarding Regulation of Rate of Interest)—सन् 1913 के, अधिक ब्याज के ऋण नियम, जिसका सन् 1925 में संशोधन हुआ, गें केवल उचित ब्याज लेने को आज्ञा दी गई है। अधिकतम अनुचित ब्याज की दर का राज्यवार विवरण निम्न सारणी में दिया गया है-

सारणी:-प्रतिशत प्रतिवर्ष साधारण ब्याज


कई राज्यों में 'दमदुपत' (Dumduput) का नियम लागू कर दिया गया है जिसके अनुसार ऋणों द्वारा अदा की गई राशि मूल राशि के दुगुने से किसी हालत में अधिक नहीं हो सकती।

5. महाजनों या साहूकारों पर नियन्त्रण (Control of Money Lenders) सन् 19:30 के बाद विभिन्न राज्यों में साहूकारों पर नियन्त्रण रखने के लिये निम्नलिखित मुख्य कानून बनाये गये हैं-

सारणी 7-

उपरोक्त कानून द्वारा मुख्यतया निम्नांकित बातों का प्रबन्ध किया गया है-(i) नाम रजिस्टर करवाना.) लाइसेन्स लेना.(i) निश्चित विधि से खात रखना, liv) ऋणियों को जमा रकम की रसीद देना, (v) ऋणियों को समय-समय पर खाता विवरण भेजना, (vi) ब्याज का नियमन करना. (vii) किसान की तंग करने के विरुद्ध संरक्षण, और (viii) उपर्युक्त नियमों का उल्लंघन करने पर दण्ड की व्यवस्था करना।

6.सहकारी साख सुविधाओं का विस्तार (Expansion of Cooperative Credits Society) कृषकों की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिये सरकार ने सहकारी साख सुविधाओं के विस्तार पर भी पर्याप्त ध्यान दिया है। इसके साथ ही राष्ट्रीयकृत बैंकों को ऋण नीति में भी कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता दिये जाने पर जोर दिया गया है।

7.क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना (Establishment of Rural Banks)—यद्यपि सरकार ने सहकारी साख समितियों और व्यापारिक बैंकों के माध्यम से कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली वित्तीय सहायता में वृद्धि को प्रोत्साहन दिया, लेकिन इसका अधिकांश लाभ बड़े-बड़े कृषकों को मिला। अतः छोटे-छोटे कृषकों को सरलता से ऋण प्रदान करने की दृष्टि से ग्रामीण बैंकों को स्थापना का कार्यक्रम

बनाया गया है।

8. बन्धक प्रथा की समाप्ति (End of Mortgage Tradition)-नवीन आर्थिक कार्यक्रम में बन्धक-प्रथा को समाप्त करने की घोषणा की गई है और प्राय: सभी राज्यों में कानून बना कर (या अध्यादेश निकाल कर) बन्धकी रखने को अवैधानिक घोषित कर दिया गया है। इससे साहूकार द्वारा शोषण का एक माध्यम समाप्त हो गया है।

9. ऋण की मुक्ति (End of Loan)—बीस सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत सभी राज्यों में छोटे किसानों (जिसके पास 2 हेक्टर से कम भूमि है) तथा भूमिहीन श्रमिकों एवं कारीगरी को ऋण मुक्त कर दिया गया है और ऐसी व्यवस्था की गई है कि साहूकार इन वर्गों के व्यक्तियों से कोई भी रकम वसूल नहीं कर सकते।

ऋण सम्बन्धी कानून सामग्नी ऋणग्नस्तता की व्यापक बीमारी के लिए केवल प्राथमिक चिकित्सा के रूप में ही कार्य कर सके हैं। ऋणग्नस्तता जैसे भीषण रोग का स्थायी इलाज केवल महाजनों के नियन्त्रण व ऋण तथा ब्याज दर कम करने में निहित नहीं है। इसका अन्तिम समाधान तो केवल कृषि की उन्नति में है। हमें समस्त कृषि विकास की गति बढ़ानी होगी तथा किसान की आय को उच्च स्तर पर स्थिर करना होगा व कृषि विधियों तथा किसान को मनोवृत्ति में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना होगा तभी ऋणग्रस्तता की समस्या का स्थायी समाधान होगा।

कृषकों की ऋणग्रस्तता दूर करने व उनकी आयों में वृद्धि करने की नवीन योजनाएँ (NEW PLANS TO ERADICATE FARMERS INDEBTEDNESS AND INCREASE THEIR INCOME)

1. परम्परागत कृषि विकास योजना (PKVY) को लागू किया जा रहा है, ताकि देश में जैव कृषि को बढ़ावा मिल सके। इससे मिट्टी की सेहत और जैव पदार्थ तत्वों को सुधारने तथा किसानों की आमदनी बढ़ाने में मदद मिलेगी।

2. ब्याज रियायत योजना (ISS)—सरकार ₹ 3 लाख तक के अल्प अवधि फसल ऋण पर 3 प्रतिशत दर से ब्याज रियायत प्रदान करती है।

3. प्रधानमन्त्री फसल बीमा योजना (PMFBY) को खरीफ मौसम 2016 से लागू किया गया और यह कम प्रीमियम पर किसानों के लिए उपलब्ध है। इस योजना से कुछ मामलों में कटाई के बाद के जोखिमों सहित फसल चक्र के सभी चरणों के लिए बीमा सुरक्षा प्रदान की जा रही है।

4. सॉयल हेल्थ कार्ड (SHC) योजना जिसमें किसान अपनी मिट्टी में उपलब्ध बड़े और छोटे पोषक तत्वों का पता लगा सकते हैं। इससे उर्वरकों का उचित प्रयोग करने और मिट्टी की उर्वरता सुधारने में मदद मिलती है।

5. प्रधानमन्त्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) को लागू किया जा रहा है, ताकि सिंचाई वाले क्षेत्र को बढ़ाया जा सके, जिसमें किसी भी सूरत में सिंचाई की व्यवस्था हो, पान की बर्बादी कम हो, पानी का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके।

6. सरकार ने कृषि उत्पाद और पशुधन विपणन (सम्वर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2017 को तैयार किया जिसे राज्यों के सम्बन्ध अधिनियमों के जरिए उनके द्वारा अपनाने के लिए 20-05-2017 को जारी कर दिया गया।

7. राष्ट्रीय कृषि विपणन योजना (E-NAM) को शुरूआत 11 अप्रैल, 2016 को की गई थीं। इस योजना से राष्ट्रीय स्तर पर ई विपणन मंच की शुरूआत हुई है और ऐसा बुनियादी ढाँचा तैयार हुआ है जिससे देश के 585 नियमित बाजारों में ई-विपणन की सुविधा उपलब्ध होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो

8. राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) को सरकार उनकी जरूरतों के मुताबिक राज्यों में लागू कर सकेंगी, जिसके लिए राज्य में उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। राज्यों को उनकी जरूरतों, प्राथमिकताओं और कृषि जलवायु जरूरतों के अनुसार योजना के अन्तर्गत परियोजनाओं कार्यक्रमों के चयन, योजना की मंजूरी और उन्हें अमल में लाने के लिए लचीलापन और स्वायत्तता प्रदान की गई है।

9. राष्ट्रीय तिलहन और तेल (NMOOP) मिशन कार्यक्रम 2014-15 से लागू है। इसका उद्देश्य खाद्य तेलों की घरेलू जरूरत को पूरा करने के लिए तिलहनों का उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाना है। इस मिशन के विभिन्न कार्यक्रमों के राज्य कृषि बागवानी विभाग के जरिए लागू किया जा रहा है।

10. सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य के अन्तर्गत गेहूँ और धान की खरीद करती है। सरकार ने राज्यों संघशासित प्रदेशों के अनुरोध पर कृषि और बागवानी से जुड़ी उन वस्तुओं की खरीद के लिए बाजार हस्तक्षेप योजना लागू की है, जो न्यूनतम समर्थन गृल्य योजना के अन्तर्गत शामिल नहीं है। बाजार हस्तक्षेप योजना इन फसलों की पैदावार करने वालों के संरक्षण प्रदान करने के लिए लागू की गई है ताकि वह अच्छी फसल होने पर मजबूर में कम दाम पर अपनी फसलों को न बेचें।

11. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM), केन्द्र प्रायोजित योजना के अन्तर्गत् 29 राज्यों के 638 जिले में एन एफ एस एम दाल, 25 राज्यों के 194 जिलों में एन एफ एस एम चावल, 11 राज्यों के 126 जिले में एन एफ एस एम गेहूँ और देश के 28 राज्यों के 265 जिलों में एन एफ एस एम नोटा अनाज लागू की है, ताकि चावल, गेहूँ, दालों मोटे अनाज के उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाया जा सके।

कृषकों की आय बढ़ाने के सुझाव (SUGGESTIONS FOR AUGMENTING FARMER'S INCOME)

1. भारत में निजी ऋण पर निर्भरता को पूर्णतया समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए और केवल संस्थानात्मक वित्त ही उपलब्ध होना चाहिए।

2. ग्रामीण ऋण का उपयोग केवल उत्पादक लद्देश्यों के लिए ही किया जाना चाहिए।

3. जहाँ तक हो सके नाम ऋण नगदी की अपेक्षा जिन्स (Kind) के रूप में ही होना चाहिए। अर्थात् बीजों, उर्वरकों, कीटनाशकों के रूप में।

4. कृषि ऋणग्रस्तता के बढ़ते हुए भार को नियन्त्रित करने के लिए मूलधन के नियमित भुगतान पर जोर दिया जाना चाहिए।

5. ऋषि ऋणों पर ब्याज की दर कम होनी चाहिए और किसानों के विभिन्न वर्गों के लिए ब्याज दर उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार होना चाहिए।

6. छोटे तथा सीमान्त किसानों और भूमि हीन किसानों के लिए, उपभोग ऋण पर ब्याज दर अत्यन्त निम्न होनी चाहिए।

7. संस्थानात्मक वित्त को सफल बनाने के लिए प्रशिक्षित निष्ठावान एवं वचनबद्ध व्यक्ति होने चाहिए, जो सहकारी समितियों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का प्रबन्ध एवं संचालन कर सके।

8. यदि सम्भव हो सके तो सरकार को पुराने ऋणों को चुकता करने के लिए भी आवश्यक उधार का प्रबन्ध करना चाहिए।

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