(बजट के सिद्धांत, बजट के प्रकार - निष्पादन आधारित, शून्य आधारित,
एफ.आर.एम.डी.)
भारतीय
लोकवित्त की अध्ययन सामग्री का केन्द्र भारत सरकार की राजस्व एवं बजटरी नीतियां
तथा गतिविधियां हैं। भारत सरकार के वित्तीय स्वास्थ्य, वित्तीय नीतियों तथा
गतिविधियों का हमारी अर्थव्यवस्था पर इतना व्यापक और गहरा प्रभाव पड़ता है कि इनके
बहुमुखी अध्ययन के बिना देश की अर्थव्यवस्था और समाज के लिए हितकर नीतियों की रचना
करना असंभव है।
राजकोषीय
या बजटरी नीति से आशय सरकार की सार्वजनिक व्यय, करारोपण, सार्वजनिक ऋण तथा उसके
प्रबन्ध से सम्बन्धित उन नीतियों से है जिनका प्रयोग सरकार अर्थव्यवस्था में
रोजगार, राष्ट्रीय उत्पादन (आय) आन्तरिक तथा बाह्य आर्थिक स्थिरता, आर्थिक समता
आदि आर्थिक नीतियों के प्रमुख उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए करती है।
करारोपण,
सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण राजकोषीय नीति के तीन महत्वपूर्ण अस्त्र हैं।
घाटा वित्तीयन को जो एक प्रकार की केन्द्रीय बैंक से ली जाने वाली ऋण व्यवस्था है
जिसे सरकार देश के केन्द्रीय बैंक से नए नोटों के निर्गमन के द्वारा प्राप्त करती
है, चौथे अस्त्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, पर यह एक विशुद्ध राजकोषीय
अस्त्र नहीं है क्योंकि यह सरकारी व्यय तथा मुद्रा की पूर्ति दोनों को प्रभावित
करती है। सार्वजनिक व्यय को बढ़ाना इसका राजकोषीय पहलू है।
इसीलिए
घाटे के वित्तीयन को हम राजकोषीय तथा मौद्रिक नीति की सीमा पर स्थित मानते हैं।
सरकार राजकोषीय नीति के द्वारा निजी क्षेत्रों के लिए संसाधनों की उपलब्धता,
आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका तथा संसाधनों के आवंटन तथा विनियोजन
ढांचे को प्रभावित करती है।
भारत में बजटरी व्यवस्था
संविधान
के अनुच्छेद 112 के अन्तर्गत प्रत्येक वित्तीय वर्ष के लिए, जो अप्रैल 1 से 31
मार्च तक चलता है, केन्द्र सरकार की अनुमानित प्राप्तियों तथा व्ययों का एक विवरण
पार्लियामेण्ट के सामने रखना आवश्यक होता है। इस वार्षिक वित्तीय विवरण को केन्द्र
सरकार का बजट कहा जाता है। बजट में तीन लगातार वर्षों के व्ययों तथा प्राप्तियों का
विवरण दिया रहता है, आने वाले वर्ष के लिए बजट अनुमान, चालू वर्ष के लिए संशोधित अनुमान
तथा इसका कारण तथा एक वर्ष पीछे के लिए वास्तविक प्राप्तियां तथा व्यय। राज्य
सरकारों के बजट के सम्बन्ध में व्यवस्था अनुच्छेद 202 में दी हैं। संविधान के
अनुच्छेद 266 तथा 267 में बजट का ढाँचा दिया हुआ है जिसके अनुसार तीन प्रकार के
खातों के रूप में सरकारी व्यवहार को प्रस्तुत किया जाता है।
संचित कोष
संचित
कोष वह कोष है जिसमें सरकार की सम्पूर्ण राजस्व प्राप्ति, ट्रेजरी बिल्स, सरकारी
ऋणों के निर्गमन, अर्थोपाय अग्रिमों तथा ऋणों की अदायगी से प्राप्त प्राप्तियों को
प्रदर्शित किया जाता है। बिना पार्लियामेण्ट से अधिकृत हुए इस फण्ड से किसी भी रकम
की निकासी नहीं हो सकती। किसी व्यय के लिए चाहे समेकित फण्ड से होने योग्य ही हो या
जिसको पार्लियामेण्ट द्वारा स्वीकृत ही कर दिया गया हो तब तक रकम संचित फण्ड से
नहीं निकाली जा सकती जब तक कि विनियोजन अधिनियम द्वारा इस व्यय को
अधिकृत नहीं किया गया हो।
सार्वजनिक खाता
संविधान
की धारा 266(2) के तहत संचित फण्ड से सम्बन्धित सामान्य स्वभाव
की प्राप्तियों तथा व्ययों के अतिरिक्त कुछ ऐसे व्यवहार होते हैं जो सरकारी खाते में आते हैं। ये ऐसी प्राप्तियां
होती हैं जो वास्तव में सरकार की नहीं होती हैं, बल्कि सरकार
दूसरों के लिए अपने पास रखती है तथा जिन्हें बाद में उन्हें लौटा देती है। ऐसे
व्यवहारों को सार्वजनिक खाते में प्रदर्शित किया जाता है और इसे निकालने के सम्बन्ध
में (जब जमाकर्ता का भुगतान किया जाता है) पार्लियामेण्ट की स्वीकृति नहीं ली
जाती।
आकस्मिक कोष
संविधान
की धारा 267 के तहत आकस्मिक कोष एक प्रकार का आकस्मिक व्यय को पूरा करने के लिए
राशि है जो केन्द्र सरकार के सम्बन्ध में राष्ट्रपति तथा राज्य सरकार
के सम्बन्ध में राज्यपाल के पास प्रयोग के लिए रहता है जिससे कुछ
आकस्मिक तथा अनिश्चित व्ययों की पूर्ति की जा सके जिन्हें पार्लियामेण्ट की
स्वीकृति तक के लिए टाला नहीं जा सके। ऐसे व्ययों को आकस्मिक कोष से निकासी के द्वारा
पूरा कर लिया जाता है, बाद में पार्लियामेण्ट से अधिकृत होने पर संचित
फण्ड से निकालकर इसमें डाल दिया जाता है।
बजट निर्माण प्रक्रिया
भारत
में बजट का निर्माण 5 चरणों में पूरा किया जाता है। निर्मित होने के बाद इसे फरवरी
माह की अंतिम तिथि को प्रस्तुत किया जाता है।
1. बजट का आकलन- बजट निर्माण के प्रथम चरण में व्ययों का
अनुमान लगाया जाता है जिसके लिए वित्त मंत्रालय विभिन्न विभागों
को एक पत्र प्रेषित करता है।
2. बजट का दस्तावेज-द्वितीय चरण में वित्त मंत्रालय
द्वारा समस्त विभागों की मांगों को एकत्र करके तथा उन पर
सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद का निर्णय लेकर आय और व्यय का विवरण तैयार किया जाता है। इसी
को बजट का दस्तावेज कहते हैं।
3. संसद में प्रस्तुति एवं स्वीकृति-तीसरे
चरण में बजट के दस्तावेजों पर संसद में बहस होती है। इस दौरान न
तो कोई प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है और न ही सदन में मतदान कराया जाता है।
लेकिन यदि वार्षिक संघीय बजट लोकसभा द्वारा पारित नहीं होता है तो प्रधानमंत्री
अपनी मंत्रिपरिषद का त्याग पत्र पेश कर देता है।
4. बजट का क्रियान्वयन : संसद द्वारा केन्द्रीय बजट
को स्वीकृत देने के पश्चात बजट के चौथे चरण में बिनयोजन अधिनियम
के अनुसार कार्यवाही शुरू की जाती है। बजट के क्रियान्वयन में 5 प्रक्रियाएं
सम्मिलित होती है।
(i)
वित्तीय स्त्रोतों का एकीकरण
(ii)
वित्तीय संसाधनों का व्यय
(iii)
वित्तीय संसाधनों का वितरण
(iv)
सरकारी आय-व्यय का लखा-जोखा
(v)
लेखांकन बजट
5. वित्तीय कोषों का लेखांकन एवं लेखा परीक्षण-इस
अन्तिम चरण में लेखा अंकेक्षण विभाग सभी प्रकार के सरकारी लेनदेन
का ब्यौरेवार लेखांकन एवं परीक्षण करता है। निर्माण की सभी प्रक्रिया पूर्ण होती
है।
केन्द्रीय बजट के दस्तावेज
केन्द्रीय
बजट में 7 प्रमुख दस्तावेज होते हैं-
1. वित्तमंत्री का भाषण-वित्त मंत्री के भाषण के दो
भाग होते हैं- पहला भाग सामान्य आर्थिक परिदृश्य तथा दूसरा भाग
कर प्रस्ताव एवं आर्थिक नीतियों का होता है।
2. वार्षिक वित्तीय कथन-इसके अंतर्गत आगामी वित्तीय
वर्ष के लिए अनुमानित सरकारी आय तथा व्यय पर विस्तृत टिप्पणियां
होती हैं।
3. बजट का सारांश-केन्द्रीय आम बजट के इस दस्तावेज
में संपूर्ण बजट का सारांश संक्षिप्त आंकड़ों तथा ग्राफ के रूप
में दिया जाता है। विभिन्न राज्यों तथा केन्द्र शा“त प्रदेशों से केन्द्र सरकार को
प्राप्त होने वाली धनराशि तथा उनको दी जाने वाली धनराशि का विवरण इसमें सम्मिलित
होता है।
4. वित्त विधेयक-इसके अंतर्गत सरकार द्वारा प्रस्तावित कर
प्रस्तावों का उल्लेख होता है।
5. बजट प्राप्तियां-इसके अंतर्गत आगामी वर्ष में
सरकार द्वारा व्यय की जाने वाली धनराशि विभिन्न मंत्रालयों तथा
विभागों पर आयोजनगत और गैर- आयोजनगत मदों के अंतर्गत व्यय की जाने वाली धनराशि का विवरण
दिया जाता है।
6. बजट व्यय-इसके अंतर्गत आगामी वर्ष में सरकार द्वारा
व्यय की जाने वाली धनराशि विभिन्न मंत्रालयों तथा विभागों पर
आयोजनगत और गैर आयोजनगत मदों के अंतर्गत व्यय की जाने वाली धनराशि का विवरण होता
है।
7. अनुदान की मांगें-इसके अंतर्गत विभिन्न मंत्रालयों
की अपनी निजी मांगों के साथ-साथ समस्त अनुदान की मांगों का
सारांश दिया जाता है।
बजट के प्रकार
बजट
के निम्नलिखित प्रकार है-
पारंपरिक बजट
भारत
के प्रारंभिक काल के बजट को ही पारंपरिक बजट कहते हैं। इस प्रकार के बजट में मुख्य
विधायिका का कार्यपालिका पर वित्तीय नियंत्रण स्थापित करना रहा है। इसके अनुसार
बजट में मुख्यतः वेतन, मजदूरी, यात्रा, मशीनें तथा उपकरण आदि के रूप में किए जाने
वाले व्यय तथा विभिन्न मदों में होने वाली आय को प्रस्तुत किया जाता रहा है। इसमें
किस क्षेत्र में कितना धन व्यय करना है उसी का उल्लेख होता था, किन्तु इस व्यय के
खर्च से क्या-क्या परिणाम प्राप्त करने हैं, उनका ब्यौरा नहीं दिया जाता है।
निष्पादन बजट
कार्य
के परिणामों को आधार बनाकर निर्मित होने वाले बजट को निष्पादन बजट या कार्यपूर्ति
बजट कहा जाता है। यह सरकारी प्रचलन के कार्यों, कार्यक्रमों, क्रियाओं तथा
परियोजनाओं को पेश करने की एक कार्यविधि है जो मूलतः लक्ष्योन्मुखी तथा उद्देश्य
परक प्रणाली पर आधारित है। जिसमें केवल संगठनात्मक आय-व्यय का हिसाब ही नहीं,
बल्कि प्राप्त हुए निष्कर्षों या कार्य निष्पादन को मूल्यांकन का आधार बनाया जाता
है। इस प्रकार का बजट, सरकार क्या कर रही है, कितना कर रही है तथा कितनी कीमत पर
कर रही है, इन सभी को प्रतिबिम्बित करती है। भारत में निष्पादन बजट को वर्ष 1968
से इस्तेमाल किया जाता है।
आउट कम बजट
जब
किसी एक वित्तीय वर्ष के लिए किसी मंत्रालय अथवा विभाग को आवंटित किए गए बजट में
अनुश्रवण तथा मूल्यांकन किए जा सकने वाले भौतिक लक्ष्यों का निर्धारण इस उद्देश्य
से किया जाता है कि बजट के क्रियान्वयन की गुणवत्ता को परखा जाना संभव हो सके, ऐसे
बजट को आउटकम बजट कहते हैं। भारत में इस प्रकार के बजट की घोषणा तत्कालीन वित्त
मंत्री पी. चिंदबरम् द्वारा 25 अगस्त 2005 को की गई थी।
शून्य आधारित बजट
इस
प्रकार के बजट की अवधारणा पीटर-ए-पायर ने दी थी। वस्तुत: बजट की वह प्रक्रिया जिसमें
किसी भी विभाग अथवा संगठन द्वारा प्रस्तावित व्यय के प्रत्येक मद पर पुनर्विचार
करके प्रत्येक मद को बिल्कुल नूतन मद (शून्य) मानते हुए उसका नए सिरे से मूल्यांकन
करना ही शून्य प्रणाली बजट कहलाता है। बजट की यह प्रणाली व्यय किए जाने वाले
प्रत्येक मद के औचित्य पर बल देती है और किसी भी क्रिया के लिए कोई आधार या
न्यूनतम व्यय स्वीकार नहीं करती अर्थात् इसमें बजट के बिना किसी आधार के नए सिरे
से निर्मित किया जाता है। भारत में इस प्रकार के बजट की शुरुआत वर्ष 1986-87 में
तत्कालीन वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने की थी।
विनियोग बजट
विनियोग
या व्यय बजट से आशय उस बजट से है, जिसका प्रयोग सरकार द्वारा सरकारी विभागों एवं
सेवाओं के लिए किया जाता है। ऐसे मदों पर व्यय जिसमें व्यय पश्चात् पुनः पूंजीगत
प्राप्तियां नहीं होती हैं अर्थात् इस मद पर व्यय की गई पूंजी से पूंजी निर्माण
नहीं होता है।
पूंजी बजट
पूंजी
बजट में पूंजीगत प्राप्तियों एवं पूंजीगत भुगतानों को सम्मिलित किया जाता है।
पूंजीगत खाता प्राप्तियों में बाजार ऋण, भारतीय रिजर्व बैंक से प्राप्त उधार,
विदेशी सरकारों एवं संस्थाओं से प्राप्त ऋण, राज्य सरकारों को दिए गए ऋण की वापसी
एवं केन्द्र सरकार को दिए गए ऋण की वापसी आदि को सम्मिलित किया जाता है।
जेण्डर बजट
बजट
का वह रूप जेण्डर बजट कहलाता है, जब बजट को लिंग विशेष के आधार पर तैयार किया जाता
है या बजट में लिंग विशेष के लिए अलग से बजटीय प्रावधान किया गया होता है।
सामान्यत: बजट में महिलाओं के लिए जब अलग से विशेष बजटीय रणनीति सृजित की जाती है
तो इसे जेण्डर बजट कहा जाता है। जेण्डर बजट के माध्यम से सरकार द्वारा महिलाओं के
विकास कल्याण तथा सशक्तीकरण से संबधित योजनाओं तथा कार्यक्रमों के लिए प्रत्येक
वर्ष बजट में एक निश्चित धनराशि की व्यवस्था सुनिश्चत करने का प्रावधान किया जाता
है।
घाटे का वित्तीय बजट
एक
संतुलित बजट में अनुमानित राजस्व और अनुमानित व्यय समान होते हैं। घाटे वाला बजट
वह है जिसमें अनुमानित राजस्व अनुमानित व्यय से कम रह जाता है। अर्थात् कर ही राशि
व्यय से कम होती है। अत: घाटे का बजट अवस्फीति से ग्रस्त अर्थव्यवस्था की मांग के
अभाव के कारण पैदा हुई अपूर्ण रोजगार संतुलन की समस्या से निपटने की एक अच्छी नीति
होती है।
बजट के भाग
अनुच्छेद
112(2) (ब) के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि सरकार राजस्व व्ययों तथा अन्य व्ययों के
बीच अन्तर प्रदर्शित करे। इसलिए बजट को दो भागों में प्रस्तुत किया जाता है-राजस्व
बजट तथा पूँजी बजट। राजस्व बजट तथा पूँजी बजट में प्रदर्शित सम्पूर्ण प्राप्तियां,
संचित फण्ड की सम्पूर्ण प्राप्तियां प्रदर्शित करेंगी तथा राजस्व बजट में
प्रदर्शित सम्पूर्ण व्यय संचित फण्ड के सम्पूर्ण व्यय या संवितरण प्रदर्शित
करेंगे।
राजस्व बजट या राजस्व व्यवहार
चालू
वित्तीय व्यवहार को राजस्व व्यवहार कहते हैं। राजस्व बजट के दो भाग
होते हैं-
(अ)
राजस्व प्राप्तियां
(ब)
राजस्व व्यय
राजस्व प्राप्तियां-ऐसी प्राप्तियों
जिनके लौटाने का दायित्व सरकार पर नहीं हो उन्हें हम राजस्व प्राप्तियां कहते हैं।
इन प्राप्तियों के कारण सरकार की देयता में वृद्धि नहीं होती। ये राजस्व
प्राप्तियां सरकार की आय होती हैं। 'प्राप्तियां' अधिक विस्तृत हैं जिसमें राजस्व
प्राप्तियों के अतिरिक्त वे प्राप्तियां भी सम्मिलित हैं जिनके लौटाने का दायित्व
सरकार के ऊपर होता है। राजस्व प्राप्तियां दो प्रकार की होती हैं-कर राजस्व तथा
गैर कर राजस्व।
कर राजस्व-कर एक प्रकार का अनिवार्य
भुगतान है जो उस व्यक्ति को अनिवार्य रूप से सरकार को देना पड़ता है जो कर आधार से
सम्बन्धित होता है तथा जिसके बदले करदाता को आवश्यक रूप से कोई लाभ नहीं प्राप्त
होता। कर आधार से आशय उससे है जिसको आधार बनाकर कर लगाया जाता है जैसे आयकर का कर
आधार है आय। यदि जिसकी आय सरकार द्वारा निर्धारित सीमा से ऊपर होगी उसे अनिर्वायत:
कर देना पड़ेगा। कर दो प्रकार के होते हैं-प्रत्यक्ष कर एवं परोक्ष कर।
प्रत्यक्ष कर
उन
करों को कहते हैं जिनके मौद्रिक बोझ को दूसरों पर विवर्तित (टाला) नहीं किया जा
सकता जिनके सम्बन्ध में कर से उत्पन्न कराघात तथा करापात उसी व्यक्ति पर पड़ते हैं
जिनके ऊपर सरकार कर लगाती है तथा जिनकरों के
बोझ को विवर्तित किया जा सकता है उन्हें परोक्ष कर कहते हैं।
प्रत्यक्ष
तथा परोक्ष करों से सम्बन्धित सभी राजस्व समस्याओं का नियमन तथा नियन्त्रण राजस्व
विभाग द्वारा होता है जो दो साविधिक बोर्डो सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ डाइरेक्ट टैक्सेज
तथा सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ एक्साइज एण्ड कस्टम, द्वारा इनका नियमन करता है।
सेन्ट्रल
बोर्ड ऑफ डाइरेक्ट टैक्सेज का गठन सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ रेवेन्यू एक्ट 1963 के
अन्तर्गत होता है। इसने । जनवरी, 1963 से कार्य करना शुरू किया। इसमें अध्यक्ष के
अलावा 5 सदस्य होते हैं। यह प्रत्यक्ष करो की उगाही से जुड़े सभी मामलों का
निपटारा करता है और प्रत्यक्ष कर से सम्बद्ध कानूनों के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होता
है।
केन्द्र सरकार के प्रत्यक्ष कर
1.
व्यक्तिगत आयकर
2.
निगम कर
3.
उपहार कर (समाप्त)
4.
अस्ति कर (समाप्त)
5.
व्यय कर (केल्डार) (समाप्त)
6.
सम्पत्ति कर
7.
पूँजी लाभ कर
8.
लाभांश कर
9.
ब्याज दर
10.
फ्रिन्ज बेनिफिट (सीमान्त लाभ)कर- 2005-06 में शुरू
11.
प्रतिभूति व्यवहार कर- 2006-07 में शुरू
12.
बैंकिंग कैश ट्रांजेक्शन कर- 2007-08 में शुरू तथा समाप्त
13.
कमोडिटीज ट्रैजेक्शन कर- 2008-09 में शुरू
14.
लाभांश वितरण कर- 2007-08 से शुरू
केन्द्र सरकार के परोक्ष कर
1.
संघीय उत्पाद शुल्क
2.
सीमा शुल्क
3.
सेवा कर
4.
बिक्री पर
5.
व्यय कर या होटल टैक्स
भारतीय
आयकर का नियमन इनकम टैक्स ऐक्ट 1961 द्वारा होता है। कर के साथ ही दो शब्द और
प्रयोग में आते हैं-ड्यूटी या शुल्क, लेवी तथा फीस। ड्यूटी तो एक प्रकार का कर है,
और बहुत देशों में इसे करारोपण ही कहा जाता है जैसे इक्साइज टैक्सेशन पर भारत में ड्यूटी
प्रयोग में आती है जैसे उत्पादन शुल्क या सीमा शुल्क। जब बिना आवश्यक रूप से लाभ
प्राप्त किए हुए आधार से सम्बन्धित होने के कारण भुगतान किया जाता है तो उसे तो हम
कर कहते हैं तब जब सरकार द्वारा प्रदत्त किसी सेवा के बदले (जिसमें प्राप्त होने
वाला लाभ स्पष्ट है) अनिवार्य अंशदान किया जाता है तो इसे फीस कहते हैं (भुगतान
सम्बन्धी अनिवार्यता है यदि आप उस सेवा का प्रयोग करते हैं) पर यदि सरकार द्वारा
प्रदत्त कुछ स्पष्ट सुविधाओं जैसे सरकार द्वारा अवस्थापना के प्रयोग से या लाभ
प्राप्त करके कोई आर्थिक क्रिया करते हैं जैसे उत्पादन क्रिया जिसमें उत्पादक
सरकार द्वारा प्रदत्त सड़क संवहन, संचार, बैंकिंग आदि से परोक्ष रूप से लाभान्वित
हुआ या आयात तथा निर्यात जिसमें वह इन सुविधाओं के अतिरिक्त पोर्ट या अन्य
सुविधाओं से लाभान्वित हुआ, तो इनके प्रयोग से परोक्ष रूप से लाभान्वित होने के
कारण जो अनिवार्य भुगतान करना होगा, वह भी कर होगा पर इसे 'ड्यूटी' कहते हैं जैसे एक्साइज
ड्यूटी तथा कस्टम ड्यूटी।
कर, उपकर तथा अधिभार
कर
एक प्रकार का अनिवार्य अंशदान है जिसे करदाता बिना किसी प्रतिफल के सरकार को कर
आधार से सम्बन्धित होने के लिए देता है। किसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति के लिए कर
नहीं लगाया जाता जबकि उपकर तथा अधिभार दोनों ही किसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति के
लिए राजस्व की उगाही के लिए लगाए जाते हैं। उपकर कर के साथ कर आधार पर ही किसी
विशेष प्रयोजन के लिए लगाया गया कर है। जबकि अधिभार कर के ऊपर कर है जिसकी गणना कर
दायित्व पर की जाती है। सामान्यतया अधिभार प्रत्यक्ष कर पर लगाया जाता है जबकि
उपकर प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों दोनों के साथ होता है। वैसे सिद्धान्ततः उपकर
(शिक्षा) कर आधार पर लगाया जाता है जबकि अधिभार कर दायित्व पर लगाया जाता है। पर भारत
में हाल में लगाया गया उपकर अधिभार की ही तरह कर दायित्व पर लगाया जा रहा है।
अधिभार
तथा उपकर की प्राप्ति को राज्यों के वितरण योग्य पूल में नहीं डाला जाता है, इसके
राजस्व को उन उद्देश्यों पर लगाया जाता है जिनके लिए इन्हें लगाया गया है।
राजस्व व्यय
राजस्व
व्यय वे व्यय हैं जो सरकारी विभागों तथा सेवाओं को सामान्य चलाने, विगत वर्षों में
लिए गए ऋणों पर ब्याज अदायगी तथा राज्य सरकारों को दिए जाने वाले अनुदान से
सम्बन्धित होते हैं। स्पष्ट है ये ऐसे व्यय होंगे जिनके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था
में सम्पत्ति या पूंजी का सृजन नहीं होगा।
बजट
प्रपत्र में राजस्व व्ययों को दो भागों में बांटा जाता है-योजनागत राजस्व व्यय तथा
गैर-योजनागत राजस्व व्यय। योजनागत व्यय केन्द्रीय योजना तथा राज्यों एवं संघ
क्षेत्र की योजनाओं के दी गई सहायता से सम्बन्धित होते हैं, इनके अतिरिक्त अन्य
व्यय जो सरकार के सामान्य, सामाजिक तथा आर्थिक सेवाओं से सम्बन्धित होते हैं,
गैर-योजनागत व्यय होते हैं। किसी योजनागत व्यय का वह भाग जो उस वर्ष में पूरा नहीं
होता बल्कि अगले वर्ष के टल जाता है उसे अगले वर्ष में गैर-योजनागत व्यय मानते
हैं।
यह
मानना गलत है कि सभी आयोजन व्यय विकासात्मक व्यय होते हैं और सभी गैर-योजना राजस्व
व्यय गैर-विकासात्मक होते हैं तथा यह भी मानना ठीक नहीं है कि आयोजन व्यय आवश्यक
रूप से पूँजीगत व्यय होंगे तथा गैर-योजना व्यय राजस्व व्यय होंगे।
गैर-योजनागत
राजस्व व्ययों को मोटे तौर पर चार वर्गों में बांटा जा सकता है सामान्य सेवाओं पर
व्यय, सामाजिक तथा सामुदायिक सेवाओं पर व्यय, आर्थिक सेवाओं पर व्यय तथा अन्य
अनावंटनीय व्यय- सामान्य सेवाओं का सम्बन्ध देश की सुरक्षा तथा सरकार के सामान्य
रूप से कार्य करने से है, सामाजिक तथा सामुदायिक सेवाएं उपभोक्ता के रूप में
नागरिकों को आधारभूत सुविधाओं को पहुँचाने से सम्बन्धित हैं, आर्थिक सेवाएं
नागरिकों को उत्पादक के रूप में लाभ पहुंचाती हैं तथा जिन्हें हम किसी शीर्षक में नहीं
रख पाते उन्हें अनावंटनीय में रख देते हैं। पर इन व्ययों में तीन प्रमुख व्यय
हैं-(क) ब्याज अदायगी (ख) सुरक्षा तथा (ग) सब्सिडीज। भारत में
सुरक्षा व्यय को हमेशा ही गैर-योजनागत व्यय माना जाता है तथा
विकासात्मक व्यय के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। सीमा पर सड़कों के निर्माण पर
व्यय भी गैर-विकासात्मक माना जाता है। सुरक्षा गैर-योजनागत राजस्व व्यय तथा
गैर-योजनागत पूँजीगत व्यय दोनों ही हो सकता है। उल्लेखनीय यह है कि राष्ट्रीय
लेखांकन में सुरक्षा व्यय के उपभोग व्यय माना जाता है।
आर्थिक
सर्वेक्षण में सार्वजनिक व्ययों को एक दूसरे आधार पर वर्गीकृत किया गया है और वह
है विकासात्मक तथा गैर विकासात्मक व्यय। प्रतिरक्षा, ब्याज अदायगी, कर वसूली व्यय,
सब्सिडी, प्रशासनिक व्यय आदि को गैर विकासात्मक व्ययों में रखते हैं।
सब्सिडी तथा अनुदान
किसी
भी वस्तु या संवा को उसके उत्पादन लागत मूल्य या आर्थिक लागत मूल्य से कम पर
आपूर्ति करने के दोनों के अन्तर को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा जो व्यय किया
जाता है उसे सब्सिडी कहते हैं। इस प्रकार
सब्सिडी - लागत मूल्य जिस पर वस्तु
या सेवा लोगों को दी गई ऐसी वस्तुएं तथा सेवाएं सामान्यतया मेरिट वस्तुएं होंगी।
जब सरकार किसी वस्तु या सेवा की आपूर्ति नहीं करे बल्कि किसी व्यक्ति द्वारा की जाने
वाली किसी क्रिया जैसे मकान बनवाना, ट्यूबवेल लगवाना, की लागत का कुछ भाग वहन कर
ले तो इसे अनुदान कहते हैं। बजट की दृष्टि से सब्सिडी तथा अनुदान एक ही वर्ग के
हैं, इसलिए इन्हें एक साथ राजस्व खाते में दिखाया जाता है।
उल्लेखनीय
है कि केन्द्र सरकार से केन्द्रीय करों में से राज्यों को हस्तान्तरण तथा अनुच्छेद
275 के अन्तर्गत केन्द्र सरकार से राज्यों को दिए गए अनुदान को राजस्व व्यय मानते
हैं। विदेशों को दिये गये अनुदान को गैर योजनागत राजस्व व्यय मानते हैं।
पूँजी बजट
पूँजी
बजट में सरकार की पूँजीगत प्राप्तियां तथा पूँजीगत व्यय प्रदर्शित होतं हैं। यह
बजट सरकार की पूँजी आवश्यकता तथा उसके वित्तीयन-के स्रोत पर प्रकाश डालती है।
पूँजी आवश्यकता की पूर्ति के प्रमुख स्रोत हैं-राजस्व आधिक्य, आन्तरिक बाजार
उधारी, अल्प बचत (गैर-बाजार उधारी) तथा भविष्य निधि, ऋण तथा अग्रिमों की वापसी,
विनिवेश, विदेशी ऋण तथा सहायता, विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे मुद्राकोष,
एशियन विकास बैंक, विश्व बैंक आदि से प्राप्त सहायता। इन्हें पूँजीगत प्राप्तियां
कहते हैं।
पूँजीगत व्ययों को दो भागों में रखा जाता है-योजनागत
पूँजीगत व्यय तथा गैर-योजनागत पूँजीगत व्यया योजनागत व्यय केन्द्रीय योजना तथा
राज्यों एवं संघीय क्षेत्रों को दी जाने वाली केन्द्रीय सहायता से सम्बन्धित होता
है।
ऋण
अदायगी को पूँजीगत व्यय माना जाता है पर उस पर दिए जानेवाले ब्याज का भुगतान राजस्व व्यय होता है। इसी ऋण की वसूली से प्राप्ति
पूँजीगत प्राप्ति है पर उस पर ब्याज की प्राप्ति पूँजीगत प्राप्ति नहीं बल्कि
राजस्व प्राप्ति है। केन्द्र सरकार से राज्य सरकारों को दी जाने वाली अनुदान तथा
सहायता को सामान्यतया राजस्व व्यय माना जाता है पर यदि यह अनुदान पूँजीगत योजना को
पूरा करने के लिए हो तो पूँजी व्यय होगा।
गैर-योजनागत
पूँजीगत व्ययों को चार भागों में बांटा जा सकता है-सामान्य सेवाओं पर व्यय,
सामाजिक तथा सामुदायिक सेवाओं पर व्ययआर्थिक
सेवाओं पर पूँजीगत व्यय तथा ऋण एवं अग्रिमों के रूप में भुगतान।
पूँजीगत प्राप्तियां दो प्रकार की होती हैं-(क)
ऐसी प्राप्तियां जो केन्द्र सरकार के दायित्व या ऋण में वृद्धि लाती हैं तथा (ख)
ऐसी प्राप्तियांजो केन्द्र सरकार की
सम्पत्तियों में कमी लाती हैं अर्थात् जो केन्द्र सरकार की सम्पत्तियों के बेचने
से जैसे विनिवेश से प्राप्ति या किसी को दिए गए ऋण की वापसी से प्राप्त होती है।
पूँजीगत व्ययों तथा राजस्व घाटे को पूरा करने के लिए पूँजीगत प्राप्तियों की
आवश्यकता होती है।
बजटरी घाटे की विभिन्न अवधारणाएं
कोई
भी सरकार अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित अपनी राजकीय क्रियाओं को सम्पादित करने के लिए
कुछ सार्वजनिक व्यय करती है तथा इन व्ययों को पूरा करने के लिए कुछ धन प्राप्त
करती है जिन्हें सार्वजनिक प्राप्तियां कहते हैं। सार्वजनिक घाटा वस्तुतः
सार्वजनिक व्ययों तथा उनको पूरा करने के लिए सार्वजनिक प्राप्तियों के अन्तर से
सम्बन्धित है।
सार्वजनिक व्ययों तथा सार्वजनिक प्राप्तियों से सम्बन्धित वित्तीय व्यवहारों को संक्षिप्त रूप में नीचे चार्ट में प्रदर्शित किया गया है-
उपर्युक्त
के आधार पर बजटरी व्यवहार से सम्बन्धित विभिन्न घाटे की अवधारणाएं निम्नलिखित हैं-
1. राजस्व घाटा- यदि कुल राजस्व व्यय की मात्रा कुल राजस्व
प्राप्तियों से अधिक हो जाती है तब यह आधिक्य राजस्व घाटे को प्रदर्शित
करता है। इस प्रकार
राजस्व
घाटा = कुल राजस्व - कुल राजस्व प्राप्ति
राजस्व
घाटा = (आयोजन राजस्व व्यय - गैर-आयोजन राजस्व व्यय) - (कर राजस्व + गैर-कर
राजस्व)
राजस्व
घाटा सरकार की अबचत प्रदर्शित करता है। इसका अर्थहुआ
सम्पत्ति में बिना किसी वृद्धि के केन्द्र सरकार के दायित्व में वृद्धि।
2. बजटरी घाटा- राजस्व खाते का घाटा तथा पूँजी खाते के
घाटे कोजोड़कर बजटरी घाटा प्राप्त होता है। इस प्रकार
बजटरी
घाटा = राजस्व खाते का घाटा + पूँजी खाते का घाटा = (कुल राजस्व - कुल
राजस्व प्राप्ति) + (कुल पूँजीगत व्यय - कुल पूँजीगत प्राप्ति)
बजटरी
घाटा = कुल व्यय - कुल प्राप्तियां
बजटरी
घाटे की पूर्ति सरकार रिजर्व बैंक से अपनी नकदी की निकासी के द्वारा या ऐडहाक
ट्रेजरी बिल्स (90 दिनों की अवधि की अल्पकालिक प्रतिभूति) को रिजर्व बैंक को देकर
करती है, इस स्थिति में,
बजटरी
घाटा = रिजर्व बैंक की नकदी की निकासी + ऐडहॉक
ट्रेजरी बिल्स की मात्रा में परिवर्तन
सामान्यतया
नकदी की निकासी की नगण्यता के कारण बजटरी घाटे को आर्थिक समीक्षा में 1997-98 के
पहले ऐडहॉक ट्रेजरी बिल्स में परिवर्तन के द्वारा प्रदर्शित किया जाता था। यदि
सरकार ट्रेजरी बिल्स के माध्यम से लिए जाने वाले ऋण पर रोक लगा दे जैसा 1997-98 के
बजट हुआ जबकि ऐडहाक ट्रेजरी बिल्स को समाप्त कर अर्थोपाय अग्रिम की प्रक्रिया शुरू
की गई तो इस स्थिति में बजटरी घाटा शून्य प्रदर्शित होगा इस स्थिति में बजटरी घाटे
की धारणा का कोई महत्व नहीं होगा।
3. राजकोषीय घाटा- राजकोषीय घाटा बजट घाटे की वृहद् संकल्पना है यह धारणा केन्द्रीय सरकार की ऋणग्रस्तता पर
राजकोषीय क्रियाओं के प्रभाव को प्रतिबिम्बित करती है। भारत में बजटरी व्यवहार में
'राजकोषीय घाटे' की अवधारणा के पहली बार प्रयोग का श्रेय डॉ. मनमोहन सिंह को जाता
है जिन्होंने 1991 में अपनी केन्द्रीय बजट में यह धारणा सामने रखी। वैसे इस धारणा
का सबसे पहले प्रयोग 'वर्ल्ड डेवेलपमेन्ट रिपोर्ट 1988' में PSBR (Public
Sector Borrowing Requirement) के रूप में मिलता है। सुखमय चक्रवर्ती
कमेटी (1985) ने अपनी रिपोर्ट में पहली बार यह मत व्यक्त किया कि बजटरी घाटा समग्र
बजटरी व्यवहार से उत्पन्न सम्पूर्ण घाटा या सरकारी दायित्व में सम्पूर्ण वृद्धि
प्रदर्शित नहीं करता। यह इस पर पूरा प्रकाश नहीं डालता कि सरकार बजटरी व्यवहार के
कारण बाजार से कितना संसाधन निकाल रही है जो वास्तव में निजी क्षेत्र के लिए
उपलब्ध होते जिसे हम टेक्निकल भाषा में संसाधनों की क्राउडिंग आउट कहते हैं।
राजकोषीय
घाटा वह समग्र घाटा है जो वास्तव में सरकार की समग्र बजटरी आय तथा समग्र बजटरी व्यवहार
से उत्पन्न कुल देयता प्रदर्शित करता है। इस प्रकार
राजकोषीय
घाटा =
समग्र व्यय - समग्र आय
या
राजकोषीय घाटा = समग्र व्यय - (समग्र राजस्व आय +
समग्र पूँजीगत आय)
चूँकि
समग्र पूँजीगत आय = समग्र पूँजीगत प्राप्ति – सार्वजनिक ऋण तथा अन्य देयताएं
इसलिए,
राजकोषीय
घाटा = समग्र व्यय -(समग्र राजस्व आय + समग्र पूँजीगत प्राप्ति - सार्वजनिक ऋण तथा
अन्य देयताएं)
या
राजकोषीय घाटा = समग्र व्यय - (समय प्राप्ति - सार्वजनिक ऋण तथा अन्य देयताएं)
या
राजकोषीय घाटा = समग्र व्यय - समग्र प्राप्ति + सार्वजनिक ऋण तथा अन्य देयताएं
या
राजकोषीय घाटा = बजटरी घाटा + सार्वजनिक ऋण तथा अन्य देयताएं
इस
प्रकार राजकोषीय घाटा सार्वजनिक ऋण में निबल वृद्धि प्रदर्शित करता है। यह
अर्थव्यवस्था में संसाधन अंतराल भी प्रदर्शित करता है। अर्थव्यवस्था की दृष्टि से
राजकोषीय घाटे की अवधारणा सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल सरकार की
प्राप्तियों तथा व्ययों के बीच अन्तराल प्रदर्शित करता है बल्कि इस बात पर भी
प्रकाश डालता है कि किसी चालू वर्ष में सरकार द्वारा लिए जाने वाले सार्वजनिक ऋण
की मात्रा क्या होगी तथा साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि सरकार पूँजी बाजार
से कितना संसाधन निकाल रही है जो अन्यथा व्यक्तिगत क्षेत्र के निवेश के लिए उपलब्ध
रहे होते।
राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए निम्नांकित स्रोत हैं-
i.
आन्तरिक बाजार उधारी
ii.
विदेशी ऋण
iii.
अल्प बचत स्कीम
iv.
विशिष्ट जमा
v.
पोवीडेन्ट फण्ड
vi.
अन्य
इसमें
से जितना (पूरा या आंशिक) समेकित फण्ड में जाएगा वही राजकोषीय घाटे को प्रभावित
करंगा।
4. प्राथमिक या मूल घाटा- प्राथमिक घाटा वह राजकोषीय
घाटा है जिसमें से ब्याज अदायगियां कम कर दी गई हैं। भारतीय बजट
में ब्याज अदायगी की राशि बहुत अधिक है, जिसके परिणामस्वरूप राजकोषीय घाटे की
मात्रा प्राथमिक घाटे की तुलना में बहुत अधिक मात्रा में दिखाई पड़ती है। इसीलिए
1993-94 के बजट से मूल घाटा भी प्रदर्शित किया जा रहा है। मूल घाटा इस बात पर
प्रकाश डालता है कि कुल घाटे में से कितना घाटा ऐसा है जो वर्तमान राजकोषीय गतिविधियों
का परिणाम है।
इस
प्रकार,
प्राथमिक
घाटा = सकल राजकोषीय घाटा - ब्याज दायित्व
5. क्रियात्मक घाटा- क्रियात्मक घाटा राजकोषीय घाटे को स्फीतिक समायोजन के बाद प्रदर्शित करने की धारणा है।
स्फीति समायोजित राजकोषीय घाटा ही क्रियात्मक घाटा है।
क्रियात्मक
घाटा = सकल राजकोषीय घाटा - स्फीतिक समायोजन
6. मौद्रीकृत घाटा- घाटे की वह राशि जिसकी वित्तीय
व्यवस्था नोट निर्गमन के द्वारा हो उसे मौद्रीकरण कहते हैं और उस
घाटे को मौद्रिक घाटा कहते हैं।
मौद्रिक
घाटा = बजटरी घाटा + सार्वजनिक ऋण के सम्बन्ध में रिजर्व बैंक का योगदान = ऐडहॉक
ट्रेजरी बिल्स में वृद्धि + सार्वजनिक ऋण में रिजर्व बैंक के योगदान में वृद्धि
उल्लेखनीय
है कि ट्रेजरी बिल्स रिजर्व बैंक के सार्वजनिक ऋण में योगदान के कारण मौद्रीकरण
होगा। इस प्रकार ऐडहाक ट्रेजरी बिल्स की समाप्ति के कारण प्रत्यक्ष मौद्रीकरण समाप्त
होगा। पर मौद्रीकरण बना रह सकता है।
बजटरी
घाटे की आपूर्ति, चूँकि ऐडहाक ट्रेजरी बिल्स के निर्गमन द्वारा होगी, इसलिए बजटरी
घाटा = मौद्रीकृत घाटा, पर यदि बजटरी घाटा शून्य हो तो मौद्रीकृत घाटा इस बात पर
निर्भर करेगा कि सार्वजनिक ऋण में रिजर्व बैंक की धारिता कितनी है।
सार्वजनिक ऋण
वर्तमान
भारतीय बजटरी व्यवहार के अनुसार केन्द्र सरकार के सार्वजनिक ऋण के अन्तर्गत तीन
प्रकार की देयताएं आती हैं (क) आन्तरिक ऋण (ख) विदेशी ऋण तथा (ग) अन्य
देयताएं। आन्तरिक तथा विदेशी ऋण भारत के सार्वजनिक ऋण के
अन्तर्गत आते हैं और इनका भुगतान भारतीय संचित कोष के अन्तर्गत सुरक्षित होता है।
पर अन्य देयताएं सार्वजनिक खाते में दिखाई जाती हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद
292 के अन्तर्गत पार्लियामेंट सार्वजनिक ऋण की ऊपरी सीमा निर्धारित कर सकती है। इसी
प्रकार की व्यवस्था 293 के अन्तर्गत राज्यों के ऋणों के सम्बन्ध में है जहाँ राज्य
विधानसभा राज्यों के आन्तरिक ऋण पर ऊपरी सीमा निर्धारित कर सकती है।
राज्यों
द्वारा लिए जाने वाले ऋणों के सम्बन्ध में दो शर्ते हैं एक तो राज्य केवल आन्तरिक
ऋण ही ले सकते हैं दूसरे जब तक ऋणों के सम्बन्ध में राज्यों की केन्द्र सरकार के
प्रति देयता हो तब तक ऋण की उगाही के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार से अनुमति लेनी
अनिवार्य होगी। केन्द्र की ही तरह राज्य सरकारें भी अपनी आकस्मिक स्थिति से निपटने
के लिए 'राज्य अर्थोपाय अग्रिम' के तहत रिजर्व बैंक से ऋण ले सकती है, जो से ही ऋण
माना जाता है।
केन्द्र
सरकार के आन्तरिक ऋण के अन्तर्गत बाजार उधारी, रिजर्व बैंक द्वारा निर्गत विशिष्ट
प्रतिभूतियां, क्षतिपूरक तथा अन्य बॉण्ड, रिजर्व बैंक द्वारा राज्य सरकारों,
व्यापारिक बैंकों तथा अन्य संस्थाओं को निर्गत ट्रेजरी बिल्स तथा अन्तर्राष्ट्रीय
वित्तीय संस्थाओं को निर्गत गैर परक्राम्य तथा ब्याजरहित रूपया प्रतिभूतियां आती
हैं। अन्य देयता के अन्तर्गत आन्तरिक तथा बाह्य ऋणों को छोड़कर सरकार की
ब्याजमुक्त देयताएं आती हैं जैसे डाकघर बचत बैंक जमा खाता, प्रॉविडेण्ट फण्ड जमा,
अल्प बचत योजना जमा, डाकघर प्रमाणपत्रों के माध्यम से ऋण आदि। ये देयताए ऐसी हैं जो
सरकार को एक ऋणी के रूप में नहीं प्राप्त होती हैं बल्कि सरकारक्षके खाते में एक बैंक की भूमिका के रूप में प्राप्त होती है। ये देवताएं
भारतीय संचित कोष के अन्तर्गत सुरक्षित नहीं होती हैं, बल्कि सार्वजनिक खाते के
भाग के रूप में दिखाई जाती है।
सांविधिक
व्यवस्था के अन्तर्गत रिजर्व बैंक केन्द्रीय सरकार का ऋण प्रबंध करता है जबकि
समझौते के तहत राज्यों के ऋणों का प्रबंध करता है। सरकार अपनी राजकोषीय नीति के
द्वारा सार्वजनिक ऋण का आकार निर्धारित करती है जबकि सार्वजनिक ऋण की संरचना,
परिपक्वता ढांचा ब्याज दर प्रतिभूतियों के स्वभाव आदि का निर्धारण रिजर्व बैंक
द्वारा किया जाता है जिससे यह अर्थव्यवस्था की तरलता स्थिति तथा निवेशकों की
आवश्यकता तथा अधिमान के अनुरूप हो तथा इसकी लागत न्यूनतम हो।
उल्लेखनीय
है केन्द्रीय बजट 2007-08 में वित्तमंत्री ने सार्वजनिक ऋण प्रबंध को स्वतंत्र तथा
स्वायत्त स्वरूप प्रदान करने के ऋण प्रबन्ध ऑफिस की स्थापना की घोषणा की जो इस
दिशा में अत्यन्त ही धनात्मक कदम सिद्ध होगा। ऐसी स्थिति में ऋण प्रबन्ध रिजर्व
बैंक से हट जाएगा।
शून्य आधारित बजट-बजट की वह प्रक्रिया
जिसमे किसी भी विभाग अथवा संगठन द्वारा
प्रस्तावित व्यय के प्रत्येक मद पर पुनर्विचार करके प्रत्येक मद को बिल्कुल नूतन
मद (शून्य) मानते हुए उसका नये सिरे से मूल्यांकन करना ही शून्य प्रणाली बजट
कहलाता है। बजट की यह प्रणाली व्यय किये जाने वाले प्रतयेक मद के औचित्य पर बल
देती है और किसी भी क्रिया के लिए कोई आधार या न्यूनतम व्यय स्वीकार नहीं करती
अर्थात् इसमें बजट को बिना किसी आधार के नये सिरे से निर्मित किया जाता है।
जेण्डर बजटिंग-संसार में सर्वप्रथम
आस्ट्रेलिया में जेण्डर लजरिता वाला बजट 1984 में पेश किया गया था। भारत में महिला
अधिकारिता और महिला सशक्तिकरण की दिशा में बजट के योगदान को स्वीकार करते हुए
केन्द्र सरकार द्वारा जेण्डर बजटिंग की शुरुआत की गई जेण्डर बजटिंग के माध्यम से
सरकार द्वारा महिलाओं के विकास, कल्याण और सशक्तिकरण से सशक्तिकरण से संबंधित योजनाओं
और कार्यक्रम के लिए प्रतिवर्ष बजट में एक निर्धारित राशि की व्यवस्था सुनिश्चित
करने के प्रावधान किए जाते हैं।
राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम (FRBMA)
वर्ष
2000 में सरकार ने राजकोषीय घाटे के दोहरे खतरे पर विशेष ध्यान देना शुरू किया,
जिसके परिणामस्वरूप संसद में राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंध विधेयक, 2000
का प्रस्ताव रखा गया। वर्ष 2000 में निर्मित एफ.आर.बी.एम. विधेयक संसद में उपस्थित
सभी राजनीतिक दलों के सभी सांसदों के मत द्वारा पारित किया गया, जो अपने आप में एक
ऐतिहासिक घटना थी और यहाँ से भारत में राजकोषीय नीति-निर्माण की दिशा में एक
नये-युग की शुरुआत हुई।
एफ.आर.बी.एम.
अधिनियम, 2003: उपरोक्त परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सरकार द्वारा 26 अगस्त,
2003 को राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंध अधिनियम (Fiscla Responsibility and
Budget Management ACt/FRBMA) को पारित किया गया ताकि राजकोषीय
समेकन के लिए एक मजबूत सांविधिक/बाध्यकारी (Statutory
Obligatory) व्यवस्था स्थापित की जा सके।
भारत सरकार द्वारा राजकोषीय एवं राजस्व घाटों को कम करने के लिए कदम उठाते हुए 31 मार्च, 2008 तक राजस्व घाटे को शून्य किया जाना था, जिसे यू.पी.ए.-1 सरकार (31 मार्च, 2009) द्वारा इसे एक वर्ष आगे किया गया।