प्रश्न :- प्रो अमर्त्य सेन के आर्थिक विचारों की विवेचना कीजिए
→ अमर्त्य सेन के अकाल, विषमता एवं आर्थिक कल्याण पर दिए गए आर्थिक
विचारों को स्पष्ट वर्णन करे?
उत्तर:-
अमर्त्य सेन का जन्म 3 नवम्बर
1933 को शांतिनिकेतन में हुआ था। इनकी शिक्षा दीक्षा शांतिनिकेतन, कलकत्ता प्रेसीडेन्सी कॉलेज और ऑक्सफोर्ड के
ट्रिनिटी कॉलेज में हुई । 23 वर्ष के उम्र में ही वे
जादवपुर विश्वविद्यालय, कलकत्ता में प्रोफेसर बन गए । वर्ष 1959 में उन्होंने
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी.एच.डी
की उपाधि प्राप्त की।
इसके उपरान्त वे देश-विदेश के भिन्न प्राख्यात संस्थाओं में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके है जिनमें प्रमुख है - दिल्ली स्कूल
ऑफ इकोनोमिस, लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिस, ऑक्सफोर्ड यूनिर्वसीटि तथा हार्वर्ड यूनिर्वसीटि 1
वर्ष 1996 में अमर्त्य सेन अमेरिका इकोनोमिस एसोसिऐशन के पहले गैर अमेरिकी
अध्यक्ष बने । जनवरी
1998 में उन्हें कैम्ब्रिज यूनिर्वसीटि
के ट्रिनिटी के मास्टर
के पद पर नियुक्त कर सम्मानित किया गया। उल्लेखनीय है कि मास्टर के पद पर वहाँ
इससे पहले कभी भी किसी अस्वेत
अथवा
गैर अंग्रेज की नियुक्ति नहीं हुई थी।
विश्वभर
के 40 से अधिक विश्वविद्यालय उन्हे 'मानद डॉक्ट्रेट'
की उपाधि से
अलंकृत कर चुके है। 14 अक्टूबर 1998 की प्रो. अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नोबेल
पुरस्कार से सम्मानित छठे भारतीय और अर्थशास्त्र के लिए पुरस्कृत किए जानेवाले पहले एशियाई है। भारत सरकार
ने 1999 में उन्हे नागरिक सम्मान (भारत
रत्न) से अलंकृत किया।
रचनाएँ
प्रो. अमर्त्य सेन ने अनेक
पुस्तकों एवं लेखों की रचनाएं
की है। इसकी रचनाएं निम्नलिखित है -
(1)
आर्थिक विषमताएँ
(2)
गरीबी और अकाल
(3)
भारत का विकासः कुछ प्रादेशिक अध्ययन तथा
(4)
भारत विकास की दिशाएँ इत्यादि
इन
पुस्तकों को उन्होंने अर्थशास्त्र के अनेक आयामों पर प्रकाश डाला है। कल्याण अर्थशास्त्र में उनकी रचनाएँ
बहुत जानी-
मानी जाती है।
अमर्त्य सेन के आर्थिक विकास
अकाल
विषयक विचार:- प्रो अमर्त्य सेन
ने अपनी पहली प्रमुख कृति 'कलेक्टिव च्वाइस एण्ड सोशल वेलफेयर (1970) के
प्रकाशन के पश्चात ही वे छात्रों, शिक्षकों और विशेष रूप से सरकारी नीति निर्धारको
के लिए एक आदर्श बन गए। वर्ष 1981 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'गरीबी और अकाल' में यह विस्तार
से बताया गया है कि अकाल अनाज की कमी से अधिक गलत वितरण प्रणाली का नतीजा है।
उन्होंने खाद्य उपलब्धता अपकर्ष (FAD) सिद्धांत दिया। इसमें इन्होंने बताया कि भोजन की कीमत में वृद्धि होने के कारण निर्धन लोगों के लिए भोजन या खाद्य पदार्थों की उपलब्धता में कमी होती है। बाढ़ या सूखे जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के कारण कुल उत्पादन - मान लें चावल का उत्पादन किसी क्षेत्र में बहुत ही कम हो जाता है। तब कमी होती है। कुल उत्पादन- मान ले चावल का उत्पादन किसी क्षेत्र भेवहुत ही कम हो जाता है। तब चावल की कीमत बहुत अधिक होने से गरीब व्यक्ति चावल नहीं खरीद सकते है। एक समय था जब यातायात के साधनों का अभाव के कारण क्षेत्रिय अभाव की ऐसी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती थी जिनके कारण अतिरिक्त अनाज वाले क्षेत्रों से अभावग्रस्त क्षेत्रों में अनाज नहीं पहुंचाया जा सकता था। इससे लोगों को भूख के कारण मृत्यु का सामना करना पड़ता था तथा ऐसे स्थिती में अकाल की स्थिती उत्पन्न हो जाती थी। चित्र से -
उपर्युक्त चित्र में A, B और C में तीनों
परिवारों A, B, C के माँग वक्र चित्र D में
बाजार माँग वक्र दिखाएं गए है। 'A' गरीब परिवार है, B परिवार C से
गरीब है और C धनी परिवार है । P0
कीमत पर तीनों परिवार अनाज को खरीदने में समर्थ है। जब कीमत बढ़कर OP1 हो जाती है तब A परिवार बाजार से हट जाता है जबकि B और C परिवार अब भी
अनाज को खरीदने योग्य है। OP2 कीमत पर A तथा B दोनों परिवार अनाज खरीदने के आयोग्य है
अतः उन्हे भुखमरी का सामना करना पड़ता है। बाजार मांग वक्र से यह स्पष्ट होता है की बाजार कीमत के बढ़ने से अनाज की उपलब्धि कम होती जाती है यही प्रो. सेन का 'खाद्य उपलब्धता अपकर्ष' सिद्धांत है।
आय और क्रयशक्ति का विषमता पूर्वक विस्तार
:- युद्धकाल के केवल सैन्य क्षेत्र में जुड़े प्रकल्पों पर व्यय में वृद्धि नहीं होती
वरन् इस समय सेना द्वारा व्यय में बढ़ोत्तरी हो जाती है। इसकारण से अन्य की अपेक्षा कुछ विशेष व्यवसायों एवं
पेशों में लगे लोगो को अधिक लाभ होता है। इन व्यवसायों में सम्मिलित है -सैन्य और नागरीक सुरक्षा निर्माण तथा सेनाओं
के लिए सामग्री जुटाने वाले औद्योगिक एवं व्यवसायिक प्रतिष्ठान ।
इनके प्रभावस्वरुप भी ग्रामीण क्षेत्र
में भूख के साम्राज्य को अपने पैर जमाने को अवसर मिला। बंगाल में अकाल इसका प्रमुख
उदाहरण है।
सट्टेबाजी :- चावल के दामों में सामान्य
किंतु व्यापक वृद्धि से किसानों और व्यापारियों को
सट्टेबाज बना दिया। वे सोचने लगे की अभी तो किमते और बढ़ेंगी अतः उनमें से अनेक चावल की जमाखोरी में
जुट गए इसके कारण बाजार में कृत्रिम रूप से आपूर्ति का अभाव उत्पन्न हो गया। इसने भी
चावल की कीमतों में वृद्धि कर समाज के गरीब वर्गों को अनाभाव की दिशा में डकेल दिया। ध्यान देने योग्य बात यही
है की प्रांत में चावल की कुल उत्पादन तथा आपूर्ति
में कमी नहीं आई थी किंतु उस कुल पूर्ति का एक बड़ा हिस्सा बाजार तक नहीं पहुँच रहा था। स्पष्ट है की जमाखोरी निश्चित रूप से बाजार
मे चावल की कीमत बढ़ा देती है।
अनाज के अंतर्राष्ट्रीय निर्यात पर
रोक :- क्या उन स्फीतिकारी सट्टेबाजी के शक्तियों का प्रतिकार करने के लिए अन्य प्रान्तों से बंगाल में खाद्यान्न भेजे नहीं जा सकते थे? दुर्भाग्य वंश
1942 में एक राज्य से दूसरे राज्य को अनाज
भेजने पर प्रतिबंध लगा हुआ था। इसका कारण यहीं था की प्रत्येक राज्य की सरकार अपने
प्रांत की खाद्यान्न की आपूर्ति स्थिती को ठीक बनाए रखने के प्रति अधिक चिन्तित थी।
वर्ष 1943 के मध्य तक अनाज का अन्तर्राष्ट्रीय अवागमन खुल गया था। किंतु तब तक बहुत
देर हो चुकी थी। ये प्रो. सेन द्वारा प्रस्तुत प्रमुख तर्क है। भले ही इनमें से कोई
भी कारक अकेले अपने दम पर कीमत को इतना नहीं बढ़ा पाता की (उस क्षेत्र का) विशाल जनसमुदाय का गंभीर
वंचना का शिकार हो, अनाज खरीद पाने में असमर्थ हो जाता।
किन्तु उसका सम्मिलित प्रभाव निश्चित रूप से बहुत विनाशक रहा। कुल मिलाकर प्रो.
सेन का तर्क रहा है की बंगाल में कुल खाद्यान्न उपलब्धता में भारी गिरावट के कारण
अकाल नहीं पड़ा, वहाँ तो क्रयशक्ति के विषमता पूर्वक बंटवारे ने अकाल की सृष्टि कर
दी थी।
उल्लेखनीय है कि प्रो. अमर्त्य सेन
ने अपनी इस धारणा को केवल बंगाल के अकाल पर सिद्ध नहीं माना बल्कि इथोपिया में
1973 तथा बंग्लादेश में 1974 के अकाल की व्याख्या भी इसी सिद्धांत के आधार पर की
है।
अदृश्य बेरोजगारी :- अल्प विकसीत
देशों में कृषि में प्रायः आवश्यकता से अधिक
श्रमशक्ति लगी होती है जो अदृश्य बेरोजगारी को जन्म देती है। नर्क्स ने इस संदर्भ
में मत व्यक्त किया 'तकनीकि रूप से अदृश्य बेरोजगारी
से अभिप्राय श्रम की सीमांत उत्पादकता का शून्य होना है'।
प्रो अमर्त्य सेन नर्क्स की धारणा पर अपनी असहमती व्यक्त करते हुए मत व्यक्त करते है कि यदि श्रम की उत्पादकता शून्य है तो श्रम को कार्य पर लगाना ही नही चाहिए। सेन का कथन है कि "सत्य यह नहीं है की उत्पादन प्रक्रिया में अत्याधिक श्रम खर्च हो रहा है बल्कि उसे बहुत ज्यादा मजदूरों द्वारा खर्च किया जा रहा है। इस दृष्टि से प्रति व्यक्ति कार्यकारी घंटो के कम होने की स्थिती को अदृश्य बेरोजगारी की स्थिती कहा जायेगा । अदृश्य बेरोजगारी का संबंध मजदूर की व्यक्तिगत सीमांत उत्पादकता से नहीं बल्कि प्रति मजदूर प्रति दिन काम के घंटो से होता है।"
चित्र में Y कुल उत्पादन वक्र है जो E बिन्दु पर उस
समय क्षैतिज हो जाता है जब श्रम की OL मात्रा का प्रयोग किया जाता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि OL श्रम घंटों पर श्रम की सीमांत उत्पादकता O है और
इससे अधिक श्रमिकों को नियुक्त करने से कोई लाभ नहीं है। कृषि कार्य में संलग्न
मजदूरों की संख्या OP2 है और इस स्थिती में प्रत्येक मजदूर α घंटे काम करता है
जबकि प्रति श्रमिक समान कार्यकारी घंटे β के बराबर है। इस प्रकार यह उत्पादन कार्य
सामान्य घंटे काम करते OP1 मजदूरों द्वारा पूरा किया जा सकता है। इस दृष्टि में P1P2 जनसंख्या अतिरिक्त है अर्थात् अदृश्य रूप से बेरोजगार है।
इस तरह स्पष्ट है कि L बिन्दु पर श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य है और P1P2
क्षेत्र के बीच की अनावश्यक श्रम शक्ति की सीमांत उत्पादकता कुछ नहीं है।
आर्थिक एवं सामाजिक विषमताएँ तथा कल्याण :- प्रो. अमर्त्य
सेन ने अपनी पुस्तक 'भारत : विकास की दिशाएँ' में भारत के
आर्थिक विकास के कार्यों को अधिक व्यापक रूप से प्रस्तुत किया है साथ ही साथ
आर्थिक विकास में आने वाले बाधाओं की ओर स्पष्ट संकेत किया है। ये समस्याएँ
अपर्याप्त बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ, सम्पत्ति एवं भूमि आंवटन की खराब
व्यवस्था, सामाजिक वर्गीकरण में गड़बडी तथा व्यापक लिंग भेद से उत्पन्न होती है।
अपने ग्रंथ में प्रो. सेन ने सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक प्रचार में प्राथमिक
शिक्षा के महत्त्व और नारी के बेहतर भूमिका को विशेष रूप इंगित किया है। उन्होंने
कहा कि मानवीय योग्यता के प्रसार को विकास की प्रक्रिया का एक केन्द्रिय लक्षण
माना जाना चाहिए। आर्थिक समृद्धि निश्चित रूप से मानवीय क्षमताओं को बढ़ा देती है
फिर भी यहाँ दो बातों का ध्यान देना आवश्यक है-
(1) मानवीय क्षमता का संवर्द्धन पर आर्थिक संवृद्धि के
अतिरिक्त और अनेक कारणों के भी प्रभाव पड़ते हैं।
(2) संवृद्धि के योग्यता संवर्द्धन पर प्रभाव स्वयं अनेक
बातों द्वारा निर्धारित होगे जैसे कि आर्थिक संवृद्धि के प्राप्ति से रोजगार के
सृजन में बहुत वृद्धि हुई है?
सरकार, राज्य व्यवस्था और बाजार व्यवस्था के संबंध में अपना मत
व्यक्त करते हुए अमर्त्य सेन कहते है कि बाजार व्यवस्था एवं सरकारी गतिविधियो
द्वारा अर्थव्यवस्था के संचालन के सापेक्षित गुण दोषों पर समय- समय पर चर्चा होती
रहती किंतु दोनों ही प्रकार की निर्णय पद्धतियाँ एक दूसरे पर निर्भर है। राजकीय
हस्तक्षेप के बिना अर्थतंत्र का सुचारु रुप से कार्य कर पाना संभव नहीं रहता। वे
पुनः कहते है कि बाजार एवं सरकार के गुण-दोषों की तुलना करते समय हमें यह नही
भुलना चाहिए की ये दोनों परस्पर बहुत ही गहन रूप से बंधे होते है।
विषमताएँ और सामाजिक सुरक्षा :- प्रो सेन का कथन है कि 'आर्थिक विषमता के
उच्च स्तर के कारण समाज की बहुमूल्य क्षमताओं के संवर्द्धन की योग्यता प्रभावित
होती है। विषमता सामाजिक तनाव का कारण बन सकती है। प्रो. अमर्त्य सेन की धारणा है
की आय एवं व्यय ही नही स्वास्थ्य, उपलब्धियां, साक्षरता
स्तर, आत्मसम्मान जैसे अनेक कारण मिलकर हमारे कल्याण की अनुभूति करते हैं।
निष्कर्ष
अमर्त्य सेन का विचार है कि शिक्षा, सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक विषमताओं की समाप्ति, उत्प्रेरक का कार्य करती है। इस सन्दर्भ में सरकार को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इस तरह दुनिया भर में गरीबी और मानव विकास पर कार्य कर रहे अर्थशास्त्रियों को प्रो. सेन एक नई दिशा प्रदान की है।
भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMICS)
व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)
समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)
अंतरराष्ट्रीय व्यापार (International Trade)