सामान्य ज्ञान इतिहास-प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन

सामान्य ज्ञान इतिहास-प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन
सामान्य ज्ञान इतिहास-वैदिक काल

प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन

छठी शताब्दी ई.पू. में उत्तर भारत की मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ, जबकि ठीक इसी समय चीन में कन्फ्यूशियस तथा लाओत्से ईरान में जरथ्रुष्ट और यूनान में पाइथागोरस धार्मिक आंदोलन भी चल रहा था जो पुरातन मान्यताओं को चुनौती दे रहा था।

भारत में ई.पू. छठी शताब्दी में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों में से आगे चलकर केवल बौद्ध एवं जैन धर्म ही अधिक प्रसिद्ध हुए।

➤ भारत के इन धार्मिक आंदोलनों ने पुरातन वैदिक ब्राह्मण धर्म के अनेक दोषों पर प्रहार किया। इसलिए इसे सुधारवादी आंदोलन कहा गया है।

➤ इस काल में धार्मिक अनुष्ठानों में पेचीदगियों के कारण ब्राह्मणों का आधिपत्य स्थापित होने लगा जो दूसरे वर्णों, विशेषकर क्षत्रियों को पसंद नहीं आया। एक बात स्मरणीय है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों क्षत्रियों द्वारा ही शुरू किये गये।

बौद्ध धर्म : महात्मा बुद्ध और बौद्ध धर्म

➤ महात्मा बुद्ध का जन्म 583 ई.पू. में नेपाल की तराई में स्थित कपिलवस्तु के समीप लुम्बनी ग्राम में शाक्य क्षत्रिय कुल में हुआ था।

➤ महात्मा बुद्ध का मूल नाम सिद्धार्थ था। इनके अन्य नाम तथागत, गौतम, बुद्ध तथा शाक्यमुनि थे।

➤ इनके पिता का नाम शुद्धोधन तथा माता का नाम महामाया था।

➤ इनके जन्म के सातवें दिन ही इनकी माता महामाया की मृत्यु हो गयी थी, अत: इनका पालन-पोषण इनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया था।

➤ 16 वर्ष की आयु में इनका विवाह यशोधरा नामक राजकुमारी से हुआ। 28 वर्ष की आयु में इन्हें पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इनके पुत्र का नाम राहुल था।

➤ महात्मा बुद्ध के जीवन के चार दृश्यों - बूढ़ा, रोगी, अर्थी एवं संन्यासी ने उन्हें आध्यात्म की ओर प्रवृत्त किया।

➤ 29 वर्ष की आयु में इन्होंने सत्य की खोज के लिए गृह-त्याग कर दिया।

➤ गृह-त्याग के पश्चात्‌ इन्होंने गुरु आलार कलाम से उपनिषदीय शिक्षा ग्रहण की।

➤ 35वें वर्ष में गया में निरंजना नदी के किनारे उरूवेला में अश्वत्थ वृक्ष (पीपल) के नीचे वैशाख पूर्णिमा की रात्रि में समाधिस्थ अवस्था में इनको ज्ञान प्राप्त हुआ।

➤ ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने तपस्यु और मिल्लक नामक दो बंजारों को सर्वप्रथम दीक्षा दी।

➤ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश (प्रवचन) सारनाथ में दिया। इनके प्रथम उपदेश को बौद्ध ग्रन्थों में धर्म-चक्र-प्रवर्तन की संज्ञा दी गयी है।

➤ 483 ई.पू. में 80 वर्ष की आयु में महात्मा बुद्ध का देहान्त कुशीनगर में हुआ। इनके देहांत को बौद्ध ग्रन्थों में महापरिनिर्वाण कहा गया है।

बौद्ध महासंगीतियाँ

संगीति

समय

  स्थान

 शासक

अध्यक्ष

प्रथम बौद्ध संगीति

483 ई.पू.

सप्तपर्णि गुफा, राजगृह (बिहार)

अजातशत्रु

महाकस्सप

द्वितीय बौद्ध संगीति

383 ई.पू.

चुल्लबग्ग (वैशाली बिहार)

कालाशोक

साबकमीर

तृतीय बौद्ध संगीति

250 ई.पू.

पाटलिपुत्र (मगध की राजधानी)

अशोक

मोग्गलिपुत्र तिस्स

चतुर्थ बौद्ध संगीति

72 ई.पू.

कुंडलवन (कश्मीर)

कनिष्क

वसुमित्र

नोट : चतुर्थ बौद्ध संगीति में बौद्धधर्म हीनयान और महायान में बँट गया।

बुद्ध के उपदेश

➤ बुद्ध ने सांसारिक दु:खों के सम्बन्ध में चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया। ये आर्य सत्य हैं- 1. दु:ख, 2. दु:ख समुदाय, 3. दु:ख निरोध, और 4. दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपद्या।

➤ सांसारिक दु:खों से मुक्ति हेतु बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग की बात कही

अष्टांगिक मार्ग

सम्यक्‌ दृष्टि

सत्य और असत्य को पहचानने की शक्ति

सम्यक्‌ संकल्प

इच्छा एवं हिंसा रहित संकल्प

सम्यक्‌ वाणी

सत्य एवं मृदु वाणी

सम्यक्‌ कर्म

सत्कर्म, दान, दया, सदाचार, अहिंसा आदि

सम्यक्‌ आजीव

जीवनयापन का सदाचारपूर्ण एवं उचित मार्ग

सम्यक्‌ व्यायाम

विवेकपूर्ण प्रयत्न

सम्यक्‌ स्मृति

अपने कर्मों के प्रति विवेकपूर्ण ढंग से सहज रहना

सम्यक्‌ समाधि

चित्त की एकाग्रता

बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं- बुद्ध, संघ और धम्म।             

बुद्ध द्वारा स्थापित संघ की सभा में प्रस्ताव पाठ को अनुसावन कहते थे। संघ में प्रवेश पाने को उपसम्पदा कहा जाता था।

बौद्ध धर्म ग्रन्थ

आरम्भिक बौद्ध ग्र्रन्थ पालि भाषा में लिखे गये।

अंगुत्तर निकाय में छठी शताब्दी .पू. के 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।

खुद्‌दक निकाय में जातक कथाओं का वर्णन किया गया है। जातक कथाएँ बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएँ हैं।

बौद्ध ग्रन्थों में बौद्ध संगीति त्रिपिटक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। त्रिपिटक में शामिल बौद्ध ग्रन्थ निम्नवत्‌ हैं-

1. विनय पिटक- इसमें संघ सम्बन्धी नियमों, दैनिक आचार-विचार विधि निषेधों का संग्रह है।

2. सुत्तपिटक- इसमें बौद्ध धर्म के सिद्धान्त उपेदशों का संग्रह है।

3. अभिधम्मपिटक- यह प्रश्नोत्तर क्रम में है। इसमें दार्शनिक सिद्धान्तों का संगह है।

पालिभाषा में कुछ महाकाव्यों की रचना हुई। इन महाकाव्यों में दीपवंश और महावंश सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इनमें सिंहलद्वीप (श्रीलंका) का उल्लेख मिलता है।

महात्मा बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध प्रमुख घटनाएँ

घटना

घटनाओं का नामकरण

गृह त्याग की घटना

महाभिनिष्क्रमण

ज्ञान प्राप्ति की घटना

सम्बोधि

प्रथम उपदेश देने की घटना

धर्म-चक्र-प्रवर्तन

देहांत

महापरिनिर्वाण

महात्मा बुद्ध के उपदेशों के मूल तत्त्व

➤ उन्होंने अपने उपदेशों में कर्म के सिद्धान्त पर बहुत बल दिया है। उनके अनुसार वर्तमान के निर्णय भूतकाल के कार्य करते हैं बुद्ध के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता है। उनका कहना था कि अपने पूर्व कर्मों का फल भोगने के लिए मानव को बार-बार जन्म लेना पड़ता है।

➤ बुद्ध ने कहा कि निर्वाण की प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य है। इससे उनका तात्पर्य यह था कि व्यक्ति को असीमित इच्छा, भोग-विलास का परित्याग कर देना चाहिए।

➤ महात्मा बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्त्व को न तो स्वीकार किया और न ही नकारा है।

➤ महात्मा बुद्ध ने वेदों की प्रमाणिकता को स्पष्ट रूप से नकारा है।

➤ महात्मा बुद्ध समाज में उँच-नीच के कट्‌टर विरोधी थे।

जैन धर्म

➤ जैन शब्द जिन शब्द से बना है। जिन का अर्थ है- विजेता अर्थात्‌ जिसने इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है।

➤ जैन धर्म में तीर्थंकर का अर्थ संसार सागर से पार कराने के लिए औरों को मार्ग बताने वाला होता है।

➤ ऋषभदेव को जैन धर्म के संस्थापक, प्रवर्तक एवं पहले तीर्थंकर के रूप में जाना जाता है।

➤ पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें एवं प्रथम ऐतिहासिक तीर्थंकर थे। वे काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन के पुत्र थे।

➤ जैन धर्म को सुनियोजित और सुव्यस्थित कर उसके ज्ञान एवं दर्शन के तत्त्व के वास्तिविक प्रवर्तन का श्रेय पार्श्वनाथ को ही है।

➤ पार्श्वनाथ को 30 वर्ष की आयु में वैराग्य उत्पन्न हुआ, जिस कारण वे गृह त्यागकर संन्यासी हो गये। उन्होंने सम्मेदपर्वत पर कठोर तपस्या कर 84वें दिन कैवल्य की प्राप्ति की।

➤ पार्श्वनाथ के अनुयायिओं को निर्ग्रंथ कहा गया।

➤ पार्श्वनाथ की प्रथम अनुयायी इनकी माता वामा तथा पत्नी प्रभावती थी।

➤ पार्श्वनाथ ने 4 महाव्रतों- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह एवं अस्तेय का प्रतिपादन किया। इनमें से सर्वाधिक महत्त्व इन्होंने अहिंसा पर दिया।

➤ पार्श्वनाथ ने कायाक्लेश एवं तपश्चर्या से ही मोक्ष प्राप्ति की बात कही। इन्होंने भिक्षुकों को श्वेत वस्त्र पहनने का आदेश दिया।

➤ पार्श्वनाथ के प्रमुख समर्थकों में केशि का नाम उल्लेखनीय है।

➤ पार्श्वनाथ का प्रतीक चिह्न ऋजदार सर्प था।

➤ महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर थे। इन्हें जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।

➤ महावीर स्वामी का जन्म 540 ई.पू. में बिहार राज्य के वैशाली जिला स्थित कुंडग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम वर्धमान महावीर था। वे क्षत्रिय वर्ण एवं ज्ञातृक/शातृक कुल में पैदा हुए थे।

➤ महावीर स्वामी क पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक/शातृक कुल के मुखिया अथवा सरदार थे और माता त्रिशाला वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी।

➤ महावीर का विवाह कुण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा से हुआ। कालांतर में एक पुत्री के पिता बने। इनके पुत्री का नाम अनोज्जा प्रियदर्शनी था, जिसकी शादी जामालि नामक एक क्षत्रिय से हुई थी।

➤ महावीर ने 30 वर्ष की आयु में माता-पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से अनुमति लेकर घर को त्याग दिया। घर त्यागने के बाद स्वामी जी संन्यासी (यती) हो गये। महावीर स्वामी 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के शिष्य थे।

➤ 12 वर्ष तक लगातार कठोर तपस्या एवं साधना के बाद 42 वर्ष की अवस्था में महावीर को जुंभिक ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे एक साल के वृक्ष के नीचे कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ।

➤ कैवल्य प्राप्त हो जाने के बाद महावीर स्वामी को केवलिन , जिन (विजेता) , अर्ह (योग्य) एवं निर्ग्रंथ (बंधनरहित) जैसी उपाधियाँ मिली।

➤ ज्ञान प्राप्ति के उपरांत महावीर स्वामी ने चंपा, वैशाली, मिथिला, राजगृह, श्रावस्ती, अंग, कोशल, विदर्भ, मगध आदि स्थानों का भ्रमण कर जैन मत का प्रचार-प्रसार किया।

➤ महावीर ने अपना उपेदश प्राकृत (अर्धमागधी) भाषा में दिया।

➤ महावीर के प्रथम अनुयायी उनके दामाद (प्रियदर्शनी के पति) जामालि थे।

➤ प्रथम जैन भिक्षुणी नरेश दधिवाहन की पुत्री चंपा थी।

➤ महावीर ने अपने शिष्यों को 11 गणधरों में विभाजित किया था।

➤ आर्य सुधर्मा अकेला ऐसा गणधर था जो महावीर की मृत्यु के बाद भी जीवित रहा और जो जैन धर्म का प्रथम थेरा या उपदेशक हुआ।

➤ 30 वर्ष तक लगातार जैन मत का प्रचार करने के बाद 72 वर्ष की आयु में 468 ई.पू. राजगृह के समीप स्थित पावा नामक स्थान पर महावीर स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया। मल्लराजा सस्तिपाल के राजप्रसाद में महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ था।

➤ महावीर स्वामी ने 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा दिये गये 4 महाव्रतों में पाँचवाँ व्रत ब्रह्मचर्य को जोड़ा।

➤ महावीर पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करते थे।

➤ त्रिरत्न- जैन धर्म में पूर्व जन्म के कर्मफल को समाप्त करने एवं इस जन्म के कर्मफल से बचने के लिए ‘त्रिरत्नों’ के पालन की बात की गयी है। ये त्रिरत्न हैं-

1. सम्यक्‌ श्रद्धा- सत्य में विश्वास।

2. सम्यक्‌ ज्ञान- शंका विहीन तथा वास्तविक ज्ञान।

3. सम्यक्‌ आचरण- बाह्‌य जगत्‌ के विषयों के प्रति सम दु:ख भाव से उदासीनता ही सम्यक्‌ आचरण है।

➤ जैन धर्म में मोक्ष एवं निर्वाण प्राप्ति के लिए कठिन तपस्या एवं कायाक्लेश की बात की गयी है। कायाक्लेश के अन्तर्गत उपवास के द्वारा शरीर को समाप्त (आत्म-हत्या) करने का विधान है।

➤ पार्श्वनाथ वस्त्र धारण करने के समर्थक थे जबकि महावीर स्वामी वस्त्र त्याग कर पूर्णत: नग्न रहने की बात करते थे।

➤ महावीर स्वामी का प्रतीक चिह्न सिंह है।

➤ जैन धर्म में ज्ञान के पाँच स्रोत अथवा प्रकार का उल्लेख है-

1. मति- इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान।

2. श्रुति- श्रवण द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान।

3. अवधि- दिव्य ज्ञान।

4. मन: पर्याय- अन्य व्यक्तियों के मन-मस्तिष्क को जान लेने वाला ज्ञान।

5. कैवल- निर्ग्रंथों एवं जितेन्द्रियों को प्राप्त होने वाला पूर्ण ज्ञान।

➤ जैन धर्म संसार को छह द्रव्यों- जीव, पुद्‌गल (भौतिक तत्त्व) , धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल से निर्मित मानता है।

➤ जैन धर्म में स्याद्‌वाद जिसे सप्तभंगीय भी कहा जाता है, मूल रूप से ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त (Relative Theory of Knowledge) है। स्यादवाद को अनेकांतवाद या क्षणभंगवाद भी कहा जाता है। ये संख्या में सात होते हैं।

➤ महावीर स्वामी की मृत्यु के लगभग दो सौ वर्ष बाद जैन धर्म दो भागों- श्वेतांबर एवं दिगंबर में विभाजित हो गया।

जैन साहित्य

➤ जैन साहित्य को आगम कहा जाता है, जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र व नंदसिूत्र की गणना की जाती है।

➤ छेदसूत्र में जैन भिक्षुओं के लिए उपयोगी विधि-नियमों का संकलन है। इनका महत्त्व बौद्धों के विनयपिटक जैसा है। 6 छेदसूत्र हैं- निशीथ, महानिशीथ, व्यवहार, आचार दशा, कल्प एवं पंचकल्प।

➤ मूलसूत्र में जैन धर्म के उपदेश, भिक्षुओं के कर्तव्य विहार, जीवन पथ नियम आदि का वर्णन है। 4 मूलसूत्र हैं- उत्तराध्ययन, षडावशयक, दशवैकालिक, पिण्डनिर्युक्ति एवं पाक्षिक सूत्र।

➤ अनुयोग सूत्र एवं नंदिसूत्र जैनियों के स्वतन्त्र ग्रन्थ तथा विश्वकोश हैं। इनमें भिक्षुओं द्वारा व्यवहार की जाने वाली प्राय: सभी बातें लिखी गयी हैं।

प्रमुख जैन तीर्थंकर और उनके प्रतीक चिह्न

जैन तीथकर के नाम एवं क्रम

प्रतीक चिह्न

ऋषभदेव (प्रथम)

साँड

अजितनाथ (द्वितीय)

हाथी

संभव (तृतीय)

घोड़ा

संपार्श्व (सप्तम)

स्वास्तिक

शांति (सोलहवाँ)

हिरण

नामि (इक्किसवें)

नीलकमल

अरिष्टनेमि (बाइसवें)

शंख

पार्श्व (तेइसवें)

सर्प

महावीर (चौबीसवें)

सिंह

नोट: दो जैन तीर्थंकारों ऋषभदेव एंव अरिष्टनेमि के नामों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। अरिष्टनेमि को भगवान कृष्ण का निकट सम्बन्धी माना जाता है।

जैन महासंगीतियाँ

संगीति

समय

स्थान

शासक

अध्यक्ष

प्रथम जैन संगीति

322 से 298 ई.पू.

पाटलिपुत्र

चन्द्रगुप्त मौर्य

स्थूलभद्र

द्वितीय जैन संगीति

512 ई.

बल्लभी (गुजरात)

 

देवर्धिक्षमा श्रमण

नोट- 1. प्रथम संगीति में जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण 12 अंगों का प्रणयन किया गया। जैन धर्म श्वेतांबर एवं दिगंबर नामक दो मतों में विभाजित।

2. द्वितीय संगीति में जैन धर्म ग्रन्थों को अंतिम रूप से संकलित कर लिपि किया गया।

जैन धर्म के अन्य तत्त्व

➤ जैन मतानुयायी कृषि एवं युद्ध के विरोधी थे क्योंकि इससे जीवों की हिंसा होती थी। वाणिज्य- व्यापार को इसलिए महत्त्व दिया जाता था क्योंकि इसमें हिंसा की सम्भावना नहीं रहती थी।

➤ जैन मतावलंबियों ने आम बोल-चाल की भाषा प्राकृत को अपनाया।

➤ जैन धर्म के धार्मिक ग्रन्थ अर्धमागधी भाषा में लिखे गये हैं। बाद में अर्धमागधी से अपभ्रंश का विकास हुआ।

➤ जैन धर्म का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कल्पसूत्र संस्कृत में लिखा गया।

➤ 5वीं सदी में कर्नाटक में बने जैन मठों को बसादि/बसाढ़ी कहा गया।

➤ स्थापत्य कला में जैनियों के महत्त्वपूर्ण योगदान के रूप में हाथीगुंफा मंदिर (ओडिशा) , दिलवाड़ा मंदिर, माउंट आबू (राजस्थान) , गोमतेश्वर प्रतिमा (कर्नाटक) तथा खजुराहो में निर्मित पार्श्वनाथ, आदिनाथ के मंदिर उल्लेखनीय हैं।

➤ जैन धर्म के समर्थक राजाओं में उदयन, बिम्बिसार, अजातुशत्रु, चन्द्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार एवं खारवेल का नाम उल्लेखनीय है।

➤ जैन धर्म के प्रधान केन्द्र के रूप में मथुरा एवं उज्जैन का उल्लेख मिलता है।

➤ जैन मान्यता के अनुसार नारी को भी आध्यात्मिक क्षमता के विकास द्वारा निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार है।

➤ महावीर स्वामी स्त्री के संघ में प्रवेश के समर्थक थे।

जैन एवं बौद्ध धर्म में समानता तथा असमानता

समानता

असामनता

1. दोनों धर्मों में यज्ञीय कर्मकांडों, जाति-पाँत एवं छुआ-छूत का विरोध किया गया है।

1. अहिंसा में दोनों धर्म विश्वास करते थे, पर जैन धर्म इस पर अधिक बल देता था।

2. दोनों ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं।

 2. जैन धर्म में मोक्ष या निर्वाण प्राप्त करना शरीर त्यागने के बाद ही सम्भव था, पर बौद्ध धर्म में निर्वाण प्राप्ति के लिए शरीर त्यागने की आवश्यकता नहीं थी।

3. दोनों ने उपेदश के लिए जनसाधारण की भाषा प्राकृत एवं पाली का प्रयोग किया।

3. जैन धर्म के उपासक ‘कायाक्लेश’ के मार्ग को अपनाकर कठोर व्रत का पालन करते थे जबकि बौद्ध धर्म में मध्यम मार्ग अपनाने की बात कही गयी है।

4. दोनों के प्रवर्त्तक क्षत्रिय कुल के थे।

4. जैन धर्म भारत के बाहर नहीं फैल सका पर बौद्ध धर्म का विश्व के कई देशों में प्रसार हुआ।

 

5. दोनों धर्मों में मूर्तिपूजा का प्रचलन था पर जैन मतावलंबी महावीर की नग्न मूर्ति की पूजा करते थे।

ब्राह्मण धर्म

➤ यह हिन्दू धर्म का प्रारम्भिक रूप था, जो ई.पू. छठी शताब्दी में बौद्ध एवं जैन धर्म जैसे ब्राह्मणेत्तर धर्मों के उदय से पूर्व प्रचलित था।

➤ ब्राह्मण धर्म के प्रणेता ब्राह्मण ही थे। वैदिक काल के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ इनके द्वारा ही रचे गये।

➤ ब्राह्मण धर्म के अन्तर्गत प्रार्थना को महत्त्व देते हुए संन्यास एवं तपश्चर्या का जीवन श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें सत्य का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया जाता था। धर्म से सम्बन्धित अनेक कर्मकांडों के प्रचलन का श्रेय भी ब्राह्मणों को है।

➤ वर्ण व्यवस्था एवं आश्रम व्यवस्था आदि ब्राह्मण धर्म के मुख्य आधार थे।

➤ आगे चलकर सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था वर्णाश्रम धर्म के जटिल नियमों में आ हो गयी। याज्ञिक अनुष्ठान इतने महँगे हो गये कि वे जनसाधारण के लिए सहज नहीं रह गये। फलत: छठी शताब्दी ई.पू. के आते-आते प्रतिक्रियास्वरूप जैन एवं बौद्ध धर्मों का उदय हुआ।

➤ जैन एवं बौद्ध धर्मों के उदय से ब्राह्मणवादी धर्म का कर्मकांडीय पक्ष कुछ समय के लिए बाधित अवश्य हुआ, किन्तु शुंग काल में वह पुनरूज्जीवित हो उठा।

➤ शुंग, सातवाहन एवं आंध्र शासकों ने विभिन्न प्रकार के यज्ञ किये थे।

➤ राजस्थान के चित्तौड़ के पास घोसुंडी से प्राप्त एक लेख में अश्वमेघ यज्ञ कराने का उल्लेख मिलता है।

➤ विभिन्न राजवंशों के राजा वैदिक यज्ञ करवाते रहे। गुप्तवंश के समुद्रगुप्त, वाकाटक वंश के संस्थापक प्रवरसेन, चालुक्य वंश के पुलकेशिन प्रथम एवं द्वितीय आदि ने विभिन्न प्रकार के वैदिक यज्ञ करवाये और विद्वान ब्राह्मणों का सम्मान किया।

भागवत धर्म

➤ भागवत धर्म का प्रारम्भ महाभारत के नारायण उपाख्यान प्रसंग से माना जाता है। इसके प्रारम्भिक सिद्धान्त गीता में मिलते हैं।

➤ महाभारत में भागवत धर्म को दिव्य धर्म का रूप प्रदान किया गया है। इसमें विष्णु को वासुदेव नाम दिया गया है।

➤ भागवत धर्म में विष्णु के तीन अवतारों को माना गया है- 1. पुरुषावतार, 2. गुणावतार और 3. लीलावतार।

वैष्णव धर्म

वैष्णव धर्म का विकास छठी शताब्दी .पू. के लगभग भागवत धर्म से ही हुआ।

वैष्णव धर्म के विषय में प्रारम्भिक जानकारी उपनिषदों से मिलती है।

वैष्णव धर्म के प्रवर्त्तक कृष्ण, वृष्णि कबीले के थे जिनका निवास स्थान मथुरा था।

सर्वप्रथम छांदोग्य उपनिषद्‌ में देवकी पुत्र एवं अंगिरस के शिष्य के रूप में कृष्ण का उल्लेख आया है।

आगे चलकर महाभारत काल/महाकाव्य काल में कृष्ण का उल्लेख विष्णु के रूप में किया जाने लगा जिससे भागवत्‌ धर्म का नाम वैष्णव धर्म में परिवर्तित हो गया।

ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में किया गया है।

आगे चलकर कृष्ण एवं विष्णु का सम्बन्ध नारायण से स्थापित होने पर वैष्णव धर्म का नया नाम पांञ्चरात्र धर्म प्रकाश में आया।

महाभारत के नारायणीय पर्व में विष्णु के 6 तथा 12 अवतारों का वर्णन मिलता है। वैसे विष्णु के अधिकतम अवतारों की संख्या 24 है, पर मत्स्य पुराण में इनके 10 अवतारों का उल्लेख मिलता है।

मत्स्य पुराण में विष्णु के वर्णित 10 अवतार ही सर्वाधिक मान्य हैं।

मत्स्य पुराण में विष्णु के वर्णित 10 अवतार हैं- मत्स्य, कूर्म/कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध एवं कल्कि।

वैष्णव धर्म में ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सर्वाधिक महत्त्व भक्ति को दिया गया है।

‘अवतारवाद’ का सिद्धान्त वैष्णव धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। अवतारवाद का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख भगवद्‌गीता में मिलता है। यह सिद्धान्त गुप्तकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर था।

गुप्तकाल में वैष्णव धर्म अपने चरमोत्कर्ष पर था। वैष्णव धर्म में मंदिर एवं मूर्ति पूजा को विशेष महत्त्व दिया गया है।

प्राचीन भारत के प्रमुख सम्प्रदाय

प्रमुख सम्प्रदाय

मत

आचार्य

वैष्णव सम्प्रदाय

विशिशद्वैत

रामानुज

ब्रह्म सम्प्रदाय

द्वैत

आनंदतीर्थ

रुद्र सम्प्रदाय

शुद्धाद्वैत

विष्णुस्वामी, बल्लभाचार्य

सनक सम्प्रदाय

द्वैताद्वैत

निम्बार्क

शैव धर्म

भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव एवं शिव से सम्बन्धित धर्म को शैव धर्म कहा जाता है।

शिव भक्ति के विषय में प्रारम्भिक जानकारी हमें सिन्धुघाटी से खुदाई के दौरान प्राप्त होती है।

ऋग्वेद में शिव के लिए रूद्र नामक देवता का उल्लेख आया है।

अथर्ववेद में शिव को भव , शर्व , पशुपति , भूपति कहा गया है।

श्वेताश्वतर एवं अथर्वशिरस उपनिषद में भगवान रूद्र की महानता का वर्णन मिलता है।

लिंग पूजा का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्य पुराण में मिलता है।

महाभारत के अनुशासन पर्व से भी लिंग-पूजा का वर्णन मिलता है।

पतंजलि के महाभाष्य (. पू. दूसरी शती) से शिव की मूर्ति बनाकर पूजा करने का विवरण मिलता है।

शिव की प्राचीनतम मूर्ति, गुडीमल्लम लिंग रेनुगुंटा से मिली है।

ऐसे शिवलिंग, जिन पर किसी देवता की मूर्ति उत्कीर्ण नहीं है, मथुरा और उसके आस-पास के प्रदेश में पाये गये हैं।

सर्वप्रथम मूर्तिपूजा के अन्तर्गत गुप्तकाल में ब्रह्मा, विष्णु एव महेश की पूजा का उल्लेख मिलता है।

‘हरिहर’ के रूप में शिव की विष्णु के साथ सर्वप्रथम मूर्तियाँ गुप्त युग में बनायी गयीं।

गुप्त शासकों के अतिरिक्त, शैवमत को बंगाल के शशांक, कन्नौज के पुष्यभूति वंश के शासकों और बल्लभी के मैत्रकों ने भी संरक्षण प्रदान किया।

उत्तर भारत की तरह दक्षिण में भी शैव धर्म विकसित हुआ। मुख्यत: चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव एवं चोलों के समय में यह धर्म उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने किया।

वामन पुराण में शैव सम्प्रदाय की संख्या चार बतायी गयी है- 1. पाशुपत, 2. कापालिक, 3. कालामुख और 4. लिंगायत।

पाशुपत सम्प्रदाय शैवों का सर्वाधिक प्राचीन सम्प्रदाय है। इसका विवरण महाभारत में मिलता है। इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त के तीन अंग हैं- पति (स्वामी) , पशु (आत्मा) , पाश (बंधन)

पाशुपत सम्प्रदाय के संस्थापक नकुलीश या लकुलीश थे, जिन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता था।

पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया। इस मत का प्रमुख सैद्धान्तिक ग्रन्थ पाशुपत सूत्र है।

कापालिक सम्प्रदाय के ईष्टदेव भैरव थे। इस सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र श्रीशैल नामक स्थान था। इस सम्प्रदाय के उपासक क्रोधी स्वभाव के होते हैं।

कालामुख सम्प्रदाय के अनुयायियों को शिव पुराण में महाव्रतधर कहा गया है। इस सम्प्रदाय के लोग नर कपाल में ही भोजन, जल तथा सुरापान करते हैं और साथ ही अपने शरीर पर चिता की भस्म मलते हैं।

लिंगायत सम्प्रदाय दक्षिण में प्रचलित था। इन्हें जंगम भी कहा जाता था। इस सम्प्रदाय के लोग शिवलिंग की उपासन करते थे।

बसव पुराण में लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्त्तक, अल्लभ प्रभु तथा उनके शिष्य बासव को बताया गया है। इस सम्प्रदाय को वीरशैव सम्प्रदाय भी कहा जाता है।

मत्स्येंद्रनाथ ने 10वीं शताब्दी में नाथ सम्प्रदाय की स्थापना की। इस सम्प्रदाय का व्यापक-प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ।

दक्षिण भारत में शैव धर्म चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव एवं चोलों के समय लोकप्रिय था।

पल्लव शासकों के काल में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार नायनारों द्वारा किया गया। नायनार संतों की संख्या 63 बतायी गयी है, जिनमें अप्पार, तिरूज्ञान, सम्बंदर एवं सुन्दरमूर्ति आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

चोल शासक राजराज प्रथम ने तंजौर में प्रसिद्ध राजराजेश्वर शैव मंदिर का निर्माण करवाया, जिसे वृहदीश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

कुषाण शासकों की मुद्राओं पर शिव एवं नंदी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।

अन्य सम्प्रदाय एवं उनके संस्थापक

सम्प्रदाय का नाम

संस्थापक

पुस्तक

बरकारी

नामदेव

-

श्रीवैष्णव

रामानुज

ब्रह्मसूत्र

परमार्थ

रामदास

दासबोध

रामभक्त

रामानंद

अध्यात्म रामायण

इस्लाम धर्म

इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब थे।

हजरत मुहम्मद साहब का जन्म 570 ई० में मक्का में हुआ था।

हजरत मुहम्मद साहब के पिता का नाम अब्दुल्ला और माता का नाम अमीना था।

हजरत मुहम्मद साहब को 610 ई० में मक्का के पास हीरा नामक गुफा में ज्ञान की प्राप्ति हुई।

24 सितम्बर, 622 ई० को पैगम्बर का मक्का से मदीना की यात्रा इस्लाम जगत में मुस्लिम संवत्‌ (हिजरी संवत्‌) के नाम से जाना जाता है।

मुहम्मद की शादी 25 वर्ष की अवस्था में खदीजा नामक विधवा के साथ हुई।

मुहम्मद की पुत्री का नाम फातिमा एवं दामाद का नाम अली हुसैन है।

देवदूत की पुत्री का नाम फातिमा एवं दामाद का नाम अली हुसैन है।

देवदूत जिब्रियल (Gabriel) ने पैगम्बर मुहम्मद साहब को कुरान अरबी भाषा में संप्रेषित की।

कुरान इस्लाम धर्म का पवित्र ग्रन्थ है।

पैगम्बर मुहम्मद साहब ने कुरान की शिक्षाओं का उपदेश दिया।

हजरत मुहम्मद साहब की मृत्यु 8 जून, 632 ई० को हुई। इन्हें मदीना में दफनाया गया।

मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद इस्लाम सुन्नी तथा शिया नामक दो पंथों में विभाजित हो गया।

सुन्नी उन्हें कहते हैं, जो सुन्ना में विश्वास करते हैं। सुन्ना पैगम्बर मुहम्मद साहब के कथनों तथा कार्यों का विवरण है।

शिया अली की शिक्षाओं में विश्वास करते हैं तथा उन्हें मुहमद साहब का न्यायसम्मत उत्तराधिकारी मानते हैं। अली मुहम्मद साहब के दामाद थे।

अली की सन्‌ 661 ई० में हत्या कर दी गयी। अली के पुत्र हुसैन की हत्या 680 ई० में कर्बला (इराक) नामक स्थान पर कर दी गयी। इन दोनों हत्या ने शिया को निश्चित मत का रूप दे दिया।

पैगम्बर मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी ‘खलीफा’ कहलाये।

इस्लाम जगत में खलीफा पद 1924 ई० तक रहा। 1924 ई० में इसे तुर्की के शासक मुस्तफा कमालपाशा ने समाप्त कर दिया।

इब्न ईशाक ने सर्वप्रथम पैगम्बर साहब का जीवन-चरित लिखा।

मुहम्मद साहब पैगम्बर के जन्म-दिन पर ईद- मिलाद-उन-नबी पर्व मनाया जाता है।

भारत में सर्वप्रथम इस्लाम का आगमन अरबों के जरिए हुआ। 712 ई० में अरबों ने सिन्ध जीत लिया और सबसे पहले भारत के इसी भाग में इस्लाम एक महत्त्वपूर्ण धर्म बना। नोट: नमाज के दौरान मुसलमान मक्का की तरफ मुँह करके खड़े होते हैं। भारत में मक्का पश्चिम की ओर पड़ता है। मक्का की ओर की दिशा को किबला कहा जाता है।

ईसाई धर्म

ईसाई धर्म के संस्थापक हैं– ईसा मसीह

ईसाई धर्म का प्रमुख ग्रन्थ है– बाइबिल

ईसा मसीह का जन्म जेरुशेलम के निकट बैथलेहम नामक स्थान पर हुआ था।

ईसा के जन्म-दिवस को क्रिसमस के रूप में मनाया जाता है।

ईसा मसीह के माता का नाम ‘मेरी’ और पिता का नाम ‘जोसफ’ है।

ईसा ने अपने जीवन के प्रथम 30 वर्ष एक बढ़ई के रूप में बैथलेहम के निकट नाजरेथ में बिताये।

ईसा मसीह के प्रथम दो शिष्य थे– एंड्रसू एवं पीटर

ईसा मसीह को सूली पर रोमन गवर्नर पोंटियस ने चढ़ाया।

ईसा मसीह को 33 ई० में सूली पर चढ़ाया गया।

ईसाई धर्म का सबसे पवित्र चिह्न क्रॉस है।

ईसाई त्रित्व में विश्वास रखते हैं, वे हैं–ईश्वर-पिता, ईश्वर-पुत्र (ईसा), ईश्वर -पवित्र आत्मा।

पारसी धर्म

पारसी धर्म के पैगम्बर जरथुस्ट्र (ईरानी) थे, इनके शिक्षाओं का संकलन जेन्दा अवेस्ता नामक ग्रन्थ में है, जो पारसियों का धार्मिक ग्रन्थ है। इनकी मूल शिक्षा का सूत्र है: सद्‌-विचार, सद्‌-वचन तथा सद्‌-कार्य। इसके अनुयायी एक ईश्वर ‘अहुर’ को मानते हैं। इस धर्म के अनुयाइयों को ‘अग्नि-पूजक’ भी कहा जाता है। नोट: 12वीं शताब्दी से फ्रांस में आरंभिक भवनों की तुलना में अधिक उँचे व हल्के चर्चों के निर्माण प्रारंभ हुए। वास्तुकला की यह शैली गोथिक के नाम से जानी जाती है। इस वास्तुकलात्मक शैली के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में एक पेरिस का न नाट्रेडम चर्च है।

Post a Comment

Hello Friends Please Post Kesi Lagi Jarur Bataye or Share Jurur Kare