जनांकिकी : परिभाषा, अध्ययन की पद्धतियाँ एवं उपयोगिता (DEMOGRAPHY : DEFINITION, METHODS OF STUDY & UTILITY)

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2011 के आँकड़ों के अनुसार विश्व की जनसंख्या 700 करोड़ से अधिकं और भारत की जनसंख्या 121 करोड़ के पार कर चुकी है ऐसे समय में समाजशास्त्र में भी सामाजिक जनांकिकी (Demography) विषय का महत्व बढ़ गया है।

'Demography' शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्दों 'Demo' एवं 'Graphy' (Demo = जनता, Graphy = लिखना) से मिलकर बना है, जिसका आशय जनता के विषय में लिखना होता है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1855 में आशिले गुइलाई ने किया था। उनके अनुसार “जनांकिकी एक ऐसा विज्ञान है जो मनुष्यों की संख्या के बारे में अध्ययन करता है।"

प्रारम्भ में जनसंख्या सम्बन्धी अध्ययन का क्षेत्र जनगणना तक ही सीमित था। किन्तु वर्तमान समय में जनसंख्या का तथ्यसिद्ध, सांख्यिकीय एवं गणितीय विश्लेषण किया जाने लगा है, जिसे एक विषय का रूप देकर जनांकिकी की संज्ञा दी गयी है।

जनांकिकी की परिभाषा (Definition of Demography):- जनांकिकी की परिभाषा का हम यहाँ निम्न भागों में अध्ययन करेंगे।

संकुचित परिभाषा (Narrow Definitions):- उन्नीसवीं शताब्दी के विद्वानों जैसे- गुइलार्ड, लिवासियर, वान मेयर, हिपल, बेंजामिन, आदि ने जनांकिकी के अध्ययन में केवल जनसंख्या के परिमाणात्मक पहलू को ही सम्मिलित किया है और जनांकिकी अध्ययन में सांख्यिकीय पद्धति का समर्थन किया है। संकुचित अर्थ में जनांकिकी की दी गयी कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

आशिले गुइलार्ड (Achille Guillard):- “यह (जनांकिकी) जनसंख्या की सामान्य गति और भौतिक, सामाजिक तथा बौद्धिक दशाओं का गणितीय ज्ञान हैं।"

लिवासियर (Levasseur):- "जनांकिकी, मात्र जनसंख्या का विज्ञान है, जो प्रमुखतः जनसंख्या के जन्म, विवाह, मृत्यु तथा गतिशीलता की गति को सुनिश्चित करने के साथ-ही-साथ उन सिद्धान्तों की खोज करने का प्रयास भी करता है, जो इन गतियों का नियन्त्रण करते हैं।

विस्तृत परिभाषा (Broad Definitions):- बीसवीं शताब्दी के विद्वानों ने जनांकिकी में जनसंख्या के परिमाणात्मक अध्ययन एवं विश्लेषण के साथ-साथ गुणात्मक अध्ययन को भी शामिल कर जनांकिकी को एक विस्तृत, सामान्य एवं व्यावहारिक विज्ञान के प्रारूप में विकसित किया। इन जनांककों में थाम्पसन एवं लुइस, हाउजर एवं डंकन तथा प्रोफेसर डोनाल्ड बोग के नाम प्रमुख हैं:-

वारेन एम० थाम्पसन एवं लुइस के अनुसारः इन अमरीकी जनांककद्वय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'Population Problems' में, जो सर्वप्रथम 1930 में प्रकाशित हुई थी, जनसंख्या के विभिन्न पक्षों के अध्ययन को पापुलेशन स्टडी कहा है तथा इसकी विवेचना करते हुए “यह वर्तमान काल में जनसंख्या के आकार, संरचना एवं वितरण में ही नहीं वरन् उन पक्षों में समय समय पर हो रहे परिवर्तनों एवं उनके कारणों में भी रूचि रखती है।"

हाउजर एवं डंकन के अनुसारः इन अमरीकी जनांककों के मतानुसार जनांकिकी का कोई निश्चित विषयक्षेत्र नहीं निर्धारित किया जा सकता। जनांकिकी विषय के बारे में समय-समय पर भिन्न-भिन्न देशों में अलग अलग विचार प्रस्तुत किये जा चुके हैं। जो विद्वान् जनसंख्या के किसी न किसी पक्ष के अध्ययन से संबंधित हैं, उनकी संख्या वास्तविक जनांककों से बहुत अधिक है, फिर भी जनसंख्या से संबंधित जो भी साहित्य उपलब्ध है। उनके अनुसार वास्तव में जनांकिकी वह विज्ञान है जिसमें जनसंख्या के आकार, क्षेत्रीय वितरण, संरचना तथा इनमें हो रहे परिवर्तनों का तथा इन परिवर्तनों से संबंधित प्रक्रिया जैसे- जन्म, मृत्यु, क्षेत्रीय गत्यात्मकता एवं सामाजिक गतिशीलता आदि का अध्ययन किया जाता है।

अन्य परिभाषायें (Other definitions):- जनांकिकी की कुछ अन्य परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की जा सकती है जो कि निम्न प्रकार हैं।

प्रो० बर्कले के अनुसार- "जनसंख्या सम्बन्धी विश्लेषण सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्र अथवा चिकित्साशास्त्र से इतना अधिक सम्मिलित है कि जनांकिकी को इन सबसे अलग करना कठिन है। इसी कारण है कि इसकी ऐसी परिभाषा देना जिससे यह स्वतंत्र विषय के रूप में अलग से उभर कर सामने आये, कठिन हो गया है। फिर भी जनसंख्या का सांख्यिकीय विश्लेषण जनांकिकी कहा जा सकता है। इसके अन्तर्गत जनसंख्या को एक स्थूल के रूप में लिया जाता है तथा इसी जन-समूह का अध्ययन किया जाता है न कि किसी एक व्यक्ति का अंक-चित्र ही जनांकिकी है, जिसमें जनसंख्या को व्यक्तियों के एक संगठन के रूप में कुछ विशिष्ट प्रकार के समंकों से प्रस्तुत किया जाता है।"

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार- “मानवीय जनसंख्याओं का प्रमुखतः उनके आकार, संरचना तथा विकास की दृष्टि से किए गए वैज्ञानिक अध्ययन को जनांकिकी कहते हैं।"

प्रोफेसर हैरीसन एवं बॉयसी के अनुसार- 'मानव का भूपटल पर बिखराव अन्य जीव-जन्तुओं की भांति अस्त-व्यस्त नहीं है बल्कि मानव निवास व्यवस्थित एवं प्रबुद्ध जन-समुदायों के स्वरूप में मिलता है। ये समुदाय जैविकीय, सामाजिक अथवा साँस्कृतिक एकता के सूत्र में इस प्रकार बंधे रहते हैं कि इन्हें एक इकाई माना जा सकता है। समाज का यह प्रकार व्यक्तियों का झुण्ड मात्र नहीं है वरन् इसका अपना एक अस्तित्व है, अपना एक इतिहास है, अपनी कुछ विशेषतायें हैं तथा कुछ ऐसे तत्व उस समुदाय में हैं जो उसे दूसरे समुदाय से अलग बनाये हुये हैं।"

इस प्रकार जनसंख्या का आवागमन जनांकिकी का एक ऐसा विषय है जिसकी अलग-अलग की प्रक्रियाएँ होती हैं। अतः यह स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया के अध्ययन में समाज एवं प्रकृति की एकता भी उतनी ही बहुआयामी होती है। घटना-क्रियाओं की कालबद्ध एवं समन्वयात्मक प्रकृति समाज के अंदर उसी तरह अन्तर्निहित है जैसे वास्तविक जीवन का पुर्नजन्म जो हमेशा से समाज का ऐतिहासिक विकास सुनिश्चित करता रहा है। चूँकि जनांकिकीय घटना-क्रियाएँ तथा प्रक्रियाएँ सामाजिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है।

जनांकिकी का विषय-क्षेत्र (Scope of Demography)

वर्तमान में जनांकिकी का क्षेत्र विशाल हो गया है। विभिन्न जनांकिकीय शास्त्रियों ने जनांकिकी की विषय-वस्तु को अपने-अपने मतानुसार उल्लिखित किया है। डॉ०जी०विपिल ने जनांकिकी को निम प्रकार से लिया है। जनांकिकी की विषय-वस्तु के अन्तर्गत निम्नांकित बिन्दुओं को प्रस्तुत किया है:-

1. प्राणी-मापक में मनुष्यों के शरीर के ढाँचे, उसके विकास एवं शक्तियों की जाँच की जाती है।

2. व्याधिकी-मापक द्वारा शरीर की विभिन्न प्रकार की बीमारियों और उनका शारीरिक अंगों से सम्बन्ध का ज्ञान कराया जाता है। इनके स्त्रोत हैं- अस्पताल, प्रयोगशालायें एवं बीमा कंपनी आदि।

3. जीवन - समंकों के पंजीयन के अंतर्गत शासकीय आदेश से जन्म, विवाह, मरणांक, तलाक एवं बीमारी आदि से संबंधित जानकारी प्राप्त की जाती है। इसमें व्यक्तिगत जानकारी का सहारा लिया जाता

4. जनगणना में शासकीय माध्यम से नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं धार्मिक तथ्यों की जानकारी प्राप्त करना।

5. वंशावली विज्ञान में व्यक्ति विशेष की पीढ़ी तथा उनका लेखा-जोखा।

6. मानव-प्रजनन विज्ञान में वंशानुक्रमण का वैज्ञानिक अध्ययन जिसके द्वारा शारीरिक एवं मानसिक दोषों को किया जा सके।

इसके अलावा भी कुछ विद्वानों ने जनांकिकी की अपनी परिभाषाएँ दी है। थाम्पसन एवं लेविस के अनुसार- "विषय-क्षेत्र एवं विषय-वस्तु को और स्पष्ट करते हुए निम्नलिखित तीन पहलुओं के अध्ययन पर बल दिया है।

(1) जनसंख्या आकार का अध्ययन:- इसके अंतर्गत एक जनसंख्या समूह में कितने मनुष्य रहते हैं? इस समूह के आकार में क्या अध्ययन हो रहे हैं? तथा आकार में परिवर्तन किस प्रकार होते रहते हैं? आदि का अध्ययन करते हैं।

(2) जनसंख्या संरचना का अध्ययन:- इसके अंतर्गत जनसंख्या समूह में किस प्रकार के मनुष्य रहते हैं? और वे दूसरे समूह के मनुष्यों से किस प्रकार भिन्न हैं? का अध्ययन किया जाता है।

(3) जनसंख्या वितरण का अध्ययन:- इसके अंतर्गत किस क्षेत्र में जनसंख्या का वितरण किस प्रकार का तथा वितरण में परिवर्तन किस प्रकार हो रहे हैं? का अध्ययन किया जाता है।

हाउजर एवं डंकन के अनुसार:-"हाउजर एवं डंकन ने जनांकिकी की विषय-वस्तु पर प्रकाश डाला है एवं उसे निम्नांकित तीन बिन्दुओं में प्रस्तुत किया है:-

(1) इसमें जनसंख्या के गुणात्मक पक्ष का उल्लेख नहीं किया गया। जनसंख्या की संरचना के अन्तर्गत ही जनसंख्या की विशेषताएँ, जैसे- आयु, लिंग, वैवाहिक स्थिति, राष्ट्रीयता आदि के अतिरिक्त अन्य विशेषताएँ,यथा- स्वास्थय, मानसिक एवं अन्य अर्जित गुण आदि सम्मिलित किये गये हैं।

(2) प्रवासिता के स्थान पर क्षेत्रीय गत्यात्मकता शब्द का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि 'प्रवासिता' शब्द अधिक व्यापक होने के कारण जनसंख्या को प्रवासिता के एक निश्चित क्षेत्र को व्यक्त नहीं करता।

(3) सामाजिक गतिशीलता के अध्ययन पर विशेष बल दिया गया है, क्योंकि जनसंख्या की संरचना में केवल जन्म, मृत्यु अथवा क्षेत्रीय गत्यात्मकता से ही परिवर्तन नहीं आता, किन्तु मनुष्यों की सामाजिक स्थिति, उदाहरणार्थ- अवैवाहिक से वैवाहिक, वैवाहिक से विधवा एवं विधुर और रोजगार से बेरोजगार आदि भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं।

जनांकिकी को विषय-वस्तु जनांकिकी शास्त्रियों एवं अन्य द्वारा प्रस्तुत वर्गीकरणों के आधार पर हम जनसंख्या के विषय-क्षेत्र को निम्नांकित बिन्दुओं में रख सकते हैं-

(1) जनसंख्या का आकार (Size of Population):- किसी भी क्षेत्र की जनसंख्या के विषय में जानकारी लेते समय सबसे पहले मन में यह सवाल उत्पन्न होता है कि उस स्थान अथवा क्षेत्र विशेष में कितने व्यक्ति रहते हैं? यह जानने के लिये उस क्षेत्र का अध्ययन करना पड़ता है। वास्तव में यह एक प्रश्न है तथापित इसका उत्तर प्राप्त करना इतना सरल काम नहीं है। किसी भी क्षेत्र की सही जनसंख्या ज्ञात करने से पूर्व उस 'स्थान', 'व्यक्ति' एवं 'समय' की योग्य परिभाषा देनी होती है और उसके बाद संगणना, पंजीकरण अथवा निदर्शन से पूरी जनसंख्या का आंकलन किया जाता है। किसी समय विशेष पर उस निश्चित क्षेत्र को जनसंख्या ज्ञात होते ही हम संतुष्ट नहीं हो जाते हैं, वरन् हम यह भी जानना चाहते हैं कि वर्तमान पिछली जनसंख्या से कम है या अधिक तथा भविष्य में कितनी जनसंख्या हो जाने की सम्भावना है। ये सभी जानकारियाँ जनसंख्या में परिवर्तन से सम्बन्धित हैं। यहाँ न केवल परिवर्तन की मात्रा, वरन् परिवर्तन की दर ज्ञात करना भी एक महत्वपूर्ण कार्य होता है।

परिवर्तन की मात्रा एवं दर के अलावा, परिवर्तन के कारणों की खोजबीन की जाती है। ये कारण जन्म, मरण एवं प्रवास है जिनका जनांकिकी प्रक्रिया के रूप में अध्ययन किया जाता है।

(2) जनसंख्या की संरचना:- जनांकिकी का दूसरा मुख्य अध्ययन-विषय 'जनसंख्या संरचना' है। जहाँ जनसंख्या के 'आकार' का अध्ययन किसी क्षेत्र विशेष का एक सामान्य रूप पेश करता है वहाँ संरचना उसके समन्वय पर प्रकाश डालती है। यहाँ हमारा अध्ययन सामान्य न होकर विशेष हो जाता है। संरचना के अध्ययन से ही यह स्पष्ट होता है कि एक समाज किन कारणों से एक-दूसरे से पृथक् अस्तित्व बनाए हुए हैं? किस प्रकार वह अन्य समाजों से भिन्न है? अथवा उसकी कौन सी ऐसी विशेषताएँ हैं जो अन्य समाजों में नहीं पायी जाती हैं? वास्तव में, संरचना के माध्यम से हम यह जान सकतें हैं कि कुछ आदतें अथवा विशेषताएँ जनसमूह में किस प्रकार फैली हैं?

प्रो० हॉल ने जनसंख्या की संरचना से संबंधित निम्न चार उद्देश्य स्पष्ट किए हैं:-

(1) संरचना सम्बन्धी सूचनाओं से ही सामाजिक ढाँचे एवं उसमें आने वाले परिवर्तनों का ज्ञान हो सकता है।

(2) संरचना संबंधी जानकारी से ही जनांकिकी प्रक्रिया समझी जा सकती है।

(3) किसी जन-समूह में श्रम-शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है।

(4) भिन्न-भिन्न जन समूहों में परस्पर तुलना सम्भव हो जाती है।

आयु-संरचना से जन्म-दर एवं मृत्यु दर भी स्पष्ट होती है। किसी क्षेत्र विशेष की प्रजनन-शक्ति का माप पुनरूत्पादन आयुवर्ग को औरतों की संख्या के आधार पर किया जाता है। इसी प्रकार जहाँ वृद्ध व्यक्तियों की संख्या ज्यादा होती हैं वहाँ मृत्यु-दर ऊँची होती है। जिस देश की अधिकांश जनसंख्या 15. 65 के आयुवर्ग में है वहाँ के श्रमिकों की उत्पादकता अधिक होती है। सामान्यतः उस देश के जहाँ की अधिकतर जनसंख्या 15 से कम आयुवर्ग में है। जनसंख्या-संरचना के सम्बन्ध में कुछ अन्य घटकों का भी अध्ययन होना आवश्यक है, जैसे- ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या, वैवाहिक स्थिति, व्यवसाय, शिक्षा एवं धर्म आदि। ये सभी जहाँ एक ओर जन्म-दर एवं मृत्यु-दर को प्रभावित करते हैं, वहाँ दूसरी ओर प्रवास को प्रभावित कर जनसंख्या को निर्धारित करते हैं। जनांकिकीय विश्लेषण केवल संरचना का वर्णन करने तक ही सीमित नहीं रहता है, वरन् यह संरचना में होने वाले परिवर्तनों का पता लगाता है। इन परिवर्तनों के कारणों की खोजबीन करता है तथा भविष्य में उन परिवर्तनों के परिणामों की ओर संकेत करता है।

(3) जनसंख्या का वितरण (Distribution of Population):- जनसंख्या के विषय में तीसरा प्रमुख प्रश्न वितरण के सम्बन्ध में उठाया जाता है कि अथवा उसके किसी भूखण्ड में जनसंख्या का वितरण कैसा है तथा इस वितरण में किस प्रकार परिवर्तन हो रहे हैं? जनसंख्या के वितरण के सम्बन्ध में सबसे उल्लेखनीय बात वितरण की असमानता है जिसका अनुमान जनसंख्या के घनत्व के अन्तर से लगाया जा सकता है। यह असमानता भौगोलिक कारणों से भी हो सकती है, जैसे- जलवायु, मिट्टी की उपजाऊ शक्ति, आर्थिक संसाधनों की उपलब्धि अथवा आर्थिक कारणों से हो सकती है, जनसंख्या के वितरण को ऐतिहासिक कारण भी प्रभावित करते हैं। वे देश जिनके मानववास का इतिहास बहुत पुराना नहीं है वहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिकतर कम है।

जनसंख्या सम्बन्धी समंक एकत्र करने के लिए भौगोलिक इकाई को आधार माना जाता है, जैसे- महाद्वीप, पर्वतीय प्रदेश, रेगिस्तानी प्रदेश, सम्पूर्ण विश्व आदि, किन्तु सामान्यतया अध्ययन का क्षेत्र प्रशासनिक इकाई, जैसे- राष्ट्र, राज्य, जिला, शहर, ग्राम, नगरपालिका आदि हो सकते है। विषय के अनुसार अध्ययन का क्षेत्र निर्धारित होता है।

शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के आधार पर जनसंख्या वितरण की निम्नलिखित तीन श्रेणियाँ बनाई जा सकती है:-

(1) उन्नत शहरी एवं औद्योगिक क्षेत्र

(2) नव-शहरी एवं औद्योगिक क्षेत्र

(3) शहरी एवं औद्योगिक विकास से पूर्व की स्थिति

इन तीनों प्रकार के क्षेत्रों में जनसंख्या का वितरण कैसा हैं? उनमें किस प्रकार परिवर्तन हो रहा है? उस परिवर्तन के क्या कारण है? उसके क्या परिणाम होने की सम्भावनाएँ हैं? आदि प्रमुख विचार करने वाला विषय है। जनसंख्या का वितरण अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि राष्ट्रीय दृष्टिकोण से। इसीप्रकार आर्थिक नीतियों के निर्धारण में भी जनसंख्या महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। किसी राज्य को कितना आर्थिक अनुदान दिया जाना चाहिये? आय-कर अथवा राष्ट्रीय संचित-निधि में कितना हिस्सा किस राज्य का हो? इसका निर्धारण जनसंख्या के आधार पर होता है।

(4) जनसंख्या में परिवर्तनों के कारण (Causes of change in Population):- जनसंख्या लगातार परिवर्तनशील रहती है इसलिए जनांकिकीय अध्ययन में जनसंख्या के आकार, संरचना एवं वितरण में होने वाले परिवर्तन तथा इनके आधार पर भविष्यकालीन प्रवृत्तियों का अनुमान लगाना अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है। कतिपय विद्वानों ने सामाजिक गतिशीलता का उल्लेख परिवर्तन के कारकों के रूप में किया है। सामाजिक गतिशीलता को स्थानान्तरित होने में संरचना की विशेषताएँ परिवर्तित हो जाती है। उदाहरण के लिए, रोजगार के दृष्टिकोण से कोई व्यक्ति बेरोजगार से कार्यरत हो सकता है अथवा वैवाहिक प्रस्थिति के अनुसार वह

अविवाहित से विवाहित हो सकता है। सामाजिक गतिशीलता की अवधारणा जो जनसंख्या संरचना को प्रभावित करने वाली कही जाती है मूल रूप से पिट्रिम सोरोकिन द्वारा विकसित की गई है।

सामाजिक गतिशीलता की व्याख्या करने में सोरोकिन ने उसके कतिपय प्रमुख तत्वों का उल्लेख इस प्रकार किया है:-

(1) सामाजिक समग्र में एक व्यक्ति की स्थिति को स्थानापन्न कर इन सम्बन्धों को निश्चित करके प्राप्त किया जा सकता है।

(2) सामाजिक स्थान मानव जनसंख्या का समग्र है।

(3) व्यक्ति की सामाजिक स्थिति एक जनसंख्या के अन्तर्गत प्रत्येक समूहों से उसके संबंधों और इन समूहों के सदस्यों के साथ उसके संबंधों का योग है।

(4) इस प्रकार के समूहों का योग और इन प्रत्येक समूहों में स्थितियों का योग सामाजिक सह तत्वों की एक व्यवस्था का निर्माण करता है जिससे किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति परिभाषित की जा सकती है।

जनांकिकी की प्रकृति (Nature of Demography)

जनांकिकी एक वैज्ञानिक विषय है जिसमें जनसंख्यात्मक तथ्यों का संकलन तथा विश्लेषण वैज्ञानिक विधियों द्वारा किया जाता है। जिस प्रकार एक भूगर्भशास्त्री का मुख्य उद्देश्य किसी एक पत्थर की विशेषताओं को जानना नहीं होता या एक वनस्पतिशास्त्री का कार्य किसी एक फूल के तत्वों को जानना नहीं होता, उसी प्रकार एक जनसंख्याशास्त्री के लिए जन्म अथवा मृत्यु की कोई विशिष्ट घटना कोई महत्व नहीं रखती। विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ने के लिए वैज्ञानिक एक विधि के रूप में सांख्यिकीय औसत का उपयोग करते हैं। एक रसायनविज्ञानी जो असंख्य परमाणुओं की क्रियाओं का अध्ययन करता है, उसके लिए किसी एक अकेले हाइड्रोजन परमाणु के व्यवहार के सम्बन्ध में निश्चितत से भविष्योक्ति करना अत्यन्त कठिन कार्य है, किन्तु वह निश्चित तौर पर यह कह सकता है कि अधिकांश हाइड्रोजन परमाणुओं का व्यवहार इस प्रकार का है। इसी प्रकार, एक जनसंख्याशास्त्री के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रति किसी विशेष समुदाय के दृष्टिकोण के विषय में निश्चित तौर पर कहना कठिन है, तथापि वह यह अवश्य कह सकता है कि उस समुदाय के एक विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक वर्ग के अधिकांश व्यक्तियों का सामाजिक दृष्टिकोण पक्ष अथवा विपक्ष में है।

जनांकिकी का आधार निश्चित परिमाणात्मक तथ्य है। इतना होते हुए भी जनसंख्या का वैज्ञानिक तथा परिमाणात्मक अध्ययन अभी अपेक्षाकृत नया है। आजकल विश्व के अधिकतर देश लगातार तथा व्यवस्थित रूप में जनसंख्या तथ्यों का संकलन करते हैं। यह सही है कि आज भी ये तथ्य, विशेष रूप में विकासशील देशों में पूर्णतः योग्य नहीं है। एक वैज्ञानिक विषय के रूप में जनसंख्याशास्त्र के विकास को अग्रसर करने में इलेक्ट्रॉनिक कम्प्यूटर की विधियों ने काफी योगदान किया है। इन विधियों ने जनसंख्या के विश्लेषण को सरल, द्रुतगामी तथा योग्य मात्रा में निश्चितता प्रदान की है।

जनांकिकीय विश्लेषण विधियाँ (Methods of Demography)

जनांकिकी का अध्ययन विषय जनसंख्या में होने वाले परिवर्तनों का मापन है। यह एक जनसमूह के आकार, गठन एवं वितरण का अध्ययन है। ये सभी अवयव लगातार परिवर्तनशील है। परिवर्तन की दर स्थान, समय एवं समुदाय के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। अतः लगातार आँकड़ों को एकत्र करना, उनका वर्गीकरण, सम्पादन तथा उनमें समयानुसार परिवर्तन करना एक अनिवार्यता बन जाती है। ये आँकड़े आगणन अथवा पंजीकरण से एकत्र किये जाते हैं। फ्रांस के प्रमुख जनांकिकीवेत्ता लुई हैनरी ने लिखा है कि, "विश्लेषण के बिना जनांकिकी अवयवों की भूमिका, व्यवहार एवं उनकी अन्तःक्रिया जानना सम्भव नहीं है। विश्लेषण कभी भी खत्म नहीं होता है। ज्ञान के विकास के साथ-साथ ही नये तत्व एवं घटकों की खोज होती है, जिनसे पेचीदगियों को समझने में मदद मिलती है।"

सर्वप्रथम जनसंख्या के किसी विशेष पहलू एवं विशेष क्षेत्र के आँकड़े एकत्र किए जाते हैं, उनकी तुलना की जाती है, जो आँकड़े छूट गये हैं उनको अनुमान से पूरा किया जाता है, तत्पश्चात् उद्देश्यानुसार उनकी व्याख्या कर ली जाती है, किन्तु वास्तविक कठिनाइयाँ तब शुरू होती हैं जब व्यवहार में ये सब कार्य करने पड़ते हैं। उपयोगी प्रश्न-पत्र अथवा सूची तैयार करना, क्षेत्र का वर्गीकरण, समय का वर्गीकरण, आँकड़ों के स्त्रोत निर्धारित करना प्राप्त की गयी सामग्री के आधार पर निष्कर्ष निकालना। सामान्य तौर पर तीन प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं:-

(1) क्या इन घटनाओं में एक अवधि के अन्तर्गत कोई परिवर्तन हुआ है? अर्थात् गत्यात्मक जनांकिकी का अध्ययन

(2) क्या एक दी हुई जनसंख्या में एक वर्ग से दूसरे वर्ग के बीच आयु, लिंग, व्यवसाय, शिक्षा आदि के आधार पर कोई अन्तर तो नहीं है? अर्थात तुलनात्मक जनांकिकीय विश्लेषण।

(3) जनसंख्या सम्बन्धी विभिन्न घटनाओं की दरें क्या हैं? अर्थात् जन्म-दर, मृत्यु-दर, कार्य करने वालों का प्रतिशत, विवाहितों का अनुपात आदि।

सामान्यतया जनांकिकीय विश्लेषण की निम्नांकित दो विधियाँ हो सकती हैं:-

(1) सूक्ष्म जनांकिकीय विश्लेषण:- इस विधि में जनसंख्या की आन्तरिक समस्याओं, घटकों एवं घटनाओं का अध्ययन किया जाता है। एक क्षेत्र की जनसंख्या में वृद्धि की दर, वितरण, जनसंख्या का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन आदि का इसमें अध्ययन होता है। जनांकिकीय विश्लेषण में किसी जनसमूह की संरचना के अध्ययन के लिए किसी न किसी विशेषतां को आधार मान लिया जाता है, आयु-संरचना का आधार आयु, लिंग संरचना का आधार लिंग, इसी प्रकार निवास के आधार पर ग्रामीण-शहरी आदि वर्गीकरण किए जाते हैं।

(2) वृहद् जनांकिकीय विश्लेषण:- यद्यपि स्थानीय क्षेत्र अथवा छोटे-छोटे भूखण्ड़ों के जनांकिकी आँकड़े एवं सूचनाएँ समय-समय पर प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु अर्थव्यवस्था के समस्त रूप को बिना विचार के वास्तविक जनांकिकीय परिवर्तनों का पता नहीं लगता है। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ ने विश्व के सभी देशों से जनगणना को एक ही समय से सम्बन्धित करने का आग्रह किया है। जनांकिकी का प्रमुख अध्ययन विषय, आकार एवं उसमें होने वाले बदलाव है। आकार की माप, जनगणना पंजीकरण अथवा निदर्शन से की जा सकती है और परिवर्तन की माप करने के लिए समय से सम्बन्धित कर विभिन्न दरें परिकलित की जाती हैं। जन्म-दर, मृत्यु-दर, विवाह की दर आदि विशेष एवं लोकप्रिय विधाएँ हैं, जिनको समष्टिपरक विश्लेषण से ही जाना जाता है। जीवन तालिका, जनसंख्या पिरामिड, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति आदि समष्टिपरक विश्लेषण की विषय-सामग्री है। समष्टिपरक विश्लेषण एक देश का दूसरे देश के साथ, एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति के साथ तथा एक महाद्वीप का दूसरे महाद्वीप के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने में मदद करता है। इस प्रकार दोनों प्रकार के विश्लेषण उपयोगी हैं।

जनांकिकी एवं जनसंख्या में अंतर

(Difference between Demography &Population)

सामाजिक जनांकिकी के अंतर्गत जनांकिकी व जनसंख्या में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। दोनों एक दूसरे के पूरक है। यदि एक शरीर है तो दूसरा प्राणा जनसंख्या का कोई महत्व उसी प्रकार से नहीं है जैसे कि बिना श्रम पूँजी का। पूँजी में स्वतः की उत्पादकता नहीं है, वह तो श्रम के सहयोग से ही उत्पादन घटक बन पाती है और अधिकाधिक क्षेत्र में सर्वशक्तिमान सिद्ध होती है। उसी प्रकार जनसंख्या का कोई महत्व नहीं यदि उसका विभिन्न तरीकों से सम्बन्ध आर्थिक, मानवीय, परिस्थितिक एवं राजनैतिक घटकों से न जोड़ा जाये। प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति वस्त्र, आवास, भोजन, स्वास्थ्य सेवायें ही तो जनसंख्या के माध्यम से प्रभावित होती है। जन्म दर, आयु-विशिष्ट प्रजनन-दर, पुनरूत्पादन-दर, सकल प्रजनन-दर, जीवन-तालिका, वैधव्यता आदि अनेक ऐसे चर हैं जो जनसंख्या पर आधारित हैं। जनांकिकी वह औजार है जो जनसंख्या रूपी जंगल से लकड़ी को निकालकर, तराशकर सदुपयोगी सामान जैसी कुर्सी, मेज, पलंग आदि को बनाकर मानवीय आराम को बढ़ाता है।

जनसंख्या और समाज (Population and Society)

जनसंख्या का विषय एक विशिष्ट विज्ञान, जनांकिकी के क्षेत्र के अंदर आता है। यह विज्ञान आधुनिक सामाजिक विज्ञानों में सर्वप्रथम उत्पन्न होने वालों में से एक है। 18वीं शताब्दी में इसने अन्य सामाजिक विज्ञानों के विकास को आकर्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, फलतः यह समाजशास्त्र से निकटतः सम्बद्ध रहा। जनविज्ञानवेत्ता जब जनसंख्या के परिवर्तनों के कारणों एवं परिणामों का अध्ययन करने के लिये गणना एवं परिमाण से आगे बढ़ता है तो मृत्यु-दर तथा जन्मदर से सम्बन्धित बहुत सी समस्याएँ समाजशास्त्र के क्षेत्र में प्रवेश करती हैं। समाजशास्त्री के लिये जनसंख्या का आकार, वितरण एवं उसकी विशेषताएँ शुरूआती आँकड़े हैं। दुर्चीम ने समाजशास्त्र की शाखा, जिसको उसने सामाजिक आकृति-विज्ञान कहा है, में जनसंख्या के आकार को एक मुख्य तत्त्व के रूप में माना है। समाजों का वर्गीकरण उनके घनत्व एवं आयतन के अनुसार किया जा सकता है। घनत्व से उसका अर्थ समाज में 'सामाजिक सम्बन्धों की संख्या से है। उसने भौतिक घनत्व तथा नैतिक घनत्व के बीच अन्तर दर्शाया है। दुर्थीम के मतानुसार आयतन में वृद्धि से साधारणतया घनत्व में वृद्धि होती है तथा दोनों तथ्य मिलकर सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाते हैं। अपनी कृति 'डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी' में उसने यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि जनसंख्या की वृद्धि श्रम-विभाजन के माध्यम से 'यांत्रिक एकता' पर आधारित समाज के प्रकार में परिवर्तित करती है। नवीन समाजशास्त्र जनसंख्या के आकार एवं सामाजिक संरचना के प्रकार के बीच इस सामान्य सम्बन्ध से बहुत कम सम्बन्धित रहा है।

साधारणतया समाजशास्त्र तथा सामाजिक विज्ञानों में जनसंख्या के आकार एवं जनसंख्या सम्बन्धी परिवर्तन सामाजिक संरचना अथवा विशिष्ट सामाजिक प्रघटना के विशिष्ट पक्षों से सम्बन्धित माने गये है। इस प्रकार अनेक समाजशास्त्रियों ने जन-विज्ञान सम्बन्धी परिवर्तन तथा युद्ध से स्वयं को सम्बन्धित रखा है। जनसंख्या एवं सामाजिक संरचना में परस्पर सम्बन्ध हैं उदाहरणस्वरूप सामाजिक संरचना आबादी के परिवर्तन को प्रभावित करती है तथा स्वयं भी प्रभावित होती है। वस्तुतः इस क्षेत्र के समाजशास्त्रीय अध्ययन मुख्यतः आबादी के विस्तार पर सामाजिक प्रभावों से सम्बन्धित रहे हैं। साथ ही मुख्य निष्कर्षों का संक्षिप्तीकरण करने के अलावा कोई अन्य साधन नहीं बचता है। वास्तविक समस्यायें भिन्न समाजों की भिन्न है। विभिन्न सामाजिक तथ्यों को पृथक-पृथक किया गया तथा इनका विश्लेषण विस्तृत साहित्य में किया गया है। इस संदर्भ में अल्वा मिरडल, नेशन एण्ड फेमिनी, ए०एम०कार०सांडर्स, डी०ग्लास, पापुलेशन पालिसीज एण्ड मूवमेन्ट इन यूरोप तथा ब्रिटेन की जनसंख्या पर रॉयल कमीशन के द्वारा किये गये अध्ययन का उल्लेख किया जा सकता है।

समाजशास्त्री जनसंख्या के वितरण तथा आकार से परिचित रहे हैं जो पश्चिमी यूरोप एवं अमेरिका में सर्वप्रथम प्रघटना रही है, किन्तु अब सम्पूर्ण संसार के नगरों में प्रगती का दबाव बढ़ता जा रहा है जिसे औद्योगिकीकरण का एक प्रभाव माना जा सकता है तथा इसने उन परिस्थितियों के अध्ययन को प्रोत्साहित किया है जो कि नगरों के बसाने में सहायक होती है तथा तुलनात्मक अन्वेषण के माध्यम से शहरों के प्रकारों की एक योजना के निर्माण का प्रयास किया गया है। नगरीय एवं ग्रामीण केन्द्रों के आपसी सम्बन्ध विभिन्न प्रकार के समाजों के प्रकार पर निर्भर करते हैं। अधिकांशतः नगर ग्रामों पर आश्रित रहे हैं। कुल मिलाकर वे समाज में शक्तिशाली नहीं रहे हैं तथा आकार एवं महत्ता के दृष्टिकोण से भी एक दूसरे से अलग रहे हैं।

बहुत-से समाजों में ग्रामों एवं नगरों के मध्य भी संघर्ष दिखाई देता है। पिरेने ने अपनी पुस्तक 'मिडाईवल सिटीज' में यूरोपीय नगरों के द्वारा प्रतिपादित किये गये महत्वपूर्ण भाग का, विशेषतया चौदहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी के मध्य में सामंतवादी सामाजिक सम्बन्ध व्यवस्था को तथा सम्बन्धों के परिवर्तन प्रसंग में उल्लेख किया है।

जनसांख्यिकी का विस्तार मानव भूगोल तथा नगरीय समाजशास्त्र तक, आबादी की सघनता के प्रसंग में सामाजिक प्रघटना के अध्ययन के साथ ही हुआ है। मुख्य विशेषताएँ नगरीय क्षेत्रों में भिन्न विभागों एवं प्रखण्डों का होना है जो कि अथ्र, वर्ग, जाति तथा अन्य विशेषताओं से एक-दूसरे से अलग होते हैं। अपराध, तलाक और आत्महत्या जैसी प्रघटनाओं और अधिक सामान्यतया उनके सामाजिक सम्बन्धों के प्रकार पर तथा साँस्कृतिक दृष्टिकोण के आधार पर नगरों एवं ग्रामीण क्षेत्रों के बीच अन्तर स्थापित किया गया है।

आर०ई०पार्क ने अमेरिकी शहरों के बहुत से भिन्न क्षेत्र बताये- 'ऐसे क्षेत्र हैं. जहाँ बच्चों का पूर्णतया अभाव है.... ऐसे प्रदेश हैं जहाँ बच्चों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत अधिक है जैसे- झोंपड़ियों की बस्ती या मध्य वर्ग के निवास स्थान..... अन्य ऐसे स्थान है जो पूर्णतः युवक अविवाहित लोगों से बसे हुए हैं.... ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ के लोग कभी मतदान नहीं करते हैं.... ऐसे प्रदेश हैं जहाँ आत्महत्याओं की दर अत्यधिक है.... ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ बाल अपराध अधिकतर मात्रा में होते हैं।'

नगरवाद ने जीवन के प्रकार के रूप में बहुत से अध्येताओं को आकर्षित किया है। यह अध्ययन के बहुत से प्रकारों-तलाक की दर या आत्महत्या की दर आदि से स्पष्ट हो जाता है कि नगरवासियों में तथा ग्रामवासियों में पर्याप्त भिन्नताएँ हैं तथा सवार्धिक विषमता बड़े शहरों में उत्पन्न होती है। समाजशास्त्रियों ने इन भिन्नताओं को नगरवासियों की सामाजिक स्थिति तथा समूहों से सम्बन्ध के अतिरिक्त नगरों की संस्कृति के अर्थों में भी किया है। जनसंख्या के गुणात्मक पक्षों ने सबसे अधिक ध्यान 19वीं शताब्दी में आकर्षित किया तथा उनका अध्ययन दो दृष्टिकोणों से किया गया। सर्वप्रथम, समाजों के मध्य भिन्नता प्रजातीय अथवा राष्ट्रीय विशेषताओं के आधार पर स्थापित की गई जिन्हें जन्मजात विशेषताएँ माना गया, किन्तु अब इस प्रकार की पद्धति का प्रायः विरोध किया जाता है, क्योंकि भौतिक नृतत्वशास्त्री द्वारा प्रजाति की, की गई व्याख्या तथा मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्री की रूचि की बौद्धिक एवं स्वाभावगत विशेषताओं के मध्य बहुत कम आपसी सम्बन्ध पाया जाता है। प्रजाति के आधुनिक समाजशास्त्रीय अध्ययन, प्रजाति सम्बन्धी पूर्वनिर्णयों एवं प्रजातीय सम्बन्धों से सम्बन्धित है।

द्वितीय, व्यक्तियों एवं समाजों में समूहों के बीच मानी हुई जन्मजात भिन्नताओं के विषय में कई अध्ययन हुए हैं जो कि परेटो के अभिजात वर्ग के सिद्धान्तों से सम्बनिधत थे अथवा जिनका उदय जनसंख्या के गुण पर विभिन्न उत्पादकता से पड़ने वाले प्रभावों से सम्बन्धित चेतना से हुआ। इंग्लैण्ड में बाद वाली चेतना से फ्रॉसिस गाल्टन द्वारा प्रवृत्त आन्दोलन के रूप में कठोर स्वरूप धारण किया जिसे कार्ल पीयर्सन ने लंदन विश्वविद्यालय में सृजनन विद्या के प्रोफेसर के रूप में आगे बढ़ाया। यह सब कुछ एक अधिक विस्तृत बौद्धिक आन्दोलन सामाजिक डार्विनवाद से सम्बन्धित था, जो हर्बर्ट स्पेन्सर द्वारा सूत्रबद्ध दुर्भाग्यपूर्ण जीवशास्त्रीय सादृश्यताओं से प्रभावित था।

भेदात्मक जननक्षमता (Differential fertility) और राष्ट्रीय बौद्धिकता की प्रवृत्ति के मध्य परस्पर सम्बया के बारे में यह धारणा पचलित थी कि समाज के उत्थ स्तरों में घटती हुई जन्म-दर उनके प्रति उत्पादन के पहनो को असफल बनाने पर शायद सामान्य बौद्धिक स्तर में क्रमशः हास उत्पन्न कर दें। इस समस्या को सावधानीपूर्ण समीक्षा सर सीरिल बर्ट ने 1950 में प्रकाशित अपने एक लेख में की। तत्पश्चात् एक विस्तृत सर्वेक्षण के माध्यम से इसका अन्वेषण शिक्षा में शोध हेतु स्काटिश परिषद् द्वारा किया गया। फलस्वरूप एक प्रकार का संतुलन स्थापित हो गया तथा बौद्धिकता के राष्ट्रीय स्तर में तथा सन्निहित कारकों में परिवर्तनों की विशेषता के स्वरूप को निर्धारित करने के लिये अधिक अनुसन्धान की आवश्यकता महसूस की गई।

इस प्रकार जनसंख्या में सामाजिक कारकों का बड़ा महत्व होता है तथा सम्भवतया जनसंख्या के गुण को निर्धारण करने में वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते है। भेदात्मक जननक्षमता निस्संदेह जनसंख्या की सामान्य विशेषताओं के निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भाग अदा करती है, किन्तु इसका प्रभाव पोषण, चिकित्सा प्रयत्न, मकान तथा शिक्षा के सुधरे हुए स्तरों से अधिक बढ़कर नहीं है।

जनांकिकी का महत्व (Importance of Demography)

समाजशास्त्र के अंतर्गत जनांकिकी के महत्व को समझने के लिए हम उसका तीन भागों में अध्ययन कर सकते हैं:-

(1) विकसित अर्थव्यवस्थाएँ:- इन अर्थव्यवस्थाओं में जनसंख्या को 'मांग को रोजगार स्तर बनाए रखने का एक साधन' माना जाता है। विकसित देशों में चूकि वस्तु की पूर्ति को नहीं, बल्कि मांग की समस्या है। इसलिए जनसंख्या का तीव्र विकास दर लाभकारी है। वहां बढ़ती हुई जनसंख्या वस्तुओं और सेवाओं को प्रभावित करने वाली मांग वृद्धि करती है और इसके द्वारा पूँजी की सीमांत उत्पादिता बढ़ती है, जिसके कारण पूँजो विनियोग को प्रोत्साहन मिलता है। फलतः रोजगार, उत्पादन और आय में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त, बढ़ती हुई जनसंख्या उद्योग वर्तमान क्षमता के उपयोग में भी सहायक होती है। इससे स्पष्ट होता है कि विकसित देश के आर्थिक विकास के मॉडल में जनांकिकी चर को महत्व दिया जाता है।

(2) नियंत्रित एवं केद्रीय नियोजित अर्थव्यवस्था:- साम्यवादी एवं समाजवादी व्यवस्थाओं में जनसंख्या न मांग को प्रभावित करती है और न ही उपभोग की प्रवृत्ति एवं दिशा को। कारण यह है कि देशों में उपभोक्ताओं की सारभौमिकता नहीं होती। किंतु इन देशों में क्रियान्वित जनसंख्या, महिलाओं का आर्थिक कार्य रोजगार, राष्ट्रीय आय, प्रतिव्यक्ति आय, शिशु शिक्षा, मृत्य क्रम, उर्वरता, स्वास्थय, पोषण का स्तर, परिवार का आकार आदि अनेक आर्थिक अंग हैं जो जनांकिकी के ही कारक है।

(3) विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ (Developing Economies):- इन अर्थव्यवस्थाओं में जनांकिकी की भूमिका पर अपना विचार व्यक्त करते हुए प्रो० गांगुली ने लिखा है- "कुछ समय से यह महसूस किया जाने लगा है कि जब भी आर्थिक नियमों एवं सिद्धांतों को विकासशील देशों में प्रयुक्त किया जाता है। ये नियम वास्तविकता एवं व्यावहारिकता छोड़ देते है। अतः अर्थशास्त्र को व्यावहारिक रूप देने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि जनसंख्या सम्बन्धी घटकों को विशेष महत्व दिया जाये।'' प्रो० गांगुली ने आगे लिखा है कि विकास अर्थशास्त्र को उपयोगी बनाने के लिए आवश्यक है कि उसमें जनांकिकीय घटकों का विस्तार से अध्ययन किया जाये। जनांकिकी ने जनसंख्या के संस्थागत एवं संरचनात्मक घटकों को वैज्ञानिक रूप दिया है।

जनसंख्या वृद्धि के परिणाम एक व्यक्ति से लेकर संपूर्ण विश्व को प्रभावित करते हैं। शिक्षा, स्वास्थय, सामाजिक सुरक्षा, कृषि तथा औद्योगिक उत्पादन में श्रम-शक्ति, राजस्व, व्यापार, अंतर्राष्ट्रीय नीति एवं शक्ति संतुलन आदि सभी जीवन-क्षेत्रों में जनसंख्या का महत्व बढ़ रहा है।

(a) आर्थिक महत्व (Economic Importance):- आर्थिक दृष्टिकोण से जनसंख्या सम्बन्धी आँकड़ों का बहुत अधिक महत्व है, क्योंकि जनसंख्या के आँकड़ों के आधार पर ही आर्थिक विकास की प्रवृत्ति, व्यावसायिक ढाँचा, ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर, परिवार नियोजन और खाद्य समस्या का विस्तृत रूप से अध्ययन किया जाता है। आर्थिक दृष्टिकोण से जनांकिकी का निम्न आर्थिक महत्व पाया जाता है:-

(i) कृषि व्यवसाय की उन्नति के लिए जनगणना सम्बन्धी आँकड़ों का महत्वपूर्ण स्थान है।

(ii) औद्योगिक प्रगति को प्रोत्साहित करने के लिए भी जनगणना सम्बन्धी आँकड़ों का महत्व है।

(iii) जनगणना प्रतिवेदन के आधार पर हम जनसंख्या और खाद्य सामग्री के मध्य संतुलन स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

(iv) व्यापारी तथा उद्योगपति वर्ग जनसंख्या के घनत्व व उपभोक्ताओं की संख्या, अभिरूचि, आय आदि का अध्ययन करके वस्तुओं व सेवाओं की मांग का अनुमान लगाते हैं। व्यापारिक उन्नति, विज्ञापन सम्बन्धी नीति, उद्योगों का विस्तार आदि सभी जनसंख्या के विवरण पर निर्भर करते हैं।

(v) करारोपण, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर व्यय इत्यादि का अनुमान जनसंख्या समंकों के आधार पर ही सरलता से हो सकता है।

(vi) किसी भी देश की आर्थिक विकास योजनाओं को सफलता से चलाने में जनगणना का विशेष स्थान है। इसका कारण यह है कि आर्थिक विकास के लिए उत्पादन तथा जनसंख्या दोनों का ही विशेष स्थान रहता है। जनसंख्या की वृद्धि की दर के द्वारा ही यह अनुमान लगाया जाता है कि भविष्य में जनसंख्या कितनी होगी और इसके लिए हमें कितने अन्न, वस्त्र, आवास आदि की आवश्यकता होगी।

(b) सामाजिक महत्व (Social Importance):- जनांकिकी का महत्व केवल आर्थिक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी है। मानव समाज के अध्ययन में जनसंख्या का संख्यात्मक अध्ययन, जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना एवं जनसंख्या का वितरण आदि बातों की जानकारी आवश्यक है। जनांकिकी का सामाजिक महत्व निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट हो जाता है:-

(1) ग्रामीण एवं नगरीय जनसंख्या का अनुपात।

(ii) विभिन्न वर्गों, जातियों, संप्रदायों और धार्मिक व्यक्तियों का जनसंख्या में स्थान।

(iii) सामाजिक कुरीतियों जैसे- बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा समस्या, मद्यपान, भिखारियों की संख्या, महामारी और असन्तोषजनक स्वास्थ्य परिस्थितियों को दूर करने में जनसंख्या सम्बन्धी समंकों का ही सहारा लिया जाता है।

(iv) शिशु मृत्यु, संयुक्त परिवार जैसी सामाजिक समस्याओं का भी पता लगाने में जनसंख्या के आँकड़ों का ही योग रहता है।

(v) भाषा, धर्म, लिंग आदि से सम्बन्धित सूचनाएँ भी जनगणना में एकत्र की जाती हैं, जो बहुत बड़ा सामाजिक महत्व रखती हैं।

(c) वैधानिक महत्व (Legal Importance):- जन्म-मरण, विवाह आदि के लिए पंजीकृत अभिलेखों के आधार पर इन घटनाओं के प्रमाण पत्र प्राप्त किए जाते हैं, जो वैधानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं। भारतवर्ष में भी जनांकिकी के अध्ययन की अत्यंत आवश्यकता है। जो तथ्य विकासशील देशों के संदर्भ में कहे गये हैं, वे भारत के लिए भी लागू होते हैं। यही कारण है कि भारतवर्ष में जनांकिकी अध्ययन का महत्व धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है।

(d) राजनीतिक महत्व (Political Importance):- किसी भी देश के प्रशासन तंत्र में सामाजिक एवं आर्थिक विकास के कार्यक्रमों का संपूर्ण ढाँचा जीवन समंकों पर निर्भर करता है:-

(i) अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों से सम्बन्धित नियम जनसंख्या के आधार पर ही बनाए जाते हैं।

(ii) जनसंख्या के आधार पर ही नगर पालिका और नगर निगम की स्थापना होती है तथा नगरों को श्रेणियों में विभाजित किया जाता है।

(iii) भाषावार प्रान्तों के विभाजन में भी जनसंख्या के भाषा सम्बन्धी आँकड़ों से बड़ी सहायता मिलती है।

(iv) जनसंख्या सम्बन्धी समंकों के आधार पर संसद तथा विधान सभाओं के क्षेत्र निश्चित किए जाते हैं।

(v) केन्द्र तथा राज्यों के बीच कुछ आयों (income) का विभाजन जनसंख्या के आधार पर ही होता है।

(e) शैक्षणिक महत्व (Educational Importance):-

(i) विद्यार्थी विश्व की जनसंख्या के विषय में अनेक उपयोगी सूचनाएँ प्राप्त कर लेते हैं।

(ii) विद्यार्थी अनेक तकनीकी शब्दों जैसे- प्रत्याशित आयु, उर्वरता, मृत्यु-क्रम आदि को समझ लेते हैं।"

इस प्रकार दिनों-दिन जनांकिकी का महत्व बढ़ता ही जा रहा है।

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