जनसंख्या और आर्थिक विकास (Population and Economic Development)

जनसंख्या और आर्थिक विकास (Population and Economic Development)

जनसंख्या और आर्थिक विकास (Population and Economic Development)

प्रश्न:- भारत के आर्थिक विकास में तीव्र जनसंख्या वृद्धि एक महत्वपूर्ण बाधा है, इस कथन की समीक्षा करें?

उत्तर - उत्पादन का महत्वपूर्ण साधन होने के कारण किसी देश की आर्थिक एवं सामाजिक विकास में वहां कि जनसंख्या का सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है, लेकिन अर्द्धविकसित देशो के दुर्भाग्य की बात यह है कि मानवीय शक्ति वरदान बनने की अपेक्षा अभिशाप बन गई।

किसी देश के आर्थिक विकास के प्राकृतिक साधनों के अपेक्षा मानवीय संसाधनो का तात्पर्य किसी देश की जनशक्ति की गुणवत्ता की, इसकी शिक्षा कुशलता दूरदर्शिता एवं उत्पादकता होता है।

प्रो० एडम स्मिथ के शब्दो में "प्रत्येक देश में मानवीय श्रम वह को है, जो जीवन के समस्त आवश्यकताओं एवं सुविधाओं की पूर्ति करता है।"

विश्व में जनसंख्या की दृष्टि से भारत का स्थान दूसरा है, पहला स्थान चीन का है। विश्व की संपूर्ण जनसंख्या का लगभग 16% लोग भारत में निवास करते है. 1981 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 68.5 करोड़ थी, जो 1991 में बढ़कर 84.63 करोड़ हो गई। अभी भारत की जनसंख्या 1 अरब को पार कर गई।

"World Bank Population Projection" 1994-95 शीर्षक, प्राकृतिक रिपोर्ट के अनुसार एशियाई देशों में भारत की आबादी 140 करोड़ होगी ।

प्रो. सिंगर का मत है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास की दर पर ऋणात्मक प्रभाव डालती हैं। उन्होंने आर्थिक विकास की दर बढ़ती र, विनियोग की उत्पादकता और जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच के सम्बंध को व्यक्त करने के लिए निम्न समीकरण दिए गए है।

D = SP - r

where.

D = आर्थिक विकास की दर

S = शुद्ध बचतों की दर

P = नई विनियोग की उत्पादकता

r = जनसंख्या वृद्धि की दर

इरा समीकरण में r एक ऋणात्मक तत्व के रूप मे है, जो इस बात का प्रमाण है, कि जनसंख्या आर्थिक विकास मे बाधक होती है। तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या आर्थिक विकास के मार्ग में निम्नलिखित कारणों से बाधक होती है -

1. जनसंख्या एवं राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर :- जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि के कारण राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि र धीमी हो जाती हैं। 1991 मे भारत की जनसंख्या लगभग 85 करोड़ हो गई, बढ़ती हुई जनसंख्या देश के विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।

भारत की जनसंख्या वृद्धि दर को निम्नलिखित सारणी द्वारा स्पष्ट कर सकते है।

वर्ष

जनसंख्या वृद्धि दर

1971-81

2.46%

1981-91

2.38%

1991-2001

102.8%

 

1980-90 के बीच प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि की दर 33% रही है।

2. पूँजी निर्माण की धीमी गति - जनसंख्या में वृद्धि के कारण पूँजी के निर्माण की गति धीमी हो जाती है। क्योंकि राष्ट्रीय आय का अधिकांश भाग उपभोग कर लिया जाता है। प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय के वर्तमान स्तर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय आय में उसी दर से वृद्धि हो जो दर से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। भारत मे जनसंख्या की वृद्धि दर लगभग 2.3% वार्षिक है। अतः प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय की वर्तमान स्तर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि 2.3% वार्षिक हो। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पूँजी विनियोग आवश्यक हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में पूँजी उत्पाद अनुपात लगभग 5.5 आंका गया है। अतः राष्ट्रीय आय में 2.3% की दर से वृद्धि के लिए विनियोग में वृद्धि 5.5 X 2.3 = 12.65% होना आवश्यक है। तब भारतीय लोगों का जीवन स्तर प्रारम्भिक स्तर पर बना रहेगा।

जीवन स्तर को 2% बढ़ाने के लिए पूँजी निर्माण की को 5.5×2.3×2 = 25.3% होना चाहिए। भारत में कुल पूँजी निर्माण 1951 मे 10.2% से बढ़कर 1989-90 में 24.1% हो गया। यह वृद्धि मृत्यु वृद्धि के कारण ऊँची प्रति होती है। वास्तविक पूँजी निर्माण की गति अत्यंत कम हैं।

3. खाद्य समस्या :- जनसंख्या वृद्धि से खा्य की समस्या उत्पन्न होती है। 1951-81 के बीच प्रतिव्यक्ति कृषि क्षेत्र 1.11 कृषि में 44% की कमी हुई। आगामी वर्षो मे जनसंख्या दर बढ़ने से प्रति व्यक्ति भूमि और भी घट जाएगी।

खाद्य उत्पादन को निम्नलिखित सारणी से स्पष्ट कर सकते हैं

वर्ष

खाद्य उत्पादन

1950-51

508.25

1960-61

820.18

1970-71

1084.22

1980-81

1295.89

1990-91

1278.35

1991-92

1683.75

1992-93

1794.83

1993-94

1892.60

1994-95

1914.95

1995-96

1084.15

1996-97

1993.21

 

इस सारणी से स्पष्ट होता है, कि खाद्य- उत्पादन मे लागातार वृद्धि होती जा रही है। परन्तु जनसंख्या में इससे भी तेजी से वृद्धि हो रही हैं। इसके कारण भारत मे खाद्य समस्या बनी हुई है।

4. बेरोजगारी की समस्या :- जनसंख्या की वृद्धि से बेरोजगारी की समस्या और भी बढ़ जाती हैं। आज जिस गति से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। उस गति से रोजगार के अवसर में वृद्धि नही हो पा रही है। 1980-61 में बेरोजगारी की संख्या 70 लाख थी। एवं अल्प बेरोजगारी की संख्या 180 लाख थी। 1971 मे बेरोजगारी की संख्या बढ़कर 187 लाख तथा 1985 में 207 लाख हो गई. जो कुल श्रम शक्ति का 7.74% है। वर्तमान समय मे बेरोजगारी की संख्या लगभग 5 करोड़ हो गई है। वतर्मन सरकार प्रतिवर्ष 1 करोड़ रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने का आयोजन कर रही है, ऐसी स्थिति में भी अगर यह आयोजन सफल हो जाता है, तब भी बेरोजगारी दूर करने में लगभग 10 वर्ष लग जाएगें ।

5. कृषि भार में वृद्धि :- जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ कृषि पर जनसंख्या का बोझ बढ़ता जा रहा है, जब देश की आबादी 33 करोड़ थी तो 70% लोग कृषि पर निर्भर करते थे, आज जब आबादी 2 अरब हो गई हैं, तो कृषि पर निर्भरता पहले से बढ़ गई है। अतः भूमि का उपविभाजन तथा अपखंडन बढ़ता जा रहा है। प्रतिव्यक्ति कृषि योग्य भूमि 1951 में 0.33 हेक्टेयर थी जो घट कर 1981 में 0.25 हेक्टेयर हो गई। इसके अतिरिक्त कृषि मे छुपी हुई बेरोजगारी की समस्या भी अपनी चरम सीमा पर पहुंच चूंकि हैं।

6. मूल्य स्तर में वृद्धि :- जनसंख्या में वृद्धि होने से वस्तुओं की मांग में वृद्धि होती है लेकिन उत्पादन से उस अनुपात में वृद्धि नहीं हो पाती है। जिसके कारण मूल्य स्तर में तीव्र गति से वृद्धि हो जाती है।

जनसंख्या और आर्थिक विकास (Population and Economic Development)

मूल्य स्तर में यह वृद्धि अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता को जन्म देती है, इस तरह जनसंख्या की वृद्धि मुद्रा स्फीति को प्रोत्साहित करती है।

7. उत्पादन के तकनीक में प्रभाव :- जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण रोजगार के अवसर में वृद्धि करने के लिए श्रम प्रधान तकनीक को अपनाया जाता है। जिससे प्रति ईकाई उत्पादन लागत ऊंची हो जाती है, एवं उत्पादन की गति धीमी हो जाती है, परिणाम स्वरूप आर्थिक विकास की गति अवरूद्ध हो जाती है।

8. शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आवास की समस्या :- बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आवास की व्यवस्था में प्रसार करना पड़ता है. इन मदो पर राष्ट्रीय आय का अधिकांश भाग व्यय हो जाती है. जिससे विकास के लिए कम रकम बच पाता है। जिसके कारण विकास की गति धीमी हो जाती हैं।

9. वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव :- तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या वातावरण को दूषित करती है। उदाहरण के लिए जनसंख्या वृद्धि से भूमि की कमी उत्पन्न होती है और लोग इसे पूरा करने के लिए चारागाहो, पहाड़ों एवं जंगलों को कृषि भूमि में बदलने लगते है. जिससे वातावरण असंतु‌लित होने लगता हैं।

10. अनुत्पादक उपभोक्ताओं का भार :- जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण अनुत्पादक उपभोक्ताओ की संख्या में वृद्धि होती जाती है। अनुत्पादक उपभोक्ताओं का राष्ट्रीय आय में योगदान शून्य होता है। तथा वह दुसरो पर निर्भर होते है। उत्पादन के बीना ही इसके ऊपर राष्ट्रीय आय का एक बड़ा भाग व्यय करना पड़ता है।

जनसंख्या में तीव्र गति के वृद्धि से राष्ट्रीय विकास किस प्रकार अवरुद्ध होता है. इसे चित्र की सहायता से दिखा सकते हैं.

जनसंख्या और आर्थिक विकास (Population and Economic Development)

रेखाचित्र में aN वक्र राष्ट्रीय आय में वृद्धि तथा aP वक्र जनसंख्या वृद्धि को प्रदर्शित करता है, a बिंदु जीवन निर्वाह संतुन बिंदु है। जहां राष्ट्रीय आय एवं जनसंख्या की वृद्धि दर O हो रहा है। यदि प्रतिव्यक्ति आय का स्तर Ye हो तो जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय आय से अधिक होी तथा विकास की दर ऋणात्मक होगी। एवं प्रतिव्यक्ति आय का स्तर Ye से Yc तथा पुनः Yc हो जाएगी। पुनः जनसंख्या की वृद्धि दर ऊंची होगी, राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर से। पुनः आर्थिक विकास की दर ऋणात्मक होगी या प्रतिव्यक्ति आय पुनः जीवन स्तर बिंदु पर संतुलन बिंदु पर पहुंच जाता है, इस प्रकार जनसंख्या की ऊंची वृद्धि दर आर्थिक विकास की दर अवरुद्ध ही नहीं बल्कि ऋणात्मक हो जाती है।

अतः अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास के लिए प्रतिव्यक्ति आय ऊंची होनी आवश्यक है. परतु जनसंख्या में तीव्र वृद्धि न हो अतः आर्थिक विकास के लिए जनसंख्या वृदि पर कठोर नियंत्रण आश्यक है।

जनसंख्या-वृद्धि : आर्थिक विकास में सहायक

जनसंख्या आर्थिक विकास में सहायक है, इस विचार को मानने वालों में प्रो. हैन्सन, एडम स्मिथ, आर्थर लुईस, कोलिन क्लार्क, पेनरोज, हर्षमैन, बुशकीन तथा अल्फ्रेड बोन (Alfred Bonne) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्रो. हेन्सन (Alvin Hansen) के अनुसार, "जनसंख्या-वृद्धि आर्थिक विकास की एक पूर्व-शर्त है।" प्रो. हर्षमैन (A. O. Hirschman) का कहना है कि "जनसंख्या का दबाव आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करता है।" बढ़ती हुई जनसंख्या बाजारों का विस्तार करती है जिससे निवेश-प्रेरणा को बल मिलता है। फलतः उत्पादन तथा रोजगार बढ़ने लगता है। अतः जनसंख्या-वृद्धि किसी देश के आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करती है, इस सम्बन्ध में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं :

(1) श्रम-शक्ति-आपूर्ति का स्रोत (Source of Working Labour Force)- आर्थिक विकास प्राकृतिक साधनों, श्रम-शक्ति, पूँजी तथा तकनीक का फलन है। इनमें से श्रम-शक्ति सबसे महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि विकास प्रक्रिया में वही एकमात्र प्रावैगिक साधन है। साइमन कुजनेट्स (Simon Kuznets) के अनुसार, "अन्य बातें समान रहने पर जनसंख्या की प्रत्येक वृद्धि श्रम-शक्ति को बढ़ाती है।" किसी देश की कार्यकारी श्रम-शक्ति विकास का सबसे महत्वपूर्ण एवं सक्रिय घटक है और इस श्रम-शक्ति की आपूर्ति का स्त्रोत जनसंख्या है। इस प्रकार कार्यकारी श्रम-शक्ति की पूर्ति के स्रोत के रूप में, जनसंख्या-वृद्धि आर्थिक विकास का उत्प्रेरक है और इसका प्रभाव अन्ततः उत्पादन की मात्रा को बढ़ाने का होता है।

(2) बाजारों का विस्तार (Expansion of Markets)- किसी देश की जनसंख्या वृद्धि से श्रम-शक्ति की आपूर्ति होती है। इस दृष्टि से श्रम उत्पादक है किन्तु जनसंख्या वृद्धि से उपभोग भी बढ़ जाता है। जनसंख्या आर्थिक विकास का साधन भी है तो साध्य भी अर्थात् लोग केवल धन के उत्पादक ही नहीं होते बल्कि धन का उपभोग भी करते हैं। पूरकता के इस अर्थ में, जनसंख्या-वृद्धि उपभोक्ताओं के रूप में वस्तुओं के लिए माँग पैदा करती है। इस तरह बाजारों का विस्तार बचतों में वृद्धि पूँजी निवेश में वृद्धि उत्पादन के ढाँचे में विविधता नये उद्योगों को बढ़ावा रोजगार के अवसर में वृद्धि लोगों की आय में वृद्धि अतिरिक्त माँग में वृद्धि उत्पादन व आय में वृद्धि आर्थिक संवृद्धि। इस प्रकार जनसंख्या-वृद्धि वस्तुओं की अतिरिक्त माँग का सृजन करके आर्थिक विकास को बल प्रदान करती है।

(3) उत्पादन में वृद्धि (Increase in Production)- यदि किसी देश की जनसंख्या-वृद्धि 1 प्रतिशत वार्षिक या इससे कम है तो जनसंख्या में यह धीमा प्रतिस्थापन उत्पादन एवं विकास की दृष्टि में सहायक है किन्तु यदि यह प्रतिस्थापन वार्षिक 2 प्रतिशत या इससे अधिक है तो जनसंख्या में यह तीव वृद्धि उत्पादन एवं विकास की दृष्टि में बाधक है। डॉ. ब्राइट सिंह का भी मत है कि "जनसंख्या वृद्धि गहन श्रम-विभाजन तथा व्यापक विशिष्टीकरण को जन्म देती है, पैमाने की बचतों को सम्भव बनाती है जिससे तकनीकी प्रगति तथा संगठनात्मक सुधारों को बढ़ावा मिलता है।"

(4) पूँजी निर्माण का स्रोत (Source of Capital Formation)- रागनर नर्कसे (Ragner Nurkse) का मत है कि अतिरिक्त श्रम-शक्ति एक प्रकार की अदृश्य बचत (Disguised Savings) है और अर्द्ध-बेरोजगारी के रूप में इन अदृश्य सम्भाव्य बचतों को पूँजी निर्माण के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

किसी देश में भौतिक पूँजी का निर्माण मानव-पूँजी के निर्माण पर निर्भर करता है और मानव-पूँजी का निर्माण प्रशिक्षित एवं कुशल श्रम-शक्ति पर निर्भर करता है। अतः जनसंख्या वृद्धि सृजनात्मक मस्तिष्कों का सृजन मानव पूँजी का निर्माण परीक्षित ज्ञान (Tested Knowledge) में वृद्धि आर्थिक संवृद्धि व विकास।

(5) कौशल निर्माण को बढ़ावा (Promotes Skill Formation) - साइमन कुजनेट्स के अनुसार, "आर्थिक उत्पादन की वृद्धि, परीक्षित ज्ञान (Tested Knowledge) के स्टोर का फलन है।" नये ज्ञान की खोज व उसका विकास मानव द्वारा किया जाता है जो स्वयं जनसंख्या का परिणाम है। इस प्रकार वृद्धिशील जनसंख्या, सृजनात्मक मस्तिष्कों का सृजन करती है जिससे कौशल-निर्माण को बल मिलता है, नये ज्ञान का भण्डार बढ़ता है और फलस्वरूप राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ने लगता है।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है, कि देश के आर्थिक विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या है। इस संदर्भ में हमारे पूर्व योजना मंत्री अशोक मेहता ने कहा है। "जनसंख्या मे वृद्धि रात्रि में चोर के समान है जो आर्थिक विकास से प्राप्त हमारी सफलता हमसे लूट ले जाती है।"

भारत में परिवार नियोजन के फलस्वरूप जन्मदर जो 1950 के दशक में 4.17% थी घटकर 1979 में 3.4% तथा 1981-91 में 2.8% वार्षिक हो गया लेकिन भारत में जिस गति से मृत्युदर घट रही है. उस गति से जन्मदर नही घट पाई है। परिणाम स्वरूप भारत मे जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं। यही कारण है कि लगभग 50 वर्षों के फलस्वरूप भी हम विकास नहीं कर पाए हैं।

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