प्राचीन
भूगोलविद्वानों अर्थात् प्रकृतिवादियों, वाणिकवादियों तथा अन्य समकालीन विचारकों
ने जनसंख्या के जो सिद्धान्त प्रस्तुत किए थे वह समय के साथ-साथ बढ़ती जनसंख्या की
वजह से अनुपयुक्त दिखाई देने लगे। जनसंख्या वृद्धि की वजह से आर्थिक, सामाजिक,
राजनीतिक समस्याओं को देखते हुए लोग इस बात से असहमत थे कि राज्य को जनसंख्या
वृद्धि को प्रोत्साहित करना चाहिए। तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या को नियंत्रित
करने के विभिन्न उपायों पर लोगों का ध्यान आकर्षित होने लगा था। वह स्थिति उत्पन्न
हो गयी थी कि देश को सम्पन्न बनाने वाली जनसंख्या की वृद्धि की भौतिक नियंत्रणों
की क्रियाशीलता में सामान्यतया कमी होगी और मनोवानिक नियंत्रण क्रियाशील होने
लगेंगे। विभिन्न विचारक जनसंख्या वृद्धि के अच्छे एवं बुरे परिणामों से विश्व को
सचेत करने में प्रयत्नशील थे। इसी मध्य माल्थस के पिता के मित्र विलियम गाडविन ने
अपनी पुस्तक 'Political Justice' में विज्ञान एवं समाज की उन्नति पर पूर्ण विश्वास
व्यक्त करते हुए जनसंख्या के सम्बन्ध में एक बड़ा ही आशापूर्ण चित्र प्रस्तुत करते
हुए बताया कि जनसंख्या से लाभ ही है, हानि नहीं और वह स्वर्ण युग की ओर अग्रसर हो
रही है। तब माल्थस का रहा-सहा धैर्य भी जवाब दे गया और उन्होंने जनसंख्या वृद्धि
के समर्थकों के विरोध में प्रतिक्रियास्वरूप जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न होने वाली
समस्या के प्रति विश्व को अवगत कराने के लिए 1798 ई० में अपने निबन्ध का पहला
संस्करण प्रकाशित कराया, जिसने विश्वभर के विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया तथा
वैचारिक जगत् में हल-चल मचा दी।
टामस रॉबर्ट माल्थस-जीवन परिचय
अर्थशास्त्र
के प्रतिस्थापक एडम स्मिथ के अनुयायी तथा विश्व की तीव्र गति से बढ़ती हुई
जनसंख्या के भयावह परिणामों से आगाह कराने वाले टामस रॉबर्ट माल्थस का जन्म 1766
ई० में इंग्लैण्ड में हुआ। इनके पिता डिनाइल माल्थस आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न
व्यक्ति थे। इनकी शिक्षा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हुई। यहीं से इन्होंने 1798
ई० में अपना प्रसिद्ध ऐतिहासिक निबन्ध "An Essay on the Principle of
Population, as it affects the future improvement of the society with remarks on
the speculation of Mr. Godwin ....." प्रकाशित कराकर अपन जनसंख्या सम्बन्धी
दृष्टिकोण व्यक्त किया था कि खाद्यपूर्ति पर जनसंख्या का बढ़ता हुआ दबाव-विश्व के
लिए विपत्ति का सूचक है। माल्थस के इन निराशावादी विचारों के कारण उनकी तीव्र
आलोचना हुई। जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अपने प्रबन्ध के समर्थन में आँकड़ों के
आधार पर एकत्र करने के लिए यूरोप महाद्वीप की यात्रा करनी पड़ी। इन आँकड़ों के
आधार पर माल्थस ने अपने निबन्ध का द्वितीय परिमार्जित एवं संशोधित संस्करण 1803 ई०
में प्रकाशित कराया। इस प्रकार, अपने जीवन-काल में उन्होंने 'जनसंख्या सिद्धान्त'
निबन्ध के कुल 6 संस्करण प्रकाशित कराए। सन् 1807 ई० में माल्थस ईस्ट इण्डिया
कम्पनी के एक कॉलेज में इतिहास तथा राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक नियुक्त हुए,
जहाँ वे जीवन पर्यन्त रहे। 1834 में उनकी मृत्यु हो गई।
माल्थस को प्रेरित करने वाले कारक
(Factors Which Inspired Malthus)
माल्थस
को जनसंख्या सम्बन्धी विचार लिखने के लिए इंग्लैण्ड की दशा ने बहुत अधिक प्रभावित
किया। उसको प्रभावित करने वाली निम्नलिखित बातें थी:
(1) औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution):- माल्थस का काल औद्योगिक क्रांति के
तांत बाद का काल था, जिसमें एक ओर तो पूँजीपति वर्ग था और दूसरी ओर श्रमिक वर्ग।
माल्थस ने देखा कि ज्यों-ज्यों औद्योगिक विकास होता जा रहा है, त्यों-त्यों एक ओर
पूंजीपतियों और प्रतिभाशाली व्यक्तियों का प्रभुत्व भी बढ़ता जा रहा था, परन्तु
दूसरी ओर श्रमिक और निर्धन वर्गों में बेरोजगारी, बीमारी और निर्धनता बढ़ती जा रही
थी। अर्थात् पूंजीपति और अधिक पूंजीवान हो रहा है व श्रमिक और निधन। यह स्थिति
दिखाई दे रही थी। "कुशासन के अभिशाप के साथ दरिद्रता का अभिशाप भी जुड़ गया
था और यह दरिद्रता देश की जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के साथ बढ़ती गयी जिसके
फलस्वरूप दुर्भिक्ष ने देश को एक नरक कंड में परिणत कर दिया।'' इन्हीं
परिस्थितियों को देखते हुए माल्थस ने अपने विचार रखे।
(2) माल्थस पर समकालीन विचारों का प्रभाव (Effects ofComemporary
Thinkers):-माल्यस के
समकालीन विचारक नये-नये विचार दे रहे थे। डेविड ह्यूम ने अपनी पुस्तक - "एसे
ऑन दी पापुलेशन ऑफ एनसियेण्ट नेशन्स' में कुछ प्राचीन देशों की जनसंख्या का अनुमान
लगाया था टाउनसेण्ड ने 'डिसटेंशन आन दी पुअर ला' नामक पुस्तक में लिखा था कि
"जब तक मानवीय विवेक क्रियाशील नहीं होने पाता है, समृद्धि के पश्चात्
अत्यधिक जनसंख्या, अभाव तक ऊंची मृत्यु दर का आगमन होता है।" सर मैथ्य हेल ने
अपनी पुस्तक 'दी प्रिमिटिव ओरीजिनेशन ऑफ मेनेकाइन्ड' में जनसंख्या सम्बन्धी
महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए।
(3) जनसंख्या की वृद्धि (Increase in Population):-18 शताब्दी के पूर्वार्द्ध में
इंग्लैंड की कृषि उन्नत अवस्था में थी, परन्तु इसी शताब्दी के अंत में इतना अधिक
आर्थिक संकट विद्यमान हो गया था कि देश की जनसंख्या इतनी अधिक प्रतीत होने लगी कि
जिसका भरण-पोषण इंग्लैण्ड की भूमि नहीं कर सकती थी। गेहूं का मूल्य प्रति वर्ष
बढ़ता जा रहा था। स्थिति में सुधार करने के लिए अनाज नियम लागू किए जा रहे थे,
परन्तु स्थिति बिगड़ती जा रही थी। लोग बेकार, भूखे व बीमारियों से जकड़े हुए दिखाई
पड़ रहे थे व निर्धनता चारों ओर फैल गई थी।
(4) वणिकवादियों और निर्वाधवादियों के विचारों की प्रतिक्रिया
(Reactions of Mercantilists and Physiocrates):- वणिकवादियों और निर्वाधवादियों द्वारा देश की सम्पदा और
शक्ति को बढ़ाने हेतु जनसंख्या की वृद्धि पर जोर दिया गया। एडम स्मिथ के समय
औद्योगिक क्रांति के दुष्परिणाम सम्मुख नहीं आये थे, अतः उनका ध्यान भी इस ओर न जा
सकता था। देश की समृद्धि के लिए जनसंख्या की वृद्धि समय के फेर के कारण अनुपयुक्त
दिखाई पड़ रही थी।
(5) गाडविन की पुस्तक का प्रकाशन (Publication of Godwin Book):- माल्थस के विचारों को प्रभावित करने
वाले विद्वानों में विलियम गाडविन का नाम प्रमुख है। गाडविन ने अपनी 'इनक्वाइरी
कन्सर्निंग पोलीटिकल जस्टिस एण्ड इट्स इन्फ्लूएन्स आन मोरल्स एण्ड हैपीनेस' नामक
एक उत्तेजनात्मक पुस्तक 1793 ई० में प्रकाशित की। जिसमें उसने मनुष्यों की
अप्रसन्नता तथा दुःखों के लिए सरकार को दोषी ठहराया तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति का
विरोध किया। इनका मानना था जनसंख्या उपलब्ध साधनों में अपना निर्वाह कर लेती है,
इसलिए जनसंख्या वह भयावह समस्या नहीं है। इसी पुस्तक में उसने लिखा कि मनुष्य जाति
एक स्वर्ण युग की ओर अग्रसर हो रही है तथा जनसंख्या से लाभ की ही संभावना है, हानि
की नहीं।
गाडविन
की विचारधारा के समर्थक फ्रांस के एक प्रसिद्ध विचारक एवं राजनीतिज्ञ काण्डरसेट भी
थे। उनका विचार था कि विज्ञान की सहायता से मनुष्य की तर्कशक्ति का विकास होता है,
इसलिए जनसंख्या की वृद्धि किसी भी दशा में हानिकारक नहीं है। इस प्रकार गाडविन और
काण्डरसेट ने बढ़ती हुई जनसंख्या को मानव जाति की प्रगति बताई। माल्थस के लिए ये
आशावादी विचार चुनौती स्वरूप थे। उदाहरण के तौर पर, एक दिन जिस समय माल्थस अपने
पिता के साथ चाय पी रहे थे और गाडविन के इन विचारों 'बढ़ती हुई जनसंख्या देश के
हित में है- पर बात कर रहे थे, तब उनके मस्तिष्क में जनसंख्या के सिद्धान्त का
विचार आया और उन्होने इस विचारधारा के विरुद्ध एक निबंध लिखा, परन्तु पिता के भय
के कारण अपना नाम नहीं दिया, क्योंकि उनके पिता भी आशावादी विचारधारा के थे। दूसरे
निबंध में उन्होने विषयसामग्री को वैज्ञानिक रूप से प्रस्तुत किया और लेखक के रूप
में अपना नाम भी दिया।
कुछ
अर्थशास्त्री माल्थस के विचारों को एक निराशावादी व्यक्तिगत निरीक्षण कहकर अवहेलना
करते हैं, क्योंकि इनमें केवल निरीक्षणों के निष्कर्षों को ही व्यक्त किया गया है।
परन्तु वास्तविकता यह है कि यह निबन्ध ही जनसंख्या विज्ञान का आरम्भिक बिन्दु है।
प्रो० जीड के शब्दों में, "एक शताब्दी के बाद भी वाद-विवाद को यह प्रतिध्वनि
जो इस निबंध ने उत्पन्न की थी, पूर्णतया समाप्त नहीं हुई है।'' इस निबन्ध को एडम
स्मिथ का उत्तर भी समझा जा सकता है। वह इसलिए कि एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक का नाम.
'एन इनक्वाइरी इनटू दी नेचर एण्ड काजिज ऑफ वेल्थ ऑफ नेशन्स' रखा था। जबकि जेम्स
बोनर का कहना है कि माल्थस को अपने निबंध का नाम ‘ऐन ऐसे ऑन दी काजिज ऑफ पावर्टी
ऑफ नेशन्स' रखना चाहिए था।
माल्थस का जनसंख्या का सिद्धान्त
(Population Theory of Malthus)
माल्थस
का जनसंख्या सिद्धान्त, जनसंख्या में वृद्धि तथा खाद्यान्न आपूर्ति में वृद्धि के
मध्य सम्बन्ध की व्याख्या करता है। इस सिद्धान्त का कथन है कि, "जनसंख्या में
जीवन-निर्वाह साधनों की अपेक्षा तीव्र गति से बढ़ने की प्रवृत्ति होती है।"
इस प्रकार, यह सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि खाद्य पूर्ति की अपेक्षा जनसंख्या में
अधिक तेजी से वृद्धि होती है और यदि इस जनसंख्या वृद्धि पर रोक न लगाई गयी तो
परिणामस्वरूप दुराचार या विपत्ति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार, माल्थस ने अपने
'जनसंख्या के सिद्धान्त' नामक निबन्ध में अपने समय में व्याप्त आशावादी विचारों को
कुछ पृष्ठों में ही ध्वस्त कर दिया तथा एक कष्टपूर्ण समाज की कल्पना की।
माल्थस
के सिद्धान्त की मान्यतायें:- अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन से पूर्व माल्थस ने
इसकी तीन मान्यताएँ स्थापित की हैं:
(1)
मनुष्य के अस्तित्व के लिये भोजन अनिवार्य है।
(2)
स्त्री तथा पुरूष दोनों में काम की इच्छा स्वाभावित व अनिवार्य है जिससे
संतानोत्पत्ति भी
अनिवार्य
हो जाती है।
(3)
कृषि में उत्पत्ति-ह्रास नियम लागू होता है।
सिद्धान्त
का कथन:- माल्थस का
जनसंख्या सिद्धान्त विश्व के लिए अनुपम देन था। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से
माल्थस के सिद्धान्त को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता है
जनसंख्या
वृद्धि दर:- माल्थस
के विचारानुसार यदि किसी प्रकार का नियंत्रण न लगाया जाए तो जनसंख्या खाद्य
पदार्थों की पूर्ति की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ती है और प्रत्येक 25 वर्ष बाद
पहले से दूनी हो जाती है। इस प्रकार तीव्र गति से जनसंख्या में वृद्धि की गणितीय
व्याख्या करते हुए माल्थस ने यह विचार व्यक्त किया कि जनसंख्या गुणोत्तर या
ज्यामितीय श्रेणी में बढ़ती है। अतः यदि प्रारम्भ में जनसंख्या 1 हो तो 25 वर्षों
की क्रमिक अवधियों में 1: 2: 4: 8: 16 : 32 : 64 : 128 (और 200 वर्षों बाद) : 256
हो जाएगी। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह वृद्धि-दर माल्थस के अनुसार
न्यूनतम हैं अर्थात् जनसंख्या तो बढ़ सकती है, परन्तु उससे कम-दर से वृद्धि सम्भव
नहीं है।
खाद्यपूर्ति
वृद्धि दर:- माल्थस
ने जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ खाद्यपूर्ति की वृद्धि पर भी प्रकाश डाला था। उनके
अनुसार खाद्य सामग्री की पूर्ति जनसंख्या की अपेक्षा नीची दर से बढ़ती है। खाद्यपूर्ति
की गणितीय व्याख्या करते हुए माल्थस ने कहा खाद्य सामग्री में वृद्धि अंकगणितीय
श्रेणी में धीरे-धीरे बढ़ती है। माल्थस की यह अवधारणा कृषि में उत्पत्ति ह्मस नियम
की क्रियाशीलता पर आधारित है। इस प्रकार उन्हीं 25 वर्षों की क्रमिक अवधियों में
खाद्यपूर्ति 1:2:3:4:5:6:7:8: (और 200 वर्षों बाद) 9 होगी।
इस
प्रकार हम देखते हैं कि खाद्य पदार्थों की अंकगणितीय या समान्तर श्रेणी में तथा
जनसंख्या में वृद्धि गुणोत्तर प्रेणी में होने से जनसंख्या खाद्यपूर्ति की अपेक्षा
अधिक होने लगती है। जैसा कि माल्थस ने लिखा है, 'पूर्णरूप से प्रसन्न तथा
धर्मपरायण समुदाय हर 25 वर्ष के बाद दुगुना हो जाएगा, परन्तु उनकी खाद्यपूर्ति में
उतनी वृद्धि नहीं हो सकती। सर्वप्रथम सर्वोत्तम भूमि पर खेती की जाती है, उसके बाद
उससे घटिया और अन्त में सबसे घटिया। इन विभिन्न श्रेणी की भूमियों से उत्पादित खाद्यान्न
की मात्रा क्रमशः घटती जाती है। स्वभावतः मनुष्य के लिए खाद्य सामग्री धीमे
अंकगणितीय अनुपात में बढ़ती है और मानव स्वयं तीव्र गति से गुणोत्तर अनुपात में
बढ़ता है, बशर्ते कि अभाव तथा दुराचार उसे न रोके।" इस प्रकार उत्पन्न
असन्तुलन से अति जनसंख्या हो जाती है।
माल्थस
के जनसंख्या सिद्धान्त को हम (खाद्य आपूर्ति) से भी समझ सकते हैं।
चित्र
में X-अक्ष पर खाद्यपूर्ति तथा Y-अक्ष पर जनसंख्या को प्रदर्शित किया गया है। M-
वक्र माल्थस का जनसंख्या वक्र है जो जनसंख्या वृद्धि तथा खाद्यपूर्ति के बीच
सम्बन्ध को व्यक्त करता है। यह वर्धमान गति से ऊपर की ओर बढ़ता है।
जनसंख्या
में गुणोत्तर दर तथा खाद्य सामग्री में समानान्तर दर के अनुसार वृद्धि होने से
दोनों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। माल्थस का यह निष्कर्ष था कि 200 वर्षों
में जनसंख्या तथा खाद्य सामग्री की पूर्ति के मध्य 9:256 का अनुपात होगा, जबकि 300
वर्षों में यह अंतर बढ़कर 4,096 : 13 के अनुपात में हो जाएगा। 2,000 वर्षों में तो
दोनों के मध्य इतना अधिक अंतर एवं असंतुलन हो जाएगा जिसकी कल्पना भी नहीं की जा
सकती है। इस प्रकार माल्थस ने जनसंख्या के सम्बन्ध में एक निराशामय दृष्टिकोण
विश्व के सामने प्रस्तुत किया कि यदि जनसंख्या को स्वतंत्रतापूर्वक बढ़ने दिया
जाये तो स्वाभाविक परिणाम यह निकलता है कि जनसंख्या खाद्य सामग्री की पूर्ति की
तुलना में अधिक तेजी के साथ बढ़ जाती है जिससे संसार में भुखमरी, कष्ट और निर्धनता
का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। माल्थस के शब्दों में, "प्रकृति के द्वारा
मानवीय आहार धीरे-धीरे अंकगणितीय क्रम में बढ़ता जाता है और मनुष्य स्वयं तेजी से
गुणोत्तर अनुपात में बढ़ता है, यदि अन्य बातें समान रहें।"
माल्थस के सुझाव
(Suggestion of Malthus)
जनसंख्या
व खाद्य सामग्री की पूर्ति की वृद्धि की यह गति भूतकाल में ऐसी ही रही है और
भविष्य में भी ऐसी ही बनी रहेगी परन्तु जनसंख्या की तीव्र गति की वृद्धि को दो
तरीकों से रोका जा सकता है इसके लिए उन्होंने कृत्रिम व प्राकृतिक दो उपाए बताए
हैं।
(1) कृत्रिम अवरोध (Preventive Checks):- कृत्रिम अवरोध के अंतर्गत वे सारे
उपाय आते हैं जिनका प्रयोग मनुष्य अपने विवेक से जन्म दर को रोकने के लिए करता है,
जैसे- बड़ी उम्र में विवाह, संयम का जीवन, ब्रह्मचर्य, विभिन्न प्रकार के सन्तति
निग्रह के साधनों का प्रयोग आदि।
(2) प्राकृतिक अवरोध (Positive Checks):- इस प्रकार के प्रतिबन्ध स्वयं
प्रकृति द्वारा बनाए जाते हैं। इन प्रतिरोधों द्वारा समाज में जनसंख्या स्वतः कम
हो जाती है। अकाल, महामारी, भूकम्प, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपत्तियाँ, दैवी प्रकोप
इनके अंतर्गत आते हैं। माल्थस ने इन्हें कष्ट की संज्ञा दी है। प्राकृतिक
प्रतिबन्ध पुनः क्रियाशील हो जाते हैं, फलतः पुनः जनसंख्या का खाद्यान्न के साथ
संतुलन स्थापित हो जाता है। घटनाओं का यह कुचक्र घटता जाता है जिसमें फंसकर
जनसंख्या कष्ट पाती रहती है। इस कुचक्र को माल्थूसियन चक्र कहते है। माल्थस का
कहना है कि यदि किसी देश में नैसर्गिक प्रतिबन्ध क्रियाशील हो जाते हैं तो यह इस
बात का प्रमाण है कि उस देश में जनसंख्या आवश्यकता से अधिक है। अतः प्राकृतिक
शक्तियाँ जनसंख्या को तेजी के साथ बढ़ने से रोक रही है।
संक्षेप
में, माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त में तीन बातें प्रकट होता हैं:-
(i)
प्रत्येक देश की जनसंख्या खाद्य पदार्थों की पूर्ति की तुलना में अधिक तेजी के साथ
बढ़ती है।
(ii)
यदि मानव कृत्रिम उपायों द्वारा जन्म दर को कम नहीं करता तो प्रकृति मृत्यु दर
बढ़ाकर जनसंख्या पर रोक लगाती है।
(iii)
नैसर्गिक प्रतिबंध कष्टदायक होते हैं, इसलिए मानव को प्रतिबंध अवरोध अपनाना चाहिए।
माल्थस के सिद्धान्त की समीक्षा
(Evaluation of Malthus Theory of
Population)
"माल्थस के सिद्धान्त की प्रशंसा उनके
अनुयायियों के अतिरिक्त कोसा, ऐली, पैटन, कारवर प्राइस, वाकर एवं क्लार्क आदि
विद्वानों के जनसंख्या सिद्धान्त का इतना अधिक खण्डन किया गया है, जिससे इस
सिद्धान्त की पुष्टि स्वयमेव हो जाती है।" इसके साथ ही साथ माल्थस के
सिद्धान्त की कटु आलोचनायें भी हुई हैं। इनके प्रमुख आलोचकों में जी अलेक्जेण्डर,
गाडविन, हक्सले, कैशन, ओपनहीम, माम्बर्ट मुख्य हैं। माल्थस के सिद्धान्त की निम्न
प्रकार से आलोचना की गई हैं :-
(1) इस सिद्धान्त का गणितीय स्वरूप आपत्तिजनक है:- माल्थस के अनुसार जनसंख्या में
वृद्धि ज्यामितीय अनुपात व खाद्य सामग्री में वृद्धि गणितीय अनुपात से वृद्धि होती
है, जो सर्वथा सत्य से परे है। साथ ही साथ, उनका यह कथन भी है कि किसी क्षेत्र
अथवा देश की जनसंख्या 25 वर्षों में दो गुनी हो जाती है, सत्य प्रतीत नहीं होता
क्योंकि विश्व में कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहाँ इस प्रकार जनसंख्या में वृद्धि
नहीं होती।
(2) माल्थस ने जनसंख्या की तुलना खाद्यान्न उत्पादन से की है, न कि
कुल उत्पादन से:- किसी
देश की आर्थिक स्थिति का आंकलन वहाँ के कुल उत्पादन से किया जाता है। जबकि माल्थस
ने जनसंख्या का सहसम्बन्ध कुल उत्पादन के स्थान पर खाद्यान्न उत्पादन के साथ
स्थापित किया है।
(3) माल्थस ने रहन-सहन के स्तर के प्रभाव की अपेक्षा की है:- यह तथ्य सत्य है, कि किसी देश के
रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठाने से वहाँ शिक्षा का स्तर ऊँचा उठ जाता है, फलस्वरूप
लोगों में स्वेच्छा से देर में विवाह करने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है तथा
महिलाओं में भी परिवार को नियोजित करने हेतु चेतना जागृत होती है, परन्तु माल्थस
ने सिद्धान्त प्रतिपादन में इसको नगण्य माना है।
(4) जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ देश की श्रमशक्ति भी बढ़ती है:- माल्थस ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया
कि शिशु अपने साथ एक मुँह और दो हाथ लेकर जन्म ग्रहण करता है। वह मुँह की क्षमता
से कहीं अधिक थोड़े ही वर्षों में दोनों हाथों से कार्य करके अधिक उत्पादन कर सकता
है। इसी संदर्भ में प्रो० सैलिगमैन ने कहा है कि, "हमें समूची अर्थव्यवस्था
पर ध्यान रखना चाहिए न कि केवल जनसंख्या वृद्धि पर।"
(5) अधिक जनसंख्या वाले देश में प्राकृतिक विपत्तियाँ अनिवार्य
नहीं:- माल्थस का यह
कथन है कि अति जनसंख्या वाले देशों में प्राकृतिक विपत्तियाँ हुआ करती हैं तथा
मृत्यु-दर बढ़ जाती हैं, ऐसा अनिवार्य नहीं है। ऐसी विपत्तियाँ कम जनसंख्या वाले
देशों में भी आया करती हैं।
(6) जीव वैज्ञानिक तथ्य की उपेक्षा:- मानव - सभ्यता में विकास के साथ ही
उसकी प्रजनन की इच्छा व शक्ति में उत्तरोत्तर ह्रास होता है। इस तथ्य की ओर माल्थस
का ध्यान नहीं था। इस तथ्य को माना जाय तो जनसंख्या की वृद्धि का भय कम हो सकता
है।
(7) निर्धन लोगों की दरिद्रता के कारण वे स्वयं नहीं:- माल्थस ने निर्धन व्यक्तियों की
दरिद्रता का कारण उन्हें स्वयं बताया है, जो असत्य है। कार्ल मार्क्स जैसे
विद्वानों ने माल्थस के इस कथन पर घोर आपत्ति की है तथा कहा है कि गरीबी के लिये
जनाधिक्य नहीं वरन् प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों का अपूर्ण व अनुचित उपयोग, आय का
असमान वितरण तथा सरकार की दोषपूर्ण नीति उत्तरदायी है।
(8) जनसंख्या वृद्धि सदैव हानिकारक नहीं:- जनसंख्या वृद्धि सभी देशों के लिये
हानिकारक है, यह कथन सत्य नहीं है। विश्व के अनेक ऐसे देश (आस्ट्रेलिया, पूर्व
सोवियत रूस आदि) हैं जहाँ जनसंख्या वृद्धि अपेक्षित है। कम जनसंख्या वाले देशों
में आर्थिक विकास के स्तर को उठाने हेतु जनसंख्या का बढ़ना आवश्यक है।
(9) कृत्रिम उपायों की उपेक्षा:- माल्थस ने पादरी होने के कारण आत्मसंयम पर बल दिया है
तथा कृत्रिम उपायों की उपेक्षा की है। उन्होंने परिवार नियोजन का डटकर विरोध किया
है। इस सन्दर्भ में विद्वानों का मत है कि केवल आत्मसंयम से ही जनसंख्या वृद्धि को
नहीं रोका जा सकता है।
(10) माल्थस ने वैज्ञानिक अविष्कारों की उपेक्षा की है:- माल्थस इस बात पर ध्यान न दे सके हैं
कि कृषि सम्बन्धी वैज्ञानिक विधियाँ अपनाकर ह्रासमान प्रतिफल नियम की क्रियाशीलता
को प्रतिबन्धित किया जा सकता है।
(11) जनसंख्या सामाजिक उद्देश्यों की भी समस्या है:- प्रो० सैलिगमेन का कहना है कि,
"जनसंख्या की समस्या केवल आकार की समस्या नहीं है वरन् कुशल उत्पादक व समीचीन
वितरण की भी समस्या है।"
(12) माल्थस ने अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में आगमन प्रणाली
(Inductive method) का प्रयोग किया है अर्थात्
इन्होंने अपना निष्कर्ष कुछ ही राष्ट्रों के जनसंख्या सम्बन्धी आँकड़ों के अध्ययन
पर आधारित किया। शायद यही इनके निष्कर्षों का कारण है।
सर
विन्सटन चर्चिल ने “सभी वृक्ष प्रारम्भ में ज्यामितिक अनुपात में बढ़ते हैं, किसी भी
वृक्ष को आकाश को छूते नहीं देखा गया। इसी प्रकार की दशा जनसंख्या पर भी लागू होती
है।'' माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त की आलोचनाओं को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट
किया है कि “निःसन्देह माल्थस की कुछ कमियाँ क्षम्य हैं क्योंकि ये उनके कथन को
सूक्ष्म तथा प्रभावशाली बनाने के प्रयास में हुई हैं जो उनके सिद्धान्त को गलत
समझने का एक कारण माना जा सकता है।'' अन्त में लेखक का अपना मत है माल्थस चाहे आज
विकसित देशों की दशा में सही न उतर सके, किन्तु अविकसित देशों में यह सिद्धान्त
महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। जहाँ तक गुणोत्तर श्रेणी तथा गणितीय श्रेणी का प्रश्न है,
जनसंख्या में हमेशा खाद्यान्न की अपेक्षा तीव्र वृद्धि होगी। यह एक ध्रुव सत्य
होगा।
माल्थस के सिद्धान्त में सत्यता का अंश
(Elements of Truth in Malthusian Theory):
अनेकानेक
आलोचना से यह नहीं समझना चाहिए कि माल्थस का सिद्धान्त सत्यता से परे हैं। माल्थस
के सिद्धान्त के कुछ सत्यता का अंश है जिसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते। प्रो० वाकर
ने कहा है, "कटु वादविवाद के बीच भी माल्थस का सिद्धान्त अडिग खड़ा है।'' इसी
प्रकार क्लार्क ने कहा, "माल्थस के सिद्धान्त की जितनी अधिक आलोचनाएँ की गयी हैं,
उतनी अधिक दृढ़ता उसमें आयी हैं।'' जे० फोरेस्टर की पुस्तक 'World Dynamics'
(1971) व डेनिस मिडोज तथा तथा उनके सहयोगियों की पुस्तक 'The Limits of Growth
(1972) में वातावरण के प्रदूषण, प्राकृतिक साधनों की तीव्र गति से होने वाली
समाप्ति तथा भविष्य में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में अनिवार्यतः गिरावट आदि के
निष्कर्षों ने माल्थस की याद ताजा कर दी है। इस प्रकार माल्थस के सिद्धान्त में
सत्यता का अंश इस प्रकार पाया जाता है:
(i)
माल्थस के इस मत में भी कुछ सत्यता है कि जनसंख्या तथा खाद्य पदार्थों की पूर्ति
में असंतुलन होने तथा प्रतिबन्धक निरोध को न अपनाने पर नैसर्गिक अवरोध कार्यशील
होते हैं क्योंकि जहां कहीं भी जन्म दर अधिक है, जहाँ मृत्यु दर अधिक होती है।
(ii)
माल्थस का यह निष्कर्ष ठीक है कि यदि देशवासियों द्वारा किसी भी प्रतिबंध का
प्रयोग न किया जाये तो जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ेगी।
(iii)
कम उन्नत तथा अल्प-विकसित देशों में माल्थस के सिद्धान्त की सत्यता और भी अधिक
प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे रही है, जैसे- भारत।
(iv)
किसी विशेष देश के स्थान की अपेक्षा यदि सम्पूर्ण संसार की जनसंख्या ओर सम्पूर्ण
संसार में उत्पादन होने वाली खाद्य सामग्री को लें तो यह कहा जा सकता है कि खाद्य
सामग्री का कुल उत्पादन निश्चित है और उससे निश्चित जनसंख्या का ही भरण-पोषण किया
जा सकता है।
(v)
माल्थस के सिद्धान्त ने इंग्लैण्ड और अमेरिका जैसे उन्नत देशों के लोगों पर भी
गहरा प्रभाव डाला है। वहाँ लोगों में संतति निग्रह के जिन विभिन्न उपायों का
प्रयोग होता है, उससे यह सिद्ध होता है कि माल्थस की चेतावनी वहां के लोगों ने
गंभीरतापूर्वक ग्रहण की है। इस प्रकार माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त में सत्यता का
अंश स्वीकार करते हुए जे० आर० हिक्स ने लिखा है, "जब किसी देश की जनसंख्या उस
बिन्दु पर पहुंच जाती है जहां भूमि में कमी गंभीर हो जाती है, तब लोगों को
निर्धनता के कारण कष्ट सहना पड़ता है और जिसका निवारण जनसंख्या में कमी द्वारा
किया जा सकता है।''
क्या माल्थस की निराशावादी विचारधारा पुनर्जीवित हो रही है?
(Are Pessimistic Thoughts of
Malthus Again Reviving?)
निम्नलिखित
दो अध्ययनों ने माल्थस की निराशावादी विचारधारा को पुनर्जीवित कर दिया है:
(1) क्लब ऑफ रोम मॉडल (Club of Rome Model):- संयुक्त राज्य अमेरीका के
मैसेच्युसेट संस्थान में जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण, कुपोषण, संसाधनों का क्षय,
पर्यावरण प्रदूषण एवं असंतुलन के अंतर्सम्बन्ध का अध्ययन व विश्लेषण किया गया है।
इस अध्ययन को विकास की सीमा का मॉडल भी कहा जाता है। इस अध्ययन में कम्प्यूटर की
सहायता से विभिन्न घटकों के अंर्तसंबंधों का विश्लेषण करके यह निष्कर्ष निकाला गया
कि यदि आर्थिक प्रगति की यही प्रवृत्ति चलती रही, तो आगामी एक सौ वर्षों में
पृथ्वी में विकास की अंतिम सीमा आ जाएगी। बढ़ते हुए औद्योगीकरण के कारण प्राकृतिक
संसाधनों की मात्रा घटती जाएगी और उनकी कीमतों में निरंतर वृद्धि होती जाएगी,
जिससे कच्चा माल मिलने में कठिनाइयां उत्पन्न होंगी, फलतः औद्योगिक आधार की स्थिति
कमजोर हो जायेगी। कृषि का आधार भी अब उद्योग ही हो गया है। अतः कृषि की स्थिति भी
उद्योगों की भांति शोचनीय हो जाएगी, खाद्यान्नों की कमी होगी और मृत्यु दर में
वृद्धि होगी।
(2) सन् 2000 में विश्व : एक अध्ययन (Global Two Thousand Study :
GTS):- संयुक्त राज्य
अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने एक आयोग का गठन किया था, जिसका
उद्देश्य विश्व की जनसंख्या एवं संसाधनों का अध्ययन करना था। इस अध्ययन में सन्
2000 के लिए विश्व का एक अत्यंत गंभीर और निराशापूर्ण चित्र प्रस्तुत किया गया है।
इस अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि विश्व में जनसंख्या वृद्धि की यही
प्रवृत्ति बनी रही, तो सन् 2000 का विश्व आज से अधिक भीड़-भाड़ वाला अधिक प्रदूषण
एवं पर्यावरण की दृष्टि से अधिक असंतुलित एवं अधिक विस्फोटक होगा और तात्कालीन
मानव आज से कहीं अधिक गरीब होगा, यद्यपि भौतिक उत्पादन आज से कहीं अधिक होगा।
क्या भारत में माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त लागू हो रहा है।
(Is Malthusian Theory Operating in
India?)
माल्थस
का सिद्धान्त निश्चय ही भारत पर लागू होता है। इस मान्यता की पृष्ठभूमि में
निम्नलिखित कारण प्रस्तुत किए जाते हैं :
(1) खाद्यान्न का अभाव:- भारत
की जनसंख्या 2.5 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश खाद्य
उत्पादन इस दर पर नहीं बढ़ रहा है। सन् 1775 से सन् 1900 तक भारत में अनुमानतः 4
करोड़ व्यक्तियों की मृत्यु भूख से हुई तथा सन् 1900 से लेकर सन् 2005 तक इसी
प्रकार 3.75 करोड़ व्यक्ति भूख से मरे। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा यद्यपि
खाद्य-समस्या पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयास किए जा रहे है। सिंचाई की
व्यवस्था पूर्ण रूप से उपलब्ध होने पर ही आज भी भारतीय कृषि मानसून पर पूर्ण
निर्भर है।
(2) निरोधक प्रतिबन्धों का आश्रयः- जनाधिक्य की समस्या को रोकने के लिए माल्थस ने निरोधक
उपायों के सम्बन्ध में सुझाव दिया था। भारत में विगत वर्षों में परिवार नियोजन,
बंध्याकरण और औषधियों के उपयोग की लोकप्रियता बढ़ रही है, अर्थात् माल्थस द्वारा
बताई गयी दिशा में हम लोग चलने का प्रयास कर रहे हैं।
(3) जनसंख्या की तीव्र वृद्धि (Fast Increase in Population):- माल्थस का मानना था कि जनसंख्या की
वृद्धि प्रगतिशील अनुपात से होती है। यदि हम भारत की जनसंख्या वृद्धि से सम्बन्धित
आँकड़ों पर दृष्टिपात करें, तो हमें विदित होगा कि 1600 ई० से लेकर 1871 ई० तक के
बीच अर्थात् 270 वर्षों में भारत की जनसंख्या दुगुनी हो गयी थी, लेकिन 1871 से
1951 तक केवल 80 वर्ष में जनसंख्या पुनः दुगुनी हो गयी और 1951 से 1991 तक अर्थात्
40 वर्षों में भारत की जनसंख्या पुनः दुगुनी से अधिक हो गयी। यदि जनसंख्या की 2
प्रतिशत की वृद्धि दर जारी रही तो 2020 तक जनसंख्या पुनः दुगुनी हो जाएगी। इसे
रोका जा सकता है। आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या से अधिक जनसंख्या भारतवर्ष में
प्रत्येक वर्ष बढ़ जाती है।
(4) देश में जनसंख्या का बढ़ता हुआ घनत्व:- देश में 1901 में मात्र 77 व्यक्ति
प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या का घनत्व था, जो 2011 में बढ़कर-382 व्यक्ति प्रति
वर्ग किलोमीटर हो गया है। यह तथ्य इस बात को प्रमाणित करता है कि जनसंख्या में
निरंतर तीव्र वृद्धि हो रही है और माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त क्रियाशील है।
(5) नैसर्गिक प्रतिबंधों की क्रियाशीलता:- माल्थस का यह कथन था कि यदि मनुष्य
स्वयं प्रतिबंधक उपायों के द्वारा जनसंख्या को रोकने का प्रयत्न नहीं करता, तो
प्राकृतिक या नैसर्गिक प्रतिबंध अवश्य क्रियाशील होंगे। भारत में समय-समय पर सूखा,
अकालों, बाढ़ों एवं महामारियों जैसी प्राकृतिक विपत्तियाँ घटित होती रहती हैं,
जिससे जन-जीवन की महान क्षति होती है। इस प्रकार माल्थस ने नैसर्गिक प्रतिबंधों के
संबंध में जो कुछ कहा था, वह काफी सीमा तक भारतीय परिस्थितियों के लिए उपयुक्त
हैं।
(6) ऊँची जन्म व मृत्यु दर:- भारत में आज भी 2011 की जनगणना के अनुसार जन्म दर 22.1 व
मृत्यु दर 88 प्रति हजार है, जो कि बहुत अधिक है। ऊँची जन्म दर के साथ मृत्यु दर
का अधिक होना भी माल्थस के सिद्धान्त की क्रियाशीलता का परिणाम है।
(7) निम्न जीवन स्तर:- भारत दुनिया के 10 गरीब देशों में से एक है।
यह बात संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अभी कराए
गये एक सर्वेक्षण में सिद्ध हो चुकी है। देश में लगभग 35 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा
से नीचे जीवन यापन करते हैं। इसका मूल कारण खाद्यान्न व अन्य वस्तुओं के उत्पादन
की तुलना में जनसंख्या में होने वाली वृद्धि है। इस दृष्टि से भी माल्थस का
सिद्धान्त भारत में क्रियाशील प्रमाणित होता है।
उपर्युक्त
तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त
भारत में काफी सीमा तक लागू होती है।
मार्शल द्वारा माल्थस के सिद्धान्त की व्याख्या
मार्शल
ने माल्थस के जनसंख्या सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया
है:
(1) श्रम की माँग:- माल्थस
ने अपने संकलित आँकड़ों के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि जनसंख्या में
वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक तेजी से होती है, जबकि श्रम की माँग का निर्धारण करने वाली
खाद्यान्न की मात्रा में वृद्धि की दर कम रहती है। माल्थस के विचारानुसार
खाद्यान्न के उत्पादन की दर के धीमी होने का कारण कृषि में उत्पत्ति ह्रास नियम का
लागू होना है। खाद्यान्न की मात्रा जनसंख्या की माँग का प्रतीक है। मार्शल के कहने
का अर्थ यह था कि जिस अनुपात में जनसंख्या में वृद्धि होती है उस अनुपात में
खाद्यान्न में वृद्धि नहीं होती है।
(2) श्रम की पूर्ति:- माल्थस
ने मत व्यक्त किया कि मनुष्य में काम-वासना का होना स्वाभाविक है और उसमें सन्तान
उत्पन्न करने की इच्छा प्रबल होती है, परन्तु स्वयं जनसंख्या वृद्धि की सीमा
निर्धारित नहीं कर सकता, उसका निर्धारण तो जीवन-निर्वाह के साधनों अर्थात् खाद्य
सामग्री द्वारा होता है। श्रम की पूर्ति के सम्बन्ध में अपने विचारों को स्पष्ट
करते हुए प्रो० मार्शल ने लिखा है कि, "इतिहास का हमारे पास विश्वसनीय प्रमाण
है कि प्रत्येक मनुष्य इतना अधिक प्रजन रहा है कि उसकी वृद्धि बहुत तेजी से होती
यदि उसे जीवन-निर्वाह के साधनों की सीमितता, बीमारियाँ, युद्ध, शिशु-हत्या और संयम
नियंत्रित न करते।"
(3) निष्कर्ष:- मार्शल ने माल्थस के निष्कर्ष को इस प्रकार व्यक्त किया है, “जो कुछ भूतकाल में घटित हो चुका है, उसी की भविष्य में होने की सम्भावना है, अतः यदि जनसंख्या वृद्धि की दर में स्वेच्छा से नियंत्रण नहीं लगाया गया तो गरीबी तथा अन्य कष्टकारी साधनों द्वारा इसमें रोक लगेगी। अतः माल्थस ने लोगों को यह सुझाव दिया कि वे आत्म-संयम से काम लें, पवित्र जीवन व्यतीत करें तथा विलम्ब से विवाह करें।"
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