Class XII (Political Science) 4. भारत के विदेश संबंध (India's External Relations)

4. भारत के विदेश संबंध

4. भारत के विदेश संबंध

प्रश्न 1. इन बयानों के आगे सही या गलत का निशान लगाएँ।

(अ) गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण भारत, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों की सहायता हासिल कर संका।

(ब) अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बन्ध शुरुआत से ही तनावपूर्ण रहे।

(स) शीतयुद्ध का असर भारत-पाक सम्बन्धों पर भी पड़ा।

(द) 1971 की शांति और मैत्री की संधि संयुक्त राज्य अमेरिका से भारत की निकटता का परिणाम थी।

उत्तर:

(अ) सही,

(ब) गलत,

(स) सही,

(द) गलत

प्रश्न 2. निम्नलिखित का सही जोड़ा मिलाएँ।

उत्तर: (अ) → (ii), (ब) → (iii), (स) → (iv), (द) → (i)

प्रश्न 3. नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतंत्रता का एक अनिवार्य संकेतक क्यों मानते थे? अपने उत्तर में दो कारण बताएँ और उनके पक्ष में उदाहरण भी दें।

उत्तर: भारत की विदेश नीति के संचालन के संदर्भ में नेहरू का दृष्टिकोण-भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय एजेंडा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई। वे प्रधानमंत्री के साथ-साथ विदेश मंत्री भी थे। प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में सन् 1947 से 1964 तक उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना और क्रियान्वयन पर गहरा प्रभाव डाला। नेहरू जी विदेश नीति के. संचालन को स्वतंत्रता का एक अनिवार्य संकेतक इसलिए मानते थे कि स्वतंत्रता किसी भी देश की विदेश नीति के संचालन की प्रथम व अनिवार्य शर्त है क्योंकि विदेश नीति का संचालन वही देश कर सकता है जो स्वतंत्र हो। एक परतंत्र देश अपनी विदेश नीति का संचालन नहीं कर सकता क्योंकि वह दूसरे देशों के अधीन होता है।

विदेश नीति के स्वतंत्र निर्धारण तथा संचालन को नेहरू जी द्वारा स्वतंत्रता का अनिवार्य संकेतक समझे जाने के कई कारण थे जिनमें से दो कारण तथा उनके पक्ष में निम्न उदाहरण निम्नांकित हैं।

(i) जो देश किसी दूसरे देश के दबाव में आकर अपनी विदेश नीति का निर्धारण एवं संचालन करता है तो उसकी स्वतंत्रता निरर्थक होती है तथा वह एक प्रकार से उस दूसरे देश के अधीन ही हो जाता है व ऐसी अवस्था में उसे अनेक बार अपने राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी करनी पड़ती है। वह दूसरे देश की हाँ में हाँ तथा ना में ना मिलाने वाली एक मशीन मात्र बनकर रह जाता है।

नेहरू जी ने सन् 1947 में भारत में हुए एशियाई सम्बन्ध सम्मेलन में यह बात स्पष्ट तौर से कही थी कि भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपनी स्वतंत्र विदेश नीति के आधार पर सभी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में पूर्ण रूप से भाग लेगा; किसी महाशक्ति या किसी दूसरे देश के पुछल्ले के रूप में नहीं। इसी कारण भारत गुटों से अलग रहकर दोनों देशों से सहायता प्राप्त करना चाहता था जिससे देश का जल्दी से जल्दी विकास हो सके। पं. नेहरू की गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जनक समूह के सदस्य के रूप में उल्लेखनीय भूमिका रही।

(ii) पं. नेहरू का मत था कि स्वतंत्र राष्ट्र में यदि वह अपनी विदेश नीति का संचालन स्वतंत्रतापूर्वक नहीं कर सकता तो उसमें स्वाभिमान, आत्म-सम्मान की भावना का विकास नहीं हो सकता। वह राष्ट्र.विश्व समुदाय में सिर ऊँचा करके नहीं चल सकता तथा राष्ट्र का नैतिक विकास नहीं हो सकता। उसकी स्वतंत्रता नाममात्र की होती है। बांडुग सम्मेलन में उन्होंने वक्तव्य दिया था कि “यह बड़ी अपमानजनक और असत्य बात है कि कोई एशियाई - अफ्रीकी देश महाशक्तियों के गुटों में से किसी देश का अनुसरण करे।

हमें गुटों के परस्पर झगड़ों से अलग रहना चाहिए तथा स्वतंत्रतापूर्वक अपनी विदेश नीति का निर्धारण एवं संचालन करना चाहिए। भारत स्वतंत्र विदेश नीति को इसलिए भी अनिवार्य मानता है जिससे देश में लोकतंत्र, कल्याणकारी राज्य के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उपनिवेशवाद, जातीय भेद - भाव, रंग - भेद का मुकाबला किया जा सके।" उदाहरणार्थ: नेहरूजी ने एफ्रो-एशियाई सम्मेलन में भाग लिया। इंडोनेशिया की स्वतंत्रता का समर्थन किया। चीन की सुरक्षा परिषद् में सदस्यता का समर्थन किया। सोवियत संघ ने हंगरी पर जब आक्रमण किया तो उसकी निंदा की।

प्रश्न 4. “विदेश नीति का निर्धारण घरेलू जरूरत और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दोहरे दबाव में होता है।" 1960 के दशक में भारत द्वारा अपनाई गई विदेश नीति से एक उदाहरण देते हुए अपने उत्तर की पुष्टि करें।

उत्तर: घरेलू आवश्यकता तथा अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ ।

(i) जिस प्रकार किसी व्यक्ति या परिवार के व्यवहारों को आंतरिक तथा बाहरी कारक निर्देशित करते हैं उसी प्रकार एक देश की विदेश नीति पर भी घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय वातावरण का प्रभाव पड़ता है। विकासशील देशों के पास अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के अंदर अपने सरोकारों को पूर्ण करने के लिए जरूरी संसाधनों की कमी रहती है। इसके चलते वह बड़े - बड़े देशों की अपेक्षा सीधे - सादे, लक्ष्यों को लेकर अपनी विदेश नीति निर्धारित करते हैं। ऐसे देशों का जोर इस बात पर होता है कि उनके पड़ोस में अमन-चैन बना रहे तथा विकास होता रहे।

(ii) भारत एक विकासशील देश है। इसके अलावा विकासशील देश आर्थिक तथा सुरक्षा की दृष्टि से अधिक ताकतवर देशों पर निर्भर होते हैं। इस निर्भरता का भी उनकी विदेश नीति पर कभी - कभी असर पड़ता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दौर में कई विकासशील देशों ने शक्तिशाली देशों की मर्जी को ध्यान में रखते हुए अपनी विदेश नीति अपनाई क्योंकि इन देशों से इन्हें अनुदान या कर्ज मिल रहा था। इस वजह से दुनिया के अनेक देश दो खेमों में बँट गए थे। एक खेमा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उसके समर्थक देशों के प्रभाव में रहा तो दूसरा खेमा सोवियत संघ के प्रभाव में।

उदाहरण: भारत ने सन् 1960 के दशक में जो विदेश नीति निर्धारित की उस पर चीन एवं पाकिस्तान के साथ युद्ध, तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों, अकाल एवं शीतयुद्ध का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखलायीं देता है। भारत ने गुटनिरेक्षता की नीति को अपनाकर शीत युद्ध के दौरान दोनों गुटों - संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत संघ में से किसी भी गुट को समर्थन नहीं दिया और दोनों ही गुटों से देश के पुनर्निर्माण हेतु आर्थिक सहायता प्राप्त करता रहा। यह आज की विदेश नीति की बुद्धिमत्ता का परिचायक है।

प्रश्न 5. अगर आपको भारत की विदेश नीति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो आप इसकी किन दो बातों को बदलना चाहेंगे। ठीक इसी तरह यह भी बताएँ कि भारत की विदेश नीति के किन दो पहलुओं को आप बरकरार रखना चाहेंगे। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।

अथवा : भारतीय विदेश नीति की किन्हीं दो विशेषताओं की व्याख्या कीजिए जिनका आप समर्थन करते हैं और ऐसी किन्हीं दो विशेषताओं को सुझाइए जिनको आप बदलना चाहेंगे।

उत्तर: यदि मुझे भारत की विदेश नीति के सम्बन्ध में निर्णय लेने को कहा जाए तो मैं भारतीय विदेश नीति के निम्न दो पहलुओं को बदलना चाहूँगा / चाहूँगी।

(i) परमाणु नीति: भारत की विदेश नीति के प्रमुख निर्धारक तत्त्वों में भारत की परमाणु नीति का समर्थन प्रमुख तत्त्व है। वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यक है कि इनमें कुछ परिवर्तन किए जाएँ। भारत को अपनी परमाणु क्षमता बनाए रखने तथा उसके प्रदर्शन की आवश्यकता है जिसके लिए उसे अपनी विदेश नीति में परिवर्तन करना चाहिए।

(ii) ढुलमुल विदेश नीति: पड़ोसी देशों के साथ ढुलमुल विदेश नीति को बदलकर आक्रामक नीति बनाना चाहँगा। पड़ोसी देशों के साथ हमारे सम्बन्ध अच्छे हों। यह तो ठीक है, परंतु इसके लिए हम अपनी आक्रामक नीति को नहीं छोड़ सकते। जब हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान, चीन व संयुक्त राज्य अमेरिका से शस्त्र खरीदकर उनका प्रयोग हम पर करने का इरादा रखता है तो हमें भी नि:शस्त्रीकरण की नीति का परित्याग कर देना चाहिए।

इसी प्रकार यदि भारत की विदेश नीति के किन्हीं दो पहलुओं को बरकरार रखने को कहा जाए तो मैं इन दो पहलुओं को बनाए रखना चाहूँगा / चाहूँगी।

(i) गुटनिरपेक्षता की नीति: गुटनिरपेक्षता का सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की दृष्टि से सदैव प्रासंगिक रहेगा। इस नीति के कारण प्रत्येक राष्ट्रीय महत्त्व के प्रश्न पर स्वतंत्र तथा निष्पक्ष रूप से विचार किया जा सकेगा।

(ii) पंचशील का सिद्धान्त: पंचशील के पाँच सिद्धान्त हमारी विदेश नीति के मूलाधार हैं। ये ऐसे सिद्धान्त हैं कि यदि इन पर विश्व के सब देश चलें तो विश्व में शांति स्थापित हो सकती है। अतः इन सिद्धान्तों को बरकरार रखना चाहूँगा।

प्रश्न 6. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

(अ) भारत की परमाणु नीति।

(ब) विदेश नीति के मामलों पर सर्व-सहमति।

उत्तर:

(अ) भारत की परमाणु नीति-भारत सरकार ने अपनी परमाणु नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि “यह उस कार्यक्रम का अंग है जिसका उद्देश्य परमाणु प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, विशेषकर खनन तथा मिट्टी हटाने के कार्य में, परमाणु शक्ति के उपयोग में भारत को अन्य देशों के समकक्ष रखना है। भारत सरकार ने इस बात के प्रमाण भी दिए हैं कि वह परमाणु परीक्षणों के सैनिक उपयोग के विरुद्ध है।" भारत ने मई 1974 में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया।

तेज गति से आधुनिक भारत के निर्माण के लिए नेहरूजी ने सदैव विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर अपना विश्वास जताया था। नेहरू की औद्योगीकरण की नीति का एक महत्त्वपूर्ण घटक परमाणु कार्यक्रम था। इसकी शुरुआत सन् 1940 के दशक के अंतिम वर्षों में महान वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा के निर्देशन में हो चुकी थी। भारत शांतिपूर्ण उद्देश्यों में प्रयोग के लिए अणु ऊर्जा बनाना चाहता था। नेहरू परमाणु हथियारों के विरोधी थे। उन्होंने महाशक्तियों पर व्यापक परमाणु निःशस्त्रीकरण के लिए बल दिया। बहरहाल, परमाणु आयुधों में वृद्धि होती रही।

साम्यवादी शासन वाले चीन ने अक्टूबर 1964 में परमाणु परीक्षण किया। अणुशक्ति संपन्न देशों यानी संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन ने, जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य भी थे, दुनिया के अन्य देशों पर सन् 1968 की परमाणु अप्रसार संधि को थोपना चाहा। भारत सदैव ही इस संधि को भेदभावपूर्ण मानता आया था। भारत ने इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था।

भारत ने जब अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो इसे उसने शांतिपूर्ण परीक्षण करार दिया। भारत का कहना था कि वह अणुशक्ति को केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों में प्रयोग करने की अपनी नीति के प्रति दृढ़ संकल्पित है। भारत ने फिर मई 1998 में अपना दूसरा परमाणु परीक्षण किया। संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन तथा यूरोप के देशों ने भी इस पर काफी नाराजगी दिखाई लेकिन भारत के इस तर्क पर कि वह ये परीक्षण शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए कर रहा है, वे शांत हो गए। भारत ने और परमाणु परीक्षण न करने की बात कही है परन्तु उसने अपने सभी विकल्प खुले रखे हैं।

(ब) विदेश नीति के मामलों पर सर्व - सहमति: साधारण शब्दों में, विदेश नीति से अभिप्राय उस नीति से है जो एक देश द्वारा अन्य देशों के प्रति अपनाई जाती है। भारत ने भी सन् 1947 ई. में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अपनी एक स्वतंत्र विदेश नीति अपनाई। भारत में बहुदलीय लोकतांत्रिक पद्धति है और आम चुनाव में बहुत से दल सत्ता प्राप्ति की दौड़ में शामिल होते हैं। प्रत्येक दल अपनी नीतियों व कार्यक्रमों के आधार पर मतदाताओं को आकर्षित करने का प्रयास करता है। यद्यपि हमारे देश के राजनीतिक दलों के बीच विदेश नीति के मामले पर छोटे-मोटे मतभेद जरूर हैं लेकिन भारतीय राजनीति में विभिन्न दलों के बीच राष्ट्रीय एकता व अखंडता, अंतर्राष्ट्रीय सीमा सुरक्षा व राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर व्यापक सहमति है।

स्वतंत्रता के पश्चात् से ही भारत को युद्धों का सामना करना पड़ा है। यह भी देखा गया है कि सभी दल उसी विदेश नीति को अपनाते आए हैं और युद्धों व राष्ट्रीय संकट के दौरान वे अपने दलीय मतभेद भुलाकर, सरकार को समर्थन देते हैं तथा भारत के सभी नागरिक, सभी वर्ग, सभी दल व हित एकजुट होकर उस राष्ट्रीय संकट का सामना करते हैं। विदेश नीति के मामलों में भारत में सभी राजनीतिक दलों की सर्व - सहमति है।

प्रश्न 7. भारत की विदेश नीति का निर्माण शांति और सहयोग के सिद्धांतों को आधार मानकर हुआ। लेकिन, 1962 - 1971 की अवधि यानी महज दस सालों में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा, क्या आपको लगता है कि यह भारत की विदेश नीति की असफलता है अथवा आप इसे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानेंगे? अपने मंतव्य के पक्ष में तर्क दीजिए।

उत्तर: भारत की विदेश नीति के निर्माण में पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अहम भूमिका निभाई। वे प्रधानमंत्री के साथ-साथ विदेश मंत्री भी थे। प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में सन् 1947 से 1964 तक उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना तथा क्रियान्वयन पर गहरा प्रभाव डाला। उनके अनुसार विदेश नीति के तीन बड़े उद्देश्य थे-कठिन संघर्ष से प्राप्त संप्रभुता को बचाए रखना, क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखना तथा तीव्र गति से आर्थिक विकास करना। नेहरू जी इन उद्देश्यों को गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर हासिल करना चाहते थे।

आजाद भारत की विदेश नीति में शांतिपूर्ण विश्व का सपना था और इसके लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया। भारत ने इसके लिए शीतयुद्ध से उपजे तनाव को कम करने की कोशिश की तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति अभियानों में अपनी सेना भेजी। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर स्वतंत्र रवैया अपनाया। दुर्भाग्यवश सन् 1962 से 1971 की अवधि में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा। सन् 1962 में चीन के साथ युद्ध हुआ।

सन् 1965 और सन् 1971 में भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध करना पड़ा। वास्तव में भारत की विदेश नीति का निर्माण शांति और सहयोग के सिद्धान्तों को आधार मानकर हुआ लेकिन सन् 1962 से 1971 की अवधि में जिन तीन युद्धों का सामना भारत को करना पड़ा उन्हें विदेश नीति की असफलता का परिणाम नहीं कहा जा सकता। बल्कि इसे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम माना जा सकता है। इसके पक्ष में तर्क इस प्रकार हैं।

(i) भारत की विदेश नीति शांति और सहयोग के आधार पर टिकी हुई है। शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के पाँच सिद्धान्तों यानी पंचशील की घोषणा भारत के प्रधानमंत्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल, 1954 में की। परन्तु चीन ने विश्वासघात किया। चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। इससे भारत और चीन के बीच ऐतिहासिक रूप से जो एक मध्यवर्ती राज्य बना चला आ रहा था, वह खत्म हो गया। तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा ने भारत से राजनीतिक शरण माँगी और सन् 1959 में भारत ने उन्हें शरण दी। चीन ने आरोप लगाया कि भारत सरकार अंदरूनी तौर पर चीन विरोधी गतिविधियों को हवा दे रही है। चीन ने अक्टूबर 1962 में बड़ी तेजी से तथा व्यापक स्तर पर भारत पर हमला किया।

(ii) कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के साथ बँटवारे के तुरंत बाद ही संघर्ष छिड़ गया था। दोनों देशों के बीच सन् 1965 में कहीं ज्यादा गंभीर किस्म के सैन्य - संघर्ष की शुरुआत हुई। परन्तु उस समय लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में भारत सरकार की विदेश नीति असफल नहीं हुई। भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के जनरल अयूब खान के बीच सन् 1966 में ताशकंद - समझौता हुआ। सोवियत संघ ने इसमें मध्यस्थ की भूमिका निभाई। इस प्रकार उस महान नेता की आंतरिक नीति के साथ - साथ भारत की विदेश नीति की धाक भी जमी।

(iii) बांग्लादेश के मामले पर सन् 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक सफल कूटनीतिज्ञ की भूमिका में बांग्लादेश का समर्थन किया तथा एक शत्रु देश की कमर स्थायी रूप से तोड़कर यह सिद्ध किया कि युद्ध में सब जायज है तथा "हम पाकिस्तान के बड़े भाई हैं" ऐसे आदर्शवादी नारों का व्यावहारिक तौर पर कोई स्थान नहीं है।

(iv) विदेशी सम्बन्ध राष्ट्रहितों पर टिके होते हैं। राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। ऐसा भी नहीं है कि हमेशा आदर्शों का ही ढिंढोरा पीटा जाए। हम परमाणु शक्ति संपन्न हैं, सुरक्षा परिषद् में स्थायी स्थान प्राप्त करेंगे तथा राष्ट्र की एकता व अखंडता, भू-भाग, आत्मसम्मान व यहाँ के लोगों के जानमाल की रक्षा भी करेंगे। वर्तमान परिस्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि हमें समानता से हर मंच, हर स्थान पर अपनी बात कहनी होगी तथा यथासंभव अंतर्राष्ट्रीय शांति, सुरक्षा, सहयोग व प्रेम को बनाए रखने का प्रयास भी करना होगा।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सन् 1962 - 1971 के बीच तीन युद्ध भारत की विदेश नीति की असफलता नहीं बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों का ही परिणाम थे।

प्रश्न 8. क्या भारत की विदेश नीति से यह झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है? 1971 के बांग्लादेश युद्ध के संदर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें।

अथवा : बांग्लादेश युद्ध, 1971 पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर: भारत की विदेश नीति से यह बिल्कुल भी नहीं झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है। सन् 1971 का बांग्लादेश युद्ध इस बात को बिल्कुल साबित नहीं करता। बांग्लादेश के निर्माण के लिए स्वयं पाकिस्तान की पूर्वी पाकिस्तान के प्रति उपेक्षापूर्ण नीतियाँ उत्तरदायी थीं। भारत एक शांतिप्रिय देश है। वह शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीतियों में विश्वास करता आया है।

भारत द्वारा सन् 1971 में बांग्लादेश के मामले में हस्तक्षेप अवामी लीग के अध्यक्ष शेख मुजीबुर्रहमान थे तथा सन् 1970 के चुनाव में उनके दल को पूर्वी पाकिस्तान में बड़ी सफलता प्राप्त हुई। चुनाव परिणामों के आधार पर संविधान सभा की बैठक बुलाई जानी चाहिए थी, जिसमें मुजीब के दल को बहुमत प्राप्त था। शेख मुजीब को बन्दी बना लिया गया।

उसके साथ ही अवामी लीग के और नेताओं को भी बन्दी बना लिया गया। पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर जुल्म ढाए तथा बड़ी संख्या में वध किए गए। जनता ने सरकार के खिलाफ आवाज उठाई तथा पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र राज्य बनाने की घोषणा की तथा आन्दोलन चलाया गया। सेना ने अपना दमन चक्र और तेज कर दिया। इस जुल्म से बचने के लिए लाखों व्यक्ति पूर्वी पाकिस्तान को छोड़कर भारत में आ गए।

भारत को इन शरणार्थियों को सँभालना कठिन हो गया। भारत ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के प्रति नैतिक सहानुभूति दिखाई तथा उनकी आर्थिक सहायता भी की। पाकिस्तान ने भारत पर आरोप लगाया कि भारत उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है। पाकिस्तान ने पश्चिमी सीमा पर आक्रमण कर दिया। भारत ने दोनों तरफ पश्चिमी और पूर्वी सीमा के पार पाकिस्तान पर जवाबी हमला किया तथा दस दिन के अन्दर ही पाकिस्तान के 90,000 सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया और बांग्लादेश का उद्भव हुआ।

कुछ राजनीतिज्ञों का मत है कि भारत दक्षिण एशिया क्षेत्र में महाशक्ति की भूमिका का निर्वाह करना चाहता है। वैसे इस क्षेत्र में भारत स्वाभाविक रूप से ही एक महाशक्ति है। परन्तु भारत ने क्षेत्रीय महाशक्ति बनने की आकांक्षा कभी नहीं पाली। भारत ने बांग्लादेश युद्ध के समय भी पाकिस्तान को धूल चटायी पर उसके सैनिकों को ससम्मान रिहा कर दिया।

भारत अमेरिका जैसी महाशक्ति बनना नहीं चाहता जिसने छोटे - छोटे देशों को अपने गुट में सम्मिलित करने के प्रयास किए तथा अपने सैन्य संगठन बनाए। यदि भारत महाशक्ति की भूमिका का निर्वाह करना चाहता तो 1965 में पाकिस्तान के विजित क्षेत्रों को वापस न करता तथा सन् 1971 के युद्ध में प्राप्त किए गए क्षेत्रों पर भी अपना दावा बनाए रखता। भारत बलपूर्वक किसी देश पर अपनी बात थोपने की विचारधारा नहीं रखता।

प्रश्न 9. किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह उस राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है? भारत की विदेश नीति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।

उत्तर: किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व उस राष्ट्र की विदेश नीति पर बहुत अधिक असर डालता है। भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश का राजनीतिक नेतृत्व पं. जवाहरलाल नेहरू के हाथ में था। जवाहरलाल नेहरू स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने। पं. नेहरू ने न केवल भारत के स्वाधीनता आंदोलन में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्

राष्ट्रीय एजेण्डा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई। वे प्रधानमंत्री के साथ - साथ विदेश मन्त्री भी थे। प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री के रूप में सन् 1947 से 1964 ई. के मध्य उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना और क्रियान्वयन पर गहरा प्रभाव डाला। स्वयं नेहरू जी के शब्दों में, “आजादी किन चीजों से बनती है? आजादी बुनियादी तौर पर विदेश संबंधों से ही बनी होती है।" नेहरू के बारे में भारत ने एशिया व अफ्रीका के नवस्वतन्त्र देशों के साथ सम्पर्क बनाये। शांतिपूर्ण सह - अस्तित्व के पाँच सिद्धान्तों यानी पंचशील की घोषणा नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल 1954 में की।

नेहरू की विदेश नीति में तीन बड़े उद्देश्य थे: कठिन संघर्ष से प्राप्त संप्रभुता को बचाए रखना, क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखना तथा तीव्र गति से आर्थिक विकास करना। नेहरू जी इन उद्देश्यों को गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर प्राप्त करना चाहते थे। नेहरू जी की विदेश नीति के समस्त राजनीतिक दल समर्थक थे। हमारे देश की विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य राष्ट्रीय हित एवं विश्व की समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण तथा विश्व की शांति व सहअस्तित्व था।

पंचशील के सिद्धान्त हमारी विदेश नीति के मूलाधार थे। भारत की विदेश नीति जातिवाद व रंग-भेद की विरोधी थी। भारत पड़ोसी देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखना चाहता था। भारत अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शांतिपूर्ण समाधान चाहता था। नेहरू जी इन सब बातों के समर्थक थे। नेहरू जी के राजनीतिक नेतृत्व का देश की विदेश नीति पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

गुटनिरपेक्षता का व्यापक अर्थ है-अपने को किसी भी सैन्य गुट में शामिल नहीं करना इसका अर्थ होता है चीजों को यथासंभव सैन्य दृष्टिकोण से न देखना और इसकी कभी जरूरत आन पड़े तब भी किसी सैन्य गुट के नज़रिए को अपनाने की जगह स्वतंत्र रूप से स्थिति पर विचार करना तथा सभी देशों के साथ दोस्ताना रिश्ते कायम करना ........

(अ) नेहरू सैन्य गटों से दूरी क्यों बनाना चाहते थे ?

(ब) क्या आप मानते हैं कि भारत सोवियत मैत्री की संधि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों का उल्लंघन हुआ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।

(स) अगर सैन्य-गुट न होते तो क्या गुटनिरपेक्षता की नीति बेमानी होती ?

उत्तर:

(अ) नेहरूजी सैन्य गुटों से दूरी निम्नांकित कारणों से बनाना चाहते थे।

1. वह देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करना चाहते थे।

2. वह नव स्वतंत्र देशों को गुटनिरपेक्षता की नीति के माध्यम से यह समझाने का प्रयास करना चाहते थे कि किसी सैन्य गठबंधन की सदस्यता लेने पर उनकी स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।

3. वे नियोजन, सहकारी कृषि, भूमि सुधार, चकबंदी, जमींदारी उन्मूलन आदि वामपंथी कार्यक्रम लागू करके सोवियत संघ तथा अन्य साम्यवादी देशों में भारत की छवि को निखारना चाहते थे।

(ब) अगस्त 1971 में भारत ने सोवियत संघ के साथ मित्रता तथा सहयोग की संधि की जो किसी प्रकार का सैन्य समझौता नहीं था। इस प्रकार के सहयोग के समझौते तो भारत व अमेरिका के बीच भी थे। इस प्रकार सोवियत संघ के साथ यह समझौता गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं करता। यह समझौता समय की कसौटी पर खरा उतरा। दिसम्बर 1971 में जब भारत तथा पाकिस्तान के मध्य युद्ध हुआ तो पाकिस्तान की सहायता के लिए अमेरिका ने अपना सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजा तो भारत की ओर से सोवियत संघ ने इसका जवाब दिया। इस कारण अमेरिका के बेड़े को वापस जाना पड़ा।

(स) यदि सोवियत संघ व अमेरिका के सैन्य गुट न होते तो संभव था कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का वर्तमान स्वरूप न होता। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो गुटों में बँट गया था। एक साम्यवादी गुट जिसका नेतृत्व सोवियत संघ कर रहा था तथा दूसरा गुट पूँजीवादी गुट था जिसका नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका कर रहा था। इस संदर्भ में भी गुटनिरपेक्षता का सिद्धान्त प्रासंगिक है। गुटनिरपेक्षता का उद्देश्य भी यही है कि उचित शर्तों के आधार पर किसी से आर्थिक सहयोग प्राप्त किया जाये।

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